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महाजनवंश मुक्तावली लगाय, बड़ा आनन्द पाया, और राजा सेठ सामंत गुरूका, महा अतिशय देख, साक्षात् ईश्वर समझ चरणोंमैं लगे, और जय २ ध्वनि होणे लगी, राजा बोला, आप, ये राज्य, भण्डार, सर्वस्व लेकर, मुझें कृतार्थ करो, गुरू बोले, हे भूपति, ये तुच्छ सुखदाई, महा दुःखका कारण, राज्यको समझ, हमने हमारे पिताका भी, राज्य त्याग दिया, इस लिये हे राजेन्द्र, स्वर्ग और मुक्तिका, अक्षय सुख देणेवाला, सर्व जीवनको आनन्द उपजाणेवाला श्रीसर्वज्ञ अर्हत परमेश्वरका कहा भया, विनयमूल धर्मको ग्रहण करो, राजा पूछता है, हे स्वामी, मुझे समझाओ, तब गुरू, सर्व प्रकारकी जीवहिंसा, सर्व प्रकारका झूठ, सर्व प्रकारकी चोरी, सर्व प्रकारका मैथुन, सर्व प्रकारका परिग्रह, सर्व प्रकारका रात्रि भोजन, त्यागणे रूप, जो धर्म है सो, हे राजा साधुओंके, करणे योग्य है, और गृहस्थके, सम्यक्त्व सहित बारह ब्रत है, वह, तीर्थंकरोंने, फरमाया है, देव अरिहंतके चार निक्षेपे, वंदनीक, पूजनीक है, जिनेश्वर देवकी, हे राजेन्द्र द्रव्यभावसे, पूजन करो, श्रीजिनेश्वरका, चैत्यालय कराओ, जिनेश्वरकी प्रतिमा करवाओ, सतरह भेदसें, अष्ट द्रव्यादिकसें, पूजन भावसे करो जैसैं, श्रीराय प्रश्नीसूत्रमैं, लिखा है, तैसें, सुगुरू पहले लिखे सो, षट्ब्रतोंके पालणेवाले, जिनेश्वर देवका कहा भया, सत्यधर्मका उपदेश, यथार्थ करनेवाले, जिनोंकों वस्त्र पात्र, उतरणे मकान, अन्न, पाणी, औषधी, शुद्धगवेषणीय, देओ, वन्दन, सत्कार, गुण कीर्तन करो, धर्म केवलीकथित, जिसमें पहले तो, बाईस अभक्षका, त्याग करो, नवतत्व षटद्रव्य, और श्रावक धर्मका आचार विचार सीखो, और आदरण करो जिनधर्मकी प्रभावना करते हुए, गरीब, अनाथ, दीनहीनका उद्धार करो, रथयात्रा, संघयात्रा, तीर्थंकरोंकी कल्याणकभूमी स्पर्शन रूप, भावभक्तिसें, तीर्थ यात्रा करो, इस तरह, हे राजेन्द्र, व्यवहार सम्यक्त्वकी करणी करते, निश्चय सम्यक्त्वकों, समझो, आत्माही देव, आत्माही गुरू, आत्माही धर्म, इस स्वरूपके ज्ञाता होकर, पांच अणु ब्रत, तीन गुण ब्रत, चार शिक्षाव्रत, एवं सम्यक्त्व युक्त १२ ब्रत धारो, अमृत रूप जिनवाणी सुणके, सवालाख राजपूतोंका, अनादि मिथ्यात्वका पडदा, दूर हुआ, सबोंने श्रावक