________________
तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
एक मात्र स्तुति है । इसका प्रारम्भ धनपाल ने इस प्रकार किया है -निर्मल नखों से युक्त होते हुए भी नखरहित ऐसे तीर्थंकरों के चरण-कमलों को प्रणाम करके अविरुद्धवचन वाले होते हुए भी विरुद्ध वचन वाले वीर प्रभु की स्तुति करता हूं।
विरोध का परिहार--तीर्थकरों के निर्मल नखों से युक्त, पवित्र चरण कमलों को प्रणाम करके अविरुद्ध वचन वाले वीर प्रभु की विरोधालंकार युक्त वचन द्वारा स्तुति करता हूं।
__इस स्तुति के अंतिम पद्य में भी धनपाल ने अपने नाम का निर्देश किया है । बृहटिप्पनिका नामकी प्राचीन जैन ग्रन्थ सूची में इसका नाम “वीरस्तव" दिया गया है तथा इस पर सूराचार्य द्वारा रचित वृत्ति की सूचना दी गई है। 7. सत्यपुरीय-महावीर-उत्साह (सच्चउरमंडण-महावीरोच्छाह) .
सत्यपुर के महावीर की स्तुति में धनपाल ने वीरस्तुति के अतिरिक्त एक और स्रोत्र की रचना की थी। सच्चउरमंडण-महावीरोच्छाह नामक यह स्रोत्र अपम्रश भाषा में लिखा गया है। 15 पद्यों की यह लघुकलेवरा स्तुति ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें धनपाल ने तुर्क मुहम्मद गजनवी द्वारा किये गये अणहिलपुर, सोरठ, सोमनाथ, चन्द्रावती, श्रीमाल देश के तीर्थ तथा देलवाड़ा मंदिरों के भंग का उल्लेख किया है। इससे धनपाल के समय का स्पष्ट निर्देश मिलता है।
इस रचना में धनपाल ने दो पद्यों में "एवकजीह घणपालु भणइ (एकजिह्वः धनपालो भणति) तथा "तइ तुठइ धनपालु (त्वयि तुष्टे धनपाल:) 5 इस प्रकार अपना नाम स्पष्ट रूप से दिया है।
1. वीरस्तुति, पद्य 1 2. इस सयलसिरि निबंधण । पालय । पच्चल । तिलोअलोअस्स ।
भव मज्झ सया मज्झत्थ । गोअरे संथुइगिराणं । -वही, पद्य 30 3. (क) दोशी, बेचरदास, जैन साहित्य संशोधक, अंक 3, खंड 3, पृ० 241,
(ख) पारेख, प्रभुदास बेचरदास, तिलकमंजरीकथासारांश, श्री हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावली पाटण, 1919 वही, पृ० 39 मंजेविणु सिरिमालदेसु अनुअणहिलवाडउं चड्डावलि सौरट्ठ भग्गु पुणु देउलवाडउं सोमेसरू सोतेहि भग्गु जणमण आणंदणु भग्गु न सिरि सच्चउरिवीरू सिद्धत्थह नंदj
-सच्चउरमंडण-महावीरोच्छाह, पद्य 3 सच्चउरमंडण-महावीरोच्छाह, पद्य 14, 15