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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
अपने गुरु से ऋषभदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी। उसी ऋषभदेव की स्तुति में उसने 'जय जंतु कप्प' यह पंचशतगाथामय स्तुति की रचना की।
धनपाल ने विभिन्न जैन तीर्थों का भ्रमण किया था इसका निर्देश उन्होंने अपनी रचना 'सत्यपुरीय-महावीर-उत्साह' में दिया है । वे कहते हैं
कोरिट, सिरिमाल, धार, आहाडु नराणड अणहिलवाडडं, विजयकोट्ट पुण पालित्ताणं । पिक्खिबि ताव बहुत्त ठाममणि चो छ पइसर
जं अज्जवि सच्चाउरिवीरू लोहणिहि न दोसइ । अर्थात् उन्होंने कोरटंक, श्रीमालदेश, धार, आहाड़, नराणा, अणहिलवाड़, पाटण, विजयकोट्ट तथा पालिताणा आदि जैन तीर्थों की यात्रा की थी।
इस प्रकार हमें धनपाल की रचनाओं तथा परवर्ती जैन प्रबन्धों से उसके जीवन के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
धनपाल का समय सौभाग्यवश धनपाल उन संस्कृत कवियों में है, जिनके समय के विषय में अधिक मतभेद नहीं है। इसका कारण यह है कि उन्होंने स्वयं अपने प्राकृत कोष पाइयलच्छीनाममाला के अन्त में उसके रचनाकाल का स्पष्ट निर्देश किया है । पाइयलच्छी के अन्त में उसने लिखा है-'विक्रम के 1029 वर्ष बीत जाने पर जब मालवनरेश ने मान्यखेट पर आक्रमण करके उसे लूटा, उस समय धारानगरी में निवास करने वाले कवि धनपाल ने अपनी कनिष्ठ भगिनी सुन्दरी के लिए इस कोष की रचना की।
इस उद्धरण में जिस मालवनरेश का उल्लेख किया गया है, वह परमार नरेश सीयक है, इसकी पुष्टि ऐतिहासिक प्रमाणों से होती है। जिस समय का उल्लेख किया गया है, उस समय मान्यखेट पर राष्ट्रकूट खोट्टिग राज्य करता था। उदेपुर प्रशस्ति में सीयक द्वारा खोट्टिग को हराये जाने का विवरण प्राप्त
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प्रभावकचरित, पद्य 191-193, पृ. 145 विक्कमकालस्स गए अउणत्तीसुत्तरे सहस्सम्मि । मालवनरिंदधाडीए लूडिए मन्नखेडम्मि ।। 276 ।। धारानयरीए परिठ्ठिएण मग्गे ठिाए अणवज्जे । कज्जे कणि?बहिणीए 'सुन्दरी' नामधिज्जाए ।। 277 ।।। -धनपाल, पाइयलच्छीनाममाला, (सं) बेचरदास जीवराज
दोशी, बम्बई, 1960 Bombay Gazette, Part II, p. 422
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