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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
5 हास्य
हास्य रस का स्थायिभाव हास है। मेघवाहन तथा लक्ष्मी के संवाद में हास्य का पुट दिया गया है। इसी प्रकार कमलगुप्त की मंजीर के प्रति इस उक्ति में हास्य रस की अभिव्यंजना हुयी है, जिसे सुनकर सभी राजपुत्र हंसने लगे-शोच्यः पुनरसो पापकर्मा कर्मचण्डालः प्रकृतिदुष्टात्मा विशिष्टामास: सकलचौरग्रामणीरग्राहयनामा मंजीरो येन मारिणेव मूषिकामिषमुपसृत्य निमृतमत्रयदि वा किमनेन किलष्फलया नरेन्द्रसेवयैव शासितेन मूयः कथितेन क्रपणेनेति कृपामनुरुद्धयमानों न निष्ठूरं व्यवहरति-यद्विप्रयोगसंभावनया स्वशरीरभूतस्य सुहृदो हृदयदाह ईदृशो युवराजस्य इत्युक्तवति तस्मिन्सकलोऽपि परिहासालापरंजित :-पृ. 112-113
हास्य का एक सुन्दर उदाहरण ग्रामीणों के प्रसंग में मिलता है- वे ग्रामीण हथिनी पर बैठी हुयी वेश्याओं को भी अन्त:पुर की स्त्रियां सम्झ रहे थे, छत्र धारण करने वाले चारण को भी राजपुत्र समझ रहे थे, स्वर्ण का निष्क आभूषण धारण करने वाले वैश को भी राजकर्मचारी मान रहे थे, प्रश्न पूछे जाने पर भी दूसरी ओर चले जाते थे, सामने स्थित होने पर भी अंगुली से इंगित करते थे, श्रवणीय होने पर भी निःशंक होकर ऊंचे स्वर में बोलते थे, घृष्ट हस्ती, अश्व, वृषभादि पशुओं के तीव्रता से समीप आने पर गिरने वाले तथा भागने वाले लोगों को देखकर तालियां बजा-बजाकर खिलखिलाकर हंस रहे थे। ग्रामीणों की सरलता का यह वर्णन पाठक को हंसने के लिए बाध्य कर देता है।
अद्भूत
अद्भुत रस का स्थायिभाव स्मय है। सम्पूर्ण तिलकमंजरी में जगहजगह पर अद्भुत रस का समावेश है। विद्याधर मुनि वैमानिक ज्वलनप्रभ का वर्णन अद्भुत का ही दृष्टान्त है। वैमानिक द्वारा भेंट किये गये चन्द्रातप दिव्य हार का वर्णन जिसे पहनते ही तिलकमंजरी पूर्वजन्म की स्मृति से व्याकुल हो
1. तिलकमंजरी. पृ. 59-60 .....करेणुकाधिरूढं क्षुद्रगणिकागणमप्यन्तः पुरमितिघृतोष्णवारणं चारणमपि महाराजपुत्र इति कनकनिष्कावृतकन्धरं वणिजमपि राजप्रसादचिन्तक इति चिन्तयद्भिः पृष्टरपि प्रतिवचनम् प्रच्छयदिभरप्यन्यतो गच्छद्भिः पश्यतोऽप्यभिमुखमंगुलीभिदर्शयद्भिः शृण्वतामपि चेष्टितमशंकितेरूच्चस्वनेन सूचयदिमविषमावता रसभर्देषु दुर्दान्तकरमवाजिवृषभोतलवनेषु व्यालदन्ति वेगोपसर्पणेषुसतालशब्दमुच्चस्तरां हसद्भिः ,
-वही, पृ. 118-19