Book Title: Mahajan Vansh Muktavali
Author(s): Ramlal Gani
Publisher: Amar Balchandra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - GARGESSHRESERESTSSAs ॥श्री॥ NIN श्रीधर्मशील सद्गुरुम्योनमः महाजनवंश मुक्तावली. -More ४ वर्णकी उत्पत्ति युक्तिवारिधिः उपाध्याय श्रीरामलाल. जीगणिः निर्मित. [प्रकाशक ] शिष्यक्षेम अमर बालचंद्र सर्व हक्क विद्याशाला अर्पण. द्वितियावृत्ति २०००. सं॥ १९७८ सन् १९२१. PALAM पुस्तकका पत्ताः 'उपाध्याय श्राहामलामाापनाकानर मारवाड मोहल्ला, रांघड़ी. निछरावल २॥) ... UKH A Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिंटर :- रा. रा. चिंतामण सखाराम देवळे, मुंबईवैभव प्रेस, सर्व्हेट ऑफ इंडिया सोसायटीज् बिल्डिंग, सँडर्स्ट रोड, गिरगांव - मुंबई. प्रकाशक:- शिष्यक्षम अमर बालचंद्र, बीकानेर मारवाड मोहल्ला, रांघड़ी. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री॥ ॥ अथ प्रस्तावना ॥ धर्म सुरतरू जैन धर्मी महाजन महाजन वंश मुक्तावली जो मैं संग्रह करी है इसमें वहत् खरतर भट्टारक गछके श्रीपूज्यजी महाराज बीकानेर विराजितके दपतरका मुख्य आश्रय तद्वत् श्रीवीकानेर वडे उपाश्रयके ज्ञान भंडारका आश्रय महोपाध्याय श्रीदेवचंद्रजी उ । श्री आसंकरणजी पं । प्र। श्रीमोतीचंद्रजी उ 1 श्रीलक्ष्मणजी तथा हमारे परमगुरु सम्यग्दर्शन ज्ञानव्रत दाता पंडितशिरोमाण साधजी महाराज इत्यादिकोकै श्रीमुखसैं श्रवण करा जो जो प्राचीन इतिहास उपलब्ध हुआ. वह मैंने लिखा है यदि मेरी अल्पज्ञताके कारण लिखनेमैं भूल रही हो तो सज्जन जन क्षमा प्रद होंगें किसी भी महाशयका चित्त दुखानेके लिये उल्लेख नहीं किंत सत्य लिखना धर्म है चंद्रमै शीतलता सूर्यमैं उष्णता समुद्र मैं क्षारता इत्यादि अनेकानेक गुणवाले पदार्थों में अंशाससैं किंचित् अपगुण भासमान है। लेकिन वह चंद्र आदि पदार्थों के अपगुणभी प्राणी जनोंके लिये हितावह ही है यदि किसीकों न हो तो क्या यथा चंद्र किरण राशि विरही जनोंको अप्रिय है तथापि सार्वजनक अप्रिय नहीं सूर्यके प्रकाशमैं उल्लूककों नहीं दीखता तो सूर्यका प्रकाश सार्वजनक अप्रिय नहीं ऐसा कोई कार्य नहीं जिसमैं दूषण खलजन नहीं देते यथा त्यागवैराज्ञ सर्वजन सम्मत है तो उसमें भी एकसमाजके त्यागी दुसरी समाजके त्यागी मैं अनेक दूषण निकालते हैं यदि एकांत ध्यान करने कोई स्थित हो तो अन्य समाजके जन उसकों खुदगरजी कहते हैं यदि ज्ञानकी , उच्चदशा प्राप्तकर अन्य जनोंकों सदुपदेश दे खुदगरजी पना त्यागता है तो अन्य समाजके मनुष्य कहते है परोपदेश देनेमैं ही तत्पर हैं आपका उद्धार क्या करा' यदि विरक्तता धारकर भिक्षावृत्ति करता है तो अन्यसमाजके जन कहते हैं पुरुषार्थहीनहोकर परायेकी आशा त्यागी नहीं यदि परासा है तो विरक्तता कहां यदि वनोवासी हो नग्नप. नदीका जलपान वृक्षोंसैं गिरे फल पुष्पसैं निर्वाह करता है तो अन्य समाजके जन कहते हैं यह जीव अदत्त सचित्तजल सचित्तफलादिखाते हैं इस लिये ये साधु नहीं, इस प्रकार जन्मसैं ब्रह्मचर्यधारी रहता है तो अन्यसमाजके जन कहते हैं यदि ऐसैं सर्व मनुष्य समाज हो जाय तो संसारका नाशही हो जाय और राज्य धर्म वर्तमान समयका गृहस्थ पन श्रेष्ठ मानते हैं Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रस्तावना. प्रस्तावना, इत्यादि कारणोकों विचारते हैं तो गुण मैंभी अपगुण निकालनेवाले जगत्मैं विद्य-- मान है इस लिये बुद्धिमानों. बुद्ध्यानुसार सत्मार्ग हितावह जो हो उसमैं यथा शक्ति प्रवर्त्तना, लोकतो चढेकों भी हसते हैं और प्यादलकों भी हसते हैं सर्वजनकी एक सम्मति हुई न होगी इति यतः तथापिक्रियतेग्रंथशंति यद्यपि दुर्जना, नहि दस्युभयाल्लोको दैन्यवानिह वर्त्तते १ [ अर्थ ] ये श्लोक वैद्यजीवनमैं लिखा है तो भी ग्रंथ करता हूं यद्यपि दुर्जन जन हैं यथा चौरोके भयसै संसारके लोक क्या दीन दलिद्री वणवै ठेगें, कदापि नहीं, यतः खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति ॥ आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नतिन पश्यति २[ अर्थ ] ये श्लोक चाणक्य ब्राह्मण साहानशाहचंद्रगुप्तको कथन करा है, दुष्ट मनुष्य सरसवप्रमाणभी परछिद्र देखते हैं अपणा दुर्गण बिल प्रमाणकों देखता हुआ भी नहीं देखता २, .. इसलिये बुद्धिमत्ता वह कहाती है यदि किसीनें उपदेश देते दुगुर्गोको त्यागना बतलाया तो वणे जहांतक अपना वा अपने समाजको सुधारनेका प्रयत्न करै यदि दुर्गुण नहीं त्यागा जावै पूर्वकर्मयोगसैं तो फेर उपदेश दाता ऊपर द्वेषभाव धारण करना बुद्धिमत्ताका कार्य नहीं कलियुगमैं सत्यवक्ता पना किसी पुण्यवंत दीर्घदृष्टि न्यायवंतकोंही अछा लगता है, बाकी तो जैसैं सच्च बोले बालकनैं अपणी वैधव्य, माताकों कहा हे माता, पिता तो मरगया, तैनैं ये सुक्ष्म २ का जल क्यों सारा है वस तत्काल माता क्रोधातुर हो मारने दोडी तब भागते हुये सच्चबोले कहा सत्य. कहै, मांमारे, यदि मनको रुचता असत्य गुण भी किसीका वर्णन करो तो बड़े लोक प्रशन्न होते हैं क्योंकी आज संसारमैं खुसामदी ताजा रुंजगार हो रहा है लेकिन चर्पट पंजरीमैं स्वामी शंकरनैं कहा है यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नाचरणीयं २ इस प्रकार जैनधर्मके शक्रस्तवके अनंतर प्रणिधान दंडक भी लिखा है लोग विरुद्धच्चाओ, अर्थात् जो कार्य शुद्ध है यदि लोक विरुद्ध है तो नहीं आचरण: करना पुनः ऐसा भी है शत्ये नास्ति भयंक्वचित् . जैनधर्मपर आक्षेप करनेवालोंकों निरुत्तरकर्ता खरतर गच्छके श्वेतांबराचार्य उपाध्याय समय २ पर विजयकर्ता होते रहै, विक्रमशीले शताब्दी में श्री जिनचंद्रसूरिः बादसाह जहांगीरके सन्मुख मसूरपठाणकों धर्म बाद मैं जयकरा, जिनआज्ञाके लोपक निन्हवोंका पराजय करा, खरतर गच्छपर आक्षेप करनेवाला धर्मसागरजी तपागच्छीको, पाटणनगरगुजरातमै ८४ गणके उपाध्याय वाचकादि मनिमंडल समक्ष.. शास्त्रार्थ करने बुलाया लेकिन असत्यवादी होनेके कारण आये नहीं, केइ दिन सभा: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रही, आखिर उहाँ आये हुये सर्व गच्छके गीतार्थोनें धर्म सागरजीको मृषावादी समझ ८४ गणसे निकाला खरतरगच्छकों जिनाज्ञा पालक विजयपत्र लिखा जिसका तांबा पत्रवाडी पार्श्वनाथजीके मंदिरके ज्ञान भंडारमें रखा, नकल सामाचारी शतकमें उपाध्याय समयसुंदरजीने लिखी है, उससमय भव्यजीव श्री संघमें हर्षका पारावार छागया, ग्रंथ रचनेवाले आप धर्म सागरजी अपने लिखे लेखको सत्य नहीं कर सके तो उस ग्रंथकों माननेवाले खरतरगच्छका पराजय करना लिखते हैं विजयसारमें यह लेख स्वमताभिमानसूचक सर्वथा असत्य है, यदि सत्य होता तो विक्रम संवत् उगणीश शय चोहत्तर पचहत्तर, छिहत्तर पर्यंत खरतर गच्छके मणिसागर सुमतिसागर मुंबईमें शास्त्रार्थ करने कितने छापे द्वारासूचना देते रहे लेकिन एक भी सन्मुख परपक्षी नहीं हो सके, वस मालूम हुआ आपके विजय सारके लेखकी सत्यता वृथाकुसंपकी वृद्धि करणी, बुद्धिमत्तानहीं है, __ पूनां नगरमें श्रीजिन भक्तिसूरिः जीने पेसवाराव शिवाजीके सन्मुख वेदांतमति: योंसें चर्चाकर जैनधर्मका विजयडंका बजाया, सादडीगाममें तपागच्छ वालोंने खरतर गच्छकों जिनाज्ञा विरुद्ध कथन करा, तब शास्त्रार्थभं तपोको निरुत्तर करा, श्रीसंघ भव्य जीवप्रमुदित हुए, निर्मल जलको गदलाकरनेवाला महिष और शूकर ग्रीष्मसे तपायमान गइलाकरता है लेकिन जल अपने शीतल गुणको नहीं छोडता है, योधपुरमें राठोडराजा मानसिंघजीके सन्मुख शभामैं कास्मीरी पंडितो. जैनधर्म का उपहास्य करके कहा जैनसनातनवाले तक्रसैं अलग किये अनंतर दो घटिकाके नवनीतमैं समुर्छिम पंचेंद्रीजीवोंकी उत्पत्ति तद्वर्ण कहते हैं, येसर्व मृषावाक्य अप्रमाण है, तब माहाराजानैं जैनयति महाविद्वान् शंभु ( शिवचंद्र) जीकों शास्त्रार्थके लिये पालीसैं आमंत्रन करा तब इसवाक्यके प्रत्युत्तरमैं शिवचंद्रजी एकगऊ मंगवाकर उसकी पूंछकों इधर उधरकर देखने लगे तब माहाराजा आश्चर्यमैं आकर पूछा हे गुरु पूंछ मैं क्या देखते हो शिवचंद्रजीनें उत्तर दिया हे नरेंद्र 'प्रष्णकर्ता पंडितोंके मंतव्या नुसार गऊकीपूंछमें तेतीस कोटिदेवता रहते हैं इसलिये इतनी देर देखा लेकिन एकदो भी देखनमैं आया नहीं ३३ कोटि तो दूर रहै ये वचन सुण राजादिक हसपडे वे पंडित लज्जितहो शिवचंद्रजीकी काव्यबंध स्तुति करी नृपनैं वादिगज सिंह पद दिया इसप्रकार विक्रमशताब्दीउगणीशमैं खरतर गछ मंडलाचार्य बालचंद्रसूरिनैं नाशकमैं महाराष्ट्र तेतीस पंडितोंकों जैनधर्म 'नास्तिक नहीं आस्तिोंमें अग्रेश्वरी है सिद्ध कर दिया पंडितो. विजय पत्र लिख दिया इसप्रकार उज्जणमैं पंडित रायचंद्रजी यतिनैं दक्षणीपंडितोंकों शब्दशास्त्र और स्याद्वादन्यायकी शेलीसैं अन्य न्यायको सूर्य सन्मुख तेजहीन तारकवत् कर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. दर्शाया शिष्य नहीं मिलनेके कारण काल दोषसें यति गुरुओंकी वृद्धि तथा कालदोषसैं अवशेषोमैं विद्याकी न्यूनता हो रही है. - हम धारतेथे वर्तमानमैं साधुनाम धरानेवाले कुछ उन्नती करेगें लेकिन ये तो परस्पर द्वेषापत्तिसैं ग्रसित होते हुये अन्यदर्शनियोंकों सर्वज्ञधर्मकी प्राप्तिकराने किंचित्भी उद्यम नहीं करते अमूल्य समय परस्परके - रागद्वेषमैं व्यतीत करते हैं, यदि शास्त्रार्थ परस्परही करना होतो, शमभावसँ निसल्यपनै करना चाहिये, वैसा नहीं करते, केवल परस्परमैं, कुसंपकी वृद्धि करना यथार्थ नहीं, पकडापक्ष कोई नहीं त्यागता, उननें तो उसको सत्यही मान रखा है, कषायोंकी चोकडी क्षय करनाही, परम पदका सोपान है और जो साधुओंके नामधारी, भाषाकी कहाणियां गीत गानेवाले हैं वे तो व्याकरण काव्य कोश न्यायादिकके अणपढ अन्य दर्शनियोंसे किस प्रकार शास्त्रार्थ कर सक्ते हैं, वे तो यति आचार्योंके प्रतिबोधे हुये, जैन समाजकों अपने. कुयुक्तियोंद्वारा, अपना मंतव्य मनाते, जन्मव्यतीत करते हैं, उन अन पठितों कीये प्रशंसा, डाक्टर हार्मन जे कोवी भी, सम्यतया कर गया के, संस्कृत प्राकृत अन्य २ जैन ग्रंथ बहुतोंके पढनेकी आवश्यक्ता है, इत्यादि, इनोंकी अणपठितताकों देखकर कह गया था, इत्यादि एक वार्ता अद्भुत इस समाजमैं देखी, कोई दुसरे धर्मवाला इनका ठाठ देखने इन समाजके मनुष्यसंग उन मताध्यक्षके शमीप चला जावेतो बैठे हुये, हजार पांचसो गृहस्थ, कहने लगते हैं, संसारसैं पार पाना है तो, श्रद्धा धारलो, इहां धनवान हो जाओगे, तब वह मताध्यक्ष आधिपति कहता है, कुछ जाण पना है, तब सर्वे गृहस्थ कहते हैं, कुछ पूछना हो तो पूछलो, ऐसै अंतरयामी सर्वज्ञ, फेर नहीं मिलेंगे, शंका मनकी निकाल लो, तब जो इन समाजका स्वरूप जानता है, वह तो, कह देता है, मुझे कुछ भी नहीं पूछना है, और जो इन समाजके स्वरूपका, अजाण हो, कोई इनकों जबाब नहीं आवै ऐसी वार्ता पूछ वैठता है, बस उसी समय, उस एक मनुष्यके पीछे वे हजार मनुष्य, कोलाहल मचाते हैं, उसकी बात सुणने नहीं देते और वने जहांतक उसकी आजीविका भंग करते प्राण कष्टतक पहुंचा देते हैं, और जो इनोंकों. मालम होती है के अमुक विद्वान हमारी कथन कसे वार्ताकों जैन सूत्रोंसें, वा, हमारी कुयुक्तियोंकों, न्याय युक्तिसैं खंडन कर्ता है, तब अपने समाजके लोकोंकों प्रथम हीसैं शिक्षा देने लगते हैं, अमुक मनुष्य कुशी लिया है, अपना द्वेषी है, इससे वार्ता करनेसैंही, पाप लगता है, ऐसा सुणते ही, घणीक्षमा तहत्त, दीनबंधु, कृपासिंधु, पृथ्वीनाथकों, घणीखमा, वसवे हियाशून्य, ज्ञानचक्षुरहित, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ७ लकीरके फकीर, बाबा वाक्यं प्रमाणं, उसही डगर चलते हैं, इतना विचार नहीं, घर २ भीख मंगेको हम पृथ्वीनाथ क्या समझके कहते हैं और जो दुराचारी कुकर्मा परधनवंचक इन समाजसैं धन ठगना चाहै उनोंके लिये यह सहज मार्ग है, वस वह इनके चरण छूओ, और इन वेषधारियोंकी, असत्य स्तुति करै, . जाकर हाजरी भरै, असत्य निंदा दुसरे धर्म वालेकी करै, वह इनोंकों अत्यंत वल्लभ होता है, उसके लिये, अपने समाजियोंसे कहते हैं, अमुक भायो, वाई, सत्यवक्ता, आछो है, तब मुख्य कहता है, विशेष आछो है वस वह इस समाजमैं, ए, मे, पास हुआ, समझा जाता है, कुपात्रका दान, धर्मसैं निषेध करा है, तथापि, उदार दिलसैं देते हैं, ऐसै २ मत भी आर्यावर्त्तमैं कालके महात्म्यसैं, प्रचालत है, जब तक जैनधर्मवाले संप्रति राजावत् जैनविद्वान पंडितोंकों नानादेश भाषा. शिखाकर सर्वज्ञधर्म सायन्स प्रत्यक्ष प्रमाणसैं हितावहकी पुस्तकें छपाकर सर्व देशी जनों को उपदेश नहीं करांयगें तावत् उदयकाल आवेगा नहीं दिनोंदिन जैनधर्मी जनोंकी शंक्षान्यून इसी कारण हो रही है, जिन २ मतों मैं स्थान २ गहस्थ लोक उपदेश करते फिरते हैं, उन २ मतोंकी दिनोदिन वृद्धि हो रही है, जैसैं आर्या समाज, ईसाई इत्यादिकोंकी, देखते २ वृद्धि हो गई, जैन ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाणसे, इसभव, परभव दोनों में लाभ दायक धर्म उसकी दिनोंदिन हानी क्यों होती है, इसका क्यों नहीं विचार करते हैं, ईसाई धर्मके गुरु, मुख्य पोपपादरी, पादरी, मुसलमान मतके पीरजादे पारसियोंके गुरु, शिव, वैष्णव, मतके, ब्राह्मन, गोकुल गुसांई, आर्या, इत्यादि सर्व स्त्री धन रखनेवाले हैं, उन उपदेशकोंके वचन, मुख्यतया शिरोधार्य करते हैं, जैनधर्म तीन फिरके श्वेतांबरी स्त्री और धन रखनेवाला पूरा पंडित सत्योपदेश हितकारीभी कहता हो तो, प्रथम तो सुनेतेही नहीं यदि सुने तो, श्रद्धा प्रतीति नहीं करते, त्यागी स्त्रीधनका, ऊपरसैं इनोंकों दीखना चाहिये वस उसअपठकी वार्ता पर भी श्रद्धा करते हैं, जैन सूत्रोंमैं, त्यागमार्ग, साधुजनके लिये अत्यंतही कठिन दर्शाया है, वे सर्व देशोमैं पहुंचही नहीं शक्ते, कहांई जाते है तो, स्थानमैं रहे व्याख्यान करते हैं, उहां स्वाफिरकेके विना, अन्य दर्शनी आता नहीं, तब जैन संक्षा कैसैं वृद्धि पावै, महम्मद साहबका मत, और स्वामी शंकरका मत तो, बलात्कारपर्ने, वृद्धि पाया था, ऐसा करना, विद्वानोंकों . मंतव्य नहीं, इस समय जैसैं ईसाई, आर्या, खुल्ले दरम्यान व्याख्यान करते हैं, वैसा जैनधर्म वालोंने सर्वत्र करना, कराना चाहिये, यदि श्रद्धा सर्वज्ञ वाक्य पर हो जावै, अभक्षादिक नहीं त्यागसके तथापि श्रेय है, यथा नेम प्रभुके Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. उपदेशसैं कृष्ण नारायण महावीर प्रभुके उपदेशसैं राजा श्रेणक, इस प्रकार होने सैं, उनोंके शंतान क्रमसैं व्रतधारी बन जायेंगें, स्त्री, धन, रखने वाले सम्यक्त “धारियोंनें, तथा सम्यक्त युक्त द्वादशवत धारियोंने, अनेक जीवोंकों, जैन धर्मी बनाया है, स्त्री धनके त्यागी हो, उपदेश करते हैं उनोंकों तो धन्यवाद है, लेकिन स्त्री धन रखकरभी जो मिथ्यात्वीको सम्यक्त्व धारी बनावै उसको अनंत - धन्यवाद ह । इस ग्रंथ मैं जैन खरतर गछाचार्य श्रीजिनदत्तसूरिः माण धारी श्रीजिनचंद्र सूरिः । तथा श्रीजिन कुशलसूरिः जी आदिकोंनैं जो निज आत्मबलसैं उपदेश देकर मंत्रशक्तिद्वारा राजन् वंशियों ऊपर उपगार करके जैनधम्र्मी महाजनवंशकी वृद्धि करी तदनंतर विक्रम शताब्दी पनरेके उतरते जंगम युग प्रधान भट्टारक श्रीजन माणिक्यसूरिः के पट्टधर श्रीजिनचंद्रसूरिः गुरुदेव वीर प्रभूके जन्मराशीपर 'आया हुआ भस्मराशी गृहके उतरनेके समय अवतारी प्रगटे जिनोंके ज्ञान और क्रियाकी प्रशंसा अनेक शंतजन तथा कर्म्मचंद वछावत श्रवण कर अकव्वर बादसा खास निज लेखणीस फुरमाण बीनती पत्र लाहोर नगर देश पंजाब सै अपनें निज उमरावोंकों गुरुकों आमंत्रन करनें भेजे उस समय आचार्यके ८४ शिष्योंमैंमैं, मुख्यशिष्य, सकलचंद्र उपाध्यायके शिष्य, समयसुंदरजी, विहारमैं, संगथे, उनोंनैं गुरुगुण, छंद, अष्टक भाषाबद्ध रचा है, यथा, संतनकी मुख वाणि सुणी जिनचंद मुनींद महंतजती, तपजप्प करे गुरु गुज्जर मैं प्रतिबोधत है भविकूं सुमती, तब ही चितचाहन चंप भई समय सुंदरके गुरु गछपती, भेजे पतसाह अजब्बकी छाप बोलाये गुरु गजराज गती, १ गुज्जर गुरु राजचले विचमैं चौमास जालोर रहे, मेदनी तटमंत्र मंडाण कियो गुरु नागोर आदर मांनल हे, मारवाड रिणी गुरु वंदनकों तरसे सरसे विच बेगब हे, हरख्यो संग लाहोरं आये गुरु पतसाह अकब्बर पांवग हे २, ऐजी साह अकब्बर बव्वरके गुरु सूरत देखतही हरखे, हम योगी यति सिद्धसाध व्रती सबही षट् दर्शन के निरखे टोपी वस अमावस चंद उदय अज तीन बताय कला परखे तप जप्प दया धर्म्म धारणकों जग कोई नहीं इनके सरखे, ३' गुरु अमृत बाणसुणी सुलतान ऐसा पतसाह हुकम्म किया, सब आलम मांहि अमारि पलाय बोलाय गुरु फुरमाण दिया जगजीव दया धर्म्म दाक्षणतें जिन शासन बीच शौभाग्य लिया, समय सुंदर हे गुणवंत गुरुग देखत हरखत भव्य हिया, ४, हे जी श्रीजी गुरु धर्म ध्यान मिले सुलतान सलेम अरज्ज करी गुरुजीव दया नित प्रेमधरे चित्त अंतर प्रीति प्रतीति धरी, कर्म्मचंदबुलाय दियो फरमान छोड़ाय खंभायतकी मछरी, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना: समय सुंदरके सब लोकन मैं नितखरतर गच्छकी क्षांतिखरी, ५, हेजी श्रीजिन् दत्त चरित्र सुणी पतृसाह भये गुरुराजि येरे, चामर छत्र मुरा तब भेट गिगडद धूं धूं बाजियेरे, उमराव सबे कर जोड खडे पभणे अपने मुखहा जियेरे, समय सुंदर तूंही जगत्र गुरु पतसाह अकव्वर गाजियेरे, ६ हेजी ज्ञान विज्ञान कला • गुण देख मेरा मन सद्गुरु रीझियेजी हूमायूको नंदन एम अखे मानसिंघ पटो धरकीजियेजी, पतसाह हजूर थप्यो सिंहसूरिः मंडाण मंत्री श्वर वांझीयेजी, जिनचंद पट्टे जिनसिंहरिः चंदसूरज ज्यूं प्रतपी जियेजी, ७, हेजी हिडवश विभूषण हंस खरतर गच्छ समुद्रशशी, प्रतप्यो जिन माणिक्यसूरिके पट्ट प्रभाकर ज्युं प्रणमूं उल्हसी, मनशुद्ध अकव्वर मानत है जगजाणत है परतीति इसी, जिनचंद मुनींद चिरं तपो समय सुंदर देत आशीष इसी ८ इति श्रीदादा श्रीजिनचंद्रसूरिः अष्टकम् || उस अकव्वर पतसाहके श्रीजिनचंद्रसूरिः खरतर गच्छा चार्यके प्रथम समागमका चित्र उस समय चित्रकार लिखा वह वीकानेर के श्रीजी साहब के शमीप विद्यमान है, इन खरतराचार्य श्रीजिनचंद्रसूरिःकों युग प्रधान जगद्गुरु पद बादसाहन दिया खरतर गछाचार्य, श्रीजिनेश्वर सूरिःने अणहिल पत्तनमैं चैत्यवासियोंसैं, जय प्राप्त करा, तब राजा दुर्लभ खरा विरुद दिया और राजा परमजिन धर्मी हुआ, - गुरुरौं शास्त्र अध्ययन करा, यह वृत्तांत गुजराती मैं छपा गुर्जर भूपावली ग्रंथ, ब्राह्मणोंके रचे मैं भी लिखा है चैत्यवासयिोंके १७ गोत्र श्रावक, खरतर की शुद्ध क्रिया ज्ञानको देख सुविहित पक्षमंतव्य करा, श्रीपति ( ढढ्ढा ) गोत्र गुरुनैं प्रतिबोध दे श्रावक किया इनोके चंद्र सूरिः उनोंके अभय देवसूरि : इनोके श्रीजिनवलभसूरिः चामुंडा [ सच्चाय ] देवीकों उपदेश वसवर्त्तीकर ५२ गोत्र श्रावक बणाये, इनोंके दादा श्रीजिनदत्त सूरिः इनोंनैं आत्मलब्धिसैं, महात्म्य प्रगटकर, अनेक क्षत्री राजाओंका कष्ट मिटा, राजन्यवंश, माहेश्वरवंश, ब्राह्मनादि उत्तमज्ञातीवालोंकों, • सम्यक्त युक्त श्रावक बणाये, इनोके मणिधारी श्रीजिनचंद्रसूरि : दुसरे दादाजीनैं भी अनेक राजन्यवंशियोंकों प्रति बोधकर श्रावक बणाये, इनोंके पंचमपट्टधर दादा श्रीजिन कुशलसूरि : तीसरे दादा प्रगटे इनोनें ५० सहस्रराजन्यवंशियोंके ऊपर ऊपगारकर श्रावक गोत्र किया, इस प्रकार खरतर बृहद्गछके युग प्रधानाचार्य गुरुदेव जैनमहाजनों जीवित विद्यमान समय अनेक उपकारकर धन और जनसैं जिनधर्मकी वृद्धिकरी, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १० देवलोक गमन करनेके अनंतर भी जो भव्यजीव भक्ति भावसैं गुरुदेव का पूजन स्मरण ध्यान करते हैं उनोंके शंकटमैं सहायता, भाग्यानुसार द्रव्यप्राप्ति पुत्रप्राप्ति आदि, अनेक मन वंछितकार्य पूर्ण करते हैं, इस कलियुग मैं हाजरा हजूर देव है प्रष्ण, देव गुरुके अर्पणकी वस्तु भक्ष नहीं तो दादा गुरु देवकी चढाई हुई सेष सीरणी लोक कैसैं भक्ष समझते हैं [ उत्तर ] हेमहोदय देव वीतरागतो मुक्त शिव हो गये उनके तो मंदिर स्थापना मैं गत भोग वस्तु अलीन है, और दादा श्रीजिनदत्त सूरिः प्रथम देवलोक हृक्कल विमान मैं चार पल्यकी आयुधारी महर्द्धिक देव है; खरतर संघकों श्रीसीमंधर स्वामीसैं पूछनिश्चयकर तीर्थकरोक्त दो गाथा वडगछ नायक देवभद्रसूरिः देवता होनेके अनंतर समर्पण करी वह माथा गणधर पदवृत्तिमैं तथा गुर्व्वावली में लिखी हुई है, पुनः दादा श्रीजिन कुशल सूरिः विक्रमशताब्दी तेरे मैं सिंधुदेश देरा उरमें फाल्गुण कृष्ण अमावश्याकों देवलोक हुये फाल्गुणपूर्णमासीकों सर्व्वत्र खरतर संघको प्रत्यक्षपनें दर्शन देकर कहा वडे दादा सहाबपरमगुरुसौधम्मैदेवलोकमैं प्राप्त है मेरा आयु दीक्षा लेने के प्रथमही भुवनपतिनिकायका बंध पडगया था इसलिये असुर कुमार देवपनें उत्पन्न हुआ हूं इसलिये तुम सर्व्वे संघ धर्म ध्यान मैं तत्पर रहो ऐसा कथनकर अंतर्ध्यान भये इससमय वडे दादासहाबकी भक्ति कर्त्ता के मनोरथ श्री जिन कुशलसूरिः गुरुदेव पूर्ण करते हैं इसप्रकार चारों दादासहाब स्वर्गवासी देव है, उनोके निमित्त करी शेषसीरणी लीन है, उसमैं सैं, जो दादासाहब के सन्मुख चढाई जाती है, वह सीरणी कोई चढानेवाला नहीं खाता है, किंतु स्वस्थानमैं रही सीरणीका भाग खाने मैं दोष किंचित् भी नहीं यथा, एक श्रावक साधुगुरुकों मोदकादिनैवद्य भक्षवस्तुका पात्र भरा लेकर प्रतिलाभनैं खडा होता है, भावभी उसका ऐसा है, गुरु साधूजीकों संपूर्ण प्रतिलाभ, उसमैंमैं, साधूजी किंचितमात्र लेते हैं, अवशेष पात्रमैं रहा मोदकादि क्या संपूर्ण गुरुद्रव्य हो जायगा, कदापि नहीं, सर्व्व श्रावकजन अवशेष पात्रस्थित वस्तुकों खाते हैं, पुनः जहां गुरु महाराज उपान - यादिमैं व्याख्यान करते हैं उहां श्रावक, प्रभावना के लिये, मोदकादि गुरुके पट्टपर प्रथम आरोपणकर, अवशेषवांटते हैं, तो क्या वह प्रभावना गुरुव् हो जायगी, कदापि नहीं, इस प्रकार, दादा गुरुदेवको चढाये अनंतर, शेषसीरणी, लीन है - प्रष्ण, गौतम गणधरादिक महान्पूर्वाचार्योंका इतना क्यों नहीं बहुमान स्थापना - करके करते दादा श्री जिनदत्तसूरिः श्री जिनकुशलसूरिः का बहुमान क्यों करते हो [ उत्तर ] हे महोदय गौतमादि गणधरोंकी यत्र स्थापना है, और करी भी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ११. यथा जाती है, पूजन स्मरण भी करते हैं, लेकिन, श्रीसंघकों सहायकर्त्ता, भक्तजनोंका बंछितपूरक दादा गुरु देवभी महान् आचार्योंकी तरे पूजास्मरणके योज्ञ है, सर्व तीर्थकर एक सहस देवाधिदेव है, उनोमैंभी वीरजिनंदका व्याख्यान कल्पसूत्रके पर्यूषणों मैं सविस्तर पर्ने, स्वप्न उतारणा, जन्म महोत्सव, दशोठन इत्यादिविशेषपनैं, सूत्रकार भद्रबाहुस्वामी, तैंमैं टीकाकार प्रकरणानुसार विशेषपनैं, रचनाकरी, वैसैंही व्याख्यानकर्ता व्याख्यानकर श्रीसंघको श्रवण कराते हैं, अन्यतीर्थंकरोंका, तद्वत्वस्तार क्यों नहीं करते, तब तो प्रत्त्युत्तरमैं यही कहना होगा के, शासन्नायक आसन्न उपगारी होगये, इसलिये विशेषतासैं करा जाता है, इस ही प्रकार जिन २ राजन्य वंशियोंकों मिथ्यात्वका त्याग कराकर अमूल्य सम्यक्त्व रत्न दिया उन राजन्य वंशियोंकी शंतान उनोंके गुणोंसें आभारी हो उनगुरुदेवकी स्थान २ प्रति स्थापनाकर पूजा स्मरण ध्यान करते हैं, इसकों विचार सक्ते हैं बुद्धिमान, यथा तपगच्छमैं महान् पूर्वाचार्य अनेक ग्रंथोंके रचयिता, ज्ञानक्रियावंत अनेक होगये, उनोंकी स्थापना करके अद्यावधि किसी भी तपगच्छके साधु वा श्रावक पूजन स्मरण नहीं करा था, लेकिन पंजाब देश मैं जोढूंढिये साधु प मैं स्थितहो श्रधान परावर्तन होनेसें सात सहस्र ओसवाल [ भावडो ] कों, जो, की खरंतरादि गच्छके थे उन्हो जिन प्रतिमा की पूजा त्याग दीथी उनोंकों पूजे रै बणाये, पीछे आप संवेगीसाधुवने और जैन तत्वादर्शादि केइ ८ ९ ग्रंथ भाषामैं रच छपवाकर, प्रसिद्ध कर, जैन संघप्रर उपगार करा, उनोंके देवलोका नंतर, उनके शिष्य शंतानी, स्थान २ अब आत्मारामजी [ आनंद विजयसूरि : ] जीकी मूर्त्तियां, स्थापनकर, पुज वाते हैं, गौतमादि पूर्वाचार्योंकी स्थापना पूजा, क्यों नहीं कराई, प्रष्ण कर्त्ता महाशयजी, आत्मारामजी की मूर्त्तियां स्थापनेवालोंसें, ये प्रष्ण नहीं पूछा होगा, तभी तो खरतर गणवालों से ऐसा प्रष्ण छाप कर प्रसिद्ध करा है, सामान्य उपगार कर्त्ता की मूर्ति स्थापकर पूजा करानी, क्योंके एक जिन प्रतिमाके पूआ प्रकरणके सर्व संबंधकों वर्जके, अन्य जैन धर्मकी कृतिकों वे २२ समुदाय वाले भी स्वीकार करते थे, और पूर्वोक्त श्री जिन दत्तसूरिः प्रमुख गुरुदेवो तो मदिरामांसमैं प्रवृत्ति कारक, अहिंसा क्या वस्तु है, इस प्रकारके मिथ्यात्व निष्ठ राजन्य वंशियोंकों परमार्हत् बणाये, इसलिये दादा साहबका उपगार असंक्ष गुणविशेष, जिनोंकी पूजा स्मरण करना उचितही है, और दिव्य शक्तिसै मनोगत इष्ट प्रवृत्ति, आपदाकी निवृत्ति करणी, ये प्रत्यक्ष उपगार कों भक्त जन कैसैं, विस्मरणकर शक्ते हैं, वृथा आक्षेप करणा, समदृष्टियों के उचित नहीं, सुज्ञेषु किंबहुना Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ . प्रस्तावना. [प्रष्ण ] देवलोकमैं प्राप्त भये सम्यक्त्वीका चौथा गुणस्थानक है, और सम्यक्त्व युक्त व्रतधारीका पंचम गुण स्थानक होता है, प्रमाद मैं वर्तमान साधुका छठा गुणस्थानक, अप्रमादीका शप्तम गुणस्थानक होता है, इसलिये श्रावक और साधु चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त देवताका वंदन पूजनस्मरण कैसे कर सकता है, [उत्तर] हे महोदय जैसैं वर्तमान जिन वंदन पूजनयोज्ञ होते हैं, तद्वत् भावी जिन भी वंदन पूजन योज्ञ होते हैं, जब प्रथम तीर्थकर, ऋषभदेवजी, इस अवसर्पिणी कालमैं, इस भरत क्षेत्रमैं हुये उस समय उनाने भरतचक्रीके पूछनेसैं आप तुल्य आगे २३ तीर्थकरोंका होना फरमाया, केवल आयु, देहमान, वर्णा- . दिकका भेद कथन करा, तद नंतर भरतचक्री केलाश [ अष्टापद] पहाड ऊपर सिंह निषद्या प्राशाद बनाकर चोवीस तीर्थ करोंकी प्रतिमा विराजमान करी, यह कथन आवश्यक सूत्रकी नियुक्तीमै श्रुत केवली भगवान भद्रबाहूस्वामी कृतमैं है, इस प्रकार भगवान् ऋषभ तथा ऋषभ पुत्र ९९ मुक्ति केलाश ऊपर गमना नंतर निर्वाण स्थानपर स्तूप कराया, यह कथन जंबूद्वीप पन्नत्ती सूत्र मैं है, इस प्रकार ऋषभ देवजीके चतुर्विध संघ प्रतिक्रमण षडावश्यक मैं दुसरा आवश्यक चउवीस त्थव [ चतुर्विंशति संस्तव ] करते थे वह लोगस्सके पाठ मैं सर्व श्रावक प्राय जानते हैं, वह वंदन पार्श्वनाथ स्वामीतक करा, उस मैं आगामी भावी जिन जो द्रव्य निक्षेप मैं थे, उनोका वंदन करणा प्रगटपने सिद्ध है, इस कथनानुसार, सीमंधर स्वामी तीर्थ करनें, जिन दत्तसूरिकों, एक भवावतारी, मोक्ष गमन, फरमाया है, इस लिये वंदन पूजन स्मरणके योज्ञ निश्चय दादासहाब है, १ दुसरा प्रमाण ऐसा है, नंदी सूत्र मै, २२ मी गाथा मैं जिनके लिखे हुये सूत्र अर्द्ध भरत मैं प्रचलित है, तंवंदेखंधलायरिए उन खंधिला चार्यकों वंदन कर्त्ताहूं इस प्रकार २७ पट्टधारी आचार्य देव ऋद्धिगणिः पर्यंतकों, उनके शिष्य सूत्र लेखक देवशेन आगमोंकी नंद लिखते वंदना करी है, प्रभव स्वामीसैं लेकर पंचम कालमैं जितने जैनाचार्य शुद्धज्ञान क्रिया भगवंतकी आज्ञाके आराधक हुये, होते हैं, होंयगें, वेसर्व देव लोक मैं देवता हुये हैं क्योंकि जंबूस्वामीके अनंतर मुक्तितो गये नहीं, नंदी सूत्र मैं २५ आचार्योंका वंदन लिखा ओर पढनेवाले करते हैं, सर्व जैन धर्मी नवकार मंत्रका स्मरण करते हैं, उस मैं तीनों कालके, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुओंकों, वंदन करते हैं, वे सर्व पंचम आरे मैं हुये, होयगें, होते हैं, वे सर्व देवगति धारककों वंदन हुआ वा नहीं, इस लिये ये शंका वृथा है, दादासाहबकी स्थापना गुरु पदकी है, नतु देव पदकी .. जो सूत्र वा न्यायसै युक्तिप्रमाण नहीं मंतव्य करै उनोंके लिये सरकारी दिवानी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रस्तावना.. . फोजदारीका कायदा क्या कर सकता, अपने पिताकों पिता भावसैं न माननीय करे, तो उसका, प्रतीकार कायदेमैं क्या है, लोकीक मैं वह प्रशंसा पात्र नहीं कृतघ्नीयोंका, शिरोमणि कहाता है, - उन गुरुदेवके शंतान जती साधुओं नैं जिनधर्मपर महान् आपत्तियां अत्याचारीयोंने डाली, उसको स्वशक्त्यानुसार निवर्तनकर लाखों जैन शास्त्र भंडार जिनमंदिर, जिनमूर्तियों, जैनतीर्थीको यथास्थित रखलिया, संघ की आपदा भी, निवर्तनकरी, ऐसैं जैनधर्मके आदि रक्षक धर्मोपदेशक, व्रत प्रत्याख्यान करने, करानेवाले, सामायक प्रतिक्रमण पौषध श्रावकोकों करानेवाले, सूत्र प्रकरणादिके व्याख्यानकर्त्ता, मंत्र, यंत्र, चूर्ण, अंजनादि सिद्ध प्रभावक, कविप्रभावक, . जोतिषादि निमित्त प्रभावक, लिखत पठत जीवाजीवादिनवतत्वके अध्यापक. इत्यादि अनेक गुणोंसें संघके उपकारकर्ता, यती वर्गके उपकारों सैं लायकबंद कदापि दूर नहीं होगें, - लेकिन वर्तमानमैं भारतग्रंथमैं लिखा दृष्टांतकी सफलता दृष्टिगोचर हो रही है, जब पांडवोंकों वनवास हुआ, तब राजायुधिष्ठिर ब्राह्मणकों संगले वनदेखने निकले आगे देखा तो एकगऊ अपणी जन्मित वत्साका स्तनपान करती है. ब्राह्मणसैं पूछा, हे भूदेव ये उलटी गति क्यों, हो रही है, ब्राह्मननैं कहा, हे राजन्, ये कलियुग भावी स्वरूप दर्शाता है, कलियुगमैं, मातापिता पुत्रीका द्रव्य भक्षण करेंगें, उसका ये दृष्टांत कलियुग दर्शा रहा है, आगे जाकर देखातो, चंपक वृक्षके कंटक धूल पत्थर लोक जन डालते हैं, और उसके निकटवर्ती बंबूलका कंटक वृक्ष उसकी पूजा प्रदक्षिणा वंदन नमन स्तुति पुष्पमाल धूपोतक्षेपन आदि कर रहे हैं, धर्मराजनैं ब्राह्मनसैं पूछा ये असमंजस स्वरूप क्यों हो रहा है, ब्राह्मननैं कहा, कलियुग भावी स्वरूप दर्शता है, आगे निर्ववेकी कलियुगी मनुष्य, गुणवंत जनसैं द्वेष रखेगैं, दुःखदेंगें, और निर्गुणी, . विद्यारहित, मिथ्या वासितोंकी सेवा, पूर्वोक्त विधि बहुमान करेंगें २, आगे चलकर देखा तो, तीन पुष्करणिया, समश्रेणी है, प्रथम पुष्करणीका जल उछ-. लता है, वह दूरवर्ती, पुष्करणी मैं जाकर गिरता है, शमीपस्थपुष्करणीमैं एक विंद मात्र भी नहीं गिरता, तब धर्मराजने पूछा ब्राह्मण कहता है कलियुगमैं,.. जो निज होयगैं, उनोंकों द्रव्यादिनहीं देंगे, अन्यजनकों विशेष देनेमैं प्रीति श्रीमंत जन रक्खेगें ३ इत्यादि कलियुगमैं प्रवर्तनाके आगामी दृष्टांत सार्द्धशत-- मित कहे हैं, वह तो कलियुगी स्वरूप अवश्य प्रभाव दिखाने लगा है . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रस्तावना.. वाजे जैन गृहस्थ यती जनोंकों उपदेश देने लगते हैं, आपकों द्रव्यसै क्या करणा है, लेकिन जिनोंसैं शरीरकी ममता छूटे नहीं, उनोंकों तो द्रव्यकी अवश्य वांछा रहेगी, यदि इनोंसें त्यागी पना पूर्णतया निभसके तब तो जो जाणकार होता है वह यती तो अवश्य द्रव्यका त्यागी हो जाता है, कहनेकी, . आवश्यक्ता नहीं, लेकिन विचार करना चाहिये यदि यती गुरुजनोंकों श्रावक जननगद द्रव्य नहीं भेट करते तो, यतिगुरु कैसैं द्रव्य रखते, असाढमैं पछे बडी पर्यषणोंमैं व्याख्यान पूर्ण होनेपर, तपश्याके पारणे, औसरमैं, विवाहमैं, इत्यादि अनेक स्थानपर, द्रव्यदानके लिये पात्र सम्यक्त्वी व्रतधर मानकर भेट करना सुरुकरा, वह ही अया वधि प्रचलित है, इस आश्यासै यति, श्रावक जनोंके लिये धर्म उपदेश करने उपाश्रयमैं, तथा गृह ऊपर पर्यंत भी जाते हैं, यदि आश्यात्याग दै तो, निस्पृहस्य तृणं जगत् ऐसा स्वरूप वणजावै, लेकिन यह भी स्मरणमैं रहे, श्रावक जो जैन धर्म सनातनकों मंतव्य करनेवाले हैं उनोंके केई धर्म कार्य मंदिर उपाश्रयके, द्रव्यधारी यति गुरु विना, नहीं निकलेगें, जिन २ क्षेत्रों मैं, जैन गृहस्थोंकों, यति पंडितोंका सहवास रहा, वे तो जिन धर्म पर स्थित रहे, और जिनोंकों, यति पंडितोंका, सहवास, नहीं रहा, वे अमूल्य चिंतामणि रत्नसमान, जिन धर्मकों, अज्ञानपणे, त्याग कर, मिथ्यात्वियोंकी संगतसैं, मिथ्यात्ववासित हो गये, काशीस्थसन्यासी, महान्यायवेत्ता, रामा श्रमाचार्यजीनें, ब्राह्मन, सन्यासियोंकी, शभामैं, मुक्तकंठसैं, भाषण करा था, की, जैनधर्मका, स्याद्वादन्याय दुर्ग, ऐसा अभेद्य, और दृढ है, इसकों, कोई नही खंडन कर शक्ता, और जिन २ महाशयोंनें, इसके खंडनार्थ लेखनी उठाई, वे वालचेष्टावत्, विद्वानोंके सन्मुख, हास्यास्पद, माने गये हैं, इसके स्वरूपकों, प्रथम समझले, वह कदापि स्याद्वादीके सन्मुख, तर्क नहीं करेगा, अद्यावधि जितनें श्वेतांबर जिन धर्मी श्रावक है, उनोंका जिन धर्म, यतियोंकी संगतिसैं ही, रहा है, अब चाहै जिनके उपदेशका लाभ मंतव्य करें, अब तो यतिविद्वान ही समयके फेरसैं, अल्पही रह गये, ताहसलाभ सर्वत्र प्राप्तही कैसैं हो. . जिन मंदिरोंसैं जैनधर्मकी प्राचीनता अन्य दर्शनियोंकों भी विदित हुई, संवत् १९।७५ के वर्षके मासिक पत्र प्रयाग सरस्वतीने लिखा है मथुरामैं 'पृथ्वी तल खोदते एक जिन मंदिरका तोरण लेखयुक्त निकला है उस पर लिखा है शिवयशानें अर्हतकी पूजाके अर्थ ये जिन प्राशाद कराया, महावीरजीद्विवेदी सरस्वती संपादक लिखते हैं, नोट मैं, यह जिन मदिर, ईशवी सन्के, केइ शताब्दी प्रथमका बना हुआ, अंगरेजविद्वानों सिद्ध करा है, वह Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. १५ .. लखनेऊके अजायब गृहमैं, अंगरेज सरकारनैं रखा है, इस प्रकार जिन मंदिर जिन मूर्तियोंद्वारा जैनधर्मकी प्राचीनता, अन्य दर्शनियोंके दृष्टि गोचर विश्वास करने योग्य हो रही है, क्यों कि बहुतसै जिनधर्मके द्वेषी जिन धर्मकों विशेष प्राचीन नहीं मानते थे, लेकिन जिन मंदिरोंके प्राचीन प्रादुर्भावसैं उनकों भी जिनधर्भ प्राचीन है ऐसा मानना पडा है. • इस भरतक्षेत्रमैंकेइयक मत मतांतर 'प्रथम होगये लेकिन उनोंका नाम निशान तक अन्य दर्शनी नहीं जानते, यथा श्वेतांबर भगवती सूत्रमैं गोसालेका कथन है, लेकिन दिगांबर जैनी नामधारकोंके पुराणोमैं उसका नामचिन्ह पर्यंत भी नहीं है, श्वेतांबरोंका ग्रंथ लेख, प्रथम आर्यावर्त रहनेवाले जो बोद्धो. गोसालेकों वीरप्रभसंग दृष्टिसैं देखा था, वे बोद्धग्रंथमैं लिखते हैं, निग्रंथ महावीरका एक शिष्य गोसाल कभी था इस न्याय श्वेतांबरोंका ग्रंथ लेख सत्यप्रतीति करने योग्य है, गोशालेके मतको माननेवाले उसशमय ११ लक्ष श्रीमंत गृहस्थ थे, और महावीर स्वामीके यथार्थ धर्मानुयायी सौराजा और एकलक्ष गुणसठ सहस्रव्रतधारी गृहस्थ श्रीमंत लिखा है, लिखनेका तात्पर्य ऐसा है, इग्यारेलाखके मताध्यक्षका नामचिन्ह तक आर्यावर्त्तमैं नहीं रहा, और जैनतीर्थकरोंकी प्राचीनता और होना अन्य दर्शनियोंमैं क्यों कर प्रगट होगई, सम्यक्त्वधारी श्रावकोंके जिनमंदिर करानेके प्रभावसैं इसप्रकार गोशाले आदिपूर्व मतांतरियोंके गृहस्थ मंदिरमूर्ति बनवाते तो, इससमय उनोंका होना अन्य दर्शनी भी स्वीकारते, ऋषभदेव के शमय पर्यंतकी भी मर्तियां अद्यावधि मिलती है, क्योंके निर्विवाद सिद्ध है, जैनगृहस्थ असंक्षकालसैं जिनमदिर, जिनमूर्ति कराते चले आये, [ प्रष्ण ] जिनमंदिर जिनमूर्ति, पुनःउसकी पूजामैं जल, पुष्प, अग्नि, फलादि आरोपण करना, हिंसा है, और हिंसाका कृत्य जिनधर्मी श्रावक कैसे करे, [ उत्तर ] हे भव्य यह तो तुमभी बुद्धिसैं निर्धार कर सक्ते हो, विना तीर्थ करके भक्त श्रद्धानवाले विना जिनमंदिर कोन करावेगा, और वेही जिनमंदिर कराते चले आये हैं, और तीर्थकरके भक्त श्रद्धावंतकों, मिथ्यात्वी कहे, वह मिथ्यात्वी जिनाज्ञाका विराधक होता है तुम विचार लो तीर्थ करकी श्रद्धा भक्ति मिथ्यात्वीको कैसे हो सके, जिनमंदिरोंके करानेवाले निश्चय सम्यक्त्ववंत सिद्ध होते हैं, मिथ्यात्वी वोही कहाता है जो तीर्थकरसैं वे मुख हो, अब रही ये कुतर्क की, पूर्वोक्त विधिमैं हिंसा है, सो स्वरूपहिंसा यत्किंचित् एकेंद्री जीवोंकी दिखती है जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, कराने, वा पूजामैं, तबतो तुमलोकोनैं उपवास, बेला, तेला अठाई, पक्ष, मासक्षमणादि तपस्याकों भी त्यागदेना चाहिये, इस मनुष्य देहधारीके शरीरमैं, बेइंद्री, तेंद्री, त्रसजीव भी असंक्ष है चूरणिये, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....१६ . प्रस्तावना... गिंडोले, जूं, लीख, चर्मजू आदिक २० जातिके, पन्नवनासूत्रजीवपदमैं, अर्श मैं, कंठवेलमैं, द्विन्द्रियजीव कहा है नारूकों, बेइंद्री जीव कथन करा है, उनका जीवतव्य मनुष्यकृत आहारपानीसै हैं, जवउपवाशादिमैं, उन जीवोंकों, आहारपानी नहीं मिलता, तब वे, मर जाते हैं, अब तुम विचार करो, धर्मके अर्थ असंक्षजीव हलते फिरतेको, मारना, ये हिंसा विशेष, वा जिनमंदिरादिमैं, एकेंद्रीजीवोंकी हिंसा बताकर त्यागदेना, वह विशेष, इसलिये ही आचारांगसूत्रमैं, लिखा है आसवासेनिरासवा, निरासवासेआसवा, अर्थात् आश्रव वह निराश्रव, निरराश्रव वह आश्रव, धर्मकार्यमैं हिंसाकी दलील करणी, जिनाज्ञासैं विरुद्ध है सर्व कार्यमैं इरादा ( भाव ) अनुसार, धर्म, और पापका बंध होता है प्रतिष्टाकल्प नामग्रंथ १० पूर्वधर श्रुतकेवली भगवान वज्रस्वामीका रचा हुआ है, इस लेखानुसार, जिनमंदिर, जिन प्रतिमाकी प्रतिष्टा कराई जाती है, . १२ कालीके अनंतर ८४ आगमोंमै २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्त्ति आदि १६३ शलाका पुरुषोंका इतिहास, श्रावकोंका जीवन चरित्र आदि पूर्ण पनैं नहीं लिखागया, अन्य २ अनेकस्थल जैसैं दृष्टिवाद विछेदगया वा ११ अंगमैं विंदुमात्रस्थल लिखागया, वाकी पूर्वधारियोंने, वा श्रुतधर आचार्योनैं, जो लिखा, वह घोर जल्मसैं वचेवचाये लाखों शास्त्र जैनके विद्यमान है, पाटन, पट्टन, खंभायत जेसलमेरादिकोंके भंडारोमैं, वे शास्त्र जैनधर्मके अगाध ज्ञानका परिचय दे रहे हैं, सूत्रोंमें विशेषतया साधुमार्ग काही उल्लेख लिखागया, श्रावकोंकी दिनचर्या. रात्रिचर्यादिक आचार विचार, श्रुतधर आचार्योनैं गुरु परंपरागत श्रवण करे हुये प्रकीर्णलिखे उसमें मिलते हैं, .. ओसवाल मरुधरदेश वास्तव्योसैं दान लेनेवाले १६ ॥ जातिके भोजक मग जाति अपने को साकलद्वीपी कहते हैं, लेकिन काशी गयाके देशमैं वसने वाले, साकलद्वीपी ब्राह्मन और हैं, वे भी भोजक कहाते है, काशीमैं उनोंनें अपणी ब्राह्मनोंमें, श्रेष्टता सिद्ध करने, संस्कृतमैं पुस्तक छापी है, उन भांजक साकल. दीपियोंसे, इन भोजकोंसैं कुछभी संबंध सिद्ध नहीं, इन ओसवाल मारवाडि-- योंके, भोजकोंका, इतिहास, टाडसहाबके लिखे, राजपूताने इतिहाससैं, संबंध मिलता है, तत्व क्या है, वह तो सर्वज्ञ जानें, - ब्राह्मन ज्ञाति मुख्य तो एकही स्थापित हुई यथावेदोक्त श्रुती है, ब्राह्मणामुख-- मासीत्, जैन धर्मवाले भी माहण [ ब्राह्मण ] संज्ञा सम्यक्तयुक्त उत्कृष्ट द्वादश व्रत धारक, उभयकाल षडावश्यक, तथा-षट् नियम नित्यधारक, पांचसै मनु-- Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. .: १७ ष्योंका नाम प्रचलित प्रथम हुआ, उनोंमैं आज्ञाकर्ता आचार्य कहलाये, वाचना देनेवाले उवझाय [ उपाध्याय | कहलाये, उवझायशब्द जैनसूत्र प्राकृतका है, वृद्ध बहु श्रुती आर्श कहलाये, कल्याणकारी तपकर्ता कल्याण कहलाये, विस्तार अर्थयुक्त व्याख्याकर्ता, व्यास' कहलाये, आगे जिनोंके वाक्य हितावह वह पुरोहित कहलाये, एवंज्ञाति उन माहनोंमैं नानाकारणोसैं होती गई उसके अनंतर इनोंमें भेद हुआ ऐसा जैन धर्मका मंतव्य है, तदनंतर दिनोंदिन वृद्धि होनेसैं देश २ मैं भिन्न भिन्न वसनेसैं, देशोंकी अपेक्षा जाती स्थापित होगई यथा सारस्वता कान्यकुब्जा, गौडाउत्कल मैथिला, पंचगौड इतिक्षाता, विन्ध्यो उत्तर वासिनः १ इसप्रकार द्रविडदेशकी अपेक्षा पंच द्राविड कहलाये. सर्व ब्राह्मणप्राय अपनेकों इनदशोंके अंतर्गतही मंतव्य करते हैं, जिसमें सरस्वती नदीके शमीपवर्ती सारस्वत कहलाये कनोजदेशवास्तव्य कनोजिये कहलाये, ( सरवर ) केशमीपवर्ती सरवरिये, गौडदेशवासी गौड, गुजरातके वास्तव्य गुजर गोड, उत्कल देशवास्तव्य उत्कल कहलाये, मिथिलावास्तव्य, मैथिल कहलाये, संखारड्डीऋषिकी शंतान शंखबाल, पाराश्वरकेपारीक, दाधीचके दायमैं, खंडेलाके शमीपवर्ती खंडेलवाल, भृगुऋषिकेभार्गव ( दुसर ) इत्यादि अनेक भेदांतर गौडोके इससमय है, द्रविड, कर्णाटी, तैलिंग, महाराष्ट्र, औदिच्य, गुज्जर, इनगुज्जरके भेदांतर, श्रीमाली, पुष्करणे, गूगली, तैलिंगके भेदांतर भट्ट, गोस्वामी, इत्यादि है, साकलद्वीपी भोजक, राजगुरुप्रोहित, भोजक, चौबे, सनाढ्य, पांडे इत्यादि ८४ भेदांतर माने जाते हैं, जिन २ जातिकी पुरानोंमैं, उत्पत्ति लिखी है वह पीछैबने सिद्धहोते हैं, और जिसकी उत्पत्ति पुराणोमैं नहीं लिखी है, वह सनातन प्राचीन ब्राह्मण सिद्ध होते हैं, ( उदाहरण) पुष्करणे ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति किसीभी देवतासैं, वा अमुक ऋषिके शंतान ऐसा लिखत नहीं देखनेमैं आता, इसन्याय, जबसैं ब्राह्मणवर्णकी स्थापना प्रचलित हुई तब हीसै पोसह करनाब्राह्मण हुये, ये बलात्कार सिद्ध होता है, सूर्यचंद्रादिग्रह, इंद्रादिकदिव्य शरीरधारी देवोंकी तेजोमई प्रतिछाया उनोंकी ये पहचान है, उच्च दरजेके देव, मनुष्य लोककी दुर्गधिके कारण, एकाएक मृत्युलोकमैं, आते नहीं, किसी तपेश्वरीके तपसिद्धिसैं, वा पूर्वभवके स्नेहके वश ध्यानके वस आते हैं, तो भूमिसैं स्पर्श उनोंका पांव नहीं होता, न्यूनमैं न्यून चार अंगुल पृथ्वीसैं अधर रहते हैं, आंख नहीं टमकारते, पुष्पमाल कंठस्थ नहीं म्लान होती, मनमैं धारे कार्य करने समर्थ, इतने चिन्ह दिखाई देतो, देव समझो, अन्यथा मनुष्य, मनुष्यलोकमैं तथा वागवगीचोमैं, जो देव रहते हैं, वे व्यंतर जाति, वनव्यंतर जाति एवं १६ उनोंमैं भी, महानपुण्यशाली व्यंतर देवभी मृत्युलोकमैं पूर्वोक्तकारणविना नहीं आते, देव देवांगनास, रतिक्रीडा करते, पूर्णप्ति, वायुके Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रस्तावना. श्वेतपुद्गलोंके, सग्गाट निकलनेसैं, होती है, मनुष्यवत् शप्तधातुका शरीर देवका नहीं, इसलिये नतोवीर्य (शुक्र) निकलता, मनुष्य, तिर्यचवत् पुत्रोत्पत्ति नहीं होती, जिनधर्म्मवाले, तथा सायन्सवाले, तो मनुष्य मनुष्यों की उत्पत्ति, तिर्यंचोंसैंतिर्यंचोंकी उत्पत्ति मानते हैं, सूर्य, चंद्र, इंद्र, इत्यादिनामके मनुष्यकों उत्पत्तिके कर्त्ता किसी स्त्री संबंधमैं, नामके कारण देव ठहराया होगा, ऐसा अनुमान होता है, १८ पुराणो मैं तथा ईसाईमतावलंबी, ईसाकी माता मिरयमकों, ईश्वरसैं गर्भवती हुई ईसाको जन्मा, ऐसा लिखा है, दुसरोंका मंतव्य ऐसा है, जैनधर्म्मका नहीं है, कबीर पंथी कबीरजीकी पुष्पों में उत्पत्ति, अंतमैं पुष्प होना कहते हैं, गोकुल संप्रदाई कृष्णका अवतार वल्लभाचार्यजीकी, अग्निकुंडमैं उत्पत्ति; कहते हैं एवं अनेक मत है आर्यसमाज मतके उत्पादक स्वामी दयानंदजी अपने रचे सत्यार्थ प्रकाशमैं देवता, और नर्क, ये दोगति परोक्षकों नहीं मानी, लेकिन दयानंदजी उक्त वेद क्रिया करनेसें, मनुष्योंका मुक्त आत्मा होना मंतव्य करा, वे मुतात्मा सैल करने, इच्छानुसार इधर उधर घूमते फिरते हैं, विचार होता है देवगति, नर्कगति, सर्व्वं दर्शन सम्मत है, उसकों, नहीं मानना, सोतो समझा, लेकिन् मुक्तात्मा, इधर उधर घूमते फिरते हैं, इसमें प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है, क्या उनोंकों मनुष्योंने कभी देखा है, वेदोंके पूर्व भाष्यकार, पुराण, कुराण, सर्व्वमत, देव, इंद्र, नर्कादिगति लिखी है, देवतोंकोंही मुक्तात्मा केइ मतधारी मानते है, मनुव्यवत् शप्तवातु निष्पन्न शरीर नहीं होनेसें, नास्तिक मत उत्पादक वृहस्पति देव, नर्क, नहीं मानता, लेकिन स्वामी दयानंदजी जीव, ईश्वर, माना, वृहस्पतिनै नहीं माना इतना तफावत है, इस महाजनमुक्तावलीमैं, राजन्यवंशी विशेषतया, वाकी ब्राह्मणादि ३ वर्ण अल्प संझासैं जिनधर्म्मकी शिक्षा विशेषपनैं आपदा निवृत्ति होनेसें, पश्चात् सहवास उपगारी आचार्योंका करने से प्राप्तकरी उस उपगार कृत्य मैं, दादा गुरु देवोनें, निज आत्मबल शक्तिकी स्फुरणा, निःकेवल अहिंसा परम धर्मकी वृद्ध्यर्थही करी, स्वार्थवस किंचित् भी नहीं, उन २ चमत्कारोंका लेख देखकर, केइयक आधुनिक जैना भास अपने साधुत्वगुण सिद्ध करने गर्व्वमत्त कहते हैं, उनों मैं साधुत्वगुण नहीं था, यदि होता तो लब्धि नहीं स्फुरण करते, ज्ञानशून्य, अविद्यामहादेवीकेशंतान, ऐसै वाक्योकों तहत्त कह कर सत्य श्रद्धान इस वार्ता पर लाते हैं, लेकिन उनोंनैं बुद्धि खरच करणी चाहिये, जिस लब्धिके फिराने मैं, आज्ञा भंगका दोष लगे आगे अनर्थकी परंपरा वृद्धि पावै, वह लब्धि फिरानेझैं साधुकों आलोचना करना ऐसी आज्ञा जिनेश्वरनैं दी है, और जिस लब्धिद्वारा अनर्थ कृत्यनिर्मूल होकर धर्मकृत्य वृद्धि पावै, उसमें आलोचन प्रायश्चित्त लेनेकी, किसी ग्रंथ मैं Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. १९ भी आज्ञा नहीं, २८ -लब्धि मैं केवल ज्ञान, मन पर्यवज्ञान, अवधिज्ञानकी लब्धि, पदानुसारणी लब्धि कही, जिसलब्द्धिसे केवल एक पदके पढनेसे लक्ष कोटि प्रमाण पद विगर पढे आ जावै, तो विचार लो पूर्वोक्त केवल ज्ञानादिक लब्धि प्राप्त होनेसें क्या उसकी स्फुरणा, साधु नहीं करते हैं, क्या इनोकों दंड कहांई लिखा है, श्रीजिनदत्तसूरिः प्रमुख आचार्योनैं आत्मबल लब्धि, निःकेवल हिंसक धर्म मिथ्यात्व त्याग कराने, करी, विचारे करे क्या, आप मैं तो अंशमात्र, ऐसी आत्मबलशक्ति नहीं, तब उन अनभिज्ञ अपठितोंके सन्मुख ऐसी गप्पसप्प लगाकर, निज प्रतिष्टा जमाते हैं, जो जिनधर्मके उपगारकर्त्ता आचार्योंके स्थापित ओसवालादिककुनहीं होता, तो तुमको ये चंगे मालमलीदे मिलने कहांथे हम जब आपके इस कथनकों, सत्य समझैं, और आप मैं, साधुपना समझैं, एक राजन्यवंशीकों, प्रतिबोध देकर, ओसवालों मैं मिला तोदी जिये, फक्त रांधेकों, रांधने योज्ञ होकर, पुनः, उनों में, साधुपना, नहीं था, ऐसैं २ मृषा लापकर पापपिंड भरते हैं, और इन आत्मबल मंत्र चमत्कारों, प्रतिबोधित महाजनोंके इतिहासोंकों, पढकर, आधुनिक आर्यसमाजी आदिकोंकों, इन २ वार्त्ताओंपर, प्रतीति नहीं आवेगी, लेकिन उनों दयानंदजीके लेखोंकों, पढ़ा होगा, योगसाधक योगीके, अष्टसिद्धियां, प्रगट होती है, वह अचिंत्य शक्तिधारक, उस योगद्वारा, अनेक कार्य साधने समर्थ होता है, यथा वर्त्तमान समयमैं, उन गुरुदेव के योगमै सैं, अल्पांस योगसाधक, मेस्मेरिजम कर्त्ता, अनेक, अद्भुत कार्यकी सफलता कर दिखाते हैं, व्याधि मिटा देते, भूत, भविष्यद्, वर्तमान, दूरवर्ती निकटवर्त्ती बतादेना, अपने आत्मबलकी शक्ति, अन्य आत्मासैं मिलाकर मुक्तात्मा (मृत) कका आव्हान करना आदि प्रत्यक्षपनें विद्यमान है, सुना है के अमेरिकामै तो चाहे जिस मृत मनुष्य को बुलाकर, परोक्षपने वार्त्तालाप कराते हैं, वाणी द्वारा जानाजाता है की ये बाणी अमुक मनुष्यकी है, गुप्त गृहका रहस्य बता देता है, दृष्टिगोचर नहीं होता, तो फिर इस योगधारियों सैं असंक्ष गुणयोगमैं दृढ साधन कर्त्ता श्री जिनदत्तसूरि प्रमुख आचार्यों के चमत्कारों मैं संदेह करना, कोनसी बुद्धिमत्ता है, पुनः दयानंदजी पंचमहायज्ञ मैं, विवाहादि शोले संस्कारों मैं वेदोंके मंत्र लिखे हैं और लिखा है, अमुक मंत्र पढकर अमुक कृत्य करना, इसका हेतु क्या होगा, ईश्वरकों दयानंदजीनें आकाशवत् सर्व्वव्यापी कथन करा है, तब तो संसारके यावन्मात्र पदार्थ ईश्वरसैं भिन्न रहा नहीं, वह सर्व्व ईश्वरके आधीन है, तो फिर मंत्रोंकों पढकर कंठशोष करनेसें क्या सिद्धि है हवनादि करते, वह तो त्रिकालदर्शी है, मनुष्योंकी अपेक्षा तीन काल है, ईश्वरकी अपेक्षा केवल सर्व्व Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. वर्तमानकाल है, ये वेदोंके मंत्र ईश्वरनैं अपनी पूजाके अर्थ किस लिये रचे जो कुछ मनुष्य उसके अर्थ कृत्य हवनादि करे उससे ईश्वर प्रशन्न होता होगा, तब तो रागी हुआ, जो ईश्वरके अर्थ मंत्र पढ कृत्य नहीं करे, उसपर द्वेष करता होगा, इसन्याय द्वेषी ठहरा जब राग द्वेष विद्यमान है, एसेको कोन बुद्धिवान ईश्वर मान सक्ता है, यदि वेदोक्त मंत्र कुछ कार्य साधने समर्थ है तो, अन्यमंत्रोंकों असत्य क्या समझ कहते हैं, मंत्रका अर्थ गुप्त रहश्यका कहना होता है, भगवंत महावीर सर्व्वज्ञनैं पंचम आरेमैं, २३ बेर उदयकर्त्ता २००४ युग प्रधानों का प्रादुर्भाव कथन करा ये आरा २१ हजार वर्षोंका है, उसमैं सैं, जिन - वल्लभ, जिनदत्त, जिनचंद्र आदि नाम विद्यमान है, इन गुरुदेवोंनैं, जिन मैं उदय करा मुला फर्मान जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर वादसा गाजीका हुक्काम किराम क जागीर दारान व करोरियान व सायर मुत्सद्दियान मुहिम्मात सूबे मुलतान विदानंद किचूं हमगी तवज्जोह खातिर खैरंदेश दर आसूदगी जमहूर अनाम बल काफ फर जाँदार मसरूफ व मातू फस्त कि तबकात आलम दरमहाद अमनबुदा बफरा बालबइबादत हजरत एजिद मुत आल इश्तगाल नुमायंद व कब्ले अजीं मुरताज खैर अंदेश जिनचंद्रसूरिः खरतरगच्छ कि बफैजे जिमत हजरते मासरफ इखतिसास याफता हकीगत व खुदातलबी ओब जहूर पैवस्ता बूद ओरा मल मराहिम शाहंशाही फरमूदैम मुशारन इले है इलतिमास नमूद कि पेश अजीं हीरविजयसूरिः सागर शरफ मुलाजिमत् दरियाप्ता बूद दर हरसाल दोवाजदहरोज इस्तदुबा नमूदा बूदार्क दरां अय्याम दर मुमालिके महरूसा तसलीख जांदारे नशवद व अहदे पैरामून मुर्ग व माहीव अमसाले आँनगरदद व अजरूय मेहरबानी बजाँ परवरी मुल्त मसे ऊदरजै कबूल याफ्त अकनू उम्मेदवारमार्क यकहफ्तै दीगर ई दुबा गोय् मिसले ओं हुकूमे आली सरफ सुदूर याबद् बिनाबर उमूम राफत हुक्म फर मूदैम् कि अज तारीखै नौमी ता पुरन मासी अज शुक्ल पच्छ असाढ दूर हरसाल तसलीख जाँदारे न शवद् व अहदे दर मकाम आजार जाँदार मोरेनगर दद् व अस्ल खुद आनस्त किचूं हजरते बेचूं अजबराए आदमी चंदी न्यामतहाय गूनागूं मुहय्या करदाअस्त दरहेच वक्त दूर आजार जानवर नशवद् वशिकमे खुदरा गोर हैवानात नसाजद लेकिन बजेहत् बाजे मसालह दानायान पेश तजबीज नमूदा अंद दरीं बिला आचार्य जिन सिंहसूरिः उर्फ मानसिंह ब अरज असरफ अकदस रसानीद् कि फरमाने कि कब्ल अजीं व शरह सदर अज सुदूर याफ्ता बूद गुम शुदा विनाबरां मुताविक मजमून हुमा फरमान मुज दद फरमान मरहमत फरमूदैम् में बायद् कि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ हस्बूल मस्तूर अमल नमुदा ब तकदीम रसानंद ब अजफरमूदह तखल्लुफ व इन हिराफ नवरजंद दरी बाब निहायत एह तमाम व कद्गन् अजीम लाजिम दानिस्तात इर ब तबद् दुलू बकबायद आंराह नदिहंद तहरीरन फीरोज रोजसी बयकुम माह खुरदाद इलाही सन् ४९ अहिंसा फर्मान बादशाह अकबर प्रस्तावना. [१] वरिसालए मुकर्रबुल हजरत सुलतानी दौलतखां दरचौकी [ उमदे उमरा ] [२] जुबद तुल आयांन राय मनोहर दरनौबत वाकया नवीसी खाजालालचंद हिन्दी योधपुरस्थ मुन्सी देवीमशादजी कायस्थने करा पारसी फरमान मोहरछाप अकबर वादसा गाजीका सूबे मुलतान के बडे २ हाकिम जागीरदार करोडी और सब सुत्सद्दी [ कर्मचारी ] जानले कि हमारी यही मानसिक इच्छा है कि सारे मनुष्यो और जीव जन्तुओंकों सुख मिले जिससे सबलोग अमनचैनमें रहकर परमात्मा की आराधना में लगेरहें इससे पहले शुभचिंतक तपस्वी जिनचंद्रसूरिः खरतरगच्छ हमारी आमखासमैं हाजर हुआ जब उसकी 'भगवद्भक्ति प्रगट हुई तब हमनें उसको अपनी बडी बादशाहीकी मेहरबानियों में मिलालिया उसनें प्रार्थनाकी इससे पहिले हीर विजयसूरिनें सेवामें उपस्थित होनेका [ हाजर रहनेका ] गौरव प्राप्त किया था और हरसाल १२ दिन मांगे थे जिनमें बादशाही मुल्कों में कोई जीव मारा न जावे और कोई अदमी किसी पक्षी, मछली और उन जैसे जीवोंको कष्ट न दे उसकी प्रार्थना स्वीकार होगई थी, अबमें भी आशा करता हूं कि एक सप्ताहका और वैसा ही हुक्म इस शुभ चिंतकके वास्ते हो जाय इसलिए हमने अपनी आमदयासे हुक्म फरमा दिया कि आषाढ शुक्लप्रक्षकी नवमी से पूर्ण मासीतक सालमें कोई जीव मारा न जाय और न कोई आदमी किसी जानवरको सतावै असल बात तो यह है कि जब परमेश्वरनें आदमीके वास्ते भांति २ के पदार्थ उपजाये हैं तब वह कभी किसी जानवरकों दुख न दे और अपने पेटको पशुओंका मरघट न बनावै परन्तु कुछ हेतुओंसे अगले बुद्धिमानोंनें वैसी तजबीज की है इन दिनों आचार्य जिन सिंहसूरिः उर्फे मानसिंहने अर्ज कराई कि पहले जो ऊपर लिखे अनुसार हुक्म हुआ था वह खो गया है इस लिये हमनें उस फरमान के अनुसार नया फरमान इनायत किया है चाहिये कि जैसा लिख दिया गया है वैसाही इस आज्ञाका पालन किया जाय इस विषयमें बहुतही कोशिश और Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. प्रस्तावना. ताकीद समझ कर इसके नियमोंमें उलट फेर न होने दें ता. ३१ खुरदाद इलाही सन् ४९ हजरत बादसाहके पास रहनेवाले दोलत खांके हुक्म पहुंचानेसैं ऊमदा अमीर और सहकारी राय मनोहरकी चौकी और ख्वाजा लालचंदके वा किया [ समाचार ] लिखणेकी बारीमें लिखा गया . युग प्रधान जगद्गुरु भट्टारक श्रीजिनचंद्रसरिः इल्काब इनायत मेजर जनरल. सर जांन मालकमकी लिखी हुई मेमायर आव् सेंट्रल इंडिया नामकी पुस्तक दो जिल्दोमै है उसकी दूसरी जिल्दमें उनोंने इस फरमानका जिक्र लिखा है तथा उज्जैण मालवाके जैनमंदिरमें इस फरमाणका शिल्ला लेख है... जैन ग्रथोंसे पुष्करचय प्रादुर्भाव वीतभयपत्तन सिंधुदेशमें २५०० वर्ष लगवग राज्यथा उहां उदाई राजाथा उसनें विशाला नगरी जो पूर्व देसमें उसका स्वामी चेटकराजा उसकी बडी भगनी त्रिसला जो क्षत्री कुंडपुराधीश सिद्धार्थकों व्याही थी उससैं नंदिवर्द्धन १ और वर्द्धमान [ महावीर ] ये दो पुत्र उत्पन्न हुये जिसमें महावीर ३० वर्षकी वयमें राज्य स्त्री त्यागकर निग्रंथ हुआ १२॥ वर्ष तपकर मोहादिकर्मोंकों क्षय कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी जैनधर्मका २४ मां तीर्थकर कहलाया चेटककी ७ पुत्रियां हुई ६ तो६ राजोंकी राणियां हुई जिसमें प्रभावती उदाईकों व्याही ७मीसु ज्येष्टा कुमारी दीक्षाले साध्वी हो गई इसके संग पेढाल विद्याधर सन्यासीन बलात्कार संगम करा तब उसके सत्यकी नाम पुत्र उत्पन्न हुआ १४००० सहस्र विद्या सिद्धकर इग्यारमा रुद्र कहलाया जिसको लोक महादेवे कहते हैं उस उदाई राजाकी स्त्री प्रभावतीको देवविनिर्मित जीवित महावीर स्वामीकी मूर्ति प्राप्त हुई, उस प्रतिमाकी पूजा त्रिकाल करती थी, उसकी पूजोपकरण रक्षार्थ कुब्जादासी नियत थी, निमित्तज्ञानसैं अपनी आयु अल्प जांणकर पर भव सुधारने पति उदाई नृपसें दीक्षार्थ आज्ञा मांगी राजानें कहा यदि तूं तप संजम ब्रह्मचर्य द्वारा परलोकमैं देव पद पावे और मेरे संकटमें सहायता करनेकी प्रतिज्ञा करे तो दीक्षाकी आज्ञा देताहूं राणीने प्रतिज्ञा करी आज्ञानुसार साध्वी हो षट्मास तपसंजम आराधकर सौधर्म प्रथम देवलोकमैं देव हुई, इधर जीवित स्वामीकी प्रतिमा राजा उदाई त्रिकाल पूजते रहा एकसमय गांधार देशी श्रावक जीवित स्वामीके दर्शन पूजार्थ आया उसकों अतीसारकी व्याधि हुई तदा साधर्मी जानकर कुब्जा दासीने परिचर्याकी निरोग होनेपर उसनें. दो गुटिका प्रत्युपकारमें कुब्जाकोंदी और कहा एक गुटिकासे तेरा कुब्जत्व निवृत्त होगा दूसरी गुटिकासे सौभाग्य वृद्धि होगी, वैसाही हुआ उससमय उज्जैण १ इसका पूर्ण वृत्तांत जैन दिग्जियछपे हुये ग्रंथमैं देखो । