________________
तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
97
प्रतीत होता है कि धनपाल की इसी उपमा से प्रेरित होकर वेबर ने बाण के गद्य को उस भारतीय जंगल के समान कहा है जिसमें यात्री के लिए अपना रास्ता साफ किये बिना आगे बढ़ना कठिन है, उस पर भी उसे अपरिचित शब्दों रूपी हिंस्र पशुओं से भयभीत होना पड़ता है।
दीर्घ समास व प्रचुर वर्णन के समान ही श्लेष-बहुलता को भी धनपाल ने काव्यास्वादन में बाधक माना है। सुबन्धु तथा बाण दोनों को श्लेष अत्यन्त प्रिय हैं । सुबन्धु की दृष्टि में सत्काव्य वही है जिसमें अलंकारों का चमत्कार श्लेष का प्राचुर्य तथा वक्रोक्ति का सन्निवेश विशेष रूप से रहता है। सुबन्धु ने स्वयं भी अपने प्रबन्ध को प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रपंच विन्यासर्वदग्धनिधि" बनाने की प्रतीज्ञा की थी। सुबन्धु वस्तुतः श्लेष कवि है तथा उन्होंने अपनी सारी प्रतिमा श्लेष से अपने काव्य को चमत्कृत करने में ही लगा दी। सुबन्धु के समान बाण को भी श्लेष अत्यन्त प्रिय है तथा वे भी अपने गद्य को निरन्तरश्लेषघन बनाने में गौरव का अनुभव करते हैं, किन्तु सुबन्धु की अपेक्षा बाण के श्लेष अधिक स्पष्ट है ।
जहां सुबन्धु का आदर्श गद्य 'प्रत्यक्षरश्लेषमय' है तथा बाण का आदर्श गद्य 'निरन्तरश्लेष घन' है । वहीं धनपाल के गद्य का आदर्श 'नातिश्लेषघन' है। अतः धनपाल ने कहा है-सहृदयों के हृदय को हरने वाली तथा सरस पदावली से युक्त काव्याकृति भी अत्यधिक श्लेष युक्त होने पर, स्याही से स्निग्ध अक्षरों वाली किन्तु अक्षरों के अत्यधिक सम्मिश्रण से युक्त लिपि के समान प्रशंसा को प्राप्त नहीं करती है।
धनपाल का गद्य न तो सुबन्धु के गद्य के समान प्रत्यक्षश्लेषमय है और न ही बाण के गद्य के सदृश समासों से लदा हुआ व गाढबन्धता से मण्डित है। धनपाल ने मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने काव्य को समासाढचता व श्लेष बहुलता से विभूषित करने के स्थान पर सुबोध, सरल व यथार्थ का दिग्दर्शन कराने वाली शैली से अलंकृत किया है।
___ गद्य-काय में गद्य एवं पद्य का उचित सन्तुलन भी आवश्यक है, क्योंकि अनवरत गद्य निबद्ध कथा श्रोताओं में निर्वेद को उत्पन्न करती है तथा पद्यबहुल
1. कीथ, ए. बी. : संस्कृत साहित्य का इतिहास, अनुवादक मंगलदेवशास्त्री,
पृ. 326 सुश्लेषवक्रघटनापटु सत्काव्यविरचनमिव,
-सुबन्धु, वासवदत्ता 3. निरन्तरश्लेषघनाः सुजातयो महास्रजश्चम्पककुड्मलैरिव । नवोऽर्थो जातिरग्राम्या श्लेषः स्पष्टः स्फुटो रसः ।।
~~~बाणभट्ट, हर्षचरित 1-18 वर्णयुक्ति दधानापि स्निग्धांजनमनोहराम् । नातिश्लेषघना श्लाघां कृतिलिपिरिवाश्नुते ।। -तिलकमंजरी, पद्य 16