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________________ महाजनवंश मुक्तावली . १२९ अथ अग्रवाल जैन वैश्य उत्पत्ति गोत्र १७॥ - ये वात जगत् विक्षात है कि चारवर्गों में सबसे पहले वैश्यवर्णका काम करणेवाले इस आर्यावर्तमें उग्र कुलवाले थे जैनियोंके आवश्यक सूत्रकी टीकामें युगादि देशनामें भरतेश्वर वाहुबली वृत्तीमें तेसठ शलाका पुरुष चरित्रमें आदिनाथ ( ऋषभ चरित्रमें) बड़ी मनुस्मृतीमें इत्यादि श्वेताम्बर संप्रदाई ग्रंथोंमें तथा इस तरह दिगाम्बराचार्य रचित आदिनाथ पुराण उत्तरपुराणादि धर्म कथानुयोगमें, इस तरहसें लिखा है, जब भगवान ऋषभ देव तेतीस सागरका आयू सर्वार्थ सिद्ध विमानसें पूर्ण कर, निर्मल तीन ज्ञानयुक्त इक्ष्वाकु भूमी जो कश्मीरके पास परे है, जिसके चारों दिशामें चार पहाड़ आये हुए हैं सुर शैल्य १ हिम शैल्य २ महा शैल्य ३ और अष्टापद ( कैलाश ) ४ इसकी वीच भूमीमें ऋषभ देवके बडेरे सात कुलकर (मनु) विमल वाहन वगैरह युगलिक लोकोंमें कसूर करणे वालोंपर वचन दण्ड करणेवाले हुए प्रथम हकार फिर मकार और फिर धिक् ( धिक्कार ) इस तरह कइयक उस जमानेके लायक कायदे बांधणे वाले हुए, लोक ऐसे ऋजु थे, सो जुबानसें धमकाणेसेंही डरं मानते थे, काल जैसे वीतता गया, तैसे २ कल्पवृक्षहीन फल देणे लगे, तब उन युगलिक लोकोंके अन्यायका अंकुर बढणे लगा, विमल बाहनके सातमें मनु नाभिराना उनके मरुदेवी राणीके, ऋषभ देवका जन्म हुआ, उहां नगरी वगैरह कुछ नहीं थी, जो वस्तु उन युगलिक लोकोंको चाहिये थी, वह १० जातके कल्पवृक्ष उन्होंको देते थे, पूर्वजन्मके तपके प्रभावसे युगलिक पुन्यवन्त पैदा होते हैं, ४५ लक्ष योजनमें जो अढाई द्वीपमें मनुष्योंकी वस्ती उसमें कर्माभूमि १५ मेंसे सुकृत करके युगलिक लोक अकर्मा भूमीमें कालधर्मसे, उत्पन्न होते थे, प्रजा इक्ष्वाकु भूमीमें कुल दोयसय ऊपर कुछ . संख्या प्रमाण औरत मर्दोके जोड़े रहते थे, बाकी पांचसय छब्बीस योजन छकला ऊपर सब भरतभूमी मनुष्य क्षेत्रकी जिसमें वेताढ्य (हिमालय ) इधर दक्षिण भरत आधा दोयसय १३ योजन तीन कला प्रमाणक्षेत्र, सब खाली मनुष्य विगरका था वैताढ्यके पहिले तरफ उत्तरमें म्लेच्छ खण्ड गुण १७-१८
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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