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रस्तावना. प्रस्तावना. . .. २३ पुराधीस इसके रूपकी प्रशंसा श्रवणकर दूती संचार कर जीवित स्वामीतुल्य अन्य प्रतिमा स्थापन कर उस प्रतिमायुक्त अनल गिरि गंधहस्तीपर दासी और प्रतिमाको लेकर उज्जैण गया दुसरे दिन पुष्पमाला मूर्तिकी म्लान देख, राजा शंकित हुआ, क्योंकि मूल देवाधिष्टित प्रतिमाका अतिशय था, जो पुष्प आरोपन किया जाता, वह म्लान नहीं होकर निजरूपही रहते थे, दासीभी नहीं पाई, तदनंतर राजा, अपनें सर्व हस्तियोंकों निर्मद हुआ देखकर, अनुमान करा, अवश्य अनलगिरि गंधहस्ती इहां आया उसकी गंधसे सर्व हस्ती मेरे निर्मद होगये, वह चंड प्रद्योतविना अन्य राजाके नहीं है तब दूत भेजा दासी 'तुझें दी लेकिन जीवित स्वामीका स्वरूप पीछा भेज, दासी उस प्रतिमाका इष्ट होनेसैं मतिविना रहे नहीं, इसलिये चंडप्रद्योतने, दैना इनकार किया, तदा राजा उदाई, ससैन्य चढाई करी, लोद्रव पत्तनकी भूमि शमीप, जल नहीं, शेन्या जलाभावसे, व्याकुल हुई, राजा चिंताग्रस्त अत्यंत हुआ, उस समय, वह प्रभावती देवता प्रगट हो, अक्षयजलका, दिव्य कुंडरच, चिंता निवृत्तकरी, पुन अधुना रामदेवका स्थान है, तत्र जलाभावसैं, दुसरा कुंड रचा, जो कुष्टी अंधेआदि किसी समय आरोग्य, रामदेवके मेले में उस दिव्य शक्तिसैं होते हैं, तीसरा जलाभाव अधुना जो अजयमेरु नगर है उसके निकट भूमीमैं हुआ, तब तीसरा पुष्कर इहां देवताने रचा, जिसकों अन्य दर्शनी पुष्कर तीर्थकर मानते हैं, राजा उदाई चंड प्रद्योतसैं युद्धकर कारागार कर संग ले पीछा घिरा, एक दिवस भाद्रपद शुक्ल पंचमीको राजा उपोषित पोषध करने, रसोईदारसैं कहा, मैंतो आज उपोषित रहूंगा, चंडप्रद्योतकों, यथारुचि भोजन करा देना, रसोईदारनें चंड प्रद्योतकों पूछा, तब चंडप्रद्योत भयभीत हो, विचारने लगा, निरन्तर उदाई मझें, संग भोजन कराता, आज अवश्य विष देकर मारेगा, तब बोला, आज मेरे भी उपवास है, तब रसोईदारनें चंडप्रद्योत कथित वार्ता कही, तब राजा भयसैंभी उपवास करनेवाला, स्वसाधर्मी समझ, विचार करा साधर्मीको कैदी रखकर मुझैं उपवास पोसह करना उचित नहीं, तब स्वर्णकी वेडी तुडा परस्पर क्षमापनाकर, पौषध साथमें करकर, उज्जयणीका राज्य पीछा दै, विदा किया, परस्पर साद भी थे, क्योंके चेटक राजाकी पुत्री १ चंड प्रद्यातकोंभी व्याहीथी इसलिये, इति त्रिपुष्कर प्रादुर्भाव यह लेख दानादि कुलक, कल्पसूत्र वृत्ति आदि ग्रन्थोंमें लिखा है. - इस पुष्करके, किंचित् दूरवर्ती, वृद्ध पुष्कर [ बुढा ] पुष्कर अन्य भी है, नमालम विक्रम संवत् १२ शताब्दीमें, मंडोवरका राजा नाहरराव पडिहारने कोनसा पुष्करका जीर्णोद्धार करा, इस देवाधिष्टित पुष्करका जल तो अक्षय Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रस्तावना. पातालका है, घाट प्रमुख बंधाया हो तो, आश्चर्य नहीं, इहांके पंडे पोकरिये, सेवग कहाते हैं, उत्पत्तिका इतिहास इनोंकाये कहते हैं, व्यासके पुत्र शुकदेव, उनोंके ५ पुत्र हुये, उनोंकी शंतान हम है, ब्राह्मणोंके पुराणोंसे सिद्ध है, शुकदेव, यावज्जीव ब्रह्मचर्य धारी ऋषि थे, जैनियोंके ज्ञातासूत्रमें भी ऐसा लिखा है, शुकदेव संन्यासी, द्वारिकामें, था बच्चापुत्र, जैनसाधुसैं, धर्मसंबंधी प्रष्णोत्तर पूछकर, पांचसय सन्यासियोंसैं, जैन दीक्षा, स्वीकार करी, अंतमें संजय पर्वतपर पंचशत ही मोक्ष पाये, तब किस शास्त्रानुसार, शुकदेवजीके ५ पुत्र होना, लोकमंतव्य करै, टाड सहाब २० हजार बेलदारोंका, पुष्करपर ब्राह्मन बनाना लिखा है, वह पुष्करणे ब्राह्मण, सैंधवारण्य वासियोंके संग बिल्कुल नहीं मिलता, क्योंके न तो पुष्करपर पोकरणोका अधिकार है, न पुष्करके गर्दन वाह पोकरणोंकी वस्ती है इस लिये, दुसरी यह बात भी है के ओसवालोंके भोजकोंमें ६ गूजर गोड गोत्रोंके ब्राह्मण ६ खंडेलवाल गोत्रोंके ब्राह्मण, ४ गोत्रके पुष्करणे ब्राह्मण, मिलके, भोजक ओसवालोंके गृहकच्ची रसोई खानेसैं, भोजनसैं भोजक कहाये, जातिभास्कर ग्रंथमें, श्रीमालमैं ५ हजार ब्राह्मण भोजक होना लिखा है, और ओसवालोंके १८ गोत्र ओसियांमें उनोंके साथ भोजक होना लिखा है, ओसियां पत्त न भी श्रीमाल नगरीके राजपुत्रोंने ही वसाई थी केवल ३० वर्षका अंतर है, टाड साहबके प्रत्युत्तररूप ग्रंथ व्यास मीठा लालजीनें छपाके प्रसिद्ध करा है, उसमें लिखा है, ओसवालोंके भोजक श्वयं मंतव्य करा है कि हमारी १६ जाति ३ब्राह्मणोंके गोत्र मिलके बनी है, जब २२२ बीयेवा इसे पुष्करणा ब्राह्मणगोत्र विद्यमान था, तभी तो उनोंमेंसै ४ गोत्र पुष्करणे, भोजक हो गये, तो फिर पुष्करणे ब्राह्मण पुष्करपर बनना कैसै सिद्ध हो, पोकरिये, पोकरणे, सदृश नाम मिलनेसैं क्या दोनों एक हो सक्ते हैं, कदापि नहीं, ओसवालोंके भोजक, साकल द्वीपी सर्वथा नहीं है, न इनोंकी मग जाति है, में भी इनोंके कथनानुसार इनोंकों प्रथमावृत्तीमैं मग लिखा था, अन्य २ प्रमाण मिलनेसे, त्रुटियोंकों यथार्थपने सुधारी है, जब परशुरामनें कृत्तिकार्जुनका नाशकर हस्तिनागपुरका राज्यपती बना,यमदग्निकों कृत्तिकार्जननें मरवाया था, इस द्वेषसे, तदनंतर क्षत्रियवर्गका ७ वखत नास करा, उस समय, बहोतसे, क्षत्रिय क्षत्रियधर्मात्यागकर, व्यापार करने लगे स्यात् वेही रोडे, क्षत्रिय लबाणे आदि हो तो आश्चर्य नहीं, केइयक दरजी नापित आदि कर्म कर शूद्र बण गये, उस कृत्तिकार्जुन राजाकी स्त्री विद्याधर राजाकी पुत्री गर्भवती परशुरामके भयसे भाग कर तापस ऋषियोंके आश्रममें जाकर शरणागत हुई उनोंको निजस्वरूप कहा, वे दयासे इसकों भूमिगृहमें प्रछन्न रक्खा उहाँ पुत्रजन्मा तापसोनें सुभम नाम धरा जब वह ८ वर्षका हुआ उस Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. २५ समय इसका मामा विमानमें वैठा उधरसें निकला उस बालकके पुण्यसे उसका विमान अटका, तब वह तापसोके आश्रम में उतरा और नमन कर विमान खलनका स्वरूप कहा, तब तापसोंने जाति नाम वा स्थान पूछा उसनें कहा, तब भूमि गृहमें बैठी सुभूमकी माता अपने भ्राताको जाण बाहिर आरुदन करती भ्रातासे संपूर्ण वृत्तांत निवेदन करा तदनंतर तापसोंकी आज्ञासें भगनी और भागनेयको विमानारूढकर वैताढ्य ( तिव्वत ) स्वराजधानी में ले गया एक सहस्र आठशुभचिन्ह अलंकृत भागनेयको देख निमित्तज्ञानी [ जोतषी ] से पूछा इस बालकके भावी फल कहो । तब निमित्तज्ञनें कहा, ये चक्रवर्ति साम्राट् भूचरोंमें होगा और परशुरामका हंता यही बालक है, नैमित्तकको द्रव्य सत्कार कर विसर्जन करा अस्त्र शस्त्रकला आदि लीलामात्र से वह सुभूम अल्पकाल मैं ७२ कलामें निपुण हुआ इधर परशुरामनें एकदा निमित्तज्ञसे पूछा मेरी आयु कितनी अवशेष है, तदा निमित्तज्ञनें शास्त्रानुसार कहा हे राम जिनक्षत्री राजाओंको मार २ दाढायें उनोंकी एकत्रित करी है, उन दाढाओंकी जिसकी दृष्टि मात्र क्षीर हो जावे, उस क्षीरका वह भोजन करने लगे, वह तेरा हंता जाणना, तब परशुराम शत्रुको पहचाननें नगरके बाहिर एक महादानशाला बनवाई जिसमें स्वदेशी विदेशी अतिथि तथा पंथी जनोंकों अन्न जलादि मिले उहां एक शालामें, स्वर्णरत्नमई महान् सिंहासन स्थापित कर उसपर स्वर्णस्थाल क्षत्रियोंकी दाढा भरकर स्थापन कर पांचसय वीरोंकों तद् रक्षार्थ ससस्त्रनियत करे और गुप्तरहस्य कहा, इधर एकदा सुभूमनें मातुलके समक्ष मातासे पूछा हे अंब मेरा पिता कहां है और अपना निजस्थान कहां है तब माता रुदन करती संपूर्ण वृत्तांत कहा उससमय माताको सुभूमनें कहा तू निश्चिंत रह में परशुरामको मेरे पिता शमीप प्राप्त करूंगा राज्य लेलूंगा ऐसी प्रतिज्ञा कर मातुलकों संगले सीधा हस्तिनागपुर आया दानशाला में विश्रामार्थ प्रवेश करा इसकी दृष्टिपात से दाढाओं स्वर्ण स्थालस्थ क्षीर हो गई मातुलकों कहा में क्षुधातुरहूं क्षीर भक्षणकर्ताहूं और भक्षण करने लगा त्योंही सुभट धाये उनोंकों मातुलनें छिन्नभिन्न कर डाले, ये खबर पाते ही परशु लिया हुआ परशुराम सुभूमके वधार्थ आया तदा उस स्वर्ण स्थालकों, अंगुलीपर घुमाके फैंका वह उससमय चक्ररूप हो परशुरामका शिर पृथ्वीपर गिराया, आकाशमैं देव दुंदुभिका शब्द और देवतोनें जयजय चक्रीश चिरंजीव इत्यादि शब्दकर सुभूमपर पुष्पवृष्टि करी तदनंतर सुभूम षट्खंडके ३२ सहस्र मुकुट वद्धराजाओंको वसकरा, १४ रत्न, १६ सहस्र यक्षसेवक, नवनिधान, ८४ लक्ष हस्ती ८४ लक्ष अश्व, ८४ लक्ष रथ, छिन्नूं कोटी सुभट, प्राप्तकर, पिता, और क्षत्रियोंका, बैर लेने २१ बेर निब्राह्मणी पृथ्वी करी, उस भयसे, ब्राह्मण केई तो शस्त्र Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्रस्तावना. धारण कर लिये, केई व्यापार, क्षेती, भृत्यकृत्य, तथा केईयक, स्वर्णकार हो गये, जो ब्राह्मणि या सुनार कहाते हैं, मैथिल ब्राह्मण, चित्रकारपना करने लग गये, रजतस्वर्ण लकडी प्रमुखका कृत्य भी करते हैं, वह बीकानेरमें जेपुरिया कहातें हैं । इस प्रकार मरण भयसें चारो वर्णोंका कृत्य करने लग गये वनोवास त्याग, नगर, ग्रामोंमें, निवास करा, अनुमान होता है, वे अग्निहोत्री, उस निब्राह्मणी पृथ्वी सुभूमके करनेके भयसे, भागकर, केइ इरानमें जावसे, इरानका नाम, अरण्य वास्तव्योंके रहनेसें, अरण्य शब्दका अपभ्रंस हुआ हो तो आश्चर्य नहीं, वे मुसलमानोंके मतके प्रशार समय भाग कर पुनः आर्यावर्तमें आये, वे पारसी कहलाते हैं, ईरानमें भी राज्यशासन सुभूमकाही था उस भयसें यज्ञोपवीत कमरमें प्रछन्नपर्ने रखी थी अभी भी उस मुजब ही रखते हैं, जैसे ब्राह्मणोंका अग्नि इष्ट है, उससे सविशेष पारसीयोके, अग्नि इष्ट है, सूर्य, समुद्र, गऊ, जैसैं इस समय ब्राह्मणोंके मंतव्य है, तद्वत् पारसियोंके भी है, इस कारण उस समयका अनुमान होता है, वकरीद करनेवाले मुसलमान भी, अजेर्यष्टव्यं, इस पर्वत ब्राह्मण कृत वेद पदके अर्थसे छागमेधसे, स्यात्संबंध धराते हैं, मुसलमान होनेसे वेदमंत्रकी जगे, विसमिल्लाह अर्थात् सुरू करता हूं नाम खुदाके, ऐसा इस अरबी पदका अर्थ होता है, जैसे पर्वतके चलाये वेद अर्थकी श्रुतियोंमें अनेक देवतोके अर्थ अश्वमेध, गऊमेध, नरमेध, छागमेध, इत्यादि यज्ञयाग, किसी कालमें अत्यंत ही हुआ करता था, क्वचित् २ अभी भी होता है, ये आठमाचक्रवर्ति सुभूम हुआ, इसके पीछे पुनः ब्राह्मणधर्म, जाग्रत हुआ, तथापि चार वर्णोका कृत्य, सर्वथा छूटा नहीं, वैरानुभाव निकृष्ट वस्तु है, परशुरामजीने क्षत्री धर्म विद्ध्वंस करा, तैसै सुभूमनें ब्राह्मणधर्म विद्ध्वंस करा, इसलिये जैनसर्वज्ञका कथन है, हिंसा मत करो, जिसकों जो दुःख देता है, वह समय पाय बदला लेता है यथा मनुस्मृतिमें लिखा है मांस इसकी निरुक्ति जिसको में भक्षण करता हूं समां वह मुझकों भक्षण करेगा, ये कथन सत्य विश्वास करने योज्ञ है कायस्थ दो प्रकारके हैं, प्रथम चित्रगुप्त क्षत्री ऋषभ भगवानके तनवकसीपर नियत था, आभूषण वस्त्रादि कायाके निमित्त भोगोपभोग वस्तु उसके स्वाधीन थी वह लिखत पठत शस्त्रधारण और षट्कर्मधर्म, और प्रभुकी काया सेवा करता था, उसके ८पुत्र हुये विवाह इनोंका काश्यप गोत्र क्षत्रियोंमें हुआ इनसें ८ गोत्र इनोंके हंस आदि नामोंसे विक्षात हुये तनवक्सीका कार्य करनेसे लोकीक कायस्थ कहने लगे, भरतचक्रवर्त्तिनें इनोंकों अर्हन्नीतिके वेत्ता जाणकर न्यायालयका कार्य, और राजा, राय, इत्यादि पद दे, पृथ्वीपति बनाया, दुसरे चंद्रसेन कायस्थ, कृत्तिकार्जुनके परिवारवाले परशुरामके समय भयसे Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. चारों ही वर्णका कृत्य करने लगे, ब्राह्मणोंकी सेवासे कायस्थ नामसे प्रसिद्ध हुये ये ज्ञातिवाले बडे दक्ष चतुर राज्यकार्यकर्त्ता होते हैं हैदरावाद दक्षण में, कायस्थ, तथा खत्री जागीरदार राजापद रायपदसे युक्त हैं आभीरदेशी, अहीर, गऊपालन, सेवा मुख्य वृत्ति है, वीकानेर में केइ खबास कहाते हैं गोप, ग्वाले इनोंमेसे केई जाति भिन्न हो गई है, तीन हजार वर्ष पहिले तातार देस शर्मारामा महाराणीने दक्षण भरतपर चढाई करीथी ऐसा इतिहास तिमिरनासकके तीसरे भाग में लिखा है उसनें महासंग्राम पूर्वदेशमें कर शंब निसंब राजा जिन धर्मियोंको मार अपणी आज्ञावर्ताई मनुष्योंकों कष्ट देने लगी तब उसको प्रशन्न करने श्यामाकी मूर्त्ति सर्वत्र स्थापन कर लोक पूजने लगे और ब्राह्मणो के आज्ञानुसार भैंसा वकरा आदिकी बलि देने लगे तब शमीरामा प्रशन्न हो अपने भक्तोंकों सोम्य दृष्टिसें देखने लगी देवी पूजाकी प्रवृत्ति दक्षण भरतमें उस दिवससे हो गई उसके राज्य शासन में तातार देशी लोक इहां वस गये वे जाट नामसे प्रसिद्ध है इनोंकी स्त्रियोंका वेष धावला आदि देख तातार देशी पना प्रसिद्ध होता है इनोमें कोई धर्म प्रथम नहीं था इहां मारवाडमें रहते २ जसनाथजी इनोंमें हुये, इनोंमेंसे विसनोई भिन्न हुये इनमें जांभा जी हुये, इन दोनोंने दयाधर्म इनों में प्रवर्त्ताया, इन दोनोंके उपदेश रहित जाट मद्यमांसका परेज नहीं करते हैं, भाटी राजपूत इनोंसै विवाह करा, उस वंसमें, पंजाब देशवासी, भरतपुर आदिके जाटराजा विद्यमान है, नाभा पटियाला आदि, थली देशमें भी जाटोंका राज्य था, संवत् १५०० सै पछि राठोड राव बीकाजी इनोंसे राज्य युद्ध करके लेलिया, कोटंब [कुणबी ] ये दक्षण भरतके एक तरेके वैस्य जाति प्रथमसे है, गऊ पालन, खेती व्यापार राज्य सेवा इनोंका कर्त्तव्य है, सीबी यह भी एक कृषक जाति भरत क्षेत्रकी है, इनोंमे वगडावत २४ भाई राजा हो गये थे, इत्यादि नाना जातियोंका निवास स्थान, ४ वर्णोंसे विभक्त दक्षण भरत है, इस समय विशेषपने, धर्म नामसें ४ है जैनी, १ पुराणी २ समाजी, ३ और काजी ४ इनोंके भेदांतर एक सहस्र होगये हैं, ईसाई धर्म भी हिन्दमें होगया, बौद्ध धर्म इहां नहीं है, हिन्दू मत २० करोड मनुष्य संक्षा, २० करोड मुसलमान मत संक्षा, २५ करोड ईसाई मत संक्षा, ५० करोड मनुष्य, बौद्ध मत संक्षा है, जिसमें मांस नहीं खानेवाले बेजेटेरियन ५ करोड भी नहीं होंगें मुसलमानोंसे सुणा है, जीवोंकों मारना आजाब है, लेकिन खाना सबाब है इसमें सम्मिलित एक मताध्यक्ष कहता है जीवोंके मारनेसे एक पाप हो, बचाने Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रस्तावना. १८ पाप होय यदि ऐसा यह उपदेश राजा प्रजा सर्व मंतव्य करके एकको एक बचावे नहीं तब तो, प्रलयकाल, जैनियोंका छट्टा आरा इस समय हो जावे वा नहीं, यह उपदेश न्याय मार्गका प्रत्यक्ष नाश कर्ता है क्योंके जब पोलिस आदि राज्य वर्ग तथा प्रजावर्ग एकको एक नहीं बचावे तब तो जगतमें वैरानुभावसें बलवान अवश्य निबलकों प्राण रहित कर देगा, उससें बलवान् उस्कों प्राणरहित कर देगा सिंह श्वापदादि जंतु गण मनुष्योंका संहार कर देगा, इत्यादि स्वरूप बणनेसैं, जगत् मैं हाहाकार मचेगा, इस लिये बुद्धिवान विचार तो करे, इस उपदेशके कर्ता केसे न्यायवंत हैं, और जीव जंतु गणके केसे हित सुख बंछक है राज्य धर्म विरुद्ध, ये उपदेशक सिद्ध होते हैं. अन्य दर्शनी ६८ तीर्थ कहते हैं जैन धर्मकी तीर्थावली इस मुजब है . सोरठ देशमैं तीर्थाधिराज शत्रु जय तीर्थ १ गिरनार नेम प्रभुके चार कल्याणक तीर्थ २ आबू तीर्थ ३ नाडोल तीर्थ नाडोलाई तीर्थ ४ वरकाणा तीर्थ ५राणपुरा तीर्थ ६ मंछाला महावीर तीर्थ ७ ओसियां तीर्थ ८ संखेश्वरा तीर्थ ९ तारंगा तीर्थ १० भोयणी तीर्थ ११ अंतरीक तीर्थ १२ मगसी तीर्थ १३ फलोधी पार्श्व तीर्थ १४ लोद्रवाजेसल मेरु तीर्थ १५ दक्षण हेदराबाद राजस्थ कुलपाक तीर्थ १६ अमी झरा तीर्थ १७ जीरावला तीर्थ १८ साचोर तीर्थ १९ भरु अछ तीर्थ २० खंभात स्थंभन तीर्थ २१ पंचासरा तीर्थ २२ गोगानवखंडा पार्श्व तीर्थ २३ पाटण तीर्थ २४ तिव्वत राजधानी अष्टापद [ केलास] तीर्थ वरफसे ढक गया अलोप २५ बीकानेर भांडा सरादि तीर्थ २६ हस्तिनागपुर तीर्थ दिल्ली शमीप २७ कासी तीर्थ २८ भेलू पुर तीर्थ २९ भदाणी तीर्थ ३० सिंह पुरी तीर्थ ३१ चंद्रावती तीर्थ ३२ ये सब कासी शमीप है प्रयाग ऋषभ ज्ञानतीर्थ ३३, अयोध्या ऋषभ जन्मकी, सामकी राजधानीमैं है, लेकिन अन्यतीर्थ करके कल्याणक इस अयोध्यामें हुये इस लिये अयोध्यातीर्थ ३४ नवराई तीर्थ ३५ चंपापुरी तीर्थ ३६ पावापुरी तीर्थ ३७ क्षत्रिय कुंड (कुंडलपुर ) तीर्थ ३८ गुणशिला तीर्थ ३९ राजगृहीमैं ५ पंचपहाड तीर्थ ४४ बराकडनदी [ ऋजुवालिका] वीरज्ञानतीर्थ ४५ शिखर गिरिराजतीर्थ ४६ मिथलातीर्थ ४६ कपिलपुरतीर्थ ४७ मथुरातीर्थ ४८ जहां २ तीर्थपतिका जन्म १ दीक्षा २ केवल ज्ञान ३ निर्वाण ४ हुआ वे सर्वस्थल तीर्थरूप है, अधुना संवत् ६०० विक्रमकावणा भांदक (भद्रावतीतीर्थ ) दक्षणमैं चंद्रपुर ही गणघाटशमीप है, ४९, काकंदी तीर्थ ५० जहां २ जिनमंदिर मुसलमानोंने, नष्टकर दिये, उस • स्थानके तीर्थ अलोप हुये, केई जैन तीर्थोंको शिववैष्णवमतियोनें, बलात्कार स्वतंत्र कर लिये, उनोंके नाम नहीं लिखे, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. २९ .. केई कहते हैं, तीर्थतो, साधु १ साधवी २ श्रावक ३ श्राविका ४ इन चारों सिवाय सूत्रोंमें, तीर्थ नाम चलाही नहीं, [उत्तर ] जंबू द्वीपपन्नत्ती सूत्रमें तीर्थ करोंके जन्माभिषेकके शमय ६४ इंद्र एकत्रित हो अपने २ आज्ञाकारी देवतोंकों आज्ञा दी है, हे देवो तुम गंगा सिंधू पद्मद्रहादि तीर्थोंका तीर्थजल अभिषेकार्थ लाओ तब बे देवता लाये हैं यदि स्थावर नदी तीर्थ नहीं होती तो समकितवंत इंद्र तीर्थजल कैसे लानेका कहते पुनः भरतचक्रीका दिगविजय षट्खंडका इस ही सूत्रमें लेख है उसमें मागध १ बरदाम २ प्रभास ३ एवं ३ तीर्थोंको भरतादि चक्रवर्ति साधते हैं इन स्थावर स्थानोंको तीर्थ सूत्रोंमें लिखा है वा नहीं जो प्राणी एकांत पक्ष स्थापन कर्ता है उसपर एकांतनय वादक मिथ्यात्वका अवश्य वज्रपात होता है सर्वज्ञ जैनधर्म स्याद्वादी है इस लिये एकांतनय नहीं दयादान पूजा, विषय, और कषाय शुद्धभाव विगर एक क्षेत्र है, ऐसा समयसारमें लिखा है, ___ तीर्थकर्ता होनेसे तीर्थकर कहाते हैं, ऊपर लिखे स्थावर तीर्थ भी उन तीर्थ पतीकी स्थापनासै हैं, जीव जिसद्वारा तिरे, वह तीर्थ कहाता है, किंबहुना जाति भास्कर वेंकटेश्वर प्रेसमें छपा सो लिखता है, वैश्योंका कृत्य खेती, व्यापार, गऊ - आदि पशुवृत्ति, और व्याज, जौनयोंके उपदेशसै क्षेती गऊआदि पशुवृत्ति वैश्योंने त्याग दी, लेकिन क्षेती करना अवश्य था इत्यादि (उत्तर) सर्वज्ञ जैनाचार्य उपदेशारा लाभालाभ संपूर्णकृत्योंका दर्शाते हैं, उसमें जिसकों जो रुचे वह ब्रत वह अंगीकार करता है, माहेश्वरी, ओसवालादि तो क्षत्रिय वर्ण थे व्यापारमें विशेष द्रव्यलाभ देखा, जीवहिंसा अल्प, इस लिये, स्वीकारी होगी क्योंकि नीतिका वाक्य है, यत: वाणिज्ये वर्द्धते लक्ष्मी, किंचित् २ कर्षणे, अस्तिनास्तिच सेवायां. भिक्षानैवच नैवच १ अर्थ, वाणिज्यसे लक्ष्मी वृद्धिपाती है, व्यापारद्वारा अमेरिकन जर्मन जापानादि अडवोंपति हो गये, व्यापार द्वारा अंग्रेजसरकार वादसाह साम्राट हो गये व्यापारसें पारसी मुसलमान बोहरे आदि महाश्रीमंत हो गये, अग्रवाल, महेश्वरी ओसवाल पोरवालादिक हजारो लक्षाधीस सइकडों कोट्याधीस विद्यमान है व्यापार केवदोलत अहिंसा धर्म पालनेसैं मनुष्योंमें श्रेष्ठ पदसे अलंकृत है, अग्रवालादि महाजनोंकी सेवा इस व्यापारमें चारोंवर्ण कर रही है, प्रथमसाह, बादसाह, इहां तक, उच्च श्रेणीमें व्यापार द्वारा प्राप्त हैं, [ किंचित् किंचित् कर्षणे ] अर्थात् कृषाणकर्मक्षेतीमैं कुछ २ द्रव्यप्राप्ति होय कभी वृष्टि अभाव होय तब धान्योत्पत्ति होय नहीं, तब ऋण लेना पडे व्याज देना पडे वर्षा में उत्पन्न धान्य ऋणमें चलाजावे, शुक [चिडिया सूए आदिपक्षी ] सलभ [ टीडी ] चए शूकर प्रमुख जीव धान्य भक्षण कर जावै, इस लिये द्रव्यलाभ विशेषतासें किसी भी समय होवै नहीं, और हल चलाते पृथ्वी फाडते. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. पृथ्वीमें रहे चए, गिलेरी, सांप, आदि अनेक स्थूल और सुक्ष्मजीवोंका संहार होता है टीडियोंके असंक्षदलको, धान्यरक्षार्थ, मारना, वह जीवहिंसाके अत्यंत लाभ प्राप्तिमें, द्रव्य लाभ अधिक कैसे संभव हो, व्यापारियों तुल्य धनपति कोई कृषक एक दोभी तो आपवतावेतो आपका आक्षेप जैन धर्म पर यथार्थ पने सिद्ध हो सके, जाति भास्कर ग्रंथ निर्माता उपासगदशासूत्रसैं एक जैनधर्मी वैश्य आनंद गाथा पत्तीका स्वरूप लिखा है, यह आनंद २४ में तीर्थकरका धर्मोपदेश श्रवण कर स्वशक्त्यानुसार महावीर भगवानके सम्मुख प्रतिज्ञा करी है के में पांचसय हल ( बीगा ) पृथ्वीमैं क्षेती कराऊंगा, लेकिन महावीर प्रभूनें, उसकं ये नहीं कथन कराके तूं क्षेती मत करा, वह गृहस्थपने यावत् रहा, तब तक क्षेती कराते रहा, लेकिन उसका व्यापार ४ कोटि स्वर्णमुद्रासे चलता था ४ कोटि स्वर्णमुद्रा व्याज वृद्धिमें था ४ जहाज व्यापारार्थ, समुद्रमें चलते थे, पांच शय शकटस्थलभूमीमें माल लाने चलते थे,४कोटि स्वर्णमुद्रानिधानमें निरंतर रखता था, ४०००० चालीस हजार गऊओंका ४ गोकुल था इस प्रकारके' महावीर प्रभूके एक लाख गुणसठ सहस्र व्यापारी व्रतधर श्रावक थे १०० राजा भरत क्षेत्रके श्रावक उनोंके थे और सामान्य अनुव्रती, तथा व्रतवर्जित जिन वचन सत्य है ऐसी श्रद्धानवाले तो प्राय भारतवासी सर्वही थे, श्रेणिक राजा (भंभसारा) दिक राजा, तथा जिन राजपूतोंसे यावज्जीव मांस भक्षण मद्यपान नहीं भी . छटा तथापि जिनवचनानुसार हित अहित, पुण्यपाप, बंध, मोक्ष, का आत्मामें भान हो गया था एसै भी लखों राजपूत उस महावीर प्रभूके परमाहत् जैनधर्मी श्रावक सम्यक्त धर कहाते थे, जिनोंका एक दोभों मेंही मोक्ष हो गया, तत्वज्ञान होना ये ही अलभ्य पदार्थ है, कायाकों अत्यंत कष्ट, और पर प्राणियोंका असंक्षा नास देख जो क्षेती नहीं करते, उसका जैनधर्म क्या करे, जैनाचार्योंकी पूर्व परिपाटी यह थी के, सर्व जनोंके लिये हितावह, मोक्ष प्राप्तिके मार्गका उपदेश कर देना, तूं अमुक वस्तु छोड ही दे, ऐसा अनुरोध जैनाचार्योनें कदापि नहीं करा है, जो आत्मबोधसे त्याग दै तो भी उस त्यागकी पूर्ण विधिमार्ग समझाना धर्म समझते थे, . द्रव्यव्यय करनेमैं, लाभ हानेपर प्रथम श्रेणीमें, फाटका बाज तैसेंद लाल भी, दूसरे श्रेणीमैं कपडेका व्यापारी, तीसरी श्रेणीमें जोहरी, चोथी श्रेणीमें धान्यादिके व्यापारी, पांचमी श्रेणीमें सराफीवाले, छट्टी श्रेणीमें केवल व्याज करनेवाला, सातमी श्रेणीमें सेवाकारक गुमास्ते, उत्तरोत्तर अल्प व्यय कर्ता जानना. अस्ति नास्ति च सेवायां, अर्थात् नोकरीमैं धन होता भी है और नहीं भी होता, वह प्रत्यक्ष है, लिखनेकी आवश्यक्ता नहीं, और भिक्षा नैवच नैवच अर्थात् भिक्षा वृत्तिसे द्रव्य नहीं होता, ... Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ३१ - अंग्रेज सरकारके राज्यशासनमें स्वदेशके लोग हाथोंसे व्यापारकी वस्तु बनानेवाले मसीनसे बणती वस्तुके सन्मुख दिग् मूढ होकर कलाकोशलको जलांजली दे बैठे यावन्मात्र पदार्थकी व्यापार विदेशी प्रचलित हो गया, उस व्यापारद्वारा मुख्य लाभ तो अन्य २ विलायतोंके व्यापारियोंकों प्राप्त होता है, और किंचित् २ आर्यावर्त्तके व्यापारियोंको भी मिलता है, लेकिन अंग्रेज सरकारके सुखशांतिमय राज्यशासनके प्रताप लूटेरे डाकूओंसे बचाव होनेसे प्रजा इस समय द्रव्यप्राप्तिसैं सुखसँ निर्वाह करने लगी, गरीब लोक, कर्म करोंके लिये अनेक साधन आजीविकाके उपस्थित हो गये, जिसमें भोजन वस्त्र मात्र गरीबोंको भी मिल जाता है, जो उद्यम करते हैं उनोंकों, प्रजाके सुखसाधन, रेलतार बिजलीका उद्योत, अग्निबोट जलयान ] में चकरसी आदि अनेकानेक वस्त, मणियारी वस्तुमें, हाड, लकडी, टेन, एलोमीन, काच, लोह, आदिके नाना पदार्थ टेमफीस | घडी ] छापखाना आदि विद्यावृद्धिका साधन, बादित्रोंमें हारमोनियम् [बीणा ] की प्रतिनिधि, छत्तीस कर्म करोके अस्त्र, क्षत्री धर्मार्थ तोप, बंदूक आदिके साधन भी विलक्षण, द्रव्यरक्षार्थ तनजोरी नाना भेद, नाना प्रकारके वस्त्र नाना प्रकारके कागद, ऐसा कोई पदार्थ नहीं रहा, जो की अन्य स्थान यूरोपसे नहीं आता हो, रेसमी [ कौसिक ] वस्त्र जिसकों ५ सय वर्ष प्रथम चीनांशुक आर्यावर्त्तवाले कहते थे, चीन देशसें आता था, बड़े द्रव्यपात्रकी स्त्रियें ऐसे वस्त्रको पहरने उत्कंठित रहती थी, सहस्र मुद्रा देने पर प्राप्त होता था, वह कौसिक वस्त्र, मजूरणिये, पर धापन कर रही है, अर्थात् ३२४॥ मुद्रामें मिलनेलगा, इस्कूल [ पाठशाला ] दवाखाना [ औषधालय ] भी प्रजा सुखार्थ प्राय सर्वत्र प्रचलित है, कोई भी हिमायतीबाला किसीके मजबी [धर्म ] वाबत अत्याचार नहीं कर सकता, पोष्ट संबंधी सुखसाधन अत्यंत ही उपयोगी जिसके सुख लेखनसे नहीं लिखसकते, संपूर्ण दक्षण भरतमें नदियोंपर पुल [ पाज ] सर्वत्र मार्ग सडक जिसपर अंधा मनष्य ‘पशु गण भी सुखसे प्रस्थान करते हैं, यत्र २ जलका अभाव था तत्र २ नहर नल लगाकर जल संबंधी सुखसाधन रच दिया, ब्रिटिस सरकारके राज्य प्रबंधका सुख अवर्णनीय है, सर्व लिखा जावे तो एक बड़ा ग्रंथ वनजावे हमारी न्यायशील ब्रिटिस सरकारका यद्यपि निजनिवास स्थान इंग्लंड (लंडन) राजधानीमें हैं, तथापि न्यायनीति सुखसाधन प्रबंधद्वारा, दोनों प्रजावर्गको, एक शरीरके दो नेत्रोंकों तुल्यपने वर्त्तती हैं, और वर्तेगी, इनका राज्यशासन शांतिसुखमई चिरस्थाई रहै, जिसमें सर्व प्रजा सुखकों प्राप्त हो, परम पदको साधे, किंबहुना, ___ यदि ग्रंथमैं या प्रस्तावनाके संग्रहमें न्यूनाधिक लिखा हो तो विवुधजन क्षमा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. प्रदान करेंगे, भूल-होना मनुष्य मात्रका धर्म है, सर्वज्ञ वीतरागही भूलसे वचे है, श्रीरस्तुः कल्याणमस्तुः पुस्तक मिलनेका ठिकाना. . १ उपाध्याय रामलालजीकी विद्याशाला वीकानेर मारवाड मोहल्ला रांघडी २ जैन मांगरोल सभा, मेघजी हीरजी मुंबई पायधोणी ३ श्री चिंतामणिजीका मंदिर पाटियादारी मुंबई दूसरा भोईवाडा. - छपे हुये ग्रंथ न्योछावर १ रत्नसमुच्चय (रत्नाकर सागर) खरतरगच्छ, तपागच्छके सर्वधर्म कर्त्तव्य, ७) २ पूजामहोदधि, ३७ पूजागायन विधियुक्त ३ दादागुरुदेवपूजा, सिद्धमंत्रयुक्त ४ दादागुरुगुणरत्नावली, स्तवन, छंद, अष्टकादि, .. ५ व्यवहारालंकार, धन कमानेका ६ सिद्धमूर्ति भागप्रथम ७ सिद्धमूर्तिभाग दूसरा, ३२ सूत्रपाठसे मूर्तिपूजा ८ शकुन, दुपग्गे, च उपग्गे, कालसुकाल, भावी फल मालम होना ९ चाणक्य १६ अर्थ, पाशाशकुनावली, स्वरोदय भाषा १० पंचप्रतिक्रमण, १६ स्तोत्र अर्थयुक्त ११ वैद्यदीपक, इसमें, रोगपरिक्षा, इलाज, देशी, यूनानी, ___ डाक्टरी, होमियापथी, स्त्री, बाल, पशुचिकित्सा, अजमूदा है। १२ स्वप्नसामुद्रक, तेजी मंदी, नीलामके अंक निकालन विधिः १३ जैनदिगविजय १४। २२ समुदायवालोंके उपयोगी गुणविलाश । - १५ महाजनवंश मुक्तावली, दुसरी आवृत्ति, अति उपयोगी स्थलवृद्धि, २॥) जबाब मंगानेवाला जुडा हुआ कार्ड भेजा करे, पुस्तक मंगाकर विदेशसे पीछा. लोटावै, उसको २४ तीर्थकरकी सौगन है, नाटपेट पत्र नहीं लेंगे, सौ रुपयेसे .. कम पुस्तक खरीददारको, कमीसन नहीं मिलेगा, इस समय कागद छपाई सबकी मंहवाई, जिसपर पोष्ट वे रजीष्टरी पोथी नहीं लेती, टिकट खरचदूना करा है। seeIG I Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका। color: भूमिका अनादि जैन धर्मका कथन ........ अठारेगोत्रओ सबाल तथा भोजकोत्पत्ति ... सुचिंति गोत्रोत्पत्ति... ... ... ... वराढ़िया दरडा गोत्रोत्पत्ति ... चोपडा, कोठारी, गणधर, चीपड-गांधी-वडेर-सांड-गोत्रोत्पत्ति धाडेवा-पटवा-टाटिया-कोठारी- . ... गोठि गोत्रोत्पत्ति ... ... खींवसरा गोत्रात्यत्ति .. समंदरीया गोत्रोत्पत्ति झाबक-झांबड-झंबक ... ... . ... वांठिया-लालांणि-त्रमेचा-हर्षावत-साह-मलावत- ... . चोरडिया-भटनेरा-चोधरी-सांवसुखा-गोलछा-पारख-बुच्चागुलिया-गुगलिया-गदहिया-रामपुरिया साखपचास-... भंडसाली २ चंडालिया-भूरा-वद्धाणी- ... .. भंडसाली सोलखी .... ... ... . आयरिया लुणावत... ... ... बहुफणा वाफणा ... ... ... ... ... रत्नपुरा-कटारिया-जलवाणि ... ... डागा-भालू-भामु-पारख-छोरिया रांकासेठि सेठिया काला-वोक-वांका-गोरा-दक राखेचा-पुगलिया-....... Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढोसी - सोनिगरा - सांखला-सूराणा–स्यांल—सांड - सालेचा पुनमिया आघरिया डूगड - सेखाणी - कोठारी - सुघड़ ... मोहिबाल- आलावत- पालावत - गांग- दुधेडिया - साख सोले वोथरा - फोफलिया- दसाणी वछावत - साह - मुकीम, जेनावत-इंग राली साखा ९ डा गो लोढा गोत्रर . बोरेड गोत्र नाहर - . छाजेड संघवी सालेचा - वोहरा भंडारी वांगणी - डागा ' ... --- --- 0.0 कठोतिया भूतेडिया.... जडिया... कांकरिया : : श्रीपति - ढढा - तिलोरा पीपाडा घोडाबत - छजलांणी :: . आबेडा - खटोल खेतसी पगारिया मेडतवाल :.. ::: :: :: : ::: :::::: ... :: :: : : .: :: ⠀⠀ : : 4: :: : :: :: : : : 004 ::: ५० ५२ ५३ ५४ ५५ ६६ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७३ ७३ ७३ ७४ ७६ ७६ ७८ ७८ ८० ८२ ८३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीमाल ... बाबेल सिंघवी ... ... गडबाणी भडगतिया... रूणवाल बेगाणी ... पोकरणा... कोचर, महेश्वरी, धर्मतत्व कथन मतांतरोंका वर्णन ... वैद, श्रेष्ठ गोत्रोत्पत्ति मिन्नी, भुगडी, खजानची मुहणोत, पींचा गोत्र : ... गोत्रोंके जुदा होनेका वृत्तान्त ... यति शिक्षा .... ... कच्छदेशीओ सवाल वृत्तान्त ... श्री माल १३५ गोत्र वृत्तान्त पोरवाल २४ गोत्रोत्पत्ति हूंबड १८ गोत्रोत्पत्ति ८४ गच्छ वृत्तांत ... ८४ श्रावगी गोत्रोत्पत्ति वाममार्गका वृत्तान्त... ५२ गोत्र वघेर वाल २८ नरसिंह पुरा गोत्र २२ गोरारा गोत्र ... अग्रवालोत्पत्ति ४ वर्णवृत्तान्त ... ३६ शुद्रकुल नाम... महाराजा वीकानेर... महाराजा योधपुर .... १०६ ११४ ११४ ११७ ११९ १२७ १२८ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाटी जेल मेरुं राजा ओसवंश संक्षा ... गृहस्थाश्रम व्यवहार..... आचार, विचार, शिक्षा स्त्रियों कूं शिक्षा अनीत्ति हक्कदारी कानून सूतक निर्णय सर्व धर्मका सारतत्व गंधर्व भोजक, शाक्त भोजकोत्पत्ति १२॥ जाती वैश्य मध्यदेशी ८४ वैश्य जाति बृहत्खरगच्छ पट्टावली श्वेतांबरोमें चमत्कार' कथन ... 6009 ⠀⠀⠀ .... ... 1000 : : : 4000 ::: : ::: : : : 1004 1000 ... ... :: 0006 ...D. .... 800. १४० १४२ १४८ १५५ १५९ १६२ १६२ १६३ १६५ १६५ १६६ १७७ १७६ में बंधा क छापेके कारण अशुद्धियां रही है पृष्ट बंधा पढना, प्रस्तावनाके पृष्ट ४ में वाद साह जहां गीर करा है उस जगह शाह जहां पढना, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीसद्गुरुभ्यो नमः ॥ ॥ जैनराजपूत महाजन ओसवाल वंशोत्पत्ति प्रारम्भ ॥ वंदोंश्री महाबीर जिन, गणधर गौतमस्वाम, मात । नमूं नित सारदा, पूरण बंछित काम ॥ १ ॥ ओसवालवड भूपती, शूर बीर मच्छराल ॥ राजकुमर दाता गुणी, शरणागत प्रतिपाल ॥२॥ अश्वपती महाजन बिसद, जिनधर्मी रजपूत ॥ दया धर्म श्रद्धा धरी, अदल करे करतूत ॥ ३ ॥ देव एक अरिहंत जिन, गुरू जती अभिराम ॥ द्रव्य भाव पूजा करे, अहनिशधर्मी धाम ॥ ४ ॥ ख्यात लिखे इस वंश की, वडज्यूं पसरो साख ॥ . रहोसदा चढ़ती कला, धनसुत कीरति लाख ॥५॥ - श्री चोबीसही तीर्थकरोंके शासनमैं उग्रकुल १ भोगकुल २ राजन्यकुल ३ और क्षत्रीकुल ४ इन चारोंवर्गोंवाले जो जैनधर्म पालते थे बो सब गृहस्थ श्रावक नामसे कहलाते थे, इतिहास तिमिर नाशकके ३ प्रकाशमैं राजा शिवप्रशाद सतारे हिन्द लिखता है स्वामी शङ्कराचार्यके पहले इस आर्यावर्त्तमै २० करोड़ मनुष्योंकी वस्ती सब जैन (बौद्ध) थे, बेदके. माननेवाले काशी कन्नोज कुरुक्षेत्र काश्मीर इन चार क्षेत्रमैं बहोत कम संख्या प्राय अस्तवत् रह गये थे, जैनोंकों बौद्ध इसवास्ते लिखा है कि और विलायतों वाले जैनोंसे वाकिफकार नहीं है कारण जैनियोंकी वस्ती मध्य खण्ड मैं कई लाखोंकी संख्या मात्र रह गई है, चीन जापानके जो मांसाहारी तांत्रिक, रातके खानेकाले बौद्ध हैं, उनसें आर्यावर्त्तके जैन(बौधों ) में कोई संबन्ध नहीं है, मतलब अब जो जैनमतके विरोधी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ महाजनवंश मुक्तावली हिन्दमें २० करोड़ मनुष्योंकी वस्ती है, वो सब जैनधर्म वालोंकी सन्तान है, कारण इनोंके बडेरे सब जैनधर्मी थे, जैनधर्मी राजा, तथा प्रजाकी वस्ती थी, इस वक्त मैं अमेरिका, इंगलिश्तान, जर्मन, आदि विलायतोंके, बड़े २ विद्वानोंका, निर्धार किया हुआ है, कि, सृष्टीके : प्रवाहकी, सरुआतसें ही, जैनधर्म है, बाकी आजीविकाके लिए, पीछेसें, मनुष्योनें, नये २ धर्मोकी कल्पना करी है, इस बातकी सबूती देखणी हो तो, अमेरिका वगैरह, देशोंमैं फिर कर, दया धर्मका, उपदेश करनेवाले, स्वामी विवेकानन्दजी कृत, ( दुनियाका सबसे प्राचीनधर्म ), इस पुस्तकको देखो, इन स्वामीनें आज दिन तक अन्यधर्म वालोंको, विलायतोंमैं, मदिरा मांसादिक कुकर्म छुडाकर, बड़ा ही उपकार किया है, स्वामीका बेष, गेरू रंगित है, ऐसे संन्यासीयोंका, जीवितव्य, सदाके लिए, अमर है, स्वामी शङ्कराचार्य, जिन्होंको हुए हजार आठसै वर्ष हुआ, ऐसा इतिहास तिमिर नाशक मैं, लिखा है, इन्होंनें, राजाओंकी मदद पाकर, जैन धर्मियोंकों, कतल करवाया, ये बात माधवाचार्य कृत, शङ्करदिग्विजय मैं, लिखी है, बस बलात्कार दयाधर्म जैन छुडाकर मिथ्यात्व हिंसाधर्म लोकोंकों, धारण कराया, मरता क्या नहीं करता, इस न्यायसें, लोकोनें, कबूल कर लिया, पीछे रामानुजादिक, चार सम्प्रदायनें, मांस मदिरा, योतो खानेके लिए मनाई करी, मगर, यज्ञ कर खाने मैं, दोष नहीं माना, इस तरह जैनधर्म घटते गया, राजाओंनें, जैनधर्मके, कठिन कायदे देख, पूर्वोक्त आचारियोंका, माल खाना, मुक्त जाना, उपदेश पर, कायम होते गये, यथा राजा, तथा प्रजा, इस न्यायसें, जैनधर्म, जो मुक्तिमार्ग था, सो लोकोंनें, छोड़ दिया, वेद परयकी न मनानेवाले, स्वामी शङ्कराचार्य्यनें, ऐसा उपदेश करा, वेदकी श्रुतीसें, जो यज्ञ मैं घोड़े बकरे आदि जीवोंकों मारते हैं, उन जीवोंकी हिंसा नहीं होती, ये बात मांसाहारियोंकों रुची, तब, देवी, मैं आदिकोंके, सन्मुख पूजाके बहाने, पशुओंकों मार, मांस खाणेमैं दोष नहीं, ये भी यज्ञ हैं, और रामानुजादिक भक्तिमार्ग वालोने, छप्पन भोग, छहों ऋतुओंके सुखदाई, खान पान, पुष्प, अतर, राम, कृष्ण नारा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली यणकी मूर्तिकी, बलि देकर, भक्तजनोंकों, प्रशादी खाणा, शुरू कराया, ऐसे इन्द्रियोंके सुख पोषण रूपधर्मके सन्मुख, पांचो इन्द्रियोंका, दमन करणा, ऐसा त्याग वैराग्य रूप, जैन धर्म, कब प्रशन्न, मोनी सोखी लोकोंकों, आता था, इत्यादि कारणोंसें, जैन धर्म थोड़े पालनेवाले, लोक रहगये, २४ मैं अन्तके तीर्थकरने फरमाया था कि, है गौतम, भस्म राशि ग्रह मेरे जन्म राशि पर, मेरे निर्वाण बाद आयगा, इस कारण जैनधर्मका, उदय २, पूजासत्कार, कम होता जायगा, तब महाप्रभाबीक आचार्य २१ हजार वर्षके पंचम आरेमें २३ वक्त जैनधर्म बढाते २ उद्योत करते रहेंगें मेरा शासन अखण्ड २१ हजार वर्ष चलेगा चतुर्विध संघ रहेगा ऐसा लेख निर्वाण कलिका वगैरह ग्रंथोंमैं लिखा है इस तरह जैनधर्मका स्वरूप भगवढूचनसें जानकर जिन जिन आचार्योंने जैनधर्मकी उन्नती करी नींव पुखता डाली सो संक्षेप वृत्तान्त यहां दरसाते हैं इस जैनधर्मके लाखों श्रावक बनानेवाले पड़ते कालमैं उद्योतकारी प्रथम सवा लाख घर राजपूतोंके महाजन वंशके १८ गोत्र थापनेवाले पार्श्वनाथ स्वामीके छठे पाटधारी श्रीरत्नप्रभसूरिः वाद १२ गोत्र लाखों घर महाजन बनानेवाले श्रीमहावीरस्वामीके ४३ मैं पट्टधारी श्रीज़िन वल्लभसूरिः एक लाख तीस हजार घर राजपूतोंकों महाजन बनाने वाले दादा गुरुदेव श्रीजिन दत्त सूरिः हजारों घर महाजन बनानेवाले मणिधारी श्रीजिन चन्द्र सूरिः ५० सहस्र श्रावक बनानेवाले श्रीजिन कुशल सूरिः इत्यादि फिर गुजरात देश में लाखों घर जैनधर्मी श्रावक बनानेवाले, मलधार हेम सूरिः, पूर्ण तल्लगछी श्रीहेमाचार्य, और छुटकर गोत्र कई २ और भी अल्प संख्यासे, और आचार्योंने, बनाये हैं, ज्यादह इतिहास सर्व -गोत्रोंका लिखणेसें, लाख श्लोकसंक्षा होणा सम्भव है, इस लिए विशेष -गोत्रोंका लिलाका इतिहास लिखते हैं या पट्टणसें प्रगट भये ___ सबसे पहले महाजन १८ गोत्र ओसियां पट्टणसें प्रगट भये, ये पट्टण : विक्रम सम्बतके पहले चारसे वर्षके करीब, वसा था, जिसका कारण ऐसा हुआ, श्रीभीनमाल नगरीके राजा पमार भीमसेनके पुत्र ३ बडा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली उपलदेव, छोटा आसपाल, और आसल, ऊपलदेव राजकुमार, उहड़, ऊध-- रण, दो मंत्रियोंकों संग ले, दिल्लीके शाहन्शाह साधुनाम महाराजाकी आज्ञा ले. ओसियां पट्टण नगर बसाया, रानाकी रक्षासें चारों वर्गों के करीब, ४ लाख घर, बस गये, जिसमें सवा लाख घर तो, राजपूतोंके थे, तीस वर्ष जब, राज्य करते व्यतीत हुए, राजा प्रजाका धर्म, देवी उपासी, वाममार्ग था, उन्होंकी देवी, सच्चाय थी, मांसमदिरासें, देवीकी पूजा कर खाणापीणा करते थे, इस बातकों, मुक्ति जाणेका, धर्म समझते थे, इस समय, श्रीपार्श्वनाथजी भगवानके, छठे पाटधारी, श्रीरत्नप्रभसूरिः, केशी कुमारगणधरके, पोते चेले, मास क्षमणसें यावज्जीव पारणा करणे वाले, १४ पूर्व धर श्रुत केवली भगवान, विचरते २, श्रीआबू पहाड़ तीर्थ पर, पांचसौ साधुओंके संग, चातुर्मासमैं रहै, जब बिहार करणे लगे, तब उस तीर्थकी अधिष्टायिका अम्बादेवीने, अरज करी, हे प्रभु ! मरुधर .देशकी तस्फ बिहार करणा चाहिए, गुरूनें कहा, इस देश मैं, दयाधर्मी लोकोंकी, वस्ती नहीं होणेसें, साधुओंकों, धर्मध्यानमैं अन्तराय पड़ता है, आहारपानी मिल नहीं सकता, तब अम्बाने कहा, आपके पधारणेसें, बहुत धर्मका लाभ होगा, तत्र गुरूने पांचसौ साधुओंकों, गुजरातकी तरफ भेने, एक शिष्यकों संग ले,. बिहार करते, ओसियां पट्टण पहुंचे, किसी देवस्थानमैं, आज्ञा लेकर मास क्षमण तप करते हुए ठहरे, चेला अपणे लिए गोचरी जाता, धर्मलाभ करते फिरता, लेकिन जैन धर्मकी मर्यादसें, किसी जगह आहारपानी नहीं मिला, तब, किसी गृहस्थका रोग, औषधीसें मिटाकर, उसके घरसें, भिक्षा लेकर निर्वाह किया, ये बात गुरूनें, ज्ञानके उपयोगसें, जाणा, तब शिष्यको उपालंभ दिया, तब शिष्यनें, हाथ जोड़ बिनती करी कि, हे प्रभु इस वस्तीमैं, हरगिज, ४२ दोषरहित, आहार नहीं मिलता, जानकर मैंने दोषित आहारमें निर्वाह किया है, तब गुरूनें कहा, बिहार करणा चाहिये, तैय्यार हुए, तब उस महात्मा मुनिःके, तपके प्रभावतें, सच्चाय देवीने बिचारा, धिक् २, ऐसे तारण तरण, निस्पृही, मुनिः, इस वस्तीसें, भूखे जायगें तो, इस वस्ती मैं अमंगल होगा, तब देवी साक्षात् प्रगट होकर, नम्रता पूर्वक, अरज करी, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली हे कृपासिन्धु, ऐसे आपकों, जाना उचित नहीं है, आप इस प्रजाकों लब्धि मंत्रसे, धर्मकी शिक्षा दो, गुरूनें कहा, साधू बिना कारण लब्धि फिरावे तो, दंड आवै, तत्र, देवीने कहा, हे भगवान, आपसे कोई बात छिपी नहीं है, तीर्थकरोंकी आज्ञा है, भगवती सूत्र मैं साधुओंको, तलवार ढाल लेकर जिनधर्मके निन्दक, तथा, घातियोंकों समझाणेकों, साधू लब्धि वन्तको, उत्पतणा कहा है, संघ मैं महा आपदा डालणे वाले, महा दुर्बुद्धि, बली ब्राह्मणकों विष्णु कुमारनें, पुलाक लब्धिसें, जानसें मार डाला, आलोयण प्रायश्चित ले, उसी भव मुक्तिगये, उस दिनसें राखी बांधनेका त्यौहार ब्राह्मनोंनें चलाया, और आगे गोसालेका जीव जो साधुओं पर, रथ डालेगा, उसकों, सुमंगल साधू स्वसहित जलायगा, गोसालेका जीव नरक जायगा, मुनिः आलोयण प्रायश्चित ले, उसी भव मैं मुक्ति जांयगें, दशा श्रुत स्कंध सूत्रमैं, संघकी आपदा मिटाणे, लब्धि फिराणी लिखी है, आज्ञाका आराधक कहा, लेकिन संघ के कार्य निमित्त लब्धि फिराणेवाला साधु विराधक नहीं, यदि विराधक होते तो, उसी भवमैं मुक्ति साधू कैसें जाते, संसारके जीव भी, लाभ विशेष, और हानि अल्प, ऐसा काम सब बुद्धिमान करते हैं, ऐसा व्यवहार देखणे मैं आता है, और साधू लोक भी ऐसा करते हैं, जैसे मुनिः, एक गांमसें दूसरे गांम, जब विचरते हैं तो, अनेक जीवोंकी हिंसा होती है, `परन्तु एक जगह जादा रहनेसें स्नेहबद्ध मुनिः हो जाते हैं, और, अति परिचय, अति अवग्या, ये दोष भी लगता है, नालक बचन भी है, (दोहा) बहता पानी निरमला, पड़ा गंधीला होय । साधू तो रमता भला, दाग न लग्गे कोय ॥ १ ॥ और अनेक क्षेत्रों मैं, विद्वान मुनिःयोंके उपदेशसे, अनेक भव्य जीव, सम्यक्त्व व्रत धारते हैं, जिनमन्दिर, ज्ञान भण्डारकी, सम्हाल होती है, मिथ्यात्वी निन्हवोंका, दाव नहीं लगता, श्रावक लोक स्यादवादन्याय तत्व पढ़कर, अनेक जीवोंको समझाणेके लिए, समर्थ होते हैं, इत्यादि "अनेक लाभकी तरफ विचार करके, बिचरणेकी आज्ञा तीर्थकरों नें दी है, फिर द्वार बन्द करणा, और खोलणेंसें, प्रत्यक्ष पंचेद्री जीवों तककी, हिंसा है, इसलिये साधु साध्वी के प्रतिक्रमण सूत्रमैं, ( उष्घाड़ कवाड़ उघाड Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली णाए ) इसका पाप तीर्थकरोंने, फरमाया, परन्तु साध्वीयोंकों द्वार बन्द करणाः और खोलणेकी आज्ञा दी, मतलब कोई लंपट रातकों, खुला द्वार देख साध्वीयोंका, शील न खंडित कर दै जीवहिंसासें शील रक्षाका विशेष धर्म समझ साध्वीयोंको, उपाश्रयका द्वार बन्द करणा, तीर्थकरोंने फरमाया, इस तरह माछीगर धीवरसोनक कसाई सर्व यवन जातीयोंके देव कुल, मठ मंडपादि कराणेसें, एकान्त हिंसा, आरम्भ आश्रव फरमाया श्रीप्रश्न व्याकरण सूत्रके आश्रव द्वार मैं, ओर महानिशीथ सूत्रमैं, दानशील तपः भावनाका जो फल, ऐसा फल, श्रीजिनराजके मंदिर कराणेवाले. श्रावकोंकों, तीर्थंकरोंने फरमाया है, मन्दिर जिनराजका कराणेवाला, श्रावक, वार मैं देवलोक जावै ऐसा फरमाया है, इसलिये ज्ञाता सूत्रमैं, जहां द्रौपदी पूजा करणे गई, उहां जिन मन्दिर, श्रावक लोकोंका, कराया हुआ था, चम्पा नगरी भगवान महाबीरके, केवल ज्ञानयुक्त बिचरते समय मैं, वसी, उसके पाड़े पाड़े याने महोल्ले महोल्ले में, जिन मन्दिर, श्रावक लोकोंके, कराये हुए थे, तभी तो, उवाई सूत्र मैं नगरीके वर्णनमैं, लिखा है, श्रावक लोकोंने जिन मूर्तियां असंख्या करवाई, तभी तो, व्यवहार सूत्रमैं, साधुओंकों जिन प्रतिमाके सन्मुख, आलोयण लेणा, लिखा है, बिगर प्रतिमा भराए, किसके सामने, आलोयण लेणा सिद्ध होता है, इत्यादि अनेक बातोंसें, सिद्ध है कि, जिसमें अल्प पाप बहुत निर्जरा, वह काम साघु श्रावकोंकों, करनेकी आज्ञा तीर्थकरोंने दी है, आप श्रुतकेवली, सर्व जाण हो, मैं इतने दिन, मिथ्या धर्म मैं, मुरझा रही थी, आज आपको अवधि ज्ञानसें जाण, मिथ्यात्व त्याग, अहंत भाषित तत्वकों अक्षर अक्षर सत्य समझा, आपके पास आई हूं और मेरी अरजको आप, सफल करो, दयाधर्म वढे, इसमें आपकों बडा ही लाभ है, यद्यपि आप वीतरागी, एक भवावतारी, निर्मोही हो, तथापि धर्म बृद्धि करणा, आपका कार्य है, क्या महावीर स्वामी, सद्दाल पुत्रकों, यों नहीं समझा सकते हावीर स्वामा, सी थे, तथापि उसके मकान पर चला कर गये, और अनेक बातें पूछी, पीछे पीछे श्रावक करा, केवल ज्ञानी वीतरागीकों, घर पर जाणेकी, क्या आवश्यकता थी, लेकिन जो जिस तरह पर, समझनेवाला हो, उसको उसी तरहसे दया Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली धर्मी प्राप्ति, वीतरागी कराते हैं, इतनी वीन्ती सुण, गुरूनें चेलेको भेज नगरमैंसें, एक रूईकी पूणी मंगवाई, दशमैं विद्याप्रवाद पूर्व मैं लिखे मंत्रसें, उस पूणीका सांप बनाकर आज्ञा दी, जैसे दयाधर्मकी वृद्धि होय, ऐसा कर, अब वो सांप, भरीसभामैं, बेठे हुए राजा उपलदेव के पुत्रकों, जाके काट खाया, लोक मारने भगे, अदृश्य हो गया, राजाने विषवैद्य, गारुडी, जोगी, ब्राम्हन, मंत्र वादी चिकित्सकोसे बहुतही चिकित्सा कराई, परन्तु विष विस्तार पाते ही गया कुमर अचेतन मृतकतुल्य हो गया, उस दिन नगरी मैं हाहाकार मचगया, प्रायः प्रजानें, अन्न जल भी, नहीं लिया, मरा जांण, श्मसानको ले चले, लाखों मनुष्य रोते, पीटते, नगरके द्वार पर्यंत पहुंचे, तब गुरु की आज्ञासें,. चेलेनें रथी रोकी, और बोला, तुम इस रथीकों मेरे गुरूके पास, ले चलो, अभी कुमरकों जीवित कर देंगें, ये बचन सुनते ही राजा उपलदेवनें, कुछ धीरज पाया, और चेलेके पिछाड़ी हो लिया, जहां, श्री आचार्य्यजी महाराज, विराजमान थे, उहां पहुंचा, आचार्यको देखतें ही राजाका दिल, ऐसा दरसाव देणे लगा कि, अवश्य मेरे पुत्रको, ये भगवान जीवित दान देंगें, राजा अपना, मस्तक गुरु चर्णोंमैं धरकर, दीनस्वरसें, रोता हुआ बोला, हे प्रभु मेरे बृद्धपनेकी लाज, आपके आधीन है, पुत्रत्रिगर सब जग सूना है, इस तरह बहुत स्तुति करी, और बोला, स्वामी, मेरा कुटुम्ब तो उसराण, आपकी सन्तानसें कभी न होगा, बल्कि, ओसिया पट्टणकी सब प्रजा इस मुनिः भेषसें, कभी मुख न होगी, तब सब प्रजा भी, गद् गद् स्वरसें कहने लगी, हे पूज्य कुंवरजीकों जो आप सचेतन कर दोगे तो, सब प्रजा आपकी, सदाके लिए दासत्वपना करेगी, तब गुरू बोले, हे राजेन्द्र, जो तुम सब लोक, जैन धर्म अङ्गीकार करो तो, पुत्र अभी सचेत हो जाता है, राजा प्रजा तथास्तु, जय २ ध्वनिः करने लगी, गुरूजीनें योग विद्यासें पास किया, तुरत वो पूर्णिया सांप आकर, डंक चूसने लगा, जहर उतारकर अदृश्य... होगया, कुमार आलस मोडके बैठा होगया, और पितासें पूछने लगा, इतने लोक एकत्रित होकर मुझें जंगलमैं रथीमें डालकर, क्यों लाये, ये सुनते ही, राजा और प्रजाके, आनन्द के चौधारे छूटपडे, और राजानें कुमरकों छातीसें Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली लगाय, बड़ा आनन्द पाया, और राजा सेठ सामंत गुरूका, महा अतिशय देख, साक्षात् ईश्वर समझ चरणोंमैं लगे, और जय २ ध्वनि होणे लगी, राजा बोला, आप, ये राज्य, भण्डार, सर्वस्व लेकर, मुझें कृतार्थ करो, गुरू बोले, हे भूपति, ये तुच्छ सुखदाई, महा दुःखका कारण, राज्यको समझ, हमने हमारे पिताका भी, राज्य त्याग दिया, इस लिये हे राजेन्द्र, स्वर्ग और मुक्तिका, अक्षय सुख देणेवाला, सर्व जीवनको आनन्द उपजाणेवाला श्रीसर्वज्ञ अर्हत परमेश्वरका कहा भया, विनयमूल धर्मको ग्रहण करो, राजा पूछता है, हे स्वामी, मुझे समझाओ, तब गुरू, सर्व प्रकारकी जीवहिंसा, सर्व प्रकारका झूठ, सर्व प्रकारकी चोरी, सर्व प्रकारका मैथुन, सर्व प्रकारका परिग्रह, सर्व प्रकारका रात्रि भोजन, त्यागणे रूप, जो धर्म है सो, हे राजा साधुओंके, करणे योग्य है, और गृहस्थके, सम्यक्त्व सहित बारह ब्रत है, वह, तीर्थंकरोंने, फरमाया है, देव अरिहंतके चार निक्षेपे, वंदनीक, पूजनीक है, जिनेश्वर देवकी, हे राजेन्द्र द्रव्यभावसे, पूजन करो, श्रीजिनेश्वरका, चैत्यालय कराओ, जिनेश्वरकी प्रतिमा करवाओ, सतरह भेदसें, अष्ट द्रव्यादिकसें, पूजन भावसे करो जैसैं, श्रीराय प्रश्नीसूत्रमैं, लिखा है, तैसें, सुगुरू पहले लिखे सो, षट्ब्रतोंके पालणेवाले, जिनेश्वर देवका कहा भया, सत्यधर्मका उपदेश, यथार्थ करनेवाले, जिनोंकों वस्त्र पात्र, उतरणे मकान, अन्न, पाणी, औषधी, शुद्धगवेषणीय, देओ, वन्दन, सत्कार, गुण कीर्तन करो, धर्म केवलीकथित, जिसमें पहले तो, बाईस अभक्षका, त्याग करो, नवतत्व षटद्रव्य, और श्रावक धर्मका आचार विचार सीखो, और आदरण करो जिनधर्मकी प्रभावना करते हुए, गरीब, अनाथ, दीनहीनका उद्धार करो, रथयात्रा, संघयात्रा, तीर्थंकरोंकी कल्याणकभूमी स्पर्शन रूप, भावभक्तिसें, तीर्थ यात्रा करो, इस तरह, हे राजेन्द्र, व्यवहार सम्यक्त्वकी करणी करते, निश्चय सम्यक्त्वकों, समझो, आत्माही देव, आत्माही गुरू, आत्माही धर्म, इस स्वरूपके ज्ञाता होकर, पांच अणु ब्रत, तीन गुण ब्रत, चार शिक्षाव्रत, एवं सम्यक्त्व युक्त १२ ब्रत धारो, अमृत रूप जिनवाणी सुणके, सवालाख राजपूतोंका, अनादि मिथ्यात्वका पडदा, दूर हुआ, सबोंने श्रावक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली धर्म, अंगीकार किया, सच्चाय देवीकी सहायतासे, धर्म पाया इस लिये सम्यक्त्व धारणी साधर्मणीकों, उपकारणी जाणके लपसी, नारेल, खाजा, चूरमा, पक्कान्नसें, बली देणा शुरू रक्खा, जगत्तारक वीर प्रभुका मन्दिर कराणा शुरू कराया, सच्चायदेवीने, प्रकट होकर महाजन विरुद दिया, इस बातकों -सुणके भीनमालका राजा, आसलने भी, जैनधर्म, अंगीकार करा, और, भी " २ मैं महावीर प्रभुका मन्दिर, कराणा शुरू करा, दोनों मंदिरोंकी प्रतिठाका मुहूर्त एक दिन होणेसें, रत्नप्रभ सूरिनें, दो रूप रचकर, ओसियां और भीन मालके मन्दिर मूर्तिकी, प्रतिष्ठा एक कालमें, करी, जैन धर्मका आचार विचार सीखके, सब राजपूत, १० वर्षमैं हुशियार हुए, जब दोनों मन्दिर भी चार मंडपका शिखर बद्ध १० वर्षमैं तैय्यार हुआ, प्रतिष्ठाके "पीछे साधर्मी वात्सल्य राजानें किया, तब ब्राह्मन जो राजाके कुल भिक्षुक थे, उन्होंने भोजनकी बखत सिर फोडी करणी शुरू की, तब राजाने कहा, अगर जैनधर्मकी, श्रद्धा धारण करो, जिन मन्दिरकी सेवा और जतीगुरूकी - टहल बन्दगी, धारण करो तो, तुम्हारा मरणे, परणे, लागभाग हम लोक देंगें, अन्यथा नहीं देंगें, तब पूर्वोक्त जातिके ब्राह्मनोंमेंसें, पांच सहस्र `पुरुषोंने कहा, ये बात हमैं मंजूर है, परन्तु जिनमन्दिर मैं जो बली चढाये जाती हैं, वो हमैं देणा होगा, क्यों के आगे, ये मर्यादा थी जो जिनमन्दि-मैं बली (नैवेद्यफल ) चढाए जाते थे, वो सब मन्दिर ऊपर, कूट पर, “धरा जाता था, उसको कऊए आदि जीव भक्षनकर जाते थे, इस वास्ते, कोषमैं कऊएका नाम, संस्कृतमैं बलिभुक् कहते हैं, तब राजानें, अपने पमारों के कुलभिक्षुककौं, महावीर प्रभुके मन्दिरमें झाडू देणे, बरतण मलणे, दीपक जलाणे, जललाणे इत्यादि मन्दिरका काम सुपुर्द कर दिया सम्हलाया, · मन्दिरका बलिदान खाणेवाला वलिअद् जातका नाम पड़ा, लोकोंनें बाल अद्शब्दको विगाड़ कर, ( बलध ) कहने लगे, उपल देव पमारकी सन्तानका श्रेष्ठी गोत्र रत्नप्रभसूरिः नें, स्थापन किया था, वो विक्रम सम्बत् १२०१ मैं चित्तोड़ मैं, राणेजीकी राणीकी, आंख अच्छी करणेसें, वैद्य पदवी पाई, उस दिन श्रेष्ठ गोत्रका नाम, वैद्य गोत्र प्रसिद्ध हुआ, रत्न प्रभसूरिका, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली उपकेशगच्छवजाताथा वह सम्बत् १०८० के वर्ष मैं दुर्लभ रानाकी सभामैं कुँअला विरुद पाया, ये बलीअद् भोजक, अभी भी, वैद्य गोत्र और कुमला गच्छके, सेवक पणेका, काम कर, अपना हक्क लेते हैं, इस तरह साधर्मी, वात्सल्य मैं, ओसवाल महाजनोंके संग, भोजन करनेसें भोजक कहलाए, देव अरि हंत, और गुरू जतीकी सेवा करने लगे, तब राजा प्रजाऊंचे शब्दसें, सेवककहने लगे, इस तरह ८४ जातके ब्राह्मनों मैं में ४ गूजर गोडछखंडेलवाल ब्राह्मणगोत्र १०, राजा ऊपल देवके महाजन होते सो वखत हुए, वाकी नव गोत्र वालोंका हक्क, १७ गोत्र, ओसवालोंके सेवक, भिक्षुकपणेके हक्कदार रहै, राजा ऊपल देवके पिताके भ्राता सालगजी जिन्होंकों, राजा, तातनी याने ( पिताजी ) कहके पुकारते थे, इसवास्ते प्रथम गोत्र तातेहड़ १ बाफणा २ कर्णाट ३ वलहरा ४ मोराक्ष ५ कुलहट ६ विरहट ७ श्रीमाल ( श्रेष्ठि गोत्र ये राजा ऊपल देवका ९ सहचिंती गोत्र १० (ये राजा ऊपल देवके प्रधान था उसका ) आई चणाग गोत्र ११ भूरि ( भटेवरा ) गोत्र १२ ये राजाके सेनापतिका, भाद्रगोत्र १३ चीचट गोत्र १४ कुंभट गोत्र १५ डीडू गोत्र १६ कन्नोज गोत्र १७ लघुश्रोष्ठ गोत्र, १८ ये गोत्र राजाजीके भ्राता छोटे आसपाल उसका हुआ, इस गोत्रमैं सोनपालजी नामके नामी पुरुष हुए इनके नामसें लघुश्रेष्ठि गोत्र वाले सब सोनावत बजणे लगे, ऊपल बडे भ्राता जिन्होंका श्रेष्ठ गोत्र आसपाल छोटा भ्राता जिसका लघु श्रेष्ठि, ये दोनों, वैद्य, सोनावत, वजते हैं, सेठिया, और सेठी, गोत्र जो, अब प्रसिद्ध है, वो सब, जिन दत्त सूरजीके प्रति बोधे हुए हैं पालीनगरमैं, और सुचिंती गोत्र वर्द्धमान सूरिः खरतर गच्छाचार्यके प्रतिबोधक है, सुचिन्ती और सहचिन्ती दो गोत्र जुदे जुदे हैं, बाफणा गोत्र और बहुफणा गोत्र अलग २ है वाफणा मैंसें ३७. साखफटी है, इन्होंका गच्छ खरतर है, श्रीश्रीमाल गोत्र श्रीजिनचन्द्र सूरिः खरतर गच्छाचार्य- महतीयाण गोत्र मैंसें प्रतिबोधके महाजन किए हैं, श्रीमाल गोत्र और श्रीश्रीमाल गोत्र जुदा नहीं है, एक ही है श्रीमाल जातीको, पावों मैं सोना पहननेकी मनाई नहीं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । महाजनवंश मुक्तावली ११ है, मुसलमीन बादसाहानें, सदाके लिए, बक्सा हुआ है, इन्हों मैं जतीके नख बहुत थे तब तो सगपण भी श्रीमाल २ आपस मैं ही करते थे, अब परिवार बहुत कम होग या, लेकिन गच्छ खरतरमैं ही रहै, इसलिए गुरु... भक्तिसे लक्ष्मी तो इन्होकी अब भी दासी बन रही है; अब तो ओसवालोंको बेटी देणे लेणे लग गये हैं, ८४ जातिके व्यापारी गोत्रों मैं श्रीमालोंको बादशाहने, उच्चपद दिया था, इस तरह १८ गोत्रोंकी प्रथम थापना भई, फिर सवालाख देस मैं, रत्न प्रभ सूरिःने, सुघड़ चंडालिया.... ये दो गोत्रोंके दस हजार घर प्रति बोधे, दश गोत्र भोजक लोगोंने वाम--- मार्ग छोडा नहीं, प्रच्छन्न पणेवो भी क्रिया करते रहै, और अभी भी करते हैं, इसवास्ते इन्होंके द्वेषियोंने इस करतूतसें, इन्होंको, शूद्रों मैं, दरज कर दिया, अभी विक्रम सम्बत् १९५७ मैं, श्रीबीकानेर राजपूताने मैं, इन्होंको शूद्र समझ, कर लगाणेका विचार था, आखर ब्राह्मणोंके पुरानोंसे, सावित हो गया कि, भोजक ब्राम्हणोंसे ही वने हुये हैं, टाड साहब कृत राजपूताना इतिहास देखो, तथा व्यास मीठालालजी कृत टाड प्रत्त्युत्तर, देखो, तथा जाति भास्कर ग्रंथ देखो पुराण बणाणेवालोंकी ये चतुराई है कि जिसके गोत्रके प्रथम उत्पत्तिका पत्ता नहीं मिलता है तो उन्होंको किसी देवताकी सन्तान ठहरा लेणा है, मतलब, संज्ञा पूरणेड, इस न्यायसें, इतिहास तिमिर नाशक मैं, राजा शिवप्रशाद, सितारे हिन्दनें, इस पुरा-- णोंकी बात पर पूंछड़िया राजाका दृष्टान्त भी लिखा है, वो सच्चा है,. लेकिन जैन लोक ऐसा इतिहास कभी नहीं लिखते, कारण देवताओंकी सन्तान मनुष्य नहीं, देवताओं की उत्पत्ति भोगसें नहीं है, मनुष्यों की उत्पत्ति भोग वीर्यसे है, जानवरसें जान वर मनुष्योंकी मनुष्योंसे. उत्त्पत्ति होती है, तुराईका बीज बोणेसें ककड़ी कैसे पैदा हो सक्ती है, भोनक लोक अपनी उत्त्पत्ति, सूर्य जो आकाशमैं प्रकाश करता है, उससैं मानते हैं, पुराणोंपर यकीन रखके, बुद्धिमान अंग्रेज तथा जैन तथा और भी अकलवरोंकों विचार करणा चाहिये कि, क्या सूर्य देव ऐसे व्यभिचारी, और अन्याई हैं, सो सती कुन्तीका शील तोड Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महाजनवंश मुक्तावली -डाला, और मनुष्य ब्राह्मणोंकी कुंवारी लड़कियोंका, बलात्कार शील तोड़ते फिरता है बाहर सूर्य नारायण गवर्मेन्टके राज्यमैं ऐसा काम करणेवालोंकों' जवरजन्नाके कायदेसें, जरूरही सजा होती, उस वक्त उस कन्या के पितानें सूर्यको श्राप देणे रूप सजा देनी लिखी है, खैर हमको, इतिहास यथार्थ जो भया सो लिखा है किसीके खंडन से तालुक नहीं, भोजकोंके ६ गोत्र पीछेसें १० जातमैं मिले हैं, इसमैं २ गोत्र तो गूजर गोड़ ब्राह्मन थे, ४ पुष्करणे ब्राह्मण, ये ६ जात मालवदेशके वडनगर मैं, श्री जिनदत्त सूरिजी पधारे, तब मरी हुई गऊ, जिन मन्दिर के सामनें, घर दी, उसको दादा साहबनें, परकाय प्रवेश विद्यावलसें, उठाकर, रुद्रके स्थान पर जा गिराई, और भी इन ब्राह्मणोंने बहुत उपद्रव करणा शुरू करा, तब उहांके क्षेत्राधिष्ठायक बीरोंकों, आज्ञा दी के, तुम इन सब ब्राह्मणों को समझाओ, उन बीरोंने उन सब ब्राह्मणोंकों, उन्मत्त पागल बणा दिये, वो नंगे होकर बुरी चेष्टासें भटकणे लगे, पीछे वडनगरके राजा, तथा प्रजानें, श्री जिनदत्त सूरि : जीसे, बिनती करी, तब गुरूनें कहा, कि ये लोक सदाके लिए, देव गुरू की, टहल करते रहैं, और मेरे किये हुए, महाजनोंके, भिक्षुक रहैं तो, अच्छे हो जाते हैं, सम्बंध, और भोजन, आगे जो भोजक है, उन्होंके साथ, इन्होंको करणा होगा, राजा प्रजा जमानत करी, तत्काल, वो लोक अच्छे हो गये, इन्होंमें राजाका मुख्य गुरू ब्रह्मसेन, जिसका पुत्र देववृत, सो देवेरा भोजक कहलाया, जिसकी सन्तान वीकानेर मैं हंसावत, तथा आदि सरिया वजते हैं, इन सोलह गोत्रोंका लाग दादा साहबनें समस्त महाजनों पर लगा दिया, पहिली १८ गोत्र पर ही था, महाजन लोक राज्यके कारबारी थे, इससे शिव विष्णुका मन्दिर भी इन्होंके, सुपर्द करवा दिया, प्रायः भोजक देवीके उपासक हैं, मारवाडके ओसवालोंके पास दान परणे मरणे लेते हैं, टाड साहबने राजपूत इतिहासमैं इन्होंका होना, अन्य ही प्रकारका लिखा है, कइयक इन्होंमैं, कवि हैं, विद्या न्यून है, इस जातिमैंसे जगत सेठजीके पास, कइ यक भोजक विद्वान पंडित गये थे, उस दिनसें, मुरसिदाबादमैं, --भोजकोंकों पांडेजी कहा करते हैं, इतने कर संक्षेप इतिहास महाजन १८ " Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __महाजनवंश मुक्तावली गोत्रोंका, तथा १६ गोत्र भोजकोंका, दिखलाया, इस बातकों हुए कितने बर्ष हुए, सो प्रमाण लिखते हैं, ओसियां नगरीके नामसें महाजनोंकों ओस-. वाल संज्ञा भई, राजा उपलदेवका कराया हुआ, बीर प्रभूका मन्दिर ओसि-.. यांमैं, आंसल राजाका कराया हुआ, भीनमालमैं, अभी विद्यमान है, माहेश्वर कल्पद्रुम ग्रंथमैं, ओसवालोंके होणेका जमाना इस तरह लिखा है, . सवईयाच्छन्द . श्रीबर्द्धमान जिन पछै बर्ष बावन पद लीघो, श्रीरत्न प्रभुसूरि नाम तास सत् गुरूवत दीधो, भीनमालसू ऊठिया जाय ओसियां वसाणां, क्षत्री हुआ साख अढार उठै ओसवाल कहाणां, एक लाख चौरासी सहस्र घर; राज- . . कुली प्रति बोधिया, रतन प्रभू ओस्या नगर ओसवाल जिण दिन किया ।११, . प्रथम साख पमार, सेससी सोद सिंगाला, रण थम्भा राठोड़ वंसच ऊआन वचाला, दइया सोलंखी सो नगरा कछावा धन गोड कहीजे, जादम हाड़ा जिंद लाज मरजादलही जै, । खरदरापाट औपे खरा, लेणा पटाज लाखरा, । एक दिवस इता महाजन भया सूर बड़ा बडीसाखरा ॥ २॥ __ इसके पीछे खरतर गच्छाचार्योंने प्रायः बहुत गोत्र प्रति बोधे, किंचित् अल्प गोत्र, और २ आचार्योंने प्रति बोधे सो सब, इन्हों मैं, मिलते गये,.. सुनते हैं, सम्बत् सोलहसे मैं खरतर गच्छाचार्यसे, मोहणोत गोत्र, प्रति बोधे गया, वस जाता जम्बूले गया, और आड़ी टाटी दे गया, वो न्याय इस गोत्रसें हुआ, फिर कोई भी गोत्र राजपूत माहेश्वरीया ब्राम्हनों में से नहीं थापा गया, ये प्रताप सब तत्व दृष्टिसें देखोतो, जिन प्रतिमानिन्दकोंसे हुआ, कालका महात्म इन्होंका आचार विचार देख, राजपूतमाहेश्वरी और ब्राम्हण लोक, जैनधर्मसें, घृणा करणे · लग गये, इस बखत जो जैन-- धर्म चल रहा है, सो सब प्रताप जती आचार्य महा राजोंका है, अब तो वाजे महाजन भी ऐसे कठिन बनगये हैं सो जिन धर्मकी प्राप्ति कराणे वालोंकी, सन्तानसें, बेमुख होगये हैं, और अपने बडेरोके बचनोंकों, भूल गये हैं, लायक मन्द लोकोंका, बाप, और बात, एकही है, सवइयेमें लिखा है कि श्रीवर्धमान भगवानके निर्वाण पहुंचे बाद ५२ वर्ष पीछे, रत्नप्रभ. