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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
में,
लगने के कारण मानों रोमांचित होकर वक्षःस्थल कांपने लगा । तब मैं लज्जा तथा अनुराग से अभिभूत होकर 'समुद्री हवा ठंडी है' कहकर बार-बार सीत्कार करने लगी- मैं कौन हूँ, कहां हूँ — यह सब भूलती हुयी, शब्द को भी नहीं सुनती हुयी, स्पर्श को भी न जानती हुयी, गन्ध को भी नहीं सूंघती हुई, केवल उसके रूप को ही देखने उसी के अवयव सौन्दर्य का वर्णन करने में, उसके यौवन की भव्यता का भावन करती हुयी तथा उसके विभ्रम क्रमों में निलीन-चित्त होती हुई, दूर स्थित भी असाधारण प्रेम से द्रवीभूत उठाकर उसके पास ले जायी जाती हुई सी, उसके बाहुपाश में बंधी हुई -- अंगों के निष्पन्द हो जाने पर तथा समस्त शरीर पर आनन्द जल की बूंद छा जाने पर न जाने विकास के कारण फैली हुई, स्तब्ध अथवा चंचल तारिकाओं वाली मुग्ध अथवा प्रात्भ, कुटिल अथवा सरल न जाने कैसी दृष्टि से उसे देखने लगी | 2
किसी के द्वारा
-- समस्त
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यहां समरकेतु का यौवन तथा उसका सौन्दर्य, उसके हाव-भाव, समुद्री वायु आदि उद्दीपन विभाव हैं। स्वेद, रोमांच, वेपथु, स्तम्भ, सीत्कार, चंचल कटाक्षादि अनुभाव हैं तथा लज्जा, श्रम, जड़ता, आलस्य, औत्सुक्यादि संचारी भाव हैं ।
इसी प्रकार समरकेतु ने मलयसुन्दरी को देखा, इस वर्णन में मलयसुन्दरी आलम्बन विभाव है -- वह राजकुमार भी, सागर के समान धीर प्रकृति का होते हुए भी तरंगों के समान इधर-उधर तरल तथा कुटिल कटाक्षपात करने लगा । समुद्री हवा के न लगने पर भी उसका समस्त शरीर पुलकित होकर कांपने लगा । बहुत देर पहले निद्रा त्याग देने पर भी सद्योजाग्रत के समान अंगडाई लेते हुए जम्भाई लेने लगा । प्रागल्भवक्ता होते हुए भी कर्णधारों को गदगद
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इति चिन्तयन्त्या एव मे साम्यसूयः स्वरूपमापिष्कतुं मिव हृदयम विशद्गृहीत शृंगारो मकरकेतुः । तदनुमार्गप्रविष्टरचितरण लाक्षारसलांछितेष्विव प्रससार सर्वागेषु रागः । वीतरागदेवतामारसंनिधो विरुद्ध - रोमांचजालकमुच्चममुचत्कुचस्थली । - तिलकमंजरी पृ. 277 ततोऽहं लज्जयानुरागेण च युकपदास्कन्दिता शीतलो जलधिवेलानिल; इति विमुक्त सीत्कारा- काहम् क्वागता, क्व स्थिता - इत्यजात - स्मृतिरशृण्वती शब्दमचेतयन्ती स्पर्शमनुपजिघ्रन्ती गन्धम् केवलं तस्येव रूपलेखावलोकनेकिं विकाशोत्तानया किंस्तिमितिया किं तरलतारकया कि प्रांजलया, तत्कालमहमपि न जानामि कीदृश्या दृशा तमद्राक्षम् ।
- तिलकमंजरी, पृ. 278