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________________ ___ महाजनवंश मुक्तावली.. . १५३ जलन्धर, अजीर्णादिक रोग होणा इसभव विरुद्ध है और नाना तरहका रात्रि भोजनसें जीवघात होणेसें, नरक तिर्यच गति होती है यह परभव विरुद्ध है, मकान, चौका, और बरतण, और लड़का लड़कियें ये सब साफ सुघड़ रखणा चाहिये, जहां पवित्रता है वहां ही लक्ष्मी निवास करती हैं, श्रावक कुलाचारमें मांस मदिराका तो विल्कुल अभाव ही है तथापि सर्वज्ञ फर्माते हैं जहां तक तुम आत्माकी देवकी और गुरूकी साक्षीसें सौगन नहीं करोगे, उहां तक निश्चय नयसें तुम्हें उन चीजोंकी मुमानियत नहीं मानी जायगी, हरी वनस्पति बिल्कुल छोडणेका रिवाज आज कल मारवाड़के जैनोंमें ज्यादह प्रचलित है, इससे मुंहमें मसूड़े पककर खून गिरणा जोड़ोमें दर्दखूनकी खराबीनाताकत बहुत आदमी देखणेमें आते हैं, और गुजराती कच्छी जैन कोम ज्यादह सागपात तरकारी खाणेसें, बदहजमी, मेदबृद्धिदस्त वेटेम, इत्यादि रोगोंसे पीड़ित देखणेमें आते हैं, इस लिये कलकत्ते मकसूदावादवाले जैन कोमका रिवाज हरी वनस्पतिका मध्यवृत्तिका मालूम दिया है, जो कि ताजी वनस्पति आंम, कैरी, अनार, सन्तरा, मीठे नींबू, नेचू , गुलाबजामुन, परबलदूधी ( कद्द ) आदिक वढिया फलोंका, और गिणती मुजब सागोंका, तनदुरस्तीका, बर्ताव देखणेमें आया, न तो अब्रतपणा रखते हैं, न ऊठोंकी तरह हर वनस्पतिको खाकर, दोनों जन्म विगाड़ते हैं, गिणती माफिक पच्च खाण करते हैं, जैसे उपासगदशासूत्रमें आनन्द श्रावकनें कहा है वैसा इच्छारोधन शक्त्यानुसार करते हैं, श्रावकोंकों, सडाफल चलितरस, गिलपिला हुआ, आपसें ही छेद हुआ, ऐसे फल तथा तुच्छ फल, बेर, पीलू वगैरह कमकीमती जिसमें, कृमि, अन्दर पड़ जाती हैं, ऐसोंसे, हमेश, वचणा चाहिये, पत्तोंके साग, बरसातके ४ महिनें, हरगिज नहीं खाणा चाहिये, और मोलका आटा, विगर तपासाभया, घी, साबत सुपारी खानेसें, जैन धर्मशास्त्र मांस खाणेका, दोष फरमाते हैं, मगर मुसाफिरी करनेवाले, गरीब श्रावकोंसें मोलका आटा और घीका व्रत पालणा मुशकिल मालूम देता है, रेलके मुसाफिरोंको, मोलकी पूड़ी ही, मयस्सर होती हैं, विचार कर सौगन लेणा चाहिये, सौगन दिलाणेवाला पूरे जाण सुपारी खणा चाहिये, और हये, पत्तोंके साग,
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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