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ महाजनवंश मुक्तावली ७० सूरिःकों आचार्यपद गुरूनें दीया है और ७० ७० वर्ष पीछे वीरप्रभूके निर्वाणके ओसियांमैं अठारे गोत्रोंकी, थापना करी, भोजक लोक सम्बत् वीया वाईसा -- कहते हैं सो सच्च है, लेकिन, वीया वाईसा, राजा नंदिवर्द्धनका है, - राजा विक्रमका नहीं, सो हिसाब लिखते हैं, जब भगवान महावीरने दीक्षा ली तब संवत्सरीदान देकर, प्रथम प्रजाका, ऋण उतारकर भाई राजानन्दिवर्द्धनका सम्बत्सर चलाया, पीछै प्रभू ४२ वर्ष विद्यमान रहै और निर्वाण पाये बाद वर्ष पर १८ गोत्र हुए एवं १९२ दस वर्ष बाद आचार विचार सीखते तथा मन्दिर कराणे मैं लगा १२२ वर्षपर प्रतिष्ठा तथा साधर्मी वात्सल्य के भोजन पर, भोजक गोत्रकी थापना भई, ऐसाही प्रमाण कमला गच्छके आचार्य के पुस्तकमैं तथा हमारे बडे उपाश्रय के भण्डार के पुस्तको मैं लिखा है, तथा भगवान महावीरको मुक्ति पहुंचे को, इस ग्रंथके लिखते वक्त २४४५ का सम्बत् चल रहा है, याने अश्वपती गोत्रकी प्रथम थापनाकों भए, आज, २३७५ वर्ष बीता है, विक्रम सम्बत् १९७५ तक, अब खरतर तथा और २ आचार्य्योके बनाये भये, गोत्रका संक्षेप इतिहास दरसाते हैं, प्रथम सुचिन्ती गोत्र विक्रम सम्बत् १०२६ मैं श्रीजैनाचार्य वर्द्धमान सूरिः खरतर विरुद “पाणेवाले श्रीजिनेश्वर सूरिःके गुरू, विहार करते, दिल्ली पधारे, उस नगरका राजा सोनी गरा, चौहाण, उसका पुत्र बोहित्य कुमारकों, वगीचें मैं सूतेको, पेणा सांप, पी गया, नगरी मैं हाहाकार मचगया, रोते पीटते, मरा जण स्मशान मैं गाडनेको लाये, उहां बड़ वृक्ष नीचे पांचसय साधुओंसे विराजमान, आचार्यने पूंछा, ये कोण मरगया लोकोंने सब स्वरूप कहा, राजानें, विनती करी, हे सन्त महापुरुष, आपका दया धर्म सफल होय, किसी तरह, मेरा सुत सचेतन होय तो, मैं, और मेरा परिवार, आपके उपकारसें, सदा के लिए आभारी रहेंगें, इस पुत्रकी सन्तान जहां तक सूर्य चन्द्रमा पृथ्वी पर उद्योत करेंगें उहां तक आपकी सन्तानकी चरण सेवा करते रहेंगें, इस वक्त जो दुःख, मेरे तनमैं हो रहा है, सो पर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १५ मेश्वर ही जानता है, इसके दुःखसे मैं भी मर जा ऊंगा, तब आचार्य बोले, हे राजेन्द्र, जो तुम सपरिवार जैनधर्म धारण करो और मेरे शिष्य प्रशिष्योंसें, वे मुख धर्मत्यागके तुमारी सन्तान कभी नहीं होवे तब तो पुत्र सचेत हो सक्ता है राजा तथा परिवारके लोकोंने इस बातको पूर्ण ब्रम्ह परमेश्वरकी साक्षीसें प्रतिज्ञा की गुरूने दृष्टिसें पास किया तत्काल ही कुमर आलस्य मोड़ बैठा हो गया सर्व लोकोंके मनमें परम आनन्द हुआ राजाने गुरू महाराजकों महोच्छव पूर्वक नगरमैं पधराये धर्म व्याख्यान सुनकर सम्यक्त्व युक्त बारह ब्रत उच्चरे कुमर जैनधर्मका आचार विचार सीखा गुरू महाराजनें इसकों सचेत करणेसें सचेती गोत्र स्थापन करा गच्छ खरतर मानते हैं सहचिन्ती गोत्रसें सचेती गोत्र जुदा है। वरदिया [ वरढिया ] दरडा । धारा नगरीका राजा भोज परलोक हुए बाद तंबरोंने मालवदेशका राज्य ले लिया भोजराजाके पुत्र १२ थे १ निहंग पाल २ तालणपाल ३ तेजपाल ४ तिहुअणपाल ५ अनंगपाल ६ पोतपाल ७ गोपाल ८ लक्ष्मणपाल ९ मदनपाल १० कुमारपाल ११ कीर्तिपाल १२ जयतपाल इत्यादिक ये सब राजकुमार धारा नगरीकों छोड़ मथुरा मैं आ रहै तबसें माथुर कहलाये कुछ वर्षों के बीतने बाद गोपाल और लक्ष्मण पाल, के कई गांममैं जावसे, सम्बत् ९५४ मैं, श्री नेमिचन्द्रसूरिः श्रीवर्द्धमान सूरि के दादा गुरू उद्योतन सूरिःके गुर, वहां पधारे, उस वखत लक्ष्मणपालने, गुरूकी बहुत भक्ति करी, धर्मोपदेश हमेशा सुणा करे, एक दिन, एकान्तमैं, गुरूसें अरज करी, है गुरू न तो मेरे पास, ज्यादह धन है, और न मेरे, कोई शन्तान है, इन दोनों बिना जीवितव्य, संसारमैं बृथा है, आप परोपकारी हो, कोई ऐसी कृपाकरो के, मेरी आसा पूर्ण होय, तब गुरूने कहा के, १ इस गोत्रके भाग्यशाली सेठ बुद्धिचन्दजी सिंधीया सरकारके खजानची थे, इन्होंके पुत्र -गुलाबचन्दजीने फल वी पार्श्वनाथके मन्दिरके चारों और हजारों रुपे लगाकर गढ वणवाया पार्श्व प्रभूकी कृपासें इन्होंके पुत्र हीराचन्द्रजी अजमेर नगरमैं महा श्रीमन्त धर्मशाली देवगुरूके भक्त रहते हैं. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली जो तुम जैनधर्म धारण करो तो, सर्व कामना सफल होयगी, धन पाकर सात क्षेत्रोंकी भक्ति करणा, सुपात्र तथा दीन हीनकों दान देणा व सदाके लिए, तुम्हारी सन्तान मेरे शन्तानोंके धर्म उपाशक, वेमुख न होगी तो, जा तेरे मकानके पिछाडी अगणित द्रव्य जमीनमैं, गडा है, उसकों निकालते, जो तुझें मत निकाल ऐसा शब्द कहै, उसकों कहणा,. मैं, नेमिचन्द्र सूरिःका, श्रावक हूं, इस धनका आधा भाग, सुकृतार्थ लगावेगा, तब तेरे तीन पुत्र होगा इतना सुन, लक्ष्मणपाल अपनी भार्या समेत सम्यक्त्व युक्त बारह व्रत गृहण करा उसी तरह, वो निधान निकला, शत्रुञ्जयका संघ निकाला, अगणित द्रव्य धर्म मैं लगाते, तीन पुत्र उत्पन्न हुए, १ यशोधर २ नारायण ३ और महीचंद्र, गुरू श्रीनेमिचंद्रसूरिने, आशीर्वाद दियाथा, इन पुत्रोंसें तुम्हारा कुल बढेगा, योवन अवस्थामें महाजनवंशमैं इन्होंका विवाह किया, उसमैंसे पहले नारायणकी स्त्रीके गर्भ रहा,. पहिरमैं जाके जोडा जन्मा जिसमें लडका तो सांपकी आकृतीवाला और दूसरी लड़की, इन दोनोंको लेकर सुसरार आई, अब वो सांपकी आकृतिवाला लडका शीतकालमें चूल्हेके पास सोताथा, लोटपोट करता चूल्हेके पास चला गया, भावीके वस उसकी वहननें पाणी गरम करणे पिछली रातर्फे अंधेरेमें चूल्हा सिलगा दिया उससे वो नाग आकृति बालक जलकर मरा, शुभ भावसे व्यंतर देवता भया अब वो नागदेवके रूपसें आकर अपनी बहनको तकलीफ देणे लगा, तब लक्ष्मणपालने यंत्र, मंत्र, बलिदान, वगैरह कराया, तब प्रत्यक्ष होकर बोला, जबतक मैं व्यंतर योनिमें रहूंगा तबतक लक्ष्मणपालकी संतानकी लडकियां, कभी सुखी नहीं रहेगी, कुछ न कुछ आपदा होगी, ये बात सुण, बहुत लोगोंने विचारा, सच्च है या झूठ, इतनेमें एकः कमरके पीडावालेने आकर कहा, जो तूं सच्चा देव है तो, मेरी कम्मर अच्छी करदे, तब देव बोला, लक्ष्मणपालकै घरकी दिवालसें तेरे दरदकी जगह स्पर्शकर, अभी पीडा चली जायगी, उसने दिवालसें स्पर्श किया, कम्मर अच्छी हो गई, तब उस देवनें लक्ष्मणपालको वर दिया, जो चिणक पीडावाला तुमारे घरका स्पर्श करेगा सो तीन दिनसें निश्चय पीडा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. १७ रहित होगा, वर दिया, उसका अपभ्रंश लोक वरढिया कहने लगे वो उसकी बहिन भाईके हत्या के निवृत्त्यर्थ मोहसें शुभध्यानसें मर व्यंतर निकाय में देवी भई, भूवाल उसका नाम है, इसकों कुल देवी कर पूजणे लगे, नेमिचन्द्र सूरिः के तीसरे पाटधारी, जिनेश्वर सूरिःकों खरतर बिरुद् मिला, मूल, गच्छ इन्होंका खरतर है, 1 कूकड़ चोपड़ा गणधर चोपड़ा चीपड़गांधी वडेर सांड खरतर गच्छाधिपती, जैनाचार्य, अभयदेव सूरिःजीके शिष्य, वाचनाचार्यपढ़स्थित, श्रीजिनवल्लभ सूरिः, ११५६ वर्ष विक्रमके, विचरते २ मंदोदर नगर मैं पधारे, उहाँका राजा, नाहडराव पड़िहार साख इन्दा गुरूकी बहुत भक्ति करी, और विनती करी, है परमगुरु मेरे पुत्रके पुत्र नहीं, गुरूनें कहा, पुत्र होनेसें संसार बढ़ेगा, साधू संसार बढाणे विना जैनसंघ के काम विना, निमित्त भाखे नहीं, इसलिए तूं, इतना करार करे की पहले पुत्रकूं आपका शिष्य दीक्षित करदूंगा तो, बताकर पुत्ररूप संपदा कर दूं, राजानें बड़े हर्षसें, ये बात मंतव्य करी, गुरूने कहा, तुम और तुह्मारी स्त्री, ये मेरा वास चूर्ण, सिरपर लो, दोनोंनें लिया, गुरूनें कहा बचन मत पलटना, चार पुत्र होगा, गुरू विहार कर गये, क्रमसें चार पुत्र हुए इधर सम्बत् १९६९ मैं श्रीअभय देवसूरिः, वादि देवसूरिः अपने धर्म मित्रकों, कह गये, मेरे पट्ट पर, बल्लभकों, स्थापन करणा, देवसूरिःनें कहा, वल्लभकी आयू अत्र थोड़ी है, लेकिन इसमें वाचनाचार्य पद मैं रहते ५२ गोत्रराजपूत माहेश्वरी ब्राह्मनोंकों, जिन धर्मी महाजन बनाये हैं, इस लिए, महा प्रभावीक है, मैं आचार्य पद मैं स्थापन कर दूंगा, श्रीजिन वल्लभसूरिः कों स्थापन किया, ६ महीने आचार्य पद पालके, देवभद्र सूरिःकों सोम चंदको पट्टधारी बनाने का वचन कथन कर स्वर्गवास हुए, १०८ चिन्ह करके सुशोभित, शरीरधारी, श्रीजिनदत्त सूरि नाम देवभद्र सूरिनें सूरि मंत्र दिया, तीन क्रोड़ ह्रीं कारके जपकी सिद्धि कर, श्रीजिन दत्त सूरिः विचरते २ मन्दोवर नगर पधारे राजानें बहुत ही, उच्छव करा भक्ती दरसाई, गुरूने कहा, हे राजेन्द्र, गुरू महाराजका वचन याद हैं, आपने ३-४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. महाजनवंश मुक्तावली. क्या प्रतिज्ञा करी थी, राजाने राणीसे पूंछा, राणी बोली, राजाके पुत्रकों श्रीजिन दत्तसूरिः, घर २ भीक्षा मंगायगें, सर्वथा पुत्र नहीं देने दूंगी, पुत्र दिया तो, प्राणत्याग दूंगी, तब राजाने लाचार हो, गुरूसें कहा, हम सब, आपहीके हैं, आपका गुण हमारी शन्तान कभी नहीं भूलेगी, गुरू उहाँसे बिहार कर गये, कर्मके वसरातकों भोजन करते समय, बडे पुत्रके, सांपकी गरल खाने मैं, आगई, कूकड देवके, प्रभात समें वैद्योंनें, चिकित्सा बहुत करी लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ, तीसरे दिन सर्व शरीर फूट गया, मंत्र, यंत्र सब कर चुके, महा दुरगन्ध, महा विदरूप, वदनमैसें, पूय झरणे लगा, मृत्युके मुख पड़ा, राणी, हाय २ कर रोने लगी, शहर मैं, हाहाकार मच गया, तब गुणधरजी कायस्थ, हंसजाति जो उस समय दीवान थे, उन्होंने राजासें अरज करी, हे महाराज, आपने, महापुरुषोंसें, कपट करा, उसका फल है, आप यदि अपना भला चाहो तो, उन्हीं परम पुरुषके, चरण पकड़ो, राजा उसी समय घोड़े पर सवार हो, सोझत इलाकेसें गुरूकों, पीछा लाया, गुरू देख कर बोले, जो तुम सहकुटुम्ब, जैन धर्म धारकर, खरतर गच्छ के श्रावक बनो तो, आपका पुत्र अच्छा हो सक्ता है, राजाने कहा, कि मेरी आल औलाद, लायक बन्द होगी, सो खरतर गुरूका, उपकार, कदापि भूलेगी नहीं, न पराङ्मुख होंगे, गुरूनें कहा, ताजा मक्खन लावो, गणधरजी मुख्य मंत्री, तत्काल कूकड़ी नाम गऊका, नवनीत [ मक्खन ] ले आए, गुरूने योग साधन विद्यासे, अलक्ष दृष्टि पाससें, आत्मबल विद्युत् प्रक्षेपन नवनीत ऊपर करके, आज्ञा करी, चोपड़ो, गणधरजी मंत्रीने, चोपड़ा, तत्काल पूय श्राव वन्द हुआ, तीन दिवसमैं, गंध निवृत्ति हो, स्वर्णवर्ण निन रूप हुआ, ये प्रत्यक्ष उपकार, चमत्कार देखकर, गुरूकों, धर्म तत्व पूछा, गुरूनें, न्याय युक्तिद्वारा ३ तत्व देव १ गुरू २ धर्म ३ का स्वरूप जिनोक्त कथन करा, नाहडजी पड़िहार, राजाने, सह कुटुम्ब, जिनधर्म धारण करा, गुरूनें उस पुत्रका, चोपड़ा, तथा कूकड़ गोत्र, स्थापन करा, तथा चीपड़ पुत्रका चीपड़ गोत्र, हुआ, सांडे पुत्रसें, सांड गोत्र हुआ, सांड गोत्र दो है कूकड़ सांड, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. इन्होंमैं है, सियाल सांड दूसरे हैं, उस समय मिथ्यात्व त्याग, हंसकायस्थ मंत्री गणधरने भी, श्रावक व्रत सहकुटुम्ब धारण करा, उनसें गणधर चोपड़ा - गोत्र स्थापित हुआ, गुणधरमैंसें, गांधीपनेके व्यापार करनेसे गांधी गोत्र स्थापित हुआ, नानूजीके पांच पुख्तान पीछे दीपचन्दजी भये, उन्होंका ब्याह लग्नादि, ओसवालोंमैं, शामिल श्रीजिन कुशल सूरि : गुरूनें सदाधर्म स्थिर रहैगा, इस न्यायसे, ओसवालोंकी पंक्तिमैं संमिश्रित करादिया, दीपचन्दजी पीछे परिवारकी बहुत वृद्धि हुई, ११ मी पुख्तान सोनपालजी उन्होंके पौत्र ठाकुरसीजी महाबुद्धि शाली, चातुर, सूर, तव रावचूंडेजी राठोड़ने, उन्होंको कोठारका काम सुपुर्द किया, वह कोठारी कहलाये, राव श्री वीकेजीने, बीकानेर मैं, हाकिम पद दिया, वह हाकिम कोठारी कहलाये, इन्होंकी शाखा १२ का पता लगा है कूकड़ - १ कोठारी २ हाकम ३ चीपड़ ४ चोपड़ा ५ सांड ६ बूबकिया ७ धूपिया ८ जोगिया ९ बड़ेर १० गणधर चोपड़ा ११ गांधी १२ गणधरोंका निवास मारवाड़ पंच पदरे मैं, अन्य २ स्थान भी है, मूल गच्छ खरतर, कोठारी संज्ञा अन्य गोत्रमैं भी है, दूगड़ कोठारी, रणधीरोत कोठारी आदि उनसें भाईपां नहीं है, ( धाड़ेवा, पटवा, टाटिया, कोठारी, ) गुजरात देसमै विभंम पाटणनगर मैं ढेढूजी राजा राज्य करता था, डाभी वंशराजपूत चार पांच सहस्र अश्वपति, लेकिन पर द्रव्य घाड़ा कर लूटै, एकदा समय खरतर गछ नायक श्रीजिनवल्लभ सूरीश्वरजी उहां पधारे, श्रावक जननें महामहोत्सव पूर्वक नगर मैं पधराये, तब राजा ढेढूजीने, गुरूके ज्ञान क्रिया की महिमा श्रवण कर, दर्शनार्थ आया, गुरूनें धर्मोपदेश दिया, राजा उपदेश श्रवण कर, हर्षित हुआ, निरन्तर गुरुकी सेवा मैं आने लगा, यों आते जाते अत्यन्त धर्म की रुचि वृद्धि पाई, इस अवसर मैं ग्राम सामन्तका स्वामी ऊहड़ खीची राजपूत, उसने अपनी पुत्री व्याहनेकों, सीसोदिया राणा रणधीरकों, बहुत राजपूतोंके संग डोला भेजा, नवघोडा, एक हस्ती, पञ्चविंशतिसहस्र नगद मुद्रा, स्वर्ण, रूप्य, मई आभूषण रत्नादिक युक्त, इत्यादि द्रव्यसामग्रीका स्वरूप, ढेढूजी राजाने, श्रवण कर, गुरू भट्टारक, १९ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. श्रीजिनवल्लभसूरिजीके शमीप आकर, बिनती करी, है गुरू मेरी विजय होय ऐसा समय कथन करो, तब गुरूनें, मनमैं श्रवण करके कहा कि मध्यान्ह समय, अभिजित् नक्षत्र में, विजय मुहूर्त आताहै उस मैं जो कार्य किया जावै, वह सर्व सफल होता है ऐसा चामुण्डादेवी कहती है, ढेढूनो तथास्तु कह गुरू पद वन्दन कर सैन्याबल संग लेकर उक्त मुहूर्तमैं प्रयाण करा, उनखीचीके भेजे राजपूतों मैं सबल संग्राम हुआ, ढेढूजीके सौ सुभट मृत्यु प्राप्त हुए डेढसो शस्त्र आघातसें, जर्जरित हुए, खीचियोंके दोयसै सुभट यमलोक प्राप्त हुए, अढाइसो शस्त्रोद्वारा जर जरित हुए, रण भूमिमैं, ढेढूजीने जय पाई, वदन कँवर कन्या और सर्व द्रव्यहस्ती अश्व आदि लेकर निज नगरमैं आए, प्रथम गुरू महाराजके शमीप जाकर, वन्दन, नमन, कर, स्तुति करी, परमपूज्य आपके सत्य वचनानुसार मैंने जय प्राप्त करी, मुझे जो आप आज्ञा करें वह प्रमाण करूं, गुरूने कहा, हे राजेन्द्र यह बदन कंवर राणीका जो पुत्र होय वह मेरा श्रावक होय, राजाने यह गुरूके वचनकों प्रमाण करा, कालान्तरसें सम्बत् ११५१ वर्षे शालिवाहन शाके १०१६ प्रवर्तमाने मासोत्तम माघ मासे शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां तिथौ, बुद्धवासरे, सूर्योदयात् गत घड़ी १५ पल २५ पूर्वाभाद्रपदनक्षत्रे, सुसमये, राणी वदन कंवर पुत्रमजीजनत, दशोठन, करे पीछे, सोहड़ नाम स्थापना करी, तत् समये, श्री जिनवल्लभ सूरिः गुरू महाराजके चरणों उपर धरा, गुरूने वास चूर्ण क्षेपन करा, इसकी माता धाडेसे लाई गई, इसलिए गुरूने इसका गोत्र धाडे. वाल स्थापन करा, श्री जिनवल्लभ सूरिःनी विहार कर देवलोक हुये, तदपीछे वल्लभसूरिः के पद ऊपर सम्बत् ११६९ श्री जिनदत्तसूरिः जी हुएउन्होंने सोहड़को, विशेष प्रतिबोध दे श्रावक व्रत धारण कराया, और उपदेश दिया, पतीके मृत्युअनन्तर, मोहा ग्रस्तपने, जो स्त्री अग्नि में जलकर मरे, उस्को लौकिक शती कहते हैं, उसकी मानता, पितर. कुल देवी, इत्यादिक सेवा, भक्ति न करणा, देव श्री बीतराग, अष्टादश दोषण वर्जित, मुक्तिप्रद की भक्ति, गुरू खरतर गच्छके यति साधू , केवली कथित धर्म अर्थ है, अन्य सब अनर्थ रूप है, ऐसाही सम्यक्त्व युक्त ब्रत जानकर, साहड़ने Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. आत्मसाक्षी ग्रहण करा, परम जिनधर्मी हुआ, तदनन्तर जूनागढ़के नवलखे धुंधल साहकी पूत्री चन्द्र कुंवरसें ब्याह किया, उसका नाम सासरे मैं सजनादे प्रसिद्ध हुआ, उसमें ४ पुत्र उत्पन्न हुए, सारंग १ सगता २ सार्दूल ३ शिवराज ४, इन्होंका परिवार क्रमसें वृद्धि पाया कारणसें शाखा भिन्न -२ हुई इति * मूलगच्छ खरतर. (गोठी गोत्र उत्पत्ति) __ मेघा नामका सार्थ वाह जिसके पांच सय वृषभों ऊपर नाना वस्तु किरियाणेका भार वहता है, कई मनुष्य सेवक है, स्थान २ आडत है, एक समय इस प्रकार स्वरूप बणा, विक्रम शताब्दी ११५३ मैं गुजरात देश अणहिलपुर पत्तनमैं एक महा द्रव्य पात्र राज्य माननीय यवन है उसके गृह भूमिके मध्य पार्श्व जिनेश्वरकी प्रतिमा है, उस पार्श्वप्रभूका अधिष्टायक, पार्श्व यक्षनें उस यवनको स्वप्न में कहा तेरे गृह भूमिके मध्य मैं, पार्श्व जिनेन्द्रकी प्रतिमा है, उसको तूं भूमिमध्यसे निकाल कर, मेघा नाम सार्थवाहको देदे, और उस सार्थ वाहसें पांच सय मुद्रा तूनें ले लेना, वह कल प्रभात समय तेरे गृहद्वार सन्मुख वस्तु किरियाणेकी बालध लेकर निकलेगा, उसके मस्तक पर कुंकुम तिलक उपर अक्षत लगे हुए होंगे, इस चिन्हसे पहिचान लेना, यक्षराज हरा अश्वहरा पलाण ( काठी ) उसपर हरे वस्त्र हरित रंग आप,धारण करा हुआ, यवनको दर्शन दिया और कहा, यदि तूं मेरा कथन नहीं मंतव्य करेंगा तो, तेरे पुत्र कलत्र परिवारको, तथा नगद द्रव्यकों, हस्ती अश्वादि सर्व सम्पत्तिको, कुशल कल्याण नहीं होगा, ऐसा स्वप्नमैं स्वरूप देख, यवननिद्रासें जाग्रत हो, अपनी स्त्री बीबीसें स्वप्नका स्वरूप सर्व निवेदन करा, बीबी ऐसा वृत्तान्त श्रवण कर भयभीति हो अपने पतिसे कहने लगी हे प्राणनाथ शीघ्रतया उस वुत्तको भूमिमैसे निकालो नहीं तो कोई अवश्य हानी होगी, ये कोई जिन्दोंका बादशाह है * प्रथम छपी मुक्तावली में छापा गयां इतिहास वह एक जीर्णपत्र पर लिखा दूर करके यह इतिहास जोधपुरसें मेडतावाले ऋषभदासजी धाड़ेवालने ३ प्रमाण दे लिख भेजा इस लिए यह लिखा है. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. या खुदाका भेजा प्रेसता है वह दर्शाव देकर तुम्हें कह गया है, तब वह यवननें रात्रिकों उसी समय उठके उक्त स्थानको खोदा, तब वह पार्श्व प्रभूकी मूर्ति प्रगट हुई, तब उस यवनको पूर्ण विश्वास हो गया के जिसने मुझकों दर्शन देकर जो वार्ता कही थी वह वा वैसी ही होगी, तब बीबी और यवन अपने बालबच्चों युक्त पार्श्व प्रतिमा सन्मुख ताजीम ( विनय) से हाथ जोड़ कहने लगा कि हे देव तूं क्रोधितमत होना हम तेरी बंदगी करने तेरे वंदे हैं, जो आज्ञा तेरी होगी वही करेंगे, गृहके द्वारा ऊपर जाके उस सार्थ वाहका मार्ग गवेषणा करनेको स्थित हुआ, इधर इस ही प्रकार उस यक्षनें मेघा सार्थ वाहकों स्वप्न में दर्शन देकर कहा अण हिलपत्तन मैं एक यवन तुझकों पार्श्वप्रभूकी प्रतिमा देगा, और पांच सय मुद्रा तुझसे याचेगा, तूं शीघ्र उसको पांच सय मुद्रा देकर पार्श्वप्रभूकी प्रतिमा ले लेना, उसकी पूजा अष्ट विधीसें तूं निरन्तर प्रभात करना मध्यान्ह पुष्पादिसें अंग रचना. संध्याको आरती धूपोत् क्षेपन की करना, तुझें इहभव, परभव, उभय लोकमैं लाभप्रद होगा, ऐसा कह अन्तर ध्यान हुआ, प्रभात समय उठ नित्य करतव्य स्नान तिलकादि कर प्रयाण करा सूर्योदय समय अणहिल पत्तन प्राप्त हुआ, देवकथित चिन्हों द्वारा पहिचान कर यवनने पार्श्व प्रतिमा अर्पण करी पांच सयमुद्रा याचनेसें सार्थ वाहने यवनको दिये बडे विनयसें पूजा द्रव्यभाव करता स्वव्यापारमैं महान् लाभ पार्श्वयक्षकी सहायतासे उपार्जन करता क्रमसें मेघा सार्थ वाह पारकर जो देश गोढवाड और पाली मारवाड के शमीपस्थ देश उहां जाकर प्राप्त हुआ, पार्थ जिन प्रतिमाका चमत्कार, मनो वाञ्छित पूरक प्रभावसें, यात्राके अर्थ धर्मी जन आने लगे, ज्ञाता अङ्ग, राय प्रश्नी, जीवाभिगम सूत्रोक्त विधीसें सतरह भेदादिक द्रव्य भाव युक्त पूजा करने लगे, क्रमसें सार्थ बाहने स्थल भूमिमैं प्रयाण किया जब १२ कोस आया अकस्मात् जिन प्रतिमाका वाहन स्थमभित होगया पदमात्र चले नहीं, ये स्वरूप देख सार्थ वाह चिन्तातुरपने निद्रा प्राप्त हुआ तत्काल यक्ष राज आकर स्वप्नमैं कहता है कि हे सार्थेश. चिन्ता मत कर, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. ये प्रतिमा यहांसे, स्थल देशमैं नहीं गमन करेगी, कारण इस देशके वास्तव्य, ग्रामीण, निर्विवेका मरु स्थल्या, अर्थात् निर्विवेकी ( विचार शून्य ) मनुष्य ग्रामोंके वास्तव्य, प्राय विद्याहीनपनेमैं हैं, बूझ्झ बुजाकडकी आज्ञा माननेवाले हैं, जलरहित, कंटकदेश है, इस लिए तूं , यहां पर पार्श्व प्रभूका, भुवन करा, जहां अक्षतके. स्वस्तिक पर, नगद मुद्रा तूं देखे, उस स्थल मैं अगणित द्रव्य निकलेगा, और जहां हरा नारेल तूं देखे जल भरा, उहां मीठे जलका कूप निकलेगा, जहां गीला गोमय (गोवर) पड़ा तूं देखे, उहां खारे जलका कूप निकलेगा. अक्षतके स्वस्तिकपर जहां पुंगीफल (सुपारी) देखे उहां पाषाण (पत्थर ) नाना प्रकारके जैसा चाहियेगा वैसा निकलेगा, शिला बटा, शिल्पशास्त्रका, पूर्णपारंगामी सिरोही नगरमैं रहता है, उसके गलत कुष्ठ रोग है, वह मिटा दूंगा, और उसको मन्दिर बनानेकों कहदूंगा, उस्को आमंत्रण करना, इत्यादि कहकर अदृश्य हुआ, सार्थ वाह हर्षित हुआ, उक्त द्रव्यबलसें प्रथम दो कूप कराये तत्पश्चात् सिलावटेको बुलाया, पार्श्व भुवन कई वर्षों से चार मंडप, खंभ २ पर, नाटक करती, वाजित्र बजाती, पुतलियां, एवं प्रशंसनीय कोरणीयुक्त, शिखरबद्ध, भुवन निष्पादन करा, कुंकुम पत्रिका भेज २ श्रीसंघको एकत्रित करा, सवालक्ष देशमैं विचरते हुए, खरतर गण नायक, श्रीजिनदत्त सूरिःजीको, प्रतिष्ठाके लिए बिनती करी, गुरू ऐसा शुभ लग्नमैं, चैत्यप्रतिष्ठा कर, पार्थ प्रभूषं विराजमान कर, वासचूर्ण मंत्राभिषेक करा मंगल जय शब्द हुआ, उस समय आकाशमैं देव दुइंभिका निनाद, करके साढी बारह कोटि सोनइये देवतोंने बर्षा करी और कहा, ये सर्ववर्षित द्रव्य, संघपति, मेघाके लिये दिया गया है, ऐसा चमत्कार, श्रीजिनदत्त सूरीःजीका, प्रत्यक्ष देख, मेघा सार्थ वाह सम्यक्त युक्त बारह ब्रत, दादासाहिबके, समक्ष धारण कर, खरतर श्रावक हुआ, मेघा पुत्र गौडी हुआ, इसने भी सम्यक्त युक्त श्रावक व्रत धारण करा, गुजरात, गोढ़वाड़के श्रावकोंने पार्श्व प्रतिमा पूजक समझ गाठी' कहना शुरू करा, १ संस्कृतमें, महाधनवंत, नगरमें मुख्य, राजा प्रजाका हितचिंतक, बुद्धिवानको गोष्टी कहते हैं, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ महाजनवंश मुक्तावली. गुजरात देशमैं देव पुजारीकों वर्तमानमैं गोठी कहा करते हैं, गोडीजी समाधि मरणकर मरयक्ष हुआ, अवधि ज्ञानसे पूर्वजन्म देख उस पार्श्व प्रतिमाकी महिमा विस्तृत करके पृथ्वीतलमैं रखकर मनुष्योंको स्वप्न देकर, मूर्तिको प्रकटाने लगा, बारह वर्षोंसें उसके नामसें, गवड़ी पार्श्वनाथ, नाम विस्तार पाया, आखरी विठूरे ग्राम प्रगटे, तद्पीछे दर्शन अद्यावधि मूर्तिने नहिं दिया, गोड़ीके शन्तान, गोठीनामसें प्रसिद्ध हुए, मूल गच्छ खरतर, (अथ खीमसरा गोत्रकी उत्पत्ति) मरुधर देश मैं बालेचा चौहाण राजपूत खीमजी नामका उसमें प्रथम ग्रामका नाम परा वर्तन कर, खीमसर नाम प्रसिद्ध करा, एक दिवस इन्होंके शत्रु राजपूत भाटी इन्होंकी गऊ ऊँठ प्रमुख द्रव्य लेकर पलायन हुए ( भगे ) खीमनी राज पूतोंके संग उस धनको लाने निकले, शत्रु प्रबल दलने इन्होंके, बलको, छिन्न भिन्न कर डाला, चिन्ता ग्रस्त हो, पीछे पुनः बल लेने चले, इतने मैं खरतर गच्छाचार्य जिनेश्वर सूरिःके शिष्य साधुओं सहित सन्मुख मिले, प्रतापी गुरुत्व पन देख बिनती करी, हे पूज्य आपपर दुःख भञ्जन हो, पर द्रव्य हरण कर ले जा रहे हैं, कुछ प्रतीकार करो, गुरूने कहा, यदि तुम निरपराधी जीवोंके हननेका, मद्य, मांस, और रात्रि भोजनका त्याग करो तो, गुरुदत्त प्रतीकार है, स्वार्थ सिध्यर्थ खीमनी सहित सर्व राजपूतोंने, ४ नियम धारण करे, गुरूने शत्रुवशी करन, अमोघ विधि नमस्कार मंत्रके, ध्यानकी कथना करी खीमजी स्मरन करने लगा उस मंत्रके अमोघ प्रभावसें शत्रुओंके मनोगत पर्यायपलटे सन्मुख आकर सर्व द्रव्य देकर क्षमा याची, ये स्वरूप देख खीमजी आदि राजपूत साश्चर्य हो, जैनधर्म धारण करा, इन्होंके तीन पुख्तानोंका ब्याह सम्बन्ध राजपूतों मैं होता रहा, सगे राजपूत उपहास्य, व्याह आदिमैं करते रहै, शस्त्र क्यों धारण करा है, तकड़ी ( तराजू ) लो, ये प्रत्युत्तर यथार्थ देते, अपराधियोंको दण्ड देते, इन्होंके मन मैं व्याहादिकों मैं, मद्यपान, मांस भक्षणादि देखकर, भीमजी, ऐसी चिन्ता निवृत्त्यर्थ उपाय विचारते थे, इतने मैं जंगम सुर तरु दादा श्रीजिन दत्तसूरिः खीम Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. २५ सर पधारे, भीमजी वन्दन करनार्थ, सपरिवार युक्त गये, गुरूने धर्मोपदेश दिया, अवसर पाकर निज दुःख कथन करा, दादा साहिबनें सभा समक्ष निरवद्य भाषण करा, साधर्मी सगपण समो, सगपन अवरन कोय, भक्ति करो साधर्मकी, समकित निरमल होय ? तब ओसवाल श्रावक इन्होंके पुत्र परिवारकों अपनी जाति मैं मिलाये, इन्होंने व्यापार प्रारम्भ किया, खीमसर मैं होनेसें खीमसरा जातिका, नाम प्रसिद्ध हुआ, भीमजीदादा गुरुदेवके शमीप जाकर, अपने सपरिवार ( कुटुम्ब ) सहित व्रत नियम कर, नव तत्वके ज्ञाता हुए मूलगच्छ खरतर । (समंदरिया गोत्र) ___पारकर देश पद्मावती नगरके शमीपस्थ ग्राममैं सोढाराजपूत, समंदसी, जिस्के ८ पुत्र थे, देवसी १ रायसी २ खेतसी ३ धन्नो ४ तेजमाल ५ हरि ६ भोमो ७ करण ८ लेकिन उनके पास द्रव्य नहीं, कृषाण कर्मसें वृत्ति करे, ‘धन्ना पोर वालसें ऋण लेवे, धान्यकी निष्पत्ति होनेसें, वृद्धि सहित द्रव्य दे देवे, कान्तार ( काल गिरनेसें समंदसीको अत्यन्त कष्ट आपदा भोगनी हो, एक समय समंदसीको विहार करते मुनिपती श्रीजिन वल्लभ सूरिः मार्ग मैं मिले, भव्य परणति होनेसें, वन्दना करी, गुरूने धर्म लाभ दिया, समंदसीने पूछा, हे मुनिवर, मेरा दुःख कब निवर्त्तन होगा, गुरूने कहा, प्राणी मात्र शुभ कृत्यसें सुख और पाप कृत्यसें दुःख भोगता है, यदि तूं सुखाभिलाषी है तो धर्म कर वह अहिंसा मूल धर्म है अहिंसाका स्वरूप निवेदन करा, और नित्य प्रति उभय काल एकान्त स्थलमैं बैठकर सामायक सम भावसें करना, शत्रु ऊपर शत्रुता नहीं, मित्र ऊपर मित्र भाव नहीं राग द्वेषकों त्याग समाधिमैं लीन मन करनेसें आत्म गुणसामायक उदय होता है, इस प्रकार धर्मके रहस्यकों श्रवण कर, समंदसी, गृहस्थ धर्मानुकूल दोनों व्रत गुरूसें ग्रहण · करे, उभय काल सामायक करता है प्राणिमात्रकी दया करता है, गुरू विहार कर गये, ये स्वरूप देख साधर्मी जानकर, धन्ना पोरबाल, द्रव्यो पूर्ण सहायता देने लगा, और ८ पुत्रोंको विद्याभ्यास कराने लगा, भोजन वनसें न्यूनता नहीं रक्खी, तब समंदसी विचारने लगा अहो धर्मका महत्व Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ महाजनवंश मुक्तावली. पना निरुद्यम पनसें भी, भोजन छादन प्राप्त होने लगा, विक्रम सम्बत् ११७५ मैं श्रीजिन दत्त सूरिंनें पद्मावती नगरको चरण रजसे, पावन करा, समंदसी धन्ना पोर बालके संग, गुरूकी वन्दना करने गया, गुरूनें धर्मोपदेश दिया, तदन्तर समंदसीनें गुरूसें विनती करी, है पूज्य, गुरू दत्त मैं व्रतसे इस भव मैं सुखी हुआ हूं, पर भव अवश्य सुखा कर होगा, ये आठ पुत्र आपके हैं, गुरूनें वासचूर्ण क्षेपन करा खरतर श्रावक बनाये, धर्मका रहस्य समझाया, तदन्तरधन्ना पोरवालनें, इन्होंकों, भागीदार बनाके, गुजरात मैं व्यापार कराया, समुद्रके मार्ग गमन कर, मोक्तिक, विद्रुम, अम्बर, आदि व्यापारसें, आठो भ्रातानें, कोटान मुद्रा अर्जन करी, गुरू श्रीजिन दत्त सूरिःकी कृपासें; ओसवाल ज्ञातिमैं, मिले, संमदसीके शन्तान, समुद्र के व्यापारी होनेसे, लोक समंदरिया बोहरा कहने लगे, मूल गच्छ खरतर, ( झांवक झांमड झंबक ) i राठोड़ वंशी रावचूंडेजीके वेटे पोते १४ जिन्होंने १४ राज्य अलग २ स्थापन करा जिसमें से मालव देशमैं रत्न ललाम ( रतलाम ) नके आसपास २१ । ३० कोशके दूरीपर जो अब झबूआ नगर वसता है इस नगरी राजा बदेके ४ पुत्र सुखसें राज्य करते थे. सम्बत् १९७५ मैं श्रीजिनभद्र सूरिः खरतर गच्छी विचरते २ उहां पधारे तब राजाने बडे महोत्सवसें नगर मैं पराये क्यों के रावसीहाजी आसथानजीने श्रीजिनदत्त सूरि : जीकी सेवा करी तब गुरू बोले हे राजेन्द्र क्या इच्छा है आसथानजी अरज करने लगे गुरू राज्य भ्रष्ट हो गया सो किसी तरह राज्य मिले ऐसी कृपा करो तब गुरूनें कहा जो तुम्हारी शन्तान मेरे शन्तानोंको सदाके लिए गुरू मानते रहैं तो मैं आगे होनेवाली बातका निमित्त भाषण करता हूं आसथानजी बोल जहांतक पृथ्वी और धू अचल रहैगा उहांतक हम राठौडोंके गुरू खरतर गच्छ रहेंगे और कभी विमुख नहीं होंगे ये उपकार कभी नहीं भूलेंगे सूर्यकी साक्षी परमेश्वर साक्षी है इत्यादि अनेक वचन प्रतिज्ञा अन्तःकरणसें करी तब गुरूनें शासन देवीकी आराधना करी और कहा तुम्हारे कुल मैं चंडा नाम पुत्र होगा उसके १४: Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. शन्तान राज्यपती राजाधिराज पृथ्वीपती होंयगे और आजसे तुम्हारी कला और तेज प्रताप दिन २ बढ़ते रहेगा, तबसें राठौड, राज्य, धन, परिवारसे दिन २ बढ़तेही गये, ख्यात राठौडों मैं ऐसा लिखा है, ( दोहा ) गुरू खरतर प्रोहित सिवड़, रोहड़ियो वारट्ट । कुलको मंगत दे दड़ो, राठोंडां कुल भट्ट ॥ १ ॥ इस वास्ते झंबदे अपने कुलक्रमके उपकारी गुरूकी भक्ति मैं तत्पर हुआ, इसवक्त दिल्लीके बादशाह यवनने झंबदे पर हुक्म भेजा के, तुम बडे शूर वीर मच्छराल हो, सो घाटेका मालिक, भींया टांटिया भील, न मेरा हुक्म मानता है, और गुजरात देश मैं, चोरी कराता है राहगीरोंको लूटता है. बंध बांध ले जाता है इसको पकड़के लावोगे तो, तुम्हारी खातिरी दरबार में होगी, कुरब. वढाकर, पट्टा दिया जायगा, राजा उदास . हो, गुरूके शमीप गया, चरण कमल वन्दन कर कहने लगा हे गुरू आप गुरुओंके आशीर्वादसें, ये राज्य पाया, आपके बडे गुरू लोकोंने हमारे बडेरोंके, कईयेक बेर कष्ट आपदा दूर किया है अबकी लाज मर जाद जो गुरू रख दो तो बृद्ध पण सफल हो जाय, और आपके सेवकोंकी अखियात कीर्ति राज्य रह जाय, तब आचार्य बोले, हे राजेन्द्र जो तुम हिंसा धर्म त्यागके अहिंसा रूप अणुव्रत सम्यक्त्व युक्त जैनधर्म धारोतो सब हो जावे एक पुत्रकों राज्य देणा बाकी महाजन बनो तब गुरूके बचन सुण तहत्त किया तब गुरूनें कहा कल प्रयत्न कर दूंगा काला भैरूं मंडोवराकों आराधन : करा उसके वचन लेकर प्रभात समय विजय पताका जंत्रवणा कर राजाको दिया राजाने विचारा जो मैं भुनापर बांधूगा तो न मालुम युद्धमैं खुल पड़े इस लिए उसने अपने बड़े पुत्रकी जांच मैं चीरकर जंत्र डालकर टांके लगा दिये और गुरूका आशीर्वाद लेकर चढ़ा और उन दोनों भाइयोंको पकड़के . बादशाहके सुपुर्द किया बादशाहने वह सब भीलोंका इलाका झबुआ नगरके ताबे दिया सो अभी विद्यमान है राजाने अपने बड़े पुत्रकों राज्य तिलक १ जयचंद साथे यति हाड़ गाले हे माले, सेतरामरी सरबग ईधरे पाछीवाले रायपालरायनें दीनपति ग्रह्यो देखायो, कन ऊपर कर कृपा असंखदल अलग उडायो, सूरने त्रियामेली सरस किया इसावड २ कजां, खरतरे गच्छ हुआ इसाकदेनविर चोकमधजां । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. दिया और कहा हे पुत्र ये राज्य तुम्हारा नहीं समझणा सदा मदके लिए खरतर गुरूसे कभी ऋण मुक्त नहीं हो सकोगे, अभी भी वो राजा लोक उसी मुजब पिताके वचन निर्वाह करते हैं, राना तीन पुत्रोंके परिवार सहित जैन महाजन हुआ, जिन्होंके ये तीन गोत्र गुरूनें, स्थापन करे, झांवक १ झांमड़ २ झंवक ३ ये तीनों झबुआ नगर मैं हुए, (वांठिया, लालाणी, बम्हेचा, हरखावत, साह मल्लावत,गोत्र) विक्रम सम्बत् ११६७ मैं पमार राजपूत लालसिंहजी रणत भंवरके गढ़के राजाको श्रीजिनवल्लभ सूरिःने इस प्रकार उपदेश दिया. लालसिंहजीके पुत्र ब्रह्मदेवके जलंधरका महा भयंकर रोग उत्पन्न हुआ, उस वखत लालसिंहजीने, गुरूसें बिनती करी है गुरू, ऐसी कोई चिकित्सा करो, जिससे मेरा पुत्र आरोग्य हो जाय, तब वल्लभसूरिःने कहा, जो तुम, जैन धर्म धारण करो और मेरे श्रावक बनो तो, पुत्र अच्छा हो सकता है, तब लालसिंहजीने कबूल करा तब गुरूने, चामुण्डा देवीसें उसको आराम करवाया, तब लालसिंहनीने, सात पुत्रों समेत जैनधर्म धारण करा, उसका बडा पुत्र बडा बंठयोद्धार था, उसकी शन्तान वंठ कहलाए, ब्रह्मदेवके ब्रह्मचा कहलाये, लालसिंहजीके छोटे पुत्रके लालाणी, साहकी किताब उदयसिंह पुत्रकों भरु अच्छके नबाबनें, इनायत की, वह साह कहलाये मल्ले पुत्रकी शन्तान मल्लावत कहलाये, हरख चन्दकी शन्तान हरखावत कहलाये, वांठिये चिमनसिंह सम्बत् १५०० से मैं हुमायू बादशाहकी फोजमैं देण लेण करणे लगे, गुजरातके हमलेमैं, सोनेके बरतन फोजके लोकोंने, पीतलके भरोसे बेचा, इससे चिमनसिंह वांठियेके पास वे गिनतीका धन हो गया, इससे बहुत जगह व्यापार हो गया, चिमन सिंहने कोड़ो रुपये लगा कर बहुत जिन मन्दिरोंका उद्धार कराया, सत्रुजय तीर्थकी यात्रा जाते गांम २ प्रति आदमी प्रति, एक २ अकब्बरी मोहर, साधर्मियोंकों वांटी, पहले वंठ कहलातेथे १ मेड़ता नगरमें बादसाह खाजेकी दरगाह जाते आया द्रव्यकी आवश्यक्ता होनेसें हरखावतकों वुला ५२ सिक्केके ६ लक्ष रुपया मांगे चिन्ताग्रस्त आनंदघनजी मुनिः पास गया मुनिःने योगसिद्धिसे ५२ सिक्के पूर्ण करे बादसाहने हरखावतको साह पद दिया। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महाजनवंश मुक्तावली. २९ मोहरें वांटणेसें वांठिया २ कहलाये इन्होंका परिवार - जादह बीकानेर इलाके मैं वसते हैं. मूलगच्छ खरतर, ___ चोर बेड़िया भटनेरा चोधरी सांव सुखा, मोलछा, पारख, वुच्चा, गुल गुलिया, गूगलिया गदहिया राम पुरिया साख ५० . . - पूरबदेश, नगर चंदेरी मैं, खर हत्थ सिंह राठोड़ राजा राज्य करता था निस्के ४ पुत्र थे, अम्बदेव, नींबदेव २ असा ३ आसपाल ४ सम्बत् विक्रम ११९२ मैं में, श्रीजिन दत्तसूरिः खरतर गच्छा चार्य, युग प्रधान, चंदेरी परगने मैं पधारे, उस वखत, राठ लोकोंकी फोज, संग में लिये हुए यवन लोक काबली, मुल्ककों, लूटणा शुरू करा, बहुत अगणित द्रव्य लेकर जाने लगे, तब राजा खरहत्थकों, ये खबर हुई, तब दुष्टोंको सजा देणेके लिए, राजा, ४ पुत्रोंकों संग लेकर सेन्याके संग युद्ध करने चला, युद्ध मैं सब धन राजाके सुभटोंने यवनोंसे छीन लिया, मगर युद्ध मैं राजाके पुत्र घायल हो गये, राजा उन्होंको पालखी मैं डालके पीछाघिरा, शस्त्र वैद्योंने जबाब दे दिया कि, ये पुत्र किसी तरह नहीं बच सकते, राजा सुणतेही. मूर्छा खाकर नीचे गिरा, तब लोकोंने, ठंढा पाणी, ठंढी हवा, करके, सचेत. करा, विलापात करणे लगा बेटे अचेत पड़े हैं इतने मैं मुनिगणसें सेव्यमान : श्रीजिन दत्तसूरिः विहार करते चले आये लोकोंने राजासें अरज करी हे पृथ्वीपती शान्त दांत जितेंद्री अनेक देवता है हुक्म मैं जिनोके ५२ वीर ६४ योगिनीयोंको वस करता पांच पीरोंको ताबेदार बनानेवाले, बिजलीकों पात्रके नीचे थामणेवाले, जंगम सुरुतरु, आपके भाग्योदयसें वो पधार रहे हैं, राना ये सुणतेही, सामने जाके चरणों में गिरपड़ा और रोणे लगा, गुरूने कहा, हे राजेन्द्र क्या दुःख है, तब चारों पुत्र मृतकवत् पालखी मैं जो पड़े थे. सुभटोंने लाकर हाजिर करे, गुरूने कहा जो तुम जैनधर्मी बनो, मेरी आज्ञा मानो तो, चारों अभी अक्षत अंग हो जाते हैं, राजा कहता है, हे परम गुरूजी, जो मेरी शन्तान और मैं आपसे और आपकी शन्तानोंसे, वे मुख हो कभी सुख नहीं पावेगें आपकी आज्ञा खरहत्थ की सब शन्तानकों मंतव्य है इत्यादि जब प्रतिज्ञा कर चुका तब गुरूने जो गणियोंको याद फरमाया Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. गुरूकी आज्ञासें अमृत छिड़का तत्काल अक्षत अंग चारों बीर योद्धार खड़े हुए गुरूके चरणकी पूजा करी सब राजपूत अचरजके भरे जैनधर्म अंगीकार करा उन्होंके न्यारे २ गोत्र स्थापन करे उन्होंके नाम समुच्चय लिखेंगे राजा खरहत्थके बडे पुत्र अम्बदेवने चोरोंको पकड़ा वेड़ियें डाली सो चोर वेड़ियें अथवा चोरोंसें जाय भिड़े इस वास्ते चोर भिडिये कह लाये लोक चोरडिये कहा करते हैं चोर वेडियोंमेंसे बहोत. साखें निकली १ तेनाणी २ धन्नाणी ३ पोपाणी ४ मोलाणी ५ गल्लाणी ६ देवसयाणी ७ नाणी ८ श्रवणी ९ . सद्दाणी १० कक्कड़ ११ मक्कड़ १२ भक्कड़ १३ लुटंकण १४ संसारा १५ कोवेरा १६ भट्टारकिया १७ पीतलिया १८ सोनी १९ फलोदिया २० रामपुरिया २१ सीपाणी, दूसरे नींव देवकी शन्तान वाले, भटनेरा.चौधरी, कह लाए, इन्होंने भटनेरके लोकोंकी, चौधरायत, भटनेरके राजाके कहणेसें करी, तबसें भटनेरा चौधरी कहलाये, तीसरे भंसा शाहके ५ स्त्रियां थी इन्होंने अपना रहना, मालवदेश, मांडवगढ़ मैं करा था इन्होंके ५ स्त्रियोंसे ५ पुत्र चौथा पुत्र कुंवरजी इन्होंकी शन्तानवाले सांवण सूका कहलाए सो इस तरह कुंवरजी बहुत ज्योतिष निमित्त शकुन शास्त्र पढ़े थे जो - बात कहते सो प्रायः मिलही जाती मांडव गढ़सें चित्तोड़के राणोजीने कुंवरजीको बुलाये, परिक्षा करणेकों पूछा, कहो कुमर, सावण भादवा कैसे होगा, तब कुंवरजी बोले सावण सूका, और भादवा हरा होगा, राणेजीने वहां ही रक्खा अन्तको जैसा कहा, वैसा ही हुआ, तब राणेजीने कहा, सच्च तुम्हारा कहणा, सावण सूका गया, तबसें लोक, सावण सूका २ कहने लगे, इन्होंके वंश मैं गुलराजजी गुड़के गुल गुले वना २ कर छोकरोंको खिलाया करते, इसवास्ते छोकरोंने गुल गुलासेठ नामधरा कुंवरजीके वंशवाले, जैसलमेरसें गूगलका व्यापार पालीनग्र मैं करते, इससे लोक गूगलिया कहने लगे, दूसरे वेटे २ गेलोजी इन्होंके पुत्र वछराजजीकों मांडव गढ़के लोक गेल वछा कहते २ लोकोंमें गोलछा कहलाने लगे, तीसरे वेटे वुच्चा साह इनकी शन्तान वुच्चा कहलाये ४ वेटा पासूनी आहड़ नगर मैं राजा चन्द्रसेनने इन्होंको सरकारी ज्रवाराहत खरीदने पर झंवरी कायम Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. ३१ किया एकदिन एक परदेशी श्रीमाल झंवरी राजाके पास हीरा वेचनेको या राजाको दिखलाया राजाने शहर के सब झंवरियोंकों दिखलाया झंवरियोंने उस हीरे की बड़ी तारीफ करी, जिसके पीछे राजानें अपणे झंवरी पासूजीको हीरा दिखलाया पासूनी बोले यद्यपि हीरा बडा कीमती है परन्तु इसमें एक ऐव है, तब राजाने पूछा वह कौनसी पासूजी बोले, जिसके घर मैं यह हीरा रहता है उसकी स्त्री मर जाती है, तब राजानें श्रीमाल झंवरीकों बुला कर पूछा, हमारे झंवरी पासूजी इस हीरे मैं ऐसी एब बतलाते हैं, उसने अपना कान पकड़ा, और कहने लगा मैंनें हजारों नांमी झंवरी देखे हैं, परन्तु पासूनीकी बढ़ाई करणेकी जुबानको हिम्मत नहीं है, सच्च है, मैंने दो व्याह किए दोनों मरगई, तब इस हीरेको एब दार समझ बेचने आया हूं, पीछे तीसरा व्याह करूंगा, तत्र राजानें, सत्य पारख जांणके पारख पदवी, पासूजीकों, प्रदान करी, पासूजीकों लाख रुपया सालियाना देणा, उस दिन राजानें, कबूल करा, पासूजी उस हीरे की लक्ष रुपया कीमत देकर श्रीऋषभ देव भगवान के मस्तक पर लगानेको तिलक वणाकर चढ़ा दिया, इनकी शन्तानवाले पारख कह लाए, पांचमा पुत्र सेनहत्थ लाडका नाम ( गद्दासा ) था, उसकी शन्तान, गद्दहिया कहलाई, खरहत्थजीके चौथे बेटे आसपालजी, इन्होंके आसाणी तथा ओस्तवाल दो लड़कोंसें गोत्र हुए । (भैंसा शाहने गुजरातियोंकी लङ्ग खुलाई ) भैंसा साहके पास, खरहस्थ राजानें, जो यवनोंसें, धन बे गिणतीका छीना था, वो ज्यादह, इन्होंकेही पास रहा, इन्होंकी माता लक्ष्मीबाई, सत्रुजयकी यात्राकों बड़े महोत्सवसें चली, जगह २ रथ महोत्सव, संघकों भोजन, धर्मशाला, जीर्णोद्धार, याचकोंकों दान देते चली, पाटणनग्र पोहचते धन पास मैं थोड़ा रहा, तब अपने गुमास्तोंको भेज वहांके बड़े व्यापारी नामी चारोंकों बुलाया, उसमें गर्दभसाह मुख्य था, तब उनोंसे लक्ष्मीबाईने कहा, मैं क्रो सोनइये चाहिए हैं, सो हमारी हुण्डी मांडवगढकी लेकर के दो, तत्र व्यापारी बोले, तुम कौन हो, क्या जाति, किस जगह रहते हो, हम पिछानते नहीं, तब लक्ष्मीबाईने कहा, मेरा पुत्र कहीं छिपा नहीं है, मैसेंकी माता 1 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. हं , ऐसा सुणकर गद्धासाह हंसकर बोला, भैंसा तो हमारे पखाल पाणीकी लाता है, ऐसी हसीकर चले गये, परन्तु देणा कबूल नहीं करा, तब मातानें सवार भैंसेसाहके पास भेजे, और सब समाचार लिख भेजे, तब भैंसासाह अगणित धन लेकर, पाटण पहुंचा, और गुमास्तोंको भेज, गुजरात देसमैं, जगह २ तेल खरीद करवा लिया, और पाटणमैं, उन व्यापारियोंसें, तेल मुद्दतपर, लेणेका वादा किया, लक्ष मोहरे देदी, अब पाटणके व्यापारीने गामोंमैं गुमास्ते भेमे, तेल खरीदणे, लेकिन कहीं तेल मिला नहीं, आखिर को तेल देणेका वादा, आ पहुँचा, अब पाटणके सब व्यापारी, इकठे होकर लक्ष्मीबाईके, चरणोंमें आ गिरे, और कहणे लगे, हे माता, हमारी लज्जा रक्खो, तब भैंसा साह बोला, राजसभामैं चलकर तुम सब लोग, लंग खोल दो, और आइन्दे कभी दुलंगी धोती नहीं बांधो तो, तेल लेणेकी माफी दूंगा, उन्होंने वैसाही करा, तबसें गुजरातवाले दो लंगा नहीं रखते हैं बाकी गांमवालोंसें, तैल लेलेकर जमीनपर गिराणा शुरू कराया, तेलकी नदी ज्यो प्रवाह चलाया, आखिर गुजरातके व्यापारियोंने हाथ जोड़, माफी मांगी, तब निशाणीके लिए सबोंकी लङ्ग खुलादी, और भैंसेको पाडा कहणा कबूल कराया भैंसेसाहके कहणेसे अपणे नामका सिक्कासे लहत्थ ( गद्दासाह ) ने छमासे सोनेका गदियाणा बनाकर दीन हीन कंगालोंको बांटा, तब पाटणके राजाने भैंसासाहकों बुलाकर मान प्रतिष्ठा बढाकर रूपारेल विरुद दिया, याने रूपारेल शकुनचिड़ी प्रशन्न होकर, जब शकुन देती है तो, नवनिद्ध सिद्ध कर देती है, सम्बत् १६२७ मैं सजय पर श्रीजिन चन्द्रसूरिःखरतराचार्यके उपदेशसे, १८ गोत्र और भाई होकर, गछ खरतरसे प्रतिबोध पाये, जिनखरहत्थ राठोड़की साखा, इतनी फैली, सगे भाइयोंका कुछ क्षात तो पहिले लिखा है, बाकी कानफरेंसकी रिपोर्टमैं और भी गोत्र गोलछा पारखोंके सगे भाई लिखे हैं साबसुखा १ गोलछा २ पारख ३ पारखोंसे आसाणी ४ पैतीसा ५ चोरवेडिया ६ वुच्चा ७ चम्म ८ नावरिया ९ गद्दाहया १० फकिरिया ११ कुंभटिया १२ सियाल १३ सचोपा १४ साहिल १५ घंटेलिया १६ काकड़ा १७ सीघड़ १८ संखवालेचा १९ कुरकचिपा २० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली . ३३ साव सुखोंसे गुलगुलिया २१ गूगलिया २२ भटनेरा २३ चौधरी २४' चोरडियोंमेंसें २४ फेर निकले ये सब गोत्र राठोड़ खरहत्थके ४८ गोत्र सगे भाई गच्छमूल खरतर ५० मा ओस्तवाल पारखोंसे ये सब जैन कानफरेंसकी रिपोर्टसें मिलाके श्रीजीके कारखानेसे मिलाके लिखे हैं १८ तीर्थ भाई कांकरिया १ सेल्होत २ भटाकिया ३ बूबकिया ४ खूतड़ा ५ नारेलिया ६ सिन्दूरिया ७ मुंधडा ८ नीवाणिया ९ बावेल १० काकडा ११ फोकटिया १२ इत्यादि इन सबोंका मूलगच्छ खरतर है। . . ... (भणसाली २ चंडालिया भूरा वद्धाणी) - लोद्रवपुर पट्टण जो कि जेसलमेरसें ५ कोस है उहांका राजा यदुवंशी धाराजी, भाटी उनके पुत्र सगर, सगरके श्रीधर, राजधर दो पुत्र थे सगर युवराज पदमैं था सम्बत् ११९६ युगप्रधान श्रीजिन दत्तसूरिःलोद्रव पत्तन पास विक्रमपुर पत्तनमैं थे सगर युगराजकी माताको ब्रह्म राक्षस लगा हुआ था, सो अगम बात कहदेती, वेद पढ़ती, सन्ध्या तर्पण करती, पवित्रता मैं मग्न कई दिनों भोजन नहीं करती, और जब खाणे बैठती तो मण अंदाजके खा जाती तब राजाने अनेक मंत्रवादियोंको बुलाया मगर वो मंत्र मंत्रवादीका विगर पढ़े राणी आप पढ़ देती, आखिर राजाने जिनदत्तसूरिः जीकी प्रशंसा सुनी तब राजा आप सन्मुख गया, और लोद्रवपुर मैं गुरूकों लाया गुरूकों देखते ही ब्रह्म राक्षस बोला, हे प्रभू आपके सन्मुख अब मैं लाचार हूं , कारण आपकी योग विद्याको मैं नहीं पहुंचता आपके सब देवता दास हैं, गुरूनें कहा, आज पीछे धीराके कुटुम्बको कभी सताया मत, तब ब्रह्म राक्षस बोला है गुरू इस राजाका मैं कथा व्यास था, एक दिन ऐसी हुई के इस राजाने देवीकी स्तुति करी, और मैंने विष्णु सतो गुणी रामचन्द्रकी प्रशंसा करी, राजाने मानी नहीं, तब मैंने कहा है राजा मदिरा मांस चढाणा, जगदम्बा नाम धराणेवाली, अपने पुत्रवत् भैंसे बकरेको मारके भोग लगाणेवाली, जगतकी माता १ धीराजी ओसवाल हो गये इस लिये भाटी राजाके कुर्शी नामेमें इनोंका नाम नहीं लिखा गया है। ....... Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ महाजनवंश मुक्तावली कैसे हो सकती है, इतना सुणतेही राजानें क्रोधातुर होकर मुझे मरवा डाला, मैं दयाके परणामसें, मरकर, व्यन्तर निकायमैं ब्रम्ह राक्षस हुआ, पूर्व भवके वैरसे मैं, इसके कुलका नास कर डालता, लेकिन आप समर्थ योगी हो, ऐसा कह कर राजा धीरकों कहणे लगा, अरे दुष्ट तूं, देवीकों, जीवोंको मारकर मदिरा मांस चढाता, और खाता हुआ नरक जायगा, अगर स्वर्गमोक्षकी चाह रखता है तो, श्री जिन दत्त सूरिःधर्मकी जहान है, इन्होंका कहा धर्म धारण कर, सो तेरे कुटुम्बका दोनों भव कल्याण होगा, ऐसा कह कर, राजाके गढका मूल दर्वाना उत्तर था, सो पूर्वमैं स्थापन कर, गुरूसे सम्यक्त ग्रहण कर, ब्रह्मराक्षस. राणीका अङ्ग छोड दिया, अपनी निकायमैं चला गया, ऐसा चमत्कार देख राजाने अपने सहकुटुम्ब जैन धर्म अङ्गीकार करा, भंडसालमैं वासक्षेप किया इस वास्ते भणसाली गोत्र, मुरूने स्थापन करा, बद्धाजी भणसालीकी शन्तान बद्धाणी कहलाये, थेरूशाह नामका भणसाली विक्रम सम्बत् सोलसयमैं हुआ, वो लोद्रवपुरमैं घीका रुजगार करता था, उसवक्त रूपसियां गांमकी स्त्रियें इसकों नित्य घी लाकर बेचा करती थी, एक दिन पिछली रातकों, बहुतसी स्त्रियां घीके घड़े ले, गांमसें निकली, इन्होंमें एक स्त्री, अराई ( इढांणी ) भूलगई, रस्तमैं उसमें एक हरीबेलकों मरोड़के, अराई वणाली, लोद्रवपुर पहुंची, इसके घड़ेका घी तोलते २ अन्त नहिं आया, तब थिरूने बिचारा, १५ सेरका घड़ा, इसमें ३० सेर घी तो निकल चुका, और फिर भी इसमें घी इतनाही भरा है, अग्रिम बुद्धि वाणियां इस न्यायसें वो अराई, उसने नीचेसे निकाल कर, दुकानके अन्दर फेंकदी सबोंका घी लेके, अराई बालीको, दूणे दाम दिये, तब वो विचारणे लगी, आज थिरू भूल गया है, तब पीछे बोली अराई तो दे घड़ा कैसे ले जाऊं, इसने कोडा ला, जो जेसलमेरमैं वणता है वो निकालके उसको दे दिया, तब वो स्त्री बहुतही खुशी होगई आजमैं तो रूपारेल लेके आइथी, वो सब चली गई अवथिरू साहनें जो अपने पास द्रव्य था, उसके नीचे, वो अराई धरी, जितना द्रव्य निकाले, उतनाही अन्दर, तब, श्री जिनसिंहसूरिः आचार्यसें ये सब बात कही गुरूनें कहा सुकृतार्थ संच, तब Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली थिरूनें धीर राजाका कराया हुआ सहस्र फणा पार्श्वनाथके मन्दिरका निर्णोद्धार कराया, ज्ञान भण्डार कराया, इस तरह कोड़ों रुपये लगाये, नवरत्नोंके जिन बिंब भरवाये संघ भक्ति बहुत करी सम्बत् सोलासयवयासीमैं सजेजयका संघ निकाला श्री जिनराजसूरिः प्रमुख कई आचार्य संगमैं थे, समय सुन्दर उपाध्यायनें इन्होंकेही संघमैं सजय रास वणाया था, इस वंशवाले जेसलमेरमैं सुलतान चन्दजी कच्छावा बड़े अकलके पूरे सायर पुरुष होगये हैं, उहां भणसाली कछावा बजते हैं, जोधपुरमैं भणसाली सब जातके चौधरी हैं, बादसाह अकब्बरने थेरूसाहको दिल्ली बुलाकर बड़ा कुरब बढाया, थेरू साहने, नब हाथी, पांचसय घोड़े नजर किए, तब बादसाहने, रायजादा की पदवी प्रदान करी, इन्होंकी शन्तानके राय भणसाली कहलाये, आगरेमैं बडा जिनमन्दिर थिरू साहने कराया, सो अब भी विद्यमान है जोधपुरके भणसाली, नौ वर्षतक अपणे पुत्रोंकी, चोटी नहीं रखते हैं, दादा गुरूके दीक्षित चेले बणा देते हैं, बोरी दासोत भणसाली ब्याह भोजकोंसे कराते हैं, ब्राह्मणोंकों, हीजडोको, ब्याहमैं नहीं बुलाते हैं । . (भणसाली सोलंखी २) आभूगढका सोलंखी राजा आभड़दे, ( वह आभोर नाम कहाता है ) इसके पुत्र जीता नही अनेक देवी देवता मनाये, लेकिन पुत्र नहीं जीता तब सम्बत् ११६८ मैं श्रीजिन बल्लभसूरिः महाराज, विचरते २ पधारे, तब राजाने, गुरूसें बिनती करी, हे गुरू महाराज, मेरे जो शन्तान होता है, वो मर जाता है, कोई यत्न करणा चाहिये, गुरूनें कहा, जो तुम जैनधर्म धारण करो तो, मृतवत्सा दोष मिट जाता है, तब राजा राणी दोनोंने कबूल करा गुरूमहाराजनें कहा, तेरे सातराणियोंके, अब सात पुत्र होयगें, सो जीते रहैगै, राजा राणी दोनोंने उसी दिनसें गुरूसें, भंडसाल मैं वासक्षेप लिया, इस लिए भणसाली गोत्र थापन करा, सातोंके सात पुत्र हुआ, इन्होंकी आभूसाख प्रसिद्ध भई, इन भणसालियोंने, जब अंबड़नामका अणहिल पत्तनका, और गच्छका श्रावक मुलतान सिंघदेशके नगरमैं जवाहरात खरीदने गया था, उस वक्त श्रीजिन दत्तसूरिः उहां पधारे, तब सजादीवान सेठ, सामंत Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ महाजनवंश मुक्तावली सब लोक, सन्मुख आकर, वाजे गाजे बड़ी धूमसें, नगर मैं लाये, क्योंकि यहां गुरू महाराजनें, दीवानके लड़केकों, सांप काटे मृतक तुल्यको जिलाया था, इस लिए राजा प्रजा सब गुरू महाराजके, सेवक थे, उस वक्त ये महिमा वो गुजराती अम्बड़ देख कर, गच्छके द्वेष, ईर्ष्या अग्निसें दग्ध होगया, तब गुरूकों कहने लगा, आपका चमत्कार और त्याग वैराग्य जब मैं सफल जानूँगा, इस तरहके उच्छवसें, जो आप अणहिल पाटण मैं पधारे तो, तत्र गुरूनें उसके वचनसें इर्ष्या जाणके, जबाब दिया, हम पट्टण मैं इस तरहके उच्छवसें आवेंगे, उस वखत, तूं कर्मगति से निर्धन होकर, तेल लूंण वेचता, हमारे सन्मुख आवेगा, पीछे, कई अरसेके गुरू उहां पधारे उस समय पाटण मैं, श्रीजिन दत्तसूरिः के, तीनसय श्रावग वसतें थे, बड़ी धूम धाम उच्छवसे सामेला हुआ, अकस्मात् दलिद्र रूप, चींधड़, तेललूंण वेचणे, गामों मैं, जाता था, धन सत्र जाता रहा, ऐसा अम्बड़ सामने मिला, गुरूनैं, पहिचान कर कहा, हे अम्बड़, मुलतान मिले थे, पहिचानते हो, लज्जित होके, गुरूके चरणो मैं गिरा और मन मैं द्वेष लाया के, इन्होंके कहने से मैं निर्धन हो गया, मतना इन्होंकी महिमा, यहां बढ़े, तब कपटसें जिन दत्त सूरिः का, श्रावक वणगया, गुरूका धर्म व्याख्यान सुणा करे, एक वक्त गुरू महाराजके, तेलेका पारणा था, इसनें भक्तिसें, साधुओंको, बहरनें बुलाये, तब मिश्रीका जल जहर मिला हुआ, बहिरा कर बोला, ये जल गुरू महाराजके योग्य, निर्दोष है, मैनें पारणेके वास्ते मेरे बणाया था, साधुओंनें गुरू महाराजकों दिया, गुरूने पारणे मैं पी लिया, पीछे मालूम हुआ के, इसमें विष है उसवक्त भणसाली श्रावक आभूसाखवाला, पच्चखाण करणे आया त गुरूनें कहा मुझें जहर होगया ह इतना सुनतेही वो श्रावक अपनी ऊंटनी ( सांड ) बहुत शीघ्र गामनी पर सवार होकर भूखाप्यासा निकला विषापहारिणी मुद्रिका लेकर पीछा आया, आचार्य महाराजके वमन पर वमन और बेहोसी, वदन काला, और हाथोंमें ऐंठण, चलणे लग रहा है, हजारों मनुष्य इकठ्ठे हुए, १ पहर मैं पीछा आकर, उसको प्रासुकजल मैं, डाल कर, साधुओंने दिया, तत्काल, सर्व उपद्रव, शान्त हो गये, ये बात फैलते ? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महाजनवंश मुक्तावली राजाके पास पहुंची, तत्काल, अम्बड़कों बुलवाकर राजानें, कबूल करवा लिया, राजाने प्राण लेणे की सना मैं, चौरंगा करणेका हुक्म दिया, तब जिन दत्तसूरिःने साधुओंकों, राजसभा मैं भेजकर, ये हुक्म बन्द करवाया, राजाने देसोटा दिया, जहां २ जावै, उहां हत्यारा कहके कोई इसकों बतलावें नहीं आखिर गुरू पर द्वेष भाव रखना २ अधम मरके व्यन्तर हुआ, अब बैरानसंबंधसें, गुरूका छल देखने लगा, अकस्मात् गुरूका, ओघा आसणसें दूर हटा, तत्काल यो व्यन्तर लेके, उत्पात करता- गुरूकों उन्मत्त बणा दिया, गुरू अपने होस मैं होय तो, अन्य देव भी याद करते ही हाजिर होय, उस वक्त वीर और जोगणियां सब उत्तर दिशा मैं कोई व्यन्तरोंके परस्पर युद्ध होता था उहां चले गये थे, भवितव्यता जब आती है तब सुसम चक्रवर्ती तथा भगवान बीरके अनेक देव सेवा करते भी कई मरणान्त कष्ट भोगणा पड़ा था और उसवक्त उस दुष्ट व्यन्तरनें पूरा छल पाया तभी ये कार्य किया उस समय सब खरतर संघनें बलिदान मंत्रादिक किया, तब व्यन्तर प्रत्यक्ष हो बोला, जो उस समय जहरका प्रतिकार करनेवाला भणसाली अपने:सब गोत्रको, मेरे बलि करे तो, मैं ओघा देके, श्री जिन दत्तसूरिःकों, निज सत्तामें, कर देता हूं, इतना सुणते ही भणसाली मुरुभक्तिसे गोत्रका, उतारा कराया, न्यन्तरने ओघादेके - - जिन दत्तसूरिःकों, छोड़ दिया, भणसालीके सब कुटुम्बको, मारणे निमित्त, जो व्यन्तर उद्यत होता था, तत्काल श्री जिन दत्तसूरिने, उस व्यन्तरकों योग विद्यासें, स्थम्भन कर दिया, सब भणसालीके बच्चोंपर ओघा फेरते ही, सब सावधान हो गये, ऐसा अचरज देख, राजाप्रमानें, धन्य २ भणसाली तुह्मारी . गुरूभक्ति, जो तुमनें, सारा कुटुम्ब, गुरूके निमित्त, अर्पण करा तुम खर ( करड़ा ) हो, तबसे सोलंखी भणसाली खरा भणसाली कहलाये, इन्होंका परिवार बड़ी मारवाड़ गुजरात में बसता है राय भणसालीसें चंडालिया नख प्रगट हुआ, कछबा हुआ, भूरेजीकी शन्तान भणसाली, भूरा कहलाये, कई पूगलसें उठे वह भणसाली पूगलिया कहलाते हैं, मूल गच्छ इन्होंका .. खरतर है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली (लूंकड़ गोत्र ) खेता नामका महेश्वरी वाहेती जिसके दो पुत्र लाला, १ भीमा २ ये दोनों नबाब लोदी रुस्तम खांके खजानेका काम करते थे, जिसमैं इन्होंने कोडोंका माल, अपने महेश्वरी ब्राह्मणोंकों, वांटदिया, सम्बत् १५८८ विक्रमके किसीने चुगली खाई, नबाबनें, अहमदाबाद मैं, इन दोनोंकों कैद करदिया, एक दिन, पहरे दारोंकी नजर बचाकर ये दोनों भगे, सो गोढ वाड़ इलाके मैं, आये, पिछाड़ी इन्होंको पकड़नेको, घोड़े चढ़े, तब तपागच्छके जतीने इन्होंसे करार किया, हम तुम्हें छिपायलें, मगर जैनी श्रावक होना पड़ेगा, इन्होंने कबूल कर, सिपाही लोक ढूंढके चले मये. इन्होंने प्राण बचणेसें, जैन धर्म अंगीकार करा, वाद, जोधपुर, फलोदी, गामोंमें, आनेसें, लुकणेसें लूंकड कहलाये, मूल गच्छ तपा) (आयरिया लूणावत गोत्र ) सिंधु देशमैं एक हजार गांमके भाटी राजपूत राजा अभयसिंह राज्य करता था, सम्बत् ११९८ मैं श्रीजिनदत्त सूरिः विचरते २ बनमैं उतरे थे, राजा अभयसिंह सिकारकों निकला, उस समय जिनदत्त सूरिः का, एक साधू , गोचरीके वास्ते सामने आया, उसको देखते ही, राजा बोला, मुण्ड अमंगल है, ऐसे राजाके वचन सुन एक क्षत्रीने गोली मारी, वह गोली साधूके . लगकर गुलाबका फूल होकर गिरपड़ी, राजा घोडेसें उतरकर साधूके चरणोंमैं गिरपड़ा, साधूसे माफी मांगी, तब वो साधू. समतासे बोला, हे राजेन्द्र, हमारे गुरू आचार्य वनमैं उतरे हैं, ये सर्व महिमा उनोंकी है, तूं उनोंका दर्शन कर, तब राजा बनमैं गया, गुरूकों नमस्कार करा, तब गुरूनें धर्मः लाभ कहा, और राजाकों धर्मोपदेश देते. कहने लगे, हे राजा, जीवोंकों मारणा है इसका फल दुर्गति है, जिसमें भी, क्षत्रीयोंको चाहिये कि, निरापराधी जीवोंकों कभी हणे नहीं, षदर्शनको, बेकारण सन्ताना ये राजपू. तोंका धर्म नहीं, जैसा इस समय आप करके आये हो, जैन संघकी रक्षा करणेवाली साशनदेवीनें, उस मुनिः की रक्षा करी, और गोलीका फूल कर दिखलाया, ये वचन सुनते ही राजा, आश्चर्य मैं रहा, इन. महापुरुषकोंमें Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली . ३९ कर आया हूं, इस बातकी खबर यहां बैठेही होगई, ये कोई महापुरुष है, गुरू बोले हे राजा साशनदेवी मुझकों कहगई, इतनमैं सींधू नदीका तोफान उठा सो पाणीका पूर ऐसा आता दीखरहा है कि मानो पृथ्वीकों जल जलाकार कर सर्व वहा कर ले जायगा राजा बोला, हे गुरू आप शीघ्र रक्षा करो मेरी सर्व प्रजा हजार ग्रामके लाखों की वस्ती की, भवितव्यता आगई, गुरूनें. कहा, हे राजा तुम्हारे सब भाटी राजपूत, जो कि हनार गावोंमैं बसते हैं, मेरे श्रावक हो जावें तो, सबोंकी रक्षा हो सकती है, राजाने कहा हे परम गुरू, सब महाजन होकर, आपके दास रहेंगे, मगर शीघ्र ३ राजा तो घबड़ाकर उस दरियावके वेगकों नहीं देखणेकी सामर्थासें, गिरके बोलता है, हे गुरू मुनिः पर मेरे राजपूतनें, बेकारण गोली मारी, माफ २ रक्ष २ करता है तब गुरू बोले, आयरह्या, हे राजा, आय रह्या, उठके देख राजा उठके देखता है, तो, दरियाव, पीछा जा रहा है, तब राजाने उसी समय, बडी धूमसें, वाना गाजा और अपनी प्रजासहित गुरूकों, सहर मैं पधराया, और दश हजार भाटी राजपूतोंके संग, जैनी हुआ, गुरूने आयरिया, गोत्र थापन किया इस राजाके सतरमी पीढी लूणासाह हुआ, इसकी सन्तान लूणावत कहलाये लूणा जेसलमेर परगणे मैं आया, मरुधर मैं काल पड़ा देख जगह २ सत्रुकार, देणा शुरू करवाया, पीछे सजयका संघ निकाला, कोलू गाममैं, काबेली खोडियार, हरखूकों, लुणावत पूजणे लगे, ये लोग बहुत वरसों तक, बहलवे गांममैं वसते रहै पीछे जेसलमेर मैं, इस तरह आयरिया लूणावतोंका बंस विस्तार हुआ, मारवाड़मैं फैल गया मूल गच्छ खरतर है, .. (बहुफणा, बापणा, ). - धारा नगरीका राजा पृथ्वीधर पमार राजपूत इसकी सोलमी पीढ़ी मैं । जोवन और सच्चू इस नामके दो नर रत्न उत्पन्न हुए, किसी कारण इस, धारा नगरको छोड जालोर गढ़कों फतह कर, अपना राज्य कर सुखसें रहने लगे, तब आगेके जो जालोरगढ़के राजा थे, उन्होंने कन्नोजके राठोड़ोंकी, सहायता लेकर, जालोरगढं पर चढ़ाई की, बडा घोरेयुद्ध हुआ, एक भी हारे नहीं, तब इन दो भाइयोंनें, अपने दिलजमीके आदमी मुल्कों Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देते हैं, तब यो ता पूर्वक, पत्र लिखा, बना, शत्रुजय का विधी पूर्वक, महाजनवंश मुक्तावली मैं भेजे, तब गुजरात मैं, श्रीजिनवल्लभ सूरिःको, चमत्कारी पुरुष जानके, सब हकीकत कह सुनाई, तब गुरूने कहा, जावो तुम तुम्हारे रानासे पूछो, जो अगर जैनधर्म अंगीकार करके महाजन बणोतो, हम शत्रुनय करादेते हैं, तब वो, सुभट, शीघ्र गतिसें जाकर, राजाकों खबर दी, राजा दोनों भाइयोंनें, नम्रता पूर्वक, पत्र लिखा, वह पुरुष पत्र लेकर, उहां पहुंचा तत्र श्रीजिन वल्लभसूरिःने, बहुफणा, पार्श्वनाथ, शत्रुजय कर मंत्र दिया, और सब विधि बतलाई, वह पुरुषनें जोवन सच्चू राजाकों विधी पूर्वक, मंत्र दिया, वह एकाग्र मनसे साढ़े बारह हजार जप करके, कही विधीसे, घोड़े असवार होकर सब सेन्या. मैं जा खड़े रहै, इन्होंको आया देख शत्रुलोक मार २ करते दौड़े इन्होंने सबके शस्त्र छीन लिये, सबोंको जीत लिये तब सबने हाथ जोड़ माफी मांगी, ये तारीफ सुण, जयचन्द राठौड़ने इन दोनोंको, सत्कार सन्मानसें बुलाया, सब हकीकत पूछी, इन्होंने गुरू महाराजकी सिद्धी बतलाई, तब राजानें अपने सामन्त वणाकर, मुल्क पट्टा इनायत कर, अपने देश जानेकी आज्ञा दी, पीछे आते गुरूकी तलाश करते, खबर पाई के, श्रीजिन वल्लभ सूरिःजी, स्वर्गवास हो गये, और श्रीनिन दत्तसूरिःभी, बड़े जागती जोत उन्होंके पट्ट प्रभाकर है, तब दोनों भाई, जिन दत्तसूरिःजीके, चरणों में गिरे, और बोले आज हमारो वापना, हमारी रक्षा अब कोण करेगा, गुरूनें कहा, तुम जिनधर्म अंगीकार करो तो, गुरू स्वर्गवासी सदा तुह्मारी सहायता करेंगे, इन्होंने श्रीजिन दत्तसूरिःजीसें जिनधर्मका तत्व समझके, श्रीजिनधर्मका सम्यक्त्व युक्त बारह व्रत लिया, गुरूने बहुफणापार्श्वनाथके मंत्रसें सिद्धी पाई इसवास्ते बहुफणा गोत्र उन्होंने कहा बापना इसवास्ते. दूसरा इस गोत्रका नाम वापना भी प्रसिद्ध हुआ रत्न प्रभसूरिःने जो अठारह गोत्रोंमैं बाफणा गोत्र बणाया था, वह अलग है, लेकिन '' वह भी पमार वंशी थे, इसवास्ते वेभी चैत्यवासी अपणे गच्छकों जाण कर, श्रीजिन दत्तसूरिःजीके श्रावक हो गये जोबन सच्चके ३७ पुत्र हुए, उन मैंसें सांवतजी नामके जोबन राजाके पुत्र राजा अजय पालके Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली ४१ पोते, पृथ्वी राजके सेनापती हुए, इन्होंके मुसलमीनोंकी सेन्यासें, ६ वखत संग्राम हुआ ६ वखतही काबुलके बादशाहकों पकड़के चूड़ियां, लंहगा ओढणा, पहराके, बजार मैं घुमाया, ऐसे महायोद्धाकों देख, पृथ्वी राजजीनें, युद्ध मैं नाहटा इस नांमसें ही, पुकारणे लगे, लोक सब नाहटा २ कहणे लगे, इस तरह फतह पुरके नवाबनें, रायजादा पदवी एक पुत्रकों दी, वो रायजादा गोत्र हुआ, इस तरह, ३७ गोत्र बहुफणोंसें निकले १ बापना २ नाहटा ३ रायजादा ४ घुल घारेवाड़ ६ हुंडिया ७ जांगड़ा ८ सोमलिया ९ वाहंतिया १० वसाह ९९ मीठड़िया १२ वाघमार १३ आभू १४ धत्तरिया १५ मगदिया १६ पटवा १७ नानगाणी १८ क्रोटा १९ खोखा २० सोनी २१ मरोटिया २२ समूलिया २३ धांधल २४ दसोरा २५ भूआता २६ कलरोही २७ साहला २८ तोसालिया २९ मूंगरवाल ३० मकल बाल ३१ संभूआता ३२ कोटेचा ३३ नाहउसरा ३४ महाजनिया ३५ डूंगरेचा, ३६ कुत्रेरिया २७ कूचेरिया ' ये अनेक कारणोसें शाखा फटी है, मूल गच्छ सबका खरतर है, गुरूका वरदान था, तुम धन परवारसें बधोगे । ( रतन पुरा कटारिया जलवाणी ) विक्रम सम्बत् १०२१ सोनगरा चौहाण, राजपूत रतन सिंहनें रतनपुर नगर बसाया, जिसके पांचमी गद्दी सं. १९८१ मैं अक्षतीजकों, धन पाल राजा तखत बैठा, एक दिन शिकार करने राजा जंगल मैं गया, घोड़ा उलटा सिखलाया हुआ था, थांमणेंकों ज्यों ज्यों राजाने लगाम खेंची, त्यों त्यों घोड़ा चोफाले होता रहा, तब राजानें लगाम ढीली करी, तब घोडा ठहर गया शिकार हाथ नहीं लगणेंसें पीछा घिरा, रास्ते में एक तलाव नजर आया, उहां दरखतकी छांह मैं घोड़ेकों बांधके आप सो रहा, इतने मैं एक सर्प निकलके, १ पटवा बादरमल २ जोरावरमल ३ मगनीराम ४ वगैरह बड़े दानेश्वरी श्रीमन्त ५ भाई भये सत्रुंजयका संघ निकाला १८ लाख रुपया खरचवाकी सात क्षेत्रों में क्रोडों रुपये इन्होंने लगाये इन्होंकी सन्तान उदयपुर जेसलमेर कोटा रतलाम वगैरह शहरों में बसतें हैं हर्ष सूरिःका सूरत मैं महेंद्र सूरिः का मंडोवर मैं जिन्होंने पाट महोत्सव करा इन्होंकी उदारता लिखनेकी कलमे मैं ताकत नहीं इस जमाने मैं ऐसे दाता दुर्लभ होगये ऐसे २ काम करे । