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________________ १३४ महाजनवंश मुक्तावली पांचो इन्द्रियोंके, सुख मिले, अपने लिए चाहै कितना द्रव्य खरच हो जावै. परमार्थमें पैसा कम खर्च पड़े, वह धर्म, कलियुगी जीवोंकों, संसारसे तारणे वाला मालुम देता है, जिधर जिसका जी मानता है, उधरही धर्म कबूल करता है, लेकिन निधर पांचोंइन्द्रियोंको मजामिले उस धर्मकी तरफ , ज्यादह, रजू होते दीखते हैं, उग्रकुलवाले वैश्य वजणे लगे, और आपसमें वली होकर, राज्य भी करणे लगे राजा उग्रकुली धनपाल धनपुरी नगरी पंचाल देशकों कबजे करके, वसाई, इन्होंके कई पुखतान तक, राज्य रहा, राजा रंग पुत्र विशोक, विशोकके मधु, इस वक्तमें बैताढ्य पर्वतपर, इन्द्रनाम विद्याधरोंमें बड़ा बलवन्त राजा उत्पन्न हुआ, इस मधुका वर्णन, जैनरामायणमें नारदजीकों रावणनें हिंसक यज्ञ क्यों कर चला, इस. प्रश्न करनेसें उत्तर दिया हैं, उसमें राजा मधुका और सगरका वृत्तान्त चला है, उहां देखणा, मधुका महीधर, इस वक्त राजा इन्द्रने रावणके बडेरोंकों, युद्धमें हटाकर, लङ्का छीनली, रावणके बडेरे पाताललङ्का ( अमेरिका ) में, जा रहै, महीधर रावणके बडेरोंका, आज्ञाकारी था, इस वास्ते इन्द्रनें इसका भी राज्य छीन लिया, महीधर फिर और राजाओंकी नौकरी करणे लगा, पीछे रावण पैदा हुआ, और इन्द्रसे युद्धकर, वैताढ्य पर्वतका राज्य छीनलिया, महीधरकों रावणनें बुलाकर सेनापती बणाया, जब रावणपर रामचन्द्रजी आए, तब बिभीषणके सङ्ग, महीधर भी रामचन्द्रनीके पास आगया, फिर अयोध्या, महीधर काम कर्ता हुआ, फिर कई लाख वर्ष बीतणेसे फिर महीधरके वंशवाले राजा होगये, यों कई पुखतान, इस वंशवाले जैनधर्म छोड़के ब्राम्हणोंका, वैदधर्म मानने लगे, आग्रायण ( अग्रसेन ) नाम राजा हांसी हसार जो अब वस्ती है यहांपर अपने नामसें अग्रोहानगर वसाया, उग्रकुली लोक तथा अन्य लोकोंकी वस्ती यहां बहुत वसी, ये जमाना करीव विक्रम राजाके कुछ पहिलेका है। राजानें दिल्ली मंडल कुल कबजें कर लिया, इस वक्त वैताढ्य पहाड़पर, इन्द्रके वंसवाला, सुरेन्द्र नामका राजा, राज्य तिव्वत राजधानीमें करता था, इस समय दक्षिण देशमें कोलापुर नगरमें, नाग वंशी राजा, अभंगसेनकी पुत्रीको, सुरेन्द्रनें मांगी,
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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