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________________ महाजनवंश मुक्कावली . (लोढा दूसरे) लोढामहेश्वरी बाबा विक्रम सम्बत् हजारकी सालमें गुरूमहाराज श्रीवर्द्धमानसूरिका उपदेश सुणकर जैनधर्मका, श्रावक हुआ, ये फकत्त दशहरा पूजते हैं, पाटीकी पूजा करते हैं इन लोढोंका अभी भी गच्छ खरतर है, मेड़ता जिल्लेमे इन्होंके घर हैं, और सोझत इलाकेमैं है (बोरड़ गोत्र) आंबागढ़में पमारराजपूत राव वोरड़ राज्य करता है, सं. ११७५ में खरतर गच्छाचार्य, श्रीजिनदत्तसूरिःनी, उस नगरमें पधारे राजा शिवजीका भक्त था, सो जोगी सन्यासी जितने आवै, उनमें राजा ऐसीही बिनती करे के, मुझको, स्वामी शिवजीके प्रत्यक्ष दर्शन करवाइये, लेकिन कोईभी करा नहीं सक्ता, एक दिन राजा श्रीजिनदत्तसूरिजीकी महिमा सुणके, गुरूके पास आया और वन्दनकर, यह बिनती करीके हे गुरू मुझे शिवजीके प्रत्यक्ष दर्शन करवाइये, तब गुरू कहणे लगे, अगर जो तूं शिवजीका कहा बचन माने तो, प्रत्यक्ष शिवजीसें मिलाएं, राजाने प्रशन्न होय, यह बात मानी, तब जहां शिवजीका लिङ्ग था, उहां गुरू पधारे और राव बोरड़कों कहा, हे राजा अब तूं एकाग्र दृष्टि शिवजीके लिङ्ग पररख, राजाने समाधि लगाय एकाग्र दृष्टि धरी, इत्तनेमें लिङ्गमेंसे प्रथम धुंआं निकलना शुरू हुआ, बाद शिवजी भस्मी लगाये, नांदियेपर सवार, अर्धागा पारवतीकों लिये, त्रिशूल हाथमें लिए हुए, मूर्तिके अन्दरसें, निकले, और राजा बोरड़को दर्शन दिया, और मांग २ ऐसा वचन मुखसे कहने लगे तब रावराजा बोरड़ने, हाथ जोड़ बिनती करी, हे नाथ, अन, धन, जन सब आपकी कृपासें हाजिर है, लेकिन जन्म मरणसें छुटै ऐसा जो परमपद है वो मुक्ति मेरेकों प्रदान करो, वेर २ यही बिनती है, तब शिवजी, हड़ २ हंसने लगे, और बोले, हे राजा, मेने आपनेंही मुक्ति नहीं पाई, (दोहा) नाही कछु पाइये, कीजेताकी आस । रीले सरवर पे गये कैसे बुझे पियास ॥ १ ॥ हे राजा सांसारिक कार्य जो कोई मेरेसें होने लायक होय सो मैं, पूरा कर सक्ताहूं , भाग्यसे उपरान्त, देवता भी देणेमें समर्थ नहीं, और मुक्तिका
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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