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ महाजनवंश मुक्तावली राजाकों काट खाया, राजा थोड़ी देरसें बेहोश होगया, आयुके प्रबल योगसें, श्रीजिन दत्त सूरिःआचार्य उस रस्तेसें बिहार करते चले आए. राज लक्षण अङ्गमैं देख, तत्काल ओघेसे पास करा, राजा निर्विष हो कर तत्काल बैठा हुआ, आगे गुरूकों देख, चरणोंमें गिर पड़ा, गुरूनें धर्म लाभ दिया, राजानें बड़ी धूमसें गुरूको अपने नगर मैं, पधराये, राजा, अपने प्राण देणेके बदलेमें, गुरूको राज्यभेट करणे लगा, तब गुरूनें कहा, हे राजेन्द्र हमने यावज्जीव धन कंचनका त्याग किया है, हम राज्यका क्या करें राजानें कहा आपका बदला कैसे उतरे, गुरूनें कहा, तुम जैनधर्म ग्रहण करके, हमारे श्रावक वणो, हमारा बदला उतर जायगा, तब गुरूको चौमासे. रखा, और धर्मका स्वरूप समझकर, बड़े हर्षसे सम्यक्त युक्त बारह व्रत ग्रहण करे, रतनसिंहका रतनपुरा गोत्र गुरूने थापन करा, इन्होंके वंश मैं झांझणसिंह बड़ा प्रतापी नर उत्पन्न हुआ, जिसकों दिल्लीके बादशाहनें अपना मन्त्री बनाया, झांझणासिंहनें प्रजाको बहुत सुख दिया, इसवास्ते सब हिन्द मैं उसके नेक नामीका सितारा चमकने लगा, एक समय बादशाहके हुक्मसें सजयका संघ निकाला, उहां पट्टणीसाह अबीर चन्दनें आरती उतारणेकी, बोली करी, झांझण सिंहने बाणवें लाख रुपये मालव देशके इनारे की आमदानी देकर प्रभूकी आरती उतारी, इन्होंके दूसरे भाई पेथडसाहनें, सत्रुजय गिरनार पर ध्वजा चढाई, रस्ते मैं धर्म पुन्य करते पीछा आके, सुलतानसें, सलाम करी, एक दिन किसी चुगलने, बादशाहसें चुगली कर दी, करोडों रुपये सरकारी खजानेके पुन्यार्थः . मैं लगाने साबित कर दिये, बादशाहने गुस्सेमैं आकर, झांझण, सिंहको पकड़नेको योद्धोकों भेने, तब झांझण कटारी लेकर खड़ा हो गया, योद्धे भगे, बादशाहसें अरज करी तब बादशाह आपः ही आकर बोले, अरे कटारिया, सच कह कि, सरकारी कोड़ों रुपये तेने खाये, झांझण बोला, एक पैसा भी बेहकका मुझे खाणा हराम है, हां अलबत, हजूरके मालसें, खुदाकी बंदगी और खैरायत, जरूर करी गई, अन्न जिसका पुन्य है, धर्म दलाली, मुझको मिलेगी, हजूरका नाम जुग जाहिर था, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली ४३ उसकों गुलामनें, खुदातक पहुंचा दिया, ये बात सुण कर बादशाह खुश हो गया, और सातों गुने माफ कर दिये, दरबार मैं, कटारी, रखणेका हुक्म दिया, और फरमाया हे नेक नाम, जो कुछ नाम, और जो कुछ तेरेसें सखा· वत, करी जाय सो कर, इस तरहसें, कटारिया साख भई, बाद कई पीढ़ी इन्हों. की शन्तान, मांडवगढ़ मैं जावसी, किसी कशूर वश मुसल्मानोंने कटारियोंके . सब गोत्रवालोंको, मांडवगढ़ मैं कैद किया, २२ हजार रुपये दण्ड किया, तब खरतर भट्टारक गच्छके जती जगरूपजीनें, मुसल्मानोंको चमत्कार दिख-... लाकर, दण्ड नहीं लगणे दिया, एक रतनपुरा बलाई ( ढेढ ) लोकोंकों रुपये देता लेता वह बलाई कहलाये, इस तरहसें रतनपुरा मैं २४ जात चौहागोंकी महाजन भये, हाड़ा १ देवडा २ सोनगरा ३ मालडीचा ४ कुंदणेचा ५ बेडा ६ वालोत ७ चीवा, ८ कांच ९ खीची १० बिहल ११ सेंभटा १२ मेलबाल १३ वालीचा १४ माल्हण १५ पावेचा १६ कांवलेचा १७ रापड़िया १८ दुदणेच १९ नाहरा २० ईबरा २१ राकसिया २२ वाघेटा २३ सांचोरा २४ इन २४ जातमेंसे १० साखमहाजन प्रसिद्ध हुए रतनपुरोसे, रतनपुरा १ कटारिया २ कोटेवा ३ नराणगोता ४ सापद्राह ५ भलाणिया ६ साभरिया ७ रामसेन्या ८ बलाई ९ वोहरा १• इन सवोंका मूल गच्छ खरतर है। डागा मालू भामू पारख छोरिया। . रतनपुरके राजाके दिवान माल्हदेनी राठी तथा भामूजी खजानची जातके राठी तथा राठी वल्लासाह ये राजाकी फोनके मोदी थे. जिस समय राजा रतनसिंहकों जिन दत्तसूरिःजीने सांप काटे हुएको बचाया, तब चमत्कारी महापुरुष जाण माल्हदेजीके बडे पुत्रकों, अौंगकी बिमारी बहुत सख्त होगई थी, सो किसी विधसें इलाज नहीं हुआ, तब श्रीनिनदत्त सूरिनीसें कही, महाराज बोले रतनपुरके जात राठी महेश्वरी जैनधर्म अंगीकार करें तो, में तेरे पुत्रकों, बचानेका उद्योग करूं, सब राठी रतनपुराके, बासिन्दोंने ये बात कबूल की, कारण एक ते। माल्हदेनी दिवान सबके भरण पोषण करनेवाले, व दुसरे ऐसे चमत्कारोंकी. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली महिमा, दुसरा ऐसा सन्सारमें कोण होगा, जिसमें आपदा नहीं आती है, तत्र अपने कुटुम्बके रक्षाकारण जाणके, सब राठी मिलके, पालखीमैं डालके पुत्रकों लाये, सबोंने कहा, आपकी शन्तानके हमारी शन्तान सदाके वास्ते, आभारी रहेगें, किसी तरहसे ये कुलदीपक, रूपदे, अच्छा हो जाय, गुरूने योगणियोंको बुलाया, और कहा, इसको तुम सावधान करो, जोगणियोंने कहा हमारी आज्ञा कारणियां, वींझेंविणजारेकी सात लड़कियां अग्निमैं जलकर मरी, इसका कारण रूपदे है बीझेविणजारको महसूल की, चोरीमैं, रूपदेने पकड़के, कैद किया, और सब माल, असबाब, जब्त कर लिया, तब सातों इसकी कंवारी कन्यायें, क्रोधसें, अग्निमैं जलकर, भस्म होगई, सो शुभ परणामके वश, चाण्डाल जातिकी, सातोंई कन्या, व्यन्तर हुई है, हम उन्होंको, अभी लाती हैं, ऐसा कह उन्होंको लाई तब उन्होंने कहा, हे परम गुरू, हमारा पिता कैदमैं हैं, उसको छोड़ दे और माल पीछा दे दे तो, आपकी कृपासें, ये अच्छा हो जायगा, गुरूने, वीझेंकी बेड़ी तोड़ाई, माल सब दिलाया, तत्काल उसका अङ्ग, अच्छा होगया, तब जोगणियां, और बझि बाइयोंने कहा, अरे राठीयों जबतक तुम जिन दत्तसूरिःके आज्ञाकारी बणे रहोगे, और खरतर गच्छका उपकार नहीं भूलोगे, उहांतक अर्दोगकी बीमारी तुम्हारे कुलमैं नहीं होगी, ऐसा कह, गुरूकी आज्ञा ले, अलोप भई, ये चमत्कार देख, सब रतनपुरके महेश्वरियोंने, जिनदत्तसूरिःनीका, वासक्षेप ले जिनधर्मी हुए, डागा, गोत्रमहेश्वरीयोंसे मुंधडामहेश्वरियोंसे, मुंधडाआवक गोत्र स्थापन किया, भामूनीका पारख, अबींध कान नहीं बिंधावे, ये राठी महेश्वरियोंसे गोत्र थापा, भोरा गोत्र, राठियोंसें, छोरिया, गोत्र राठियोंसें, सेलोत राठी महेश्वरियोंसे, रीहड़ राठी महेश्वरी, इस तरह ५२ गोत्र रतन पुरमें, महेश्वरीयोंसें, जिन दत्तसूरिजीने स्थापन करा, अनेक जातिनाम महेश्वरियोंमेंथावोही रक्खा । . (रांका सेठी सेठिया कालाबोक बांका गोरादक०) वल्लभी ( बला ) सोरठ देशमैं, गोड़ राजपूत, काकू और पातांक, नामके दो भाई, बहुत द्रव्यसें, तंग रहते थे, नगरके दरवज्जेके बाहर तेललूंण वेच Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली . ४५ नेका व्यापार करने लगे, पेट गुजरान भी मुशकिलसें हुआ करे, एक दिन नेमचन्द्रसूरिः आचार्य, वल्लभी नगरमैं पधारे, उससमय ये दोनों भाई, नित्य व्याख्यान सुननेकों, जाने लगे, गुरूसें पूछणे लगे, हे स्वामी, हमभी कभी सुखी होंगे, गुरूनें कहा, जो तुम जिनधर्म सम्यक्त्व गृहण करो तो, सब बताता हूं उन्होंने ग्रहण करा, गुरूनें कहा, तुम्हारा भाग्य वल्लभी मैं राज्यसें खुलेगा, बहुत धनवान हो जाओगे, बृद्ध अवस्थामैं, तुमकों राजा धन छीनके निकाल देगा, आखिर यवनोंकी फौज लाकर तुम बल्लभी नगरीका विद्धंश कराओगे, और तुम्हारी शन्तान पारकर देशमैं पांचमी पीढी, विस्तार पावेगी, ये दोनों भाई नेमचन्द्रसूरिः सें, सम्यक्त्वी भये, सगपण राजपूतोंमें था, आखिर ये राजाके मानवंत हुए, वल्लभीका नाशभी इन्होंसे ही हुआ, तदपीछ. ये वल्लभी छोड़ पारकर देश, पाली नग्रपास गांम मैं आ बसे, फिर इन्होंकी शन्तान, खेती कर्म करणे लगी आखरको पांचमी पीढी मैं इन्होंके, रांका, और बांका नामके दो लड़के, उत्पन्न हुए वे खेती करते थे, इधर श्री नेमिचन्द्र सूरिःके छठे पाटधारी, श्री जिनवल्लभ सूरिः, विहार करते, उस रस्ते चले आये, इन दोनोंने, वन्दना कर, आहार पाणी बहराया, गुरू बोले तुमकों एक महिनेके अन्दर, सांपका डर होगा, इस लिए तुम महापाप कारी ये कृषाण कर्मका, त्याग करो, ऐसा कह गुरू विहार करगये, ये दोनों, इस बातकी परिक्षा करणेको, करी भई खेतकी रक्षा करते रहे एक दिन सांझको, खेतसे पीछे आते थे, रस्तेमें, सांप पडा था, पूंछ पर पांवटिका, सांपने कुंकार किया, तब ये भगे, उस सांपने इन्होंका पीछा किया,. तब ये दोनों एक तलाबमैं, कूदप., तिरके पार निकले, दिलमैं डरते २ एक चामुण्डा देवीके मन्दिरमैं घुसकर, दरवज्जा बन्धकर सोगये, प्रभात समय, सांपको देखणे, मन्दिरकी छतपर चढे, देखते हैं सांप मन्दिरके आसपास घूम रहा है, तब इन्होंने, मरणान्त कष्ट जाण, गुरूका वचन याद करा, तब चामुण्डा देवीकी स्तुति करणे लगे, तब देवी मूर्तिके मुख बोली, अरे मूों, जो तुम उसी दिन खेती करणेका त्याग करदेते तो, तुमको, ये डर नहीं होता, गुरूका वचन नहीं माना, जिसकी ये, तुम्हें सजा मिली है, ये श्रीजिनवल्लभसूरिः युग Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ महाजनवंश मुक्तावली प्रधान मुझकों सम्यक्त्व ग्रहण कराया, और मदिरा मांसकी बलि छुड़ाई, तुम उनोंके, श्रावक होजाओ, तुम सब तरह सुखी होजाओगे, आज पीछे, व्यापार करणा, गुरू महाराजका श्रावक हुए वाद, तुमकों स्वर्ण सिद्धि मिलेगी, जाओ अब सांप नहीं हैं, ये दोनों, उहांसे निकल कर, घर पर आए, उन्होंने खेतीका अनाज वेच दुकान करी, व्यापार चलणे लगा, इधर श्रीजिनवल्लभसूरिः परलोक पहुंचे, उन्होंके पाट श्रीजिन दत्त सूरिःविराजे, स. ११८५ इधर विहार करते पधारे, ये दोनों भाई गुरू महाराज के शिष्य जांण, सेवा करते व्याख्यान सुणकर सम्यक्त्व युक्त, वारह व्रत गृहण करा, गुरूनें, आशीर्वाद दिया, तुम्हारा कुल बढ़ेगा, इन्होंने कहा, हम खरतर गच्छसें, कभी वे मुख नहीं होंगे, गुरूने बिहार करा उन्होंकीं पैठ प्रतीति पारानगर मैं खूब बढ़ी, इधर १ जोगी रस कूंपी भरकर, पाली आया, इन्होंनें भक्ति करी, तब बोला, बच्चा हम हिंगलाज जाते हैं, इस तूंत्रीको तुम्हारे झुंपड़े मैं, लटका जाता हूं, आऊँगा, तब ले लूंगा, लटका गया एक दिन तवा, तपाभया, उस पर, वो रस की बूंदगिरी, तवा सोनेका हो गया, बस इन्होंने, उसकों उतार, असंख्य द्रव्य, बणा लिया, बडे दानेश्वरी, सात क्षेत्रों मैं, बहुत द्रव्य लगाया, पल्लीवाल ब्राह्मणोंकों, गुमास्ते रखकर, जगह २, व्यापार कराया, इस करके पल्लीवाल ब्राह्मण, सब, धनपती हो गये, एक दिन सिद्धपुरपट्टणके राजाकों, लड़ाई मैं, १६ लाख सोनइये चाहिये थे, किसी साहूकारनें नहीं दिया, तब सिद्ध राजनें, इनकों बुलाया, इनोंनें सब दिया, तब सिद्ध राजनें श्रेष्ठ पदका स्वर्ण पट्ट मस्तक पर रखने की आज्ञा दी, जिस मैं लिखा हुआ कुबेर नगर सेठ शंका, और बांकेकों कहा, आवो छोटा सेठिया, उस दिनसें, रांकोंसे सेठि, और बांकेसे सेठिया, इन्होंकी शन्तान काला, गोरा, दक, बोंक, रांका, वांका, एवं ८ शाखा प्रगट हुई, रत्नप्रभुसरिः नें, जो श्रेष्ठ गोत्र, थापन किया, सो वैद वजते हैं, इन सबका मूल गच्छ खरतर है, । ( राखेचा, पूगलिया, गोत्र ) जेसलमेरका राजा भाटी जेतसी उसका पुत्र केलणदै, उसके गलित Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली कुष्ठ की बिमारी, उत्पन्न हुई, उसकी वय नौ वर्षकी थी, राजानें बहुत देवी देव मनाये, मंगर आराम नहीं हुआ, तब राजां अपणे कुलदेवीको बाल वालदे, स्तुति करी, तत्र किसीके अंग मैं बोली, हे राजा, जो तूं पुत्र अच्छा कराया चाहै तो, सिन्धु देश मैं, परोपकारी, युग प्रधान श्रीजिन दत्तसूरिः के चरण शरण जा. राजानें सिन्धु देश मैं जाकर, गुरूजीसें सब अरज करी, और बोला, आप कृपा कर, लोद्रव पट्टण पधारो, सब नगर आपके दर्शनकी, राखेचाह, गुरूनें कहा, जो तुम, जैनधर्म धारकर खरतर गच्छके, श्रावक वणो तो, मैं चलता हूं, जेतसी रावल बोला अहो भाग्य आपकी सेवा, और अहिंसा रूप जिन धर्म की, प्राप्ति, पुत्र मेरा निरोग होय, इससें मैं जांणता हूं, मेरे पूर्व पुन्य उदय हुए, तब गुरू, लोद्रव पुर पधारे, तीन दिन दृष्टि पास किया सोबन वर्ण काया हो गई, अब राव जेतसीनें सह कुटुम्ब जैनधर्म धारण करा मकड़ पुत्रकों राज्य तिलक दिया, गुरूका - त्याग वैराग्यका, हमेशका उपदेश सुण, केल्हण कुमार, दीक्षा लेणेको तैयार हुआ तब गुरूनें समझाया, है बच्छ, तूं बालक नादान है, संजम खांडेकी धार है, पिता तेरा वृद्ध है, तूं अरिहंत देवकी पूजा द्रव्य भावसें कर, महाव्रती, अणुव्रती तथा सम्यक्तियोंकी मन शुद्ध भावसें द्रव्यादिक अनेक प्रकार भक्ति कर, बारह व्रत पाल, श्रावक धर्म पालणे वालाभी, एक भवसें, मुक्ति जाता है, सात क्षेत्रों मैं, द्रव्य लगा, मेरे दीक्षा की करी हुई प्रतिज्ञा भंग होती है, तब पूर्ण करणे की सदा मदके लिए, तजवीज, बताता हूं, तूं मेरे सन्मुख मस्तक मुण्डन करा, और मैं वास देता हूं, गुरूने सम्यक्त्व युक्त बारह व्रत उच्चराया, और कहा, तेरे कुलका बालक नव वर्षका, जब होय, तब इसी तरह पट मुण्डन करा, मेरे शन्तानों का वास चूर्ण लेगा तो, तुझारे कुलकी बृद्धि होगी लक्ष्मी राज्य लीला करते रहोगे, दर्शन की राखेचाह, दीक्षाकी राखेचाह, इस वास्ते गुरूनें राखे चाह गोत्रका नाम, थापन करा, सं. ११८७ मूल गच्छ खरतर वृद्ध थाल आरथाल खरतर भट्टारक गच्छका राखेचाह सदा करते हैं धोत तथा व्याह मैं, पूगलसे उठके दूसरी जगह बसे सो पूगलिया राखेचाह बजते हैं। केल्हण कुमार बोला, गुरू बोले, तेरी प्रतिज्ञा ४७ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली (लूणिया गोत्र ) ___ सिन्धु देश मुल्तान नगरमैं मुंधडा महेश्वरी धींगडमल ( हाथी साह ) राजाका दीवान था, राज्यका बन्दोबस्त न्यायसे करता था, इसमें प्रजा हाथी साहको, प्राणकी तरह मानने लगी, इसका पुत्र लूणा, बडा चतुर, राजाका मान्य, योवन अवस्थामैं, शादी करी, एक दिन लूणा स्त्रीके संग, पलंग पर सोता था, उस वक्त, सांपने उसको काट खाया, और नींदसें चमक उठा, ये बातकी खबर होतेही मंत्रवादी, बहुत जहर उतारणे वाले, वैद्योंकी, चिकित्सा करवाई, मगर लूणा मृतक वत् होगया, उसवक्त जिनदत्तसूरिःमुलतानमें थे, महिमा सुण, हाथीसाह रोता हुआ, चरणोंमें जा गिरा, सब हकीकत कही, गुरूनें कहा, जो तुम जैनधर्मा, हमारे श्रावक हो जाओ तो, पुत्र सचेतन होता है, हाथीसाहने सह कुटुम्ब, कबूल करा, गुरू चौतरफ पडदे लमवाकर, पिलंगपर ज्यों स्त्री भरतार सोते थे, त्यों सुलाकर, गुरूनें अलक्ष आकर्षण करा, वो सांप आया, और मनुष्य भाषा बोलणे लगा, हे गुरू, मेरे इसके पूर्वजन्मका बैर है, इसने जन्मेजय राजाके यज्ञमें, ब्राह्मणपणेमैं वेदका मंत्र पढके, मेरेको, होम डाला, यज्ञस्तंभके नीचे शांतिनाथ तीर्थ करकी मूर्ति, इन ब्राह्मणोंने, शान्तिके निमित्त जब गाडी, याने, कोई दयाधर्मी देवता, यज्ञमैं बिगाडन कर देवे, उस मूर्तिको, मैंने गाडते देखी, उस प्रतिमाके देखणेसें, मैंने विचारा, ये मुद्रा मेंने पहिले देखी थी, इस करके मुझको मूर्छ आगई, तब जाती स्मरण ज्ञान मुझकों उत्पन्न हुआ, मेंने पूर्वजन्म देखा, पूर्वमवमेंमें जैनधर्मका साधू था, तपस्याके पारणे, भिक्षाकों गया, बालकोंने, मुझे चिडाया मे क्रोध करके मरा, सो सांप हुआ, मेंने मनसे सम्यक्त्वयुक्त श्रावक ब्रत ग्रहण कर लिया, उस वक्त ब्राह्मणोंके, कहणेसे राजा परिक्षितकी शन्तान, राजा जन्मेजयने, सापोंको पकडवाकर, मंगाया, और ब्राह्मणोंने बेदका मंत्र पढकर, मुझे हवन करा, उस मरतेवक्त मुझे क्रोध हुआ उहांसे, मरके, में नाग कुमार देवता हुआ, ये शिवभूति ब्राह्मण गलत कोढसें मरके, ८४ हजारके आऊखेसें, नारकीया हुआ, उहांसे निकल, वानर हुआ, उहां वनमें, जैनसाधु देशना देते थे, उन्होंने कहा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. यज्ञमैं पशुहवन करणा इसका फल हिंसा, हिंसाका फल नरक ऐसा वानर सुणकर, जाती स्मरण ज्ञान पाया, उहां सरल भावसें मरकर, हाथीसाहका पुत्र हुआ, मैंने इसकों ज्ञानसें देखा, तब पूर्व बैरसें मारणेकों, सांपके रूपसें, 'डंक मारा, तब गुरू बोले, हे देव, किये कर्म छूटते नहीं, तेरा बदला तेनें, लेलिया, अब ये हमारा श्रावक है इसका जहर उतार दे, तत्काल नागदेवने, डंकका जहर उतार डाला, और सब लोकोंसें, देवता कहने लगा, अहो लोकों श्रीजिनदत्तसूरिः तीर्थंकरकी आज्ञा मुजब, सामाचारीके उपदेशक, पंचमहाव्रत पालक एका भवावतारी तारण तरण गणधर हैं लूणासावधान हो, सम्यक्त्वयुक्त व्रत पच्चखांण करा, गुरूने लूणिया गोत्र थापन करा, सं. ११९२ मूलगच्छ खरतर ], [ डोसी सोनीगरा गोत्र ] ४९ सम्बत् ११९७ में में विक्रमपुर जो कि भाटीपे मैं है उहांके ठाकुर सोनीगरा राजपूत, हीरसेन, इन्होंने क्षेत्रपालकी मानता करी, मेरे पुत्र होगा तो तुम्हारे निमित्त सवालक्ष मोहरें लगाऊंगा, देव वश, राणीके पुत्र हुआ, खेतलनांम दिया, अनुक्रमसें सात आठ वर्षका वह बालक हुआ, ठाकुर जात देणेकी चिन्तामें, मगर सवालक्ष मोहरोंकी जोड़ वणे नहीं, तव क्षेत्रपाल उपद्रक करने लगा कहीं अंगार लगा देवे, कभी राजा राणीका शिर आपसमें लडा देवे, कभी गहणा छिपा देवे, कभी राणीकों छिपा देवे, कभी राजाके संधि २ में दर्द कर देवे, खेतल कुमार उन्मत्त हो गया, आठ २ दिन भोजन नहीं करे, विगर पढ़ा शास्त्र पंडितोंसे संवाद करे, हजार मनुष्योंसे नहीं उठणेका पदार्थ उठा लेवे इस वक्त श्री जिनदत्त सूरिः विक्रमपुर पधारे, ठाकुरनें महिमा सुण बड़े महोत्सवसें गुरूको नग्रमें पधराये, खेतलकुमार गुरू कों. देखते ही बोल उठा हे परमगुरू, इस ठाकुरनें, मेरी बोलवा करके, पजा नहीं करी, इससे ये दोषी है, गुरूनें कहा हे ठाकुर, जो तुम सहकुटुम्ब, जैन धर्म धारण करो, तो में संकट काट देता हूं, क्षेतल क्षेतल कुमार पृथ्वीसें कूद २ कर ५० हाथ ऊंचे छत्तपर जा बैठता है, फेर कूदकर डमरू त्रिसल लेकर रु पांवमें बांध, गुरूके सन्मुख नाचता है, ये चमत्कार देख बहुत लोक ७-८ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. जमाहुए, ठाकुरने श्रावक होना मंजूर करा, तत्काल क्षेतल कुमार सावधान होगया, क्षेत्रपाल निजरूपसे, गुरूके चरण पकड़ बोला, हे गुरू हे सर्व देवताओंके स्वामी, आपकी आज्ञा लोपेसो, इस भव परभव दुखी हो, आपके जब श्रावक यह लोक हुए तो, मेरी क्या, बल्के चारों निकाय के देवताओंकी मगदूर नहीं, सो इन्होंकी बुराई कर सके, ठाकुर सह कुटुम्ब जैनी महाजन हुआ, गुरूने गोत्रका नाम दोसी रखा, लोक डोसी कहने लगे, बाकी राजपूत श्रावक हुए, उन्होंकी शाखा सोनीगरा, बजणे लगी, इन्होंके प्रधान सोहन सिंहजीके पुत्र, पीथलजी श्रावक भए उन्होसे पीथलिया गोत्र प्रसिद्ध हुआ, पीथलनी पमारथे, मूल गच्छ खरतर । [ सांखलासूराणा गोत्र सियाल सांड सालेचा पूनम्यां] विक्रम सं. ११७५ में, सिद्ध राज जयसिंह, सिद्धपुर पाटणका राजा, उसके पलंगका पहरेदार, जगदेव जिसकों राजा, एक वर्षका एक लक्ष सोनइया देता था, जगदेवजीके सात पुत्र थे, सूरजी, संखजी, सांवलजी, सामदेव, रामदेव, छारड़ इस तरह सुखसे पाटणमैं रहते थे, जगदेवजी बड़े शूरवीर थे अर्द्ध रात्री, काली चवदाशको, पहरा दे रहे थे, उस बक्त, बनमें, बड़ी धूम किलकिलाट अटट्टहस्सी, सुणके, सिद्धराजने जगदेवजीकों कहा, ये शब्द कहां हो रहा है निश्चय करके आवो, जगदेवजी, जो हुक्म कहकर, उहांसे निकले, आगे देखते हैं तो, कालिका वगैरह, बडे २ वेत्ताल, व ६४ जोगणियां, इकट्ठे होकर, नाचते और गाते हैं, जगदेवने पूछा, अरे तुम कौन हो, और क्यों फैलवानी करते हो, जोगणियां बोली, सिद्धराजनें हमारा बलिदान बकरे भैसें देणेका बन्द कर दिया, सो अब एक महिनेमैं मरेगा, जगदेवने पूछा कैसे मरेगा, जोगणियां बोली, इस देशमैं, महम्मद गजनवीकी सेन्या आवेगी उसमें लाखों मनुष्य मरेंगे, हमारे खप्पर रक्तसें, भरेंगे, उस युद्धमैं, हम जोगणियां, तथा क्षेत्रपाल बीर मिलके दुश्मनोंके हाथ, सिद्धराजको मरवाकर, बलिदान लेंगे, तब जगदेव बोला, किस प्रकार सिद्धराज बचे, जोगणियां बोली, ३२ लक्षणा पुरुषका जो, अगर बलिदान देतो, शत्रुओंकी फौज मैं, हम सहायता नहीं देंगे, तब जगदेव बोला, मेरा शिर Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. काटके, तुम्हारे सामने धरता हूं, तुम प्रसन्न होकर, सिद्धराजकी लम्बी ऊमर होय, ऐसी करो, तुम उसपर सुनिजर रक्खो, जोगणियां उसका सत्व साहस देखणेको बोली, तूं बत्तीश लक्षणवन्त, शूरवीर है, तेरे मस्तक के बलिदानसें हम, सत्र सन्तुष्ट हो जावेगें, तब जगदेव अपणे खङ्गसे अपना मस्तक काटने उद्यमबंत हुआ, ऐसा सत्व देख जोगणिये जय २ शब्द कर हाथ पेकंड लिया और कहा हे सत्वशिरोमणि तूं जयवंतरह, अभी सिद्धराज जयसिंह - बहुत वर्ष जीवेगा, म्लेच्छ सेन्या इहां आवेगी, उनको जयकारणी शत्रुदल भंजणी अमोघ विद्या देकर विदा करा, जगदेव सिद्धराजकों सर्व वृत्तान्त कहा, अपना मस्तक काटने आदिका मुख्य वृत्तान्त नहीं कहा, सिद्धराज प्रशन्न हो जगदेवकी महान् प्रशंसा करी राजा युद्धकी सर्व सामग्री लइयार कराई, मलधारहेम सूरिः ( मलधार विरुद अभयदेव सूरिःकों, मिला था ) आत्मारामजी संबेगी पाल्हणपुर प्रश्नोत्तरमें लिखा है, उस नगरमें आये, जगदेवजी ७ पुत्रयुक्त उनके शमीप जाते आते थे, राजाकी शेन्या में जगदेवजीके पुत्र सूरजी शेन्यापति थे, एक महीने पीछे काबलके यवनोंका लस्कर आया, युद्ध होने लगा, सूरंजी हेमसूरिः से बीनती करी हे गुरु, युद्ध मैं जय हो ऐसी कृपा करो, गुरुनें कहा सावद्यकृत्य मैं सहमति देना हमारा आचार नहीं, -यदि तुम श्रावक हो जाओ तो प्रयत्न कर देता हूं, तब ७ पुत्रोंनें मंतव्य करा, गुरुनें विजयपताका यंत्र दिया, सूरजी भुजापर बांध सेन्या में गये, तत्काल यवन दल भाग गया, सिद्धराजने कहा साबास सूरराणा, वहसूराणान कहलाये, संखजीके सांखले कहलाये, ( शांखले राजपूत ओसवाल हुए, वे भी जातिनांमसे शांखले कहाते हैं) सांवलजी युद्ध में भग गये, उनके सर्व शंतानवाले सियाल बजने लगे, जो सावलजीके पुत्र बड़े मजबूत वदनमें हृष्ट पुष्ट थे, सिद्धराज जयसिंह उसको संड मुसंड कहते थे, एक दिन एक चारणनै सभामें इसी करी, कि वाप तो सियाल, ओर बेटा सांड कैसें, 1 तत्र सिद्धराजने कहा, " हे सांड हमारा सूरजका सांड है, उससे तूं लड़े तो, दुनियामें, सच्चा सांड कहलावै, । वह उसी वक्त खड़ा हुआ, जब राजा मस्त सांडकों, छोड़ा, उसी बख्त पकड़ सींग धक्का लगा कर दया चित्तमें Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. रखता धीरेसे, जमीन पर सुला दिया, । राजा प्रजा जय २ शब्द करकै कहने लगे कि, सच्चा सांड तूं है; मेरी दी हुई पदवीको तेंने सफल कर बताई उस दिनसे सांड गोत्र हुआ। दूसरा बेटा, सांवलजीका सुक्खा हुआ, जिसके सुखाणी कहलाये; तीसरा सालदे, जिसके सालेचा कहलाये । चौथा पूनमदेव, जिसका पुनमिया, कहलाया, । इस तरह, जगदेवजीके तीनों बेटोंसे इतनी शाखा फैल कर, महाजन हुए। उस जमानेमें तीन आचार्य हेमसूरी नामके विद्यमान थे,मलधार हेमसूरिः पूर्ण तल्लगच्छी हेमचन्द्रसूरिः। तीसरे हेमसूरीके गच्छका पता नहीं है, मगर आत्मारामजी संवेगी लिखते हैं राजा कुमार पालकों, तीनोंने प्रतिबोध दिया था, तीनोंको राजा धर्मदाता गुरू मानता था । मलधार खरतरकी शाखा है, बाकी पूर्ण तल्ल गच्छ विच्छेद भया ।, इन सूराणोंकी माता सुसाणी ओर लोसल, कहाती है । पीछे अन्यमतका संवत् विक्रम सोलहसौ मैं इस वंशमें प्रचार हुआ । मूल गुरु मलधार गठ. इस वख्त सूराणे देवी मोर खाणेकी पूजते हैं। आघरिया गोत्र। . सिंध देशमैं अग्ररोहा नगर का राजा' गोपाल सिंह भाटी राजपूत उसका परिवार पनरेसें घरका विक्रम सं. १२१४ मैं मुसल्मानोंकी फौजनें लड़ाई मैं राजाको कैद करलिया उस समय, खोडिया क्षेत्रपाल सेवित चरणकमल, श्री मणिधारी जिनचन्द्र सूरिःगुरू, अग्ररोहा नगर पधारे, उस समय उनका प्रधान घुरसामल, अग्रवाल प्रछन्नपणे मैं, आकर रातको गुरूमें विनती करी, हे गुरू, जो हमारा राजा कैदसें छूट जाय तो, आपका उपकार हम कभी नहीं भूलेंगे, गुरूनें कहा, जो राजा हमारा श्रावक बणे तो, हम उपाय कर सक्ते हैं, घुरसामलनें, कबूल किया, गुरूने कहा, तुम आजही देखो, क्या स्वरूप वणता है, अकम्मात् पनरेमें राजपूतोंकी बेड़ी, टूटपड़ी मुसलमीनोंको खबर हुई, फिर डाली फेर टूट गई, ऐसे सात बेर जब हुआ, तब मुसल्मीन समसेरखां, आश्चर्य मैंः आकर, पूछने लगा, ये गोसलसिंह क्या चमत्कार है, गोमल भाटी बोला, में नहीं जाणता, ये क्या बात है, समसेरखां, मनमें सोचने लगा, इस राजाके पीछै, किसी Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. महा पुरुषकी, सहायता है, राजाकों सपरिवारसें, छोड़कर, बोला, हांसी हिंसार तुम खरचके वास्ते लेलो, और मेरे उमराव बनो, गोसलने कहा, देखा जायगा, सहरमैं आकर दीवान के घर आया, तब दीवाननें सव बात कही, और गुरूके पास ले गया, और धर्म सुणने लगा, गुरूसें राजा कहने लगा, किसी तरह पीछा राज्य मिल जाय, गुरूनें कहा जैनधर्म धारण करो, राना सपरिवार जैनी हुआ, रातकों समसेर खांको, क्षेत्रपालने, दरसाव दिया, यातो तुम राज्यपीछा गोसलकों दे दो, नहीं तो तुम्हारे हक्क मैं, अच्छा नहीं होगा, सुवहकों समसेरखाने, मारे डरके, राजाको पीछा राज्य दिया, और आप उहांसे अपनी फौज ले चल धरा, गुरूने, आघरह्या गोत्रका नाम धरा, उसको लोक आघरिया कहणे लगे, मूल गच्छ खरतर । . [दूगड़ सेखाणी कोठारी गोत्र, तथा सुघड़], पाली नगर मैं खीची राजपूत, राजाका दीवान था, किसी दुश्मननें राजासे चुगली खाई, तब रानाके डरसे भगा, सो जंगलगढमैं जानेसे उसकी इग्यारमी पीढीमें, सूरदेव बडा शूर बीर पैदा हुआ, उसके दो पुत्र दूगड़ और सुघड, ये दोनों भाई मेवाड़मैं जाके आघाट गामके ठाकुर होगये, उस गांमके, चौतरफ भील में चोरी धाड़ा मारते, प्रजाकों दुख देते, उन्होंको दूगड़नें कैद किये, ये तारफि सुणकर, चित्तोड़के राणाने, इन दोनों भाईयोंको बुलाकर, कुरब बढाया, राव राजा की पदवी दी उस आघाट गांसके बाहिर, एक नारसिंह बीरका पुराणा मंडप था, उस गांसके लोकोंने, उस मकान को तोड़ाय डाला, तत्काल नारसिंह वीर, गांमके लोकोंको बडी, तकलीफ देणे लगा, पणिहारियोंके घडे फोड़ डाले, मनुष्योंके हाथसे खाने पीने की चीजें जमीनमें गिरवा देवे, इत्यादिक पत्थरोंकी बरसात रजो वृष्टि नानाप्रकार के उत्पात देखाणे लगा, इन रावराजाओंने, जंत्र मंत्र, बलि वाकुल बहुत करवाये, लेकिन उत्पात बन्द होवै नहीं, इस वक्त श्री दादा साहबके पट्ट प्रभाकर मणिधारी श्री जिन चन्द्र सूरिः उहां पधारे, सं. १२१७ मैं, इन्होंके सन्मुख, दोनों भाईयोंने विनय पूर्वक गांमके कष्टका स्वरूप कहा, तब गुरू बोले, जो तुम जैनी श्रावक हो जाओ तो, बन्दोबस्त Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. हो जायगा, दोनों भाई श्रावक होगये, तब गुरूने धरणेन्द्र पद्मावती की आराधना करणेकों उपसर्ग हरस्तोत्र का स्मरण किया,पद्मावतीने नारसिंहको पकड़के, गुरूके, चरणोंमैं लगाया, गुरुने कहा, आज पीछे उपद्रव नहीं करना ये मेरे श्रावक हैं, नारसिंह वीरनें, कबूल करा गुरूनें दूगड सुगडकों कहा, नागदेव तुलारे वंशके, सहायक होयगें, ये चमत्कार देखसी सो दिया, वैरी शाल श्रावक हुआ, वह सीसोदिया गोत्र, प्रसिद्ध हुआ. इन दोनोंका वंश,. धन और जनसें, दादा गुरू देवकी भक्ति करणेसें, दिनपर दिन वड़की शाखा ज्यों, विस्तार पाया, मूल गच्छखरतर, अभीभी दूगडगोत्री, नागकुमारकी पंचमी, कई २ पूजते हैं, दादा गुरू देवकू सब दूगड मानते हैं, सेखानीकी ओलाद सेखाणी वनते हैं, कोठारका काम करणेसें कोठारी भी दूगड बजते हैं, मूल गच्छ खरतर है, . ( मोहीवाल आलावत,पालावत,गांगा,दूधेड़िया शाखा१६) मोही नगरमैं पमार राजा नारायण सिंह राज्य करता है, चौहाणोंने घेरादिया, नारायण गढका बन्दोबस्त कर, चौहाणोंसे युद्ध करने लगा, लेकिन चौहाणोंके पास बहुत धन और लाखोंकी फौज थी, नारायण चिन्तामैं चूर्ण हुआ, तब गंगपुत्रने पितासें अरज. करी, कि, हे पिताजी, श्री जिन दत्त सूरिःके पाटधारी, श्री जिन चन्द्र सूरिःका मैंने मेवाड़ देशमें, दर्शन किया, था, सो बडे चमत्कारी महापुरुष हैं, राजानें कहा, हे पुत्र उन्होंके पास पहुंचणा मुशकिल हैं, गंगने कहा, में हरसूरत, पहुंच जाऊंगा, दूसरे दिन, ब्राह्मण जोतषीका, स्वांग वणाकर, चौहाणोंकी फौजमें गया, और फौजी लोकों को, तिथिवार बताता २ फौजमें से निकल गया, अजमेरपरगणेमें गुरूका वन्दन करा, गुरूकों एकान्तमें, सब वार्ता कही, गुरूने कहा, तुह्मारा पिता सहकुटुम्ब हमारा श्रावक जैनी हो जाय तो, में सब बंदोबस्त कर देता हूं, गंगराज कुमारनें, ये बात कबूल करी, तब श्री गुरू महाराजनें जया विजया देवीका, आराधनारूप, पार्श्व मंत्र स्मरण किया, देवीने एक तुरंग. लाकर दिया, गुरूसें अदृश्यता पणेंमें, मालम करा, इस अश्वका चढणे वाला, अजयी हो जायगा, गुरूनें, गंगसे कहा, तुम. इस. घोडेपर सवार हो, देखते Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महाजनवंश मुक्तावली. - रहो, असंख्या दल तुमारे पीछे आजायगा, शत्रु सब भग जायगे, हमारे कहे हुए वचन चूकणा मत, तुमारे मनोरथ सदा सिद्ध होंगे, गंगने चौहाणोंको घेरलिया चौहाणोंकी फौज भगी, गढ़के अन्दरसें राजा नारायण सिंह देख रहाथा,. अनबी चमत्कार देखा, हैरतमें रहा, इतने मैं राजकुमार गंगसिंहने, आके मुजरा किया, और सब हाल कहा, अब राजा अपने सब पुत्रोंकों संग ले, विजय डंका बजाता, श्रीगुरू महाराजके पग मंडे, मोही नगरमें करवाये,. जब धर्मोपदेश सुणा तो, राजा रोम २ से फूलणे लगा, और जैनधर्मी महाजन हुआ, उन सब बेटोंके गोत्र हुए, बडे राजाके पुत्र मोही नगरसें, मोहीवाल कहलाये १ आलावत २ पालावत ३ दूधेडिया ४ गोय ५ थरावत ६ खुड़धा ७ टोडरमल ८ . भाटिया ९ बांभी १० गिड़िया १.१ गोढ वाडा १२ पटवा १३ वीरीवत १४. गांग १५ गोध १६ मूल गच्छ खरतर .. बोथरा, फोफलिया, दसाणी, वच्छावत, साह, मुकीम, जेणावत, डूंगराणी, साखा ९ श्रीजालोर महा गढके धणी देवडा वंशी चौहाण, महाराजा सामन्तसीजी उन्होंके, दो राणियां थी, जिनसें सगर १ वीरम दै २ और कान्हड ३ ऐसे तीन लड़के, और उमा नामकी एक लडकी हुई सामन्तसीजीके पाटपर, वीरमदेव बैठा, तब बडा पुत्र सगर आकर आबू पहाड़ देवलवाडेका राजा. हुआ, कारण सगरकी माता देवलवाड़ेके राजा भीमसिंहकी लड़की थी, वो दूसरी राणीकी अणवणतसें, सगरको लेकर, अपने बापके पास जारही, भीमके पुत्र नहीं था, इस वास्ते दोहीतेकों राज्य देगया, एक सो चालीस गांम सगरके तालूके थे, उसका तेज चारों दिसामें फैल गया, बडा बहादुर दानेश्वरी पणेंसें, नेकनामी पैदा की, उस वक्त चितोड़के राणा रतनसीपर, मालव देशका मालिक मुहम्मद बादशाह की, फौन चढ़ आई, राणा रतनसीनें, सगरकों बहादुर जाण, अपनी मदतको बुलाया, सगरके मुहम्मदसें युद्ध १ दोहा, गिरि अढार आबूधणी, गढ़ जालोर दुरंग, तिहासामन्तसी देवड़ो अमली माण अभंग १ २ उमा पिंगल राजाको व्याही थी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ महाजनवंश मुक्तावली. हुआ, मुहम्मद भाग गया, राणे रतनसिंहनें, सगर राणा बीर सामन्त, ऐसा पद दिया, सगरनें मालव देश ताबे कर लिया, कुछ मुद्दतके बाद गुजरातका मालिक, वह लीमजात अहमद बादशाहनें, राणा सगरकों, कहला भेजा कि मेरी सलामी, और नौकरी मन्जूर कर, नहीं तो मालवा छीन लूंगा, सगर करडा जबाब देदिया, अब इन्होंके युद्ध हुआ, अहमद मग गया, गुजरात सगरनें अपने आधीन कर लिया, कुछ मुद्दत पीछे दिल्लीका बादशाह गौरी - साह, और राणा रतनसीके आपसमैं तनाजा हुआ, गौरीशाहकी फौज चित्तोड़ पर आई, उस समय राणेजीनें सगरकों बुलाया, सगरनें आपस में - मेल करा दिया, बादशाह से २२ लाख रुपये दण्डके लेकर, मालवा गुजरात सगरनें बादशाहको पीछे दे दिये, उस वक्त राणेजीनें सगरकी बुद्धिमानी, और सखावत देख सगरकों मंत्रीश्वरपद दिया, सगर पीछा देवल वाडेंमें रहने लगा, इसका चरित्र बहुत है, ग्रन्थ बढणेके सबब नहीं लिखते हैं धर्म इन्होंका शैनमत था, सगरके पुत्र बोहित्थ देवल वाड़ेका राजा हुआ, बड़ा शूर वीर अकलवर था, सम्बत् इग्यारह सताणवेमें श्रीजिनदत्तसूरिः देवल वाड़ेमें पधारे, गुरूके पास राजा बोहित्थ आया, गुरूने धर्मोपदेश दिया, राजा बोहित्थ पूछने लगा, हे गुरू मुसल्मानोंनें, बडा जुल्म उठा स्क्खा है, और ये बड़े जुल्मी है, सो हमारे राज्यकी क्या दशा होगी, गुरूनें कहा, जो तुम हमारे श्रावक बनो तो, सब वृत्तान्त कह देता हूं, बोहित्थ राजा बोला, गुरूमहाराज श्रावक होनेसे, व्यापार करणा होगा, शस्त्र डाल देणे होंगे, राजापणा चला जायगा, गुरूनें कहा, हे राजा, तुमको संसारके स्वरूपका, ज्ञान. नहीं, हाथीका कान, पींपलका पान, जैसा चञ्चल एसी राजलक्ष्मी चञ्चल है, चक्रवर्त्तके पुत्रके पास कर्म वस १ घोड़े नहीं मिलते हैं, इतने राजपूत वसते हैं, क्रोड़ो, उसमैं राजा कितने हैं, वह विचारो, और मैं तुम्हारे शन्तानोंकों सदाके वास्ते, लक्ष्मी पुत्र बना देता हूं, इतना सुनते ही, बोहित्थ राजानें तत्वकों समझ, जैन धर्मको ग्रहण करा, बोहित्थ राजाकी राणी, बहु रंगदे, जिसके ८ पुत्र थे, बडा श्रीकर्ण १ जेसा २ जयमल्ल ३ नान्हां ४ भीमसिंह ५ पदमसिंह ६ सोमजी ७ पुण्यपाल ८ इस तरह सातों पुत्रों समेत, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. १२ व्रत सम्यक्त्व युक्त ग्रहण करा, पद्मा बेटी थी, तब दादा श्री जिनदत्त सूरिःने आशीर्वाद दिया, हे राजा बोहित्थ जहांतक तेरा वंश मेरी आज्ञा के मुताबिक चलेगा, खरतर गच्छकी भक्ति रक्खेगा, उहांतंक राज्यकार्यमें तेरी शन्तानका मानप्रतिष्ठावन्त, एक न एक, सदा के लिए रहेगा, ठाठका मालिक तेरा वंश, पाटका मालक राजा रहेगा धर्मसे वेमुख नहीं होंयगें उहांतक, लेकिन हे राजा तुम पर भवकी नींव लगावो, तुम्हारी आयु थोड़ी है, तब बोहित्थजीका बडा बेटा जिसने जैन धर्म नहीं धारा, उसकों राज्य पदवीका न्युवराज बणाया, इस वक्त चित्तोड़के किल्लेपर, दिल्लीके बादशाहकी फौज आई, राणा रायमल बोहित्थ राजाकों अपनी सहायतापर बुलाया, बोहित्थ राजाने दादा साहिब के वचन याद किये, गुरूनें कहा, आयु थोड़ी है, सोमोंका आय बना है, तब सातों पुत्रोंकों, द्रव्य दे देकर, मारवाड, गुजरात, कच्छ देशकों जाणेका हुक्म दिया, और आप श्री कर्णकों देवल वाड़ेका राज्यतिलक देकर, युद्धमें चढ़ गये, उहां चारों आहारका त्याग कर, बादशाहसें युद्ध किया, बादशाहकों भगा दिया, मगर आप ११ से सोनहरी बंधसे, युद्धमें अरिहन्तदेव और परम गुरू जिन दत्तसूरि; जीका, ध्यान करते, मरके व्यन्तरनिकायमें, बावन बीरोंमें हनुमन्त वीर हुए, जिन्होंकी शक्ति पूनरा सर गांममें प्रगट है, और जिन दत्तसूरि : जीकी सेवामें, हाजिर रहने लगा, इन सात पुत्रोंकी शन्तान बोहित्थरा, वड़की शाखा ज्यों धन और जनसें विस्तार पाये, अब राजा श्री कर्णके ४ पुत्र उत्पन्न हुए, समधर १ बीरदास २ हरीदास ३ और उद्धरण ४ श्रीकर्ण सूरबीर इसनें युद्ध बलसें मछेन्द्र गढ़का राज्य लेलिया, एक समय बादशाहका खजाना जा रहा था, तब पिताका चैर याद कर, खजाना लूट लिया बादशाहकों, खबर हुई, तब फौज भेजी, उस लड़ाईमें राणा श्रीकर्ण काम आया, बादशाही फौजनें मछेन्द्र गढ़ कबजे किया, उस समय राणे श्रीकर्णकी राणी, रतनादे, कुछ रत्न संग ले, चार पुत्रोंको संग लेकर, अपने पीहर खेडीपुर जा रही, और अपने पुत्रोंकों, कला अभ्यास कराते, २ पण्डित वणालिये, एक दिन रातको सोते हुए, - ५७ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. चारोंकों, पद्मावती देवीने, स्वप्न दिया, कल यहां खरतर गच्छ नायक, श्री जिनेश्वर सूरिः आचार्य, आयगे, उन्होंके पास तुम जैन धर्म अंगीकार करोगे तो, तुम पीछे राज्याधिकारी बन जाओगे, प्रभात समय, वोहि बात वणी, ये चारों श्रावक हो गये व्यापार करणे लगे, अगणित धन पैदा करा, अपने गोत्री वोहित्थरोंको संगले, सजयका संघ निकाला, रस्तेमें गाम २. में जणे प्रति एकेक मोहर, चांदीका थाल सोपारियोंसे भरकर देते चले, तबसे फोफलिया कहलाये, समधरका पुत्र, तेजपाल उसने गुजरात देशका ठेका लिया, तीन लाख रुपये लगाकर श्री जिन कुशल सूरिःनीका, पाट महोत्सव किया, सत्रुजयका संघ निकाला, खरतर वसीमें २७ अंगुलके बिंबकी प्रतिष्ठा कुशल सूरिसे करवाई, पिताकी तरह मोहर थाली ५ सेरका लड्डू वांटते, सात क्षेत्रोंमें बहुत द्रव्य लगाया, पाटण, जिन मन्दिर धर्म शालायें, करवाई, तेजपालका वील्हा, वील्हाके २ पुत्र, कड़वा १ और धरण २ कडवा बड़ा दातार, पिताकी तरह संघ जीर्णोद्धार, लाणे वाटी, एक दिन कड़वा, चित्तोड़ गया, राणेजीने सन्मान किया, अकस्मात् मांडव गढका बादशाह मुसल्मान चित्तोड़पर चढ़ आया, तब राणेजीकी प्रार्थनासे, बादशाह में मेल करा दिया, तब राणेनीनें, बहुतसा, धन, घोडा, सिरोपाव देकर, मंत्री बनाया, कुछदिन पीछे फिर गुजरात पाटण गये, राजाने पीछी पाटण देदी, गुजरातकी, जीवहिंसा, वन्द करदी, खरतर गच्छाचार्य श्री जिनराजसूरिःका, सवा लाख रुपये लगा कर, पाट महोत्सव करा, सं. १४३२ सजयका संघ निकाला, सात क्षेत्रोंमें क्रोड़ों रुपये लगाये, कडवेजीके तीन पीढ़ीका नाम मिला नहीं, चोथी पीढ़ी जेसलजी हुर, उन्होंके वछराजनी, देवराज, हंसराज, तीन पुत्र हुए, बछराजजी अपने भाईयोंको. संगले, मंडोवरके राव रिडमलजी, राठौड़के, मंत्री वण गये, राव रिडमलजीको चित्तोड़के राणे कुम्भकर्णने धोखेसे मारडाला, मंत्री वछराज जोधेजीको हिकमतसें, मंडोवर ले आया, जोधेनीके मंत्री वछराज रहै, जोधेजीके नवरंगढ़े राणी साखलोंकी बेटीसे दो पुत्र पैदा हुए; बीका और बीदा किसी कारण Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. ५९. - वस १४ प्रधान नामी पुरुषोंके संग वीकाजी योध पुरसे रवाना हुए १५४१ में राजतिलक राती घाटी पर विराजकर किल्ला डाला - १९४५ में बीकानेर बसाया, मंत्री वछराजने, अपने नामसें, वछासर, गांम वसाया, बछराजने, सत्रुजय गिरनार तीर्थोंकी यात्रा करी, इनके करमसी, वरसिंह रत्ता, और नरसिंह तीन पुत्र हुए, देवराजके दस्सू , तेजा, भूणा, तीन पुत्र हुए, वछराज जीसें, बछावत कहलाये दस्सूजीके, दस्साणी इसतरह पुत्रोंके नामसे बोथरा गोत्रकी कई शाखा निकली, वीकाजीके पुत्रराव लूण करणजीने करमसी को मंत्री वणाया, मुंहते करमसीने, करमसी' सरगांम बसाया, बहुत श्री संघको इकट्ठा करके, खरतर गच्छाचार्य श्री जिनहंस सूरिःका पाट महोत्सव करा, सं.। १५७० में बीकानेरमें नेमनाथ स्वामीका सिखरवद्ध मन्दिर करवाया, जो भांडासाह के मन्दिरके पासं विद्यमान है। सत्रुनयका संघ निकाला, एक एक मोहर, एक एक थाल, पांचसेरका लड्डू वर २ प्रति, गांम २ में साधर्मियोंको देता, बीकानेर आया, रावलूण करणनीके पाट, राव जैतसी जी, उन्होंने करमसीके, छोटे भाई वरसिंह को, अपना मंत्री बनाया, वह नारनोलके, लोदी हानी खानके साथ, युद्ध कर, काम आया, वरसिंहके, मेघराज, नागराज, अमरसी, भोजराज, इंगर सी ( डूंगराणी) कहलाये, और हरिराज, ऐसे छह पुत्र हुए, मंत्री नागराज को, चंपा नेरके बादशाह मुंदफरकी नोकरीमें रहणा पड़ा, उसनें बादशाहके हुक्मसें, संघ निकाला, तीर्थोपर, गुनरातियोंकी गड़बड़ देख, भण्डारकी कूची, कबने करी, रस्तेमें, एक रुपया, एक थाल पांचसेरका लड्डू , साधर्मियोंकों देता, बीकानेर आया, १५८२ में बड़ा काल पड़ा, तब तीन लाख रुपयोंका, अनाज, कंगालोंको, बांटा, एकदिन मोहता नागरामके, सिंधदेश देराउर नगरमें, दादा श्री जिनकुशलसूरिःजीके दर्शनकी, अभिलाषा हुई, संघ निकालणा विचारा, फिर चिन्ता हुई के, सिंधके रस्तेमें, जल मि - १ काका कंधलजी २ रूपाजी ३ मांडणजी ४ मंडलाजी ५ नाथूजी ६ भाई जोगायत्तजी ७ बीदाजी ८ सांखला नापाजी ९ पडिहार बेलाजी १० वैदलाला लाखणसी ११ कोठारी महाजन चौथमल १२ वछावत वरसिंह १३-प्रोहित विक्रम १४ माहेश्वरी राठीसाहसालाजी. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महाजनवंश मुक्तावली. लणा मुशकिल है, इस चिन्तामें निद्रा आगई, तब स्वप्नेमें, दादा गुरूनें, दर्शन दिया, और फरमाया के, हमारा धुम कराणा गाम गडालेमें, (नाल)में, फागुण वदि. अमावस सोमवार को, वडका दरखत फटके, सवापहर दिन चढ़े, देराउरके निज चरण यहां प्रगटे गें, सत्य स्वरूप जाणना, प्रभात समय, मुल्कोमें कागद भेजादिया, बहुत संघ इकठ्ठा हुआ, सं. १५८३ में, उस मुजब चरण प्रगटे, संब संघपर, आकाशसें, केशरकी वर्षा हुई, नागराजने धुंभ कराकर, चरण थापन करे राव वीकेजीके संग, मंडोवरसे, भैंरू की मूर्ती आई थी, वह कौड़म देसरपरथापन करी थी, भैंरूंने स्वप्नमैं, राव जैतसीजीकों, कहा शहरकी प्रजा, मेरी यात्रा करणे आवे, सो मेरे गुरू, दादासाहिबकी हाजरी मेला किया करे, कारण ५२ बीरोंके मालक दादा गुरुदेव है, राव जैतसीजीनें, भादवा सुदी १३ कों, वैसाही मेला भरवा दिया, अभी यात्रा हुआ कस्ती है, नागराजमंत्रीनें, नम्गासर गांम बसाया, राव जैतसीजीके, पाट, राव कल्याणसीजी, विराजे, इन्होंने नागराजके पुत्र, संग्रामसिंहको, अपना मंत्री बनाया, श्री जिनमाणिक्य सूरिःकों संग ले, सर्जेजयादि तीर्थोंका संघ निकाला, एकएक रुपया, एक थाल लड्डूकी लांणी बांटते केशरिया नाथके दर्शन कर, चित्तोड़ आये, राणा उदयसिंहनीने, बडा सन्मान दिया, वीकानेर नरेश बडे प्रशन्न हुए, संग्राम सिंहके करमचन्द पुत्र हुए, सो बडे बुद्धिमान, शूरवीर, दातार उत्पन्न हुए, -ये महाराजा रायसिंहजीके मंत्री हुए, इन्होंके वर्तमानमें त्यागी वैरागी क्रिया उद्धारी, श्री जिनचन्द्र सूरिःजीकी, आणेकी वधाई करमचन्दको, मल्ल कवीने दी, तब सवाकोड़का सिरो पांव, वधाई मैं, कर्मचन्द मुंहतेने दिया, बडे महोत्सवसे वीकानेरमें सामेला किया श्री संघका कराया हुआ उपासरा, श्री चिन्तामणि स्वामीके मन्दिरके पासमें जोथा, सो घरबारी महात्माओंने, अपने घर १ नवहाथी दिया नरेश सो तो मदसें मतवाले, नवे गांम बगसीस लोकनित आवे' हाले । एराकीसौ पांच सो तो जगसगलो जाणे । सवाकोड़कों दान मल्ल कवि सच्च वखाणे १ कोई राव. न राणा करसके, संग्राम नंदन किया, युग प्रधानके नाममें, करमचन्द इतना दिया, ॥२॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. ६१ बणा लिये, तब मंत्रीनें, अपने घोडोंकी घुड़ शाल, माणक चौक ( रांघड़ी), में थी, उहां आचार्यकों, चौमासे रक्खा, चौरासी गच्छके सब श्रावक, यहां आते थे, और धर्म ध्यान होता था, संसार त्यागके बहुत लोग साधु होगये, अनेक बाइयोंनें, साधवीपणा लिया, उनके धर्म ध्यानके लिए, अपनी गऊशाला दी, जो कि अब बडा उपासरा, व छोटा उपासराके नामसें, प्रसिद्ध है, से। १६२५ का चतुर्मास संघके आग्रहसें, बीकानेरमें करा, प्रतिमा निंदक मतको फैलतेकों उपदेशद्वारा परास्त करते गुजरातके. तरफ बिहार किया, कुछ दिनों बाद श्रीबीकानेरसे व्यापारी बम कर्मचन्द लाहोर नगरमें बादशाह अकब्बरशाहके पास गया एक दिन बादशाहने करमचन्दसे पूँछा की करमचन्द धर्म सबसे बडा कौन है करमचन्द बादशा-. हका आशय समझ गया क्योंके बुद्धिका सागर परम जैनतत्वका जाणकार सम्यक्त्वी था तब बोला (दोहा) बडाधर्म महमंदका, तातें शिव कछु न्यून,. एकण राजा बाहिरो, सबसे जैन जबून, ।१। बादशाह अकब्बर, इस दोहेके अर्थको खूब समझ गया के, करमचन्द बडा सायर, जैनधर्मका एक नररत्न है, तब पूच्छा अय करमचन्द तुम किस अबलियाके, मुरीद हो, करमचन्द बोला, हुजूर सिलामत श्रीजिनचन्द्रसूरिःका, बादशाहको जैनधर्म सुणनेकी और ऐसे पुरुषके दर्शनकी चाह भई, तब अपने उमरावोंके संग, विनती फुरमाण खौस कलम लिख भेजी, गुरू विचरते २, लाहोर पधारे, बडे हगामसें बादशाहने सन्मुख आकर कदम पोशी करी, गुरूनें धर्मोपदेश करा, उस दिनसें बादशाहको, धर्म रुचि उत्पन्न हुई, हमेश व्याख्यान सुणते २ मदिरामांस, तथा कन्द मूलका, यावज्जीव त्याग करा हिंसाका त्याग अमलदारीमें करवाया, यावज्जीव सबपाणीका त्याग कर, एक गंगाजल बरताव करणेको वाकी रक्खा, परस्त्रीका यावज्जीव त्याग करा, जैनधर्मकों सब धर्मोंसे श्रेष्ठ समझणे लगा, ऐसी सम्यक्त्त्वकी श्रद्धा, प्रगट हुई, । तब बादशाहनें गुरू अपना मान कर चवर छत्रादि आपके सब राजचिह्न नजर किये, गुरूनें कहा, त्यागियोंको ये उपाधि नहीं चाहिये, वाद० आपका त्याग सदा कायम है, आपने फरमाया मूर्छा है सो परिग्रह है, आप मूर्खा रहित हैं, क्योंके देव तत्वका पद हो, करमच का, बादशाहको लिनिकी चाह भई, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __महाजमवंश मुक्तावली. स्वरूप आप दरसाते, तीर्थकर परमात्माके आठ प्रातिहार्य, चौतीश अतिशय बतलाये, जैसे वे, देवताके समवशरण सोनेके कमलोंपर चलणे आदि, विभूति रहते, तीर्थकर जैसे वीतराग है, तैसे मैं मेरी भक्तिसें, इस राज्य चिन्होंसें, उपासना कर, जन्म सफल मानूंगा, आप तो दुनियांसे तार्क हो, लेकिन बादशाह राजादिक सेठ सामन्तोंके गुरू, परम चमत्कारी प्रभावीकपणेसें, आपकों जिन पद है, ( ठाणांसूत्रमें ५ जिनः फरमाया है ) आप धर्मकी जहाज हो सदा मदके लिए, आपके शन्तानोंके साथ, मेरी भक्तिका निशाण कायम रहै, तब करमचन्दनें अरज करी, हे पूज्य, राजा भियोग है, जिसपर भी जैन धर्म की दुनिया मैं आडम्बर महिमा दीखेगी सब श्री संघ इस बातसें, आनन्द मानेंगें, तब गुरूने मौन करा, बादशाह इन्होंके शिष्य श्री जिनसिंह सूरिःको, तखत बिठलाकर राज्य चिन्ह संग कर दिये, और मुल्कों मैं वन्दा वणीका फुरमाण लिखा दिया, माही मुरा तब दिया, ये अकबरका मुरातब बीकानेरके बडे उपासरेमें, करम चन्दनें भेजा दिया, श्री गुरू महाराजके साधु लब्धिवंतने कानी की टोपी आकाशमें ठहरी हुई को , ओघेसें उतारी, तीन बकरी बताई, अमावस की पूनम कर दिखलाई, इत्यादि चमत्कार दिखलाकर, सब तीर्थोंकी रक्षा के लिये जगह २ बादशाहनें अपने सूबेदार जागीर दारोंपर हुक्मनामा भेजा दिया और हिन्दमें अमारी उद्घोषणा छ महिना एक वर्षके वास्ते जाहिर कस चैत भादवा आसोज चौदस आठम अमावस पूनम हुमायूंका . जन्म दिन मरणेका दिन अपना जन्म दिन राज्यका दिन इत्यादि मिला करके तथा हुमायूं बादशाहनें बलात्कार आर्य लोकोंकों मुसल्मान वणाना सुरू कराथा वह अकबर के दिलसें गुरूनें मिटादिया बादशाह हुमायूने सब भेष धारियोंकों बलात्कार गृहस्थी बनानेकी आज्ञा दीथी इसमें स्वामी, सन्यासी, वैरागी, जती लोग, बहुतसे घरबारी बन गये थे, आत्मार्थी त्यागी लोकोंने बहुतोंने प्राणत्यागे दिया था, बहुत त्यागी रहनेवालोंने शिर पर वस्त्र बांध लंगोटबद्ध महात्मा होगये थे, इत्यादिक जुल्म करमचन्दके कहणे मुजब, श्री जिनचन्द्र सूरिःजीने बादशाहको उपदेश दे देकर, बन्द करवादिये, सब मतोंके अवलियोंसें, सत्संग करणा, अच्छा समझ, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. .. ६३ उन्होंकी संगत करणे लगा, आज्ञा दी के, कोई धर्मवाला होय, उस पर बलात्कार, कोई अत्याचार हिमायतीवाला, नहीं कर सकेगा, सच्च है, ऐसे मंत्री और ऐसे गुरू महाराजकी शिक्षा जबसे अमल दरवलमें लाया बस इसही बातोसें अकब्बर बादशाहकी नेक नामी सदाके लिए हिन्दमें स्थिर हुई प्रजाके सुखकारी नियम जो जो गुरूनें बादशाहसें करवाये सो लिखें तो एक बड़ासा ग्रंथ बण जावे, इतना है, इस सब बातोंका मूल कारण बच्छावत . बोथरा करमचन्द था, इसवास्ते इन्होंका इतिहास विस्तारसें लिखा है, ये जमाना भस्म रासीग्रह भगवान वीरके, जन्मराशी पर, जो निर्वाण समय - आया था वह उतरनेका था, उक्त महाराजाने जैनधर्मका उदयपूजा सत्कार प्रगट करा, तबसें, दो फिरका साधुओंमें होगया एकतो सिद्धपुत्र क्षुल्लक जती धर्मोपदेशी पंडित, तथा श्रीजिन चन्द्र सूरिःके खरतर गच्छके सब पंचमहाव्रती जैनसाधु इसके बाद तपागच्छ नायक श्रीहीर विजय सूरिः दिल्ली पधारे तब भानुचंद्रजी सिद्ध चन्द्रजी यति प्रमुखने कलाकौशलतासे बादसाहको प्रशन्न करके ई कार्य उपगारके कराये, सूर्य सहस्रनाम कल्पनकर बादसाहको नित्य सुनाने आदि इसलिये केइफरमान भी लिखाये पांच पहाडोंके हिफाजतका फुरमाण हीर विजयसूरिः जीकों लिखवा दिया जिनचन्द्र सूरिःने तपागच्छी सिद्धिचंद्रयतीको बादसाह अकबरके पुत्र साहसलेमनें दुराचारके कारण कैदकर दियाथा तब आप बादसाहकों समझा कर कैदसे छुड़ाया, ऐसे उपगारी हुये, खरतर गच्छकी गुर्वाबलीमें समय सुन्दरजीने लिखा है, फिर विजय दानसूरिःके शिष्य धर्म सागरजीने स्वकल्पित ग्रंथमें खरतर गच्छपर केइ असत्य आक्षेप लिखे, तब जिन चंद्रसूरिः पाटण पधार उस समयके विद्यमान उपाध्याय वावकादि अन्य २ गच्छ वालोंको एकत्रित कर उहां रहे धर्म सागरजीको बुलाया लेकिन मृषावादी होनेसे सभा समक्ष नहीं आये केई दिन सभारही, आखर असत्यवादी समझ खरतर गच्छको विजयपत्र सर्व विद्वान् साधु मंडलीने लिखा, ताम्र.. पत्र पाटण वाडी पार्श्वनाथजीके मंदिर ज्ञानभण्डारमें रखा, ये सर्व वृत्तांत समाचारी शतकमें लिखा है, प्रथम चलाकर खरतरगच्छ वालोनें कभीभी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. विषवादरूप शब्द नहीं लिखा जब तपोनें आक्षेप करा तब उत्तर देना बाजबी समझ कर दिया, हीर विजय सूरिः भी, त्यागी, वैरागी, आत्मार्थी, जैनधर्मके उद्योत् कारी, प्रगट, हुए, उन्होंका ज्यादह, विहार, गुजरात, गोढ़वाडमें रहा, ये दोनों आचार्य चन्द्र सूर्यसम उदय, २ पूजा सत्कार के, कराणे वाले, प्रगट, हुए, इन्होंकाभी दो फिरका चलता रहा, आपसमें बड़ा संप रहा, खरतर तपोंके, बादशाहके माननीय होनेसें, जती लोकोंका चमत्कार देख २ के, सिद्ध पुत्र जतीयोंको, रांजालोक गाम जागीर मन्दिर उपासरेके हिफाजत करणे, शिष्योंको विद्या पढाणेको, देते गये, सो अभीभी विद्यमान है, वच्छावत कर्मचन्दने. वीकानेरमें सत्ताईश गवाड, गांम सारणि, धोत, लाहण, वगैरह जातीके कायदे बांधे, मुसल्मान समसेरखाने, जब सिरोही इलाका लूटा, उस लूंटमेंसें, १५०० जिन प्रतिमा सर्व धातुकी मिली, सो करमचन्दर्न वीकानेरमें चिन्तामणिजीके मन्दिरमें, धरवाई, सो अभी भी बड़े कष्ट उपद्रवादि दूर करणेको, बाहिर निकाली जाती हैं, पर्युषण पर्वमैं ८ दिन, कसाई, भड ने आदिकारुओंके, आरम्भ बन्द करके, लाग बांध दिया, सो अभीभी जाहिरी है, सोलेसय ३५ का काल पड़ा, उसमें करमचन्द बच्छा-- वतनें, कंगालोंको, तथा जैनी भाइयोंको, गरीब जाणके, साल भरका गुनरान दिया था, महात्मा लोगोंने, जिन चन्द्रसूरिः की, अवज्ञा करी थी, महाजनोंकी वंसावली पास रहणेसे, मस्त हो रहे थे, भवितब्यताके वस, ये काम बुरा हुआ, करमचन्दने सोचा, जब लोक बही बटोंको धन देते रहेंगे तो, जैन धर्मके आदि कारण जती साधुओंका, बहुमान लोक नहीं करेंगे, ऐसा विचार कर, धोखेबाजीसें, गृहस्थी महात्माओंकों, इकठे करके, वंशाक्लीकी बहिये माणक चौकके कूए में गिरादी, उन महात्मा गृहस्थियोंका, रकीना, औसर व्याहोंमें बागवाड़ी वगैरह का, बांध दिया, वह भी मजूरी करे तो, जो जो वंशावली, भण्डारोंमें, तथा श्री पूज्यजी महाराजके, पुस्तकालयमें, तथा दूरदेशी महात्माओंके पास रहगई, सो हानर है, परन्तु किसी वंश वालोंके नाम, ओस वालोंके महात्मा लोकोंके पास सें न मालूम, किस तरह पर, भाट लोकोंके पास दस ५ पीढीके Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली हाथ लगणेसें, भाटोंने ओसवालोंपर सिक्का जमाणा प्रारम्भ करा है, और अश्वपत लोक जैन धर्म धरानेवाले नती लोकोंसे, हरवातपर मुंह मचकोड़ते हैं, और भाटोंके लिए कडा कंठी मोती दुशाले देकर, इनायतीकी खूबी दिखाते हैं, जती महात्मा तो कुपात्र ठहरगये, मांस, मदिरा खाणेपीणेवाले भाट लोकोंका दान, सुपात्रों में, दरज हुआ, बाहरे पंचम आराकलियुग, तेरे विना, ये दशा कोन बनाता, अश्वपती महाजनोंकी वंशावली जती महात्मा बिना अन्यके पास होय सो, बिल्कुल गलत झूठी है, 'अश्वपत लोकोंको, इस बातका निर्धार करना चाहिए, आखिरकों, बादशाहनें, करम चन्दकों, हमेशा अपणेपास रखणा शुरू करा, तब किसी कारणसें, राजा रायसिंहनी; गुस्से होगये, सूरसिंहजी जब गद्दी नशीन हो, दिल्ली पधारे, तब करमचन्दके पुत्र पोतादिक परिवार बालोंको, विश्वास दे बीकानेर लाये इन्होंके पास, सातसय योद्धा राजपूत थे, एका एक सूरसिंहजीनें इन्होंको मारणे को, सेन्या भेजी, तब उन्होंके पुत्र भागचन्द लक्ष्मीचन्दनें अपणे हाथसे, सब परिवारकों, कतलकर, सातसय राजपूतों संग, केशरिया वागे पहन, युद्ध करके काम आये, इन्होंका चाकर रगतिया झूझार हुआ सो, भोजक लोकरगतिया वीरकर के पूजते हैं, एक बहु गर्भवंती, किसनगढ़, अपणे पीहर चली गई थी उसमें जो पुत्र हुआ, उनकी शन्तान, किशनगढ़ उदयपुर वगैरहोमें वसते हैं, वाकीबछावत मारवाड़ वगैरह बीकानेरके इलाकोंमें, वसते हैं, पीछे सूरसिंहनीने उन्होंकी जड़ निकालनेसें, माणक चौकका नाम, रांघडी रक्खा, कई दिनोंवाद कोई बादशाही काम पड़ा, तब राजा इन्होंका स्याम धर्मीपणा बिचारके, बहुत पछताये, आखिरकों, एक पुत्र खेमराजकों, बुलाकर, खींयासर गाम उसके नामसे वसाया, अठारह हजार वीघा जमीन देकर, बड़े कारखानेमें, वच्छावतोंका हाजर रहणा हमें सके लिये कायम रक्खा, ये जमीन रिणी गांमके तालुकेमें है, वोथरोंकी मूलशाखा ९ प्रतिशाखे अनेक हैं, मूल गुरू गच्छ खरतर, वोथरा १ फोफलिया २ वछावत ३ दसाणी ४ डूंगराणी ५ मुकीम ६ शाह ७ रत्ताणी ८ जैनावत, ९ ( दोहा ) बड़साखा ज्यों विस्तरो, बोहित्य राणा वंश, दिन २ प्रति चढ़तीकला, अनधन कीर्ति प्रशंस, ॥ १ ॥ '९-१० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली (गेहलड़ा गोत्र ) विक्रम सं. १५५२ खीचीगहलोत राजपूत, गिरधर सिंहके पास पिता बहुत धन छोड़गया था, लेकिन ऐश आरामदातारी चारण हूं मलोकोंको करता, सब धन उडादिया, आखिर बहुत तंग हो गया, स्यामी, जोगी, फकड्डों के पासकीमियागिरी, ढूंढ़ता फिरता है, एक दिन, खरतर गच्छाचार्य, श्री जिन हंस सरि: को, बहुत साधुओंके बीच, खजवाणा गाममें विराजमान देखं, भक्तिसें वन्दन कर बैठ गया, अवसर पाकर अपनी सब व्यवस्था कहके बोला, हे दीन दयाल, धन विना जगतमें गृहस्थीकों जीनेसें मरणा अच्छा हैं, गुरूनें कहा सत्य है ( दोहा ) चढ़ उत्तंग फिर भुपतन, सो उत्तंग नहीं कूप, जो सुखमें फिर दुखवसे, सो सुखही दुखरूप ॥ १ ॥ इसवास्ते सुपात्र विवेकीके पास धन होता है तो, वह उस वनसें स्वर्ग मोक्षकी नींव डालता है, और जो बुद्धि हीन, धन पाकर, सुकृत नहिं संचते बंबूलके वृक्षरूप कुपात्रोंको दान देते हैं, वो, इस जन्म, व परजन्ममें, दुखी होते हैं जिन मन्दिर कराणा १ जिनराजकी मूर्तियें भरवा कर अंजन शलाका कराणी, चैत्य प्रतिष्ठा कराणी, २ केवली कथित सिद्धान्त लिखाणा, पाठशाला स्थापन कराणा, विद्यार्थियोंकों सब तरहसें सहायता देणी, दीन हीनका उद्धार करणा, ऐसे सुकृतके अनेक भेद हैं, तब गिरघर बोला, महाराज अब जो मेरे पास धन हो जाय तो, ये सब काम करूं, गुरूनें कहा, जो तूं जिनधर्मी श्रावक हो जावे तो, धन फिर हो जाता है, इसने गुरूसें जिनधर्म अङ्गीकार करा, तब जिन हंस सूरिःने, वास चूर्ण मंत्र कर दिया कि, आज रात्रिको कुम्भारके ईंटके पजावेपर, ये डाल देणा, भाज्ञ योगर्से बाहिर १ हजार इटोंका छोटा पजावा दिखाई दिया, वास चूर्ण उसमें डाल दिया, वह सोनेकी होगई, चांदकी चांदनीमें, रातोरात, घरपर उठा लाया, ईंटोंके मालिककों, दुगणा मोल देकर, खुश कर दिया, गिरधरसाह के पुत्र, गेलाजी, भोला था, अब तो इन्होंके राजकाज लगगया, धर्ममें बहुत द्रव्य लगाया, वाद गेला साहकों शहरके लोकोंने कहा, चिणेका दाणा तो, सबों के घोड़े खाते हैं, आपके घोडोंको तो, मोहर खिलाणी चाहिये, तब ६६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महाजनवंश मुक्तावला गेला साहनें, मोहरोंसे तोबरे भरके चढ़ा दिये, तबसे लोक गेलड़ा २, कहन लगे, इन्होंके सातमें पीढी एक पुरुषकों, राठोडोनें किसी अपराधमें पकड़ कर, सब धन छीन लिया, तब वह दुखी हुआ, उसकों नागोरमें , ज्योतिष निमित्तसें, एक जतीनें, मुहुर्त बतलाया, इस वक्त तूं पूर्व देशमें चला जा, राजा साम्राट हो जायगा, ये निकला, सात कोस पर जाके, दरखत की छाह में सो गया, नींद आगई, सूर्य की धूप मुंह पर आई, तब एक सांप निकल के, छांह करके सूर्यके तरफ रहा, इतनेमें ये जागा, सांपको देख कर घब. राया, फिर पीछा आया, जतीजीने देख कर कहा, अरे पीछा क्यों आया, तब वह बोला ये स्वरूप वणा, जतीनीने कहा, अरे तूं छत्रपती होता था, वह शकुन सांपनें दिखाया था, अभी खेह भरा चलाना, · राजा तो नहीं होगा, तो भी राजा महाराजा बादशाहोंका · श्रीमन्व माननीय हो जायगा, ये चलता २, तीन महीनेसें . मुरसिदाबाद पहुंचा, क्रम २ व्यापारसें, बढ़ते २ जहाजोंमें माल भेजने लगा, आखिरको खाली नाव पीछी आती, तोफांनमें आई, तब नावड़ियोंने भरतीमें पत्थर डाला, वह सब पन्नारत्न था उस दिनसें, असंक्षा द्रव्यपती होगया, इन्होंके पुत्र खुशाल रायजीको दिल्लीके बादशाह औरंगजेबने, जगत्सेठकी पदवी वखसी, उस पीछे खरतर गच्छाचार्य श्री निन चन्द्र सूरिःकों सं.। १७२२ में सुरसिदाबाद विनतीसें बुलाये, महाराजनें उपदेश दिया, समेत शिखर पहाड़की यात्रा जाते रस्तेमें, प्रजाकों चोरोंका भय, रस्ता मिले नहीं इस लिए संघको दर्शन सुलभ होना चाहिये, तब सेठ साहबनें, झाड़ी. झंगीमें साफ रस्ता ६ कोस पर चौकी पहरो, विठलाये, ऊपरवीसों भगवानके जहां चरण नहीं थे उहां पधराये, और जातभाईजी आबै, उसकों श्रीमन्त वा देना, बड़ी भक्ति अनेक जिन मन्दिर, घर देरासर, कसौटीके पत्थरसें बनाकर नवरत्नोंके बिंब स्थापन किये, ये मन्दिर हमने विक्रम सं० १९२३ की सालमें, आंखोंसे देखा था, उनकी बदौलत, मुर्शिदाबाद, महमापुर, महाजन टोली अजीमगञ्ज, बालूचर, बगैरह गंजोंमें एक हजार लक्षाधिपति महाजनोंको बना कर बसाया । बीकानेरके गांवोंके, वासिन्दे, जो जो, गरीब महा-- Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ महाजनवंश मुक्तावली जन जगत सेठजीके पास पहुंचा, उसे निश्चयही श्रीमन्त बना दिया । अग्रेंजा सरकारको जगत सेठ साहबकी बदौलत बादशाही इज्जत रखनी हुई । नागपुरके मरेठे राजाको अर्कोकी जवाहिरात, जगतसेठजीने, बख्शी । बनारस में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द, जो अंग्रेज सरकारके माननीय हो गये. इन्ही वंशके थे जिनने कई इतिहास बनाये हैं, । मूल गुरु मच्छ खरतर लड़ा गोत्र कुचेरा गांमके चारोंतरफ बहुत वसते हैं। लोढागोत्र २ लोढागोत्र दो हैं । एक लोढा तो चौहाणोंसे उत्पन्न हुए हैं; पृथ्वीराज चौहाणका सूबेदार लखण सिंह देवडाचोहाणके पुत्र नहीं था, तब रविप्रभसूरिजीरुद्र पल्ली खरतरसे निकलीं शाखावालोंसे, लाखण सिंहने, पुत्रके वास्ते दुख निवेदन करा । तत्र गुरुजीने कहा कि जो तूं जैनधर्मी हमास श्रावक बनै तो तेरे पुत्र हो लेकिन कपटसे जैनधर्म ग्रहण करा जिससे पुत्र हुआ वह लोढे जैसा था, तत्र राजा पृथ्वी राजनें कहा, अरे मूर्ख ये तेरे कपटका फल हैं, तब लाखणसी, गुरू को ढूंढता २ बड नगरमें गया, अपणा कपट कहा, गुरू बड वृक्षके नीचे उतरे थे, उस बड़में रही जो देवी, वह बड़ लाई, बोलीके, निशल्य होकर, जैन धर्म कबूलकर, पुत्रके हाथ पैर सक गुरूके आशीर्वादसें हो जायगे, तब इसनें ऐसाही करा सम्यक्त्व युक्त वारह व्रत लिये, गुरूनें उस लड़के पर वास क्षेप करा सब अंगोपाङ्ग प्रगटहुए, उसका लोढ़ा वंश थापन करा, इन लोढोंकी चार शाखा है, टोडर मलोत १ छजमलोत २ रतनपालोत ३ भाव सिंघोत ४ टोडर मल्ल छजमलकों दिल्ली में बादशाहने साहकी पदवी दीथी, राजा टोडर मोजी शौखीनथासो टोडरमलजीको त्रिये व्याहमें गीत गाने लगी, माता बड़लाई पूजते हैं, लोढोंका, जोधपुरमें, राक्की पदवी है, पुत्र हुए पीछे इन लोढोंकी स्त्री, बड़लाई पुजेबगर वाहर नहीं निकलती, व्याहमें कुम्मारका चाक नहीं पूजते, कालीनेंस वकरी नहीं रखते, झडूला भी पूत्रोंके माताका रखते हैं मूल गच्छ रुद्रे पल्ली खरतर, वोगच्छ विच्छेद हुआ बादसम्बत् सतरहसें में केइयोंने तपागच्छ कबूल करा बाकी खरतर मैं है Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्कावली . (लोढा दूसरे) लोढामहेश्वरी बाबा विक्रम सम्बत् हजारकी सालमें गुरूमहाराज श्रीवर्द्धमानसूरिका उपदेश सुणकर जैनधर्मका, श्रावक हुआ, ये फकत्त दशहरा पूजते हैं, पाटीकी पूजा करते हैं इन लोढोंका अभी भी गच्छ खरतर है, मेड़ता जिल्लेमे इन्होंके घर हैं, और सोझत इलाकेमैं है (बोरड़ गोत्र) आंबागढ़में पमारराजपूत राव वोरड़ राज्य करता है, सं. ११७५ में खरतर गच्छाचार्य, श्रीजिनदत्तसूरिःनी, उस नगरमें पधारे राजा शिवजीका भक्त था, सो जोगी सन्यासी जितने आवै, उनमें राजा ऐसीही बिनती करे के, मुझको, स्वामी शिवजीके प्रत्यक्ष दर्शन करवाइये, लेकिन कोईभी करा नहीं सक्ता, एक दिन राजा श्रीजिनदत्तसूरिजीकी महिमा सुणके, गुरूके पास आया और वन्दनकर, यह बिनती करीके हे गुरू मुझे शिवजीके प्रत्यक्ष दर्शन करवाइये, तब गुरू कहणे लगे, अगर जो तूं शिवजीका कहा बचन माने तो, प्रत्यक्ष शिवजीसें मिलाएं, राजाने प्रशन्न होय, यह बात मानी, तब जहां शिवजीका लिङ्ग था, उहां गुरू पधारे और राव बोरड़कों कहा, हे राजा अब तूं एकाग्र दृष्टि शिवजीके लिङ्ग पररख, राजाने समाधि लगाय एकाग्र दृष्टि धरी, इत्तनेमें लिङ्गमेंसे प्रथम धुंआं निकलना शुरू हुआ, बाद शिवजी भस्मी लगाये, नांदियेपर सवार, अर्धागा पारवतीकों लिये, त्रिशूल हाथमें लिए हुए, मूर्तिके अन्दरसें, निकले, और राजा बोरड़को दर्शन दिया, और मांग २ ऐसा वचन मुखसे कहने लगे तब रावराजा बोरड़ने, हाथ जोड़ बिनती करी, हे नाथ, अन, धन, जन सब आपकी कृपासें हाजिर है, लेकिन जन्म मरणसें छुटै ऐसा जो परमपद है वो मुक्ति मेरेकों प्रदान करो, वेर २ यही बिनती है, तब शिवजी, हड़ २ हंसने लगे, और बोले, हे राजा, मेने आपनेंही मुक्ति नहीं पाई, (दोहा) नाही कछु पाइये, कीजेताकी आस । रीले सरवर पे गये कैसे बुझे पियास ॥ १ ॥ हे राजा सांसारिक कार्य जो कोई मेरेसें होने लायक होय सो मैं, पूरा कर सक्ताहूं , भाग्यसे उपरान्त, देवता भी देणेमें समर्थ नहीं, और मुक्तिका Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० .. महाजनयंश मुक्तावली अर्थ, है राजा कर्मोंका छूटणा वह तो मोहके क्षय करणेसें कर्म जीवसें छूटता है, अगर ऐसी जो तेरी मुक्ति पानेकी इच्छा है तो, तेरी पीठपर खड़े आत्मार्थी जितेन्द्री परम गुरूके क्चनानुसार चल, क्रमसें जरूर मुक्त हो जायगा, ऐसा कह शिवजी एक कोटि रत्न दिखलाकर, अन्तर ध्यान . हुए, तब राजाने चकित होकर, गुरूसे मुक्तिका स्वरूप पूछणे लगा, तब गुरूने, नव तत्क्का उपदेश दिया, राजानें अपने सह कुटुम्ब जैनधर्म धारण करा, इन्होंसे बोरड़ गोत्र प्रसिद्ध हुआ, मूल गच्छ खरतर,.. (नाहर गोत्र) . __पहले नागोरके पास, मुंधाड नगर मुंधडा महेश्वरियोंने बसाया, उस जगह मुंधड देवीका मन्दिर है। उस देवीके, मुंधडे महेश्वरी शैवमती, सर्व भक्त बसते हैं, उन्हीमेसे भीमका पुत्र देपाल, प्रल्हाद, कूप नगरके राजाका, प्रधान हुआ, और वह धनसे श्रीमंत. बनगया, उस देपालके, एक अत्यन्त प्रिय पुत्र था, जिससे उसका नाम आसधीर रक्खा, । उस. नगरमें, श्रीलघुशान्ति स्तोत्रके कर्ता मान देवसूरिः आचार्य आये, । सूंडाजी. नामका उनका शिष्य गोचरी गया, मगर शैवमती. लोगोंनें, जैनधर्मसे द्वेष रखनेके कारण, आहार पानी नहीं दिया, तब सूंडाने गुरूसें सब वृत्तान्त कहा, तब गुरू बिहार करने लगे, इस समय, शासन. देवी आकर बोली, हे गुरू यहां धर्मका लाभ होगा, आप यहां एक दिन जप तप. साधो, । तब गुरू शिष्य तेला कर बैठ गये, । इतनेमें शासन देवतानें, देपालके पुत्र आसधीरको उहांसे प्रछन्न पणे उठाकर, लेगई,। जब माताने बालकको नहीं देखा तब सर्वत्र खबर करी, मगर पता नहीं चला, । देपाल, पुत्र प्रेमसे विमूढ होगया, । शिष्य जंगल गया था, उसकों देपाल बहुत मनुष्योंके साथ रोता पीटता रास्तमें मिला, उसे रंजमें देखकर, चेलेने पूछा, तब सब हाल भृत्योंनें, कह सुनाया, । चेला बोला, मेरे गुरूके पास. जावो, वह अतिशय चमत्कारी हैं निश्चय तेरा पुत्र बतला देंगे,। सच है. गरज दुनियामें, अजब वस्तु है, (दोहा) गरज २ सब कोई करे, गरज. होत घनघोर । बिना गरज बोले नहीं, जंगलहूको मोर, । १. मतलबरी मनु-- Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली हार, नेतजिमावे चरमो, बिन मतलब कोई यार, राबन पावे राजिया, । १। यह वचन सुनते ही, सूंडाजीके चरणोंमें गिरा, देपाल बड़ा दुखी होकर कहने लगा, हे गुरू परमात्मा पुत्रके बिना मेरा, और स्त्रीका, प्राण निकल जायगा, इसवास्ते आप कृपाकरके, बडे गुरू महाराजके पास ले चलो, तब सूंडाजी संग लेकर गुरूके पास आए, गुरूसें देपाल मंत्रीनें, बड़े दीनश्वरसे निवेदन करा तब गुरू बोले, जो तूं, वृहद्गच्छका जैनी श्रावक बने तो, पुत्र मिला देता हूं, देपालने कहा इसी समय, गुरूंने कहा, पुत्र मिले पीछै तब गुरूनें कहा जातं, दक्षिण दिशाके उद्यानमें, तेरा पुत्र सुखसें, बैठा है, देपाल और शिष्य व बहुत लोग, उसके संग गये, आगे शासन देवी सिंहणीके रूपसें, उस लड़केको स्तनपान करा रही है, देखते ही, देपाल डरता हुआ, पीछे आकर गुरूसें अरज करी, तब गुरूनें कहा, तूं निशंक चला जा, उस नाहरीकों कहना श्रीमान देवसूरिःका, ' मैं श्रावक हूं, मेरा पुत्र पीछादे, इतना कहते ही, तुझें पुत्र दे देगी, इतना सुण, साहसकर गया, तब नाहरणी गोदमें पुत्रको लेकर बैठी है, देपाल हिम्मत वचन गुरूसें, नाहरणी पास जाके, गुरूके वचन कह सुनाये, तब नाहरणीनें, देपालकों पुत्र पीछा दिया, और आकाशमें जय २ ध्वनि होने लगी, बहुत हर्षके साथ अपना बडा भाग्योदय मानता, सपरिवार, गुरूके पास जाकर, जैनधर्मी भया, गुरूने उस आसधीरका, नाहर गोत्र स्थापित करा मानदेव सूरि कोटिक गच्छ चन्द्र कुल वज्रशाखाके आचार्य थे, इन्होंके शन्तान जिनेश्वर सूरिकों खरतर विरुद मिला, मूलगच्छ खरतर देवी इन्होंकी शासन देवी व्याघ्री है, बीकानेरादिक मारवाड़के नाहर अभी भी खरतर गच्छमें है। . (छाजेहड़ गोत्र ) राठौड़ राजपूत धांधल रामदेव १ पुत्र काजल, संवत विक्रम १२१५ में श्रीजिनचन्द्र सूरिः मणिधारी खरतर गच्छा चार्य, सबीयाण गढ़में पधारे, १ विद्यमान समयमें सताब चन्दजी नाहरके पुत्र मुरसिदा बादमें बडे श्रीमन्त दातार, अंग्रेज सरकार के माननीय, बुद्धिवन्त, मुन्नीलाल पूरणचन्द वगैरह जयवन्त हैं, । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. महाजनवंश मुक्तावली तब काजलनें, गुरूसें बिनती करी के, गुरू महाराज दुनियांमें लोग रसायण सिद्धि सोना वगैरह होती बतलाते हैं, यह बात सच्च है या झूठ, गुरूनें कहा, हम त्यागी लोकोंको, धर्म क्रियाकों वर्जके और नाटक चेटक करना योज्ञ नहीं, तब काजल बोला, जिस तरह धर्मकी वृद्धि होय, और में इस विद्याकों एकबार अपनी आखोंसे देखलूं, ऐसी कृपा करो, आपके गुरू श्रीजिन दत्तसूरिजी तो, ऐसे चमत्कारी होगये, इतना चमत्कार तो, आप ही बतलावो, तब गुरू बोले, जो तूं जैन धर्म अंगीकार कर, हमारा श्रावक बणे तो, ये काम भी हो सक्ता है, तब काजल अपने पितासें, पूछणें गया, तब रामदेव बोला, हे पुत्र, राठौड़ जात, खरतरगच्छके, चेले हैं, तूं अहो भाग्य समझ सो गुरू तुझे जैनधर्म घराते हैं, तब आकर बोला, लो गुरूमहाराज जैनधमा करो, गुरूनें नवतत्व सिखाकर, श्रावक बनाया पीछे दीपमालिकाकी रात्रिकों, श्रीलक्ष्मी महाविद्यासे, मंत्र कर, काजलकों, बास चूर्ण दिया, और बोले, जा इतना बास चूर्ण जिसपर डालेगा, वो सोना होजायगा, लेकिन आजही रातकों, प्रह उगतेमें लक्ष्मी देवीका विसर्जन कर दूंगा, फिर नहीं होगा, काजलकों तो, यह चमत्कार ही देखणा था, उपाश्रयसें निकलकर, मन्दिर श्रीजिनराजके छाजोंपर, कुछ बास चूर्ण डाल दिया, कुछ देवीके मन्दिरके छाजोंपर कुछ अपने घरके छाजोंपर डालकर घरमें जाके सो रहा, मूंअन्धारे उठके, श्रीजिनमन्दिरमें जाके, दर्शनकर, बाहर निकला, इतनेही में, बहुत से लोक, रस्ते निकलते, बोले, अरे यह सोनेके छाने, मन्दिरके किसनें चढ़ाये, काजल देख २, बहुत प्रशन्न हुआ, इतनेमें बहुतसे लोक आकर, कहने लगे, रामदेव काजल राठौड के घरके, तथा देवीके मन्दिरके, जैनमन्दिरके, तीनों छाने सोनेके हैं, तब काजल बोला, अरे लोकों, ये महिमा सब, खरतर गुरूमहाराजकी है, उस दिनसें, काजलोत छानेहड़ कहलाये, मूल गच्छ खरतर, 1 ( सिंघवी गोत्र ) नगर सिरोही गोढ़वाड़में, निनवाणा ब्राह्मन बोहरा, सोनपालके पुत्रकों, सांप काट खाया, खरतराचार्य श्रीजिनवल्लभसूरिः नें सं. १९६४ में जहर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली ७३ उतारा, सोनपालजीनें जैनधर्म धारण करा, पीछे सत्रुजयका संघ निकाला, जिससे संघवी कहलाये, पीछे केइयक संघवी गोत्रवालोंनें संवत् विक्रम अठारहसेमें, तपागच्छकी सामाचारी करने लगे, तबसें केइयक खरतर गच्छ है, केइयोंका तपागच्छ है, शाखा ४ नवलखा १ फरसला २ ननवाणा ३ पल्लीवाल ४ । (सालेचा बोहरा ) सालमसिंहजी दइया राजपूतको श्रीमणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिः नें प्रतिबोध देकर जैनी महाजन किया सं. १२१७ की सालमें सियाल कोटमें बोहरगत करणेसें बोहरा कहलाये, मूलगच्छ खरतर । ( भण्डारी गोत्र ) गोढवाड़ देश गांम नाडोलका राव, लाखणजी, चौहाणका बेटा, महेसराव वगैरह ६ पुत्र थे, उन्होंको श्रीभद्रसूरिजी खरतर गच्छाचार्यनें, सं. । विक्रमके १४७८ में प्रतिबोध देके जैनधर्मी श्रावक बनाया, देवी इन्होंकी आसा पुरी, जात नाडोल गांममें इन्होंकी लगती है गांम कुचेरोंमें आकरवसें मूलगच्छ खरतर है, पीछे बाद कोई २ दूसरा गच्छ भी मानने लगे, कुचेरा परगणेके भण्डारी अभी खरतर गच्छमें है, साखा दीपावत मोनावत, लुणावत, नींवावत, । (वांगाणी ) विक्रम सम्बत् सातसयमें बृहद्छी यशो देव सूरिःजैतपुर पधारे, उहां जयतसिंहजी चौहाण राजाके पुत्र अन्धे होगये थे, जयत सिंहजीनें गुरूसें विनती करी, तब गुरूनें जैनी श्रावक होणा कबूल करवाके, शासण देवतासें एक दिनमें दिव्य नेत्र करवाये, बंग देवका वांगाणी, गोत्र प्रसिद्ध हुआ यह यशोदेव सूरिः खरतर गच्छ वालोंके बड़ेरे थे, इस वास्ते मूल गच्छ खरतर, पीछे संवत् सोलह में और २ सम्प्रदाय मानने लगे, ( डागा ) गोढ़वाङ देशगांम नाडोलमें, चौहाण राजपूत, डूंगर सिंहजीको पकड़ने के लिए, दिल्ली के बादशाहनें, फौज भेजी, कारण पहली डूंगर सिंहजीनें, बहुत से Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ - महाजनवंश मुक्तावली खांन सुलतानकों, मार डाला था, ये खबर डूंगरजीको हुई, तब खरतर गच्छा. चार्य, दादासाहिब श्रीजिन कुशलसूरजीके शरणागत हुए, गुरूने कहा, जो तुम हमारे श्रावक बणो तो, बादशाह तुम्हारे सामने आकर, अभी, आजीजी करणे लगे, डूंगर सिंहजी, अपणे कुटुम्ब समेत, कुशल सूरिदादासाहिबके, श्रावक.. हुए, रातकों बादशाह अपणे महलमें सूतेकों दादासाहिबनें वीरकों हुक्म देकर, उपासरेमें पलंग समेत उठाकर बुलाया, राव डूंगजी उहां बैठे थे, ये चमत्कार देखणेको डूंगजीने बादशाहसूतेकों जगाया, बादशाह जागकर देखे, तो,. कहांका कहांमें आगया, तब डूंगजी बोले, अहो दिल्लीपति, दिल्ली तखतके. मालिक, आपनें तो हमको पकड़नेको फौज भेजी, सो तो अभी यहां पहुं-- चीही नहीं है, और मैंने तो तुम्हें कैद करवाके मंगालिया है, तब बादशाहनें पूछा ये वस्ती कौनसी है, तुम कौंण हो, और मुझे कैसे बुलाया, तब डूंग-- जी बोले, देख मेरे जागती कला जागती जोत, सद्गुरूका मेरे शिर पर हाथ है, तूं मेरा क्या कर सक्ता है, बादशाहने, उठके गुरूमहाराजके चरणोंमें, अपना ताज रक्खा, और बोला, अय परवर्दिगार खुदाई कुदरत तुम्हें मुबारक है, मुझे क्या हुक्म है गुरूनें कहा, डूंगजीके परिवारकों, कभी कड़ी नजर नहीं देखणा, दुसरे तेरे राज्यमें जैनधर्मवालों पर कभी जुल्मीपणा मुसल्मीन करणा नहीं, और हमारे श्रावकोंको, हर व्यापार बादशाही फरमाया जावै, बादशाहने अजब कुदरत देख, सब करणा कबूल करा तब गुरूने कहा, जा पलंग पर बैठ, आंख मूंचले, उसी समय दिल्ली दाखल कर दिया, उस दिनसें, सेवड़ोकी कदम पोशी सब जात करणे लगी, डूंगजीसे, डागा गोत्र, प्रसिद्ध हुआ, राजाजीके राजाणी, पूंजेनीसें पूंजाणी, इन्हीं डागोंकी, शन्तान, जेसलमेर केइवसे, वो जेसलमेरिया वजणे लगे, मूलगच्छ खरतर,. सं. विक्रम १३८१ में डागा गोत्र हुआ, । (श्रीपति ढहा तिलोरा गोत्र ) विक्रम सं. ११०१ में गोढ़वाड़ देशमें नाणा वेड़ा नगरमें, पाटण नगर का राजा, सोलंखी राजपूत, सिद्धराज जयसिंहके पुत्र, गोविन्द चन्दको,. खरतर गच्छी श्री जिनेश्वर सूरिः, खरतर विरुद्ध पाने वालेने, धर्म तत्वका Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली ७५ प्रति बोध देकर, जैनी महाजन बणाया, गोविन्द चन्दका पुत्र तेलका व्यापार करा, बहुत धन उपार्जन करा, तबसें श्रीपति गोत्रकों तिलेरा साखासे पुकारने लगे, तीसरी पीढी झांझण सीजी हुए, जिन्होंने संघ निकालकर सजयकी यात्रा की, इन्होंकी ६ मी पीढी विमलसीजी हुए, जिन्होंने, नाडोल, फरड़, फलोधी, नागोर, बाहड़ मेर, अजमेर, इत्यादि क्षेत्रोंमें, जगह २ जिन मन्दिर कराकर प्रतिष्ठा कराई, सं. विक्रम बारहसेमें, इन्होंके वंशमें, भांडाजी हुए, जिन्होंने जेसलमेर, सिद्धपुर, पट्टण, जालोर, भीनमालमें, शास्त्र संग्रह कराणेमें, ज्ञानभण्डार करणेमें द्रव्यकी बहुत सहायता दी, भांडाजीके पुत्र धर्मसीजीनें शाह पद प्राप्त किया, सत्रुजय, आबू , गिरनार, . बनारस वगैरहमें, प्रशाद कराया, संघ माल पहन कर, समेत सिखरकी यात्रा की, सत्रुजय, गिरनार, तारंगा वगैरह, हरजगह पर, सोनेका कलश चढाया, चौरासी यात्रा की, संघमें मोहर २ लाहण वांटी, मोतियोंकी माला,. सोनहरी कल्पसूत्र, मुनियोंके अर्पण की, मुनियोंने संघके भण्डारको सुपरद किया, पृथ्वी परिक्रमादी तीन क्रोड़ असरफियां खरचकर, भण्डार स्थापन करा, बहुतसे मकान बणाये, धर्मसी नामकों धर्म करणीसें, अमर कर दिया,. सम्बत् १२५६ में अम्बिका देवीने, प्रशन्न होकर, आमके वृक्षके नीचे, धन बतलाया, धर्मसीजीके नवमी पीढी, कुमार पालजी हुए, उन्होंने सिद्धपुर पाटण छोड़ सिंधदेशका निवास किया, श्री शान्तिनाथजीका मन्दिर - सिंधमें करवाया, कुमारपालजीके तीसरी पीढी वाढजी हुए, वह शरीरमें बडे हृष्टपुष्ट मजबूत थे, सं. १६१५ की सालमें, सिंधदेशकी भाषामें, इन्होंको ढट्ठा कहणे लगे, संस्कृतमें ( द्रढा ), तबसें ढढानख प्रसिद्ध हुआ, बाढजी की चौथी पीढी सच्यावदासजी हुए, उन्होंके पुत्र सारंगजीसे सारंगाणी ढढ्ढा कहलाये, सिंधदेशकों छोड़, फलोधी नगरमें वसने लगे, सारंगजकेि रुघनाथ मलजी, और नेतसीजी, दो पुत्र हुए, नेतसीजीके खेतसीजी आदि ४ पुत्र हुए, इस जगह रुघनाथ मलजीके परिवारका, पता नहीं मिला, नेतसीजीके तीन पुत्रोंका भी परिवार बहुत हुआ, लेकिन यहां खेतसीजीके परिवारका पत्ता पाया, सो लिखते हैं, खेतसीजीके, रतनसीजी, तिलोक Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली सीजी, विमलसीजी, करमसीजी, एवं ४ पुत्र हुए, तिलोकसीजीने, हुलकरकों सहायता दी, और जो धन, उस लड़ाईमें मिला, उसका चौथा हिस्सा, हुलकरने तिलोकसीजीकों दिया, क्रोड़पती होगये, बाकी तीनों भाइयोंकी "शन्तान, बहुत है, लेकिन तिलोकसीजीके चार पुत्रोंके नाम, १ पदमसीजी २ धर्मसीजी ३ अमरसीजी ४ टीकमसीजी ज्ञानमलजी रामचंदजी नथमलजी लालचंदजी सदासुखजी __सागरचन्दनी . सुजाणमलजी गुणचन्दजी उदयमलजी पुत्र २ सुमेर, उदय, मंगलचन्दनी चांदमलजी शोभागमलजी लक्ष्मीचन्दनी गुलाबचंदजी एम ए जनरल कल्याणमलनी कान्फरेंस जैन, तिलोकसीजी वीकोनर वसे, इन, ४ पुत्रोंकी शन्तान, बीकानेर, तथा जयपुर, अजमेर वसते हैं, वाकी ढड्डे फलोधी आदि मारवाड़में, सारंगजीके पहलेका परिवार, कच्छदेशमें दसा वीसा हो गये, (पीपाड़ा गोत्र ) गेलोत राजपूत, पीपाड़ नगरका राजा, करमचन्दकों, वर्द्धमानसूरिःनें - सं० १०७२ में प्रतिबोध करके महाजन किया मूलगच्छ खरतर । (घोड़ावत छजलाणी गोत्र ) राजपूत रावत वीरसिंह जायल नगरका राजा था, उसकों शिकार खेलनका बडा शौकथा, एक दिनभी शिकार खेले विना रहै नहीं, एक दिन राजा शिकार खेलने गया, उसी समय नागोर नगरसें बिहार करके, श्रीजय प्रभ सूरिः, रुद्र पल्ली खरतराचार्य जायल नगरके वनमें, उतरे थे, आचार्य, कहा, हे राजा निरपराधी जीवोंकों मारणा, ये राजपूतोंका धर्म नहीं, जो दुश्मनशस्त्र डालदै, मुंहमें घासका तृण उठालेबै, अथवा भगजावै तो, खानदानी राजपूत, न्यायवन्त, ऐसे शत्रुकों कभी नहीं, मारे, तो हे राजा, हिरण, -खरगोश, बकरा वगैरह जानवर शस्त्र रहित, नंगे, घास मुंहमें डालणेवाले भयसे भागनेवाले, निरपराधियोंकों तूं कैसैं मारता है, राजा न्यायवन्त बुद्धि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. ७७ वाला था, पूर्व पुण्य जाग्रत हुए, और वोला, है प्रभु आज पीछे, शिकार करके किसी भी जीवकों मारणेका मुझै, यावज्जीव त्याग है, लेकिन सीधा मांस मिल जाय, उसके खानेमें तो कुछ दोष नहीं, तब गुरू बोले हे राजा, मांस खानेवाले नहिं होय तो, कसाई जीवोंकों किसलिए मारे. वह उन खाने वालोंके लिए मारता है, इस लिए आधाकर्म लगे. मनुस्मृतीमें आठ कसाई लिखे हैं, तब राजा बोला जैसैं हरी वनस्पतिके . सागकों, जब गृहस्थी पका डालते हैं तो, जैनके साधु उसे निदोष समझके, ले लेते हैं, इसी तरह ही किसी और राजपूतनें, मांस आपके लिए, मारके रांधा हो, फिर तो वनस्पतिकी तरह खाणेमें दोष मुझे नहिं । लगे, गुरूनें कहा, हे राजा, वनस्पति एकेन्द्री जीव चेतन, प्रथमतो शस्त्र, . अग्नि, और खारके स्पर्शसें ही, निर्जीव अचित्त हो जाता है, वैसा मांस अचित्त निवि नहीं होता, मांसके पिण्डमें समय २ असंक्षा जीव, संमु-- र्छिम पंचेन्द्री अग्निपर रंधते भी उत्पन्न होते, और मरते हैं, इस तरह, वो पंचेन्द्री एक जीव मरण पाया तो, क्या हुआ, लेकिन असंक्षा जीवोंकी हिंसा, मांसाहारीकों लगती है, मल, मूत्र, सेडा, वीर्य, खून चरबीका पिण्ड, हे राजा मांस खाना मनुष्योंका धर्म नहीं, विवेकी, मनुष्य सुकाकर, अपणे हाथसें वनस्पति तक नहीं खाते हैं, और सूकी वनस्पति कालान्तरमें जीवाकुल हो जाय तो भी नहीं खाते, एकेन्द्री वनस्पति वगैरह ५ थावर विगर मनुष्योंका, जीवित नहीं रह सक्ता, लेकिन, बे इन्द्रीसे लेकर पंचेन्द्री तकके शरीरके पिण्डकी, मनुष्योंकों, खाणे विगर कोई हरजा नहीं पहुंचता, बल्कि मांसके खाणेसें, प्रत्यक्ष दर्श अवगुण है, इत्यादि अनेक प्रश्नोत्तरसे, राना प्रति बोध पाकर जैनी महाजन हुआ, उस बखत, राजाकी कुलदेवी, नवरतोंमें, भंसा, बकरा बलिदान नहीं मिलणेसें, उत्पात करणे लगी, तब राजाने गुरूसे कही, गुरूनें विद्या बलसें, देवीकों कुलाई तब देवी बोली, आज पीछे बलिदान नहीं लूंगी, तब राजाने विचारा, ये देवीकी मूर्ति अगर जायल नगरमें रही तो, न जाणे किसी समय, १ देखो हमारा बनाया हुआ वैद्य दीपक ग्रन्थका तीसरा प्रकाश । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महाजनवंश मुक्तावली . "फिर भी इस देवीके लोग उपासक होकर जीवहिंसा करणे न लग जावै, ऐसा विचार अपने पुत्र छजू कुमारको हुक्म दिया के, जाओ, कुमार इस देवीकी मूर्तिकों, जायल नगरके कुओमें, जल शरण करदो, छज कुमार, परम सम्यक्त्वीने वैसा ही करा, और अपने पुत्र परिवारकों, हुक्म दिया के, आज पीछे, मेरे शन्तान कभी कँएको झांखके मत देखणा, और न देवीकी पूजा करणी, तबसें छजूजीके छजलाणी गोत्रवाले, ये दोनों काम नहीं करते, फिर इन्होंका परिवार बहुत फैला, जिसमें एकशेर सिंह नामका पुत्र नागोर नगरमें, बडा घोड़ेका शौखीन था, उसकी औलाद घोड़ाबन कहलाये, एक क्षातमें लिखा है कि, रावत वीरसिंह राजपूतोंमें, गौड राजपूत थे, इसवास्ते छजूजी छजलांणी दुसरा पुत्र वैसालके गौड़ावत कहलाये, जरूर जातके गौड ही थे, घोडावत कहणे लगे, प्रथम गच्छ रुद्रपल्ली खरतर पाछै दुसरा गच्छ सं. १५०० सेमें मानने लगे, छजूजीका बनाया हुआ एक कवित्त भी, हमकों याद है, पिताके जीते बनाया है, ( कवित्त ) नंदनकी नवरही वीसलकी वीसर ही रावणकी सब रही पीछे पछताओगे, उततेन लाए आथ इततेन चले साथ इतहीकी जोरी तोरी इत ही गंमाओगे, हेमचीर घोड़ा हाथी काहूकेन चले साथी वाटके बटाऊ जैसे कल ही उठ जाओगे, कहत हैं छजू कुमार सुण हो मायाके यार वंधी मुठ्ठी आये हो पसारे हाथ जाओगे, । १। धन्य है राज रिद्धी भोगते भी चित्त मैं कैसा वैराग्य था। (कठोतिया गोत्र ) . जायल नगरके शमीप कठोती ग्राम है, उहांपर अजमेरा ब्राह्मण रहता था, उसकों भगंदरका रोग था, सं. ११७६ में श्रीजिनदत्तसूरिने उसकों, मंत्र शक्तिसें, आराम कर उसकों जैन महाजन करा कठोतिया वजणे लगे, गच्छ खरतर । (भूतडिया गोत्र ) सं. विक्रम १०७९ में सरसा पत्तनं जंगल देशमें, कछावा राना दुर्जन सिंघके राज्यमें, ब्राह्मन लोक वाममार्गीथे, सो एक दिन आसोज वदी चतु Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ७९ महाजनवंश मुक्तावली र्दशीके दिन देवीके उपासी पणे कर, मदिरा मांसले गये, इस मतकी बहुत सी स्त्रियें, उस जगह एकट्टी हुई, राजाका कोई तो प्रोहितथा, कोई कथा व्यास था, कोई देरासरका मालिक देरासरी था, कोई दानाध्यक्ष था, कोई यज्ञोपवीत धारणकराणे वाला गुरू था, राजा अपणे महलके गोख मैं, बैठा संध्या करता था, इतनेमें, इन एकेक ब्राह्मनोंको, अंधेरी रात्रि मैं, एकही दिशाको, जाते देखा, राजानें, अपणा प्रछन्न मनुष्य भेजा, मनुष्योंने, खबर दी के, गरीब परवर, ये सब ब्राह्मन, आज काली चवदश है सो, देव की पूजा करने गये हैं, इस बातकी खबर, अपने मतावलम्बी, वाममार्गवाले बिगर, और, किसीकों, ये बताते नहीं, ये सुणकर, राजाने देखा, ये क्या करते हैं सो, दिखाते नहीं, इस बातकों जाननेके लिए, सय्या पालककों कहा के, में किसी काम जाता हूं, तूं में आऊं जब दरबज्जा, दरवानोंसें कहकर, खुला देना, राजा तलवार हाथमें ले, गुप चुप उहां गया तो, जंगलमें, एकान्तदेवीका मंडप, उसका दरबाजा बन्ध देखा, मगर अन्दर शब्द सुनाई दिया, अब वो स्वरूप देखनेके लिए पासमें एक ऊंचा बडका वृक्ष देख उसपर चढकर देखा तो, उहां एक जोगी, उसके पास शराबकी बोतलें धरी हुई, एक बड़ा पात्र जिसमें बड़े पकोड़े मांस पकाया हुआ, सर्व एकत्र किया हुआ, एक प्याला जिसमें मदिरा भरकर, मंत्र बोलता था, फिर पहले उसने पिया, पीछे सब ब्राह्मनोंकों देवीभक्तोंको उसी प्यालेसें पिलाया, 'पीछे एक स्त्रीको नग्न करके, उसके, भगकों, जलसें, मदिरासें, प्रक्षालकर संबकों चरणामृत दिया, पीछे वह कुंडेका नैवेद्य, भगपर चढा २ कर, सबोंकों, वांट दिया, सो सब लोगोंने खाया, पीछे एक घड़े सब स्त्रियोंकी, कंचुकी, उस योगीनाथनें, एकठी करके, उस घड़ेमें डालदी, 'फिर सबोंको आज्ञा दी के, जिसके हाथ डालणेसे, जिसकी कंचुकी जिसके हाथ लगे, वह चाहै माता हो, चाहै बहिन, बेटी, कोई हो, उसमें रमण करे, अर्थात् मैथुन करै, वह गुरू वो देवीसें रमण करै, उस जोगीका और देवीका वीर्य जो निकले, उसकों एक पात्रमें लेकर, पुष्पोंके बीच धरके, भजन गायन करै फिर वह वीर्य, वी सहत मिलाके, सब वाममार्गीचाटे, इस तरह इन्होंके चार मार्गी धूम Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली मार्गी १ बीजमार्गी २ कांचलिये ३ और कौल ४ इन चारोंका स्वरूप देख, राजा अचम्भेमें, रह गया, राजा अपने महलमें आया, प्रभात समय, स्नानकर, कोई तो भस्मी लगा, रुद्राख्य धारण करा, पंचकेशी, पावोंमें खड़ाऊ, बगलमें मृगछाला, पुस्तक, कमण्डल धारे हुए, ओं नमः सिवाय जपते हुए, ब्राह्मण पधारे, कोई रामानन्दी त्रिपुण्डधारे, तप्त मुद्रा लिए भये, कोई माधवाचारी तिलक किये, कोई केशरकी आडम्बर खेंचे, कोई कुंकुमके दो फाड़ तिलक किये, कोई मूंछ मुंडाये, लम्बी एक लङ्ग खुली धोती, कुसा डाभ विछाकर, बैठणेवाले, नानाप्रकारसें, विप्रगण पधारे, राजाने उन्होंको देखतेही, सुभटोंको हुक्म दिया के, जल्लादोंसे, इन सबोंको मरवादो, इन्होंने मेरा देश, कापट्यतासे, डूबादिया, बस उन सबोंको राजाने, मरवा डाला, वे मरते कुछ शुभ अभिप्रायसें भूत हुए, अब नगरीमें, घरोंमें विष्ठा वसवै, पत्थर फेंके, इत्यादि बहुत उपद्रव करणे लगे, राजा इस बातसें बहुत दुखी हुआ, इस समय, तरुण प्रभसूरिःरुद्रपल्ली खरतराचार्य, उस बनमें आए, ये स्वरूप सुणके राजा, उहां आया, सब स्वरूप कहा, गुरूने कहा, जो तूं , जैनी श्रावक हो जावै तो, अभी उन सबोंको, बुलाताहूं , राजाने कबूल करा, गुरूने जिनदत्तसूरि दत्ताम्नाय विधिसें, आकर्षण करतेही, भूत प्रकट हुए, गुरूनें कहा खबरदार आज पीछे ऐसा उपद्रव, मत करणा, नहीं तो कीलन करताहूं , भयसें, सब भूतोंनें, कबूल करा, और अन्यत्र चले गये, गुरूनें उस राजाकी, भूत तेडिया जात प्रसिद्ध करी, लोग भूतेडिया कहणे, लगे, मूल गच्छ खरतर, (जडिया गोत्र) ___ सवालख देश, नागोर मेडतेके शमीप कुमारी नगर, यादव भाटी, कुलधर राजा, उसके राणी तो ३२, परन्तु पुत्र किसीके भी नहीं, उस चिन्तामें. राजा दिलगीर था, इतनेमें श्रीजिन कुशलसूरिः, दादा साहिब उहां पधारे, तत्र दिवाननें कही, आप चिन्ता छोडके, इन महाराजाके, चरणका जल राणियोंको पिलाओ, यह गुरू दादासाहिब हाजिरा हुजूर साक्षात् देव है, मिस करके जरूर पुत्र होगा, तब राजानें, बड़े हंगामसें, गुरूकू, नगरमें Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... महाजनवंश मुक्तावली. पगमंडे कर, चरण धोकर, केशरादिक उत्तम अचित्त द्रव्यो नव अंगकी पूजा, देवमूर्तिकी तरह करी, और वह चरणामृत ३२ ही राणियोंकों भेना, और राणियोंकों, कहला भेजा कि, इस जलकों, वांट २ कर, पीजाओ, इसमें २१ राणियोंनें तो, गुरूकी भक्ति करके, पी गई, ११ राणियोंने सुज्ञा कर नहीं पिया, २१ राणियोंके तो पुत्र हुए, ११ राणियोंके नहीं हुए, उस दिनसें खरतर गच्छके सब श्रावक गुरूका महान् अतिशय जांण, पट्ट धारियोंका, चरण प्रक्षालन कर, नव अंग पूनणे लगे, उस पर मोहर रूपिया वगैरह चढाणे लगे, पीछे बादसाह अकब्बरने फुरमांण लिख कर आम श्रावकोंसें, प्रारम्भ कखाया, खरबरा चार्योने, द्रव्य लेणा नहीं चलाया, शाहन्शाहने ये रिवाज प्रारम्भ कराया, सो श्रावक लोक करते हैं, और करते चले आये हैं, अब तो श्रावकोंकों कुछ २ संकल्प विकल्प भी उत्पन्न होता है, मगर इतना खयाल नहीं करते के, प्रथम इन आचार्यों विगर, तुम जैन धर्मको क्या जाणते, दुसरा तुम सवों पर, बादशाह हुमायूका जुलमका हुक्म, मुसल्मान बनानेका था, सो श्री जिनचन्द्रसूरिः न प्रगटते तो, इक लाय लाय इलिल्ला महम्मदे रसू लिल्लाके कलमासरीक होना पड़सा, और इन्होंके पहले लाखों मनुष्योंकों, बादशाहने हिन्दुओंसें मुसल्मीन कर भी डाला था, उस उपकारकों देखते, द्रव्य कोई चीज नहीं हैं, पद्म सूरिः महाराजका चतुर्मास, नागोर था, तब राजा गुरू महाराजका, झड़ोला २१ सोई पुत्रोंके सिर पर रक्खा, और गुरूके पास लेकर आये, गुरूनें कहा आवो बच्चे झडियाओ, इधर आवो, गुरूने सबों पर वास क्षेप करा, वह जड़िया गोत्र प्रगट हुआ, इन्हीं २१ सॉकी कई २ न्यारे २ नख. भी, हो गये, सो लिखणेका अवकाश नहीं, मूल गच्छ खरतर,। १ सूरिः अने सानाट् ग्रंथ. विद्याविजयजीने लिखा है, उसमें हीरविजयसूरिःजाँकी पुष २६४ मांडण कोठारी, मोहरोसे, पृष्ट २७६ में अबजीभणशाली स्वर्णमुद्रासे, पृष्ट २६५ में छ हजार मोहरोसे राधनपुरमें पूजा करी, इस प्रवाहानुसार श्रीपूजजीकी पूजा द्रव्यसे सरू है हीरविजयसूरिःजीको त्यागी वैरागी सब मानते हैं, ११-१२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. (कांकरिया गोत्र) कंकरावत गांमका खेमटरावका पुत्र, राव भीमसी, पड़िहार, राजपूत, चित्तोडके राणाका सामंत वह राणाजीका हुक्म मानें नहीं, और न नौकरीमें जावै राणाजीनें तलब करा लेकिन गया नहीं, तब राणेजीने इसको पकड़ने शेन्या भेनी, सं. ११४२ में खरतर गच्छाचार्य श्रीजिन वल्लभ सरिः भाग्य योग ककरा गांममें पधारे, राव भीमसी, राणेजीके क्रोधका समाचार कहा, गुरूनें कहा, सैन्या यहां आवेगी, उसका में प्रयत्न कर दूंगा लेकिन तुम हमारे श्रावक जैनी हो जावो तो, भीमसीने श्रावक ब्रत लिया, तब गुरूनें, कांकेर बहुतसे मंगवाये, और उस पर दृष्टि पास करा और राव भीमकों कहा के, जिससमय, राणे जीकी शेन्या आबै, उस समय, तोपों पर बन्दूकों पर तलवार वगैरह शस्त्रों पर, राणेनीकी सेन्या पर, ये कांकरे डाल देना, सो सत्र शक्ति हीन हो जायगे, और में मास कल्प यहां धर्म ध्यानसे करूंगा, शेन्या आने पर अपने विश्वासी ब्राह्मन पोकरनेकों देकर, वह कांकरे हर शस्त्र अस्त्र फोजी लोकों पर डलवाये, सब तोप, बन्दूक छूटनेसें रह गये, तरवारसे एक पत्ता भी नहीं कटे, तब निरास होकर, शेन्याके लोकोंनें, राणाजीकों लिखा, राणानीमें, सात गुना माफ कर दिया, और तुम्हारी नौकरी माफ तुम्हारे हमारे मध्य परमेश्वर है, इत्यादि खातिरीसें खास रुक्का लिखा, तब राव भीमसिंहनें गुरूकी आज्ञा मांग चित्तोड़ गया, सणाजीने सत्कार किया, सब हाल पूछा, तब राव भीम सिंह बोला, गुरुश्री जिन वल्लभ सूरिःका, कांकरिया करामाती है, मेरेमें तो अकड़ाई है, उस दिनसें कंकरावत गांमसें कांकरेके मंत्र अतिशयसें, कांकरिया गोत्र, हुआ, मूल गच्छ खरतर,। (आबेड़ा तथा खटोल गोत्र) .. मारवाड़ गांम खाटूका चौहाण राजपूत आडपायत सिंह, १ बुधसिंह २ थे उन्होकी सं. १२०१ में श्री जिन दत्त सूरिः नें लक्ष्मी कामना पूर्ण कर जैनी करा, आडपायतरा आबेड़ा, बुधसिंहका पुत्र खांदगांव, से खटेड हुआ, Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. . ३ मूल गच्छ खरतर, । सं. १५८७ में कई २ इन वंश वाले ओर गच्छमें गये। (खेतसी पगारिया मेड़तवाल) ., पमार राजपूतोंका गुरू शंकर दास ब्राह्मन, सनाढ्य था, स ११११ में श्री अभय देव सूरिःका उपदेश सुण भीनमाल नगरमें शिव धर्म त्याग जैनधर्मी हुआ, अभय देव सूरिःको मलधार विरुद था इस वास्ते मूल गच्छ खरतर, बाद और गछमें कई २ गये । - (श्री श्रीमाल ) श्री दिल्ली नगरमें श्रीमन्त साहश्री मल्ल महतियाण जात पेढ पमार, वह बादशाहके खजानेके मालिक थे, बादशाहू श्री मल्लशाहसे, धर्मके बाबत हमेश ठठ्ठा करता था, तुह्मारे साहनी ईमान तो जगह पर है ही नहीं, ब्रह्मादेव, विष्णुदेव,, महादेव, देवी, सूर्य, अग्नि, पानी, गणेश, इस तरह, अगर गिना तो साहनी लाखसे कम नाम नहीं होंगे, तब कहो, इमान तो कहां रहा, शास्त्र तुह्मारे पुराण ऐसे है सो, ठोड़ न ठिकाना, एक पुराणकी बात दुसरे पुराणसें गलत है, सो तुम जानते ही हो, मेंने एक दिन जिन चन्दसूरिःसेबडेसें, धूर्ताख्यान हरिभद्रसूरिःका बनाया हुआ, सुना था; सो तुलारे पुराणोंमें, ठगाई और पागलके बनायेसें मालम देते हैं, गुरू तुह्मारे भोजन भट्ट, आजीविका करनेमें हुशियार, तुलसीको माता कहै, और चाब जावे, शालगराम गंडकी नदीका पत्थर, उसकों ठाकुर कहै, और काती सुदी ११ को बेटाजी, तुलसीमां, सालग बापका, ब्याह अपने हाथ करे, हमारे खान सलेमनें कहा था कि, लाबे बांदी ऐसा नर, जो पीर बबरची भिस्ती खर, सोतो बाह्मण तुह्मारे गुरूकों ही देखके, कहा था, नीचसे नीच जातका दान ले लेते हैं, छोकरे खिलाता, पाणी पिलाता, बोझा उठाता, सन्देशा लाता सईसी, कोचवानी, ऐसा काम कोनसा है, जो तुमारे गुरू नहीं करते हैं, उडिया देशमें जगन्नाथ तीर्थ मैं, पंजाब काश्मीरमें, बंगाल वगैरहमें, ब्राह्मण मच्छी बकरेका गोस्त खाते हैं, वेद तुलारे ऐसे हैं, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. महाजनवंश मुक्तावली. जिसकों तुम, खुदाके कहे हुए मानते हो, उसमें किस जानवरकों, मारके खाणा अंगारमें होमके नहीं बतलाया, छी छी इस क्खतके जरूर मुसल्मान लोग गोस्त खाते हैं, मगर ये नहीं कहते हैं कि, खुदाका हुक्म है, कुरानकी रूहमें जानका मारनेवाला गुनहगार है, देखो वेदमें चारों वर्ण वालोंका केटकिा दामाद घर पर आवे, तब पहली मधुपर्क करना, यानें, गऊको जिबह करनी, फिर उस गोस्तको उबालकर, सब घर वालोंसें, मिजमानी करनी, साहनी मुसलमीनोंको, क्यों बुरा कहते हो, हाथ लगजाय तो, स्नान करते हो, मुसल्मीन जाजमपर बैठ जाय तो, जल नहीं पीते हो, जैसे तुह्मारे बंह्मण बेदके मंत्रको पढ़कर छुरियोंसे, वा, गला घोट कर, घोड़ा बकरा हिरण वगैरहको, अंगारके कुण्डमें, हवन कर खानेसे स्वर्गमें जाना मानते हैं, ऐसे हमारे कानी पानी बिसमिल्ला कहके, जानवरोंकी गरदन काटते हैं, जैसा वेदका मंत्र, वैसा हमारे मजहबका बिसमिल्लाह, अरब्बी मंत्र कुरानी है, इस तरह हमेश बादशाह, ताना दिया करै, श्री मल्लजी मुंहता, इसः बातकों हमेश विचारे, और पुस्तकोंको देखे तो, बादशाहके वचन, सच्च मालुम देते हैं, एक दिन बादशाहनें कहा, देखो साहश्री मल्ल, तुझारे सब देव ऐबीथे जिन्होंसे तुम तरणा चाहते हो, भागवतके दुसरे स्कंधमें तुह्मारे ब्रह्माजीने सराब पीकर अपनी बेटी सरस्वतीसे जना किया, तोबा २; जिसके बनाये बेद, और उसकी शन्तान ब्राह्मन, जो कुछ करे सो, थोड़ा है, इस समयमें, खबर नबेसीने खबर दी के, हजूर, जांपनाह ,जिन चन्द्रसूरिःसे बडा आया है, बादशाह श्री मल्लको साथ लेकर, सामने गया, आदाब अरज बनाकर, सामने बैठा, गुरूनें देव तत्व गुरूतत्व और धर्म तत्वका, स्वरूप धर्मोपदेश दिया, बादशाहनें मांस खाना छोड़ दिया, श्री मल्ल साह प्रतिबोध पाकर निर्दोषित जैनधर्मका श्रावक हुआ, बादशाहनें कहा अहो श्री मल्ल, अब तेरा जन्म, सफल हुआ, में इस धर्मको अच्छी तरह जानता हूं, मगर इस धर्मके कायदे करड़े बहुत हैं, खुदामे मिल जाणे वास्ते, दुनियामें ये एकही धर्म है, बादशाहने, उसदिनसें, अम्बाड़ी, मार्छल, चमर, छत्र, वख Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. सीसकर, राजा श्री श्री मल्ल, लिखकर, कुरब हाथी निवेश, और ताजीम दी, तुह्मारी शन्तान सदा के लिए पावोंमें, सोना पहर सकती है, इसकी औलाद श्री श्रीमाल कहलाये, भाईपाइनोंका, श्री मालोंसें रहा सादी मिजमानी श्रीमाल ओसवाल दोनोंसे, कोई ख्यातमें लिखा है श्री मालोंमें महतियाण गोत्र जो है सो ही श्री श्रीमाल पदवी पाई है, धर्म पहले शैव विष्णु सबोंकाही रहा था, मूलगुरू गच्छ खरतर है, ( बाबेल संघवी, ) राजा चौहाण राजा, बाबेल नगरका, रणधीर, रगतपित्त के रोगर्से दुखी था, उसनें कई वैद्यों इलाज करवाया, लेकिन आराम नहीं हुआ संवत १३७१ की सालमें श्री जिन कुशल सूरिःजीके गुरू श्री जिन चन्द्र सूरिः, उहां पधारे, चांदणे आया, राजाक्का वदन जगह २ से फूट गया, गुरूनें कहा, हमारे श्रावक होवो तो, आराम होसक्ता है, राजाने कबूल किया, गुरूनें रातको चक्रेश्वरी देवीकी आराधना करी, देवीनें संरोहणी औषधी दी, प्रभात समय गुरूनें पेटमें पिलाई, और ऊपर भी लगाई, सात दिनसें, कंचन काया हो गई, बाबेल नगरसें, बाबेल कहलाये, इस वक्त वो गांम वापेऊ बजता है, मूल गच्छ खरतर, फेर सत्रुंजयका संघ निकाला, वो बाबेल संघवी बजते हैं, ये संघवी दूसरे हैं संघवी, और कोठारी, बहुत जातमें हैं । ८५ ( गड़वाणी भगतिया ) गडवा राठोड़ अजमेर परगणा, गांम भखरीमें, श्री जिन दत्तसूरिनें, प्रति बोध देकर, धनकामना पूर्ण करी, गडवेजीसेगड़ वाणी, मश्करी करनेसें भड़क उठा, जिसवास्ते पूरसिंहजी कूं लोक भड़गतिया, कहने लगे । गच्छ खरतर सवालख देशमें सोढा राजपूत सवासौ रूणवाल वेगाणी गोत्र घररूण गांममें रहते हैं, उन्होंका मुख्य ठाकुर, वेगाजी, उन्होंके पुत्र नहीं, और क्षीणताकी बिमारी, अकस्मात् श्रीजिन दत्तसूरिः, सवालाख देशमें विश्व, रते २ पधारे, सोढे राजपूत सब गये, और ठाकुरकी, हकीकत कही, गुरू बोले, क्षीणता मिट जायगी, जो तुम जैनधर्मी हमारे श्रावक हो जाओतो, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ महाजनवंश मुक्तावली. इन्होनें ठाकुर वेगेनीको कही, उसी समय सपरिवार आके मिथ्यात्व त्यागके जिन धर्मी हुए, रूंण गामके नामसें रूण वाल गोत्र हुआ, गुरूने वेगेनीकों उपसर्ग हरस्तोत्रका, कल्प साधन बतलाया, दूध घृत चावल मिश्रीकी क्षीर खाकर, एक वर्खेत, अरण्य वास, एकान्त ध्यान, सवालक्ष करना, बतलाया गुरू विहार कर गये सं. १२०२ में रूण वाल गोत्र हुआ ६ महिना साधनासें, एक महिष जितना बली हो गये, गुरूदेव सं. १२ ११ में अनमेरमें, देव लोक हुए, तब गुरू महाराजके प्रेमी, जो विमानक वासी देव हुए थे, उन्होने आकर सर्व खरतर गच्छके संघको कहा तुम्हारे गुरुदेवसो धर्मदेव लोकमें, चार पल्पकी आयुसे, टक्कलविमानमें, देवता हुए हैं, तब संघनें कहा, श्रीमंधर स्वामीसें पूछ के, निश्चय कर दो, गुरू महाराज कितनें भवसें, मुक्ति सिधायगें, तब वह देवता, महा विदेह पुंडरीकणी नगरीमें, श्री सीमंधर भगवानकों, वंदन स्तवन कर, खड़ा रहा, तब श्रीमंधर जिनेश्वरने दो गाथा कही, वह गाथा, गुर्खा वली, तथा गणधर पद वृत्ति प्रमुख ग्रंथोंमें दरज है, परमार्थ उसका ऐसा है, टक्कल विमानसें-चवके तुम्हारे गुरू, महाविदेह क्षेत्रमें, श्रीमन्त कुलमें जन्म लेकर, एक भवावतारी, उहांसे दीक्षाले, केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष होयगे वह देवता, यहां सर्व खरतर संघको, वह गाथा श्रीमंधर स्वामीकी कही सुनाई, तब सर्व संघनें, जगह २, ग्राम २ नगर २ में, गुरूके चरण थापना कर पूजने लगे, धर्म दाता सम्यक्त्व व्रत देणेके, उपकारी, जिन्होंने लाखोंजीवोंको, जिन धर्म देकर, तार दिया, इन्होंके पाट मणिधारी श्री जिन चन्द्रसूरिः विरानै, वह गुरू रूण पधारे, तब वेगानीने पुत्रकी वीनती करी, गुरूने क्षेत्रपालसे पूछी, खोड़िये क्षेत्र पालनें, जो विधी कही, चक्रेश्वरी देवीकी पूजा, बतलाई, चैत्र सुदी आशोज सुदी, अष्टमी, नोरेल चढ़ाकर, लपसीका, नैवेद्य करनेसें, पुत्र होगा, वेगेजीके पुत्र ४ हुए दो पुत्रकी शन्तान नागोरमें सं. १९७७ में लोढा तपगच्छियोंकी बेटी ब्याही थी, पार्श्व चन्द्र सूरिःने, तपागच्छमेंसे अलग सम्प्रदाय निकाली, तब वेगाणी २ पुत्रोंकी शन्तान, उस सम्प्रदायकों मानने लगी, गुरू खरतर को भी मानते हैं, मूल गच्छ खरतर, बीकानेर वगैरहमें, बसते हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. (पोकरणा गोत्र) गांम हरसोरका राठौड सकत सिंह, अपने परिवार समेत पुष्कर तीर्थके मेले पर, स्नान करनेकों, पधारे, उहां एक स्त्री, जिसके ४ छोटे २ पुत्र, और उसके सगा संबंधी कोई नहीं, वह विधवा स्त्री अपने ४ पुत्रोंकों, कुछ खानेकों देकर, घाट पर विठाकर स्नान करने लगी, इतनेमें गोहने, आके, उस स्त्रीके पावोंमें, तन्तु डाला, वह स्त्री पुकारी, इतनेमें खरतर गच्छके, श्रीजिन दत्तसूरि महाराजका शिष्य देवगणिः अकस्मात् थंडिल्ल, जाके आ निकला, सकतसिंह बोला, अरे दोड़ोरे दोड़ो, कोई नहीं गिरासकतसिंह दया लाकर, उस स्त्रीको पकड़ने कूदा, इतनेमें गोहनें, इनकों भी, तन्तुसें, खेंचा, तब देवगणिःने, जल निस्तारणी, अमोघ विद्या स्मरण कर, कहाकेमें, मेरा श्रावक जांण, बचाता हूं तत्काल ऐसा आश्चर्य हुआ के, मानो हाथ पकड़के, कोई निकालता होय, दोनोंको. घाटपर लाके खड़ा कर दिया, हजारों आलम, ये चमत्कार देख, देवगणिःके चरण, पकड़े सकतसिंहने देवगणिःके चरण पकड़के कहा, हे गुरू आपन होते तो आजमें, इस जीवका भक्ष होगया था, धिक् है ऐसे धर्मकें चलाणे वालोंको, जो हजारों सूक्ष्म और बड़े जीवोंका घात, आत्माका घात, ऐसा नदी, कुण्ड तलावोंमें, प्रवेश कर, स्नान धर्म बतलाया, अब आपने जैसा मुझे जिवतव्य दिया है, ऐसामें ऋणमुक्त हो जाऊं ऐसा करो, तब देवगणि बोले हे महाभाग, मेरे गुरू अजमेरमें हैं, सो कल यहां पधारेंगे, चौमासा आज उतर गया है, दुसरे दिन गुरू पधारे, धर्म सुनके, ४ पुत्र, उस महेश्वरीके और सकतसिंह सह कुटुम्ब जैन महाजन हुआ, किसी जगह लिखा है इनमें पुष्करने ब्राह्मण श्रावक हो गये इससे पोकरणे गोत्र नाम प्रगटा मूलगच्छ: खरतर पुष्करसें पोकरणा कहलाये । . (अथ कोचर गोत्र) - पृथ्वी अनादि, श्रेष्टि अनादि, छ द्रव्य अनादि, द्रव्य गुण नित्य, पर्याय अनित्य, उत्सर्पणी कालवतकर, अवसर्पणीवर्त, ऐसे अनंते काल चक्र बीता, और बीतेगा, श्रीआदीश्वर भगवानसें, जैन धर्म चला, आदिश्वरके Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ महाजनवंश मुक्तावली. संग, ४ हजार राजवियोंने, दीक्षा ली, उन्होंसे, भूख नहीं सही गई, तब बनमें जाकर, ऋषभ देवका एक हजार आठ नाम बनाकर, गंगाके तट पर, आदि ब्रह्मा, आदि विष्णु, आदि शिव, आदि योगी, आदि बुद्ध, पुरुषोत्तम, जगत्कर्ता, इत्यादि स्तवन करते, फलफूल खाते, गंगाजल पीते, वृक्षोंकी छाल ओढते, विछाते, तीनसे तेसठ मत उन्होंसे चला, वल्कल चीरी तापस कहलाये, ऋषभ देवके पोते, मरीचीने पहले तो जैन दीक्षा ली, जब क्रिया लोच वगैरह नहीं कर सका, तब सुखदाई दण्डीका भेष बणाया, इसका चेला कपिल, कपिलका आसुरी, आसुरीकों कपिलदेव ब्रह्मदेव लोकमें देवता हुए पीछे प्रकृती १ और पुरुष दोसे २५ तत्वसृष्टिका अनादि पना सिद्ध करा इसके शिष्योंकी संप्रदायमें, शंख आचार्यसें, सांक्षमत प्रसिद्ध हुआ, भरत चक्रवर्तिने, इन्द्रके कहनेसें, बारह ब्रतधारी श्रावकोकों, भोजन कराया, वह भरत राजाकी भक्तिसें, माहन कहलाए, संस्कृ. तम, माहन प्राकृत शब्दका ( ब्राह्मन ) मतहन, याने ब्रह्मको पहिचान, यथा राजा, तथा प्रजा, छखंडके लोक, माहनोंको, भोजन वस्त्रादिसें सत्कार करने लगे, विद्या माहण लोकोंके बालक पढणे लगे, तब भरत चक्रवर्तिने, इन्होंको पढाणे, ऋषभदेव, ४ मुखसें, समवरणमें, देसना देनेवाले, आदि ब्रह्माके बचनानुसार, अहिंसा धर्मका स्वरूप त्याग ब्रतका स्वरूप, छ द्रव्य, नवतत्वका स्वरूप, स्याद्वाद न्याय, गृहस्थके उपनयन, सोलह संस्कार वगैरह अनेक भावमिश्रित जिनयजनका स्वरूपरूप, चार आर्य वेद रचकर संसार दर्शन वेद १ संस्थापन परामर्शन वेद २ विद्या प्रबोध वेद ३ तत्वावबोध वेद ४ पाठशालामें पढाणे लगे, ६ महिनेसें परिक्षा अनुयोग होनेपर, विद्या मुजब इनाम पारितोषिक देणे लगे, और गृहस्थोंके माननीय, ७२ कला, जो ऋषभ देवनें, दुनियांके सुख जीवनके लिए, ग्रन्थ बनाकर, प्रजाकों सिखाया था, सो सब ग्रन्थोंपर हक्क, चक्रवर्तिने, माहणोंकों सोपे, सोलह संस्कार गृहस्थोंके, जन्मसे लेकर मरण पर्यन्त, गृहस्थोंका करवाना, माहनोंके सुपुर्द करा इन्होंमेंसे, वैराज्ञ पाकर बहुत माहण लोक, ऋषभ देवके पास दीक्षा ले लेकर जगह २ साधू होते रहै, गृहस्थ धर्ममें, त्रिकाल श्रीजिनमूर्तिका Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ महाजनवंश मुक्तावली. अष्टद्रव्यसें, नाना प्रकारसें, याग (पूजा) करते, साधुओंको वन्दन उनका व्याख्यान सुनना, व्रत पश्च्चखान ५ अनुव्रत ३ गुणबत ४ शिक्षा व्रत, पर्व तिथीमें पोसह करनेसे, पोसह करणा माहण प्रसिद्ध हुए, जिन्होंकी आज्ञासें माहण लोक प्रवर्ते उपधान, आवश्यकादि षट्कर्म करें, उन २ अत्यन्त उत्कृष्ट ज्ञानवन्त माहणों को, चक्रवर्त्तने आचार्यपद दिया, जो वेद आवश्यकादि सूत्रोंके अध्यापक, उन्होंको उवझाय ( याने उपाध्याय ) पद दिया, जो आचारजओझा अपभ्रंस शब्दोंसे पुकारे जाते हैं, एक दिन, भगवान कैलाशपर समवसरे भरत बांदणेकों गया, और माहण वंश स्थापन करणेकी बधाई सुणाऊं, इस अभिप्रायकों, भगवानने, फरमाया, हे राजा, जो उत्कृष्ट श्रावक, माहण नामसें, तेनें, स्थापन करा है, वह सब नवमें भगवान सुविधिनाथ निर्वाण तक तो, जैनधर्मी रहेंगे, पीछे जैनतीर्थ के साथ बिल्कुल विच्छेद हो जायगे, तब, ये माहण लोक, तेरे बनाये, सम्यक् श्रुत, ४ वेदोंमें, अपनी पूजा प्रतिष्ठा बढानेको, सर्व देवोंके देवमाहण, हैं, इत्यादि आजिवीका जमाने, श्रुतियां वणा २ कर डालेंगे, और क्रम २ से, जैन धर्मके द्वेषीपणे कर अनेक मतोंके विश्वकर्मा बण बैठेंगें, सर्व ग्रन्थोंमें क्रम २ सें, मिथ्यात्व भरते जांयगे, आगे इन्होंमें, याज्ञवल्क्य उत्पन्न होगा, सो यथार्थ वेदकूं त्यागके, नई कल्पना कर, याज्ञवल्क्य हो वाच इत्यादि अपने नामका वेद श्रुति, जिसका नाम ही परावर्त्तन करेगा, फिर पर्वत, और राजा वसुके समय, यज्ञ शब्दमें, हलते चलते, जीवोंकों, हवन करणा मांस भक्षण करणा, वेदका धर्म पर्वत करेगा, भावी प्रबल है भवतव्यता टलेगी नहीं, चक्रवर्ति बहुत पछतानेलगा, फिर बोला, हे प्रभु, मैंने तो अच्छा काम, धर्मी जात थापना करी है, आगे जो करेगा, सो भरेगा, इसतरह ही हुआ, इस वेदमें हिंसा क्यों कर डाले गई, सो स्वरूप आठमें नारदने, रावणसें कहीं हैं, ये सब अधिकार, जैन रामायण में लिखा है, इस तरह आर्य - रह गई, वाकी सब, मांसाहारी माहणोंने यो श्रुतियां, जंगढ़में रहनेवाले, ब्राह्मनोंको वेदकी कई २ श्रुति वेदोमें, वेदको नष्ट जुदी २ याद थी, सो व्यासनें भ्रष्ट कर डाला, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · महाजनवंश मुक्तावली. उसको ब्राह्मन वेद व्यास कहने लगे, प्रथम संज्ञा ऋग् १ यजु २ और साम ३ फिर, इनमें से, अथर्वण बनाया, इस तरह ४ इन्होंमेंसे, परमार्थ की चार सय श्लोक संक्षा होय तो, आश्चर्य नहीं, बाकी यूं यज्ञ शाला बनाना, यो घोड़ेको बांधणा, यूं फरसीसें काटणा, यूं न 7 " पकाणा यो फलाणेको हिस्सा देणा, माता मेघ, पिता मेघ, अश्वमेध, गौमेध, छाग मेध, फलाणे देवताकों, इस तरह यज्ञ कर तृप्त करणा, सोत्रा मणीं यज्ञ कर, मदिरा पीणा, इत्यादि अधिकार, ही भरा है, इतिहाश तिमिर नाशकका तीसरा प्रकाश देखो, वेदोंके भाष्यकार संस्कृत कायदे. वेदकी श्रुतियोंमें विरुद्धता देखकर आर्षत्वात् ऐसी समाधानी करते हैं, इस तरह वेदका हाल डाक्टर मेक्स मूलर संस्कृत साहित्य ग्रंथ में लिखतेहैं कि वेद के मंत्र भाग बणेको, ३१ सो वर्ष, और छंदो भाग बणेको, २९. ससै वर्ष मात्र हुए हैं, दुसरी बेर वेद फिर लिखणेका समय विक्रम. सम्बत् तीनसेमें पुन्शी जीयालाल अग्रवाल फरुख नगरवाला, सिद्ध करता है, और पुराणों का बनाना विक्रम सम्बत् सातसेमें, उक्त पुरुष सिद्ध करता है ये मनुष्य भी बड़ा खोजी नर रत्न है, पहले इन्होंका वंश वेदमतका था, इन्होंके पिता श्वेताम्बर जैन हुए, अभी ये दिगम्बरी जैन अच्छेगृहस्थ सुनने में आते हैं, कोचर वंशोत्पत्तिमें, ये बात इसवास्ते लिखी है के, कोचर वंशके बड़ेरे, पहले तो जैन धर्मी थे, वाद फिर वेदमतमें होगये, वाद फिर जैन राजा हुए, वाद सुजाण कवर परम जैन धर्मी राजाके, ७२ सामन्त, परम जैनधर्मी थे, जिसका फिर, इन ७३ पुरुषोंकों माहेश्वरी होना पड़ा, सो बृत्तान्त यहां थोड़ा लिखते हैं, जैन इतिहास मुजब, - खंडप्रस्थ नगर, जो अब मालवदेश की सीमापर खण्डेला बजता है किसी इतिहास लेखकने खंडेला जयपुर शमीपस्थ लिखा है खंडेल राजा परम जैन धर्मी था, गुरू इनके दिगम्बर जैन थे, राजानें भट्टारकजीसें पूछा, मेरे पुत्र नहीं, सो स्वामी क्या कारण है, भट्टारकजी बोले, चैत्यालयमें, नानाविधीसे पूजन करा अतिथी भिक्षुकोको, दान दे, साधर्मी वात्सल्यता कर, त ९० इकठ्ठी करी, इस लिए वेद की तीन ही करी, उद्धार कर चौथा बात बिल्कुल दोसे Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. सम्यक्ती देव प्रशन्न होकर, तेरी कामना होणी है तो, पूर्ण करेंगे, राजाने, अपने राज्यमें वह पुण्य कृत्य कराणा प्रारम्भ किया, १२ महिने सम्पूर्ण होनेसे, चक्रेश्वरी देवीनें, आकाशवाणी करी के, हे राजा, पुत्र तो तेरे होगा और दयावन्त, दातार, शूरवीर भी, होगा, परन्तु ब्राह्मण मिथ्यात्वी उसकों, धोखा देकर, मिथ्यात्वी, और भिक्षारी कर देंगे ब्राह्मण यज्ञथम्भ, जहां रोपते हैं, उस थम्भके नीचे अरिहन्तकी मूर्ति गाड देते हैं, जिससे कोई दयाधर्मी देवता देवी वगैरह उस यज्ञको विध्वंस करे नहीं, इस लिए सम्यक्ती देवता तो, उस यज्ञके पासही नहीं फुरकते हैं, ऐसा कह, देवी अन्तर्ध्यान हुई, पुत्र हुआ सुजाण कंवर नाम दिया, सम्पूर्ण ७२ कला सीखके . हुशियार हुआ नवतत्व स्याद्वाद न्याय पढा, पिताने, पुत्रकों कहा, हे पुत्र अपने सुभटोंकों भेज २ कर, कहांई भी हिंसक यज्ञ मत होणे देणा, . लेकिन तूं खुद यज्ञ होता हो, उहां मत जाणा, ऐसी शिक्षा देकर राज्य तिलक देकर, आप अनसन आराधकर स्वर्गवास हुआ अब राजा सुनाण सिंह, जिनेन्द्र देवके, गाम २ में, मन्दिर पूजा धर्मध्यान करता, जैनमुनि जैन साधर्मीयोंकी भक्ति करता, दयावन्त, कहीं भी जीवोंको कोई मारने नहीं पावै, ऐसी उद्घोषणा कराता हुआ सुखसे सामायक, प्रतिक्रमण, पोसह, दान, शील, तप भावनामें लीन, अपने सामन्तोंकों भेज २ कर, जगह २ हिंसक यज्ञ, ब्राह्मनोंका बंद करा दिया, जैनधर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर : दोनोंको समतुल्य गिनता हुआ, जैन ब्राह्मनोंकों लाखों क्रोड़ोंका द्रव्य देता. हुआ हिंसक जीवोंको सजा देता वेदकी हिंसा जगह २ बन्ध करवादी, तीन दिशामें दयाधर्म सर्वत्र फैला दिया, उत्तराखण्डमें, म्लेच्छ मांसाहारि-.. योंकी वस्ती, गुण पचास, बडी राजधानियोंमें, म्लेच्छोंहीकी वस्ती समझ. इस दिशामें धर्मोपदेश नहीं करवाया, अब इस समयमें मांसाहारी ब्राह्मनोंको,.. मांस मिलणा मुशकिल हो गया, पहले तो देवताओंके नामसें, यज्ञके वहानेसें,.. घोड़े वकरेका मांस मिल जाता था, तब काश्मीर देशमें, ब्राह्मनोंने गुप्त सभा-- वेद धर्मी मांसा हारियोंकी सुजाणसिंहके भयसें, इकट्ठी करी, उहां ऐसा भाषण करा ईश्वरका कहा हुआ वेद, उसका जो कर्मकाण्ड अश्वहवन गऊ, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. हवन, मधुपर्क वगैरह, पाखण्ड नास्तिकमती बौद्ध जैनोंनें, वन्द कर दिया, पुरोडासा यज्ञकी मांसप्रसादी देवता, पितर, ब्राह्मनोंको जो मिलता था, सो सत्र बन्द कर दिया, इस वास्ते ऐसा कोई उपाय होणा चाहिये, सो यज्ञ पीछा शुरू हो जाय तब पांच ऋषियोंने इस बातका प्रचार करणा कबूल करा, और मनमें पांचों दाय उपाय सोचते, मरु धरमें आये, यहां इन्होकों, ४ राजपूत मिले, जिन्होंको सुजाण कंवरने नोकरी व जागीरसें, बे तरफ कर निकाल दिये थे, वह चारों, आबूगिरी राजकी तलहटीमें पांचो ऋषियोंको मिले, इन्होने अपनां २ दुःख उन ब्रामनोंको कह सुनाया, वस ब्राह्मनोंको, भूखोंकों भोजन जाने मिला, विचार करा ये ४ उस सुजाण सिंहके, घरके भेदु हैं, अपना मनोरथ, इन्होंसे सिद्ध हो जायगा ऐसा विचार कर बोले, तुम हमारे कहे मुजब, करो तो, राज्यपति, राजाधिराज बन जाओगे, उन्होंने कहा, हे ऋषियों अंधोंको तो, नेत्रही चाहिये हैं, हम इसी आसामें फिर रहे हैं, वह चारों, इन्होंके संग होगये, आबूपर जाके, इन्होंको कहा के, हम यज्ञ करते हैं, तुम जीते हुए जानवरोंको पकड़ लाओ, यद्यपि धर्म उन्होंका जैन था लेकिन राज्यका और धनका लालची, क्या क्या, अकृत्य नहीं करता, वह चारों, जंगली भीलोंसें मिले, और उन्होंके हाथसें, तरह २ के जानवर पकड़वा मंगाये, यहां ब्राह्मनोंने अनलकुण्ड बनाया, और उन जीवोंकों हवन करना प्रारम्भ करा तब वह राजपूत, घभराये, ब्राह्मनोंने कहा हे राजपूतों, वेदमंत्रोसे, जो देवता, इन्द्र, वरुण, नक्त, पूषा, वगैरहको, बलि दी जाती है, इन जीवोंकी, हिन्सा नहीं होती, ये जीव, और, करणे, करा- . णेवाले, सब स्वर्ग ही जाते हैं, बड़ा पुन्य होता है, अब उनके दिलका खटका दूरकर, ऋषियोंने, मांस आपभी खाया, और उन्होंको भी, खिलाया, पहाड़के वासिन्दे, भील मीणोंको भी खिलाया, अब वह भील मीणे, इन्होंके हुक्म बरदार भये, ब्राह्मणोंने कहा, हम जो छल करेंगे, सो तुम सुणों, हम एक ऋषिकों, महादेव बनायगे, एक भीलणीको पारवती, और आबू पहाइसें ऐसी २, औषधी लाई जायगी, उसका धुंवां लगते ही मनुष्य तत्काल बेहोस हो जायंगे, तुम लोक भीलमेंणोंको संग लिए, यज्ञस्थानके आस Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. पास ही रहणा, और एक मनुष्यको भेजके सुजाणसिंहको, कहला भेजणा कि, हे राजा तुमनें तो, सारे आर्यावर्तमें, यज्ञ करणा बंध करवाया, लेकिन ब्राह्मण तो, खण्डप्रस्थ नगरके पारही जीवहवनरूप यज्ञ शुरू करा है, वह जब यज्ञविध्वंस करणे आवेगा, तब हम उन्होंको, जहरका धूया. देकर, अचेत कर भाग जायगें, तुम लोक उस वक्त खंडप्रस्थक राज्य लेकर चार भाग करलेणा, और ब्राह्मणोंकी भक्ति, राजसूयादि यज्ञ करणा ब्राह्मणोंको, ईश्वर समझणा, उन्होंकों, यथार्थ यह बार्ता पसन्द हुई, बस वैसाही, हुआ, वह सब ७३ राजा युक्त, विष धूम्रसे, अचेत हुए, जैसा क्लोरोफार्मसे होते हैं, उन्होंने, राज्य दबा लिया, ब्राह्मण भाग. कर एक योगीकों बैल पर चढ़ाकर, एक औरतको संग लिए, उन्होंके पास पहुंचे, ठंडा पानी छिड़क कर उस मूर्छाका उतार करना ठंडे पदार्थ कपूर वगैरह वो विप्रलोग जानते थे, सो करवाया, वह जोगी बैल पर चढा, भस्मी लगाये, गलेमें सांप, आदमियोंके खोपरियोंकी माला पहना . खड़ा रहा, इतनेमें मह्यं रहित उठे, शस्त्र इन्होंके पहले ही ब्राह्मणोंनें, उठा लिए थे, ब्राह्मन लोक बोले, अरे ये महेश्वर शिवपार्वतीनें, तुमकों सचेतम करा है, तुम सब ब्राह्मणोंके यज्ञविध्वंस करणेको आये थे, तब दिया जो श्राप, उससे तुम पत्थर हो गये थे, अब तुम महेश्वरकी उपासना करो, इतनेमें एक मनुष्यनें खबर दी के खण्डप्रस्थमें, ४ पुरुष राज्याधिकारी होगये हैं, तब ब्राह्मनोनें सुजाणसिंहको कहा, अरे अरे तूं मृत्युनींदसे जागा, सबसे जागा नाम प्रगट हुआ, तब ब्राह्मणोंने, अपनी २ व्रत उन्हों पर लगाई, वह सब माहेश्वरी कहलाये, इन ब्राह्मणोंने, अपने वेद धर्म पर अपने पंजेमें गंठे वाद इन्होंकी स्त्रियें, बाल बच्चे, और कुछ २ व्यापार करणे लायक धन, उन ४ राजपूतोंसे दिलाया, उहाँ ये माहेश्वरी जात हुई कोई कहते हैं, डीडवानेमें होनेसे डीड़ कहलाए, उस नगरीका माम महेश्वर धरा,वो चोली महेसर मालव देशमें हैं सुजाणसिंह पर ब्राह्मणोका द्वेष था, तब ब्राह्मणोंने कहा अरे भिक्षुक तूं इन्होंकी पीढीयोंका गुणकीर्तनकर, मांग खा, वह इन वहोत्तरोंका भाट हुआ, विचारा करे क्या, परवस पड़े लगे. