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________________ प्रस्तावना. १९ भी आज्ञा नहीं, २८ -लब्धि मैं केवल ज्ञान, मन पर्यवज्ञान, अवधिज्ञानकी लब्धि, पदानुसारणी लब्धि कही, जिसलब्द्धिसे केवल एक पदके पढनेसे लक्ष कोटि प्रमाण पद विगर पढे आ जावै, तो विचार लो पूर्वोक्त केवल ज्ञानादिक लब्धि प्राप्त होनेसें क्या उसकी स्फुरणा, साधु नहीं करते हैं, क्या इनोकों दंड कहांई लिखा है, श्रीजिनदत्तसूरिः प्रमुख आचार्योनैं आत्मबल लब्धि, निःकेवल हिंसक धर्म मिथ्यात्व त्याग कराने, करी, विचारे करे क्या, आप मैं तो अंशमात्र, ऐसी आत्मबलशक्ति नहीं, तब उन अनभिज्ञ अपठितोंके सन्मुख ऐसी गप्पसप्प लगाकर, निज प्रतिष्टा जमाते हैं, जो जिनधर्मके उपगारकर्त्ता आचार्योंके स्थापित ओसवालादिककुनहीं होता, तो तुमको ये चंगे मालमलीदे मिलने कहांथे हम जब आपके इस कथनकों, सत्य समझैं, और आप मैं, साधुपना समझैं, एक राजन्यवंशीकों, प्रतिबोध देकर, ओसवालों मैं मिला तोदी जिये, फक्त रांधेकों, रांधने योज्ञ होकर, पुनः, उनों में, साधुपना, नहीं था, ऐसैं २ मृषा लापकर पापपिंड भरते हैं, और इन आत्मबल मंत्र चमत्कारों, प्रतिबोधित महाजनोंके इतिहासोंकों, पढकर, आधुनिक आर्यसमाजी आदिकोंकों, इन २ वार्त्ताओंपर, प्रतीति नहीं आवेगी, लेकिन उनों दयानंदजीके लेखोंकों, पढ़ा होगा, योगसाधक योगीके, अष्टसिद्धियां, प्रगट होती है, वह अचिंत्य शक्तिधारक, उस योगद्वारा, अनेक कार्य साधने समर्थ होता है, यथा वर्त्तमान समयमैं, उन गुरुदेव के योगमै सैं, अल्पांस योगसाधक, मेस्मेरिजम कर्त्ता, अनेक, अद्भुत कार्यकी सफलता कर दिखाते हैं, व्याधि मिटा देते, भूत, भविष्यद्, वर्तमान, दूरवर्ती निकटवर्त्ती बतादेना, अपने आत्मबलकी शक्ति, अन्य आत्मासैं मिलाकर मुक्तात्मा (मृत) कका आव्हान करना आदि प्रत्यक्षपनें विद्यमान है, सुना है के अमेरिकामै तो चाहे जिस मृत मनुष्य को बुलाकर, परोक्षपने वार्त्तालाप कराते हैं, वाणी द्वारा जानाजाता है की ये बाणी अमुक मनुष्यकी है, गुप्त गृहका रहस्य बता देता है, दृष्टिगोचर नहीं होता, तो फिर इस योगधारियों सैं असंक्ष गुणयोगमैं दृढ साधन कर्त्ता श्री जिनदत्तसूरि प्रमुख आचार्यों के चमत्कारों मैं संदेह करना, कोनसी बुद्धिमत्ता है, पुनः दयानंदजी पंचमहायज्ञ मैं, विवाहादि शोले संस्कारों मैं वेदोंके मंत्र लिखे हैं और लिखा है, अमुक मंत्र पढकर अमुक कृत्य करना, इसका हेतु क्या होगा, ईश्वरकों दयानंदजीनें आकाशवत् सर्व्वव्यापी कथन करा है, तब तो संसारके यावन्मात्र पदार्थ ईश्वरसैं भिन्न रहा नहीं, वह सर्व्व ईश्वरके आधीन है, तो फिर मंत्रोंकों पढकर कंठशोष करनेसें क्या सिद्धि है हवनादि करते, वह तो त्रिकालदर्शी है, मनुष्योंकी अपेक्षा तीन काल है, ईश्वरकी अपेक्षा केवल सर्व्व
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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