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________________ तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन विकाव्येषु यतिभ्रंशदर्शनम्, उदधोनामपवृद्धिः निधुवनक्रीडासुतर्जन ताडनानि, द्विजातिक्रियाणां शाखोद्धरणम्, बौद्धानुपलब्धेरसद्भवहारप्रवर्तकत्वम्, प्रतिप्रक्षक्षयोघत मुनिकयासु गुणानामुपसर्जन मावोबभूव | 1 इस प्रकार इलेष पर आधारित परिसंख्या की श्रृंखलाओं की रचना धनपाल को अत्यन्त प्रिय थी । अयोध्या की कुलवधुओं के वर्णन में भी इस अलंकार का प्रयोग किया गया है - अलसामिनितम्ब भारवहने तुच्छाभिरूदरे तरलाभिश्चक्षुषि कुटिला मिभ्रुवोरतृप्ता मिरंगशोभायामुद्धतामिस्तारूण्ये कृतकुसंगाभिश्च रणोयोर्न स्वभावे | 2 अर्थापत्ति जहां दण्ड- पूपिका न्याय से एक अर्थ की सिद्धि के साथ उसी की सामर्थ्य से दूसरा अर्थ भी सिद्ध हो जाये वहां अर्थापत्ति अलंकार होता है । इसका उदाहरण कुलवधुओं के इस वर्णव में मिलता है - वे शालीनता तथा सुकुमारता के कारण कुचकुम्भों के भार से भी पीड़ित होती थीं, मणिभूषणों के कोलाहल से भी व्यथित होती थी, धृष्टता के कारण सम्भोग में भी अरूचि दर्शित करती थी तथा स्वप्न में भी द्वार की देहरी नहीं लांघती थी । ± 131 यहां जब स्तनकलशों के भार से पीडित होती थी इस अर्थ से 'तो अन्य किसी वस्तु का भार उठाने में कैसे समर्थ होगी' इससे अर्थान्तर का बोध होता है, इसी प्रकार जब स्वप्न में देहरी नहीं लांघती 'तो जाग्रतावस्था में कैसे लांघेगी' इससे अर्थान्तर का बोध होता है अतः यहां अर्थापत्ति अलंकार है । इसी प्रकार वारवधूओं के लिए भी कहा गया है 15 काव्यलिंग जहां हेतुका कथन वाक्यार्थ अथवा पदार्थ रूप से किया जाय, वहां काव्यलिंग अलंकार होता है ।" 1. 2. 3. 4. 5. 6. तिलकमंजरी, पृ. 15 वही, पृ. 9 दण्डपूपिकथार्थान्तरापतनमर्थापत्तिः । - रूय्यक - अलंकारसर्वस्व शालीनतया सुकुमारतया च कुचकुम्भयोरपि कदर्थ्यमानामिरुद्धत्या मणिभूषणानामपि खिद्यमानाभिर्मु खरतया रतेष्वपि ताम्यन्तीभिर्वैयात्यपरिग्रहेण स्वप्नेऽप्यलघयन्तीमिर्द्धारतोरणम् - तिलकमंजरी, पृ. 9 तिलकमंजरी, पृ. 10 काव्यलिंगं हेतोर्वाक्यपदार्थता । -मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/173
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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