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तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन
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तदनन्तर बन्धुसुन्दरी के साथ में पुन: अपने निवास स्थान में आ गई। बन्धुसुन्दरी ने विद्याधरों द्वारा मेरे अपहरण से लेकर मेरा समस्त वृतान्त मेरी माता गन्धवंदत्ता से कहा, जिसने पुन: मेरे पिता से कहा । मेरे पिता कुसुमशेखर ने एक योजना बनाई, जिसके अनुसार मुझे वृद्धा दासी तरंगलेखा के साथ कुलपति शांतातप के आश्रम में उसी रात भेज दिया गया। वहां मैं एक तपस्वी कन्या के रूप में रहने लगी।
एक दिन कांची से आये एक ब्राह्मण के मुख से मैंने युद्ध का वर्णन सुना, जिसमें शत्रु पक्ष ने स्वपक्ष के सभी वीरों को अज्ञात कारण से दीर्घ निद्रा में सुला दिया था । यह सुनते ही मैं अचेत हो गई । संज्ञा आने पर, मैं आत्महत्या के विचार से समुद्र की ओर चली, किन्तु तरंगलेखा द्वारा देख लिये जाने पर मैंने पार्श्वस्थित किंपाक वृक्ष का विषेला फल खा लिया, जिसे खाते ही मैं मूछित हो गई । मूर्छा टूटने पर मैंने अपने आपको समुद्र में बहते हुए दारु भवन में नलिनी-पत्र की शैय्या पर सोते हुए पाया। प्रिय-वियोग से दुःखी होकर मैंने पुनः मरने का निश्चय किया, किन्तु तभी मेरी दृष्टि ताड़पत्र पर लिखे एक पत्र पर पड़ी। यह पत्र समरकेतु का था, जिसमें उसने अपनी कुशलता का समाचार दिया था और मेरे साथ व्यतीत किये गये सुखमय क्षणों का स्मरण किया था। वह लेख पढ़कर मैं आनन्द मग्न हो गई तथा दारु-भवन से उतर कर उस दिव्य सरोवर में स्नान किया और वृक्ष के नीचे बैठ गई। उसी समय पुष्प चयन करती हुई चित्रलेखा
आ पहुंची, जिसने देखते ही मुझे पहचान लिया। चित्रलेखा ने मेरा परिचय विद्याधर नरेश चक्रसेन की महिषी पत्रलेखा को दिया और मेरी माता गन्धर्वदत्ता के विषय में बताया, कि किस प्रकार दस वर्ष की अवस्था में शत्रु सामन्त अजित शत्रु द्वारा वैजयन्ती नगर में लूटपाट मचाने पर मेरी माता गन्धर्वदत्ता को कुलपति के आश्रम में पहुंचा दिया गया तथा उनका कांची नरेश कुसुमशेखर के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। पत्रलेखा ने मेरे विषय में जानकर अत्यन्त आत्मीयता से मेरा आलिंगन किया। तत्पश्चात् विद्याघरों से घिरी मैं इस जिनायतन में आई । पत्रलेखा ने मुझे अपने निवास स्थान चलने का आग्रह किया किन्तु मैंने उस अवस्था में मुनि-व्रत पालन करना ही उचित समझा तथा वहीं अदृष्टपार सरोवर के समीपस्थ भगवान महावीर की पूजा करते हुए एक त्रिभूमिक मठ की मध्य भूमिका में निवास करने लगी।
यही मलयसुन्दरी की कथा, जो उसने हरिवाहन को सुनाई, समाप्त होती है।
. पुनः हरिवाहन द्वारा वर्णित कथा, जो वह समरकेतु को सुनाता है, प्रारम्भ होती है । हरिवाहन कहता है-“मैंने मलयसुन्दरी की कथा सुनकर उसे