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________________ तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति 225 था । यशस्तिलक में भी द्वीपान्तरों से व्यापार करने का उल्लेख मिलता है। पद्मिनीखेटपट्टन का निवासी भद्र मित्र अपने समान धन और चरित्र वाले वणिक्पुत्रों के साथ सुवर्णद्वीप व्यापार करने के लिए गया था। सार्थवाह-तिलकमंजरी में सार्थ का दो बार उल्लेख है । रंगशाला नगरी के सीमान्त प्रदेश में पड़ाव डाले हुए द्वीपान्तरों से व्यापार करने वाले धनाड्य व्यापारियों के सार्थों का उल्लेख आया है। ये सार्थ प्रयाण के लिए तैयार थे । इनमें द्वीपान्तरों में जाने योग्य बृहदाकार भाण्डों का संग्रह किया गया था, बलों के आभूषण पर्याणादि सामग्री भृत्यों द्वारा तैयार की गयी थी, नवीन निर्मित तम्बुओं के कोनों में बड़े-बड़े कण्ठाल रखे गये थे प्रांगन में बोरियों के ढेर लगाये गये थे तथा घोड़ों खच्चरों की भीड़ लगी थी। प्रातःकाल के वर्णन में रूपक के द्वारा सार्थ का संकेत दिया गया है। प्रातः काल में प्रस्थान को उद्यत तारामों रूपी सार्थ, जिसमें सबसे आगे मेष तथा उनके पीछे धेनुओं सहित बैल हैं तथा कहीं-कहीं तुलाएं और धनुष दिखाई दे रहे हैं, के चलने से उड़ी हुई धूल से आकाश धूसरित हो गया था । समान धन वाले व्यापारी जब विदेशों से व्यापार करने के लिए टांडा बांधकर चलते थे, सार्थ कहलाते थे, उनका नेता व्यापारी साथवाह कहलाता था । आज भी जहां वैज्ञानिक साधन नहीं पहुंच सके हैं, वहाँ सार्थवाह अपने कारवां वैसे ही चलाते हैं जैसे हजार वर्ष पहले । आज भी तिब्बत के साथ व्यापार सार्थों द्वारा ही होता है। कलान्तर-ब्याज लेकर ऋण देने की विधि का प्रचलन हो चुका था, जिसके लिए कलान्तर शब्द का प्रयोग हुआ है ।। 1. जलकेतुना कस्यापि सांयात्रिकस्य तनया वहनभङ्गे सागरादुद्ध त्य........ -वही, पृ. 129 2. सोमदेव यशस्तिलक, पृ. 345 उद्धृत, गोकुलचन्द्र जैन यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 194 . 3. आगृहीतद्वीपान्तरगामिभूरिभाण्डराभरणपर्याणकादिवृषोपस्करसमास्वन संतत व्यापृत........सार्थः स्थानस्थानेषु कृतावस्थानाम्, -तिलकमंजरी, पृ. 117 4. प्रमुख एव प्रवृत्तमेषस्य........तारकासार्थस्य चरणोत्थापितो रेणुविसर इव.... -तिलकमंजरी, पृ. 150 5. सार्थान् सघनान् सरतो वा पान्थान् वहति सार्थवाहः -अमरकोष 3/9/78 6. मोतीचन्द्र, सार्थवाह, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना 1953, पृ. 29 7. ........इन्दुनापि प्रतिदिनं प्रतिपन्नकलान्तरेण प्रार्थ्यमानमुखकमलकान्तिभिः, -तिलकमंजरी, पृ.१
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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