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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
धर्म के अनुयायी और कट्टर ब्राह्मण थे, किन्तु बाद में अपने अनुज शोभन से प्रभावित होकर उन्होंने जैन-धर्म स्वीकार कर लिया था। इनके द्वारा जैन धर्म स्वीकार करने की कथा प्रभावकचरित में निम्न प्रकार दी गयी है-'धनपाल के पिता सर्वदेव चान्द्रगच्छ के महेन्द्रसूरि की प्रसिद्धि सुनकर उनके उपाश्रय में गये । सूरि के पूछने पर सर्वदेव ने कहा कि मेरे पिता देवर्षि राजमान्य थे तथा उन्होंने लाखों की दक्षिणा प्राप्त की थी, अतः मुझे अपने घर में गुप्त धन प्राप्त होने की आशा है। दूरदर्शी सूरि ने ज्ञात कर लिया कि सर्वदेव से उन्हें उत्तम शिष्य का लाभ हो सकता है । अतः उन्होंने आधा धन लेने का वचन ले लिया। शुभ दिन में मुनि के कथनानुसार भू-खनन से सर्वदेव को 40 लाख स्वर्ण मुद्रायें प्राप्त हुयीं, किन्तु धन के प्रति निःस्पृह सूरि अपने उपाश्रय में चले गये । सर्वदेव द्वारा पुनः पुनः आग्रह करने पर मुनि ने पुत्रद्वय में से एक पुत्र के शिष्य के रूप में प्रदान करने को कहा। इस पर प्रतिज्ञाबद्ध सर्वदेव किंकर्तव्यविमूढ़ से घर लौट आये तथा धनपाल को महेन्द्र सूरि का शिष्यत्व ग्रहण कर उनको इस ऋण से मुक्त करने के लिए कहा। यह सुनकर स्वाभिमानी धनपाल ने अत्यन्त क्रोध से कहा-'हम चारों वेदों के ज्ञाता तथा सांकाश्य के रहने वाले उत्तम ब्रह्मण हैं। श्री मुंजराज का मैं पुत्र सदृश तथा श्री भोजराज का बाल-मित्र हूँ । अतः पतित शूद्रों के समान श्वेत साधुओं से दीक्षा लेकर अपने पूर्वजों को नरक में नहीं डालूंगा तथा सज्जनों द्वारा निन्दित यह व्यवहार नहीं करूंगा।' इस प्रकार धनपाल द्वारा प्रताड़ित सर्वदेव अत्यन्त निराश हो गया किन्तु उसी समय शोभन ने उसे आकर आश्वस्त किया। उसने कहा कि धनपाल राजपूज्य है तथा कुटुम्ब का पालन करने में सक्षम है । बह वेद, स्मृति, श्रुति में पारंगत तथा पण्डितों में अग्रगण्य है। तब शोभन ने श्री महेन्द्रसूरि से जैन धर्म में दीक्षा लेना स्वीकार कर लिया। शुभ मुहूर्त में सूरि द्वारा शोभन को दीक्षित किया तथा वे उसे अपने साथ अणहिल्लपुर ले गये।
धनपाल पिता के इस कृत्य से रुष्ट होकर उससे अलग हो गया तथा राजा भोज की आज्ञा से द्वादश वर्ष पर्यन्त मालवा में श्वेताम्बर साधुओं के आवागमन पर रोक लगवा दी। अपने भ्राता के इस द्वेष को देखकर शोभन ने धनपाल का प्रतिबोधन करने का निश्चय किया तथा दो मुनियों को उसके घर गोचरी के लिए भेजा। उन्होंने धनपाल के घर जाकर धर्मलाभ कहा तो धनपाल की पत्नी ने उन्हें उषितान्न तथा तीन दिन का दही दिया। उनके यह पूछने पर कि यह दही कितने दिन का है, उसने क्रोध से कहा कि इसमें कीड़े हैं ? तब उन जैन साधुओं ने उसमें अलक्तक रस डालकर दही में तैरते कीड़े दिखाये । जैन धर्म में जीव-रक्षा की प्रधानता व जीवोत्पत्ति विषयक ज्ञान का वैशिष्ट्य जानकर धनपाल