SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाजनवंश मुक्तावली महिमा, दुसरा ऐसा सन्सारमें कोण होगा, जिसमें आपदा नहीं आती है, तत्र अपने कुटुम्बके रक्षाकारण जाणके, सब राठी मिलके, पालखीमैं डालके पुत्रकों लाये, सबोंने कहा, आपकी शन्तानके हमारी शन्तान सदाके वास्ते, आभारी रहेगें, किसी तरहसे ये कुलदीपक, रूपदे, अच्छा हो जाय, गुरूने योगणियोंको बुलाया, और कहा, इसको तुम सावधान करो, जोगणियोंने कहा हमारी आज्ञा कारणियां, वींझेंविणजारेकी सात लड़कियां अग्निमैं जलकर मरी, इसका कारण रूपदे है बीझेविणजारको महसूल की, चोरीमैं, रूपदेने पकड़के, कैद किया, और सब माल, असबाब, जब्त कर लिया, तब सातों इसकी कंवारी कन्यायें, क्रोधसें, अग्निमैं जलकर, भस्म होगई, सो शुभ परणामके वश, चाण्डाल जातिकी, सातोंई कन्या, व्यन्तर हुई है, हम उन्होंको, अभी लाती हैं, ऐसा कह उन्होंको लाई तब उन्होंने कहा, हे परम गुरू, हमारा पिता कैदमैं हैं, उसको छोड़ दे और माल पीछा दे दे तो, आपकी कृपासें, ये अच्छा हो जायगा, गुरूने, वीझेंकी बेड़ी तोड़ाई, माल सब दिलाया, तत्काल उसका अङ्ग, अच्छा होगया, तब जोगणियां, और बझि बाइयोंने कहा, अरे राठीयों जबतक तुम जिन दत्तसूरिःके आज्ञाकारी बणे रहोगे, और खरतर गच्छका उपकार नहीं भूलोगे, उहांतक अर्दोगकी बीमारी तुम्हारे कुलमैं नहीं होगी, ऐसा कह, गुरूकी आज्ञा ले, अलोप भई, ये चमत्कार देख, सब रतनपुरके महेश्वरियोंने, जिनदत्तसूरिःनीका, वासक्षेप ले जिनधर्मी हुए, डागा, गोत्रमहेश्वरीयोंसे मुंधडामहेश्वरियोंसे, मुंधडाआवक गोत्र स्थापन किया, भामूनीका पारख, अबींध कान नहीं बिंधावे, ये राठी महेश्वरियोंसे गोत्र थापा, भोरा गोत्र, राठियोंसें, छोरिया, गोत्र राठियोंसें, सेलोत राठी महेश्वरियोंसे, रीहड़ राठी महेश्वरी, इस तरह ५२ गोत्र रतन पुरमें, महेश्वरीयोंसें, जिन दत्तसूरिजीने स्थापन करा, अनेक जातिनाम महेश्वरियोंमेंथावोही रक्खा । . (रांका सेठी सेठिया कालाबोक बांका गोरादक०) वल्लभी ( बला ) सोरठ देशमैं, गोड़ राजपूत, काकू और पातांक, नामके दो भाई, बहुत द्रव्यसें, तंग रहते थे, नगरके दरवज्जेके बाहर तेललूंण वेच
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy