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________________ ....१६ . प्रस्तावना... गिंडोले, जूं, लीख, चर्मजू आदिक २० जातिके, पन्नवनासूत्रजीवपदमैं, अर्श मैं, कंठवेलमैं, द्विन्द्रियजीव कहा है नारूकों, बेइंद्री जीव कथन करा है, उनका जीवतव्य मनुष्यकृत आहारपानीसै हैं, जवउपवाशादिमैं, उन जीवोंकों, आहारपानी नहीं मिलता, तब वे, मर जाते हैं, अब तुम विचार करो, धर्मके अर्थ असंक्षजीव हलते फिरतेको, मारना, ये हिंसा विशेष, वा जिनमंदिरादिमैं, एकेंद्रीजीवोंकी हिंसा बताकर त्यागदेना, वह विशेष, इसलिये ही आचारांगसूत्रमैं, लिखा है आसवासेनिरासवा, निरासवासेआसवा, अर्थात् आश्रव वह निराश्रव, निरराश्रव वह आश्रव, धर्मकार्यमैं हिंसाकी दलील करणी, जिनाज्ञासैं विरुद्ध है सर्व कार्यमैं इरादा ( भाव ) अनुसार, धर्म, और पापका बंध होता है प्रतिष्टाकल्प नामग्रंथ १० पूर्वधर श्रुतकेवली भगवान वज्रस्वामीका रचा हुआ है, इस लेखानुसार, जिनमंदिर, जिन प्रतिमाकी प्रतिष्टा कराई जाती है, . १२ कालीके अनंतर ८४ आगमोंमै २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्त्ति आदि १६३ शलाका पुरुषोंका इतिहास, श्रावकोंका जीवन चरित्र आदि पूर्ण पनैं नहीं लिखागया, अन्य २ अनेकस्थल जैसैं दृष्टिवाद विछेदगया वा ११ अंगमैं विंदुमात्रस्थल लिखागया, वाकी पूर्वधारियोंने, वा श्रुतधर आचार्योनैं, जो लिखा, वह घोर जल्मसैं वचेवचाये लाखों शास्त्र जैनके विद्यमान है, पाटन, पट्टन, खंभायत जेसलमेरादिकोंके भंडारोमैं, वे शास्त्र जैनधर्मके अगाध ज्ञानका परिचय दे रहे हैं, सूत्रोंमें विशेषतया साधुमार्ग काही उल्लेख लिखागया, श्रावकोंकी दिनचर्या. रात्रिचर्यादिक आचार विचार, श्रुतधर आचार्योनैं गुरु परंपरागत श्रवण करे हुये प्रकीर्णलिखे उसमें मिलते हैं, .. ओसवाल मरुधरदेश वास्तव्योसैं दान लेनेवाले १६ ॥ जातिके भोजक मग जाति अपने को साकलद्वीपी कहते हैं, लेकिन काशी गयाके देशमैं वसने वाले, साकलद्वीपी ब्राह्मन और हैं, वे भी भोजक कहाते है, काशीमैं उनोंनें अपणी ब्राह्मनोंमें, श्रेष्टता सिद्ध करने, संस्कृतमैं पुस्तक छापी है, उन भांजक साकल. दीपियोंसे, इन भोजकोंसैं कुछभी संबंध सिद्ध नहीं, इन ओसवाल मारवाडि-- योंके, भोजकोंका, इतिहास, टाडसहाबके लिखे, राजपूताने इतिहाससैं, संबंध मिलता है, तत्व क्या है, वह तो सर्वज्ञ जानें, - ब्राह्मन ज्ञाति मुख्य तो एकही स्थापित हुई यथावेदोक्त श्रुती है, ब्राह्मणामुख-- मासीत्, जैन धर्मवाले भी माहण [ ब्राह्मण ] संज्ञा सम्यक्तयुक्त उत्कृष्ट द्वादश व्रत धारक, उभयकाल षडावश्यक, तथा-षट् नियम नित्यधारक, पांचसै मनु--
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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