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________________ तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन 27 पांच वर्ष तक हरिवाहन अन्तःपुर में अपनी बालकोचित क्रीड़ाओं द्वारा सभी को आनन्दित करता रहा । छठे वर्ष में राजा ने राजगृह में ही एक विद्यागृह का निर्माण करवाया तथा अखिल शास्त्र मर्मज्ञ, श्रेष्ठ एवं अनुभवी विद्यागुरुओं का संग्रह किया। तब शुभ दिन उसका उपनयन संस्कार कर उसे गुरुजनों को सौंप दिया। कुमार हरिवाहन भी दस वर्ष की अवस्था में ही अपनी विलक्षण तीक्ष्ण बुद्धि के कारण सभी उपविधाओं सहित चौदह विद्याओं में पारंगत हो गया। उसने सभी कलाओं में विशेषकर चित्रकला और वीणावादन में विशेष कुशलता प्राप्त की। अपने सिंह-शावक सदृश व अद्भुत पराक्रम से उसने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया । सोलह वर्ष की आयु प्राप्त हो जाने पर, सभी शास्त्रों में पारंगत, शस्त्र-विद्या में प्रवीण तथा नवयौवन से उपचित अंग शोभा वाले हरिवाहन को राजा ने अपने भवन में बुलवाया और नगर के बाह्य भाग में उसके लिये गज-तुरंग शालाओं से युक्त अत्यन्त रमणीय कुमार भवन का निर्माण करवाया। तत्पश्चात् राजा मेघवाहन ने युवराज के अभिषेक की आकांक्षा से उसके राजकार्य में सहायक, प्रज्ञा, पराक्रम एवं गुणों में समान राजकुमार की खोज में अपने गुप्तचरों को चारों और भेजा। __ एक दिन जब मेघवाहन आस्थान-मंडप में बैठा था, उसी समय प्रतीहारी ने आकर निवेदन किया-'हे राजन् ! दक्षिणापथ से आया हुआ प्रधान सेनापति वज्रायुध का प्रियपात्र विजयवेग आपके दर्शनों को उत्सुक है।' राजा ने अंगुलीयकप्रेषण वृत्तान्त का स्मरण करते हुए उसे तुरन्त बुलाया और पूछा कि उस अंगूठी ने युद्ध में कुछ उपकार किया या नहीं। विजयवेग ने युद्ध का विस्तार से वर्णन करते हुए कहा-"जो किसी अन्य ने न किया वह इस अंगूठी ने कर दिखाया। शरद् ऋतु के आगमन पर सेनापति वज्रायुध सदलबल कुण्डिनपुर से कांची नरेश कुसुमशेखर के दर्प-दमन के लिये चले तथा क्रम से कांची देश पहुंचे । कुसुमशेखर ने भी युद्ध के लिये कांची नगरी में सभी तैयारियां प्रारम्भ कर दी। वज्रायुध ने कांची के प्रान्त भाग में शिविर की स्थापना की तथा दुर्ग-भंग के लिये अपने सामन्तों को भेजा, जिसका कुसुमशेखर की सेनाओं के साथ दुर्ग-द्वार पर बहुत दिन तक युद्ध होता रहा । एक दिन वसन्त ऋतु के आगमन पर रात्रि के अंतिम प्रहर में सेनापति कामदेवोत्सव मना रहे थे, उसी समय तीव्र कोलाहल सुनाई पड़ा । शत्रु के आक्रमण की आशंका से उन्होंने ढाल और कृपाण लेकर राजकुल से प्रयाण किया तभी
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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