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________________ 18 तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन इस नाममाला के अन्त में धनपाल ने श्लेषोक्ति के द्वारा अपने नाम का निर्देश किया है । 'अन्ध जण किवा कुसल' इन शब्दों के अन्तिम-अन्तिम वर्ण से युक्त नाम वाले कवि ने इस देशी की रचना की।1 हेमचन्द्र ने धनपाल की पाइयलच्छी को आधार बनाकर अपने देशीनाममाला कोष की रचना की थी। इस कोष को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय जर्मन विद्वान् डॉ० व्हूलर को है। उन्होंने ई. स. 1879 में इसका सम्पादन किया था। 3. ऋषमपंचाशिका प्रभावकचरित के अनुसार धनपाल ने ऋषभदेव का एक मन्दिर बनवाया था, जिसमें ऋषभदेव की मूर्ति की प्रतिष्ठा धनपाल के गुरु श्री महेन्द्रसूरि ने की थी। उसी मन्दिर में बैठकर धनपाल ने 'जय जन्तुकप्प' से आरम्भ होने वाली 50 गाथाओं की यह प्राकृत स्तुति रची। प्रथम 20 गाथाओं में ऋषभदेव के जीवन की घटनाओं का उल्लेख है, किन्तु अन्तिम 30 पद्यों में अत्यन्त भाव पूर्ण स्तुति की गई है। इसकी शैली यद्यपि कृत्रिम व अलंकारिक है, तथापि उसमें सुन्दर कल्पना का समावेश है । उपमा एवं रूपक का प्रयोग अतीव सुन्दर है । उदाहरणार्थ-जन सिद्धान्त का 1. कइणो अंध जण किवा कुसलत्ति पयाणमंतिमा वण्णा । नामम्मि जस्स कमसो तेणेसा विरइया देसी ॥ -वही, गाथा 278 Pischel, R.: The Desi Namamala of Hemchandra, Bombay Sanskrit Series 17, 1938. Buhler, G : Introduction to Paiyalacchi, Bezz. Beitr, 4, p. 70-166. Indian Antiquary, Vol. II, IV. (क) काव्यमाला (सप्तम गुच्छक) 1890 (ख) जर्मन प्राच्य विधि समिति पत्रिका, खण्ड 33 (ग) देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला 83, 1933 धनपालस्ततः सप्तक्षेत्रयां वित्तं व्ययेत् सुधीः । आदौ तेषां पुनश्चत्यं संसारोत्तारकारणम् ।। विमृश्येति प्रभो मिसूनोः प्रासादमातनोत् । बिम्बस्यात्र प्रतिष्ठां च श्री महेन्द्रप्रभुर्दघौ ।। सर्वज्ञपुरतस्तत्रोपविश्य स्तुतिमादधे । 'जय जंतुकप्पे' त्यादि गाथा पंचशतामिमाम् ।। -प्रभावकचरित, महेन्द्रसूरिचरित, पृ. 145
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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