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________________ २६ प्रस्तावना. धारण कर लिये, केई व्यापार, क्षेती, भृत्यकृत्य, तथा केईयक, स्वर्णकार हो गये, जो ब्राह्मणि या सुनार कहाते हैं, मैथिल ब्राह्मण, चित्रकारपना करने लग गये, रजतस्वर्ण लकडी प्रमुखका कृत्य भी करते हैं, वह बीकानेरमें जेपुरिया कहातें हैं । इस प्रकार मरण भयसें चारो वर्णोंका कृत्य करने लग गये वनोवास त्याग, नगर, ग्रामोंमें, निवास करा, अनुमान होता है, वे अग्निहोत्री, उस निब्राह्मणी पृथ्वी सुभूमके करनेके भयसे, भागकर, केइ इरानमें जावसे, इरानका नाम, अरण्य वास्तव्योंके रहनेसें, अरण्य शब्दका अपभ्रंस हुआ हो तो आश्चर्य नहीं, वे मुसलमानोंके मतके प्रशार समय भाग कर पुनः आर्यावर्तमें आये, वे पारसी कहलाते हैं, ईरानमें भी राज्यशासन सुभूमकाही था उस भयसें यज्ञोपवीत कमरमें प्रछन्नपर्ने रखी थी अभी भी उस मुजब ही रखते हैं, जैसे ब्राह्मणोंका अग्नि इष्ट है, उससे सविशेष पारसीयोके, अग्नि इष्ट है, सूर्य, समुद्र, गऊ, जैसैं इस समय ब्राह्मणोंके मंतव्य है, तद्वत् पारसियोंके भी है, इस कारण उस समयका अनुमान होता है, वकरीद करनेवाले मुसलमान भी, अजेर्यष्टव्यं, इस पर्वत ब्राह्मण कृत वेद पदके अर्थसे छागमेधसे, स्यात्संबंध धराते हैं, मुसलमान होनेसे वेदमंत्रकी जगे, विसमिल्लाह अर्थात् सुरू करता हूं नाम खुदाके, ऐसा इस अरबी पदका अर्थ होता है, जैसे पर्वतके चलाये वेद अर्थकी श्रुतियोंमें अनेक देवतोके अर्थ अश्वमेध, गऊमेध, नरमेध, छागमेध, इत्यादि यज्ञयाग, किसी कालमें अत्यंत ही हुआ करता था, क्वचित् २ अभी भी होता है, ये आठमाचक्रवर्ति सुभूम हुआ, इसके पीछे पुनः ब्राह्मणधर्म, जाग्रत हुआ, तथापि चार वर्णोका कृत्य, सर्वथा छूटा नहीं, वैरानुभाव निकृष्ट वस्तु है, परशुरामजीने क्षत्री धर्म विद्ध्वंस करा, तैसै सुभूमनें ब्राह्मणधर्म विद्ध्वंस करा, इसलिये जैनसर्वज्ञका कथन है, हिंसा मत करो, जिसकों जो दुःख देता है, वह समय पाय बदला लेता है यथा मनुस्मृतिमें लिखा है मांस इसकी निरुक्ति जिसको में भक्षण करता हूं समां वह मुझकों भक्षण करेगा, ये कथन सत्य विश्वास करने योज्ञ है कायस्थ दो प्रकारके हैं, प्रथम चित्रगुप्त क्षत्री ऋषभ भगवानके तनवकसीपर नियत था, आभूषण वस्त्रादि कायाके निमित्त भोगोपभोग वस्तु उसके स्वाधीन थी वह लिखत पठत शस्त्रधारण और षट्कर्मधर्म, और प्रभुकी काया सेवा करता था, उसके ८पुत्र हुये विवाह इनोंका काश्यप गोत्र क्षत्रियोंमें हुआ इनसें ८ गोत्र इनोंके हंस आदि नामोंसे विक्षात हुये तनवक्सीका कार्य करनेसे लोकीक कायस्थ कहने लगे, भरतचक्रवर्त्तिनें इनोंकों अर्हन्नीतिके वेत्ता जाणकर न्यायालयका कार्य, और राजा, राय, इत्यादि पद दे, पृथ्वीपति बनाया, दुसरे चंद्रसेन कायस्थ, कृत्तिकार्जुनके परिवारवाले परशुरामके समय भयसे
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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