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तिलकमंजरी साहित्यिक अध्ययन
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(3) जिसमें उपमेय पर अन्य का आरोप, अवश्यापेक्षणीय अन्य अर्थ के आरोप का कारण होता है वहां परम्परित रूपक होता है। विद्याधर मुनि के वर्णन में परम्परित रूपक का उदाहरण प्राप्त होता है
"वह विद्याधर मुनि इन्द्रियवृत्ति रूपी स्त्रियों को परपुरुषदर्शन से बचाने वाला कंचुकी, साधुरूपी मयूरों के लिए पृथ्वी के ताप को हरने वाला मेघों का आगमन, काम-विकार रूपी सों के लिए तीव्र विष को हरने वाला महामन्त्र तथा हृदयरूपी जलाशयों के लिए काशपुष्प की शुभ्रता से सुशोभित अगस्त्य नक्षत्र का उदय था।"
यहां इन्द्रियवृत्ति में वनिता रूपक मानने पर ही विद्याधर मुनि से अन्तःपुररक्षक का अभेद स्थापित किया जा सकता है । इसी प्रकार अन्य रूपक भी बनते हैं, अतः यह माला रूप परम्परित रूपक का उदाहरण है। ससन्देह
अत्यधिक सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान रूप से संशय करने पर संदेह नामक अलंकार होता है। वह शुद्ध, निश्चय, गर्म तथा निश्चयान्त रूप से तीन प्रकार का होता है । शुद्ध सन्देह के दो उदाहरण प्रस्तुत हैं
(1) शुद्ध सन्देह में संशय बना ही रहता है। इसका उदाहरण तिलकमंजरी को देखकर हरिवाहन की इस उक्ति में मिलता है- "क्या यह राहु के ग्रस लेने से गिरी हुयी चन्द्रमा की शोभा है, अथवा मन्थन से चकित समुद्र से निकली अमृत की देवी है अथवा यह शिव की नेत्राग्नि से भस्मीभूत कामदेव रूपी वृक्ष से उत्पन्न नवीन कन्दली है। इसमें सन्देह का निवारण न होने से शुद्ध सन्देह है।
1. मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/144 2. परपुरुषदर्शनसावधानं सोविदल्लभिन्द्रियवृत्तिवनितानाम्, भूतापद्रुहसम्बुधरागमं साधुमयूराणाम्, दुर्विषहतेजसं महामन्त्रमनंगविकाराशीविषाणाम् ।
__ - तिलकमंजरी पृ० 25 ससन्देवस्तु भेदोक्तो तदनुक्ती च संशय -मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/137 4. रुय्यक, अलंकारसर्वस्व, जयरथ की टीका, पृ० 43, काव्यमाला, 1893
ग्रहकवलाद् भ्रष्टा लक्ष्मीः किमृक्षपतेरियं, मथनचकितापक्रान्ताऽस्तामृतदेवता। गिरिशनयनोदचिर्दग्धान्मनोभवफादपाद्, विदितमथवा जाता सुभूरियं नवकन्दली ॥ -तिलकमंजरी, पृ० 248