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________________ प्रस्तावना १० देवलोक गमन करनेके अनंतर भी जो भव्यजीव भक्ति भावसैं गुरुदेव का पूजन स्मरण ध्यान करते हैं उनोंके शंकटमैं सहायता, भाग्यानुसार द्रव्यप्राप्ति पुत्रप्राप्ति आदि, अनेक मन वंछितकार्य पूर्ण करते हैं, इस कलियुग मैं हाजरा हजूर देव है प्रष्ण, देव गुरुके अर्पणकी वस्तु भक्ष नहीं तो दादा गुरु देवकी चढाई हुई सेष सीरणी लोक कैसैं भक्ष समझते हैं [ उत्तर ] हेमहोदय देव वीतरागतो मुक्त शिव हो गये उनके तो मंदिर स्थापना मैं गत भोग वस्तु अलीन है, और दादा श्रीजिनदत्त सूरिः प्रथम देवलोक हृक्कल विमान मैं चार पल्यकी आयुधारी महर्द्धिक देव है; खरतर संघकों श्रीसीमंधर स्वामीसैं पूछनिश्चयकर तीर्थकरोक्त दो गाथा वडगछ नायक देवभद्रसूरिः देवता होनेके अनंतर समर्पण करी वह माथा गणधर पदवृत्तिमैं तथा गुर्व्वावली में लिखी हुई है, पुनः दादा श्रीजिन कुशल सूरिः विक्रमशताब्दी तेरे मैं सिंधुदेश देरा उरमें फाल्गुण कृष्ण अमावश्याकों देवलोक हुये फाल्गुणपूर्णमासीकों सर्व्वत्र खरतर संघको प्रत्यक्षपनें दर्शन देकर कहा वडे दादा सहाबपरमगुरुसौधम्मैदेवलोकमैं प्राप्त है मेरा आयु दीक्षा लेने के प्रथमही भुवनपतिनिकायका बंध पडगया था इसलिये असुर कुमार देवपनें उत्पन्न हुआ हूं इसलिये तुम सर्व्वे संघ धर्म ध्यान मैं तत्पर रहो ऐसा कथनकर अंतर्ध्यान भये इससमय वडे दादासहाबकी भक्ति कर्त्ता के मनोरथ श्री जिन कुशलसूरिः गुरुदेव पूर्ण करते हैं इसप्रकार चारों दादासहाब स्वर्गवासी देव है, उनोके निमित्त करी शेषसीरणी लीन है, उसमैं सैं, जो दादासाहब के सन्मुख चढाई जाती है, वह सीरणी कोई चढानेवाला नहीं खाता है, किंतु स्वस्थानमैं रही सीरणीका भाग खाने मैं दोष किंचित् भी नहीं यथा, एक श्रावक साधुगुरुकों मोदकादिनैवद्य भक्षवस्तुका पात्र भरा लेकर प्रतिलाभनैं खडा होता है, भावभी उसका ऐसा है, गुरु साधूजीकों संपूर्ण प्रतिलाभ, उसमैंमैं, साधूजी किंचितमात्र लेते हैं, अवशेष पात्रमैं रहा मोदकादि क्या संपूर्ण गुरुद्रव्य हो जायगा, कदापि नहीं, सर्व्व श्रावकजन अवशेष पात्रस्थित वस्तुकों खाते हैं, पुनः जहां गुरु महाराज उपान - यादिमैं व्याख्यान करते हैं उहां श्रावक, प्रभावना के लिये, मोदकादि गुरुके पट्टपर प्रथम आरोपणकर, अवशेषवांटते हैं, तो क्या वह प्रभावना गुरुव् हो जायगी, कदापि नहीं, इस प्रकार, दादा गुरुदेवको चढाये अनंतर, शेषसीरणी, लीन है - प्रष्ण, गौतम गणधरादिक महान्पूर्वाचार्योंका इतना क्यों नहीं बहुमान स्थापना - करके करते दादा श्री जिनदत्तसूरिः श्री जिनकुशलसूरिः का बहुमान क्यों करते हो [ उत्तर ] हे महोदय गौतमादि गणधरोंकी यत्र स्थापना है, और करी भी
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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