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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
होता है । शिलालेखों से भी इसकी पुष्टि होती है । खोट्टिग का एक शिलालेख शक सं. 893 अर्थात् ई. स. 971 का प्राप्त हुआ है तथा उसके उत्तराधिकारी कर्कराज का एक ताम्रपत्र शक सं. 894 अर्थात् ई. स. 972 का मिला है। अतः खोट्टिग सीयक के साथ युद्ध करते हुए ई. स. 972 से पूर्व मारा गया। सीयक ने मालवा पर ई. स. 949-972 तक राज्य किया तथा इनकी राजधानी धारा नगरी थी। अतः यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि धनपाल ने अपना साहित्यिक जीवन सीयक के शासनकाल में प्रारम्भ किया तथा सीयक ही उसका प्रथम आश्रयदाता था। इसी सीयक अपरनाम श्री हर्षदेव की प्रशंसा करते हुए धनपाल तिलकमंजरी में लिखता है कि पंचेषु के समान श्रीसीयक के पौरूषगुण रूप सायकं किसके हृदय में नहीं लगे।
पाइयलच्छीनाममाला धनपाल की प्रथम रचना प्रतीत होती है । इसके मंगलाचरण में धनपाल ने ब्रह्मा को नमस्कार किया है। अपनी अन्य सभी रचनाओं में धनपाल ने 'जिन' का स्मरण किया है। अतः पाइयलच्छी की रचना तक धनपाल ने जैन धर्म अंगीकार नहीं किया था।
धनपाल के काल की प्रारम्भिक सीमा तिलकमंजरी की प्रस्तावना की सहायता से निर्धारित की जा सकती है। संस्कृत गद्य-कवियों की परम्परा का अनुसरण करते हुए धनपाल ने तिलकमंजरी में अपने पूर्ववर्ती कवियों एवं उनकी
1. तस्माद् अभूद् अरिनरेश्वरसंघपेवनागर्जद्गजेन्द्रखसुन्दरतूर्यनादः ।
श्रीहर्षदेव इति खोट्टिगदेवलक्ष्मी जग्राह यो युधि नगादसमप्रतापः ॥ Buhler, G :"Udepur Pra sasti of che Kings of Malva”,
Epigraphia Indica Vol. I, p. 237. 2. Epigraphia Indica, Vol. XII, p. 263. 3. Ganguli, D. C. : History of Paramara Dynasty, p. 37, 44
Dacca, 1933. तत्राभूद् वसतिः श्रियामपरया श्रीहर्ष इत्यारुपया, विख्यातश्चतुरम्बराशिरसनादाम्नः प्रशास्ता भुवः । भूपः खवितरिगर्वगरिमा श्रीसीयकः सायकाः पंचेषोरिवयस्य पौरुषगुणा: केषां न लग्ना हृदि ।
-तिलकमंजरी-प्रस्तावना, पद्य 41 5. नमिऊण परमपुरिसं पुरिसुत्तमनाभिसंभवं देवं । वुच्छं 'पाइयलच्छि' त्तिनाममालं निसामेह ।। 1॥
.. -पाइयलच्छीनाममाला, गाथा 1