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________________ 102 तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन (3) स वारण: श्रान्त इव सुप्त इव, कोलितश्च, गलितचैतन्य इव, -q. 186 लिखित इव -q. 90 क्षणमात्रमभवत् । (4) अतिवेगव्यापृतोऽस्य तत्र क्षणे प्रोत इव तूणीमुखेषु, मौर्व्याम्, उत्कीर्ण इव पुंखेषु, अवतंसित इव श्रवणान्ते (5) क्षणं बाहुशिरसि, क्षणं कृपाणधाराम्मसि, क्षणमातपत्रे, क्षणं मदाध्वजेषु, क्षणं चामरेष्कुरुतः । g. 91 हरिवाहन द्वारा वर्णित समस्त वृत्तान्त सुनकर समरकेतु की जो मनोदशा हुयी, उसका धनपाल ने अत्यन्त स्वाभाविक चित्र इसी शैली में खींचा है- स तुन कां चिदेक्षत्, न किचिदाभाषत्, न कस्यचिद्वचनमशृणोत् न कस्यचित् प्रतिवचः प्रायच्छत् । केवलं वंचित इव, छलित इव, मुषित इव केनाऽय्यावेशित इव ... - पृ. 420 कोमल पदों की योजना इस शैली की विशिष्टता है । यथा - मुहुर्घा - वित्वा दुकूलांचले धार्यमाण, मुहुः प्रसायं भुजलते पृष्ठतः परिरम्यमाणं, मुहुर्निपत्य पादयोः प्रसाधमानं - पृ. 397 -- चूर्ण - धनपाल ने तिलकमंजरी में प्रायेण इसी शैली का प्रयोग किया है । एक दृष्टान्त प्रस्तुत है - कुरूत हरिचन्दनोपलेपहारि मन्दिराङ्गणम्, रचयत स्थानस्थानेषु रत्नचूर्णस्वस्तिकान् दत्त द्वारि नूतनं चूतपल्लवदाम - पू. 77 उत्कलिकाप्राय - तिलकमंजरी में जहां भी वर्णन तत्व की प्रधानता है, यथा अयोध्या - वर्णन, मेघवाहन-वर्णन, युद्ध वर्णन, वेताल-वर्णन, कामरूप - देश वर्णन, अटवी - वर्णन, अदृष्ट सरोवर-वर्णन, आराम वर्णन, आयतन वर्णन, वैताढ्य वर्णन आदि स्थलों पर इस शैली का प्रचुरता से उपयोग किया गया है । धनपाल की यह विशिष्टता है कि वर्णन स्थल पर भी इस शैली के बीच-बीच में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग करते हैं, तथा निरन्तर अधिक लम्बे-लम्बे समासों से वर्णन को झिल नहीं बनाते | युद्ध जैसे विकट प्रसंग में भी यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है । 1 उदाहारणार्थ - परस्परवधनिबद्धक क्षयोश्च प्रसृतरमसोत्तालगजदानवारिगर्त त्रिदशदारिकान्विष्यमाणरमणसार्थो निपीतनखशा विस्वरविसारिशिवा फेत्कारडामर : सतारका वर्ष इव वेतालदृष्टिमि: सोल्कापात इव निशितप्रासवृष्टिभिः सनिर्घातपात इव गदाप्रहारैः वर्णन शैली - धनपाल जब अथवा किसी विशिष्ट स्थान का चित्र लम्बे वाक्य में उसके प्रमुख स्वरूप का येन यस्मिन् आदि सर्वनामों से प्रारम्भ होने वाले वाक्यों द्वारा उसके स्वरूप का "q. 87 किसी विशिष्ट व्यक्ति का वर्णन करते हैं प्रस्तुत करते हैं, तो प्राय: पहले वे एक प्रतिपादन करते हैं, तत्पश्चात् य:, यम्, 1. तिलकमंलरी, पृ. 82-93
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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