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________________ 206 तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन वेलावित्तक, देवज्ञ, सांवत्सर भी इसी के लिए प्रयुक्त हुआ है । देवलक मन्दिर में पूजा करने वाले ब्राह्मण को कहा जाता था ।। धनपाल ने ब्राह्मणों को भीरू कहा है। ग्रामीणों के प्रसंग में स्वरक्षा में अत्यधिक संलग्न व्यक्ति को ब्राह्मण्य प्रकट करने वाला बताया गया है ।' धनपाल के समय में द्विजों में मद्य-पान का प्रचलन नहीं था, अतः मदिरा के स्वाद-सौन्दर्य का वर्णन द्विज के लिए कर्णोत्पीड़क कहा गया है। समुद्र वर्णन में भी द्विज तथा मदिरा परस्पर विरोधी बताए गये हैं। इसके विपरीत यशस्तिलक में श्रोतियों को मादक द्रव्यों का उपयोग करते हुए बताया गया है। इससे ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में मदिरा का प्रचलन हो गया था किन्तु उत्तर भारत में इसका प्रचलन नहीं हुआ था। भत्रिय _ तिलकमंजरी में क्षत्रिय के लिए क्षत्र तथा क्षत्रिय ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं। मेघवाहन को क्षत्रियों में अलंकार स्वरूप कहा गया है । क्षात्र तेज का उल्लेख किया गया है। शौर्य, तेज, धैर्य, युद्ध में दक्षता तथा अपलायन, दान एवं ऐश्वर्य, ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण कहे गये हैं।' वैश्य वैश्य के लिए तिलकमंजरी में नंगम तथा वणिक शब्दों का व्यवहार हुआ है। वणिक का व्यवहार जनता के साथ अधिक मधुर नहीं था अतः वणिक के 1. वही, पृ. 67, 321 2. दूरीकृतात्महननैरात्मनोऽविडम्बनाय ब्राह्मण्यमाविष्कुर्वद्भिः, -वही, पृ. 119 3. किमनेन कर्णोद्वेगजनकेन द्विजस्येव मदिरास्वादसौन्दर्यकथनेन भक्ष्येतरवस्तुतस्वप्रकाशनेन ........... -वही, पृ. 51 कुलमंदिरं मदिराया द्विजराजस्य च, -वही, पृ. 122 5. अशुचिनि मदनद्रव्यनिपात्यते श्रोत्रियो यद्वत्, सोमदेव, उद्धृत : गोकुलचन्द्र जैन यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 60 6. तिलकमंजरी, पृ, 27, 30, 44, 51, 89 7. अलंकारः क्षत्रियकुलस्य........ -वही, पृ. 44 8. प्रक्रमप्रकटितक्षात्रतेजसा........ -वही, पृ. 30 9. तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 1, पृ. 98
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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