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. नहीं कारी, ये सब उहां मालवदेशसे, उठके मारवाड डीड वाणेमें आवसे वह सब महेश्वरी डीडू वणिये कहलाये। ___ इन माहेश्वरियोंमें, जोगदेव पमारके बेटे भी, महेश्वरी डीडू होगये थे, सो कई पीढीयों तक माहेश्वर ही रहे, ये बातका पूरा संवत् तो हाथ लगा नहीं है, मगर विक्रम सम्बत् सातसैका जमाना सम्भव है, वह चार राजपूत पमार १ चौहाण २ पड़िहार ३ सोलंखी ४ इस जातके थे, अव्वल वो सुजाणके नोकर थे, कर्म वस राजाका तो जागाभाट हुआ, और नौकरसो ठाकुर हुए, अब ब्राह्मण लोक इन महेश्वरियोंसें, कहणे लगे, तुम यज्ञ कराओ, और यज्ञका भाग पुरोडासा मांस खाओ, तब ये राजपूत जैनधर्मीपणे, दयाके भांजे हुए अन्तरंग, से बोले, है ब्राह्मणों, ये अकृत्य तो, हमसे नहीं होगा, तुमको गुरू माना, महेश्वर देवभी पूजा, लेकिन ये काम तो, मरजायगे तोभी नहीं करेंगे, तब ब्राह्मण, मरणे, परणे, दान, दापा, लेणा इन्होंसे, ठहराया, क्रम २ से इन्होंकी सन्तान, ब्राह्मण मिथ्यात्वीयोंकी संगतसे, रात्रीको भोजन, बिगर छाणा हुआ पाणी, और कन्दमूलादि अमक्ष पर उतरते गये, पीछे स्वामी शंकरका मत चला, उन्होंने जगतमें दयाधर्म फैला हुआ देख, अपना सिक्का जमाणेको, जैनियोंको मारकुटके वैदपर यकीन तो करवाया, लेकिन यज्ञकी क्रिया तो जैनके हुए दयाधर्मीयोंकों, कब रुचे, तब ब्राह्मणोंसे संप करा, सल्ला विचार कर कहा, अब बेदकी क्रिया छोड दो, वेद ईश्वरोक्त है उसकी फकत श्रुतियां विना अर्थ सोलह संस्कारादिकमें, काम लाओ, लेकिन यह बात कहते रहो, वेदकृत्य सच्चा है, ईश्वरोक्त है, यज्ञ करणा, सतयुगका काम था, अब कलियुग है, इसमें घी तिल खोपरा चिरोंजी, विदामादिक सुगन्ध द्रव्यही, हवन करणा चाहिये, ऐसा कराते रहो, करते रहो, नहीं तो, ये लोक हिन्सा जीवोंकी देखकर, फिर जैन होजायगे, और ऐसे २ शास्त्र बनानेका हुक्म ब्राह्मणोंको दिया के प्रजाका, दिल ठहरावो, तब पारासर स्मृतीमें ऐसा श्लोक डाला ( यतः) अश्वालभं गवालंमं, पैत्रिकं पलमेवच । देवराच सुतोत्पत्तिः,कलौ पंच विवर्जयेत् । ( अर्थ ) अश्वहोमणा गौ होमणी, श्राद्धमें, तथा मरेके पिछाड़ी, पिंडमें, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महाजनवंश मुक्तावली. ९५ मांस देणा, और बड़े भाईकी स्त्री, पति मरे पीछै देवरसे लडका उत्पन्न करणा यह पांच काम कलियुगमें मना है, यह काम होता था, वो ब्राह्मण वेद मतवालोंका सतयुग था, उसके पीछे जैन आचार्योंका उपदेश सुणके राजा राजपूत तथा महेश्वरी पीछे जैनधर्मी होते गये, सो हमने संक्षेपमें कई २ महेश्वरियोंका, जैनमतमें होणा, पीछा लिख भी दिया है, तब विक्रम सम्बत् तेरहसेमें माधवाचार्य दक्षिणमें हुए, इससे माधवाचार्य सम्प्रदाय विष्णुमतमें कहलाती है, रामानुज, शंकरस्वामीके मतकों धक्का लगानेवाला दयाधर्म कुछ माननेवाला दुनियांको गोष्ठीप्रशाद रामचन्द्रजीका भोग खिलाकर रिझाणेवाला वेदपर पडदा डालकर अपना भक्तिमार्ग दिखाणेवाला, रामचन्द्रको ईश्वर माननेवाला, शठकोप कंजरका शिष्य मुनिवाहन, यवनाचार्य, चौथे दरजेके शिष्य रामानुन, इस तरह प्रगट हुए द्वैतपक्ष नैनियोंका मन्जूर करा, प्रपन्नामृत ग्रंथ बनाया, सौच मूलधर्म मानकर, खड़े तीन फाडेका, तिलक और शंख, चक्र, गदा, पद्म, लोहेका तपाकर, अपने मतावलंबियोंको, दाग देणेवाला, महादेवके लिङ्गको नमस्कार नहीं करणेवाला, उसने विष्णुमत नया सांक्षमत चलाया, इसके पीछे, माधवाचार्य २ नीमार्क ३ और विष्णुस्वामी ४ विष्णु स्वामीसे निकला वल्लभाचार्य, इन्होंने कृष्णकों देव माना इत्यादि मत चलाया, माधवाचार्यनें फिर अपने मतावलंवियोंको, जैन होता देखके, और जैन पंडितोने शंकर स्वामीके शिष्यनें, शंकर दिग्विजय अभिमानसें जो बनाया उसको खण्डन करता, ऐब लगाता देखके, शंकर स्वामीके २५० वर्ष वीते पीछे दूसरा शंकर दिग्विजय बनाया, उसमें अपने मतावलंबियोंको, ऐसा डर बैठाया, जैसे कोई मातापिता अज्ञान बालकको डराणेको कहते हैं के हाऊ है, वाघड़ है, ये है तो कुछ नहीं, लेकिन डराणेको कहा करते हैं, सोहाल किया है, ( यत ) न पठेत् यावनी भाषां, प्राणैः कण्ठगतैरपि । हस्तिना मार्यमाणोपि, न गछेजिनमंदिरम् । १ । अर्थ । उरदू फारसी हिन्दुस्थानी प्रमुख भाषा न पढणी न बोलणी चाहै प्राण क्यों नहीं चले जाय, और हाथी मारता होय तो भी शरण लेणे भी, जैन मन्दिरमें नहीं घुसणा ।१। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ महाजनवंश मुक्तावली. इसमें सिर्फ अपने वाड़ेकों मजबूत करणेसिवाय और कोई भी, प्रमाण सिद्ध नहीं होता, खैर ब्राह्मनोंके बचनसें अज्ञान बालकवत् शैव विष्णु लोक जैन मन्दिरमें नहीं घुसते हैं, और ज्ञानवान, इस वचनकों, कुंजड़ी केर समझते हैं, अपने बेर मीठे, ओरोंके खट्टे, लेकिन बड़ा अफसोस तो यह है कि शैव विष्णु ब्राह्मन लोक प्रथम लिखे शिक्षाकों क्यों भूल गये, माधवा चार्यने लिखा है कि उर्दू फारसी मत पढ़ो, सो तो हमनें हजारों मनुष्योंको, फारसी उर्दू पढ़के नौकरी करते व बकालत करते देखे हैं, माधवाचार्यनें, संदिग्ध बचन धरा है, विचार करता था कि, सभामें पंडित लोक प्रमाण पूछेंगें, तब तो कह दूंगा कि, जैन नाम वैश्याका है यानें । वैष्णवोंने, हाथीसे मरते भी, वैश्याके घरमें जाणा नहीं, तब तो सब लोक कबूल करही लेंगे, नहीं तो अपढ़ लोकोंकों पलेमें गांठकों, प्रगट नाम जैन मन्दिरहीमें जाना निषेधक होगा, इस समय, वोही हाल बण रहा है, ये इतनी वात प्रसंग बस कोचर जाती महेश्वरी हुए पीछे फिर जैन महाजन हुए, इस वास्ते जैन लोकोंकों, वाकिफ करणेको, लिखी है अब कोचरोंको महाजन होणा,. लिखते हैं, सम्बत् ९/१८ में पमार वंसी डीडू महेश्वरी जिनोंकी प्रथम जात, पवार डोडा, पीछे जोगदेव चोटीलेका पुत्र सुजाण कुंमर साथ, महेवरी होगया, जिनमें पंवारोकी राठी जात पड़ी, राठियोंके १६२ नक जिनोंमें, डोडा मुंहता १२५ में नखमें, डोड़ाजीसूं डोडा मुंहता कहलाया सिरोहीमें पंवार वंसी राज करते थे, उन्होंकी दीवानी करणेसें मोहता पद, डोडाजीकों, राजाने इनायत किया, प्रथम सिरोही पमारोंनें साई थी सो वेद गोत्रके इतिहासमें हमने लिखा है, जब गोढ़ वाढमें विष्णु शैवमती पोर वालोंको, हरिभद्रसूरिजीने, उपदेश देकर, जैनी करा, तब डोड़ाजी भी जैनधर्म १ डोडाजीसें डोडा मोहताराठी वजने लगे ये माहेश्वर कल्पद्रुम पाने ११३ में २ सिरोही पमारोंमें वसाई सो लेख कमले गच्छके महात्मा लखूजी वेदोंकी पीढ़ी दी जिसमें लिखी है. और भी कई गोत्रोंका नांम गांम देकर हमको ये इतिहास में पहले सहायता दी है इन्होंका जस माननीय है कोचर वंसकी उत्पत्ति हमकों कोचर मुंहता लूण करणजी जे संक्षेप दी थ सो धन्यवाद देता हूं । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७* महाजनवंश मुक्तावली धारण किया है विक्रम सम्बत् ९।१८ में यहांसे जैनधर्म पालणे लगा, पीछे इन्होंके पोते स्याम देवजी ब्राह्मनोंकी संगत, राजाओंकी नोकरीसे, श्राद्ध करना, मरेके पीछे, सब घरवालोंनें, बाल मुंडांणा, इत्यादि अनेक कर्म मिथ्यात्वीयोंका करणे लगे. इस वक्त. सं. १००९ में श्रीनेमिचन्द्र सूरि वृहद्गच्छ वालोंने, पुनः मिथ्यात्व छोडाय. बारह व्रत उच्चराय सम्यक्त्वको पहिचान कराई, और गुरूने फरमाया, यहांसें धन माल लेकर तूं गुजरात पाल्हणपुर चलाना, यहां राज्यमें भंग होगा, तब श्यामदेवनीनें, अपने पुत्रकों, बहुतसाधन देकर. राजासें प्रच्छन्न भेजदिया, वह रामदेव, उहां वहुरायत करणे लगा, यहांसे पाल्हणपुरी बोहरा कहलाये, देवी इन्होंकी वीसल, गुजरातमें मांनी, पहली सच्चाय थी, सं. १० १४ में पाल्हणपुर दुकान रह वास पूगल करा, तबसें पूगलिया वजने लगे, पोछै पूगलमें मुसल्मानोंका ऐल फैल देखके, सं. १३८९ में पूगल छोड़के, मंडोवरमें श्रीमंडनी आकर वसे, सं. १४४५ में महीपालनीकों राव चूंडाजीने मारवाडका सब काम सुपर्द करा राठोड़ोने मुंहता पद फिर दिया इस महीपालजीके पुत्र नहीं सो चित्तमें चिन्ता किया करे एक दिन सोझत गांमके वासिन्दे महात्मा पोसालिया लंगोट बद्ध तपागच्छके किसी राजकाजके वास्ते मंडोवर आये वो काम महीपालजीके हाथ था महात्मा इन्होंके घर आया और बोला महतानी ये काम मेरा करो तुह्मारा कोई काम मेरे लायक होय तो कहो तब महीपालजीने वह काम राव चूंडेजीसें कह निर्वाण चढ़ाया और कहा मेरे पुत्र होगाया नहीं तब महात्मा बोला आज पीछे तेरी शन्तान तपागच्छके महात्माओंको गुरू मानें तब विधी बता देता हूं जिसमे पुत्र होगा इसके पहले सिन्धमें तथा मंडोवरमें रहते नेमिचन्द्र सूरिके पाटधारी खरतर गच्छकों गुरू मानते थे तब महीपालजीने तपागच्छ मानना कबूल करा। तब महात्माने कहा-आसोज चेतमें नवरते करो, वीसल देवी मनावो पुत्र होगा। जब देवी कोचरीके रूपसे बोलेगी, तब कोचर नाम दना, फिर तुमारे वंशको कोचरीका अपशकुन नहीं लगेगा, पूजन आसोज चैत् ८' तथा ९ करना । वीसलरायकी भैंसेकी असवारी है, पुत्र जनमे तब अथवा १३-१४ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजवंश मुक्तावली परतत्र १1) देवीकी भेट करै । जब पहले पुत्रका कोचर में आधान रहे तब पांच महीना स्त्रीके बीतनेसे पूजै तो ११) कलसमें राती जोगा दिराँवै दसहरा पूजै लगी हाथ १।) नारेल १ नव नैवेद्य से पूजा करणी, इतना कोचरोंको करना नहीं, काला कपडा, नीला कपडा, रखै नहीं, घूघरा भैंस बकरी सांकल राखै नहीं, बिछियों में रुणरुणा डालै नहीं, चन्द्रवाईका चूड़ा पहरै नहीं, कदास कोई पहरै तो पीहर पहरै चरखा पालना झणझुणा राखे नहीं, । पीला ओढणा पहले पीहरका स्त्री ओढे, पीछे घरका ओढे, इतना काम करणा तब महीपालजी सब कबूल कर, बीसलदेवी मनाई, पुत्र हुआ, कोचरी बोली, तब कोचर नाम दिया। पीछे कोचरजी मंडोवर छोडकर महीपालजी के संग फलौदीमें आयबसे, सम्बत् १५१५ पीछे महाराजा सूरसिंहजी के संग, उरजाजी कोचर वंशी बीकानेर आये उसमें उरजेके बेटे आठ जिसमें रामसिंहजी १ भाखरसीजी २ रतनसीजी ३ ओर भीमसीजी पिताके संग बीकानेर आये, बीकानेर में महाराजा सूरसिंहजी सं १६७३ में लेखणकी खिजमत इनायत करो और गांमपट्टा दिया, जिन्होंकी शन्तानके घर अन्दाजन १०१ बीकानेर वसते हैं फिर तो सायर मंदी दीवानी वगैरह, अनेक कांमके करता सांमधर्मी राजाओंके हुए, कितनेक घर रतन गढ़ वोदासरे गांम ददरेवा या गांम सारूंडे इलाके राजगढ़, या तालूके सदरनें, रहते हैं, वेटे ४ फलोधी उरजेजीके रह राहूजी १ डूंगरसीनी २ पचायण दासजी, ३ राजसीजी ४ इन्होंके घर ८० अन्दाजन फलोधी वाकी जोधपुर वगैरह बड़ी मारवाड़ सब मिलके जुमले अन्दाजन घर तीनसय कोचरोंके होंयगे, जिनराजके मन्दिरोंकी भक्ति सातक्षेत्रमें धन लगाणा गुरुभक्ति, सनात्न जैनधर्म पर विचारणा, सूरबीर नांमी २ पुरुष इन्होंमें हुए, और होते जाते हैं, फलोधी, केइकोचर कानूगा, वजते हैं, (दोहा) देव गुरुकी भक्तिधर, पुत्र वधेपरि वार । अनधनसे चढ़तीकला, कोचर बड़ सुखकार । १ विद्यमान तपागच्छ । ५ ( पीढियोंकी तफसील ) रामदेवजी १ हरदेवजी २ धनदत्तजी ३ बाहड़जी ४ भीमदेवजी ५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली लखमसीजी ६ जसवीरजी ७ मेघरायजी ८ श्रीचन्दनी ९ पालणसीजी १० मूलराजजी ११ देहडाजी १२ भीमड़नी १३ चम्मड़जी . १४ झांझणजी १५ महिपालनी १६ कोचरी १७ भाणोजी १८ देवोजी १९ सीहोजी २० उरजोजी २१ । (अथ वेदश्रेष्टी गोत्र ) , प्रथम राजपूत धूम १ अगन २ धीर ३ रावसी ४ धांधू ५ वीमल. ६ आपल ७ सोमदेव ८ इन्होंके पुत्र ११ सो सब पमार कहलाये, सोढलसी इसकी औलाद सब सोढ़ा कहलाये, भोमदेव १० सीहलदो भाई, भोमरेनरदेव, ११ ) धीरके पुंडरीक १ माघादेव २ कीरतःचन्द ३ जोधदेव ४ भोपाल ५ धरणीवाट ६ नेग्स ७ गईमिल्ल ( गंधर्वसैन । विक्रमादित्य इन्होंके पाटानुपाट ५ राजा विक्रम हुए ५ भोज हुए राज तखत उजैन टध भोजके मरे पीछे राज्य गया १२ पुत्र उहांसे निकल गये ६ वीसलका ७ चक्रवर्ति ८ पालणदेव ९. जोगीन्द्र १० ११ समरसेण १२ मुखमेण १३ नरदेवके गोदवनराज १४ अचलसेण १५ कर्मसेण १६ कंवरसेण १७ बोहसेण १८ बीरधवल १९ देवसेण २० सनखत्त २१ सेणपाल २२ आसधर २३ महीधर २४ शिवधर २५ विक्रमसेण २६ भीमसेंण २७ . सामदेव २८ वछराज २९ मुदवछ ३० रतनसी ३१ चन्द्रसेन ३२ । २६ पटधर भीमसेन भीनमालनग्र अपणे नामसे वसाया और सिरोही नगरके पहाड़ पर गढ़ वणाया इस वास्ते नगरका नाम सिरोही हुआ ३२ डूंगरसी ३३ रामसी ३४ कनकसी ) भीमसेनके तीन पुत्र उपलदेव बड़ा सो तो ओसियां वसाई सामदेव सिरोहीका राजा हुआ आसल भीनमालका राजा हुआ इसमें ऊपलदेवने तो जैन धर्म धारण करलिया सो ओसवाल हुआ . और आसलका श्रीमालमोत्र प्रसिद्ध हुआ नाना श्रीमल्लराजाके नामसे २७ मीमसेणका २८ ऊपलदेव रत्नप्रभसूरिःने सेठियागोत्र थापा और ओसवाल कहाया भीनमालमें आसल, पीछे कनकसी, सामदेवकी शन्तानको राजा करा। ___ २८ उपलदेवके भृगुनरेश ३९ चक्रवर्त्त ३१ पालदेव ३९ जोगीय ३२ कोगुर ३३ समरमी ३४ सुखमल ३५ सुखमलका छोटा भाई अचल, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महाजनवंश मुक्तावली सो भीनमालके राजा कनकसीके गोद दिया. सालो ३६ समरथ, ३७ करमण ३८ वोहत्थ ३९ यहांसें भीन मालका राज्य सिरोहीवाले इन्होके परिवार वालोंने दाब लिया, यहां ४ पीढी तक भीनमाल और ओसियांका सिरोहीका एक राजाही हुआ, ४० वीरधवल नाणाने पैदा हुआ इस समय विक्रमादित्य पमार उजैणमें राजा हुआ. इसके वहिनका बेटा, भाणजा, सालिवाहन प्रतिष्ठान पुर (महेश्वर) का राजा सका, चलाया, ये राजा जैन था, उन्होकी शन्तान पहले महेश्वर, तथा गुजरात भावनगर में, पालीताणे राज्य करते हैं, । यहां से व्यापार करणे लगे ४० वीरधवल ४१ पुन्य पाल ४२ देवराज ४३ सुनखत्त ४४ जीवचन्द ४५ वेलराज ४६ आसघर ४७ उद्यसी ४८ रुपसी ४९ मलसी ५० नरभ्रम ५१ श्रवण ५२ समरसी ५३ सावंतसी १४ सहजपाल ५५ राजसी ५६ मानसी ५७ उदयमी ५८ विमलसी ५९ नरसी ६० हरसी ६९ हरराज ६२ धनराज ६३ पेमराज मुखराजभाई ६४ पेमके थानसी ६५ वैरसी ६६ करमसी व्यापार भी करता और वैद्यविद्या भी करणे लगा लोकवेद २ कहते ६७ धरमसी ६८ पुनसी ६९ मानसी ७० देवदत्त ७१ दुलहा सं. १२०१ में चित्तोड़के राणा भीमसीकी राणीके आंखमें, आकका दूध गिर गया, तब दुलहाको और वेद्य नाम धराते हो राणीजीकी आंख अच्छी करो, बुलवाया, कहा तुम तब दुलहा बोला, अभी दवा लाता हूं, वो चौमासा श्रीजिनदत्तसूरिः जीका चित्तोड़म था, गुरूके पास जाके, अरज करी, तब गुरूने कहा तुमारे पोते दो हैं, सो एकको, हमारा श्रावक करो तो तत्काल भाज्ञ खोल देता हूं, दुलहेने कबूल करा तब गुरू बोले जाओ जो तुम लगाओगे उससे - तत्काल सिद्धी होगी दुलहेजीनें घीमें गुड़ मिलाके आंखम लगवाया, तत्काल आंख अच्छी होगई, तब राणाजीनें कुरव बढ़ाकर, वैद्य पदवी दी यहां श्रेष्ठ गोत्र बदलके वैद गोत्र हुआ, दुलहेके ७२ वर्द्धमान ७३ सच्चा तथा शिवदेव शिवदेवको जिनदत्तसूरिःका वासक्षेप दिलाकर दिया. वो वर्द्धमानवेदकान्हासर, अजीम खरतरगच्छ में कर गञ्ज, मारवाड़, वगैरह देशोंमें, अभी चिरजीवी है सच्चाके ७४ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १०१ सहदेव और करमण ७५ सहदेवके जसवीर ७६ मोहले ७७ के माणक भाई गोद माणकसी इन्होकी शन्तान बहुत फैली ७८ देल्हो ७९ केल्हणसी ८० त्रिभुवनजी ८१ सादुलसीजी ८२ लोणाजी लाखणसी जैतसी ३ भाई २ भाईबीकेजी संग बीकानेरमें आए जैतसीजीका परिवार फलोधीमें अन्दाजन ८० अस्सीघर वसते होंगे अवशेष सब मारवाड़में लोणाजीके (३ श्रीमन्तजी ८४ अमरानी सूरमलजी भाई ८५ अमरेकासीमाजी ८६ जीवणदासजी जीवण देसर वीकानेरके इलाके गांम वसाया ८७ ठाकुरसीजी ८८ राजसीजी ८९ आसकरणजी ९० रामचन्दजी ९१ उदयभांणजी ९२ दौलत रामजी ९२ माणक चन्दजी ९३ घमंडसीजी ९४ मल चन्दनी अबीरचन्दजी गच्छ कुंअला देवी सच्चाय सेवग बलि अढ़ (मिन्नी खजानची भुगड़ी साख १५) मोहनसिंहजी जातका चौहाणराजपूत उसनें दिल्लीमें मणिधारी श्री जिन चन्द्रसूरिःसे प्रति बोध लेकर महाजन हुआ सं १२१६ में मोहनजीरामान्नी खजानेका काम राव वीकाजीका करा खजानची बजने लगे, भुगड़ी सूखे बेर सिन्धमें बेचते थे इसवास्ते भुगड़ी नख हुआ वाकी नख इनमेंसे फटे हैं लेकिन् । नाम नहीं मिला, इसलिए मिलणेसें लिखेंगें, मूलगच्छ खरतर (मुहणोतगोत्र पींचागोत्र ) ___ किशनगढ़ मारवाड़के रावराना राठोड़ रायपालजीके १२ पुत्र थे, सो मोहनसिंहजी और पांची सिंहजी भाइयोंकी अणवणतसे जेसलमेर गये, उहां रावलजीने बहुत खातर मुजमानी करी, उहां माणिक्यसूरिः महारानके पाटधारी, श्री जिन चन्द्रसूरिःका, त्याग वैराज्ञ उत्कृष्ट ज्ञान, तपकी तारीफ सुणके, हमेश व्याख्यान सुणने, आने लगे, अन्तकों मित्थ्यात्व त्याग गुरूके पास सम्यक्त्व उच्चर कर व्रतधारी श्रावक हुए रावलजीने बहुतही महिमा करी, जेसलमेरमें वसे मुणेजीके मुहणोत, पांची सिंघजीके पींचा गोत्र, प्रगट १५९५ में हुआ उहां सम्बत् सोलेहसेके करीबमें, तपा गच्छके विद्यासागर जतीने मुहणोत गोत्री खरतरोंकों, अपने गच्छमें कर लिया पींचे खरतरमें ही रहै, बाद उहांसे मुहणोत किसनगढ जोधपुर वगैरहमें राज्यके मुसद्दी हो गये, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महाजनवंश मुक्तावली ठाकुर वजते हैं, वस ये आखिरी जात हैं ये विद्यासागर दुढियोंकी तरह क्रिया कष्ट दिखाते बृहद्रच्छी खरतरादि गच्छोंके, प्रतिबोधे, राजन्य वंशियोंको, अपने पक्षमें करते गया। ( विज्ञापन) - आसवन्स रत्नागर सागर है मेरा ये इतिहासक ग्रंथ गागरतुल्य है इसमें कहां तक समावे लेकिन तथापि जो कुछ इतिहास मिला. उसकों संग्रह कर के अनेक इतिहास रत्नोंसे इस ग्रंथ गागरको अश्वपति महाजनोंके गुण रत्नमें भरके मैंने पूर्ण कलश करलिया और महाजनोंकी नाम श्रेणि रूप मुक्तावली इस कलसकों पहराकर जैनधर्मरूपकमल पुष्पपर विराजमान अल्प बुद्धिमें करा है, जो कोई भूल चूक अधिक कम लिखा होय, सर्व श्री संघमे क्षमा मांगता हूं ॥ आपश्री संघका सुनिजर वांछक, उ । श्री रामलालगणिः दन्तकथामें सुणां है के एक भोजकने अश्वपतियोंके १४४४ नख लिखे ... घरपर आया स्त्रीने पछा सब जातलिखली, भोजक बोला, हां, तब बोली, मेरे पीहरके, डोसी जात असपत है, देखो तुम्हनें लिखाया नहीं, तब देखा तो डोसीका नाम नहीं, भोजक हारके बोला, और लिखू डोसी, फेर घणाई होसी सच्च हैं मूलगोत्र तो थोड़े, लेकिन मगर कोई व्यापार, कोई गांमके नांमसें, कोई राजाओंकी नौकरीसें, खजानेका कामसें खजानची, कोठारी, मुसरफ, दफ्तरी, वगसी,. हीरेजीकी शन्तान, हीरावत, इत्यादि पिताओंके नामसे, लेखणिया, कानूगा, निरखी, इत्यादि राजाओंकी तरफसें इनायत होके, जात पड़ी, सिंघवी, भण्डारी, इत्यादि फिर मुल्कोंके नामसे, मरोठी, फलोधिये, रामपुरिये, पूग. लिये, नागोरी, मेड़तवाल, रूणवाल, इत्यादि बहुत फिरघीया तेलिया, भुगड़ी, बलाई, चंडालिया, वाक्चार, बांभी, ये सब कारणोंसें नख हुआ हैं, ओसवालोंमें सैकड़ों गोत निज जात राजपूतोंसें भी विक्षात है, राठोड़, सीसो. दिया, सांखला, कछावा, इत्यादि, अनेक जांण लेणा, इसवास्ते २ हजार नख होयगे, अठारह जातके नख शाखा तो कवलागच्छ प्रतिबोधक है, ६०० नख खरतर गच्छ प्रतिबोध कहै बाकी नख, खरतरके भाई, मल Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १०३ धारगच्छी, प्रतिबोध कहै, कई एक अल्प संख्या वडगच्छ चित्रावाल गच्छ प्रतिबोधक राजपूत होंगे, वाकी मलधार श्रावकोंको, हीरविजयसूरिः आदिकोंने, बहुतों को तपा गच्छ माननेवाले करे, और वस्तपाल तेजपाल के द्रव्यकी सहायतासें, ज्यादह हो गये हैं, गुजरातके पूर्ण तल्ल गच्छके भी, इस वक्त तपागच्छ मानते हैं, प्राय जैन पोर बाल हरि भद्राचार्य प्रति वोधक हैं, श्री श्रीमाल श्रीमाल सर्व जात वैष्णव हुए बाद खरतर गच्छी श्रीजिन चन्द्र सूरिः के प्रति वोधक हैं, जहां जिस नगरमें जिस गांममें निज गच्छके गुरू नहीं हो उहां २ तीन पढ़िी वीतसें जो वेषधर सम्प्रदाय होय वो गुरू ठहर जाते हैं. ओस वंस तो सुरतरु है जो उसकी छांहमें बैठते हैं उसको छांया फल पुष्प सुगन्ध देते ही हैं, सुरतरूका बीज वोणे वालोंके शन्तानोंके तो, जरूरही उपकारके आभारी होनेका फरज है, इस समय गच्छों में तो कमला तपा खरतरा इन तीनोंकी साखाओंही फैलकर जती २ फैल गये. हैं क्यों कि १३ तपोंमेंसें सम्प्रदाय निकलीं पांचमकी संवत्सरी माननेवाले. जो जो सम्प्रदाय हैं वह सब तपागच्छ में से ही निकले हैं लोंकाजी भी तपा गच्छी श्रावक था इत्यादि सम्पूर्ण, जैसे किसी कविनें कहा सर्वे पदा हस्तिपदे प्रविष्टा ८४ गच्छ महावीरके सब जाके चार रहै तपा, खरतर, वड. गच्छी भाई हैं, पार्श्व नाथके कुंअला ये भी ८४ में ही हैं क्यों कि उद्योतन सूरिःके वासक्षेपमें आगये, जैनके सब सम्प्रदाय बड गच्छ, खरतरगच्छ कुंअलाको वर्जके इस तपागच्छसें अलग नहीं, गुजरात में तपागछ में से ही अलग होते गये, सामाचारी अलग २ होते गयी कमलामेंसे कोई शाखा निकली नहीं खरतर में ११ साखा अलग फंटी, लेकिन सबकी सामाचारी एक है जिसमें ७ शाखा मौजूद हैं, दो तो आचार्य गच्छ खरतर पाली १ दुसरे बीकानेर २ रंग विजय खरतर गच्छ लखनेऊ ३ भाव हर्ष खरतर गच्छ वालोतरा ४ मंडोवरा खरतर गच्छ भट्टारक जैपुर ५ बृहत् खरतर गच्छ भट्टारक वीकानेर ६ पीपलिया खरतर गुजरात में फिरते सुणा है लोका गच्छके जती तो ६ के हैं लेकिन पूज्याचार्य तो ४ ही विद्यमान है गुजराती लूंपक गच्छी १ कंवरजी पक्षके गुजराती २ धनराजजीके Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महाजनवंश मुक्ताक्ली पक्षके ३ नागोरी २ इनमें १ में भी आचार्य नहीं हैं उतराधी लोंका गच्छी जती थोड़े हैं आचार्य नहीं है तपा खरतर वड़ गच्छ कमलोंसें लोकागच्छवालोंके भाईपा है लेकिन कछमें रही जो आंचल गच्छी सन्प्रदाय वो लोकागच्छ वालोंसे भाईपा नहीं रखते हैं, कारण वो पूर्व पक्षका लाते हैं लेकिन हम तो गुजराती आचार्य नरपत चन्द्रजी पूज्याचार्यकों तथा अजयराजजी पूज्याचार्यको, तथा नागोरी प्रश्नचन्द्रजी पूज्याचार्यको, तथा रामचन्द्रजी पूज्याचार्यकों, अंतरंग भक्तिसें जिनप्रतिमाको जिन सद्रश भावमें भाव भक्तिदर्शन पूजा करते देखा है, हमारे तो इस' न्यायसें लोंकागच्छी प्राणभी प्यारे हैं मामाचारीका झगड़ा फिजूल आपसमें चलाणा नहीं अपणी २ रोटियोंके नीचे सब अङ्गार देते हैं व, देरहै हैं आत्मार्थी आत्मामाधे श्रावकोंको जिन आज्ञा मुजव उपदेश करे पक्षपात करे नहीं वह अच्छा है जो प्रश्न श्रावक अथवा जती पूछे तो पूछे का जबाब सूत्र सिद्धान्त पंचांगी में लिखेका दाग्वला दिखाके देणा जिसकी मामाचारी मूत्र सिद्धान्तकी राहमें मिलती होंगी तो वह जरूर खराही कह लायगा, क्रियावंत जरूर तपेश्वरी कह लायगा मित्रता पणे वर्त्तना जिस कामोंमे जैनधर्म जगतमें अतुल औपमा पावे उस वातोंकी खोज करणा सर्व यती समुदायका सुनिजर वांछक उपाध्याय श्री राम ऋद्धिसार गणिः। (कच्छदेशी श्रावकोंका वृत्तांत ) - पारकर देशपाली सहरके गिरदावके महाजनलोक, सोलहसे ३५ के वर्षमें, मरुधरमें बड़ा काल पड़ा, उस वखत ५ हजार घर सिन्धुदेशमें अनाजकी मुकलायत जांणके, चले गये, उहां महनत कर गुजरान चलाणे लगे, दो तीन पीढ़ियां वीतनेपर धर्म करणी भूल गये, उपदेशक कोई था नहीं, विना खेवटिये नाव गोता खावे. इसमें तो आश्चर्य ही क्या. उहां इतना मात्र जाणते रहै के, हम जैन महाजन फलाणे २ गोत्रके हैं. तद् पीछे संबत् सतरेसयमें एक आंचल सम्प्रदायके जती, कछके राजाके पास पहुँचा, और राजासें कहा मेरा कुछ सत्कार करो तो, वणियोंकी बस्ती ला देता हूं राजानें कहा जागीर दूंगा, गुरू भाव रक्खूगा, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब वह जती सिन्धमें पहुंचा और इन लोकोंको, मिला और पूछा इस देशमें सुखी हो या दुखो, तब वह लोक बोले मुसल्मीन लोक बहुत तकलीफ देते हैं, कोई जिनावर घरमें बीमार होता है तो, काजीको खबर देणा होता है, तब कानी आकरके हमारे घरपर जीतीं गऊके गले पर छुरी फेरता है, आधे मुसलमान हो गये हैं, उस जतीने कहा, हमको तुम जाणते हो, हम कौण है उन्होंने कहा, नहीं जांणते, तुम कौण हो, तब वह बोला, हमारे संग चलो, कच्छ भुज देशमें राव खंगारके राज्यमें, तुमकों सुखस्थानसें, वसादूंगा, वह सब इकट्ठे होकर, उस जतीके संग कछ देशमें आए, रावखंगारने सुथरी, नलिया, जखऊ आदि, गामोंमें, वसाया, बहुत खातर तब ज्या करी, अब वह जतीजी तो राज्यके माननीय, जागीरदार वण बैठे, एक तो राज्यमद, दूसरे बिना कमाया जागीरका धन, अब धर्म उपदेश इन्होकी बलाय करै, वो महाजन खेती करे, गुरुजी जागीरदारसें, रुपया व्याजसें उधार लेवे, रोटी भी जतीके यहां खालेवे, इत्यादि हाल ऐसा बणाके वावाजीका बाबाजी, तरकारीकी तरकारी, बाबाजी तुम्हारा नाम क्या बाबा बोले बच्चा वेगणपुरी, वो हाल वणाया तब राजानें अपने जो राजगुरू प्रोहित थे, वह इन्होंके गुरू वणा दिये, परणे मरणे जन्मणे पर, वो ब्राम्हनोंने अपना घर भरणे इन्होंको पोपलीला सिखलाई, अनेक देवी देव पुजाने लगे खेतीका काम करणेसें ज्यादह धनवान, इन्होंमें कोई नहीं था, क्यों के, नीतिमें लिखा है, ( यत) वाणिज्ये वर्द्धते लक्ष्मी किंचित् २ कर्षणे - अस्ति नास्तिच सेवायां भिक्षा नैवच नैवच ॥१॥ (अर्थ) व्यापारसे लक्ष्मी बढती है, खतीसें कभी होय कभी बरसात नहीं होय तो करजदारी हो जावे, नोकरीमें धन होय किसी झूमके, नहीं होय खाऊ खरचके, और भिक्षुक व भीख मांगणे वालेके कभी धन होवे नहीं लेकिन श्रीमाली ब्राह्मनकों वर्नके और भिक्षुकोंके १ इस तरह गुजरानं करते थे इस वक्त मुंबई पत्तनकों, अंग्रेजसरकार ने, व्यापारका, मानो सागरही खोलके वसाया, इस वक्त आंचल गच्छके श्रीपूज्यरत्न सागर सूरिःके दादा गुरू सम्बत् १८ गुजरातसें कच्छमें पधारे पहले मारवाड़में विचरते थे, इन्होंने जिन २ पूर्वोक्त गच्छोंके प्रतिबोधे महाजनोंकों, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महाजनवंश मुक्तावली अपणी हेतु युक्तियोंसे अपणे पक्षमें करे थे, वो कई दिनों तक इन्होंकी राह दखते रहै, ये तो कच्छ देशमें उतर गये, तब मारवाड़के आंचलिये, लोकोंने नागोरी, तथा गुजराती, कुंवरजीके, धनराजजीके पक्षको, मानने लगे, मारवाड़में ज्यादह प्रसार नागोरीलोकोंका हो गया, सम्बत् १८ में कच्छ देशके महाजन लोक जाती थोडी होणेके कारण, बेटी नहीं मिलणेसें, नाता भी करणे लग गये, उस वक्त आंचल आचार्यने, उन्होंको धर्मोपदेश देकर समझाया, खेतीमें महापाप है, कई लोकोंको सौगन दिलाई, व्यापारके वास्ते बम्बई पत्तन बताया, कइयक लोक इधर आए बदनके मजबूत और उद्यमी साहसीकपणेकर, पहली मजदूरी करनेसे कुछ धन हुआ पछैि साझेसे कम्पनी व्यापार खोला, गुरूदेवकी भक्ति और जती लोकोंके उपकार पर कायम रहै, दिन पर दिन चढ़ती - कला, अब और धनसें होती गई, नरसी नाथा कोट्याधिपति धर्मात्मा प्रथम हुआ, उसने बहुत सहायता देकर जातीका सुधारा करा, अड़बों रुपये जगह २ मन्दिर धर्मशाला गुरुभक्ति साधर्मी भक्तिमें कच्छ वासी श्रावकोंने सो डेढसे वर्षों में लगाया वह प्रत्यक्ष है, जती श्वेताम्बरियोंका जैसा मान पान भक्ति कच्छी श्रावक रखते हैं ऐसा कोई विरला रखता है, दस्सोंका नाता नरसी नाथेनें बन्द करा, अब तो धर्मज्ञ हो गये, लक्ष्मीसें कुसंप बढ गया, ये पञ्चम कालका प्रभाव, सब गच्छके थे, लेकिन वर्तमान आंचल गच्छ मानते हैं दस्से सब, बीसे कच्छमें मांडवी बंदरादिकमें सैकड़ों घर खरतर गच्छ अभी मानते हैं, वीसे व्यापारके वास्ते माग्वाइमें उठके कच्छमें बस गये, गुजराती कच्छमें गये वो तपागच्छ मानते हैं, (अथ श्रीमालगोत्र ) (उत्पत्ति) भीनमालनगरी जिसका नाम भगवान महावीर स्वामीके विचरते समय श्रीमाल नगर था, राजा श्रीमल्लकी पुत्री लक्ष्मी उसका विवाह करणेकी फिकरमें राजाने ब्राह्मणोंसें पूछा, मेरी कन्या साक्षात् लक्ष्मी तुल्य है, इसके लायक रूपवन्त, गुणवन्त वर राजकुमार मिलणेकी तदबीर बतलाओ, स्वयम्बर मण्डप करणेसे, बहुत राजा आंयगे, इसके रूपको देखकर, मोहित Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १०७ हो करके, आपस में लडकरके, लाखों आदमी मरेंगे, इसमें बदनामी मेरी होगी, तब ब्राह्मनोंने कहा, हे राजेन्द्र, अश्वमेघ यज्ञ कर, इसपर लाखों ब्राह्मण देश २ के एकत्रित होंयगे, उन्होंको पूछनेसे तथा जज्ञके पुन्यसे तुह्मारी कन्याको इन्द्रके समान वर मिलेगा, राजाने अश्रमेध यज्ञकी सामग्री असंख्य द्रव्य लगाकर तय्यार कराई भगवान महावीरका, समोसरण सत्रु जयतीर्थ की तलहटीमें हुआ, लाखों पशुजीवोंकी हिंसा देख, श्रीमलराजोंका प्रतिबोध, गौतमसे होणेवाला देख, भगवाननें गौतम गणधरकों आज्ञा दी, हे गौतम, श्रीमाल नगरीका, श्रीमल्ल राजा तुमसें प्रतिबोध पावेगा, लाखों जीवोंका उपकार होणेवाला है, इसवास्ते तुझारे शिष्य पांचसय साधुओं को संगले, तुम श्रीमाल नगर जाओ, भगवानकी आज्ञासे, गौतम विहार करते २ मरुधर भूमीमें प्राप्त हुए, इधर राजानें लाखों ब्राह्मणोंको, देश २ मेंसे निमन्त्रण देदे बुलवाया, वे सब यज्ञ करणे तइयार हुए, बोडेको देश २ में फिराके उहां लाए और भी जीव जलचर थलचर खचर ब्राह्मनोके वचनसें. श्रीमल्ल राजानें अग्निमें हवन करणेको मंगवाये हैं सो सब जीव त्रास पाते विलापात करते करुणा स्वरसे ऐसा जता रहे हैं, अरे कोई दयाका भरा हुआ महापुरुष हमारी अरजी सुणके हमे बचावे, हम बे कसूर मारे जाते हैं। अपने २ दिलमें तथा निजभाषामें कहते हैं अरे दुष्ट ब्राह्मणों हम स्वर्ग नहीं जांणा चाहते, ऐसे स्वर्गमें तुम तुझारे कुटुम्बके प्यारे, माता पिता भाई वगैरहको, क्यों नहीं पहुंचाते अरे मांस खाणेके लालचियो, हमारे प्राण लेणेसे तुमको स्वर्गके स्वप्न आवेंगें, इस हत्यारों राजा और तुम मांसाहार करणेसें, नरक पात्र होवोगे, जिसने एसा सास्त्र वणाया, और तुमकों ये क्रिया सिखलाई वह कभी मुक्ति नहीं पावेगा, दुर्गतिमें भटकेगा, हे अन्तर्यामी तुम पूर्ण ज्ञानसें सचराचर जीवोंके, अभ्यन्तरी परणाम सब देखते हो, आणते हो, हे प्रभु आप दयालु कृपालु हो अब हम निराधार निस्सरण अनाथ जीवोंकी, फरियाद सुनकर, हमारी सहायता करो, इस वखत गौतम गणधर उन २ जीवोंकी कामना मनपर्यव ज्ञानसे, जाणकर, लद्धिबलसें शीघ्र उहां पहुंचे, उहां यज्ञ में हवन होणेवाले जीवोंके, प्रतिपाल, यज्ञशालाके, बाहिर ठहरकर, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महाजनवंश मुक्तावली दयाधर्मका उपदेश करणे लगे, तब अग्निहोत्री ब्राह्मण गौतमके बहुतसे गोत्री, सगे मुसरे, साले, मामा, फुफा, वगैरह तथा पांचसय मुनियोंले सगे, कुटुम्बी वगैरह, गौतमकों, देख, वेद पाठी यज्ञका निर्धार करणे आए, गौतमने न्याय सूत्रसें. सबोंके मनमें. दयाका अंकुर बोदिया, यज्ञ याजन पूजायां. श्री जिनराजके मूर्तिकी पूजा है सो गृहस्थोंके ताई दयाधर्म रूपयज्ञ है, श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रमें दयाके साठ नाम, जिसमें पूजा है सो दया है, तब उन्होंने यज्ञका स्वरूप समझा, पंचेद्री जीवोंका हणना, यज्ञ छोडा, सम्यक्त्व युक्तव्रत धारी ब्राह्मण हुए, उह श्रीमालनगरके होणेसें, श्रीमाली ब्राह्मण दया धर्मी संज्ञा हुई. बाकी पंच गौड देश वासी. तथा पंच द्राविड़ देशवासी, जो जो ऋषि उस यज्ञमें, हाजिरथे, उन्होंने तो जीवकों होमणेका यज्ञ छोडा, और मांस मदिरा पीणा त्यागकर दिया, गौतमके चरण पूजणे लगे, सब जीवोंको यथास्थान पहुंचाया. उहा सवालक्ष राजपूतोंने श्री मल्लराजाके साथ, जैनधर्म धारण किया, उन श्रीमालोंकी एकसौ पैंतीस जातस्थापन हुई, पंचाल देशी (पंजाब ) बंगदेशी कन्नौजदेशी सरबरिये इत्यादि ऋषि विप्र जो यज्ञमें नहीं आए थे, वह सब मांसाहारी ही रहै, क्योंके वेदका यज्ञ तो, जैनाचार्योने, प्रायः आर्या वर्तमें वन्द कर दिया, तथापि वह ब्राम्हण तो, मांस खातेही रहै, दायमा गौड, गूजर गौड, संखवाल, पारीक, खण्डेलवाल, सारस्वत, और वाघड़, कर दिया तथा वह ब्राम्हण तो इत्यादिकोंने, गौतमके उपदेशसें, मांसमदिराका खान पान करणा यज्ञ छोड़ा, इस तरह राजपूत ब्राह्मण दयाधर्मी गुरू गौतमके सेवक हुए, पूजा गौतमकी करणे लगे, उसके पीछे मुल्क २ में अलग २ वसणेसें श्रीमाली ब्राह्मणोंकी ४ शाखा फंट गई मारवाड़ी १ में वाड़ी २ लटकण ३ और ऋषि ॥ इस यज्ञमें सैंधवारण्यवासी (सिन्ध देशके जंगलमें रहणेवाले ) पांच हजार ब्राम्हणोंकू गौतमका उपदेश कर्मयोग नहीं रुचा वैदोक्त पुरोडासा खाणेको यज्ञक्रिया अवादिक हवनकों सत्य मानते गौतमकी पूजाको व सत्कारकों नहीं सहते गौतमकी निंदा करणे लगे तब श्रीमल्ल राजाके हुक्मसें सर्वतत्रस्थ ब्राम्हणोंने ब्रम्हकर्म, रहित जांण, आर्यबेदके बाहिर किया रावणके दिग्विजय Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १०९ समय पर्वत ब्राम्हणसें पशुवधरूप यज्ञ प्रारम्भ हुआ आर्यवेदो में मांसाहा रियोंनें हिंसक श्रुतियें वणाकर मिला दी उव्हट महीधर सायन आदिक भाष्यकर्त्ताओंने भी वेदोंका अर्थ पशुवध रूप यज्ञ कर मांस भक्षण लिखा इसलिए श्रीमालमें बहुतोंकी सम्मती गौतम के सत्य दयाधर्म पर ठहर गई वो विप्र पीछे सैंधवारण्यको चले गये खेती करणे लगे भाटी राजपूत जो सिन्धुदेशमें तथा लबाणे जो सिन्धुदेशमें दरियावकी मच्छियों को मुकाकर वेचते थे उन्होंके गुरू बण गये अब भी उन्होंके गुरू यही हैं जब सम्बत् सतरहमें औसवाल लोक सिन्ध देशसें कच्छ देशमें आए तब कईयक भाटीये लत्राणे कच्छ में आवसे, उन्होंको वल्लभाचार्यजी गुसांईजीने, वह व्यापार छुडाकर, व्यापारी वणादिया, जो अब भाटिया वजते हैं, अब थोड़े ही अरसेमें, श्रीमल्लराजाकी राजधानी पर सिरोही गढके राजा पमारका पुत्र, भीमशेन, राजपूतोंको संग ले, श्रीमाल नगरीको घेरलिया, तब राजा श्रीमलनें विचारा मैं वृद्ध हूं पुत्र मेरे है नहीं, एक कन्या लक्ष्मी है, में युद्ध करणेके समर्थ हूं मगर युद्धमें लाखों जीवोंका संहार करणा, आखिर तो कोई दूसरा ही राज्य करेगा, जीव वधका पाप मुझे भोगणा होगा, ये घर पर गंगा, आगई है, पुत्री देकर पुत्र गोद ले लेणा, दुरस्त है, ऐसा विचार राजा श्रीमलने अपने प्रधान सुबुद्धिके संग भीमसेंन को कहला भेजा के मेरी पुत्री आपको दी, व्याह करके हथलेवे में श्रीमाल नगरका राज्य दिया, राजा श्रीमल्ल सब राजरीती सत्रोंका कुरव कायदामान मुलायजा पुन्य दान किए हुए ग्रांम मुसद्दियोंकी खातरी सत्र गुप्त रहस्य, जामातको सिखलाते ५ वर्ष श्रावक धर्म पालते राज्यमें रहै तब लक्ष्मीराणीके दो पुत्र हुए ऊपलदेव १ और आसल २ और आसपाल पीछे हुआ ३ राजा भीमसेंन आसलकों नानेके गोद दिया और राज्य का हक्क आसलकों कर दिया आसलका नानेके नामसे वोही श्रीमाल गोत्र रहा वाद श्रीमल्ल राजा जामात की वेटीकी आज्ञा लेकर गौतम पास जाके राजग्रहीमें दीक्षा लेकर तपकर कवल ज्ञानपाय मोक्ष गये, भीमसेनका मत वाममार्ग था, ऊपल और आसपाल वाममार्ग मानते रहै आसल फक्त जैन नामधारी, नानेके नामपर रहा, जैनधर्मकी शिक्षाचार Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० . महाजनवंश मुक्तावली नहीं जांणता था, भीमसेनके राज्यमें, श्रीमाल वंस वाले जैन धीरे धीरे गुजरात, गोटवाड मालवा, हिन्दुस्तानमें क्रममें विखर गये, श्रीमाल नगरका नाम भीनमाल धरा गया जब उपलदेव होशमें आया तब पिताकी आज्ञा लेकर, छोटेभाई, आसपालकों, संग ले, ओसिया पट्टण जा वसाई, यहां वृद्ध अवस्थामें, रत्नप्रभमूरिःने, इन्होकों जैनधर्म धराया, श्रेष्टि गोत्र स्थापन किया, आसपालका लघु श्रेष्टि गोत्र थापा श्रेष्टि गोत्र तो • १२०१ में वैद वजणे लगे, लघु श्रेष्टि वाले सोनपालजीके नामसे सोनावत बजणे लगे, भीनमालमें भीमसेनकी गद्दी आसल वैठा, वो भी रत्नप्रभसूरिःसे जैनधर्मको धारण करा श्रीमाल गोत्र इसी वास्ते १८ गोत्रोंमें गिणते हैं, श्रीमाल गोत्रकी थापना गौतम स्वामीने ही करदी थी, अब लक्ष्मी माता वृद्धावस्थामें विचारणे लगीं, के मेरे पिताके हाथमें, ५००० विग्र निकाले गये तब इन्होंने अपने पुत्र आसलकों कहकर, उन सबोंको बुलाया और गौतम गुरूकी आज्ञा दयाधर्म पालणा कबूल करवाया टाडमाहव राजपुतानेके इतिहासमें पुष्करणोंका ओडोंस होना लिखा है. ये बिना विचार लिखा गया, पुष्करणे सनातन है नूतन नहीं है क्योंके गौतमकी अवज्ञा करी थी ब्राह्मणोंसे भिन्नता की थी इस वास्ते तत्रस्थ विनों को प्रशन्न करा बेदाधिकार देकर ब्रह्मकर्म नेष्टित करा, दुसरे ब्राह्मण श्रीमाली छन्यातवाले कहते हैं पुष्कर खोदणेसें ओड़ोकों ब्राह्मण करा ये वाती असत्य है यह वार्ता, द्वेषमें बाकी ब्राह्मणोंने शुरु कर्ग है उस समय ब्राह्मणों की आज्ञा नहीं मानी दयाधर्म और गौतम स्वामीकी अवज्ञा करी थी, राजाके देवी सच्चाय थी वह पुष्करणोंनेमानी, सिन्धमें देवी जंठाथी, गोत्र पुष्करणोंका, साण्डिल्यम वगैरह जातिका जुदा जुदा है, एक २ गोत्रमें छव २ नख हैं जैन शास्त्रसें, पोसह करणा माहन, भरत चक्रवतिनें, नाम थापन करा था, पर्व तिथीमें पोषध करणेवाले (धर्मस्य पुष्टिं धत्ते इतिपोषध ) धर्मकी पुष्टि करणे वाले, जैनधर्मी असंक्षा वर्षतक रहै, फेर और धर्म सबोंने मनमतसें आजिवीका. रूप कर डाला, उस पोसह करणा शब्दका अपभ्रन्श पोकरणा लोक कहणे लगे, श्रीमाली ब्राह्मनों की देवी वा राजपुत्री लक्ष्मी है, फिर स्वामी शङ्करा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. १९१ . चार्यके जुल्मसें श्रीमाली पुष्करणे ब्राह्मनोंने वेद कृत्य कबूल करके यज्ञका मांस खाणा तो कबूल नहीं करा लेकिन मन्नावत श्रीमाली दशहरा वगैरह पर्वो पर लपसीका भेसा वणाकर कुसाघास डाभसे वेद मंत्र पढकर उसके गर्दन पर फेरके प्रशादी वांट खाते हैं ये महिमा अब भी वेदके यज्ञकी करते हैं पुष्करणे ब्याहमें आधी रातको कोरपाण वस्त्रपर सब बैठके गुड़की लपसी और दूध खाते पीते हैं वाद कलसा जांनके दिन जनेऊ ... कर स्नान करते हैं ये निशाणी स्वामी शंङ्कराचार्यजीने पीछी सिखलाई, जो कि अब भी करते हैं, अब तो इन्होंमें सुद्धा चारकी वृद्धि है, त्याग देना ही उत्तम है, क्योंके वुद्धे फलंतत्व विचारणंच ज्ञाति सुधार विद्या वृद्धिसें संम्बन्ध धराता है, विक्रमसं. सातसयमें श्रीमाली ब्राह्मणोंने श्रीमाल पुराण वणाया, उसमें कुछ भेद पाठान्तर ये बात लिखी है, हिन्दमें संप नहीं, करमसोत राजपूतोंका कटक नहीं कुत्तों की कतार नहीं, पोकरणोंके पुराण नहीं, श्रीमाल पुराणके अन्तर्गतही अपणी उत्पत्ति मानते हैं, कई पुष्करणे भीनमालमे कच्छमें गये, आधे मरुधर, जेसलमेर. पोकरण, फलोधी, मल्हार जोधपुर बीकानेर, छड़े बिछड़े, और २ जगह, इस वक्त सब पोसह करणे ४० हजार करीब होंगे, विशेष गोकुली गुशाइयोंके संखा वण रहे हैं, बाकी कुछ शाक्त हैं। __श्रीमाल वणिक गुजरातमें श्रीमाली दसावीसा बजते हैं गोत्रका नाम नहीं जांणते स्वामी शङ्कराचार्यजीके हमलेमें जैनधर्म छोड शैवमती विष्णुमती हो गये थे गुजरातमें हेमाचार्य ने फिर जैनधर्म इन्होंका कायम रक्खा सगपण जैन विष्णुवोंके होता है दिल्ली लखनऊ आगरा जयपुर झुझणूके जो श्रीमाल है इन्होंको श्रीजिनचन्द्र सूरिःने शैव धर्मसें प्रतिबोध देकर जैन धर्मी करा वह सब खरतर गच्छमें हैं बड़े २ श्रीमन्त लक्षाधिपती श्रीमाल गोत्री धर्मज्ञ हैं इन्होंकी १३५ जाति राजपूतोंसें फंटी है,। (श्रीमाल गोत्र १३५) १ कटारिया २ कहूंधिया ३ काठ ४ कातेला ५ कांदइय ६ कुराडिक ७ काल ८ कुठारिये ९ कूकड़ा १० कौडिया ११ कौनगढ़ १२ कंबो Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महाजनवंश मुक्तावली तिया १३ खगल १४ खारेड १५ खारे १६ खौचडिया १७ खौसडिया १८ गदउडघा १९ गलकटे २० गपताणिया २१ गदइया २२ गिला हला २३ गांदोडिया २४ गूजरिया २५ गूजर २६ घेवरिया २७ घौघडिया २८ चरड़ २९ चांड़ी ३० चुगल ३१ चडिया ३२ चंदेरीवाल ३३ छकडिया ३४ छालिया ३५ जलकट ३६ जूड ३७ जूडीवाल ३८ जांट ३९ झामचूर ४० टांक ४ १ टांकरिया ४२ टींगड ४३ डहरा ४ ४ डागड़ ४५ डूंगरिया ४६ ढोर ४७ ढौढा ४८ तवल ४९ ताड़िया ५० तुरक्या ५१ दसान ५२ धनालिया ५३ धूवना ५४ धूपड़ ५५ ध्याधीया ५६ तावी ५७ नरट ५८ दक्षणत ५९ नाचण ६० नांदरीवाल ६१ निवहटीया ६२ निरदुम ६३ निवहेड़िया ६४ परिमाण ६५ पचौसलिया ६६ पड़वाड़िया ६७ पसेरण ६८ पंचोभू ६९ पंचासिया ७० पाताणी ७१ पापड़गोत ७२ पूरबिया ७३ फलवधिया ७४ फाफू ७५ फोफलिया ७६ फूसपाण ७७ बहापुरिया ७८ वरड़ा ७९ बदलिया ८० बंदूवी ८१ बाहकटे ८२ बाईसझ् ८३ बारांगोत ८४ बायड़ा ८५ विमनालक ८६ वीचड़ ८७ बौहलिया ८८ भद्रसवाल ८९ भांडिया ९० भालोदी ९१ भूबर ९२ भंडारिया ९३ भाडूंगा ९४ भोथा ९५ महिम वाल ९६ मऊठिया ९७ मरदूला ९८ महतियाण ९९ महकुले १०० मरहटी १०१ मथुरिया १०२ मसूरिया १०३ माधलपुरी १०४ मालवी १०५ मारूमहटा १०६ मांदोटिया १०७ मूसल १०८ मोगा १०९ मुरारी ११० मुदड़िया १११ राडिका ११२ रांकिवांण ११३ रीहालीम ११४ लवाहला ११५ लडारूप ११६ सगरिप ११७ लडवाला ११८ सागिया ११९ सांभडती १२० सीधूड़ १२१ सुद्राड़ा १२२ सोहू १२३ सौठिया १२४ हाडीगण १२५ हेडाऊ १२६ हीडोय्या १२७ अंगरीप १२८ आकोडूपड़ १२९ ऊबरा १३० वोहरा १३.१ सांगरिया १३२ पलहोट १३३ घूघरिया १३४ कूचलिया ११५ ।। इसतरह श्रीम लोंकी १३५ जाती थी बहुतसी तो गुजरातमें बसनेसें गोत्र मारे गये, गुजरातमें गोत नहीं, मारवाडमें छात नहीं, इस न्यायसें और Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. वाकी देशोंमें, जो श्रीमालोंकी वस्ती है, उन्होंमें गोत्रका पत्ता लगता है, भीनमाल गुजरात मारवाड़की संधी पर है, इस वास्ते श्रीमालोंके विवाह मरणे परणे का रिवाज, गुजरातियोंकी राह मुजब है, अब तो गुजराती श्रीमालियोंकी, अनेक तरहकी नई जाती संज्ञा बन्धगई है, जैसे के मारफतिया, घमघम, देवी इन्होंकी लक्ष्मी है ये बात यथार्थ मिलती भी है श्रीमाली ब्राह्मण और श्रीमाल लक्ष्मी के तो पात्रही हमने बहुतों को देखा है, ( पोरवाल जांगडा गोत्र २४ ) ११३ श्री पद्मावती नगर (पारेवा) में २४ जातके राजपूतों के सवालक्षगृह वसते थे, इन्होंको महावीर स्वामीके ५ में पट्टधारी, श्रीयशोभद्रसूरिः प्रभुके निर्वाण पीछे डेढ़ से वर्ष करीब विक्रमके पूणा तीनसय वर्ष करीब पहले प्रति बोध देके, जैन धर्म धारण कराया, पारेवा नगरके होणेसें पोरवाल कहलाये, पीछे फिर कई हजार घर शैवधर्मी राजाओं की नोकरीसें होगये, वाकी जैनधर्मी रहै, विक्रम राजाके १०८ वर्ष वीतने पर, पोरवाल जावड़सा, बड़े नामी, शूर वीर जिनधर्मी अड़बों रुपये लगाकर, जिनमन्दिर, जीर्णोद्धार, सात क्षेत्रों में द्रव्य लगाया, सत्रुंजयका संघ निकालकर, कोड़ो सोनइये, जात्रियोंके लिये लगाये, फिर सत्रुंजय तीर्थका चौदहमा उद्धार कराया, सोले उद्धारोंमें इन्होंका नाम मौजूद है, कई हजार घर विष्णुधर्मीयोंको हरिभद्रसूरिःनें, प्रतिबोधे फिर संम्बत् एक हजारमें उद्योतनसूरिः जीके निजपट्ट धारी, वर्द्धमानसूरि : वैश्नव विमलशाह मंत्रीके, गोत्रवालोंको, तथा विमल मंत्रीको उपदेश दे आबू तीर्थ ब्राह्मणोंने दबा लिया था सो अठारह कोड बावन लाख सोनइये खरच ब्राह्मणोंको द्रव्य दे खुशकर पीछे कबजा करा वर्द्धमानसूरिःने मंत्राराधना से अम्बिका देवीको प्रत्यक्ष कर बादशाहोंको, बुलाया, जमीनमें अलोपमन्दिर पुष्पमाल ब्राह्मगों की कुमारी कन्या के, हाथसे, जहां गिरे, उहां ही जिनमन्दिर है उसस्थान प्राचीन मन्दिर निकला ये सब विस्तार खरतर गच्छकी गुर्वा वीमें विस्तार से विवरण लिखा है, जिनमन्दिर करवाया, सो विमलवसी नाम सें विक्षात है, फिर वस्तुपाल तेजपाल, वह सब संघ में दस्सा करनेवाला, इन्होंने , १५-१६. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ महाजनवंश मुक्तावली. जगच्चन्द्र सूरिःको चित्तोड़के राणेके पास महातपा विरुद दिराके, आचार्य पदका नन्दी महोत्सव करा, महातपाका तपानामक रलिया जगचन्द्र सूरिःका, जगह २ विहार करवाया तपागच्छ माननेवालोंको हजारोंको श्रीमन्त बणाया, १३ मत्रुजयका संघ निकाला वे गिणतीका द्रव्य इन्होंने लगाया, तपागच्छकों बहुत सहायता दी, इन्होंकी सहायतासे मारवाड़, गुजरात, गोढवाडमें तपागच्छ फैला, आज विद्यमान जो २ मन्दिर जैनियोंके मौजूद है, क्रोड़ोंके लागत केमो सब पोरवालोंकाही कराया हुआ है, वाकी जैनराजाओंका श्री श्रीमाल श्रीमाल ओसवालादिकोंका कोड़ों की लागतका कराया हुआ मन्दिर मुसल्मान बादशाहोंने नामी मन्दिर तीन लाख तोड़ डाले गुर्जर भूपावली वगैरह इतिहास देखणेसें मालुम होता है फिर निन्नाणवे लाखसोनइये धन्ने पोरवाल राणपुरेके मन्दिरकों लगाया ऐसे २ धर्मात्मा पोरवाल वन्शमें होगये समय मुताविक मन्दिरोंकी भक्तिमें अब भी लगाते हैं गोढवाड़में जैन पोरवालोंकी वस्ती बहुत है खरतर गच्छमें भी पोरवाल बहुत थे उपाश्रय खरतरोंके खालीपड़े खरतर साधुओंका बिहार कम हुआ इस ६० वर्षों में तपागच्छी साधुओंका जाणा आणा वणतेरहा गच्छ दोनों पोरवालोंका है खरतर तपा मालवेमें चह्मल नदीके किनारे तीन हजार घर अभी भी वैष्णव धर्मी है । ( पोरवाल २४ गोत्र नाम ) . १ चौधरी २ काला ३ धनघड़ ४ रतनावत ५ धनोट्या ६ मजावट्या ७ डबकरा ८ भादल्या ९ सेठया १० कामल्या ११ ऊधिया १२ वखरांड १३ भूत १४ फरक्या १५ लभेपस्या १६ मंडावऱ्या १७ मुनियां १८ घाट्या १९ गलिया. २० भैसोंटा २१ नेवपऱ्या २२ दानगढ , २३ महता २४ खरड्या, देवी इन्होंकी पद्मावती है। .. (हुंवड़ गोत्र ) पाटण नगरका राजा अजित शत्रु, जिसके पुत्र दो, भूपतिसिंह १ भवानी सिंह २ भूपतिसिंहकी माता, देवलोक होगई, भवानीसिंहकी माता, पाटराणी, रानाके माननीय थी, राजपूतोंकी रसम है, बड़ा पुत्र होयसो, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. ११५ 'पाटका मालिक हो, वैश्य महाजनोंकी रसम है छोटा पुत्र घरका मालिक होय हिस्सा बराबर जितने पुत्र होय जितना करें, पिताके जीते दम एक पत्तीपिता अपणी रख लेवे, माताके जीते माता अपणा सब गहणा रख लेवे, पीहरसें मिला हुआ भी, माताको रखनेका अधिकार है, देवे तो खुशीसें हिस्सेमें दे सकती है लेकिन कायदेसें, हिस्सेदारोंका हक्क नहीं है, वह माता पिताके मरेवाद, छोटे पुत्रका होता है, यदि माता पिताका दिल दुसरे पुत्रोंको, या और किसीकों, देणा धारे देसकते हैं, पुत्रोंको रोकणेका अधिकार नहीं है, मातापिताके पास कुछ होय नहीं तो, पुत्र हिस्से मुजब, उन्होंका गुजरान चलावै, इसमें एक धनवंत कमाणेवाला होय तो वोही माता पिताके निर्वाहका जुम्मेवार होता है, सिरपर ऋण, कुटुम्ब खरचका होय तो, · सब पुत्र हिस्से मुजब देणेमें जुम्मेवार है, कोई भाई बड़ा व छोटा अङ्गहीण कमाई रहित होय तो, वाकी भाई मिलके, या समर्थ एकही, रोटी कपड़ा देणेका जुम्मेवार हो, राजाओंके बड़ा पुत्र राज्यपती होता है इत्यादि कायदेसें विचार भवानी सिंहकी माता अपणे पतीकी बहुत भक्ति करणे लगी; रानाके भोजन करे पीछे भोजन करै, प्रभात समय मुख देखे विना मुंहमें पाणी नहीं डाले, पतीको निंद्रा आये पीछे आप सोवे, बिना हुक्म कोई भी काम नहीं करै, इसतरह पतिव्रता धर्म, पालती हुई, रहै एकदिन राजा परिक्षाके वास्ते राज्यकार्य करता रहा, जब रातको च्यार वने राजा रणवासमें गया तो राणी खड़ी हुई सामने आई राजाने पूछा, क्यों आज सोई नहीं, तब राणी बोली, हुजूरने शयन नहीं फरमाया, मेरा तो क्या, तब राजा सत्कार कर बाहिर आया, और नाजरकों पूछ निश्चय किया, राणी बिल्कुल रातभर खड़ी रही, तब राजाने राणीके पास जाकर प्रसन्नतासे बोला, तुम्हारे सत्वपरमें प्रशन्न हूं जो मांगणा होय सो मांगो, राणी बोली हुजूरकी महरवानी, राजा बोला, महरबानी तो वनी ही है, लेकिन कुछ मांगो ( यतः) सकृद् जल्पन्ति राजानः सकृद् जल्पन्ति साधवः ) सकृद् कन्या प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृद् २ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ महाजनवंश मुक्तावली. ( अर्थ ) राजाकी आग्या एक, साधु वाक्य एक, कन्या एक बेर दी जाती है, ये तीनों एक ही होते हैं ? पुनः ऐसा भी कहा है, अमोघं वासरे विद्युत् अमोघं निशि गर्जनं, अमोघं साधुवाक्यंच, अमोघं देवदर्शनं ? ( अर्थ ) दिनकी चमकी बीजली, रातका गानना, यथार्थ साधु हो उसके वचन, और देवताका प्रत्यक्ष दर्शन व्यर्थ नहीं होता ? इस लिये वर याच, तब राणीने कहा, स्वामी आपका अंग जात भवानी सिंह ठाकुर होगा के राजा, राजा समझ गया के राणी पुत्रकों राज्य मांगती है, राजा बोला, जा तेरे पुत्रको राज्य दिया, भूपतिको जागीर दूंगा राजानें कई अर्से पीछे बडे पुत्रको जागीर तीसरे हिस्सेका दिया, भूपतिनें कबूल करा, राजा परलोक पहुंचा, पिताके तख्त भवानी सिंह बैठा, भूपति सिंहनें अपणे बलसें पिता जितना राज्य बढालिया, अनेक राजा पायना मी हुए, तब भवानी सिंहनें, ईर्ष्यासे दूत भेजा, तूं मेरी सेवा कर, राज्यपती मैं हूं, तूं सामन्त है, भूपतिने गिनारा नहीं, तब लड़णेको फौज भेजी, तब भूपति सिंहने भाईको, अन्याई जाणकर, फौजकों मार भगाई, और आप आके पाटणके बाहिर कर घेरा दिया, दोनोंके घोर युद्ध हुआ, तब इस भूपति सिंहका मामा, वृद्ध भोजराना समझाणे आया, लेकिन दोनों भाई माने नहीं इतनेमें मान तुंगाचार्य भक्तामरस्तोत्रके कर्ता, उस वनमें समवप्तरे, मामा भाणनेकों ले, वन्दनकों गया, और गुरूसें धर्म देशनासुनी, चित्तमें धर्मकी वासना हुई, तब गुरूसें बोला, हे गुरू हूंबड़ हूं, और भवानी लघु है, इस वातकों आप, न्यायसें फरमा दो, कसूर किसका है, । गुरूने वृत्तांत सुण कहा तूं सच्चा है, और भवानीका पक्ष अहंकारपूरित है, तब राजा भोजने, अपना मनुष्य भेजके भवानीको बुलाके चरणोंमें लगाया, तब प्रशन्न होकर भूपतिनें सत्र राज्य अपना भी भाईकों देदिया, और अपने पुत्रोंयुक्त जैन महाजन श्रावक हुआ, सत्रुजयका संघ निकाला, गुरूके सामने कहा था के, हूं बड़ हूं, तत्र गुरूने जातीका नाम हूंबड धा, पीछे परिवार बहुत बढा कुमुद चन्द भट्टारकने, कई घर दिगाम्बर धर्ममें किए, कई घर विष्णु होगये Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. . . ११७ थे, उन्होंको अठारह हजार वाघड़ देशमें रहनेवाले, जो वाघड़ी वजते थे, उन्होंको खरतरा चार्य, वल्लभ सूरिःने, प्रतिबोध दे खरतर किये, धुंधुंकानगरीमें जिल्लागर हूंबडनें, अपना पुत्र, बल्लभसूरिः को बहि राया, वो दादा श्रीजिनदत्तसूरिः भये, इस तरह मालवा, मेवाड़, गुजरात, वगैरह देशोमें, हुंबड़ दिगाम्बर स्वेताम्बर, दोनों वसते हैं,। (गोत्र १८) .. . सं. गोत्र. वंश. सं. गोत्र. वंश. सं. गोत्र. वंश. १ खेरजा गहाया । ७ भद्रेश्वर । भाटी १३ सोमेश्वर कछावा २ कमलेश्वर परमार ८ विश्वेश्वर सोनगरा १४ जियाण । हाड़ा ३/ काकडेश्वर • सोलंखी ९ संखेश्वर झाला १५ ललितेश्वर | गहोडिया ४| उत्रेश्वर चौहाण १० गंगेश्वर जादव १६ शृंगेश्वर पडिहार ५. मात्रेश्वर राठोड़-११ अम्बेश्वर नेहरा १७ कास्यपेश्वर चुवाल |६| भीमेश्वर | देवड़ा १२ मामनेश्वर | सीसोदिया १८ बुधेश्वर । चन्द्रावत ( चौराशी गछोंके नाम ) २३ में श्रीपार्श्व प्रभुके शिष्य वर्गोका, उपकेश गच्छ वनता था, केशी कुमारके नांमसें, वह आचार्य मंदाचारी चैत्यवाशी होगये, पछै उद्योतन सूरिके पास ८३ थविरोंके, और भी शिष्य जो त्यागी वैरागी महाव्रती वजते थे, उसमें पार्श्वप्रभुके शंतानीभी, एक थविरके शिष्य पढते थे, महावीरस्वामीके ११ गणधरोंके नव गच्छमेंसें एक 'सुधर्मा स्वामीकाही गच्छ, कायम रहा, वाकी गणधरोंके शिष्य मुक्ति गये, इस गच्छका नाम तो यथार्थमें सौधर्म, निग्रन्थ गच्छ हुआ, बाद क्रम२ से आचर्यों के शिष्यवर्गोंसे, गच्छ कुलशाखा अनेकानेक चली, जोकि श्रीकल्प सूत्रमें दरज़ है, काल दोषसें, सब गच्छ प्रायः थोडे रहै सम्बत् ९०० से विक्रमकेमें शंकर स्वामीने राजोके बलते अत्याचार करा जिस कारण कोटिक गच्छ चन्द्रकुल वज्र शाखाधर आचार्य वृहद्च्छी श्री नेमिचन्द्रसूरिःके पट्ट प्रभाकरश्री उद्योत्तनसूरिः महागीतार्थ प्रभावीक, त्याग वैराज्ञ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महाजनवंश मुक्तावली. विराजित, महाव्रती, एक आचार्यही सं. १००० में विचरते रहै, वाकी सब थविर नामसे विख्यात थे, आज्ञा सबपर उद्योतनसूरिः हीकी थी, तब गुरूमहाराज जैन धर्मके उद्योतका समय अर्द्ध रात्रिकों, नक्षत्रोंका स्वरूप देख, वृद्धिभावसे, प्रथम निज शिष्य वर्द्धमान सूरिकों सूरि मंत्र दिया, फिर ८३ विद्यार्थियोंको. भी सूरिः मंत्र दिया, वह सब चौरासीही पालीताणेके सिद्ध बड़के नीचेसें ही गुरूके हुक्मसें अलग २ विचरे, उन्होंने ज्ञानयुक्त क्रियासें, अपणे २ गच्छ प्रगट करे, साधु साधवी आत्मार्थी बणाये उन्होंके नाम ८४ प्रथम निज शिष्य वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरिःको खरतर विरुद मिला वह १ खरतर गच्छ २. सर्व देव सूरिका बड़ गच्छ पूनमिया ३ चित्रावाल गच्छ विच्छेद जाकर तपागच्छ प्रसिद्ध हुआ ४ उपकेश गच्छी ओसियांमें जाके शिष्य वर्ग वधाया, इस करके ओसवाल गच्छ कहलाया, ये अभी चारों विद्यमान है, ५ जीरावला गच्छ ६ गंगेसरा ७ केरंडिया ८ आंणपुरी ९ भरुअच्छा १० उढ़विया ११ गुप्तउवा १२ डेका उवा १३ भीनमाला १४ मुंहडसिया १६ दासरुवा १६ गच्छपाल १७ घोषपाल १८ मग उडिया १९ ब्रह्माणिया २० जालोरी २१ बोकडिया २२ मुझाहड़ा २३ चीतड़िया २४ सांचोरा. २५ कुचड़िया २६ सिद्धान्तिया २७ मसेणिया २८ आगम २९ मलधार ३० भावरानिया ३१ पल्लीवाल ३२ कोरंटवाल ३३ नाकदिक ३४ धर्म घोषा ३५ नागपुरा ३६ उस्तवाल ३७ तोषाबला ३८ सांडेरबाल ३९ मंडोवरा ४० सूराणा ४ १ खंभायती ४२ बडउदिया ४३ सोपारिया ४४ नाडिया ४५ कोछीपुरा ४६ जांगला ४७ छापरिया ४८ बोरसडा ४९ दो चंदणका ६० बेगड़ा ५१ बायड ५२ बिजहरा ५३ कुतपुरा ५४ कोचलिया ५५ सदोलिया ५६ महुकरा ५७ कपूरसिया ५८ पूर्णतल्ल ५९ रेव. इया ६० धूं धूं षा ६ १ थंभणिया ६२ पंचवलदिया ६३ पालणपुरा ६४ गंधारा ६५ गुवेलिया ६६ सार्द्ध पूनमिया ६७ नगरकोटा ६८ हिंसारिया ६९ भटनेरा ७० जीतहरा ७१ जगायन ७२ भांमसेणा ७३ तागडाया Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -महाजनवंश मुक्तावली. ११९ ७४ कंबोना ७५ सेवनागच्छ ७६ वाघेरा ७७ बाहड़िया ७८ सिद्धपुरा ७९ घोघरा ८० नेगमिया ८१ संजमा ८२ बरडेवाल ८३ बाड़ा ८४ नागउला, । ये सब गच्छ कोई नके नांम कोई क्रियासें कोई विरुदपानेकें कारसें नांम भये । ( अथ जैनी श्रावगी गोत्र ८४ खंडेलवाल ) प्रथम आदीश्वर भगवानसें लेकर महावीर स्वामीतक जैन धर्मके पालने वाले श्रावक कहात्तेथे महाबीर स्वामी के मुक्ति गये पीछे चारसय तेइस वर्ष . जब बीते, तत्र पीछे उज्जैण नगरमें, विक्रम सम्बत सूर्य वंसी पमार राजा विक्रमादित्यनें चलाया, विक्रम सम्बत् १ एककी सालमें, अपराजित मुनिः के सिंघाड़ामेसें, जिन सेना चार्य १०० सौ मुनिराजको साथ लेकर बिहार करते २ सम्बत् १ एककी मिती माह सुदी १ को खण्डेला नगर में आये, ( खण्डेला नगर जोकि जयपुर राज्यके इलाकेमें है, इसवक्त ) खंडेलाका राजा खंडेलगिरी सूर्य वन्सी चौहाण राज्य करता है अतराप खंडेला ८३ गांम लगे उस राजधानी में कई दिनोंसें महामारी विषूचिका रोग फैल रहा था हजारों मनुष्य मर रहे थे, तब राजा रय्यतका फिकर करता, ब्राम्हनको पूछने लगा हे भूदेव, ये उपद्रव कैसै मिटै, तब ब्राम्हणोंने कहा, हे राजा, नरमेध यज्ञकर, उससे शान्ति होगी, तब राजाने यज्ञ प्रारम्भ करा और ब्राम्हणोंकी आज्ञा मुजब बत्तीस लक्षणवन्त पुरुष लाणेकी आज्ञा दी, अपने नोकरोंकों, उसवक्त एक मुनिश्मशान भूमिमें ध्यान लगाकर खड़े थे, उन्होंको राजाके नोकरों ने पकड़के, यज्ञशालामें ले आये, उन्होंको स्नान कराकर गहणा वस्त्र पहराकर राजाके हाथसें तिलक कराकर हाथमें ब्राम्हणोंने, साकल्य देकर बेदमंत्र बोलते, बेदी कुण्डमें स्वाहाकर पुरोडासा वाटते भये, ब्राम्हणांनें, राजासें, कैसा अनर्थ करा यां उस पापसें, मुल्कमें, असंक्षा गुणा १ कोई जमाना ऐसा मिथ्या हिंसा धर्म ब्राह्मणोंने फैलाया था घोड़े गऊ बकरे हिरण आदि ६०९ तरहके नाना जीव यज्ञमें होमे हुए ब्राह्मणोंके भक्ष होते थे लेकिन हाथ 15 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० महाजनवंश मुक्तावली. क्लेश, और उपद्रव होता हुआ, सच्चा मिसला लोक कहते हैं, ( नीमे हकीम खतरे ज्यांन, । नीमे मुल्ला खतरे ईमान, ॥ ऐसे दुर्बुद्धियोंके उपदेशसें, भलाई क्या होनी थी, महा भयङ्कर समय आन पहुंचा, अग्निदाह, प्रचण्ड अन्धकार, अनावृष्टि, नाना तरहके उपद्रवसें, प्रजा पीड़ित हाहाकार मचगया, तब राजा मूर्छा खाकर, अचेत होगया, उस मू में, जो वह मुनिः होमे गये थे, वह दीखणे लगे, राजा उहांसें उठके, अपने उमरावोंको, संगले जंगलमें डोलने लगा, हाय मृत्युका वक्त आया, ऐसा विचारता उस बनमें पांचसय दिगाम्बर मुनी ध्यानमें खड़े हैं देखके चरणोंमें जागिरा, और रोता हुआ प्रार्थना करणे लगा, तब मुनि बोले, धर्मवृद्धि, राजा देशके उपद्रवकी शान्ति पूछता हुआ, तब आचार्य बोले हे राजा पापसें तो रोग दुकालदुःख संन्ताप होता है, और फिर तेने नरमेध यज्ञ कर, मुनियोंको, होमडाला, इस समय फल तो ये मिला है, वाकी तो कराणेवाले और तूं नरकका दुख पावेगा, जैसै खूनका भीजा कपड़ा खूनमें धोणेसें साफ नहीं होता, इस द्रष्टान्तानुसार बेदका यज्ञ है तेरा जीव जैसा तुझे प्यारा लगता है, वैसाही सर्व प्राणियोंका समझ, राजा बोला हे प्रभु, जो कुछ कसूर हुआ, सोतो हुआ, अब किसतरह शान्ति होय, वह विधी बतलाओ, गुरू बोले दयामूल जिनधर्म धारण करो, जगह २ चैत्यालय कराके, श्री जिनप्रतिमा धराके शान्तिक पूजन कराओ, धर्मका प्रभाव ऐसा है कि, दुष्ट पापकी शान्ति होगी, राजा खंडेलगिरीके खंडेलाके सर्व राजपूत, ८२ गांम, और २ गांम सुनारोंके, एवं ८४ गांमके सब मिलकर राजा खंडेलगिरि श्रावक धर्म जुल्म मनुष्योंकों मारणेमें भी नहीं चूकते थे पतीके पिछाडी मोहाकुल स्त्रियोंको पती मिलापका, लालच दिखाकर उसका जर जेवर ले स्त्रियोंको अग्निमें जलाते थे, और अजाणलोक सती होणा अच्छा ब्राह्मणोंके बहकाये मानते चले आए, पुरुषोंका माल छीनकर कासीकर बतवणा मनुष्यों के प्राण लेत थे, बादशाह अकबरने जिनचन्द्रसूरिःके उपदेशसें, करबात लेणा बन्द करा रायपुर छत्तीसगढ़ जिल्ले महरिया पूजामें परदेशी मनुष्यका बलिदान होता था विसनोई ब्राह्मणोंके सखा जांभेका सांड़ मनुष्य बणाकर मारते थे अग्रेजोंने सत्ती वगैरह बन्धकरा बाहेर ब्राह्मणों बलिहारी है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महाजनवंश मुक्तावली... १२१ धारता हुआ, जिन चैत्यालय ८४ गामोंमें करा २ कर, पूजन होते ही, सर्व उपद्रव शान्त हुआ, वर्षात होके सुकाल हुआ, तब ८४ जात स्थापन हुई, सोठीलाकेतोसाह कहलाये, वाकी सबोंके गांम जात राजपूत कुलदेवी सब नीचे मुजब । गोत . वंश कुलदेवी खंडेला | पाटणी पापड़ी ro arur 2 Vol 2 चक्रेश्वरी आमा देवी चक्रेश्वरी देवी जमाण देवी चक्रेश्वरी देवी नांदणी देवी मातणी देवी मातण देवी साह गोत चौहाण २ पाटणी गोत तंवर ३ पापड़ी वाल चौहाण | दोसा गोत. राठौड़ दौसागांम सेठी गोत सोमवंसी घोठाणिया | भौसा गोत चौहाण भोसाणी गौधा गोत, गोधड़वंस गोधाणी चांदूवाड़ गेत चंदेलावंत चंदूवाड़ मोठ्या गोत ठीमरवंस मोठ्या अजमेरा गोत गोड़वंस अजमेऱ्या ११ । दरडोद्या गोत | चौहाणवंस दरजेद गांम १२ गदय्या गोत | चौहाणवंस गदयो गांम | पहाड्या गोत चौहाणवंस पहाड़ी गांम | भूच गोत्र सूर्यवंस भछड़ गाम १५ वज गोत्र हेमवंस वजाणी गांम वजमहाराया हेमवंस बजमासी राऊका गोत्र सोमवंस , .. रालोली १८ पाटोद्या गोत्र | तंवरवंस पाटोदी पाघडा गोत्र | चौहाणवंस पांदणी सोनी गोत्र | सोलंखीवंस | सोहनी .. | औरल देवी नांदणी देवी चक्रेश्वरी देवी चक्रेश्वरी देवी | चक्रेश्वरी देवी आंमण देवी आमण देवी मोहणी देवी औरल देवी पद्मावती देवी चक्रेश्वरी देवी आमण देवी . । ' Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महाजनवंश मुक्तावली. संख्या वदवासा टौगाणी س ___ गोत्र वंश गांम | कुलदेवी विलाला गोत्र ठीमरसोमवंस | विलाला .... औरल देवी विरलाला गोत्र कुरूवंसी छोटीविलाली सौतल देवी गगवाल गोत्र कछावावंस गगनांणी जमवाय देवी विनायक्यागोत्र गहलोतवंस विनायकी | वेथी देवी वांकली वाल मोहिलवंस वांकली जीणी देवी | कासला वाल मोहिलवंस कोसली जीणी देवी | पापला गोत्र सोढावंत पापली आमण देवी सौगाणी गोत्र सूर्यवंस सौगाणी कन्हाड़ी देवी जाझ-या गोत्र कछावावंस जाझरी जमवाय देवी कटाऱ्या गोत्र कछावावंस कटायो जमवाय देवी वैद गोत्र सोरड़ीवंस आमणी देवी टोग्या गोत्र पमारवंस पावड़ी देवी बोहरा गोत्र बोहरी गांम सौतली देवी ३४ | काला गोत्र कुरुवंस . कुलवाड़ी गांम सौहणी देवी छावड़ा गोत्र चौहाण छावड़ा गांम | औरल देवी लौग्या गोत्र सूर्यवंश लगाणी गांम आमणी देवी लुहाड्या गोत्र मौरठ्यावंश लुहाड्या गांम लौसल देवी भंडसाली गोत्र सोलंखीवंश ___ भंडशाली गांम आमणी देवी | दगड़ावत गोत्र सोलंखीवंश दरडोदवंश आमणी देवी चोधरी गोत्र तंवर वंश चोधया गांम पद्मावती देवी पोटल्या गोत्र गहलोतवंश पोटला गांम पद्मावती देवी ४२ - गींदोड्या गोत्र सोढावंश गिन्होड़ी गांम | श्री देवी साखण्या गोत्र सोढावंश साखणी गांम सिखराय देवी ४४ । अनोपड्यागोत्र चंदेलावंश अनोपड़ी गांम मातणी देवी ४५ | निगोत्या गोत्र गौडवंश नागोती गांम नांदणी देवी ४६ | पांगल्या गोत्र चौहाणवंश पागुल्या गांम चक्रेश्वरी देवी ४७ । भलाण्या गोत्र चौहाणवंश । भलाणी गांम चक्रेश्वरी देवी - सोढावंस س س س س س ه ه Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __महाजनवंश मुक्तावली. १९३ संख्या गोत्र वंश गांम कुलदेवी पीतल्या गोत्र चौहाणवंश पीतल्यो गांम | चक्रेश्वरी वनमाली गोत्र चौहाण वनमाल गांम | चक्रेश्वरी अरड़क गोत्र चौहाण, अरड़क गांम | चकेश्वरी ५१ रावत्या गोत्र ठीमरसोमवंश रावत्यो गांम औटल देवी मौदी गोत्र ठीमर सोमवंश मौदहसी गांम | लोरल देवी कोकण राज्या कुरुवंशी | कोकणज्यागांम सौनल देवी जुगराज्या गोत्र कुरुवंशी | जगराज्या गांम सौनल देवी मुलराज्या गोत्र कुरुवंसी मूलराज्या गांम सौनल देवी छहड्या गोत्र कुरुवंसी छाहड्या गांम. | सौनल देवी दुकड़ा गोत्र | दुलालवंस दुकड़ा गांम हेमा देवी गौती गोत्र दुलालवंस गौतडा गांम हेमा देवी कुलाभण्या दुलालवंश कलभांणी गांम | हेमा देवी वौरखंड्या गोत्र दुलालवंश वौरखंडी गांम हेमा देवी सरपत्या गोत्र मोहिलवंश सरवती गांम | जीण देवी चिरडक्या गोत्र चौहाणवंश | चिरडकी गांम | चक्रेश्वरी देवी निग़र्दा गोत्र गौड़वंश | निरगद गांम | नांदणी देवी निरपोलरा गोत्र गौड़वंश निरपाल गांम नांदणी देवी सवड्या गोत्र | गौड़वंश सरवड्या गांम नांदणी देवी ६६ कड़वडा गोत्र | गौडवंश कड़वगरी गांम | नांदणी देवी सांभरपा गोत्र | चौहाणवंश सांमयो गांम चक्रेश्वरी धीयाडी हलद्या गोत्र । मोहिलवंश । हरलोद गांम | जाणिधीयाडी देवी सौमगसा गोत्र गहलोतवंश सौमद गांम। चौथी देवी बंबां गोत्र सोढावंशवंबाली गांम सिखराय देवी चौवाण्या गोत्र चौहाणवंश चौवरत्या गांम चक्रेश्वरी देवी । राजहंश गोत्र सोढावंश- राणहंश गांम सिखराय देवी ७३ अहंकायगोत्र सोढावंश अहंकर गांम सिखराय देवी ७४. भूतावड्या गोत्र कुरुवंशी भसवड्या गांम सौनल देवी aur aur eurr ur ur ur 9 , 9 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ संख्या . महाजनवंश मुक्तावली. गोत्र वंश ७५ | मौलसरा गोत्र | सोढावंश ७६ भांगड़ा गोत्र खीमरवंश ७७ लोहड्या गोत्र मौरठावंश ७८ खेत्रपाल्या गोत्र दुलालवंश ७९ राजभदरा गोत्र सांखलावंश कछावावंश गांम मौलसर गांम भांगड गांम लोहट गांम खेत्रपाल्या गांम हेमा देवी राजभदरा गांम | सरस्वती देवी वाल गां जलवांणी गांम वनवौड़ा गांम जमवाय देवी जमवाय देवी औरल देवी श्री देवी लठवाड़ा गांम निरपती गांम लाड परवाल पल्लीवाल अमाणी देवी वगैरह वणिक जैन धर्म पालनेवाले इस समय जाती बहुत है मगर उन्होंकी उत्पत्ती गोत्रादिकका पत्ता मिल्नेसें किसी वक्त जरूर लिखा जायगा ये बात बहुत जाननें योज्ञ है आर्य देश २५ ॥ देशमें जितने वणिये व्यापारी दया धर्म पालते हैं वे सब राजपूत या ब्राह्मन वंश वालों को हिंसा धर्म वैद यज्ञ तथा मांस मदिरा खाणापीणा छुडाकर व्यापारी बणाणेवाले जैनके आचार्योंका उपकार है उन्होंमें से कइयक स्वामी शङ्कराचार्य के पीछे कोई बणिया शैव कोई विष्णु पीछे हो भी गये हैं, तथापि दया धर्म पालणा मांस मदिराका त्याग तो उन बणियोंकी जाती में प्रचलित है, वह जैन धर्म के आचार्योंका ही उपकार प्रथमका समझणा, क्योंकि स्वामी शङ्कराचार्यजी श्री चक्रकों माननेवाले थे, उन्होंके च्यार शिष्योंके नांमसे चारों ही हिन्दुस्थानकी दिशाओं में जो शृंगेरी १ द्वारिका वगैरह मठ है, उसमें श्री चक्रकी थापना है, और श्री चक्र है सो वाममार्गी कुंडा पन्थी शाक्तोंका निजपरम इष्ट है इसलिये वाम मार्गी मदिरा पीणा मांस खाणा पवित्र धर्म समझते हैं, मांस १ मदिरा २ मच्छी ३ मैथुन ४ और मुद्रा ५ ये पांच बातोंके करणेवाले, मुक्ति जाते हैं, ऐसा वाम मार्गका सिद्धान्त है, चंड़ालणीसें भोग करणा पुष्कर तीर्थ मानते हैं, रजस्वला २ कुलदेवी सिखराय देवी औरल देवी लौसल घीयाड़ी ८ भुंवाल्या गोत्र ८१ जलवाण्या गोत्र कछावा वंश ८२ वैदाल्या गोत्र ठीमर वंश ८३ लढीवाल गोत्र सोढा वंश ८४ निरपाल्या गोत्र सौरटा वंश Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ महाजनवंश मुक्तावली. . . धोवण ३ इसतरह अधम जातीसे गमन करणा, ये वाम मार्ग वालोंके मतमें तीर्थयात्रा स्नान दानका फल मिलता है, इत्यादि मतके उपदेशकोंके, उपासक दया धर्म किस तरह पाल सक्ते हैं खुद स्वामी शङ्कराचार्य के शिष्य, १० नामके गुसांई बकरा भैंसामींढा मारकर मांस खाणा, मदिरा पीणा, दक्षिण हैदराबादमें हमनें, सईकड़ों गिरी पुरीयोंको आंखोसे देखा है, जब उन्होंके धर्माचार्य इस तरह काम करते थे और करते हैं तो उन्होंके उपासकोंके दिलमें दया धर्म किसने डाला है, ये बदौलत जैनाचार्योंकी है, जहां एक ब्रह्म, ऽहं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, ऐसा श्रद्धा रखणेवालों के वास्ते न तो कोई ब्राह्मण है, न कोई चाण्डाल है, स्वामी शङ्करने काशीमें, ब्रह्मपणे जाति भिन्नता कुछ नहीं समझी, ऐसा ब्रह्म समाजी बंगाली कहते भी हैं कि, जातिका झगड़ा ऽहं ब्रह्मवाले अभी करते हैं सो बड़ी भूल है, हां अलवत्ते जैनी वैष्णव करें तो न्याय है, सो तो फक्त देखणे मात्र है जिसनें अंग्रेजी दवा सेवन करा अर्क वगैरह पिया, वह मांस मदिरा वेशक खाचुका, चाहै वैष्णव हो, चाहै जैन, बिलायतके व्यापारियोंका ढंग रमणक दिखाणा है, मगर अभ्यन्तरी परिणाम तो, दया धर्म पालणेवाले विचार करे तो, निभाव होय, स्वामी शङ्कराचार्यजीनें, सब जातीको एकाकार करणेको, जैनियोंका तीर्थ, जीरावला पार्श्वनाथका जो अब जगन्नाथजीके नामसे प्रसिद्ध है, उसको बलात्कार अपने कबजेमें करा मूर्तिपर लक्कड़का हाथ पांव कटी चोला पधराके, पार्श्व प्रभकी मूर्ती अन्दर कायम रखके, भैरवी चक्र विठलाया कि, यहां जातीकी भिन्नता नहीं रखणी, ऐमा दयानन्दजो सत्यार्थ प्रकाशमें लिखते हैं मतलब उन्होंका ऐसा था कि यहां चारों वर्ण सामिल खालेंगे तो फेर आपसमें, नौ पूरबिया, तेरह चौका नहीं करेंगे, सो दोनों पार नहीं पड़ी, दोनों खोई रेजोगिया, मुद्रा अरु आदेश, सो हाल बणगया, उहां जाके सब ब्राह्मण वैष्णव सामिल झूटन खाके जात भी खो बैठते हैं, और पुरीके बाहिर निकले फिर तो वही छूछा मौजूद है, ये जगन्नाथ पार्श्व प्रभुका मन्दिर उडिया देशके राना जो परम जैन थे, उन्होंने कराया था, जो कि Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ महाजनवंश मुक्तावली. अब कलकत्ते में मलक कहलाते हैं बंगालियों में, इसवास्ते मात्र दयाधर्मी वणिक् जाती जैनधर्मी थे दक्षिण कर्णाटक महाराष्ट्र तैलंग इसमें जो लिंगायत वाणये सेठी कहलाते हैं, ये जैन थे, हिमाद्रि राजाका प्रधान, वसप्पेनें, जैन धर्म छोड शैव मत संन्यासी जंगम नामका भेष खड़ा किया शैवधर्म चलाया, आखिरकों जैना चार्योंसे हिमाद्रि राजानें सभा कराई वसप्पा हार गया, ये वार्ता सेठी लोक सब जानते हैं, वसप्पे के पुराण में उसके ११ में अध्यायकों अभी भी जंगम गुरू लिङ्गायत वणिये नहीं पढ़ते हैं, नहीं सुनते हैं, उसमें जैनियोंसे हारा प्रश्नोत्तर लिखा है, इस लिये वसप्पेनें लाखों जैन दिगांवर मुनियोंकों कतल करा लिङ्गायत वणियों के शिरपर शिखा नहीं, गलेमें लिङ्ग, मुरदा घर में मरे तो, उसको थम्भे से बांध कर, रसोई माल बणाकर, मुरदेके सामने जंगमोंकों बिठलाकर भोजन कराते हैं, वह जंगम मुरदेको ग्राम ( कवा) दिखाता जावै, और खाता जावे पीछे मुर्देकों बैठा निकाले, सन्मुख शंख बजावै, गाडकर आवै, लेकिन् स्नान नहीं करते ऐसा स्वरूप शिव धर्म धारण कर करते हैं, तैलङ्ग देशमें कूंमटी वणिये सर्व जैन थे, अत्र शैव, मांस मदिरा त्याग है । ( अथ वघेर वाल ५२ गोत्र ) महाजन जैन ) वरवाल महाजनोंकी आदि उत्पत्ति गांम ववेरामें हुई राजा व्याघ्र सिंह इन्होंका इतिहास भी यज्ञमें हिंसा हिंसाका फल नर्क ऐसा उपदेश श्री जिन वल्लभसूरिः आचार्यादिकसे सुणके, जैन श्रावक महाजन होते हुए दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों धर्म मानते हैं, व्याघ्र सिंह वाघड़ी कहलाये, बाकी गांमके नामसें, ववेरवाल वजगे लगे, । गोत्र गोत्र गोत्र बावऱ्या गोत्र | ११ | कौटिया गोत्र सीसोड गो. १२ | भाडाऱ्या गोत्र १३ | कटाया गोत्र संख्या १ संख्या खटवड़ गात्र लावावास गोत्र ७ ३ साखण्या गोत्र ८ वागड्या गोत्र ४ धजोत्या गोत्र ९. हरसोरा गोत्र सर्वधरा गोत्र | १० | साहूला गोत्र संख्या ४ १५ वलवाड्या गोत्र धौल्या गोत्र Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महाजनवंश मुक्तावली.. १२७ | संख्या गोत्र, संख्या __गोत्र सख्या गोत्र س س س س س س س AGRA १६ पगाऱ्या गोत्र ३० अबेपुरा गोत्र ४४ चमान्य गोत्र १७ वैरखंड्या गोत्र ३१ निगोत्या गोत्र ४५ सुरलाया गोत्र दीवड्या गोत्र ३२ काबरिया गोत्र ४६ सौराया गोत्र वडमूंढ्या गोत्र ३३ | ठाइया गोत्र ४७ सीलौस गोत्र | तातहड्यागोत्र ३४ कुचील्या गोत्र ४८ सावण्या गोत्र मंडाया गोत्र | ३५ मादलिया गोत्र ४९ जंबाल गोत्र वालदचट गोत्र ३६ सेठ्या गोत्र ५० केतग्या गोत्र पीतल्या गोत्र | ३७ मुंईवाल गोत्र. ५१ खरड्या गोत्र दगोऱ्या गोत्र ३८ सांभय गोत्र ५२ . २५ । भन्या गोत्र | ३९ | सरवड्या गोत्र देहतोडा गोत्र |४० पापल्या गोत्र जिठाणीवाल | ४१ भूगरवाल गोत्र | मथूय गोत्र | ४२ ठग गोत्र २९ । जोगिया गोत्र । ४३ वहरिया गोत्र । ___ इन महाजनोंका वंश व देवीका पत्ता लगा नहीं इस वास्ते लिखा नहीं है और जादा इतिहास लिखणेसें ग्रंथ भी बध जाता है.लोक गुणके तरफ खयाल रखणे वाले कम वस यह कह उठेंगे दाम ज्यादह लगाये हैं इस लिये। a (अथ नरसिंघपुरे महाजन जैनी गोत्र २८) नरसिंघपुर नगर झब्बलपुर दक्षण मध्यदेशमें हैं दिगाम्बराचार्य भट्टार- . कजी रामसेनजीके उपदेशसे बेद यज्ञ नानाजीव वध घातरूप मिथ्यात्व धर्मत्यागके अष्टद्रव्य पूना चैत्यालयमें श्री २४ तीर्थकरके मूर्तिकी सम्यक्त युक्त नरसिंघपुरका राजा प्रजाके साथ जैनधर्म आदर करा इन्होंकी वस्ती मालवा मेवाड़ तथा धूलेवगढ केशरिया नाथ तीर्थपर है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAGAcc.ad - संख्या १२ १२८ महाजनवंश मुक्तावली. | गोत्र देवी गोत्र देवी । खडनर वारणी देवो १५ | तेलियागोत्र । कान्तश्वरी देवी | पुलपगर पावई देवी १६ बलोलागोत्र अम्बा देवी भीलण होड़ा अंबाई देवी १७ | खेलणगोत्र कन्टेश्वरी देवी रयणपारखा रयणी देवी | १८ | खामी गोत्र वरवासनी देवी अभयिया रोहणी देवी १९ हरसोलगोत्र चक्रेश्वरी देवी ' भुद्रपसार भवानी देवी | २० | नागर गोत्र नीणेश्वरी देवी चिभडिया धरू देवी |२१ | जसोहरगोत्र झांझणी देवी ८ पवलमथा पायई देवी २२ | झडपडागोत्र पिशाची ९ पदमह पलवी देवी २३ बारोड पिपला १० समनोहर सोहणी देवी २४ कथौटिया पीरण | कलशधर , मौरिण देवी २५ पंचलोल मौरठा ककूलो चक्रेश्वरी देवी २६ | मोकरवाडा १३ | वारठेच बहुरूपणी देवी २७ वसोहरा सीवाणी १४ - सापडिया पद्मावती देवी २८ (अथ गौरारा महाजन जैनी गोत्र २२) गौरारे श्रावक तीन प्रकारके हैं? गौरारारे २ गोल सिंघारे ३ गौला पूरब इन सबोंका जैन धर्म है रहना इन्होंका ग्वालियर इटावा, आगरा, इलाकेमें है इन्होंकी उत्पत्ति कहांपर कैसे हुई सो तोपाई नहीं परन्तु गोत्र मिले सो लिख दिया है किसीको मालूम होय तो लिख भेजणेसें दुसरी बेर छपाया जायगा । गोत्र गोत्र गोत्र १ । पावई कैसे गेई ९ जमसरिया | १७ चौधरी आन्तरिक २ गयली कैसैं गेई १० चौधरी जासूद १८ चौधरी कूकऱ्या ३. पैरिया ११ चौधरी कैलसे १९ डघा गोत्र ४ वेद गोत्र २० तरुटिया गोत्र नखेबुखेद १३ | ढन सइया गोत्र | २१ वडसइया गोत्र | सिमरइया १४ अदवइया गोत्र २२ तेत गुरिया ७ कौमाडिया १५ सगफ गोत्र ८ सौहानें १६ | चौधरी बरांदकै । » संख्या v ur Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली . १२९ अथ अग्रवाल जैन वैश्य उत्पत्ति गोत्र १७॥ - ये वात जगत् विक्षात है कि चारवर्गों में सबसे पहले वैश्यवर्णका काम करणेवाले इस आर्यावर्तमें उग्र कुलवाले थे जैनियोंके आवश्यक सूत्रकी टीकामें युगादि देशनामें भरतेश्वर वाहुबली वृत्तीमें तेसठ शलाका पुरुष चरित्रमें आदिनाथ ( ऋषभ चरित्रमें) बड़ी मनुस्मृतीमें इत्यादि श्वेताम्बर संप्रदाई ग्रंथोंमें तथा इस तरह दिगाम्बराचार्य रचित आदिनाथ पुराण उत्तरपुराणादि धर्म कथानुयोगमें, इस तरहसें लिखा है, जब भगवान ऋषभ देव तेतीस सागरका आयू सर्वार्थ सिद्ध विमानसें पूर्ण कर, निर्मल तीन ज्ञानयुक्त इक्ष्वाकु भूमी जो कश्मीरके पास परे है, जिसके चारों दिशामें चार पहाड़ आये हुए हैं सुर शैल्य १ हिम शैल्य २ महा शैल्य ३ और अष्टापद ( कैलाश ) ४ इसकी वीच भूमीमें ऋषभ देवके बडेरे सात कुलकर (मनु) विमल वाहन वगैरह युगलिक लोकोंमें कसूर करणे वालोंपर वचन दण्ड करणेवाले हुए प्रथम हकार फिर मकार और फिर धिक् ( धिक्कार ) इस तरह कइयक उस जमानेके लायक कायदे बांधणे वाले हुए, लोक ऐसे ऋजु थे, सो जुबानसें धमकाणेसेंही डरं मानते थे, काल जैसे वीतता गया, तैसे २ कल्पवृक्षहीन फल देणे लगे, तब उन युगलिक लोकोंके अन्यायका अंकुर बढणे लगा, विमल बाहनके सातमें मनु नाभिराना उनके मरुदेवी राणीके, ऋषभ देवका जन्म हुआ, उहां नगरी वगैरह कुछ नहीं थी, जो वस्तु उन युगलिक लोकोंको चाहिये थी, वह १० जातके कल्पवृक्ष उन्होंको देते थे, पूर्वजन्मके तपके प्रभावसे युगलिक पुन्यवन्त पैदा होते हैं, ४५ लक्ष योजनमें जो अढाई द्वीपमें मनुष्योंकी वस्ती उसमें कर्माभूमि १५ मेंसे सुकृत करके युगलिक लोक अकर्मा भूमीमें कालधर्मसे, उत्पन्न होते थे, प्रजा इक्ष्वाकु भूमीमें कुल दोयसय ऊपर कुछ . संख्या प्रमाण औरत मर्दोके जोड़े रहते थे, बाकी पांचसय छब्बीस योजन छकला ऊपर सब भरतभूमी मनुष्य क्षेत्रकी जिसमें वेताढ्य (हिमालय ) इधर दक्षिण भरत आधा दोयसय १३ योजन तीन कला प्रमाणक्षेत्र, सब खाली मनुष्य विगरका था वैताढ्यके पहिले तरफ उत्तरमें म्लेच्छ खण्ड गुण १७-१८ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० महाजनवंश मुक्तावली पचास नगर उस वक्त वस्तीवाले थे, उन लोकोंका खांन पांन मांस मछलीका था क्यों कै जैन ग्रंथोंमें लिखा है भरत पहिला चक्रवर्त छ खण्ड भरत क्षेत्र साधने लगा तब हिमालयकी तिमिश्रा गुफाके वाहर फौजका पड़ाव डाला जिसकों अभी खन्धार कहते हैं, यहांसे ४९ नगरवाले म्लेच्छ राजाकों, अपणी आना मनाने दूत भेजा, ऐसा लेख जम्बूद्वीप पन्नती मूलसूत्रमें लिखा है, इसलिए सिद्ध होता है के, ऋषभदेवके वडेरोंके वखतसेंही, म्लेच्छ खण्डकी वस्ती कायम थी, आधे भरतमें कालधर्म पहिला दूसरा तीसरा आरा आदि वरतणा सिद्ध होता है, सर्व भरत क्षेत्रमें सिद्ध नहीं होता, ऋषभ देवनें तो म्लेच्छ खण्ड वसाया नहीं, केवल सौ पुत्रोंके नामका सौराज्य जिसमें निन्याणवें इधर १ एक हिमालयपार वहुली देश, का बल, जो बाहुबलकू वसा कर दिया, भरत चक्री ४९ नग्र म्लेच्छोंपर आज्ञा मनाकर फिर अयोध्या आकर बहुली देशकी लड़ाई तो, पीछे करी है, जैन लोकोंने इस वातकों विचारणा कोई बुद्धिमान इस बातकों न्यायसें असत्य ठहरा देगा सिद्धान्तकी साक्षीसें तो दुसरी वेर वह वात लिखी जायगी, हमनें तो सूत्रकी साक्षीसें, ये वात लिखी है, हां खास तौर पर जैनधर्म वाले ये बात मानते हैं के भरत एरवतमें कालचक्र फिरता रहता है ऋषभ देवका होणा, तीसरे अरेका अंतका भाग अवसर्पणी कालका था, अंग्रेज लोकभी हिमालय ( वैताढ्यके दक्षिण मुल्क तीन खण्डकोही भारत भूमि कहते हैं क्या मालुम, ये नाम कौरव पाण्डवोंके युद्धके होणेसे भारत कहलाता था, इसलिए धरा है या भरत चक्री पहला जब होता है, तब भरतही नामका होता है इसलिए इस भूमीकों भारत क्षेत्र कहते हैं ( भरतोद्भवा भारता) लेकिन जैनधर्म वाले तो, जहांतक भरत पहले चक्रवर्तका राज्य शासन चले, ऋषभ कूट पर्वततक, जिसपर अपणा नाम लिखता है, उहां तक भरत क्षेत्र मानते हैं, पैरिसतक, उसके पहले वर जैनियोंका लिखा चुल्लहिमवंत्तपहाड़ जिसकों आजकलकोकाफ कहते हैं, और उसके ऊपर, परियोंकी वस्ती मानते हैं, उसके पहिलेवर कोई मनुष्य नहीं जासक्ता, वह उदयाचल पहाड़ कहलाता है, जहांसें सूर्यकी किरणें इस भारत भूमीपर प्रकाश कर Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १३१ 'प्रभात समय दिखाई देती हैं, भारत भूमींमें फकत् म्लेच्छ भील वगैरह 'पहाड़ो के पास पढ़ लोक रहते थे, और वस्ती नही थी, उन्होंको ग्रीक लोकोंनें पेस्तर आकर, इल्म सिखाकर हुशियार करा, इस लेखका "परमार्थ तो हमारी समझसे तो ऐसा निकलता है कि ये वार्ता दक्षिण भरतकी नहीं है हिमालिये के पहले तरफ जो उत्तर भरत है उसमें ४९ नम्र वालोंकों ग्रीक लोकोंने कोई जमाने में अपणे सागिर्द बणाये होंगे, खैर -रहणे देते हैं | जब ऋषभ देवनें बाल्यावस्थात्यागी नाभी मनुके हुक्मसें, युगलिक लोकोंने, युगलियों में अन्याय फैलता हुआ देखके, ऋषभकों राजा बनाया, उस वक्त लोक जुबानकी सजाक कुछ नहीं गिंणारने लगे, अब्बल तो कल्पवृक्ष फलहीन हुए, देख प्रथम तो चावल पकाकर सबको रसोई करके खांणा सिखाया, फेर वस्त्र बुननेवाले नाई चित्तरे वगैरेह ५ कर्मके - सो कर्म करणेवालोंकों कारीगरी सिखलाई प्रजार्को वढाणे संगमें जन्मी कन्याका विवाह बन्दकर दूसरेकों वेटी देणा और दुसरे गोत्रीकी लाणा सिखाकर युगला धर्म मिटाया तत्र रसायनिक प्रयोग पास होकर, प्रजा बढी, गढ, कोट, किला, अस्त्र, शस्त्र, हाथी घोडे, गऊ, ऊंठ सब मनुष्योंके काम लायक करे नोकरी लिखत पठित प्रमुख ७२ कला प्रगटकर प्रजाक सिखलाई ६४ कला स्त्रियोंको, ग्रहाचार सिखाकर, नवनारू, नवकारू, ऐसे अठारह श्रेणी के १८ प्रश्रेणीके ३६ कुलक्षत्री वंशमेंसे प्रगट करे सीसगर १ दरजी २ तंबोली ३ रंगारे ४ गवाल ५ बढ़ई ६ संग्रास ७ तेली ८ धोत्री ९ धुनियापिनारा १० कन्दोई ११ कहार १२ काछी १३ कुम्भार १४ कलाल अर्कअतरवाले १५ माली १६ कुंदीगर १७ कागजी १८ । कृषाण १९ वस्त्रकार २० चितेरा २१ बंधेरा २२ रेवारी २३ लखारा २४ ठंटारा २५ राजपटवा २६ छप्परबंध २७ नाई २८ भड़भूंजा २९ सोनार ३० लोहार ३१ सिकलीगर ३२ धीवर पालखीवाले ३३ चमार ३४ गिर ३५ सुथार ३६ इन्होंमें फेर कई २ तरहकी भिन्नता भई, जैसे छीपादरजी १ मारूदरजी टोप मियानाई १ मसालचीनाई २ मारू कुंभार १ वांडा कुंभार २ इसतरह जिन्होंने ये कृत्य किया वोही जाति होगई ब्राह्मणिया Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ____ महाजनवंश मुक्तावली सुनार १ मेढ सुनारादि समझना, इनोंका कृत्य समयसे पलटा अब भगवानने प्रजामें ४ वर्ण स्थापन किये, उग्रकुल १ इन्होंकों दण्डपासक याने कोट कचहरी दिवान मुसद्दी कोटवाल प्रमुख राजकार्य करणा न्यायाधीस वणाया १, भोगकुल २ प्रजाके वास्ते भगवान आप जिन्होंकों गुरू करके मांना २ राजन्यकुल ३ जो भगवान इक्ष्वाकुका कुल जिसमें सूर्य यश पोतेका सूर्य वंश १ चन्द्रयश पोतेका चन्द्र वंश २ चन्द्र सूर्यके जितने कोशोंमें पर्याय वाचक नाम है वह सब नाम इन वंशवालोंका समझणा, जैसै आदित्य वंश १ तो सूर्यही का नाम है, इस तरह सोमवंश २ वो चन्द्रहीका नाम है, कुरु पुत्रसे कुरु वंश, इत्यादि सौ पुत्रोंका परिवार सन्तान राजन्यवंश कहलाया, ३ वाकी युगलिक लोक प्रजा उन्होंका काश्यप गोत्र और क्षत्रीवंश स्थापन करा जिसमें छत्तीस कर्मकर निकले, जिसके पीछे असंक्षा काल वीतणेसें उन चारोंका पर्याय वाचक नाम हो गया, उग्रकुल वाले गुप्त कहलाये, देखिये वाग्भट्ट नामका जैन गुप्त ( वणिक् ) ने वाग्भट्ट वैद्यक ग्रंथनेम निर्वाण महाकाव्य वाग्भट्टालङ्कार काब्य अनेकानेक गुप्त जातीके बनाये हुये हैं, ये वाग्भट्ट जैनधर्मी थे उनके ग्रंथही धर्मकी सबूती देता हैं, भोगकुलकों शर्मा संज्ञा हुई, राजन्य वंशीयोंको वर्मा संज्ञा हुई, इस तरह ही चारोंका पर्याय नाम धरा पीछैसें विप्र संज्ञा वेद पाठीकों, विगर संस्कार शूद्र संज्ञा, संस्कार किये पीछै द्विज संज्ञा, जब जीव अजीव पुन्य पाप इत्यादि नव तत्व जाणे, क्षमा' १ मार्दव २ आर्जव ३ निर्लोभता ४ तप ५ सत्य ६ सौच अभ्यंतर और वाह्य ७ (संजम ( इन्द्रियदमन ) और जिन पूजादिक षट् कर्म ९ इतने करनेवालोके गलेमें यज्ञोपवीत डाली गई, जिसका अपर नाम है; नोगुणी, उसको प्राकृत व्याकरणके शब्दसें, माहण भरत चक्रीने कहा था उसका संस्कृत व्याकरणसें (ब्रह्म वेत्ति स ब्राह्मणः ) याने ब्रह्म जो अविनाशी आत्माका स्वरूप जाणे, सो ब्राह्मण कहलाये, शर्मापद देव पूजकोंको मिला, वर्मा नाम धराणेवाले राजन्य वंशीयोंको क्षत्री कहने लगे, वह जो राज्य कार्य कर्ता उग्रवंशी जो गुप्त नाम धराया था वो वैश्य कहलाये, छत्तीस श्रेणी के प्रश्रेणीक क्षत्री वंशवाले जो थे वह Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... महाजनवंश मुक्तावली का नाम धराते थे वह शूद्र कहलाए ये संज्ञा चार ब्राह्मण १ वैश्य २ क्षत्री ३ और शूद्र ४ श्रीकृष्ण चन्द्रके राज्यमें कृष्ण द्वैपायन व्यासने गीता बनाई उस वक्त यह नाम, पूर्व नाम पलटाके धरे गये, गीता कर्मके अनुसार चार वर्ण बंधे हैं, व्यापार, खेती करणा, गऊओंको गोकुलमें रखणे वालेकों, वैश्य कहा है, इस न्यायसें तो जाट, कुणबी, सीरवी, अहीर वगैरह भी, ऐसा कृत्य करणेसें गीताके हिसाबसें वैश्य होणा चाहिये, पुराणोंमें छ कर्म करणेवाले ब्राह्मनोंकों अधम लिखा है । यतः ) असीजीव मषीनीव, देवलो ग्रामयाचकः । धावकः पाचकश्चैव, षड़ेते ब्राह्मणाधमाः ॥ ५ ॥ अर्थ ) तलवार बांधके फौजोंमें सिपाही रहै नोकरी करै, मसीयाने लिखणा नामाठामा व्यापार करे, देवलों याने मन्दिरोकी नोकरी कर बलि माक्षिणादि करे, ग्राम याचक यानेब्रती, यजमान वणाके, दापा, वंट, परणे मरणे आदिका लेवे, धावक, याने, नोकरीमें इधर उधर जावै, सन्देशा करे कासीदी करे, ऐसे ब्राह्मणोंको, पुराणोंमें, अधम लिखा है, अरे कलियुग ऐसा कोई काम नहीं है, सो इस पेटके लिए ब्राह्मण लोक नहीं करते होंय, केवल नाम मात्र ऋषियोंकी शन्तान हैं, दातारकी भक्ति, दान देणा गृहस्थका धर्म है, गृही दानेन शुद्धयति, इस वचनसें, बाकी नौकरी हाजरी भराके जो ब्राह्मणोंको पुन्य समझ दान देते हैं, वो देणेवाले, बड़े मूर्ख हैं, पुन्य उसका नाम है, जिसका बदला नहीं लिया जावै, इस बातकों समेट, उग्र कुलका इतिहास लिखते हैं,। उग्रकुल दुनियांका कार्य चलतेही स्थापन हुआ, वह क्रमसें राजकार्य करते २ कोई भुजबली राजाधिराज भी बन गये, ऐसा जमाना नहीं गुजरणा बाकी रहा होगा कि, चारों वर्णोंवाले राजा न हुए होय, याने जमानेके फेरसे अंत्यजभी राजा हो चुके, और राजा अन्नसें मोहताज हो गये, ये सब पुन्यपापके योगसें, कर्मोंने जीवोंकों अनेक नाच नचाये हैं, और नचाता है, और नचावेगा, जमानेके फेरफारसे कभी धर्म जैन प्रबल रहा, इसबक्त नाना धर्मका शिक्का अपणा वक्त दिखा रहा है, मिथ्यात्व जीवके संग अनादि कालमें लग रहा है, संसारमें रुलणेवाले जीवोंकों, जिस तरफ शरीरके Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ महाजनवंश मुक्तावली पांचो इन्द्रियोंके, सुख मिले, अपने लिए चाहै कितना द्रव्य खरच हो जावै. परमार्थमें पैसा कम खर्च पड़े, वह धर्म, कलियुगी जीवोंकों, संसारसे तारणे वाला मालुम देता है, जिधर जिसका जी मानता है, उधरही धर्म कबूल करता है, लेकिन निधर पांचोंइन्द्रियोंको मजामिले उस धर्मकी तरफ , ज्यादह, रजू होते दीखते हैं, उग्रकुलवाले वैश्य वजणे लगे, और आपसमें वली होकर, राज्य भी करणे लगे राजा उग्रकुली धनपाल धनपुरी नगरी पंचाल देशकों कबजे करके, वसाई, इन्होंके कई पुखतान तक, राज्य रहा, राजा रंग पुत्र विशोक, विशोकके मधु, इस वक्तमें बैताढ्य पर्वतपर, इन्द्रनाम विद्याधरोंमें बड़ा बलवन्त राजा उत्पन्न हुआ, इस मधुका वर्णन, जैनरामायणमें नारदजीकों रावणनें हिंसक यज्ञ क्यों कर चला, इस. प्रश्न करनेसें उत्तर दिया हैं, उसमें राजा मधुका और सगरका वृत्तान्त चला है, उहां देखणा, मधुका महीधर, इस वक्त राजा इन्द्रने रावणके बडेरोंकों, युद्धमें हटाकर, लङ्का छीनली, रावणके बडेरे पाताललङ्का ( अमेरिका ) में, जा रहै, महीधर रावणके बडेरोंका, आज्ञाकारी था, इस वास्ते इन्द्रनें इसका भी राज्य छीन लिया, महीधर फिर और राजाओंकी नौकरी करणे लगा, पीछे रावण पैदा हुआ, और इन्द्रसे युद्धकर, वैताढ्य पर्वतका राज्य छीनलिया, महीधरकों रावणनें बुलाकर सेनापती बणाया, जब रावणपर रामचन्द्रजी आए, तब बिभीषणके सङ्ग, महीधर भी रामचन्द्रनीके पास आगया, फिर अयोध्या, महीधर काम कर्ता हुआ, फिर कई लाख वर्ष बीतणेसे फिर महीधरके वंशवाले राजा होगये, यों कई पुखतान, इस वंशवाले जैनधर्म छोड़के ब्राम्हणोंका, वैदधर्म मानने लगे, आग्रायण ( अग्रसेन ) नाम राजा हांसी हसार जो अब वस्ती है यहांपर अपने नामसें अग्रोहानगर वसाया, उग्रकुली लोक तथा अन्य लोकोंकी वस्ती यहां बहुत वसी, ये जमाना करीव विक्रम राजाके कुछ पहिलेका है। राजानें दिल्ली मंडल कुल कबजें कर लिया, इस वक्त वैताढ्य पहाड़पर, इन्द्रके वंसवाला, सुरेन्द्र नामका राजा, राज्य तिव्वत राजधानीमें करता था, इस समय दक्षिण देशमें कोलापुर नगरमें, नाग वंशी राजा, अभंगसेनकी पुत्रीको, सुरेन्द्रनें मांगी, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १३५ अभंग सेननें, दोनों कन्या, माधवी १ और चन्द्रिका, २ अग्रसेनको . देदी, ऐसा कहला भेजा, तब सुरेन्द्र अग्रसेंनसें युद्ध करणे आया अग्रसेन ये सुण कर, भग गया, कासीमें जाकर महालक्ष्मीका मंत्रसाधन करा लक्ष्मीने प्रशन्न होंके कहा माँग इसमें कहा लक्ष्मी मेरे घरमें अतूट रहै, और शत्रु मेरे कोई नहीं हो सके, लक्ष्मी बोली, तथास्तु, फिर अलोप हो गई, उहां इसको भूमिमें असंक्ष निधान प्राप्त हुआ कोलापुर जाकर दोन्में कन्याका ब्याहकर, स्वसुरका दातव्य लेकर, अग्ररोहा नगर पीछा लेलिया, उन कन्याओंके गर्भाधान रहा, तब ब्राह्मणोंने कहा, हे राजा, तेरेको लक्ष्मी प्रशन्न है, तूं पुत्रोंके कल्याणार्थ यज्ञ कर, तब राजाने यज्ञ शुरू करा, इस तरह अनेक यज्ञ अश्वमेध गऊमेध छागमेधादिक करते सतरह पुत्र होते रहै, यज्ञ करता रहा, अठारमा पुत्र गर्भमें था, यज्ञके लिए नाना पशु गण जमा किये हुए, त्रास पा रहे थे, इस समय महालक्ष्मी देवी चित्तमें व्याकुल हुई विचारणे लगी, जो मैंने सुकृतार्थ करणे, इसकों प्रशन्न होकर द्रव्य दिया था, उसकों इसनें महा अघोर पापका हेतु नरक जाणेका मार्ग, जीव वधघात, कसाइयोंका कर्म, ब्राम्हणोंके बचनोंसे कर रहा है, इस पापकी क्रिया ___ माहेश्वर कल्पदुम वालोंने अग्रवालोंकी उत्पत्तिमें लिखा है अठारमा यज्ञ आधा हुआ किसी कारणसे ग्लानि हुई ऐसा लिखा है वह ग्लानिके कारणको प्रगट नहीं किया फक्त अपणे वेदधर्मकी वे अदबी छिपाणेकों आदि उत्पत्ति त्रेता युगके प्रथम चर्णवार तक लिखके सबूती दिखाते हैं कोई पूछे किस वेदमें या स्मृतिमें या पुराणमें लिखा है तो मौन करणाही जबाब है और हमनें कुलका होणा असंक्षा वर्षके पहिले दुनियाकी रीत रसम चलते ही पहले लिखे शास्त्रोंसें प्रमाण देकर लिखा है उस जमानेकों वीते असंक्षा चौकडी सतयुग द्वापर त्रेता कलियुग वीत गये हैं आगे चलकर लिखा है अग्रायणके कई पीढी बाद जैनधर्म अग्रवालोंने धरा है इतना नहीं विचारा कि यज्ञमें ग्लानि प्राप्त होणा ही जैनधर्मका कायदा था इस वास्ते खुद अग्रायण बेद यज्ञ छोड जैनी हुए थे जिसमें १७॥ गोत्र हुए थे लिखते शर्म आगई स्वामी शङ्कराचार्यजीके चेले आनन्द गिरी शङ्कर दिग्विजयमें लिखते हैं (वैदिक हिंसा हिंसा न भवति ) अर्थात् वेदकी राहसे जो जानवरका मांस खाया जावै उसमें हिंसा नहीं होती तब विचारो वेदधर्मियोंकों ग्लानि कैसै आवेगी, वल्के ऐसे बचनोंसें तो हिंसा कर्म वेदधर्मी वेधडक कमर बांधके करेंगे, वाहरे धर्मोपदेशक जगद्गुरू बजणे वालोंके चेलेजी, ऐसे न्यायके वचनोंसे ही दिग्विजय हुआ होगा, धन्य दिग्विजय धन्य, फिर माहेवर कल्पद्रुम वालेने आग्रायणके कुलको ब्राह्मण ठहराया है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ महाजनवंश मुक्तावली मुझकों भी लगेगी, और मेरा भी पराभव होणेसें, दुखकी भागनी होऊंगी तब रातकों देवी, इस राजाकों उठाकर, नरकमें लेगई, प्रथम तो उधर वह . जीव फरसी लेलेकर राजाकों मारणे दौड़े, जिन २ जीवोंको इसनें अग्निकुण्डमें हवन किया था, और महा दुर्गध महा विकराल मनुष्यसे वर्णन नहीं किया जावै, ऐसे नरककों देख राजा रोता पीटता भागणे लगा, तब लक्ष्मीदेवी मृत्युलोकमें लाकर वोली, अरे राजा इस यज्ञसें तुं मरकर, नर्क जायगा, और तैंने जो पाप किये हैं और तेने जो मारे है वह जीव अग्निकुण्डमें, तेरेसे बदला लेंगे, तब राजा वोला, हे माता, अब इस पापसें कैसे छुटूं मेरा उद्धार कर ( ऐसाही हाल प्राचीन वर्दी राजाका नारदजीने यज्ञके पापके बदलेमें नरक दिखाकर छुडाया है, देखो भागवत पुराण विष्णुओंका, उसमें लिखा है ) तत्र महालक्ष्मी देवी वोली हे राना प्रभात समय, भगवान महावीरके शन्तानी लोहाचार्य महाराज, यहां आयेंगें, उन्होंकी वाणी, सर्व जीवहितकारिणी, भव समुद्र तारणी सुणकर, पापारम्भ छोड़, दया सत्य बोलणादि धर्मग्रहण करणा, तेरा उद्धार होगा, प्रभात समय, लोहाचार्य ( गर्गाचार्य ) अपर नाम, पधारे, राजा सपरिवार गया, दया क्षमाकों सुनकर, जैसें सांप कञ्चुकी त्यागता - है, तैसें मिथ्यात्व धर्म त्याग, सम्यक्त युक्त श्रावक ब्रत लिया, ___ऋषि लिखा है भिक्षुक कर्म करनेवाले छत्तीसही पूणसे दानादिक प्रति गृहीयोंकी शन्तान लिखा है जो उग्रवंश राजपूतों से प्रगट हुए हैं वह भिक्षुक जाति जैनधर्मवालोंको नहीं मानना अग्रवाले बडे दानी बड़े शूर बडे व्यापारी प्रत्यक्ष दीखते हैं ये बात ब्राह्मणोंसें कभी नहीं होसके दान लेनेवालोंकी जाति कभी ऐसा दान नहीं कर सकती इसवास्ते अग्रवाल अव्वल राजन्य वंशी वैश्य है बीजकी तासीर, कभी मिटे नहीं जैनधर्मवालोंके इतिहासको उल्टा सुल्टा करके माहेश्वर कल्पद्रुम वालेने शैव विष्णु धर्मी प्रथमसे सिद्ध करणे की कल्पित बात लिखी है वैष्णवमती अग्रवंसी निरापेक्षीपणेसें कसोटी लगाकर बुद्धिसें परिक्षा करले इतिहास कौनसा सच्चा है अलं विस्तरेण, सतरेराणियोंके तो १७ पुत्र किसी जगह लिखा है अठारमा पुत्र राजाकी पासवान ब्राह्मणी पड़दायत्त थी उसका नाम गौण था इस वास्ते आधा गोत्र ठहराया, और बहुत लेख ऐसा है कि उग्रकुलवाले जो राजाके गोत्री वैश्य थे, उन्होंका आधा गोत्र ठहराया, मतलब आधेमें तो सत्रह पुत्र राजा होनेसें, और आधेमें सब गोत्री भाई, ऐसा एक अग्रवाल कुल ब्याह करणा आपसमें ठहराया माता अलग २ होनेसें, फक्त दूध टाल दिया जैसें मुसलमान लोक टालते हैं, आगे हिन्दमें ये Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १३७ जगह २ चैत्यालय कराये, बाकी सर्व अग्र वंशियोंका गोण गोत्र किया, सतरह पुत्रों का सतरह गोत्र हुए, इनके कुल प्रोहित, हिंसक यज्ञ छोड़ कर, दया धर्म धारण करा जो गौड़ ब्राह्मण कहलाते हैं, त्यागी गुरु, मुनिः जती, राजानें कबूल करा, देवी महालक्ष्मी उपदेश देकर दया धर्म घराने वाली, लक्ष्मी पुत्र अग्रवाल लक्ष्मीके ही पात्र रहते हैं, पीछे नौकरी व्यापार, राजाके मुसद्दीपणा करते रहै, एक पुत्रकी शन्तान अग्रोहाका राजा रहा मुसलमीन सहाबुद्दीननें, राज्य छीन लिया, फिर हेमचन्द्र अग्र-वालनें कोई लिखते हैं हे मूढसर वनिया था हुमायूं बादशाहकों विक्रम सम्वत् १५७६ में युद्ध कर भगादिया, दिल्ली तख्तका बादशाह हो गया तब पीछे अकब्बरनें फिर युद्ध कर, छीन लिया, हेमचन्द्रकों अकब्बर अपने पास रखना चाहता था, मगर दिवाननें उसको मार डाला इस बातसें अकब्बर ने नाराज होकर उसकों मक्के निकाल दिया देखो वङ्गवासी छापेमें छपा अकब्बर चरित्र, अग्रवाले राजाओंकी नौकरी करणेसें संगतका असर जैनधर्मके कायदे कठिन लगामदार घोड़ा जैसें कुछ खास केन पसिकै, इसलिए मालखाणा, मुक्तिनाणा, दिनरात दिल चाहै सो खाणा, लगाम छोड़ बैलगामी सातसय वर्ष हुए बहुतसे लोक, कोई शैव, कोई गोकुली, उधर लक्ष्मण गढ़के महानन्द रामजीके लड़के पूरणमलजी दक्षिण रसम जारी थी के, गोत्र पुत्रोंका अलग २ मांन लेते थे, दायमे सब दधीचके, पारीक सब पाराश्वरके, शङ्ङ्खवाल संखारडीके, एककी सब शन्तान लेकिन व्याह आपसमें करते हैं सिरफ माता अलग २ सें अलग गोत्र समझा जाता था । कृष्णकी भूआ कुन्ति उसके पुत्र अर्जुनकों - कृष्णकी वहन सहोदरा व्याही एसा वैष्णव कहते हैं, जैनोंके अंधक वृश्नी १ भोजक श्री २ दोनों एक बाप बेटे यादव अन्धक वृनीका उग्रसेन भोजक वृनीका समुद्र विजयका `पुत्र अरिष्ट नेमि (नेमनाथ ) उग्र सेंनकी पुत्री राजमतीसें व्याह होणे लगा, पडदादा एक था, इसवास्ते अग्रसेननें कुछ नई वार्ता नहीं करी, दक्षिणमें अभी भी मामाकी बेटी भाणजे - शादी होती है राजपूतानेके सब राजा भी ऐसा करते हैं, कोई टालता नहीं, कोई टाल देता है, लेकिन ऐव नहीं गिनते हैं, माहेश्वर कल्पद्रुमवालेने अग्रवाल वंशवालोंकी तारीफ तो लम्बी -चौड़ी मनमानी लिखी है मगर अठारमा गोत्र गोल्हण ठहराया और लिखाये गोत्र कलयुगमें बहुत बढ़ेगा मतलब गोलोंकों अग्रवाल ठहराया है, आपसमें सगपण ठहराया है पूज्य पुरुषकी भक्ती तो करी मगर पूज्य पुरुषके नाक पर मक्खी बैठी जूतीसें उडाणा, ये मिसला Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३८ महाजनवंश मुक्तावली हैदराबाद में कोट्याधिपती बनके, चक्रांकित रामानुजधर्मी, श्री वैष्णव हो गये, द्रव्यकी सहायता देकर हजारों छन्यातिब्राह्मणको, महेश्वरी अग्रवा लोको, श्री वैष्णव बनादिया, और तोताद्री जो जीर स्वामीका काम था लांच्छित करणेका, वह नई गद्दी बणाकर पुष्करजीमें स्थापित कर दिया, लाखों रुपये सीतारामबागकों लगाया एक तर्फ दक्षिणी आचार्य एक तरफ अपने गौड़ ब्राह्मणोंकी गुरू गद्दी लगादी इस तरह कोई शैव, कोई विष्णुधर्मी हुए, और बहुतसे दिल्लीके गर्दनवाह, सनातन धर्म जैनही पालते हैं, दिगम्बर ज्यादह वेताम्बरी अग्रवालोंमें कम हैं, सतरह पुत्रोंके नांम १ गर २ गोयल ३ मंगल ४ संगल ५ कांसल ६ वांसल ७ ऐरण ८ ठेरण ९ विंटल १० जिंदल १९ जिंजल १२ किन्दल १३ कुंछल १४ बिंछल १५ बुद्दल १६ मिंतल १७ सिंतल और आधे गोत्र गोणमें सब उग्र कुल गिना गया इसतरह १७ ॥ गोत्र कहलाते हैं | ( इस समय प्रसिद्ध नांम गोत्र ) १ गरगोत्र २ गोयलगोत्र ३ सिंगलगोत्र ४ मंगलगोत्र ५ तायगोत्र ६ तरलोगोत्र ७ कांसलगोत्र ८ वांसलगोत्र ९ ऐरणगोत्र १० ढेरणगोत्र ११ सिन्तल १२ मिन्तल १३ झिंघल १४ किंवल १५ कच्छिल १६ हरहरगोत्र १७ वच्छिलगोत्र ॥ गरसूं गण ॥ कर दिखाया है बीकानेर में नाथी पातर मोहता महेश्वरी देश दीवान राजा सूरत सिंहजीके राज्यमे घरमें रक्खी थी उसकी शन्तान महेश्वरीयों में मिलाई गई गड़बड़ चलाते हैं मगर महेश्वरियोंकी बेटियोंसे व्याह तो होते चार, पुखतान वीतगये असलमें पिता तो मोहताजी महेश्वरी होनेसे महेश्वरी नाथीके मोहताही बजते हैं इन्शाफसें तो कोई नुकसान नहीं दीखता क्योंके ब्राम्हणोंकी रान्तान भी तो इस तरह ही भारतमें लिखी है कोई धीवरणीके पेटसें. कोई कीरणीके पेटसे देखो विश्वामित्रका पाराश्वर उसका पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यासके शुकदेव इन सबकी माता अधम जातिवाली थी मगर ब्रह्मकर्मसें ब्राह्मण मानें गये इस न्यायसे रक्खी हुई स्त्रीकी शन्तान पिता के वीर्यसे है इस न्यायसें वैष्णवोंको दलील नहीं उठाणी चाहिये जैन लोकों ये व्यवहार नहीं मालुम देता, अग्रसेंनके भी वेद धर्मी थे, तभी अठार मा पुत्र निज शन्तानकों जैन धर्मके कायदेसें धारेबाद जो हुआ भी है तो, आधा गो ठहराया है, जैनधर्मवाले तो सब उग्रकुल १७॥ में मानते हैं, 1 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली ( श्री बीकानेर गद्दीनसीन महाराजा ) १ रावश्री बीकाजी १३ महाराजा श्रीजोरावर सिंहजी. २ रावश्री नेराजी १४ महाराजा श्रीगन सिंहजी ३ रावश्री लूणकर्णनी १५ महाराजा श्रीराज सिंहजी ४ रावश्री जैत सिंहनी .. १६ महाराजा श्रीप्रताप सिंहनी ५ रावश्री कल्याण सिंहजी १७ महाराजा श्रीसूरत सिंहजी ६ महाराजा श्रीराय सिंहजी १८ महाराजा श्रीरत्न सिंहजी ७ महाराजा श्रीदलपत सिंहजी १९ महाराजा श्रीसरदार सिंहनी ८ महाराजा श्रीसूर सिंहजी २० महाराजा श्री डूंगर सिंहजी ९ महाराजा श्रीकरण सिंहजी २१ महाराजाधिराज श्रीगङ्गा सिंहजी. १० महाराजा श्रीअनोप सिंहजी बहादुर विजयराज्ये ॥ ११ महाराजा श्रीसरूप सिंहजी महाराज कुमार सादूल सिंहनी १२ महाराजा श्रीसुजाण सिंहनी जैसा लिख पाया वैसा सब राजवियोंकी पीढी लिखी हैं विद्यमान् महाराजा श्रीगङ्गासिंहजी बहादुर बडे भाग्यशाली बड़े बुद्धिशाली बड़े न्याय. नीतिमें अग्रेश्वरी प्रजा पालनेमें साक्षात् राजा रामचन्द्रजी जैसै जिन्होंकी कीर्ति सब बादशाहीयोंमें रोशन है । अंग्रेज सरकार पंमचनार्ज सम्राट तथा गवर्नर जनरल साहबोंके माननीय चन्द्रसूर्य ध्रुवकी तरह राज्य करते हुए, आप हुजूर साहब चिरंजीव रहे । यह ग्रंथ करताका आशीर्वाद है । राष्ट्रकूट याने राष्ट्रमांयने भारत वर्ष रूपराज्य जनपद देश उसके राजवियोंमें कूट याने शिखर समान उसका नाम (राठौड़) कन्नोजकी बादशाही तूटी, तब सीहाराव आसथानजी खरतर गच्छ यती आचार्य श्रीजिनदत्त सूरिःके उपकारसें आभारी हुए सं. विक्रम १२०० सेके उतारमें पाली नगरमें खरतर गुरू जात राठोड़ मानेंगे एसी प्रतिज्ञा करी इसका विस्तार विवरण बीकानेरके बड़े उपासरेके ज्ञान भण्डारमें सर्व चमत्कार उपकारका विस्तार वर्णन हैं आगे चुंडाजी पड़िहारोंके मंडोवरमें सादी करी, ( दोहा ) चूडा. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० महाजनवंश मुक्तावली चवरी चाढ़, दीवी मंडोवर दायजे, इंदातणो उपकार कम धन कदियन वीसरे, पीछे सुनाहै के चूंडेजीके १४ जाये १४ रावकहा ये प्रथम योधपुर १ बीकानेर २ किशनगढ़ ३ रतलाम ४ झबुआ ५ ईडर ६ अहमदनगर ७ इत्यादिक १४ ही राजा हुए। ( अथ योधपुर तख्तनसीन महाराज ) १ रावश्री योधाजी ११ महाराजा श्रीजसवन्त सिंहजी । २ रावश्री सांतलजी १२ महाराजा श्रीअजीत सिंहजी . ३ रावधी सूजाजी १३ महाराजा श्रीअभय सिंहजी ४ रावश्री गांगोजी १४ महाराजा श्रीराम सिंहजी ५ रावश्री मालदेवजी १५ महाराजा श्रीवखत् सिंहजी ६ रावश्री चन्द्रसेनजी १६ महाराजा श्रीविजय सिंहजी ७ महाराजा श्रीउदय सिंहजी १७ महाराजा श्रीभीम सिंहजी ( महाराजा श्रीसूर सिंहजी १८ महाराजा श्रीमान सिंहजी ९ महाराजा श्रीगज सिंहजी १९ महाराजा श्रीतख्त सिंहजी - १० रावश्री अमर सिंहजी नागोर . २० महाराजा श्रीजसवन्त सिंहजी तख्त विराजे २१ सिरदार० सुमेरु० उम्मेद (जेसलमेररावलराजा) सिंहजी चिरञ्जीवी विजयराज्यै सात कुलगर विमल बाहन वगैरह सातमानामि १ ऋषभ ब्रम्हा २ आत्रेय प्रथम वैद्य ३ असंक्षा पाटवीते सोम ४ असंक्षा पाटवीते वुद्ध ५ असंक्षा पाटवीते पुरूरवा ६ असंक्षा पाटवीते आई ७ असंक्षापाटवीते लघु ( फिर असंक्षा राजाहुए ९ असंक्षा पाटवीते, जयात्र १० असंक्षा पाटवीते चन्द्र कीर्ति ११ इसके पुत्र नहीं तब युगलक दूसरे क्षेत्रसे: लाकर देवता तख्त विठलाया हरि राजा यहांसे हरि वंश कुल प्रसिद्ध हुआ:चम्पा नगरीमें जो दक्षिण मुगलाईमें वीडनामसे प्रसिद्ध है १२ इसके असंक्षा वर्ष पर दष्टाद १३ असंख्या पीछे अजोन १४ असंक्षा वर्ष वीते अधिपती १५. असंक्षा वर्ष वीते थाई १६ सरमेन्द्र १७ उमेकर १८ चित्र १९ चित्र रथ २० चक्रधन २१ अष्ट कर २२ चन्द्र कुमार २३ अत्रेय २४ सह Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली २४१ । स्रार्जुन २५ सार २६ उद्धरण २७ बलिमित्र २८ प्रल्हाद २९ मृग धत्त ३० हरि विभ्रम ३१ भवण ३२ दूसल ३३ झूझक ३४ अचन सान सात ३५ भूमिपाल ३६ नवरथ ३७ दसरथ ३८ शक्त कुमार ३९ पृथ्वी भार ४० समर्थ ४१ श्रेष्ठपती ४२ यहिबपत्र ४३ जादू ४४ इसके परिवार बहुत जादव कह लाये इस का सूर १९ सूरके दो पुत्र सोरी ४६ दुसरा सुबीर सोरीका. अन्धक वृश्नी ४७ सुवीरका भोजक वृश्नी इनके उग्रसेन मथुराका राजा हुआ अन्धक वृश्नीके समुद्र विजय बडा सोरी पुरका राजा छोटाही छोटा वसुदेव ४ ८ ये १० भाई दशारण वजतेथे वसुदेवके कृष्ण ४९ प्रद्युम्न ५० अनिरुद्ध ५१ वज्र ५२ प्रतिबाहू ५३ बाहू ५४ सुबाहू ५५ भाटी ५६ इसका परिवार भाटी वजणे लगा जगसेन ५७ सालिवाहन ५८ भुवन पति ५९ भोपराज ६० मंगलराव ६१ वुद्ध ६२ वच्छराज ६३ देहल ६४ केशर ६५ तणा ६६ विजयराव ६७ देवराज सिद्धी ६८ तणु ६९ मधु ७० रावबाछ ७१ दुसाज ७२ जेसलजी जेसल मेर गढ़ डाला विक्रम सम्बत् १२ १२ सावण सुदी १२ रविवार ७३. सालिवाहन ७४ राववीजलपिता द्रोणक रिष्ट ७५ राव कल्याण ७६ राव चोचावड़ो ७७ राव कर्ण ७८ राव लखण ७९ राव पुन्यपाल ८० रावतसी ८१ राव मूलराज ८२ राव दल ८३ राव घड़सी ८४ राव केहर ८५ राव लखमण ८६ राव वैरसी ८७ रावधावो ८८ राव देइचीदास ८९ राव जैतसी ९० राव लूण करण ९१ रावमालढे ९२ राव हरदास ९३ राव भीमजी ९४ राव कल्याणदास ९५ रावमांनसिंह ९६ रावरामचन्द्र ९७ रावसबलराज ९८ राव अमरसिंह ९९ राव जसवन्तसिंह १०० राव जगत सिंह १०१ राव अखयसिंह १०२ राव मूलराजजी १०३ राव गजसिंहजी १०४ राव रणजीत सिंहजी १०५ वैरीसालजी १०६ शालिवाहनजी विजय राज्ये * देरावर बसाई पमारो पास लोद्रवालिया। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१४२. __ महाजनवंश मुक्तावली (अथ ओसवंश नाम ) श्रीमाल १ श्रीश्रीमाल १३५ गोत्र २ श्रीपना ३ श्रीपति ४ (अ) . आदित्य १ आसुपुरा · २ आसाणी ३ अचल ४ अमरावत ५ अधोड़ा ६ आमाणी ७ आकोल्या ८ आमड़ ९ अशुभ १० असोचिया ११ अमी १२ आइ चणाग १३ आकाशमार्गी १४ आंचलिया १५ आला. १६ आयरिया १७ आमदेव १८ आली झाड़ १९ आलावत २० अंवड़ २१ आवगोत २२ आसी २३ आभू २४ आखां २५ अछड़ २६ आभड रहा इलड़िया ९ ईदा २ उत्कण्ठ १ उर २ ऊरण ३ ऊनवाल ४ उदावत ५ ओसतवाल ६ . ओरडिया ७ काउक १ कटारिया २ कठियार ३ कणोर ४ कनियार ५ कनोजा ६ करणारी ७ करहेडी ८ कड़िया ९ कठोतिया १० कठफोड़ ११ कहा १२ कसाण १३ कठ १४ कठाल १५ कनक १६ ककड़ १७ कत्राडिया १८ कांकलिया काकरेचा १९ कावसा २० काग २१ कांकरिया २२ कासतवाल २३ काजल २४ कजलोत २५ काठोलडा २६ काबेडिया २७ कांधल २८ कांतल २९ कावड़ ३० कांचिया ३१ करणावट ३२ कुगचिया ३३ कांसेरिया ३४ केल ३५ काबा ३६ कछावा ३७ कुंभटिया ३८ कोरा ३९ कांगसिया ४० कसूंभा ४ १ केशरिया ४२ काला ४३ कोचर ४ ४ कानूगा ४५ कोठारी केई तरहका ४६ कोचेटा ४७ कातेला ४८ कातरेला ४९ कुदाल कई तरहका ५० कुहाड ५१ करमदिया ५२ करोंदिया ५३ कान्हउड़ा ५४ कुत्रेरिया ५५ कुचेरिया ५६ कुरकुचिया ५७ कलरोही ५८ कोकड़ा ५९ कर्णाट ६० कुलहट ६ १ कूकड़ ६२ कुलभांण ६३ क्यावर ६४ किरणाल ६५ कूकूरोल Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली .,१४३ ६६ काछवा ६७ कुंदण ६८ कोट ६९ कोटेका ७० कैहड़ा ७१ कलिया ७२ कंकर ७३ कावड़िया ७४ कांचलिया ७५ कुंकुम ७६ कड़े ७७ कूकड़ा ७८ कूहड़ ७९ कौवर ८० कोठेचा ८१ करहड़ा ८२ कलपाणा ८३ कोटलिया ८४ कोठी फोडा ८५ (ख ) खटवड़ १ खाटोड़ा २. खोटड़ ३ खान्या ४ खींमसरा ५ खुडद्या ६ खेमासस्या ७ खेमानंदी ८ खेतसी ९ क्षेत्रपाल्या १० खड़भण्डारी ११ खड़भणसाली १२ खजानची १३ ख़तड़ा १४ खरधरा १५ खरहत्थ १६ खोखा १७ (ग) गणधर १ गणधर चोपड़ा २ गिड़ीया ३ गैलड़ा ४ गड़वाणी ५ गादहिया ६ गाय. ७ गावड़िया ८ गांग ९ गांधी १० गंधिया १९ गूगलिया १२ गुलगुलिया १३ गेवरिया १४ गोरा १५ गोखरू १६ गोंदेचा १७ गोलेछा १८ गोढवाड्या १९ गोध २० गोठी २ १ गोगड़ २२ गटा २३ गर २४ गोय २५ गोसल २६ गहलोत २७ गल्लाणी २८ (घ) घुल्ल १-बोरवाड़ २ घोडावत ३ घोषा ४ घंटेलिया ५ घीया ६ चौहाण २४ सई जातवाले अश्वपति हुए १ चतुर २ चीपट ३ चींपड़ ४ चोरवेड़िया ५ चौपड़ा ६ चौधरी ७ चंडालिया ८ चव ९ चिड़चिड़ १० चीचड़ ११ चम्म १२ चामड़ १३ चीलमोहता १४ चोदू १५ चंद्रावत १६ . . (छ) - छजलाणी १ छाजहड़ काजलोत २ छाजेड ३ छोहय ४ छापरिया ५ छैत ६ छंदवाल ७ छापरवाल । · जणिया १ जालोरा २ जैणावत ३ जिन्नाणी ४ जुष्टल ५ जुजाण्म Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ महाजनवंश मुक्तावली ६ जुबर्हा ७ जोइया ( जांबड ९ जांगड़ा १० जड़िया ११ जाइलवाल १२ जोधा १३ जलवाणी १४ जिन्द १५ जादव १६ जोहा १७ झंबक १ झाबक २ झावड़ ३ झवरी ४ झोटा ५ झालाई ६... (ट) टांटिया १ दूंकलिया २ टोडरवाल.३ टिकोरा ४ टेका ५ टीकायत ६ टाटया७ ठाकर १ ठंठवाल २ ठीक ३ ठीकरिया ४ - (ड) डहत्थ १ डफरिया २ डफ ३ डागा ४ डाकलिया ५ डाकपालिया ६ डांगी ७ डूंगरवाल ८ डीडू ९ डौडिया १० डिडुता ११ डोसी १२ डूगरंचा १३ ढढ्ढा १ ढाबरिया २ ढिल्लीवाल ४ ढेढीया ६ ढेलडाया ६ ढींक ७ ढोर < ढेलडिया ९ (त) तलेरा १ तातहड़ २ तातेड़ ३ तिलहरा ४ तेलिया ५ तेलिया बोहरा ६ त्रिपेकिया ७ तेल्या ८ तोडरवाल ९ तिल्लाणा १० तेजाणी ११ तोसालिया १२ (थ) थरावत १ थररावत २ थाहर ३ थोरिया ४ (द) दरगड़ १ दक २ दरड़ा ३ दीपक ४ दूीवाल ५ दूधेड़िया ६ दूदवेडिया ७ दूगड़ ८ देसरला ९ देहरा १० देवानन्दी ११ दोसी १२ दुदवाल १३ दस्साणी १४ दुड़िया १५ दूधोड़ा १६ दफतरी १७ दइया १८ देवड़ा १२ दसोरा २० द्रवरी २१ देल वाडिया २२ दाना २३ देशवाल Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. (ध), धनचार १ धड़वाई २ धाड़ीवाल ३ धाड़ेवा ४ धाकड़ ५ धीया ६ धूर ७ धूंध्या ८ धूप्या ९ धेनडाया १० धौऱ्या ११ धंग १२ धत्तरिया १३ धन्नाणी १४ धेनावत १५ धांधल १६ धोका १७ . (न ) नवलखा १ नपावल्या २ नडुलाया ३ नक्षत्रगोत्र ४ नाहर ५ नाहटा ६ नानगाणी ७ नाबरिया ८ नानावट ९ नागपरा १० नाबेडा ११ नाबेडार १२ नाडूल्या १३ नांदेचा १४ नेणेसर १५ नेणवाल १६ नाग १७ नींबहडा १८ नारण १९ नारेला २० निरखी २१ नवकुद्दाल २२ नीमाणी २३ नाहउसरा २४ नीबाणिया २६ नाणी २६ नबाब २७ नागोरी भणसाली ओर भी कई तरहका २८ नागपुरिया २९ . परमार १ पंवार २ पड़िहार ३ पंचोली ४ पचायणेचा ५ पसला ६ पटवा ७ पटवारी ८ पटविद्या ९ पगारिया १० पगाऱ्या ११ परधाल्या १२ पारख तीन तरहका १३ पापडिया १४ पामेचा १५ पालावत १६ पीपाडा १७ पीपलिया १८ पंचोली वावेल १९ पूनमिया २ तरहका २० पूनम्या २१ पूगलिया २ जातका २२ पोकरणा २३ पांचा २४ पंचकुद्दाल २५ पोपाणी २६ पोमाणी २७ पीतलिया २८ पीथलिया २९ पोरवाल ३० पैतीसा ३१ पचीसा ३२ पांचा ३३ पूण ३४ . फतह पुरिया १ फूमड़ा २ फूसला ३ फूल फगर ४ फोकठिया ५ फोफलिया ६ फलोधिया ७ फाकरिया ८ फलसा ९ । (ब) - बरदिया १ बरहड़िया २ विछायत ३ बछावत ४ बराड़ ५ बडलोया ६ बड़गोता ७ बलाही ८ बलदोबा ९ बणभट १० बबाला ११ बावेल १२ बडोल १३ बरड़ १४ बोरड़ १५ बोकडाया १६ बोकड़ा १७ बोहरा । अनेक जातका १८ बोहरिया १९ बौल्या २० बौरधा २१ बंब २२ बंबोढ़ १९-२० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ - महाजनवंश मुक्तावली. २३ बंश २४ बंका २५ बांका २६ बंठिया २७ बांटिया २८ बांट्या २९ बाफणा . ३० बहुफणा ३१ बापना ३२ बूबकिया ३३ बैदकई जातका ३४ बैतालिया ३५ ब्रह्मैचा ३६ बडेर ३७ बद्धाणी ३८ विरहट ३९ बीर ४० बलहरा ४ १ बसाह ४२ बाहंतिया ४३ बोक ४४ बोथरा ४५ वांगाणी ४६ बाघचार ४७ बाघमार ४८ बाकरमार ४९ बेगाणी ५० बीराणी ५१ बीरी बत ५२ बांभी ५३ बुच्चा ५४ बूंबा ५५ बराहुन्या ५६ बगडिया ५७ बायड़ा ५८ बाघड़ी ५९ बालिया . ६० बरण ६१ बिलस ६२ बाल ६३ बांबल ६४ बाहबल ६५ बट ६६ बिनायकिया ६७ । - (भ) भल्लड़िया १ भडारा २ भद्रा ३ भड़कतिया ४ भक्कड़ ५ भटेवरा ६ भादाणी ७ भ्राद्रगोत ( भाभू ९ भामूपारख १० भीलमार ११. भरट्ट १२ भौरडिया १३ भौर १४ भंगलिया १५ भंडसाली १६ भणशालीराय और खड़ १७ भंडगोत्र १८ भांडावत १९ भण्डारीराय तथा क० २० भरा २१ भर २२ भेला २३ भूतेड़िया २४ भल्ल २५ भुगड़ी २६ भंडसूरा २७ भूतोड्या २८ भटाकिया २९ भट्टारकिया ३० भेलड़ा ३१ भाटिया ३२ भाटो ३३ भूआत्ता ३४ भूप ३५ भंवरा ३६ भलाणिया ३७ भैंसा ३८ भट्ट ३९ भीडा ४० भगत ४१ ।। (म) मटा १ मरड़या सोनी २ मणहड़िया ३ मसरा ४ मम्मइया ५ मणहडिया ६ मकवाण ७ महाभद्र ८ मगदिया ९ मालू २ तरहका १० माधोटिया ११ मुंहणांयी १२ मुंहणो १३ मुंहणोत १४ मेड़तवाल १५ मोहीवाल १६ मौहीवाला १७ मौहबबा १८ मंडोवरा १९ मंडोचित २० मंग. लिया २१ मेर २२ मोहड़ा २३ मेघा २४ मोदी २५ मल्ल २६ मुंहाला २७ मुहियड २८ महेचा २९ मुकीम ३० मरोठी ३१ मरराणा ३२ मारू ३३ मोराक्ष ३४ मोलाणी ३५ मदारिया ३६ मरोठिया ३७ मक्कलवाल ३८ मगदिया ३९ मीठड़िया ४० मुंगरवाल ४१ महाननिया ४२ मूंग Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. १४७ -रेचा ४३ माल्हण ४४ मुसरफ बेगाणी ४५ मीनी ४६ मड़िया ४७ मल्ला- वत बांठिया ४८ महाबत ४९ मालविया ५० माधवाणी ५१ महति - -याण ५२ मूंधडा १३ मोर ५४ मांचोदिया १५ मेनाला १६ महीपाल १७॥ ( य ) यक्षगोत्र १ यौगड़ २ यादव ३ योगेसरा ४ ( र ) रतनपुरा १ रतन सूरा २ रतनावत ३ रत्ताणी बोथरा ४ रातड़िया ५ - राखेचा ६ रावल ७ राणाजी ८ राय भण्डारी ९ रांका १० रोहड़ ११ रोटा गण १२ रूप १३ रूपधरा १४ रुणवाल १९ रायजादा १६ रावत १७ राठोड़ १८ रुणिया १९ रामपुरिया २ तरहका २० रेणू २१ राखड़िया २२ रामसेन्या २३ रणधीरोत कोठारी २४ राव २५ । ( ल ) लक्कड़ १ ललवाणी २ लींगा ३ लुंबक ४ लूंकड़ ५ लूणावत ६ लालण ७ लालाणी ८ लूणिया ९ लेला १० लेवा ११ लोढ़ाराय १२ लोढ़ा कठ्ठा १३ लोटा १४ लोलग १५ लूटंकण १६ लांबा १७ ललित १८ । ( स ) सचिन्ती १ सचिन्ती ढिल्लीवाल २ सखला ३ समुद्रिया ४ सवरला ५ सालेचा ६ साहेल ७ सियार ८ सीखाणा ९ सीसोदिया १० सिरोहिया ११ सियाल दो तरहका १२ सुदेवा १३ सूराणा १४ सराफ १५ सुन्दर १६ सूरपुऱ्या १७ सूरपुरा १८ सुकलेचा १९ सेठिया २० सेठीपावरा २.१ • सोनगरा २२ सोलंखी २३ सोनी २ तरहका २४ सांड २ तरहका २५ संघवी कईतरहका २६ संड़ २७ संखला २८ सुघड २२ संवल ३० संखवालेचा ३१ संचती ३२ सांखला पमारामांह सुवाज्या ३३ सांखला निजराजपूत हुआ ३४ समदड़िया ३५ सांम सुका ३६ व दोनों एक ३७ सेठिया वेद बीकानेर महाराव प्रमुख ३ ८ लघुसेठी सोनवत ३९ सांह वाठिया ४० साह वोथरा साह पद बहु जाती ४१ सिंघल - ४२ सींप ४३ सीपाणी ४४ सुत ४५ सधरा ४६ सोझतवाल ४७ सिंघा - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ महाजनवंश मुक्तावली. ड़िया ४८ सेखाणी ४९ सुखाणी ५० सेठ ५१ सुथड़ ५२ सोमलिया ५३ समूलिया ५४ साहला ५५ सोनीवापना ५६ सापद्राह ५७ सांभरिया ५८ सारंगाणी ५९ सूर ६० सींवड़ ६१ सिन्दुरीया ६२ सचोपा ६३ सेल्होत ६४ सेवड़िया ६५ सांचोरा ६६ सोझतिया ६७ संभुआना ६८ सरला ६९ सुंधेचा ७० ___ हंगुड़िया १ हींगड़ २ हेमपुरा ३ इंडिया ४ हाहा ५ हाथाला ६ हाला ७ हीरावत - हिरण ९ हरखावत बांठिया १० हिड़ाऊ ११ हेम १२ हठीला १३ हमीर १४ हंसारिया १५ हंस १६ इसी तरह हमने ६८० इतने नाम पाए सो लिख दिये हैं बाकी अश्वपंती जात रत्नाकर सागर है, इसमें गोत्र नख मुक्तावलीका पार कौन पसिक्ता है अन धन संपदा पुत्र कलत्रादि परिवारसे गुरू देव सदा इन्होंकी संवाई वानी रखे, वड़ शाखा ज्यों, विस्तार पाओ, (गृहस्थाश्रमव्यवहार ) . अस्वल तो सोलह संस्कार जैनधर्मके ( आर्य वेद ) के प्रमाण मंत्र युक्त विधिसें जैनधर्मी श्रावकोंको जन्मसे लेकर मरणपर्यन्त केहैं सो आगे तो जैनधर्मी ब्राह्मण थे वह कराते थे और अब श्रावकोंको चाहिए की जो काल धर्मकों विचार कर जैन जती पंडितोंसे कर बाणा दुरस्त है जो किसी जगह जती पंडित नहीं मिले तो सोलह संस्कार की पुस्तक जैनधर्म आर्य वेद मंत्रोंकी विधी समेत बीकानेरमे हमारे इहां मिलती है पंडित महात्मा जैनी भोजकसे विधीसें करवावे मगर मिथ्यात्वियोंके संस्कार विधीसे दूरही रहना दुरस्त है, गुजरातमे प्रथा शुरू होगई है १ व्रत पच्च खान अपनी कायाकी शक्ती मुजिब नवकारसीसें आदिलेनिभेजेसाधारणा १ धन पैदा करके इसभव परभव दोनों सुधरे और दुनियां तारीफ धर्म वन्तकी दातारकी हमेशा करे वैसाही करणा २ शास्त्र पढे हुए विचक्षण उपदेशी जैनधर्ममें तत्पर निष्कपट महापुरुषकी संगत और द्रव्य भाव भक्ति करणी ३ लैण दैण साफ रखणा ४ करजदार जहां तक बणे वे कारण होना नहीं ५ विश्वास पैठ प्रतिती पूरे बाकिफ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. १४९ कार हुए विगर हर किसीका करणा नहीं ६ स्त्रियोंको कुलवन्ती सुलक्षणी चतुरा सिवाय हर किसीकी संगत नहीं करणे देणा ७ अपनी तासीरकों नुकशान करे ऐसा पदार्थ ऋतुके विरुद्ध व कुलके विरुद्ध व प्रकृतीके विरुद्ध कभी खाना नहीं या पूर्ण विद्यावान् देशी वैद्यकी आज्ञा उपदेश हमेशा धारण करणा ९ कोई तरह काभी व्यसन सौखसें सीखणा नहीं १० रोग कारण और विचारणा ११ कठिन शब्द किसीको बे कारण कहना नहीं १४ घरका भेद कुमित्रोंकों कभी देणा नहीं १५ धर्मी पुरुषकों वणे जहां तक सहाय देणा १६ परमेश्वर और मौत, अपने पर किया हुआ उपकार इन तीनोंको हर दम याद करते रहना १७ किसीके घर पर जाणा तो वाहिरसें पुकार कर अन्दर घुसणा १८ मुल्कगिरी करते वक्त हाथकी सच्चाई १ जुवान की सच्चाई २ लैन दैनकी सच्चाई, लंगोटकी सच्चाई रखणा, १९ और वे खबर गफलत सोणा नहीं २० वणे जहां तक इकेलेने मुसाफिरी नहीं करणी, २१ फाटका करणेवाला तथा जुवारीकों गुमास्ता रखणा नहीं रुपया उधार देणा नहीं २२ मंत्र पढ़कर या किमिया गिरीसें जो पुरुष द्रव्य चाहते हैं, उन्हों पर देवका कोप हुआ समझणा, २३ अपने लड़का लड़कियोंको हर एक तरहका हुन्नर सिखलाणा, इल्म सिखाणा, अखूट धन देना है २४ सरकारके कायदेके वर खिलाफ पांव नहीं धरना, २५ धन पाकर गरीबोंको सताणा नहीं, २६ अभिमान करणा नहीं २७ तनमन और वस्त्र हमेस साफ रखणा, २८ जैनधर्मके मुकावले दूसरा धर्म नहीं २९ क्योंके अहिंसा परमो धर्मः इस वर्तावसे इस धर्मका सारा व्यवहार है, पक्का इतकात रक्खो ३० जीव अपने पूर्वके किये हुए पुन्य पापसें सुख दुख पाता है ईश्वर किसीका भला बुरा नहीं करता, ३१ दुनिया न तो किसीने बनाई है और न कोई नाश कर सकता है, पांच समवायके मेलमें सारा काम घटत बढ़त हो रहा है काल १ स्वभाव २ भवितब्यता ३ जीवोंके कर्म ४ जीवोंका उद्यम ५ सब इन्होंकाही फेरफार __ १ खानपानादि आहार विहारादि आरोग्यताके लिए हमारा लिखा वैद्य दीपक ग्रंथ छपा हुआ पढो, न्योछावर ५). Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० महाजनवंश मुक्तावली. कुदरत दिखाता है ३२ कर्मके नचाये देव पशु मनुष्य सब स्वांग नाच रहै हैं, ब्रम्हाको कुम्भारका कर्म करणा पड़ा विष्णुको दश अवतार धारण कर महा संकट उठाणा पड़ा, रुद्रको ठीकरा हाथमें लेकर भीख मांगणी पड़ी, सूर्यको हमेश चक्र लगाना पड़ा, वस कर्मकी गतिको जिसनें पहचाणा वही जन्म मरणसे छूट गया वह सर्वज्ञ ईश्वर ज्ञानानन्द मई अरूपी आत्मा है ३४ जैसैं ईश्वर और जीव दोनों किसीके बनाये हुए नहीं वैसैंही दुनिया किसीकी बनाई हुई नहीं ३५ दुनिया ईश्वरकी कर्ताकी दलील करती है, मगर इन्साफसे पेश नहीं आते ३६ आकाशमें सूर्य चन्द्र तारे जो तुम देखते हो यह ईश्वरके बनाये हुए नहीं है ज्योतिषी देवताओंके विमान है, इन्होंको देवता चलाते हैं ३७ कई लोग जमीनकों नारंगीकी तरह गोल कहते हैं लेकिन जमीन थालीकी तरह गोल है और सपाट है ३८ जमीन नहीं फिरती, अचल है चन्द्र १ सूर्य २ ग्रह ३ नक्षत्र ४ और तारे ५ अपने कायदे मुजिब फिरते हैं ३९ आत्मा एक अविनाशी शरीर तापसे जुदा पदार्थ है मगर कर्म तापके वस मोह अज्ञान जड़ने घेरा हुआ है ४० मांस खाणेसें वैद्यक विद्याके हिसाब बडाही नुकशान करणे वाला और धर्मके कायदेसें नरक जानेका कारण, और जिसें जीवकों मारकर मांस लिया जाता है वह पिछला बदला लिए विगर हरगिज छोड़ेगा नहीं ४१ पेस्तर रावण कृष्ण रामचन्द्र तथा लक्ष्मणादिक विमानके जरिये हजारो कोसोंकी मुसाफरी करते थे ४२ जिसके पुन्य प्रबल है उसका बुरा कोई नहीं कर सत्ता ४३ देव गुरूके दर्शन करे बिगर भोजन करना श्रावकोंको उचित नहीं ४ ४ दौलत धर्मकी दासी है ४५ जैसा दुश्मनका कोप रखते हो ऐसा १८ पाप स्थानकोंका रक्खा करो ४६ वाप माका दिल, वंदगी कर खुश रक्खा करो मांका फरज वापसें भी आला दरजेका है तुम वह करजा कभी नहीं फेट सकोगे, जहां तक धर्म प्राप्तिका सलूक नहीं करोगे उहां तक ४७ जलमें मत घुसो ४८ बिगर छाणा जल मत पीओ. ४९ बिगर गुण दोष जाणे बिगर नजरके वे दरियाफ्त कोई चीन मत खाओ पीओ ५० वासी भोजन मत करो ५१ सरकारी एनके कायदेसें Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महाजनवंश मुक्तावली. .. १५१ वाकिफ रहो ५२ राजद्रोह मत करो ५३ देशी उन्नतिका ढंग हुन्नर इल्म संप और मदत देणाही मुख्य है ५४ व्यापार सब मुल्ककी आवं दानीका बीज है ५५ शराबसें खराब होणा है ५६ सभामें गुरूके पास और दरबारमें जाते संका मत लाओ पूछेका जबाब विचारके दो सभामें वैठणा वोलणा लायकीसें करो ५७ रानकी कचहरीमें हाकिम धमकावे तो या फुसलावे तो डरो भी मत और न फुसलाने पर कायदेके वर खिलाफ बात करो हाकिमोंका दस्तूर है कि मुद्दई और मुद्दयिलहके दिलको कमजोर कर बात पूछणा जिससे वह हड़वड़ाके कुछका कुछ कह उठे अब वह जमाना नहीं है जोकी न्यायकी गहरी खोजसे सच्चका सच्च झूठका झूठ और अब तो चालाकी सफाई और गवाहीसे मिसलका पेटा भरा, वस झूठा भी सच्चा वन जाता है ५८ जैनधर्मियोंकी रिवाज है कि, प्रात समय उठके, परमेष्ठी ध्यान मन गत करे, पीछे फिर शुच होके वस्त्र बदलके सामायक प्रतिक्रमण करे उहांसे उठ कर स्नान तिलक कर उत्तम श्रेष्ठ अष्ट द्रव्य लेकर जिन मन्दिरोंमें, या घर देरासरमें, पूजा करे, नैवेद्य बली चढाकर, वस्त्र पहन कर, गुरूकू यथा योग्य वन्दन कर, व्याख्यान सुणे, पच्चखाणकाया शक्ति मुनब, छछंडी चार आगार मोकला रक्खे, फिर घर पर सुपात्र तथा क्षुल्लक सिद्ध पुत्र, अनुकम्पावगैरह दान यथाशक्ति करके ऋतु पथ्य, प्रकृति पथ्य, कुलाचार मुजब भोजन दो भाग, एक भाग जल, एक भाग खाली पेट रक्खे, सराब ब्रांडी मिली तथा जीवोंके मांस चरबीसें वणा पदार्थ खांणा तो दूर रहा, लेकिन हाथसें भी स्पर्श, न करे वस्त्र उजले धोये हुए साफ पहरणा, आगे ऐसा रिवाज भारत वर्षमें था कि, शूद्र जातीके लोक, नख, बाल साफ कराए हुए शुद्ध वस्त्र पहन कर, शुद्ध ताईसें, भोजन रसवती तैय्यार करते, तब राजपूत वैश्य और ब्राह्मण भोजन करलेते स्वामी दया नन्दजी, सत्यार्थ प्रकाशमें लिखते हैं ऐसा वेदोंमें लिखा है, कौन जाने इसी रिवाजकों, हमारी जैन जाति ' कबूल करके चलते होंगे मारवाड़के, क्योंके आगे ब्राह्मण लोक भट्ट झोकणेका काम, शूद्रोंका समझ, नहीं करते थे, और वनोवासी ऋषि थे वह तो, मध्यान्हकों, एकही Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ महाजनवंश मुक्तावली. समय भोजन अपने हाथकी बनाई हुई खाते थे, वह स्वयंपाकी वजते थे, अब तो चारोंकामकों, ब्राह्मण मुस्तैद हैं पीर १ बबरची २ भिस्ती ३ खर ४ तो बहुतही अच्छा हैं मांसं मदिराके त्यागी जो मारवाड़ गुजरात कच्छके ब्राम्हण हैं, उन्होंसे चारों काम कराणा जैनधर्मियोंके लिए, वे जा तो नहीं है लेकिन जल दिनमें दोवक्त छाणना, चूलेमें लकड़ीमें, सीधे सरंजाममें, साग, पात, फल, फूलके जीवोंकों, तपासणा, जैन धर्मकी स्त्रियोंको, अथवा मर्दोको करणा वाजिव है ब्राह्मण तो फरमाते हैं हम तो अग्निके मुख हैं, जो होय सो सब स्वाहा लेकिन दया धर्मियोंको, इस बातका विवेक रखणा, एकका झूठा, तथा बहुत मनुष्योंने सामिल बैठके जीमना, ये उभय लोक विरुद्ध है डाक्टर लोक कहते हैं गरमी सुजाक कोढ़ खुजली आंख दुखणा वगैरह कई किस्मकी बिमारी, ऐसी तरहकी हैं, जो झूठ खाणेवालोंकों, लग जाती है, जिस वरत.