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महाजनवंश मुक्तावली
धर्मी प्राप्ति, वीतरागी कराते हैं, इतनी वीन्ती सुण, गुरूनें चेलेको भेज नगरमैंसें, एक रूईकी पूणी मंगवाई, दशमैं विद्याप्रवाद पूर्व मैं लिखे मंत्रसें, उस पूणीका सांप बनाकर आज्ञा दी, जैसे दयाधर्मकी वृद्धि होय, ऐसा कर, अब वो सांप, भरीसभामैं, बेठे हुए राजा उपलदेव के पुत्रकों, जाके काट खाया, लोक मारने भगे, अदृश्य हो गया, राजाने विषवैद्य, गारुडी, जोगी, ब्राम्हन, मंत्र वादी चिकित्सकोसे बहुतही चिकित्सा कराई, परन्तु विष विस्तार पाते ही गया कुमर अचेतन मृतकतुल्य हो गया, उस दिन नगरी मैं हाहाकार मचगया, प्रायः प्रजानें, अन्न जल भी, नहीं लिया, मरा जांण, श्मसानको ले चले, लाखों मनुष्य रोते, पीटते, नगरके द्वार पर्यंत पहुंचे, तब गुरु की आज्ञासें,. चेलेनें रथी रोकी, और बोला, तुम इस रथीकों मेरे गुरूके पास, ले चलो, अभी कुमरकों जीवित कर देंगें, ये बचन सुनते ही राजा उपलदेवनें, कुछ धीरज पाया, और चेलेके पिछाड़ी हो लिया, जहां, श्री आचार्य्यजी महाराज, विराजमान थे, उहां पहुंचा, आचार्यको देखतें ही राजाका दिल, ऐसा दरसाव देणे लगा कि, अवश्य मेरे पुत्रको, ये भगवान जीवित दान देंगें, राजा अपना, मस्तक गुरु चर्णोंमैं धरकर, दीनस्वरसें, रोता हुआ बोला, हे प्रभु मेरे बृद्धपनेकी लाज, आपके आधीन है, पुत्रत्रिगर सब जग सूना है, इस तरह बहुत स्तुति करी, और बोला, स्वामी, मेरा कुटुम्ब तो उसराण, आपकी सन्तानसें कभी न होगा, बल्कि, ओसिया पट्टणकी सब प्रजा इस मुनिः भेषसें, कभी मुख न होगी, तब सब प्रजा भी, गद् गद् स्वरसें कहने लगी, हे पूज्य कुंवरजीकों जो आप सचेतन कर दोगे तो, सब प्रजा आपकी, सदाके लिए दासत्वपना करेगी, तब गुरू बोले, हे राजेन्द्र, जो तुम सब लोक, जैन धर्म अङ्गीकार करो तो, पुत्र अभी सचेत हो जाता है, राजा प्रजा तथास्तु, जय २ ध्वनिः करने लगी, गुरूजीनें योग विद्यासें पास किया, तुरत वो पूर्णिया सांप आकर, डंक चूसने लगा, जहर उतारकर अदृश्य... होगया, कुमार आलस मोडके बैठा होगया, और पितासें पूछने लगा, इतने लोक एकत्रित होकर मुझें जंगलमैं रथीमें डालकर, क्यों लाये, ये सुनते ही, राजा और प्रजाके, आनन्द के चौधारे छूटपडे, और राजानें कुमरकों छातीसें