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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
धनपाल की रचनाओं से प्राप्त इन सूचनाओं के अतिरिक्त प्रभाचन्द्रसूरिक्त प्रभावकचरितगत (वि. सं. 1334) महेन्द्रसूरिप्रबन्ध, मेरुतुंग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि (वि. सं. 1361), संघतिलकसूरिकृत सम्यकत्वसपृतिटीका (वि. सं. 1422), रत्नमंदिरगणिकृत भोजप्रबन्ध (वि. सं. 1517), इन्द्रहंसगणि कुत उपदेशकल्पवल्ली (वि. सं. 1555), हेमविजयगणि कृत कथारत्नाकार (वि. सं. 1657), जिनलाभसूरि कृत आत्मप्रबोध (वि. सं. 1804), विजयलक्ष्मीसूरि कृत उपदेशप्रसादादि (वि. सं. 1843) जैन ग्रन्थों से हमें धनपाल के जीवन से सम्बन्धित विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। वस्तुतः प्रभावकचरित तथा प्रबन्धचिन्तामणि, ये दोनों जैन प्रबन्ध धनपाल के जीवन-चरित पर विशेष प्रकाश डालते हैं, शेष सभी ग्रन्थों में इन्हीं का अनुकरण किया गया है। अतः हमारा अध्ययन प्रमुखतः इन्हीं ग्रन्थों पर आधारित है ।
. प्रभावकचरित का रचनाकाल धनपाल के समय से लगभग 300 वर्ष पश्चात् का है, अत: इसमें ऐतिहासिक तथ्यों का दन्त कथाओं के साथ मिश्रित होना स्वाभाविक है।
धनपाल के पूर्वज मूलतः मध्यदेश के सांकाश्य नगर के निवासी थे, किन्तु आजीविका हेतु धारा नगरी में आकर बस गये थे। धनपाल के पितामह देवर्षि अत्यन्त दानी व पुण्यात्मा थे, उन्हें राजा से दक्षिणा के रूप में प्रचुर धन प्राप्त होता था। ये काश्यपगोत्रीय श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुए थे तथा अंगों सहित चारों वेदों में पारंगत थे। धनपाल के पिता सर्वदेव स्वयं वेद-वेदांगों तथा शास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान् तथा काव्य निर्माता थे। सर्वदेव के दो पुत्र रत्न उत्पन्न हुए, ज्येष्ठ धनपाल तथा कनिष्ठ शोभन । शोभन प्रकृति से सरल और पितृभक्त था । धनपाल ने वेद, स्मृतियों तथा श्रुतियों का गहन अध्ययन किया था । इन्होंने अपनी विद्वता से भोज की सभा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया था । धनपाल मुंजराज के पुत्र समान थे तथा भोज के बाल मित्र थे। ये वैदिक
1. कापड़िया, हीरालाल रसिकदास; प्रस्तावना-ऋषभपंचाशिका अने वीर
स्तुतियुगलरूप कृतिक्लाप, देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रन्यांक
81, 1933 2. प्रभाचन्द्र, प्रभावकचरित-श्री महेन्द्रसूरि चरित-पृ. 138-151 3. मेख्तुंग, प्रबन्ध चिन्तामणि, भोज-भीम प्रबन्ध, पृ, 36-42 4. "प्रभावकचरित, पृ. 138-139
अभ्यस्तसमस्तविद्यास्थानेन धनपालेन श्रीभोजप्रसादसम्प्राप्तसमस्तपण्डित प्रष्ठप्रतिष्ठेन......।
-मेरुतुंग, प्रबन्ध चिंतामणि, पृ. 36 प्रभावकचरित, पृ. 139