णसे मुंह लगा कर, पाणी पीणा, वह वरतण पाणीके मटकेमें नहीं डालणा, कारण, उस पाणीसें रसोई, बणनेमें आवे तो, साधू सन्त, अभ्यागतकों देणा, उन्होंको अपणी झूठ न खिलाना है, वह अपना रोग लगाना है, वह महा पाप है, धर्म ध्यानके कपड़ोंसें, गृह कार्य नहीं करणा, स्त्रियोंको तीन दिन ऋतुधर्म आनेपर, घरका अनाज चुगाणा, कोरा कपडा सीणा, वगैरह रिवाजोंको बन्ध करणा, ठाणांग सूत्रपाठके, दशमें ठाणे, खूनकी असिझाई भगवानने फरमाई है, स्नान २४ पहर पीछे करणा, २ दिनसें करणा बाजिव नहीं है, सूतक जन्म पुत्रका १० दिन, लड़कीके ११ दिन, मरणका सूतक १२ दिन, जादह सूतक अभक्ष विचार देखणा हो तो रत्न समुचय हमारा छपाया हुआ पुस्तक देखना जहां तक भक्षाभक्षका विवेक नहीं, उहांपर्यंत पूरा व्रतधारी श्रावक नहीं हो सकता, रोगादिक कारण यत्न करे, श्रावकको तन दुरस्त रखणा, जिससे समझ वान, धर्म १ अर्थ २ काम ३ और मोक्ष ४ चारों साध सकता है, अन्य दर्शिनियोंकी संगत पाकर श्रावक धर्मकों छोडणा नहीं चाहिये, राज दंडे, लौकिक भंडे ऐसा रुजगार खान पान, धन प्राप्ति कभी नहीं करणा चाहिये, रात्रि भोजन करणेसें हैजा, Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ महाजनवंश मुक्तावली.. . १५३ जलन्धर, अजीर्णादिक रोग होणा इसभव विरुद्ध है और नाना तरहका रात्रि भोजनसें जीवघात होणेसें, नरक तिर्यच गति होती है यह परभव विरुद्ध है, मकान, चौका, और बरतण, और लड़का लड़कियें ये सब साफ सुघड़ रखणा चाहिये, जहां पवित्रता है वहां ही लक्ष्मी निवास करती हैं, श्रावक कुलाचारमें मांस मदिराका तो विल्कुल अभाव ही है तथापि सर्वज्ञ फर्माते हैं जहां तक तुम आत्माकी देवकी और गुरूकी साक्षीसें सौगन नहीं करोगे, उहां तक निश्चय नयसें तुम्हें उन चीजोंकी मुमानियत नहीं मानी जायगी, हरी वनस्पति बिल्कुल छोडणेका रिवाज आज कल मारवाड़के जैनोंमें ज्यादह प्रचलित है, इससे मुंहमें मसूड़े पककर खून गिरणा जोड़ोमें दर्दखूनकी खराबीनाताकत बहुत आदमी देखणेमें आते हैं, और गुजराती कच्छी जैन कोम ज्यादह सागपात तरकारी खाणेसें, बदहजमी, मेदबृद्धिदस्त वेटेम, इत्यादि रोगोंसे पीड़ित देखणेमें आते हैं, इस लिये कलकत्ते मकसूदावादवाले जैन कोमका रिवाज हरी वनस्पतिका मध्यवृत्तिका मालूम दिया है, जो कि ताजी वनस्पति आंम, कैरी, अनार, सन्तरा, मीठे नींबू, नेचू , गुलाबजामुन, परबलदूधी ( कद्द ) आदिक वढिया फलोंका, और गिणती मुजब सागोंका, तनदुरस्तीका, बर्ताव देखणेमें आया, न तो अब्रतपणा रखते हैं, न ऊठोंकी तरह हर वनस्पतिको खाकर, दोनों जन्म विगाड़ते हैं, गिणती माफिक पच्च खाण करते हैं, जैसे उपासगदशासूत्रमें आनन्द श्रावकनें कहा है वैसा इच्छारोधन शक्त्यानुसार करते हैं, श्रावकोंकों, सडाफल चलितरस, गिलपिला हुआ, आपसें ही छेद हुआ, ऐसे फल तथा तुच्छ फल, बेर, पीलू वगैरह कमकीमती जिसमें, कृमि, अन्दर पड़ जाती हैं, ऐसोंसे, हमेश, वचणा चाहिये, पत्तोंके साग, बरसातके ४ महिनें, हरगिज नहीं खाणा चाहिये, और मोलका आटा, विगर तपासाभया, घी, साबत सुपारी खानेसें, जैन धर्मशास्त्र मांस खाणेका, दोष फरमाते हैं, मगर मुसाफिरी करनेवाले, गरीब श्रावकोंसें मोलका आटा और घीका व्रत पालणा मुशकिल मालूम देता है, रेलके मुसाफिरोंको, मोलकी पूड़ी ही, मयस्सर होती हैं, विचार कर सौगन लेणा चाहिये, सौगन दिलाणेवाला पूरे जाण सुपारी खणा चाहिये, और हये, पत्तोंके साग, Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ महाजनवंश मुक्तावली. कार १ लेणेवाला पूरा जाणकार, दोनोंमेंसे एक जाणकार, ३ यहांतक तो सौगन यांने पच्चखाण शुद्ध माना गया, और करणेवाला, कराणेवाला, दोनों पञ्चखाणके स्वरूपके अजाण ये पच्चखाण तदन अशुद्ध है, सागपत्तोंके जीव तपासे विगर हरगिज बरताव नहीं करणा चाहिये जो जो पदार्थ वैद्यक शास्त्रवालोंने रोग कर्ता निरूपण किया है सो प्रायः तीर्थकरोंने अभक्ष फरमाया है देखो हमारा बनाया वैद्य दीपक ग्रन्थ, झूठे वरतणरातवासी नहीं रखणे चाहिये पत्तलोंमें भोजन करणेसें श्रावकोंको बडा पाप लगता है कारण उस पतलों पर भोजनका अंस लगा रहता है वह एक पर एक गिरणेसें प्रत्यक्ष कीड़े पैदा होकर हिंसा होती है, पात्र चांदीका सोनेका, गरीबोंकों उमदा कांसीके थाली कटोरे रखणा दुरस्त है आजकल टैन एलियो मिनीम वगैरहके. घर २ में चल रहे हैं धातू वह अच्छा समझणा चाहिये कि जिसके परमाणु पेटमें जाणेसें कोई किस्मकी पीछे तकलीफ न पैदा करे तांबा पीतल. जरूर हानि करते हैं हमेशके मावरेमें ये पात्र बिल्कुल अच्छे नहीं कारण भोजनमें षट्रस आता है और खट्टा रस लोण वगैरह जिस धातुके संग दुश्मन दावा रखता है ऐसा पात्र अच्छा नहीं श्रावककी करणी खरतर गच्छी जिन हर्षनीने चौपई रूप २२ गाथाकी बनाई है सो श्रावकोंके लिए नसियत है जरूर उसको अमलमें लाणाफर्ज है बचपनेमें ब्याह करणा उनोंका समागम कराणा जिन्दगानीको धक्का लगाणा है स्त्री तेरह पुरुष १८ यह कलयुगी रिवाजसे तदन हटना नहीं चाहिये बच्चोंको पढाणा जरूर है मगर याद रक्खो पहले दया धर्मकी शिक्षा दिला कर पीछे अंग्रेजी पढाणा मुनासिव है अगर न दी जायगी दयाधर्म शिक्षा तो अंग्रेजी पढ़ कर जरूर होटलोंके महमांन बणेंगे कोरे घड़ेमें पहले घी डालकर पीछे आप चाहै सो वस्तु डालो खारखटाई विना हरगिज ठीकरी चिकणापन घीका नहीं छोडेगी खार खटाई शिक्षामें क्या चीज है स्त्रीका लालच धनका लालच समझणा चाहिये, कारण धर्मशिक्षा पाये हुए भी इन दोनोंकी आसामें निज धर्म, बहुतसे खो बैठते हैं मगर थोड़े प्रायः नहीं छोडते हैं, इल्म पढाणेमें गणितकला, लिखतकला, शास्त्री अक्षर, अंग्रेजी अक्षरादिकोंकी, पठतकला Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखाणा जमानेके अनुसारही चाहिये, व्यापार हरकिस्मके करके, धन उत्पन्न करणा गृहस्थोंका मुख्य कृत्य है, तथापि तिल वगैरह अनाज फागुण महिने उपरान्त रखणेसें, महाजीवोंकी हिंसा होती है, सब कार्योंमें विवेकही रखणा मुख्य धर्म है, ( विचार ) जैसे गीतामें लिखा है ( स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः इसका अर्थ निर विवेकी कुछका कुछ करते हैं, लेकिन कृष्ण द्वैपायन व्यास आगामी चोबीसीमें तीर्थकर होणेवालेकी बनाई गीता कर्मयोग ग्रंथ है, इसके वचन प्रायः विसद्ध होय नहीं, इस-- वास्ते इसपदका सीधा अर्थ ज्ञानियोंके मान्य करणे योग्य विवेकी ऐसा समझते हैं, स्वधर्म क्या वस्त, आत्माका ज्ञान १ दर्शन २ चारित्र ३ तप ४ रूपधर्म, इस धर्ममें, निधनयानें इस शरीरके त्यागणेसें, श्रेय, याने मोक्ष होता है, परधर्म, याने कर्म जड़ पदार्थका, जो मोह, अज्ञान, मिथ्यात्व, अब्रत रूपधर्म है, सो भयका देनेवाला है, ऐसा अर्थ विवेकी करते हैं, इत्यादिक हर पदार्थपर, विचारणा, उसका नाम विवेक है, । (स्त्रियोंके लिये शिक्षा) पवित्रता रखणा, शील व्रत धारणा, स्त्रियोंका मुख्य शृङ्गार है, पतिकी भक्ति करणा, आज्ञानुसार वरतणा, घरका काम देखणा, रसोई बनाना, चुणणा, बीनना, फटकणा, कूटणा, पीसणा, छाणना, सब कामोंमें जीवोंका यत्न करणा, पापड़वडी दाल बनाना सुकान बिगड़नेवाले पदार्थों में फूलण कीडे न पड़ने पावे छायामें फैलाकर हवा देणा, उनू रेशमी वस्त्रोंको चातुरमासमें जीव नहीं पड़ने पावै इस तरकीबको ध्यानमें लाणा चाहिये, आचार मुरब्बा, बनाकर बिगडने, नहीं देना, वस्त्र धोए रंगे सुगन्धित रखणा, बच्चोंको स्नान, मञ्जन खान पान, पासाख गहणोंसे अलंकृत कर, पढाने भेजना, लडकियोंको लिखत पठत सींवना गुंथणा, कसीदा, चम्पा, अलमास, गोखरू वगैरह औरतोंकी चोसठकला, जैसें श्री ऋषम आदीश्वरने अपनी लडकिये, ब्राह्मी सुन्दरीकों सिखलाई, उसमेंकी बणे जहांतक . सिखलाणा, क्योंके स्त्रियोंकों जगह २ पुरुषोंकी अर्द्धागा फरमाई है, और सच है भी ऐसा, मनुष्य धन कमाणा इतनेही मात्रका. मजूर है लेकिन Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ महाजनवंश मुक्तावली. घर धणियाणी स्त्रीही कहलाती है, अगर वह अणपढ कलाहीण होगी तो, पुरुषका आधा अङ्ग बेकाम होजाता है, जैसें पक्षाघात (लकवा) में होता है, ये भी एक जन्मभरका रोगही लगा समझा जाता है ( दोहा ) पुत्र मूर्ख चपलाति या, पुत्री विधवा जात, धनहीना शठ मित्रतें विना अन जर जात, १ ये पांच योग जब बण आते हैं, तबबिना अंगारके मनुष्य जल जाता है, जिन स्वार्थ तत्परोंने ऐसे २ वहम हिन्दुस्थान में डाल रखे हैं कि, लड़कियोंको हरगिज नहीं पढणा, वह व्यभिचारिणी वा विधवा हो जाती है उन धर्माध्यक्षोंने ये विचार करा के, जो घर वणियाणी ज्यादह पढी हुई होशियार होगी तो, हम गपोड पुराण सुनाकर धर्म राजके ईश्वरके, तथा नवग्रहोंके अङ्ग, या आडतिये, वणकर, माल उतारणेका, ढंगजमावेंगेतो, हरगिज नहीं ठगायगी, सच्च है इस अण पढ़ताके कारण घरमें किसीको बिमारी होती है तो, झाडा फूंका करा जोगी फक्कड काजी मुल्लोंके हाथ हजारोंका माल ठगवाती है, या किसी मनमांनें भूत पलीतका बोलवाकर मूर्ख अणपढ कुमार्गी कुपात्रों को भोजन वस्त्र रुपया वगैरह जो वह मांगे, सो देती है, लेकिन रोगकी परिक्षा कराकर, विद्वान वगैरह वैद्य डाक्टरोंसे, किसी तरहसें पेश नहीं आने देती जो कभी भाग्य योग, घरमेंका स्याणा आदमी किसी वैद्यकों लावेगा तो प्रथम तो उसकी कही बात पर अमल न होणे देगी, या रोगीकों मनमाने कुपथ्य खिलावेगी, और मनमें समझेगी, वैद्य तो पथ्य कराकर, मारही डालते हैं, जब अच्छी मनमानी चीजें खायगा तो, ताकत आकर झट आराम आ जायगा दवाइयोंसें क्या होणा है, या तो अमें, भैरू पितर, मांडिया, देवियां नचायगी, ये सब काम अणपढ़ी स्त्रियोंके साथ, सम्बन्ध रखते हैं, वाजै २ अणपढ़, स्त्री भक्त, मोह ग्रसित मनुष्य भी काठके उल्लु ऐसे २ होते हैं, विधवा होना पूर्व जन्मका संस्कार हैं, प्रथम तो लड़केकी आयुररेखा समझ वारोंसें मालुम कराणी ज्योतिषी पूरे विद्वानसें ग्रहाचार आयुरेखा निश्चय करा कर, पीछे लग्न करणा चाहिये, वरके तरफ खयाल नहीं करती, घरके तरफ खयाल करती हैं, गहना kambar Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. १५७ ज्यादा डाले सो घर होना, कारण कोई पूछ तो, फरमाती हैं, जमाई - मर जाय तो , मेरी बेटी क्या खायगी ऐसा मांगलिक शब्द सुनाती हैं, जो इल्मदार कला कौशल सीखी हुई कन्या होगी तो, ऐसे मोकेपर अपनी कारीगरीसें चारोंका पेट भरसक्ती है, अपनी. तो विशायत ही क्या है, वाजे स्त्रिये इल्महीन पती मरे पीछे गुजरान चलाणे, पर पुरुषका आसरा लाचारीसें लेती है, लड़कपनेमें ब्याह करणेसे, जब पतीका वियोग होनेसे होश सम्हाले पीछे कुललांच्छित करना सूझता है, या, जब हमलरहजाताहैतो, विरादरीके कोपसें गिराती है, वाजै अपघात करती हैं, मुल्क छोड़ती हैं, सरकारसे सजा पाती है, जाति वहिस्कृत हो जाती है, इस वास्ते शूद्रसंज्ञाके लोकोंमें, पुनर्विवाहकी रस्म जारी है, ऐसे २ बाबतोंकों देख गवर्मेन्ट पुनर्विवाहकों पूरा अमलमें लाया चाहती है, क्योंके प्रजा बृद्धि और पंचेन्द्री जीवोंकी हिंसाका बचाव, और स्वामी दयानन्दजी भी यही तूती बजागये, समाजी लोक बजाते फिरते हैं जैन निग्रन्थका हुक्म है, तपस्या करके इन्द्रियोंको दमन कर, धर्म तत्परता होणा विधवाओंने, या दुनियातार्क, सो प्रायः जैन कोमकी स्त्रिये बेलातेला अठाई, पक्ष, मासादिकोंकी, तपस्या करती हैं, कई रोज पीछे हाड मांस सुकाकर मृत्यूको प्राप्त होती है, ऐसा व्यवहार करणे वालियोंके लिए, ये शिक्षा, निग्रन्थ प्रवचनकी, बहुत लायक तारीफके है, लेकिन सबोंका दिल, और बदन, और आदत, एकसा होता नहीं, उन्होंके लिए, अपनी २ कोमके पंचोंने, सुलभ निर्वाह मुजब कायदेके प्रबन्ध, सोचनेकी जरूरी है, राजपूतोंमें पड़देका रिवाज शील ब्रत कायम रखणेकों ही जारी किया गया है, यह जबराईसे शील व्रतका, कायदा रखणा है, सच्च है जो स्त्री स्वेच्छा चारिणीयां होकर, इधर उधर भटकेगी, जरूर लांच्छित हो जायगी, पुरुषोंका संग, दुराचारी स्त्रियोंका सहवास, मनुष्योंकी प्रार्थना और धनका लालच, एकान्त पाकर भी, जो अपना व्रत कायम रखती हैं वही सती जगतमें धन्य है, स्त्रियोंका स्वभाव है, जब रूपवन्त युवानको देखे तब, मदन वाणसें मदको अधोभागमें छोड़ देती है भगवान महावीर भगवती सूत्रमें फरमा गये हैं जो स्त्री मनमें कुशीलकी. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ महाजनवंश मुक्तावली. बाञ्छा रखती है, और लाजसें, या डरसें कायासें, दुराचार नहीं करती, वह मरके वैमानकवासी पहले दूजे देव लोकमें, ५५ पल्य ( असंक्षा ) क्योंकी ऊमरवाली अपरि गृहीता, (वैश्या ) देवांगना होकर, सुख भोगती हैं, इतना पुन्य मन विगर शील पालनेका है; पंछी आकाशमें उड़ते हैं मनुष्योंमें भी कुदरत है, उड़कर चलकर, ऐसा काम कर सक्ता है, विद्याधर, रेल, वाइस कल मोटरमें बैठे ऐसी चाल प्रत्यक्ष चल रहे हैं, पहाड़को भी · मनुष्य उठा सक्ता है, याने नवोंई नारायण, क्रोडमणकी शिला उठाई हजारों पहाड़ अंग्रेजोने फोड़ डाले, सांपको सिंहको आदमी पकड़ सक्ता है, दरियावमें प्रवेश कर रत्न निकाल सक्ता है, अग्निमें कूद जाता है, तरवारोंके प्रहार सह सक्ता है, ऐसे कठिन काम मनुष्य करते हैं, लेकिन हाय जुल्म इस अनङ्ग काम देवको नहीं जीत सकते हैं, अठयासी हजार ऋषी ब्राह्मण बडे २ तपेश्वरी पुराणोंमें लिखे हो गये हैं, तपस्या करते २ स्त्रियोंके दास बन गये हैं, ब्रह्मा विष्णु महादेव स्त्रियोंके नचाये नाचे, इस वास्ते काम देव जीतने वाला है वही परमेश्वर है, वीर्य पात नहीं करे तब, विषय कई किस्मके है, हस्त, पशुपंडग, स्त्री, इन सबोंको छोडणे वालेकों, भगवान वीर फरमा गये हे गौतम, ब्रह्म व्रत धारी, मेरे अर्द्ध सिंहासण बैठणेवाला है, यानें परमेश्वर है, इस वास्ते पड़देकी रीत अच्छी है, मनोमती फिरणा वाजिब नहीं, लेकिन एक २ तरह पड़दा कई २ मुल्कोंमें बडी २ कोमोंमें जारी है उसमें कहार पहाड़िये चाकर वगैरह जा सकते हैं, क्या उत्तम कोमके आदमियोंके लिए पड़दा है वह क्या नाजर है, पड़दा नाम राजपूतों काही सच्चा है, बाकी तो गुड़ खाना गुलगुलेका परहेज करे जैसा है, हर तरह पतिव्रता धर्म रखणा,' श्रेष्ठ है, दिलमें पड़दा तो होणा दुरस्त है, सो भी मन्दिर धर्म शालामें नहीं होणा, यह रिवाज गुजरातका, अच्छा मालूम देता है, धन लेकर अपणी • लड़कियोंको, साठ २ वर्षके बुट्ठोंके संग ब्याहे जाती है, यह चाल उत्तम कोम वालोंके लिए तदन बुरा है साठ वर्ष बाद बुढेको हरगिज ब्याह नहीं करणा चाहिये, वेटीको बेच रुपये लेनेसे वरकत कभी नहीं होती अगर पुत्र नहीं होय मातापिताके पास धन नहीं होय अशक्त होय Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. १५९ बेटी धन वानके घर ब्याही होय, मावापोंका, खरच चलाणा इन्साफ है, वेटा जैसी बेटी, लेकिन यह मर्यादा “ आपतकालकी है, किसी कविने कहा है कि ( आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति ) व्याहोंमें ज्यादह खरच करणा जमाईके धनसे दुरस्त नहीं, कच्छ देश मारवाड़ देशके गामोंमें थोड़ेधन वाले, कंवारे रह जाते हैं, कारण इसका यही है कि, रीत नहीं. सकते हैं, रुपया दस हजार होय तो पांच छोकरीके माबाप भाईकों, पांचका दागीना ऐसा जुल्म गार रिवाज यातो न्यायी राजा वन्द कर सक्ता है, या विरादरीमे इकलास होय तो वन्द कर सक्ते हैं, बहुत जो. गियोंकी संगत भी इकेली स्त्रियोंकों नहीं करणा, सतीयोंके चरित्र सुन न या पढणा .. अर्हन्नीति मुजब हक्कदारी कानून - खयाल रक्खो जो सख्स अन्तकाल भये उसके मालमिल्कियत पर किसका इक्क है और पेस्तर किसका दोयम दर्जे है बाद फिर किस २ को पहुंचता है। दाय भाग कानून अर्हन्नीति श्लोक) पत्नी पुत्रश्च भ्रातृव्याः सपिंडश्च दुहितृजः बन्धुनो गोत्रनश्चैव -स्वामी स्यादुत्तरोत्तर १ तदभावेच ज्ञातीया, स्तदभावे महीभुजः, तद्धनं सफलं कार्य, धर्ममार्ग प्रदायचः २ - ___ अर्थ ) स्वामीके मरणे वाद उसके कुल जायदादकी मालकिन उसकी औरत है, वेटेका कोई हक्क नहीं कि, आप मालिक, वन सके, औरत पेस्तर . आई थी, तिप्त पीछे लड़का हुआ, तो फेर उसहीका हक्क पेस्तर है, बाद औरतके दुसरे दरजे वेटा, मालिक है, जिसके औरत वेटा, दोनों नहीं है, उस मिल्कियतके मालिक, भतीजे, उनके नहोने पर, सात मी पीढीतकका भाई, मालिक हो सकता है, वह भी कोई नहीं होय तो, वेटीका वेटा ( दोहिता ) मालिक है, और वह भी नहीं होय तो, चौदह पीढीतककाभाई मालिक है, वह भी नहीं होय तो, गोत्रके लोक .मालिक है, गोत्र भी . नहीं होय तो, उसकी जातिके लोक मालिक है, अगर जाति भी नहीं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० महाजन महाजनवंश मुक्तावली. होय तो, राजा उस धनकों, धर्मकांममें लगा सकता है, अगर खजानेमें डाले तो, गैर इन्साफ है । खाविन्दके मरणे वाद, उसकी औरतकों कुल अख्तियार है, सव जायदादकों, अपने अधिकारमें रक्खे, वेटेको अख्तियार नहीं के बिना माके हुक्म कुछ खरच करसके, चाहै जात पुत्र हो, चाहै गोदका, स्थावर, ( थिराहणेवाली ) जंगम ( फिरणे दुरणेवाली ) मिल्कियतका देणा या बेचणा किसीका हक्क नहीं सिवाय धणियाणीके, इसमें इतनी शर्त जरूर है कि उसकी चाल चलननाकिस नही मिल्कियतकी मालकिन सदाचारिणी हो सकती है, गैर चलण होणे पर वेटेको अख्तियार इन्साफी पंच तथा सरकारके इन्साफसें हो सक्ता है, क्योंके धनके लालचसें झूठा मी बलवा पुत्र उठादेवे वद चलण सबूत होनेसें बेटा मिल्कियतका मालिक होकर कपडारोटी वगैरह खरचा पंचोंके राह मुजब बांधणा माताके लिए इन्साफसे है गैर चलण हो तो भी, नेक चणल माता होय तो भी पुत्रके जायदाद पर कोई हक्क नहीं है हुक्म मातासे सब कामकर सक्ता है, ___ अगर कोई शख्स विना शन्तान अपने मरणेके वक्त अपने घरका बन्दोबस्त करना चाहै तो इस तरह वसीहत नांमी लिख सक्ता है जो दत्त पुत्र अपनी औरतके हुक्मकी तामील करनेवाला हो, खाबिन्दके मरणे वाद अगर दत्तपुत्र वसीहत नामेवाला सखस बदनियत हो जाय तो, स्त्रीको अख्तियार है उस वसीहतनामेको खारिज करके, दुसरेके नाम पर वसीहतनामा लिखा सक्ती है, धर्म कामके लिए या जाति व्यवहारके लिए खाविन्दकी मिलकियतकों रेण व्यय करणा स्त्रीकों अख्तियार है, मानापको अपने जात पुत्र पर भी इतना अख्तियार है अगर हुक्मके वर खिलाफ चले, या धर्म भ्रष्ट हो जाय, याने कुल मर्यादा विपरीत खानपान करणे लगे तो घरसें निकाल देवै, इसी तरह गोद लियेको भी निकाल सक्ता है चाहै उसका व्याह भी कर दिया चाहै कुलः अस्तियार दे दिया होय, मातापिताकी मौजूदगीमें जात पुत्रको अख्तियार नहीं है जायदाद मावापकीकों रेण वाव्यय करसके अलग होके कमाया होय, उस पर उसका अख्तियार है रेण वा वेचणेका । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १६१ जिसकी औरत वदचलन होय तो, पतिको अख्तियार है, अपने घरसें निकाल दे, वद चलन औरत, पती पर रोटी कपड़ेका दावा नहीं कर सक्ती है, कोई सख्सकी औरतने पती मरे वाद लड़का गोद लिया, और वह कुंवारा ही मरगया तो, दूसरा वेटा फिर अपने नामपर गोद ले सक्ती है, मरे लड़केके नामपर नहीं ले सक्ती है सासूकी मौजूदगीमें मरे हुए बेटेकी वहूकों सुसरेके धनमें रोटी कपड़ेके सिवाय दुसरा कुछ भी अख्तियार नहीं है, वेटा गोद लेणा वगैरह सर्व काम सासूकी आज्ञा मुजब करणा चाहिये, सासूका अन्तकाल हुए वाद फिर बहूका अख्तियार चल सक्ता है, मातापिताके मरे वाद बेटे अपने हिस्से अलग करणा चाहै तो, सबके हिस्से बराबर होणे चाहिये, पिताके जीते हिस्सा चाहै तो, मुताबिक मरजी पिताके होगा, पिताने जीतेकराव सियतनामा सही है मरे पीछे भी अगर कोई भाई कंवारा होय, और हिस्से करणेका मौका आ जाय तो, मुनासिब है, उसके व्याहका खर्चा अलग रखकर, वा व्याह करके, बाकी दालतका हिस्सा बराबर वांट लेना, अगर बहिन कंवारी हो तो, सबी भाई मिलकर पिताके धनसें सबोंको चौथा हिस्सा दूर कर व्याह कर देणा, कोई भाई ऐसा होय कि, अपने बापका धन नहीं खरच कर, नौकरीसें या किसी इल्मसें, या फौजमें बहादुरी बताकर धन हासिल करै, उस दौलतमें दुसरे भाइयोंका हक्क नहीं है, विवाहसें सुसरालसे, जो कुछ धन . मिले या दोस्तसें इनाम पावै, उसमें भी भाइयोंका हक नहीं पहुंचता, अपने कुलका दबा हुआ धन, वापभाईन निकाल सके, उसको अपनी ताकतसें, बिना भाइयोंकी सहायताके, निकाल लावे तो उस धनमें किसी भाईका हिस्सा नहीं हो सक्ता. विवाहके वख्त या पीछै जिस औरतकों, उसके मातापिताने गहने कपड़े गांम नगर जमीन जहांगीरी जो कुछ दिया हो, उसकों कोई पीछा . नहीं ले सक्ता, वह सब औरतका है चाचा, बड़ी बहन भूआ, मासी, भाई, सुसरा, सासू, या उसके खाविन्दनें जो कुछ दिया हो वह सब औरतका २१-२२ । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महाजनवरी मुक्तावली है खाविन्द उस हालत में मांग सक्ता है दुकाल बड़ी मुसीबत पडी हो, वाकी नहीं ले सक्ता, यह सत्र कायदे जैनी आमलोकों के लिए, अर्हन्नितिसें, लिखा गया है, ॥ निर्णय, ) ( अथ सूतक जिसके घर मृत्यु होय उसके घर १२ दिनका सूतक, एक बापके दो बेटे अलग सूतक के घर खान पान नहीं करे तो उसके घर सूतक नहीं सूतकवाले घरमें ५० रहवासी अन्य जाती रहती होय तो वह सब सूतकवाले गिने जाते हैं चोक १ दरवज्जा २ होय तो बारह दिन तक उस घरके लोक जिन मूर्तिकी पूजा नहीं कर सक्ते साधू तथा साधर्मी उस घरका खान पान फल सुपारी तक नहीं खाते २ मन्दिरमें दूर खड़े दर्शन कर सक्ते है मुखसें धर्म शास्त्र प्रगट नहीं बोले मुर्देको कांध देनेवाला २४ पहर सूतकी है, न पूजा करे, न किसी, खान पानकों चीजों छुवे, कपड़े धुलाणे मुर्देके संग जाणेवाला ८ पहरका सूतकी है, दासदासी " अपने घरमें मर जाय तो ३ दिन उस घरका सूतक जिस रोज बालक जन्में उसी दिन मर जाय तो एक दिनका सूतक, जानेवाली स्त्रीकों ४० दिन सूतक जितने महीनेका गर्भ गिरे उतने ही दिनका सूतक, आठ वर्ष तक बालकके मरणेका ८ दिन तक सूतक हाथी घोड़ा ऊंठ गऊ भैंस कुत्ता विल्ली घरमें मर जाय तो जब तक उठावे नहीं उहां तक सूतक गिना जाता है, । ( सर्व धर्मसार शिक्षा.) मोह द्वेष अज्ञानता, तजे कर्म अरुनार । ऐसो शिवहरि ब्रह्मजिन, सबको करो जुहार । १ । सवैया ) विद्यमान तीर्थकरकों बन्दन जो पुन्ह वैसोही पुन्यफल जिन मूर्ति वन्दनको । चारित्र व्रत पालवेको साधूकों फल कहा सो ही फल सूत्रोंमें प्रतिमा अभिनन्दनकों ॥ दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र आचारांग राय प्रश्नी तीनोंका पाठ एक हित सुख मोक्ष स्पन्दनको । ऐसी सूत्र आज्ञा देख शंका मत चित्त राखो जिन प्रतिमा पूजन फल पापके निकन्दनकों । २ साधू दर्शन पुन्य फल, तीरथ दुयमसाध थावर तीर्थ देर 1 . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १६३ . . फल, तुरत मुनिः फल लाध । ३ । अन्नपान घर वस्त्रसैं, शय्यासनकर भक्त, सेवा शोभी वन्दना, नवविधि पुन्य प्रशक्त । ४ । पर अवगुण देखे नहीं, निज अवगुण मन त्याग । निज शोभा मुखनाक है, समकित धरवड भाग । ५ । परनिन्दा निज श्लाघता, कर्ता जगमें बहोत निज अब गुणको जानता, विरलेई नरहोत, ६ उत्तम नरका क्रोध क्षण मध्यम . का दो पहर । अधम एक दिन रखत है, अधम नीच' नित जहर, ७ । उत्तमसाधु पात्र है, अनुव्रत मध्यम पात्र, समकित दृष्टी' जघन्य . है, भक्ति करो शुभ गात्र ८ मिथ्यादृष्टि हजारतें, एक अनुव्रतीनीक, • सहस अणुव्रतीतें अधिक, सर्व व्रती तहतीक, ९ सर्व व्रतीतें लखगुणा, तत्व विवेकी जांण, तात्विक सम कोई पात्र नहिं, यों भाखे जिन भांण, १० सत्य अहिंसा शीलवत, तजचोरी पुनलोभ, सर्व धर्मका सार यह, . स्वर्ग मुक्ति जगशोभ ११ गुजरात देशमें औदिच्य ब्राम्हनोकों हेमाचार्य उपदेशसें जैनधर्म धारण कराया, उन्होंको गुजरातमें भोजक कहते हैं, ( मारवाड़ी जिन गुण गाणेसें गंद्रप कहते हैं ) इन्होंके घर कुल तीनसौ है बहुत जगह इन्होंके सगे सोदरे विष्णुमती जोत्रिगाले वनते हैं, वो ५।५० जिन पद सीखके मारवाड़ादिक क्षेत्रमें गंद्रपोंके नांमसे नाटकादिक कर मांग खाते हैं, असली गंद्रप भोजक ओस वंश तथा श्रावकों विगर हाथ नहीं मांडते, वो भोजक जिन मन्दिरके पुजारे गुजरातमें हैं, गंद्रप त्रिकालोंकी परिक्षा, जैन कान्फरेंस धारेगी तब होगी, न मालूम कौन तो जैन धर्मी है, और कौन वैष्णव हैं, परदेशवालोंकों क्या खबर होती है । लेकिन नवकार पूछना । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़के भोजक शाक्त निर्णय गोत्र १६ ॥ क्षेत्र. भेलं. गणेश. य " ऋषिनाम नख. १ माथुर | मथुरिया २ भारत भारताणी ३ मालेव आसीवाण ४ हरिस्मति | हरिमोता ५ योगहट हटला ६ बलभद्र वलिअद ७ छैत्र छापरवाल ८ केशव कुबेरा Inda कोटडा क्रोध त्रि गौतम गौतम गात्र. वेद. प्रवर. शाखा. वास. माता. कश्यप कोथमी जगन्नाथ | मथुरा सच्याय एकदंत | भारद्वाज शेरगढ भ्रामरी स्वर्णाकर्षण | गजानंद | शोनक आमकगढ़ यक्षणी समशनिश्वर गणेश हरितस मांचल महालक्ष्मी रक्तपान सुखोचित कौत्सव यजुः माध्वनी द्वारिका हथनापुर पध्यायी । शल गणधरु सांडिल्य | पिपल्या कपिल छापरलाडणू सच्याय उनमत्त लम्बोदर करमरी चामुंडा चंड गजकर्ण उपमंथ साम पंच कोथमी वद्रिका रंगपुर खीमाज | आनंद गणधीश कुंडलस पंच देरावर सच्याय | भीषण चंद्रास पंच साजनपुर कपाल धूम्रकेतु वत्सगोत्र | पंच ओसिया मुंढार असितांग सुमुख काश्यप | अथवेण असतीनहन अडगपुर ब्राह्मणी भूतेश्वर सुपनेश्वर पारासर पंच. मेडता | पुंडरीक वक्रतुंड भारद्वाज पंच भीनमाल शहर भालचंद्र कपीजल पंच कोडपुर । कालिका वटुक नीलवर्ण ये सब १६ ॥ गोत्रवाले जैनविश्नव रुद्रका मंदिर पूजते हैं इन्होंमें कोइ जैनधर्म मानता है महाजनवंश मुक्तावली देबेरा विघ्ननाश " १० देवव्रत ११ शोम शांवलेरा १२ मूर्द्धना मुंधवाडा १३ जगदीशा जांगला १४ मांडव मडतवाल १५ भाल भीनमाल १६ कटि कटारूया . ॥ अबोटी त्रिपुर | भीमा Parden Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली - १६५ (दोहा ) खण्ड खंडेलामें मिली, साढी बारह जात, । खण्डप्रस्थ नृपकी समय, जी म्यां दालरु भात । १ । वेटी अपनी जातमें, रोटी सामल होय, कच्ची पक्की दूधकी, भिन्न भाव नहीं कोय । २ । श्रीमाल भीनमालसें १ ओसवाल ओसियांसे २ मेड़तवाल मेड़तासें ३ जायल वाल जायलसे ४ वबेरवाल बघेरासें ५ पल्लीवाल पालीसें ६ खण्डेलवाल खंडेलासें ७ डीडू महेश्वरी डीड वाणेसें ८ पौकरा पौकरजीसें ९ टीटोड़ा टीटोड गढ़सें, १० कठड़ा खाटूसें, ११ राजपुरा राजपुरसें, १२ आधीजात बीजा बर्गी । (मध्य देश ८४ वणिक् जाति ।) गौढ़वाड़ देश पारेवा पद्मावती नगरमें वस्तुपाल तेजपाल जितनें दया धर्मी वणिक् जाती थी उन सबोंको मुल्क २ में खरच भेज इकट्ठे किये बड़ी भक्तिसें उतारा दिया भोजन पंक्ति जीमने लगी उस वक्त एक बुड्डी पोरवालकी विधवा स्त्रीने भर पंचोमें आकर कहा अहो धर्म भाइयों किसके घर जीमते होये वस्तुपाल तेजपालका नाना कौन है ये भी कुछ खबर है खबर करी तो मालुम हुआ बाप पोरवाल माता वाल विधवा दुसरे वैश्य कुलकी सबूत हुई तब जीम लिये सो १० । नहीं जीमे सो २० ये झगड़ा बहुत जगह २ फैल गया तब वस्तुपाल तेजपालने असंक्ष द्रव्य खर्च २ अपने २ पक्ष मन्तब्य गुरू आदि सबही अलग स्थापन करा उहां आये जिन्होंके नाम । श्रीमाल २ श्रीश्रीमाल ३ श्रीखण्ड ४ श्रीगुरू ५ श्रीगौड़ ६ अगरवाल ७ अजमेरा ८ अनौधिया ९ अडालिया १० अवकथवाल ११ औसवाल १२ कठाडा १२ कठनेरा १४ ककस्थन १५ कपोला १६ कांकरिया १७ खरवा १८ खड़ायता १९ खेमवाल २० खंडेलवाल २१ गंगराड़ा २२ गोहिलवाल २३ गौलवाल २४ गौगवार २५ गींदोडिया २६ चकौड २७ चतुरथ २८ चीतोडा २९ चौरंडिया ३० जायलवाल ३१ जालोरा ३२ जैसवाल ३३ जम्बूसरा ३४ टीटौडा ३५ टंटोरिया ३६ ढूंसर ३७ दसौरा ३८ धंवलकौष्टी ३९ धाकड ४० नारनगरेसा ४१ नागर ४२ नेमा ४३ नरसिंह पुरा ४४ नबांभरा ४५ नागिन्द्रा ४६ नाथचल्ला ४७ नाछेला ४८ नौटिया ४९ पल्लीवाल ५० पवार ५१ पंचम ५२ पौकरा ५३ पौरवाल Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ - महाजनवंश मुक्तावली ५४ पौसरा ५५ बघेरवाल ५६ बदनौरा ५७ बरमाका ५८ बिदियादा ५९ बौगार ६० भवनगे ६१ भूगडवार ६२ महेश्वरी ६३ मेडतवाल ६४ माथुरिया ६५ मोडलिया ६७ राजपुरा ६८ राजिया ६९ लवेचू ७० लाड ७१ हरसोरा ७२ हूंबड ७३ हलद ७४ हाकरिया ७५ सांभरा ७६ सडौइया ७७ सरेडवाल ७८ सौरठवाल ७९ सेतवाल ८० सौहितवाल ८१ सुरंद्रा (२ सौनइया ८३ सौरंडिया ४ ।. . ___ इसतरह दक्षिणके ८४ जाती तथा गुजरातके ८४ जातिके वणिकोंमें कोई नाम इसमेंके नहीं दूसरे हैं ग्रंथ बढणेके भयसें यहां दरज निरुपयोगी जांणके नहीं किया है ये वणिक् जाति दयाधर्म पालते हैं इससे प्रगट प्रमाणसें सिद्ध है प्रथम सबोंका धर्म जैन था राजपूतोंमेंसें जैना चार्योनेही प्रतिबोध देकर व्यापारी कौम बणाई है जमानेके फेरफारसें अन्य २ धर्म कोई वैश्य मानने लग गये हैं मगर मांस मदिराका परित्यागपणा जो इन जातियोंमें है वह जैन धर्मकी छाप है जो धर्म जैन पालते हैं उन्होंको लौकिकवाले अभी महाजन नांमसे पहचाणते हैं जिन्होंने जैन धर्म छोड़ दिया है वो वैश्य या वणिये वजते हैं वीसे दशे पांचे अढाइये पूण तथा पचीसे इस किस्म इन्होंकी शाखायें कारण योगसें फंटती चली गई है दुनि-- यांमें सबसे बड़े राजन्य वंसी लेकिन धर्म मूर्ति दीनहीन षट् दर्शनादिक सर्व जीवोंके प्रतिपाल गुणवन्त गुणीकी कदर करणेवाले महाजन, वैश्य, वणिक्, परमेश्वरके भक्त जयवन्त रहो ये जाति बड़ी उत्तम दरजेकी सत्य धर्म पर चिरंजीवी होकर वत्तॊ श्रीरस्तुः कल्याण मस्तुः ॥ आपका शुभेच्छक जैनधर्मी पंडित । उपाध्याय रामलालगणिः ॥ . ( श्रीमद् बृहद्गच्छ खरतर पट्टावली ) १ भगवन्त श्रीबर्द्धमानस्वामी स्वयं बुद्ध केवली २४ में तीर्थकर । २ श्रीसुधर्मा स्वामी गणधर ५ में केवली सौधर्म गच्छ प्रगट। ३ श्रीजम्बूस्वामी चरम केवली यहांसें जिन कल्पादि १० वस्तु विच्छेद हुई। ४ श्रीप्रभवस्वामी श्रुत केवली १४ पूर्व धर ५ श्रीशय्यंभव सूरिःश्रुत केवली १४ पूर्व धर __ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ महाजनवंश मुक्तावली ६ श्रीयशोभद्रसूरिः श्रुत केवली १४ पूर्व धर ७ श्रीसंभूतिविजय सूरिःश्रुत केवली १४ पूर्व धर ८ श्रीभद्रवाहुसूरिः अनेक सूत्र नियुक्ती निमित्त ग्रन्थ रचे १४ पूर्ववर श्रुतकेवली कल्प सूत्रमें अशाढ़ चौमासेसें १० दिनसें संवत्सरी पर्व करणा फरमाया जैन अभिवर्द्धन संवत्सरमें पोष असाढ़ सिवाय दुसरे महीनें बढ़ते नहीं इस वास्ते संवत्सरी बाद ७० दिनसें काती चौमासा लगता हैं समवायांग सूत्र और कल्प सूत्रका पाठ संमिलित है भद्र बाहुस्वामीनें कल्प सूत्रमें महावीरके ६ कल्याणक कहे । ( पंच हत्थुत्तरे होत्था साइणा परि निव्वुए) पांच कल्याणक उत्तरा फाल्गुणीमें स्वाती नक्षत्र में निर्वाण पाये ९ श्रीस्थूल भद्रसूरि : १४ पूर्वघर श्रुतकेवली ८४ चोवीसी नाम चलेगा १० श्री आर्य महागिरी सूरिः दस पूर्वघर श्रुतके वली ११ श्री सुहस्तिसूरिः १० पूर्वधर श्रुतकेवली १२ श्री सुस्थितिसूरिः इन्होंने कोटि सूरि मंत्र का जाप करा कोटिक गच्छकी थापना हुई १० पूर्ववर श्रुतकेवली १३ श्रीइन्द्र दिन्नसूरिः १० पूर्वघर श्रुतकेवली १४ श्रीदिन सूरिः १० पूर्वघर श्रुतकेवली १५ श्रीसिंह गिरिसूरिः १० पूर्वघर श्रुतकेवली १६ श्रीवज्रस्वामीसूरिः १० पूर्वघर चरम श्रुतकेवली वज्रशाखा नाम हुआ १७ श्रीवज्रशेनसूरिः भगवानके ६०९ वर्षपर दिगाम्बर सम्प्रदाय निकली १८ श्रीचन्द्रसूरिः इन्होंके नांमसेंकोटिक गच्छ वज्रशाखा चन्द्रकुल प्रसिद्ध हुआ १९ श्री समंत भद्रसूरिः । २० श्रीवृद्धदेवसूरिः । २१ श्री प्रद्योतनसूरिः २२ श्री मानदेवसूरिः लघुशान्तिस्तोत्रके कर्त्ता २३ श्रीमानतुङ्गसूरिः वृद्ध भोजराजा सन्मुख भक्तामर स्तोत्र कर्त्ता तथा भयहर स्तोत्र रचकर नागराजाकों वसकरा । २४ श्री वीरसूरिः । २५ श्री जयदेवसूरिः २६ श्री देवानन्दसूरिः भगवान के ८४५ पीछे वल्लभी नगरी टूटी । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ - महाजनवंश मुक्तावली २७ श्री विक्रमसूरिः। २८ श्री नरसिंहमूरिः । २९ श्री समुद्रसूरिः। ३० श्री मानदेवसूरिः इन्होंके समय भावानसें ८८५ हरिभद्रसूरिः स्वर्ग ___ गये और पूर्वोकी विद्या विच्छेद हुई । ३१ श्री विवुध प्रभसूरिः इन्होके समय सूत्रोंके भाष्य कर्ता जिनभद्रगणिः ____ आचार्य हुए । ३२ श्री जयानन्द सूरिः । ३३ श्री रविप्रभसूरिः । ३४ श्री यशोदेवसूरिः । ३५ श्री विमल चन्द्रसूरिः । ३६ श्री देवसूरित्यागी वैरागी क्रिया उद्धारासें सुविहित पक्ष हुआ । ३७ श्री नेमिचन्द्रसूरिः प्रवचन सारोद्धार टीका ग्रंथ बणाया, बरढिया वगैरह __ बहुत गोत्र स्थापन किए ३८ श्री उद्योतनसूरिः इन्होंके निजशिष्य चैत्य वास छोडके आए हुए वर्द्धमान सूरिः ८३ दूसरे २ थविरोंके शिष्य जिन्होंको सिद्ध वडनीचे शुभ मुहूर्तमें सूरिः मंत्रका वास चूर्ण दिया वह ८३ अलग २ गच्छों की स्थापना करी इसवास्ते खरतर गच्छमें अभीभी ८४ नंदी प्रचलित है ८४ गच्छ थापन हुआ ३९ श्री वर्द्धमानसूरिः १३ बादशाह आबूपर अम्बादेवीकों, वसकर बुलाकर विमल मंत्री पचायणेचा पौरवाल गोत्रीकों, प्रतिबोध देकर आबू तीर्थपर १८ करोड तेपन लाख स्वर्ण द्रव्य लगाकर, मन्दिर विमल वसीकी प्रतिष्ठा करी, १३ बादशाहोंने गुरूको सन्मान दिया, हजारों सचिंती वगैरह महाजन बणाये, देवताको भेजके सीमंधर जिनसे सूरिः मंत्र शुद्ध कराया ४० श्री जिनेश्वरसूरिः अणहिल पुरपाटणमें चैत्यवासी शिथलाचारी उपकेश गच्छियोंसें राजाने सभा कराई राजा दुर्लभनें शास्त्र मर्यादसे, यथार्थ ज्ञान क्रिया देख, राजाने कहा तुमे खराछो शिथलाचारी चैत्य द्रव्य भक्षकोंको कहा तुमें कुंवला छो, यहांसें खरतर विरुद सं. १०८० में मिला, कोटिक गच्छ वज्र शाखा चन्द्रकुल खरतर विरुद प्रसिद्ध हुआ, सुविहित पक्ष, । .... ४१ श्री जिन चन्द्र सूरिः इन्होंने एक गरीबके अङ्गग्में चिन्ह देखकर कहा, तूं शाहनशाह साम्राट होगा, आखिरकों मोजदीन दिल्लीका Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १६९ बादशाह हुआ, गुरूकों बड़े उत्सवसें, धनपाल शिवधर्मी महतियान श्रीमालके घर विराजमान किया, उहां त्याग वैराज्ञ अतिशय विद्या उपदेशसें, श्रीमाल सर्व जैनधर्म धारण करा, महितियाण गोत्रियोंको श्री श्रीमालकी पदवी बादशाहने प्रदान की ऐसा भी एक जगह लिखादेखा है दिल्ली लखनऊ आगरा भिंयाणी झुझणूं जैपुर वगैरह सर्व श्रीमाल १३५ गोत्रके गुरूके श्रावक हो गये प्रथम श्रीमाल जैन थे, वह शैव शङ्कराचार्यके हमलेमें हो गये थे, सबोंको पीछा जैन श्रावक करा जिन्होंकी वस्ती राजपूताना दिल्लीके अतराफ सबोंका गच्छ खरतर है, गुरूने संवेग रंग शाला ग्रंथ रचा, । ४२ श्री अभय देव सूरिः वारह वर्ष आंबिल तप करणेसें, गलत कुष्ठ उत्पन्न हुआ, तब शासन देवीने प्रगट हो, नव कोकड़ी सूतकी सुलझाणेका कहा, और कहा हे गुरू अणसण अभी नहीं करणा सेड़ी नदीके तटपर पार्थ जिनेन्द्रकी स्तुति करणा, सर्व अच्छा होगा तब गुरू राजा दिकसंघ युक्त जयति हुअण्ण वत्तीसी बनाकर स्तुति करी थंभणा पार्श्व नाथकी मूर्ति धरणीतलसे प्रगट हुई, स्नान जल छांटते सोवन वर्ण काया हुई, इस वक्त जिन वल्लभ सूरिः चैत्यवासी, चित्रावाल गच्छकी विरुद्ध आचरणा देख, श्रीअभयदेव सूरिःके शिष्य हुए योग्य जांण, गुरूने वाचनाचार्यका पद दिया; आप नव अंगोकी टीका शासन देवीके आग्रहसे, गन्ध हस्ती कृत टीका, दुष्ट लोकोंने 'गलादी, जलादी, शंकराचार्यनें, तब जिनेन्द्र व्याकर्ण पूर्व कृत गुरुमुख, अर्थ धारणासे, टीका वृत्ति रची, १२ वर्ष विचरते रहै, अपने हाथसें सूरि मंत्र देके वल्लभ सूरिःको आपने अनशण करा, तब गच्छमें केइयक साधु आचार्य पद वल्लभ सूरिःके क्रिया कठिनतासें, डरते नहीं देणा धारा, तब गुरूने चामुण्डासच्चाय देवीको बस करके, सौ ग्रंथ संघ पट्टा, पिंड नियुक्ती स्तोत्रादि रचकर, ५२ गोत्र, राजपूत महेश्वरी, वाबड़ी, हुबडोंकों प्रतिबोध देकर महाजन किये तब सर्व संघ और बड़े २ आचार्योने मिल कर आचार्य पद दिया, चामुं Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० महाजनवंश मुक्तावली ण्डा कहा आज पीछे आपके शन्तानको जिन संज्ञा होणी ५ जन ठाणांगमें कहे प्रभावीक पुरुषकों जिन संज्ञा है सर्व २५ वर्ष वाच - नाचार्य पदमें रहै छ महिने आचार्य पद पाला, द्वेष बुद्धिसें एक ग्रंथ में अपनी कल्पित पट्टावली लिखणे वालेनें मनमानी बात लिखी है जिनेश्वरसूरिः के पाटवल्लभ सूरिः को लिखा है और अपने ही हाथसे जैन कल्प वृक्षमें जिनेश्वर सूरिः चन्द्रसूरिः अभयदेवसूरिः के पट्टपर वल्लभ सूरिः कों लिखा है उस समय द्वेष नहीं जगा होगा बाद तो द्वेष बुद्धि प्रत्यक्ष दरसाई है कुछ तो पूर्वापर विचारणा था २ पाट दुसरे लेखमें उठाया जिनेश्वर सूरिः के ७० वर्ष वीतने बाद वल्लभसूरिः हुए हैं भगवतीकी टीका तो देखी होगी उसमें अभय देवसूरिः खुद लिखते हैं जिनेश्वर सरिके चन्द्र सूरिः उन्होंकामें अभय देव सूरिः नेये वृत्ती रची तो जिनेश्वर सूरिःके पट्ट पर वल्लभ सूरिःकैसे हुए प्रमाणीक ग्रंथ बनाकर उसमें कल्पित पट्टावलीमें असमंजस लिखणान्यायां भोनिधि पदकों झलकाया, मालुम देता है, चर्चाका चांद उदय करणेवाला जो लिखता हैं सो सब जाहिरा मालुम दिया है, फिर लिखा है कु पुरी गच्छवासी वल्लभसूरिः छकल्याणकवरिके प्ररूपणा करी, न तो जिन वल्लभ सूरिःका कुर्च्च पूरी गच्छ था न षटू कल्याणक इन्होंनें प्ररूपणा करीछ कल्याणक प्ररूपणेवाले श्रुतकेवली भद्र वाहू स्वामी हैं, नहीं माननेवाले आपलोकहो, पहलेका गच्छ अगर लिखणेका प्रवाह आप मन्जूर करते हो तब तो मेघ विजयका लोंका गच्छ पीछे क्यों नहीं लिखा अगर फिर ऐसा है तो लिखणेसें कोई द्वेषापत्ती तो नहीं होगी पंजाबी ढूंढिया जीवण दासका शिष्य आत्मारामजीनें बुंटेरायजीका शिष्य हो अहमदाबाद में सोरठ देश सत्रुंजय तीर्थकों अनार्य देशकी प्ररूपणा करी, इस बातको विचार कर प्रमाणीक लेख प्रमाणीक पुरुष होकर यथार्थ ही लिखणा जरूर था वल्लभ सूरि:नें तुह्मारी तरे विरुद्ध आचरणा छोड़ दी थी फेर ऐसा आक्षेप द्वेष बुद्धिसें क्यों करा । ४३ श्रीजिन वल्लभ सूरिः इन्होंके समय मधुकर खरतर गच्छ भेद । १ । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १७१ . ४ ४ श्रीजिन दत्तसूरिःजीनें सवा क्रोड हींकारका जप कर। ५२ वीर.. ६४ योगणी पंच नदी पांच पीरोंको बस किया १ लाख तीस हजार घर राजपूत महेश्वरी आदिकसें जैनधर्मी महाजन बणाये चित्तोड़ नगरके वज्र खम्भकी तथा उज्जैन नगरके वज्र खम्भकी साढा तीन कोटि सिद्ध विद्या निकाल कर जैन संघमें महाउपकार करावो पुस्तक अब जेसलमेरमें विद्यमान वन्द है विजलीगिरी उसको पात्रके नीचे दाब कर विजलीसें बरदान लिया दादा श्रीजिन दत्तसूरिःजी ऐसा नाम जपणेवालेके घर नहीं गिरूंगी मरी गउकूपर काय प्रवेशनि विद्यासें जिन मन्दिरके सामनेसे स्वतः उठादी, मरे हुए नवाबके पुत्रकों, भरु अच्छ नगरमें, परकाय प्रवेशनि विद्यासें, छ महिना जिला दिया संघकी आपदा मिटाई, पुत्र धन रोग अनेक वाच्छार्थियोंकी कामना पूर्ण कर, ओस वंश बधाया, रत्न प्रभ सूरिःने ओसियां नगरमें १८ गोत्र रूप अश्व पति गोत्रका बीज वोया था, उसकों खरतर गच्छाचार्योंने साखा प्रशाखा पत्र फल फूलसें ओप्त वंश सुरतरुको शक्तिरूप जल उपकार रूप छांहसे गह मह कर दिया, जिन्होंसे जैन दर्शन तथा अन्यमती भी निर्वाह करते हैं इन्होंके विद्यमान समय १२०४ में लोद्रव पट्टणमें रुद्रपल्ली खरतर दुसरा गच्छ भेद हुआ जिससे खरतर गच्छके द्वेषी वे प्रमाण लिखते हैं १२०४ में खरतर हुए, ये दूसरी शाखा फटी ऐसे तो ११ शाखा निकल चुकी है द्वेष बुद्धिवाला तो सत्यकों भी असत्य कहेगा लेकिन बे प्रमाण लिखणेसें अन्यायी ठहरते हैं। ४५ मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिः इन्होंने हजारों घर महाजन वणाये दिल्लीमें इन्होंकी रथी उठी नहीं तब कुतबुद्दीन बादशाहकी आज्ञासें सिरे बाजार । दाग हुआ खोड़िया क्षेत्रपाल सेवित अनेकोंका मरणान्त कष्ट मिटाया मुसल्मीन भी जिन्होंको दादा पीर कहते थे इन्होंके समय पूर्ण तल्ल गच्छी देवचन्द्रसूरिःका शिष्य हेम चन्द्रसूरिः जिन्होंने शब्दानुशासन प्रकट करा कुमारपाल राजाकों जैनी करा छीपा भाव सालोंको जैनी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ . महाजनवंश मुक्तावली करा औदीच्य ब्राम्हणोंको उपदेश देकर जैनी करा जो गुजरातमें भोजक मारवाडमें ( गंद्रपके नामसे पहचाणे जाते हैं ) धर्म ३०० 'घर जैन पालते हैं जैनीसिवाय दान नहीं लेते हैं इन्होंके समय १२ १३ में आंचल १२२६ में सार्ध पुनमिया १२५०. आग मिया हुए ४६ श्री जिन पति सूरिःजी इन्होंके समय चित्रावाल गच्छी चैत्यवासी जग चन्द्रसूरिःने वस्तुपाल तेजपालकी भक्तीसें क्रिया उद्धार करा तप करणेसें चित्तोड़के राणेजीने १२८५ में तपा विरुद दिया वस्तुपाल तेजपाल लहुडीन्यात ओसवाल पोरवाल श्रीमालियोंमें करनेवाला, मायाका अखूट भण्डारीने इन्होंका नन्दिमहोत्सव करा जिसने जगत् चन्द्रसूरिःकी सामाचारी कबूल करी, उस गरीवकों श्रीमन्त वणाते गया,जगत् चन्द्रसूरिःने श्रावककों पोसह व्रत पच्चखाण करे पीछे पोसहमें भोजन एकाशन करणेकी प्ररूपणा करी और आंविलमें ६ विगय टालके सींधा निमक काली मिर्च पोतीके वेसणके चिलड़े वगैरह अनेक द्रव्य खाणेकी प्ररूपणा करी सो अभी गुजरातमें प्रथा चलती है बड गच्छके आचार्य जब अपने समुदायकों आज्ञा कारी नहीं देखा तब हनुमान गढ़ बीकानेरके इलाकेमें आय रहै पिछाड़ी फिर जती श्रावक · मिलके आचार्य मुकरर किया उन्होंके पाटानुपाट विद्यमान सं. विक्रम १९६६ कार्तिकमें मुम्बईमें बडगच्छके आचार्य हमसे मिले थे लेकिन तपागच्छके वस्तुपालतेनपालकी सहायतासें बड़गच्छ निर्बल होता गया जतीभी कइयक तपागच्छमें मिलगये श्रावक भी मिलते गये तथापि पट्टधर आचार्य वडगच्छ विद्यमान है। ४७ श्री जिनेश्वर सूरिः इन्होंके समयमें १३३१ मे सिंहसूरिः से लघुखर तर शाखा निकली ३ गच्छ भेद हुआ इनमें जिन प्रभसूरिः चमत्कारी हुए । ४८ श्री जिन प्रबोधसूरिः ४९ श्री जिनचन्द्रसूरिः दिल्लीके बादशाह चित्तोड़का राणा जेसलमेरकारा बल मंडोवरके राठौड़राव राना ऐसे ४ राजा गुरूके भक्त हुए इस Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली १७३ १. आर्यावर्त्तमें जगह २ जीव दया और जैन धर्मकी उन्नती खरतरा चार्योंकी महिमा विस्तारपाई बादशाहने कई: २ बन्दोबस्तके फुरमाण लिखे तबसें राज्यगुरू खरतर राज गच्छ कहलाया अनेक प्रतिबादी-. योंकों जीता तब वादशाहने भट्टारक श्री जिनचन्द्रसूरिः ऐसा खास ... रुक्केमें लिखा भट्टारक नाम हेम अमेरादि कोशोंमें पूजनीक पुरुषोंका है अथवा अनेक भट्टोंकों न्यायसे हराणेवाले भट्टारक सर्व गच्छके. लोक खरतर भट्टारक गच्छ कहने लगे। ५० श्री जिन कुशलसूरिः ५२ वीर ६४ योगनी पंचनदी पंचपीर बस करके संघका बहुत उपकार करा, ५० सहस्र श्रावककरे निर्धन श्रावककों धन अपुत्रियेकों पुत्र दिया, पाटण सहरमें गुरूव्याख्यान बांचते थे उस समय ... गूजर मलबोथरेकी निहान रतनाकरमें डूबने लगी उसनें गुरूकी स्तुति शुरू करी कैसें २ अवसरमें गुरू रखी लान हमारी उस समय गरू पक्षी रूप हो उड़कर गूजरमलकी जहाजकों किनारे लगा दर्शन दे पीछे । आकर व्याख्यान करा तब संघनेयेस्वरूपदेख आश्चर्य किया... . । १ महिनेसे गूजरमलने पाटणमें आकर संघसें सर्व वात कही इसतरह स्वर्ग पाये पीछै समय सुन्दर उपाध्यायकी तथा सुखसूरिः की डूबती हुई जहाजकों पार लगाई मुसल्मान लोकोंका बहुत उपकार कर दादा पीरकहलाये फाल्गुण चदी अमावस देरा उरमें धांमपाकर पूनमकों अपने भक्तोंको जगह २ दर्शन दिया फुरमाया भुवन पती निकायका आयुष्य मेरा पहली बंध गया था सम्यक्तवाद गुरूमहाराजसें पाया जो याद करोगे तो होणेवाले कामको शीघ्र कर दूंगा बडे दादा साहिब सौधर्म देवलोक टक्कल विमान ४ पल्यकी स्थितिपर विमानाधिपति हुए हैं उन धर्मदाता गुरूका ध्यान पूजन भक्ती कारककोंमें . सहाय करूंगा भक्तोंके आधीन रहूंगा अन्तर्ध्यान हुए तबसे लोक . नगर २ में चरण पूजने लगे। ११ श्री पद्मसूरिः कुशलसरिः के शंतानी उपाध्यायश्री क्षेमकीर्तिगणीने सबि- याम गढ़में राजपतोंकी जान प्रतिबोध ५०० को दिक्षांदी कुशलसरिः Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ . महाजनवंश मुक्तावली प्रगट हो ५०० सेका उप गरण राजासें दिलाया क्षेम धाड़ शाखा प्रगट हुई ये प्रथम भट्टारक गणशाखा १ तीन शाखा और एवं ४ है। ५२ श्री जिनलद्धिसूरिः । ५३ श्री जिनचन्द्रसूरिः। ५४ श्री जिनउदयसूरिः यवज्जीव एकान्तरोपवास नव कल्पी विहार एक .. लाहारी, सं. १४२२ में जेसलमेरमें वेगड़ खरतर गच्छ भेद ४ था। ५५ श्री जिनराज सूरिजी न्याय मार्तण्ड कहलाये । ५६ श्री जिनभद्र सूरिः इन्होंने दोनों भैरवों की आराधना करी काला भैरूंकों गच्छाधिष्टायक बणाया गद्दी धरकों मंडोवर जाणा, आराधे तब साहाय कारी रहूंगा, बलि देणा अष्ट द्रव्यकी ऐसा वचन लिया बोहरा महाजन करे १४७४ में पीपलिया खरतर ५ मागच्छ भेद भट्टारक गच्छमें इन्होंसें भद्रसूरिः शाखा चली। ५७ श्री जिनचंद्र सूरिः इन महाराजाके देव लोक हुए पीछे १५३१ में तपागच्छी दस्सा श्री माली वणियां लिखारी बँकेनें जिन प्रतिमा निषेध रूपमत अहमदाबादमें चलाया उसमें ३ गुजराती २ नागोरी १ उत्तराधी इन्होंमें ५ सम्प्रदाई विद्वान होकर जिन प्रतिमा मन्तव्य करली । ५८ श्री जिनहन्स सूरिः इन्होंने गहलड़ा गोत्र थापा बहुत महाजन बनाये आचारांग सूत्रपर दीपिका बनाई देव सानिद्धसें ५०० से कैदी बादशाहसे छुड़ाये मुल्कोंमे अमारी डूंडी पिटवाई इन्होंके समयमें १५६४ में आचार्य खरतर गच्छभेद ६ जो पाली नग्रमें है १९६२ कड़वा मती १९७० मलूकेकामतत्याग बीजे वैश्यने बीजा मत निकाल जिन प्रतिमामानी १५७२ में तपागच्छों से पार्श्व चन्द्रजीने ५ की संवत्सरी प्रमुख सम्प्रदाय निकाली । ६० श्री जिनमाणिक्य सूरिः इन्होंके समय हुमायू बादशाहके जुल्मसे ( अत्याचारसें ) त्यागियोंने अणसण किया कई लंगोट बद्ध महात्मा पोसा लिया होगये बाकी बहुत गच्छके जती घर बारी होगये तब लोक मति हीन कहणे लगे ( मथेण ) यथार्थ नाम घरधारी मथेणका, मिथन होगा, स्त्रीपुरुषके सहवास जोडेको मिथुन संस्कृतमें कहते हैं Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली . १७५ तब आचार्य शिथलाचार बहुत फैला देखकर जैसलमरमें रहै वाद वछावत संग्राम सिंहने गच्छभावसें महाराजको वीकानेर बुलाया तब कुशलसूरिःजीका दर्शन करणेकों. संघके साथ देराउर जाते दिनकों जल नहीं मिला रातको जल मिला यावज्जीव चोविहार तब अणसण कर शिष्यको क्रिया उद्धार करणेकी आज्ञा दे देवता हुए, जेसलमेरमें श्रीजिनचंद्रसूरिःको दर्शन देकर सहायकारी हुए, कहा, भस्म ग्रह उतरा है उदयका वखत है जो विचारेगा सो सब काम होता रहेगा। श्री जिनचन्द्रसूरिः इन्होंने लाहोर नगरमें अकबर बादशाहको धर्मोपदेश देकर जैनश्रद्धा कराई अनेक दुःख प्रजाका दूर कराया जैन तीर्थ श्रावकोंकी रक्षा कराई पारसीके मोहरछाप फुरमाण बादशाहके करे हुए बीकानेर बडे उपासरेमें भेज दिये महात्यागी पंच महाव्रतधारी प्रतिमा निंदकोंको परास्त करते गुजरातमें लूंपकमती तपोंको प्रतिबोध देकर श्रावक बणाया गुरूने बिचारा गुजरातमें मतांतरी बहुत होगये हैं उन जीवोंपर करुणा लाकर गुजरातमें विचरकर मत कदाग्रह तोड़ा जगह २ खरतर गच्छ दीपाया और मतान्तरियोंकों शुद्ध श्रद्धाकी पहचान कराई तपा 'गच्छी विजयदान सूरिः के शिष्य धर्म सागरजीने कुमति कुद्दाल कल्पित ग्रंथमें लिखा था कि अभय देवसूरिः नव अङ्गटीका कार खरतर गच्छमें नहीं हुए इसका निर्धार करणेको पाटणमें सब गच्छके प्रमाणीक आचार्य उपाध्याय वगैरहको एकटे किये तब सबोंने धर्म सागरजीको ८४ गच्छ बाहिर कराये बात गीतार्थ विजयदानसूरिः मेडतामें सुनकर कुमति कुद्दाल ग्रंथकी जो प्रति मिली सो सब जल शरण करी और खरतर गच्छसें विरोध करना बंध करा इन्होंके पट्ट हीरविजयसूरिः थे उन्होंने तपा गच्छके संघमें सात हुक्म जाहिर करे परपक्षीको निन्नव नहीं कहणा, परपक्षी प्रतिष्ठित मन्दिर प्रतिमा मानवा योग, पर पक्षिनी धर्म करणी सर्व अनुमोद वा योग इस तरह ७ हैं सो लेख बड़े उपासरे बीकानेर ज्ञानभण्डारमें विद्यमान है, इन दोनोंने बड़ा संप रखा प्रभावीक हो गये इस बखत बालोतरेमें भाव. हर्ष उपाध्यायनें Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६. महाजनवंश मुक्तावली ७ गच्छभेद किया भाव हर्ष नामसें, इन्होंने अपने हाथसें सिंहसरिकों आचार्य पदवी दी बादशाहने चमर छत्रादि राजचिन्ह संग कर दिये । ६२ श्रीजिनसिंहमूरिः सागर चन्द्रसूरिः १ कीर्ति रत्नसृरिः २ शाखा हुई . ६३ श्रीजिनराजसूरिः इन्होंके समय १६८६ में मण्डलाचार्य सागरसूरिःसे आचार्य खरतर शाखा निकली ( मां गच्छभेद गुरूमहाराजनें सूरिः मन्त्र देकर जिन रत्नसूरिःकों आचार्य पदमें स्थापन करा । ६४ श्रीजिन रत्न सूरिः इन्होंके समय सं. १७०० में रंग विनय गणिसें रंग विजय खरतर शाखा ९ मांगच्छ भेद इस गच्छमेंसें जिन हर्ष गणिके चेले श्रीसारने श्रीसारखरतर शाखा निकाली ये १० मा गच्छान्तर हुआ। ६५ श्रीजिन चन्द्र सूरिः इन्होंके समय १७०९ में ढुंढकमत प्रकटा धर्म दास छींपा वगैरह २२ पुरुषोंने बंधा मत निकाला, हाजी फकीरकी दवासें मत चलाया । इन २२ मेंसे निकले वे वंदन करनेवालेको वेहाजी भाई कहा करते हैं .. ६६ श्रीजिन सुख सूरिः इन्होंकी गोगा बन्दरसे खंभात जाते दरियावमें जहान फटी पाणीसें भरगई कुशल सूरिः का स्मरण किया दादा साहबने नई जहाज वणाके खंभात पहुंचाई वह जहाज अलोपकरी । ६७ श्रीजिन भक्ति सूरिः सादड़ी ग्राममें पर पक्षी तपोकों निरुत्तर, करा पूनामें सिवानी पेशवाकी सभाग, वेदान्त मती ब्राम्हणोंको जीता। ६८ श्रीजिन लाभ सूरिः। ६९ श्रीजिन चन्द्र सूरिः इन्होंने लखनेऊमें प्रतिमा उत्थापक जो मत फैला था, उन्होंको परास्तकर राजा वच्छ रान नाहटेको चमत्कार दे,.. नवावसे राजा वणवादिया, । ७० श्रीजिन हर्ष सूरिः इन्होंके पांच शिष्य निजथे छठा शिष्य नागोरके जती माणक चन्दजी का रूपबंत देखकर मांग कर लेलिया निज शिष्य सूरत रांमजी, जो मांगकर लेलिया उन्होंका नाम मनरूपजी था इन्होंके समय खरतर भट्टारक गच्छमें, १८०० जतियोंकी शंक्षा थी। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली. १७७ - ७१ श्रीजिन सौभाग्य सूरिः इन्होंके समयमें १८९२ में मंडोवरमें महेन्द्र सूरिः सें ११ मांगच्छ भेद हुआ सौभाग्य सूरिः यावज्जीव एक लठाणा प्पादल विहार साढ़े १२ हजार सूरिः मंत्र का हमेशा जाप सच्चितके त्यागी कंवर पदेमें हनुमन्त वीरका मंत्र साधा था सो सिद्ध हो गया था रामगढ़में पोतेदारकी लड़कीके वचपणसें पथरी हो रही थी गुरू पास लाया गुरूनें तीन चलू पाणी पिलाया उसी समय २) रुपये भरकी पथरी निकल पड़ी मुरसिदा बादमें प्रताप सिंह दूगड़ को वृद्ध पण में नव पदं आम्नायदिया लक्ष्मीपती धनपति दो पुत्र धर्मोद्योतक हुए। "बीकानेर में महेश्वरी माणक चन्द वाघड़ीकों वृद्धपणे में पुत्र दिया राजा राठौड़कों अनेक चमत्कारसें बीकानेर में सिरदार सिंहजीकों परम भक्त वना कर अनेक कष्ट आपदा जीवोंकी दूर की इत्यादि बहुत है ग्रंथ बढ़के भयसें नहीं लिखते हैं महाराजासिरदार सिंहजीने ४ गांम भेंट करणेकी बहुत विनती करी गुरूने कहा सन्यासियोंको भ्रष्ट करको जागीर होती है सो सर्वथा इन्कार किया ऐसे दीर्घ दृष्टि त्याग बुद्धिः परम उपकारी हुए । १२ श्रीजिन हंससूरिः इन्होंके समय श्रीजिन महेन्द्र सूरिः के पटोघर श्रीजिन मुक्ति सूरि बडे शास्त्र वेत्ता चमत्कारी प्रकटे जेसलमेरसें फलोधी पधारते पोकरणके ठाकुरके कंवर हिरण मारणेको बन्दूक उठाई गुरूनें मना किया गुरूनें कहा छोड़ तो देखता हूं तीन वक्त कारतूस दिया बन्दूक की तरह हो गई यह चमत्कार देख चरणों में गिरपड़ा सहरमे पधराकर भक्तिकरी ऊंठ फेरता फतह सिंह चम्पावतकों फरमाया १ वर्षमें तेरे राज्ययोग होणा है वैसाही हुआ जैपुरनरेश सवाई रामसिंहजीके सामने कुल कांम कर्त्ता मुसाहिब हुआ गुरू जैपुर पधारे तब फतह सिंहने राजा सर्व वृत्तान्त कहा राजा वोला मेरे मनकी बात कहेंगें तो जरूर भक्ती करूंगा दोनों गुरूके पास आए गुरूनें कहा विलायतसें जो आज्ञा चाहते होसो एकही मुहूर्त में सिद्ध काम होणेवाला है वस बैठे २ ही तार आगया वैसाही तब राजाने भक्ति से २३ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ' महाजनवंश मुक्तावली ५) रुपये हमेसके गांम भेटेकर जैपुर रहणेकी प्रतिज्ञा कराई ऐसे प्रभावीक खरतराचार्य विद्यमान हमने देखा है । खरतर साधु १॥ रिद्धिसागरजी २॥ श्रीसुगन चन्दजी बड़े प्रभावीक निकलै श्रीक्षमा कल्याण गणिःके पौत्र थे ऋद्धि सागरजी वलिबाकल प्रतिष्ठामें दश दिग्पालोंको देते नारेल उछालते गोटा ऊपर आकाशमें अलोप टोपसियां - फकत नीचे गिरती दुसाले पर आरती कपूर. सिलगाकै धर कर श्रावकोंसे जिन प्रतिमाकै सामने उतरवाते दुसालाके दाग नहीं लग सकता। मारवाड़में जिन मन्दिरकों बंध कर बिना पानी बिना आदमी धोकर, साफ करवाया, हजार घड़े पानी ढुला पाया। मंदिर खोला तो सब मलीनता साफ और जलसें गीला मालम दिया इत्यादि अनेक विद्याओंसें सम्पन्न फलौधी लोहावट पोकरणकै श्रावक देखनेवाले मौजूद हैं ३ । श्रीसुगन चन्द-' जीने बीकानेर नरेश महाराजा डूंगर सिंहजीको अनेक मन चिंताकी होनेवाली बात आगे कह दी। तब राजासें शिवबाड़ीमें मंदिरके वास्ते भूमिका पट्टा करवाया । अभी आचार्य खरतर पंडित तन सुखजीने मेघ बर्षाका बिकानेरमें बिलकुल अभाव भया तब दरबार महाराज श्रीगंगासिंहजीने हजारों रुपये खर्च कर ब्राह्मणोंसे अनुष्ठान कराया बूंद भी नहीं गिरी तब इनको बुलवाया । इन्होंने कहा यदि गुरु- देव करेगा तो भादवा बदी दशमीसे बर्षा शुरू होगी और सच्च ही उस दिनसें ही मेघने जय जयकार कर दिया। यह बात १९६३ सम्बत्की है। ऐसे २ प्रभावशाली मंत्रबादी सर्व शास्त्रवेत्ता यती . अभी विद्यमान हैं खरतर गच्छमें। ७४ श्री जिन चंद्रसूरिः इनकी अवज्ञा करनेवालोंको महाराजनें स्फुर माया तूं कोढिया होगा, सो सच्च होगया । पं. अनोपचन्द जतीको, शैतान लगा था, सो बिना पढे अनेक भाषा बोलता था। बहुत लोगोंने इलान किये परंतु अच्छा नहीं हुआ गुरूनें एक तमाचा मारा सो उसी वख्त छोड़कर बोला जाता हूं । उसी वक्त वह होशमें आया । वह Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजनवंश मुक्तावली यती विद्यमान बीकानेर में है । ऐसें प्रभावीक गुरु होगये । १७९ ७४ श्रीजिनकीर्तिसूरिःतत्पद् ७५ जंगमयुग प्रधान वर्त्तमान भट्टारक श्रीजिन चारित्र सूरीश्वर विजयते, क्षेमधाड़ शाखामें उपाध्याय श्रीनेममूर्ति जीगणिः । वाचक विनय भद्रजीगणिः उपाध्यायक्षेम माणिक्यजीगणिः तथा पंडित राजसिंहजी गणिः इन्होंकों दादा साहिब अर्स पर्स थे जिन्होंने छत्रपती थारे पायनमें इत्यादि दरपूनम एक स्तवन सीरणी गुरूकी करते एकाशन हमेश करते वदन कमलवाणी विमल इत्यादि अनेक छन्द महाकवी षट् शास्त्र वेत्ता हुए उन दोनोंके शिष्य पंडित लद्धि हर्षजी सवियाण गांममे ठाकुरके पूजनीय हुए उन्होंकेशिष्यछठेमा सलोचपंच तिथी उपवास उभय कालप्रतिक्रमणवालब्रम्हचारी सर्व आरम्भके त्यागी सवाक्रोड़ परमेष्ठी मंत्र के स्मारक प्रसिद्ध नांम श्रीसाधुजी दीक्षानाम धर्मशीलगणिः उन्होंके बड़े शिष्य हेमप्रिय गणिः लघुपंडित श्रीकुशल निधान मुनिके शिष्य उपाध्याय श्रीरामलाल ( ऋद्धिसार गणिः ) ने इस ग्रंथका संग्रह करा जो कुछ जादह कम लिखणेमें आया होय तो मिथ्यादुस्कृतं, ये ग्रंथ सर्व विवेकी भव्य जीवोंको आनन्द मंगल सुख वृद्धि करो श्रीरस्तु कल्याण मस्तु लेखकपाठकयोशुभं ( दोहा ) विक्रम संवत् उगण शत, छासठ ऊपर मान, श्रीविक्रमपुर नग़में गंगसिंह राजान। १। खरतर भट्टारकपती; श्रीजिन कीर्तिसूरिन्द । पट्ट प्रभाकर जय रहो, काटो कुमति फंद । २ । गुण अनेक जगमें अचल, मंत्र विसारद पुरि, जापजपे उपगारपर श्री जिनचारित्रसूरिः ३ धर्मशील गुरूराजके मुनिवर कुशल निधान । युक्ति वारिधिः गुण प्रगट, उपाध्याय पदथान । ४ । संग्रह कीनो ग्रंथको रामगणिः ऋद्धिसार । चार वर्णकी ख्यातको. समझोसवनरनार ५ विद्याशालासे सदा जैनधर्म उद्योत, । पढसुणकर श्रीसंघ के, नित २ मंगल जोत । ५ । इतिश्री ओसर्वसमुक्तावलि श्रावकाचार कुलदर्पण संम्पूर्णम् ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- _