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________________ प्रस्तावना. ३१ - अंग्रेज सरकारके राज्यशासनमें स्वदेशके लोग हाथोंसे व्यापारकी वस्तु बनानेवाले मसीनसे बणती वस्तुके सन्मुख दिग् मूढ होकर कलाकोशलको जलांजली दे बैठे यावन्मात्र पदार्थकी व्यापार विदेशी प्रचलित हो गया, उस व्यापारद्वारा मुख्य लाभ तो अन्य २ विलायतोंके व्यापारियोंकों प्राप्त होता है, और किंचित् २ आर्यावर्त्तके व्यापारियोंको भी मिलता है, लेकिन अंग्रेज सरकारके सुखशांतिमय राज्यशासनके प्रताप लूटेरे डाकूओंसे बचाव होनेसे प्रजा इस समय द्रव्यप्राप्तिसैं सुखसँ निर्वाह करने लगी, गरीब लोक, कर्म करोंके लिये अनेक साधन आजीविकाके उपस्थित हो गये, जिसमें भोजन वस्त्र मात्र गरीबोंको भी मिल जाता है, जो उद्यम करते हैं उनोंकों, प्रजाके सुखसाधन, रेलतार बिजलीका उद्योत, अग्निबोट जलयान ] में चकरसी आदि अनेकानेक वस्त, मणियारी वस्तुमें, हाड, लकडी, टेन, एलोमीन, काच, लोह, आदिके नाना पदार्थ टेमफीस | घडी ] छापखाना आदि विद्यावृद्धिका साधन, बादित्रोंमें हारमोनियम् [बीणा ] की प्रतिनिधि, छत्तीस कर्म करोके अस्त्र, क्षत्री धर्मार्थ तोप, बंदूक आदिके साधन भी विलक्षण, द्रव्यरक्षार्थ तनजोरी नाना भेद, नाना प्रकारके वस्त्र नाना प्रकारके कागद, ऐसा कोई पदार्थ नहीं रहा, जो की अन्य स्थान यूरोपसे नहीं आता हो, रेसमी [ कौसिक ] वस्त्र जिसकों ५ सय वर्ष प्रथम चीनांशुक आर्यावर्त्तवाले कहते थे, चीन देशसें आता था, बड़े द्रव्यपात्रकी स्त्रियें ऐसे वस्त्रको पहरने उत्कंठित रहती थी, सहस्र मुद्रा देने पर प्राप्त होता था, वह कौसिक वस्त्र, मजूरणिये, पर धापन कर रही है, अर्थात् ३२४॥ मुद्रामें मिलनेलगा, इस्कूल [ पाठशाला ] दवाखाना [ औषधालय ] भी प्रजा सुखार्थ प्राय सर्वत्र प्रचलित है, कोई भी हिमायतीबाला किसीके मजबी [धर्म ] वाबत अत्याचार नहीं कर सकता, पोष्ट संबंधी सुखसाधन अत्यंत ही उपयोगी जिसके सुख लेखनसे नहीं लिखसकते, संपूर्ण दक्षण भरतमें नदियोंपर पुल [ पाज ] सर्वत्र मार्ग सडक जिसपर अंधा मनष्य ‘पशु गण भी सुखसे प्रस्थान करते हैं, यत्र २ जलका अभाव था तत्र २ नहर नल लगाकर जल संबंधी सुखसाधन रच दिया, ब्रिटिस सरकारके राज्य प्रबंधका सुख अवर्णनीय है, सर्व लिखा जावे तो एक बड़ा ग्रंथ वनजावे हमारी न्यायशील ब्रिटिस सरकारका यद्यपि निजनिवास स्थान इंग्लंड (लंडन) राजधानीमें हैं, तथापि न्यायनीति सुखसाधन प्रबंधद्वारा, दोनों प्रजावर्गको, एक शरीरके दो नेत्रोंकों तुल्यपने वर्त्तती हैं, और वर्तेगी, इनका राज्यशासन शांतिसुखमई चिरस्थाई रहै, जिसमें सर्व प्रजा सुखकों प्राप्त हो, परम पदको साधे, किंबहुना, ___ यदि ग्रंथमैं या प्रस्तावनाके संग्रहमें न्यूनाधिक लिखा हो तो विवुधजन क्षमा
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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