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महाजनवंश मुक्तावली.
७७ वाला था, पूर्व पुण्य जाग्रत हुए, और वोला, है प्रभु आज पीछे, शिकार करके किसी भी जीवकों मारणेका मुझै, यावज्जीव त्याग है, लेकिन सीधा मांस मिल जाय, उसके खानेमें तो कुछ दोष नहीं, तब गुरू बोले हे राजा, मांस खानेवाले नहिं होय तो, कसाई जीवोंकों किसलिए मारे. वह उन खाने वालोंके लिए मारता है, इस लिए आधाकर्म लगे. मनुस्मृतीमें आठ कसाई लिखे हैं, तब राजा बोला जैसैं हरी वनस्पतिके . सागकों, जब गृहस्थी पका डालते हैं तो, जैनके साधु उसे निदोष समझके, ले लेते हैं, इसी तरह ही किसी और राजपूतनें, मांस आपके लिए, मारके रांधा हो, फिर तो वनस्पतिकी तरह खाणेमें दोष मुझे नहिं । लगे, गुरूनें कहा, हे राजा, वनस्पति एकेन्द्री जीव चेतन, प्रथमतो शस्त्र, . अग्नि, और खारके स्पर्शसें ही, निर्जीव अचित्त हो जाता है, वैसा मांस अचित्त निवि नहीं होता, मांसके पिण्डमें समय २ असंक्षा जीव, संमु-- र्छिम पंचेन्द्री अग्निपर रंधते भी उत्पन्न होते, और मरते हैं, इस तरह, वो पंचेन्द्री एक जीव मरण पाया तो, क्या हुआ, लेकिन असंक्षा जीवोंकी हिंसा, मांसाहारीकों लगती है, मल, मूत्र, सेडा, वीर्य, खून चरबीका पिण्ड, हे राजा मांस खाना मनुष्योंका धर्म नहीं, विवेकी, मनुष्य सुकाकर, अपणे हाथसें वनस्पति तक नहीं खाते हैं, और सूकी वनस्पति कालान्तरमें जीवाकुल हो जाय तो भी नहीं खाते, एकेन्द्री वनस्पति वगैरह ५ थावर विगर मनुष्योंका, जीवित नहीं रह सक्ता, लेकिन, बे इन्द्रीसे लेकर पंचेन्द्री तकके शरीरके पिण्डकी, मनुष्योंकों, खाणे विगर कोई हरजा नहीं पहुंचता, बल्कि मांसके खाणेसें, प्रत्यक्ष दर्श अवगुण है, इत्यादि अनेक प्रश्नोत्तरसे, राना प्रति बोध पाकर जैनी महाजन हुआ, उस बखत, राजाकी कुलदेवी, नवरतोंमें, भंसा, बकरा बलिदान नहीं मिलणेसें, उत्पात करणे लगी, तब राजाने गुरूसे कही, गुरूनें विद्या बलसें, देवीकों कुलाई तब देवी बोली, आज पीछे बलिदान नहीं लूंगी, तब राजाने विचारा, ये देवीकी मूर्ति अगर जायल नगरमें रही तो, न जाणे किसी समय,
१ देखो हमारा बनाया हुआ वैद्य दीपक ग्रन्थका तीसरा प्रकाश ।