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________________ तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन गन्धर्वक की कथा अयोध्या नगरी से निकलकर मैं त्रिकूट पर्वस्थ विद्याधर राजधानी को ओर चला, जहां मैं प्रदोष समय मे पहुंच गया। राजा विचित्रवीर्य से महारानी पत्रलेखा का संदेश कहा और हरिचन्दन विमान लेकर महारानी गन्धर्वदत्ता के दर्शनार्थ कांची की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में प्रशान्त वैराश्रम के निकट मुझे अत्यन्त तीव्र आक्रन्दन सुनाई दिया। विमान से उतरकर मैंने देखा कि एक वृद्धा स्त्री सहायता के लिए पुकार रही थी और उसके पास ही विषले फल को खा लेने से मलयसुन्दरी अचेत पड़ी थी। मैंने उसे अपने विमान में नलिनीदल से शैय्या रचकर सुलाया और अपने सहचर चित्रमाय को उसकी देखरेख करने तथा साथ ही यदि मैं देववशात् शीघ्र न लौट सकू तो अनुकूल वेश धारण कर राजकुमार हरिवाहन को रथनुपूरचक्रवाल नगर पहुँचाने का आदेश दिया। मैं स्वयं दिव्य औषधि की खोज में दक्षिण दिशा की ओर विमान से चला किन्तु एक शंग पर्वत के समीप मेरा विमान एक यक्ष के द्वारा रोक दिया गया। मेरे बारबार कहने पर भी जब वह मार्ग से नहीं हटा तो मैंने उसे अपशब्द कहे जिससे क्रुद्ध होकर उसने मेरे विमान को इतने वेग से फैका कि वह सीधा अदृष्टभार सरोवर में जा गिरा । उस महोदर नामक यक्ष ने मुझे बताया कि किस प्रकार उसने मलयसुन्दरी और समरकेतु दोनों को समुद्र में डूबने से बचाया था। वह यक्ष भगवान आदिनाथ के मन्दिर की रक्षा हेतु स्वयं भगवती श्री द्वारा नियुक्त किया गया था । मैंने विमान को मन्दिर के शिखराग्र भाग से ले जाकर भगवान महावीर का अपमान किया था । अतः महोदर ने मुझे शुक हो जाने का श्राप दिया और अपनी इसी शुकावस्था में मैंने संदेश-प्रेषण का कार्य किया। गन्धर्वक की इस कथा से सभी विस्मित हो गये। तब मैंने गन्धर्वक से लेकर कमलगुप्त का लेख पढ़ा। उसे पढ़ते ही मैं चित्रमाय को साथ लेकर अपने शिविर की ओर चला । वहां पहुंचने पर ज्ञात हुआ कि समरकेतु मुझे खोजने के लिए ही एक अर्धरात्रि को शिविर से गया था और आज तक लौटकर नहीं आया । कामरूप नरेश के अनुज से भी इतना ही ज्ञात हो सका कि वह घने जंगलों में उत्तर दिशा की ओर गया है । तब मैंने चित्रमाय को पुनः विद्याधर नगर भेज दिया और स्वयं समरकेतु की खोज में लग गया। चित्रमाय से समाचार पाकर तिलकमंजरी ने मेरी सहायतार्थ एक सहस्र विद्याधरों को भेजा। इस प्रकार समरकेतु की खोज में कई दिन व्यतीत हो गये । एक दिन शंखपाणि नामक रत्न कोषाध्यक्ष मेरे पास आया और मेरे पिता मेघवाहन द्वारा प्रेषित चन्द्रातप हार और बालारूण अंगुलीयक प्रदान की।
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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