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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
कारियों) के योग से व्यक्त रत्यादि स्थायी भाव को रस कहा है। दशरुपककार धनंजय ने इनमें सात्विक भाव को और जोड़ दिया है, जिसे अन्य शास्त्रियों ने अनुभाव के अन्तर्गत ही माना है। धनंजय के अनुसार विभाव, अनुभाव, सात्विक तथा व्यभिचारि भावों द्वारा चर्वणा के योग्य बनाया गया रत्यादि स्थायिभाव ही रस है।
अतः रस के चार अंग हैं- स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव, तथा व्यभिचारिभाव । इन चारो का आश्रय तथा आलम्बन इन दोनों पक्षे में बांटा जा सकता है। काव्य में जिस पात्र के हृदय में रत्यादि स्थायिभाव व्यंजित होता है, वह पात्र उस भाव का आश्रय होता है । उस पात्र की जो तद्तद् भाव की अ अनुभूति के समय चेष्टाए होती हैं, वे अनुभाव कहलाती है तथा स्थायिभाव में जो क्षणिक भाव उन्मग्न-निमग्न होते है, उन सहकारी कारणों संचारी अथवा व्यभिचारि भाव कहा जाता है । इस प्रकार स्थायिभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव ये आश्रय में रहने वाले हैं । इस आश्रय का स्थायी भाव जिस पात्र-वस्तु के प्रति जागृत होता है. वह आलम्वन कहलाता है तथा उस पात्र या वस्तु की अवस्था चेष्टा या अन्य परिस्थितियां जो आश्रय में उस विशेष भाव को उद्दीप्त करती है, उद्दीपन कहलाती है। ये आलम्बन नथा उद्दीपन दोनो, विभाव कहलाते हैं । रस की प्रक्रिया में आलम्बन -उद्दीपन विभाव बाह्यय कारण हैं, वस्तुतः स्थायिभाव ही रस का आन्तरिक कारण है। यह स्थायिभाव ही रस का बीज है, मूल है । सामाजिक के हृदय में यह प्रसुप्तावस्था में रहता है, काव्य में वर्णित विभावादि अनुकूल सामग्री प्राप्त कर यह अभिव्यक्त हो जाता है तथा हृदय में अपूर्व आनन्द का संचार कर देता है। अतः स्थायिभाव की अभिव्यक्ति ही रस है। ये स्थायिभाव आठ हैं- रति, उत्साह, जुगुप्सा, क्रोध, हास, स्मय, भय तथा शोक । धनंजय नवें स्थायिभाव शम को नाटक में पुष्टि न होने के कारण, नहीं
1. विभावा अनुभावास्तत् कथयन्ते व्यभिचारिणः । व्यक्तः स तैविभावाद्यः स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥
-मम्मट, काव्य प्रकाश. 4/43/28 2. विभावरनुभावैश्च सात्विकर्व्यभिचारिभिः । ___ आनीयमानः स्वाद्यत्वं स्थायी भावो रसः स्मृतः ।।
-धनंजय, दशरूपक, 4/1 3. रत्युत्साहजुगुप्साः क्रोधो हासः स्मयो भयं शोकः ।
-धनंजय, दशरूपक, 4/35