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________________ १८ प्रस्तावना. श्वेतपुद्गलोंके, सग्गाट निकलनेसैं, होती है, मनुष्यवत् शप्तधातुका शरीर देवका नहीं, इसलिये नतोवीर्य (शुक्र) निकलता, मनुष्य, तिर्यचवत् पुत्रोत्पत्ति नहीं होती, जिनधर्म्मवाले, तथा सायन्सवाले, तो मनुष्य मनुष्यों की उत्पत्ति, तिर्यंचोंसैंतिर्यंचोंकी उत्पत्ति मानते हैं, सूर्य, चंद्र, इंद्र, इत्यादिनामके मनुष्यकों उत्पत्तिके कर्त्ता किसी स्त्री संबंधमैं, नामके कारण देव ठहराया होगा, ऐसा अनुमान होता है, १८ पुराणो मैं तथा ईसाईमतावलंबी, ईसाकी माता मिरयमकों, ईश्वरसैं गर्भवती हुई ईसाको जन्मा, ऐसा लिखा है, दुसरोंका मंतव्य ऐसा है, जैनधर्म्मका नहीं है, कबीर पंथी कबीरजीकी पुष्पों में उत्पत्ति, अंतमैं पुष्प होना कहते हैं, गोकुल संप्रदाई कृष्णका अवतार वल्लभाचार्यजीकी, अग्निकुंडमैं उत्पत्ति; कहते हैं एवं अनेक मत है आर्यसमाज मतके उत्पादक स्वामी दयानंदजी अपने रचे सत्यार्थ प्रकाशमैं देवता, और नर्क, ये दोगति परोक्षकों नहीं मानी, लेकिन दयानंदजी उक्त वेद क्रिया करनेसें, मनुष्योंका मुक्त आत्मा होना मंतव्य करा, वे मुतात्मा सैल करने, इच्छानुसार इधर उधर घूमते फिरते हैं, विचार होता है देवगति, नर्कगति, सर्व्वं दर्शन सम्मत है, उसकों, नहीं मानना, सोतो समझा, लेकिन् मुक्तात्मा, इधर उधर घूमते फिरते हैं, इसमें प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है, क्या उनोंकों मनुष्योंने कभी देखा है, वेदोंके पूर्व भाष्यकार, पुराण, कुराण, सर्व्वमत, देव, इंद्र, नर्कादिगति लिखी है, देवतोंकोंही मुक्तात्मा केइ मतधारी मानते है, मनुव्यवत् शप्तवातु निष्पन्न शरीर नहीं होनेसें, नास्तिक मत उत्पादक वृहस्पति देव, नर्क, नहीं मानता, लेकिन स्वामी दयानंदजी जीव, ईश्वर, माना, वृहस्पतिनै नहीं माना इतना तफावत है, इस महाजनमुक्तावलीमैं, राजन्यवंशी विशेषतया, वाकी ब्राह्मणादि ३ वर्ण अल्प संझासैं जिनधर्म्मकी शिक्षा विशेषपनैं आपदा निवृत्ति होनेसें, पश्चात् सहवास उपगारी आचार्योंका करने से प्राप्तकरी उस उपगार कृत्य मैं, दादा गुरु देवोनें, निज आत्मबल शक्तिकी स्फुरणा, निःकेवल अहिंसा परम धर्मकी वृद्ध्यर्थही करी, स्वार्थवस किंचित् भी नहीं, उन २ चमत्कारोंका लेख देखकर, केइयक आधुनिक जैना भास अपने साधुत्वगुण सिद्ध करने गर्व्वमत्त कहते हैं, उनों मैं साधुत्वगुण नहीं था, यदि होता तो लब्धि नहीं स्फुरण करते, ज्ञानशून्य, अविद्यामहादेवीकेशंतान, ऐसै वाक्योकों तहत्त कह कर सत्य श्रद्धान इस वार्ता पर लाते हैं, लेकिन उनोंनैं बुद्धि खरच करणी चाहिये, जिस लब्धिके फिराने मैं, आज्ञा भंगका दोष लगे आगे अनर्थकी परंपरा वृद्धि पावै, वह लब्धि फिरानेझैं साधुकों आलोचना करना ऐसी आज्ञा जिनेश्वरनैं दी है, और जिस लब्धिद्वारा अनर्थ कृत्यनिर्मूल होकर धर्मकृत्य वृद्धि पावै, उसमें आलोचन प्रायश्चित्त लेनेकी, किसी ग्रंथ मैं
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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