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________________ रसाभिव्याक्त प्रयोजनों में प्रमुख मानी गयी है । 1 अतः मम्मट के अनुसार काव्य-रचना का प्रमुख उद्देश्य तथा फल दोनों ही रस की सिद्धि है । विश्वनाथ ने तो रसात्मक वाक्य को ही काव्य कहा है । 2 आनन्दवर्द्धन ने भी रस, जोकि व्यंग होता है, को काव्य की आत्मा कहा है । भरत मुनि ने बहुत पहले ही काव्य में रस की प्रधानता प्रतिपादित करदी थी - न हि रसादृतेकश्चिदर्थः प्रवर्तते । अतः प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी काव्यशास्त्रियों ने काव्य में रस को प्राणभूत माना है । काव्य में रस की महत्ता के आधार पर काव्यशास्त्रियों का एक भिन्न सम्प्रदाय ही बन गया, जो रस सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है 15 धनपाल ने स्वयं भी रसपूर्ण उक्ति को समस्त मणियों में श्रेष्ठ कहकर काव्य में रस की महत्ता स्थापित की है ।" काव्य के पठन, श्रवण अथवा दर्शन से जिस आनन्द की अनुभूति होती है वही काव्यानन्द रस कहलाता है । यह अनुभूति किन साधनों से होती है ? भरत के अनुसार रस को निष्पत्ति विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारि भावों के संयोग से होती है । अतः विभाव अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव रस के साधन हैं । रस की यह अनुभूति कैसे होती है ? सहृदय सामाजिक के हृदय में भाव रहता है, जिसकी उत्पत्ति लौकिक व्यवहारिक जीवन से होती है लौकिक जीवन के बार-बार के अनुभवों से विभिन्न भाव सामा जिक के हृदय मे संस्कार रूप में परिणत हो जाते हैं । काव्य-श्रवण अथवा दर्शन से सामाजिक के हृदय का यही भाव काव्य वर्णित विभावादि के द्वारा पुष्ट होकर रसरूप में परिणत हो जाता है इस भाव को रसशास्त्री स्थायिभाव कहते हैं । मम्मट ने विभाव. अनुभाव तथा व्यभिचारि आदि ( कारण, कार्य तथा सह 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 133 काव्यं यशसेऽर्थकृते .. सद्यः परनिर्वृत्तये .... 1 1800 वाक्यं रसात्मकं काव्यम् वही, १/२ - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, 1/3 काव्यस्यात्मा स एव अर्थस्तथा चादिकवेः पुरा । क्रौचंद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः ॥ -आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक 1/5 नाट्यशास्त्र, अध्याय 6, उदघ्तः पी.वी. काणे, संस्कृत पोइटिक्स, पृ. 357 काणे पी. वी., संस्कृत पोइटिक्स, पृ. 355 सोक्तिमिव मणितीनाम् .... अधिकमुद्भासमानाम् । तिलकमंजरी, 159 पृ. उक्तं हि भरतेन - विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । — मम्मट, काव्यप्रकाश, चतुर्थ उल्लास, पृ. 100
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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