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प्रस्तावना.
पृथ्वीमें रहे चए, गिलेरी, सांप, आदि अनेक स्थूल और सुक्ष्मजीवोंका संहार होता है टीडियोंके असंक्षदलको, धान्यरक्षार्थ, मारना, वह जीवहिंसाके अत्यंत लाभ प्राप्तिमें, द्रव्य लाभ अधिक कैसे संभव हो, व्यापारियों तुल्य धनपति कोई कृषक एक दोभी तो आपवतावेतो आपका आक्षेप जैन धर्म पर यथार्थ पने सिद्ध हो सके, जाति भास्कर ग्रंथ निर्माता उपासगदशासूत्रसैं एक जैनधर्मी वैश्य आनंद गाथा पत्तीका स्वरूप लिखा है, यह आनंद २४ में तीर्थकरका धर्मोपदेश श्रवण कर स्वशक्त्यानुसार महावीर भगवानके सम्मुख प्रतिज्ञा करी है के में पांचसय हल ( बीगा ) पृथ्वीमैं क्षेती कराऊंगा, लेकिन महावीर प्रभूनें, उसकं ये नहीं कथन कराके तूं क्षेती मत करा, वह गृहस्थपने यावत् रहा, तब तक क्षेती कराते रहा, लेकिन उसका व्यापार ४ कोटि स्वर्णमुद्रासे चलता था ४ कोटि स्वर्णमुद्रा व्याज वृद्धिमें था ४ जहाज व्यापारार्थ, समुद्रमें चलते थे, पांच शय शकटस्थलभूमीमें माल लाने चलते थे,४कोटि स्वर्णमुद्रानिधानमें निरंतर रखता था, ४०००० चालीस हजार गऊओंका ४ गोकुल था इस प्रकारके' महावीर प्रभूके एक लाख गुणसठ सहस्र व्यापारी व्रतधर श्रावक थे १०० राजा भरत क्षेत्रके श्रावक उनोंके थे और सामान्य अनुव्रती, तथा व्रतवर्जित जिन वचन सत्य है ऐसी श्रद्धानवाले तो प्राय भारतवासी सर्वही थे, श्रेणिक राजा (भंभसारा) दिक राजा, तथा जिन राजपूतोंसे यावज्जीव मांस भक्षण मद्यपान नहीं भी . छटा तथापि जिनवचनानुसार हित अहित, पुण्यपाप, बंध, मोक्ष, का आत्मामें भान हो गया था एसै भी लखों राजपूत उस महावीर प्रभूके परमाहत् जैनधर्मी श्रावक सम्यक्त धर कहाते थे, जिनोंका एक दोभों मेंही मोक्ष हो गया, तत्वज्ञान होना ये ही अलभ्य पदार्थ है, कायाकों अत्यंत कष्ट, और पर प्राणियोंका असंक्षा नास देख जो क्षेती नहीं करते, उसका जैनधर्म क्या करे, जैनाचार्योंकी पूर्व परिपाटी यह थी के, सर्व जनोंके लिये हितावह, मोक्ष प्राप्तिके मार्गका उपदेश कर देना, तूं अमुक वस्तु छोड ही दे, ऐसा अनुरोध जैनाचार्योनें कदापि नहीं करा है, जो आत्मबोधसे त्याग दै तो भी उस त्यागकी पूर्ण विधिमार्ग समझाना धर्म समझते थे, . द्रव्यव्यय करनेमैं, लाभ हानेपर प्रथम श्रेणीमें, फाटका बाज तैसेंद लाल भी, दूसरे श्रेणीमैं कपडेका व्यापारी, तीसरी श्रेणीमें जोहरी, चोथी श्रेणीमें धान्यादिके व्यापारी, पांचमी श्रेणीमें सराफीवाले, छट्टी श्रेणीमें केवल व्याज करनेवाला, सातमी श्रेणीमें सेवाकारक गुमास्ते, उत्तरोत्तर अल्प व्यय कर्ता जानना.
अस्ति नास्ति च सेवायां, अर्थात् नोकरीमैं धन होता भी है और नहीं भी होता, वह प्रत्यक्ष है, लिखनेकी आवश्यक्ता नहीं, और भिक्षा नैवच नैवच अर्थात् भिक्षा वृत्तिसे द्रव्य नहीं होता, ...