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स्वाभावोक्ति
धनपाल ने अलंकारों में स्वाभावोक्ति को सर्वाधिक उद्भासित कहा है । 1 बालक इत्यादि की अपनी स्वाभाविक क्रिया अथवा रूप (वर्ण एवं अवयव संस्थान ) का वर्णन स्वाभावोक्ति कहलाता है । 2 तिलकमंजरी से दो उदाहरण प्रस्तुत हैं
सम
(1) गन्धर्वदत्ता के वर्णन में स्वाभावोक्ति की झलक मिलती है - 'विश्वस्त सखियों की गोष्ठी में भी वह खिलखिलाकर नहीं हंसती थी, गृह्नदी के हंसों के साथ भी तीव्रता से नहीं चलती थी, पंजरस्थ सारिकाओं के साथ भी अधिक वार्तालाप नहीं करती थी, तिलकवृक्षों पर भी अधिक देर तक कटाक्षपात नहीं करती थी । 3
(2) मदिरावती का वर्णन भी स्वाभावोक्ति अलंकार में किया गया है । 4
तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(6) मद्गुरूचितमपि नमद्गुरूचितम् - पृ. 204
(7) मेरूकल्पपादपालीपरिगतमपि नमेरूकल्पपादपालीपरिगतम्, वनगजा - लीसंकुलमपि नवगजालीसंकुलम् - पृ. 240
किन्हीं दो विशेष वस्तुओं का योग्य रूप से सम्बन्ध वर्णित होने पर सम नामक अलंकार होता है |5
ज्वलनप्रभ राजा मेघवाहन से कहता है कि आप इस हार को प्राप्त कर,
पृ. 159
- मम्मट, काव्यप्रकाश, 10 / 167
3.
1.
तिमिवालंकृतीनाम् 2. स्वाभावोक्तिस्तु डिम्भादे: स्वक्रियारूपवर्णनम् ।
4.
5.
- तिलकमंजरी,
मित्वा संपुट मोष्ठयोर्न हसितं निःशंकगोष्ठीष्वपि, भ्रान्तं न त्वरितः पर्दैगृहनदीहंसानुसारेष्वपि । साधं पंजरसारिका मिरपि नो भूयस्तया जल्पितं, न त्रयस्त्रास्तिलकद्रुमेष्वपि चिरं व्यापारिता दृष्टयः ॥
- तिलक मंजरी, पृ. 262
आढयश्रोणि दरिद्रमध्यसरणि स्रस्तांसमुच्चस्तनं, नीरन्ध्रालकमच्छ्गण्डफलकं छेकभ्र मुग्वेक्षणम् । शालीनस्मितमस्मितांचितपदन्यासं बिमति स्म या, स्वादिष्टोक्तिनिषेकमेकविकसल्लावण्यपुण्यं वपुः ॥ समं योग्यतया योगो यदि सम्भावितः क्वचित् ॥
- वही, पृ. 23
- मम्मट, काव्यप्रकाश, 10 / 192