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महाजनवंश मुक्तावली
कुष्ठ की बिमारी, उत्पन्न हुई, उसकी वय नौ वर्षकी थी, राजानें बहुत देवी देव मनाये, मंगर आराम नहीं हुआ, तब राजां अपणे कुलदेवीको बाल वालदे, स्तुति करी, तत्र किसीके अंग मैं बोली, हे राजा, जो तूं पुत्र अच्छा कराया चाहै तो, सिन्धु देश मैं, परोपकारी, युग प्रधान श्रीजिन दत्तसूरिः के चरण शरण जा. राजानें सिन्धु देश मैं जाकर, गुरूजीसें सब अरज करी, और बोला, आप कृपा कर, लोद्रव पट्टण पधारो, सब नगर आपके दर्शनकी, राखेचाह, गुरूनें कहा, जो तुम, जैनधर्म धारकर खरतर गच्छके, श्रावक वणो तो, मैं चलता हूं, जेतसी रावल बोला अहो भाग्य आपकी सेवा, और अहिंसा रूप जिन धर्म की, प्राप्ति, पुत्र मेरा निरोग होय, इससें मैं जांणता हूं, मेरे पूर्व पुन्य उदय हुए, तब गुरू, लोद्रव पुर पधारे, तीन दिन दृष्टि पास किया सोबन वर्ण काया हो गई, अब राव जेतसीनें सह कुटुम्ब जैनधर्म धारण करा मकड़ पुत्रकों राज्य तिलक दिया, गुरूका - त्याग वैराग्यका, हमेशका उपदेश सुण, केल्हण कुमार, दीक्षा लेणेको तैयार हुआ तब गुरूनें समझाया, है बच्छ, तूं बालक नादान है, संजम खांडेकी धार है, पिता तेरा वृद्ध है, तूं अरिहंत देवकी पूजा द्रव्य भावसें कर, महाव्रती, अणुव्रती तथा सम्यक्तियोंकी मन शुद्ध भावसें द्रव्यादिक अनेक प्रकार भक्ति कर, बारह व्रत पाल, श्रावक धर्म पालणे वालाभी, एक भवसें, मुक्ति जाता है, सात क्षेत्रों मैं, द्रव्य लगा, मेरे दीक्षा की करी हुई प्रतिज्ञा भंग होती है, तब पूर्ण करणे की सदा मदके लिए, तजवीज, बताता हूं, तूं मेरे सन्मुख मस्तक मुण्डन करा, और मैं वास देता हूं, गुरूने सम्यक्त्व युक्त बारह व्रत उच्चराया, और कहा, तेरे कुलका बालक नव वर्षका, जब होय, तब इसी तरह पट मुण्डन करा, मेरे शन्तानों का वास चूर्ण लेगा तो, तुझारे कुलकी बृद्धि होगी लक्ष्मी राज्य लीला करते रहोगे, दर्शन की राखेचाह, दीक्षाकी राखेचाह, इस वास्ते गुरूनें राखे चाह गोत्रका नाम, थापन करा, सं. ११८७ मूल गच्छ खरतर वृद्ध थाल आरथाल खरतर भट्टारक गच्छका राखेचाह सदा करते हैं धोत तथा व्याह मैं, पूगलसे उठके दूसरी जगह बसे सो पूगलिया राखेचाह बजते हैं।
केल्हण कुमार बोला,
गुरू बोले, तेरी प्रतिज्ञा
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