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________________ महाजनवंश मुक्तावली हे कृपासिन्धु, ऐसे आपकों, जाना उचित नहीं है, आप इस प्रजाकों लब्धि मंत्रसे, धर्मकी शिक्षा दो, गुरूनें कहा, साधू बिना कारण लब्धि फिरावे तो, दंड आवै, तत्र, देवीने कहा, हे भगवान, आपसे कोई बात छिपी नहीं है, तीर्थकरोंकी आज्ञा है, भगवती सूत्र मैं साधुओंको, तलवार ढाल लेकर जिनधर्मके निन्दक, तथा, घातियोंकों समझाणेकों, साधू लब्धि वन्तको, उत्पतणा कहा है, संघ मैं महा आपदा डालणे वाले, महा दुर्बुद्धि, बली ब्राह्मणकों विष्णु कुमारनें, पुलाक लब्धिसें, जानसें मार डाला, आलोयण प्रायश्चित ले, उसी भव मुक्तिगये, उस दिनसें राखी बांधनेका त्यौहार ब्राह्मनोंनें चलाया, और आगे गोसालेका जीव जो साधुओं पर, रथ डालेगा, उसकों, सुमंगल साधू स्वसहित जलायगा, गोसालेका जीव नरक जायगा, मुनिः आलोयण प्रायश्चित ले, उसी भव मैं मुक्ति जांयगें, दशा श्रुत स्कंध सूत्रमैं, संघकी आपदा मिटाणे, लब्धि फिराणी लिखी है, आज्ञाका आराधक कहा, लेकिन संघ के कार्य निमित्त लब्धि फिराणेवाला साधु विराधक नहीं, यदि विराधक होते तो, उसी भवमैं मुक्ति साधू कैसें जाते, संसारके जीव भी, लाभ विशेष, और हानि अल्प, ऐसा काम सब बुद्धिमान करते हैं, ऐसा व्यवहार देखणे मैं आता है, और साधू लोक भी ऐसा करते हैं, जैसे मुनिः, एक गांमसें दूसरे गांम, जब विचरते हैं तो, अनेक जीवोंकी हिंसा होती है, `परन्तु एक जगह जादा रहनेसें स्नेहबद्ध मुनिः हो जाते हैं, और, अति परिचय, अति अवग्या, ये दोष भी लगता है, नालक बचन भी है, (दोहा) बहता पानी निरमला, पड़ा गंधीला होय । साधू तो रमता भला, दाग न लग्गे कोय ॥ १ ॥ और अनेक क्षेत्रों मैं, विद्वान मुनिःयोंके उपदेशसे, अनेक भव्य जीव, सम्यक्त्व व्रत धारते हैं, जिनमन्दिर, ज्ञान भण्डारकी, सम्हाल होती है, मिथ्यात्वी निन्हवोंका, दाव नहीं लगता, श्रावक लोक स्यादवादन्याय तत्व पढ़कर, अनेक जीवोंको समझाणेके लिए, समर्थ होते हैं, इत्यादि "अनेक लाभकी तरफ विचार करके, बिचरणेकी आज्ञा तीर्थकरों नें दी है, फिर द्वार बन्द करणा, और खोलणेंसें, प्रत्यक्ष पंचेद्री जीवों तककी, हिंसा है, इसलिये साधु साध्वी के प्रतिक्रमण सूत्रमैं, ( उष्घाड़ कवाड़ उघाड
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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