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________________ महाजनवंश मुक्तावली १५ मेश्वर ही जानता है, इसके दुःखसे मैं भी मर जा ऊंगा, तब आचार्य बोले, हे राजेन्द्र, जो तुम सपरिवार जैनधर्म धारण करो और मेरे शिष्य प्रशिष्योंसें, वे मुख धर्मत्यागके तुमारी सन्तान कभी नहीं होवे तब तो पुत्र सचेत हो सक्ता है राजा तथा परिवारके लोकोंने इस बातको पूर्ण ब्रम्ह परमेश्वरकी साक्षीसें प्रतिज्ञा की गुरूने दृष्टिसें पास किया तत्काल ही कुमर आलस्य मोड़ बैठा हो गया सर्व लोकोंके मनमें परम आनन्द हुआ राजाने गुरू महाराजकों महोच्छव पूर्वक नगरमैं पधराये धर्म व्याख्यान सुनकर सम्यक्त्व युक्त बारह ब्रत उच्चरे कुमर जैनधर्मका आचार विचार सीखा गुरू महाराजनें इसकों सचेत करणेसें सचेती गोत्र स्थापन करा गच्छ खरतर मानते हैं सहचिन्ती गोत्रसें सचेती गोत्र जुदा है। वरदिया [ वरढिया ] दरडा । धारा नगरीका राजा भोज परलोक हुए बाद तंबरोंने मालवदेशका राज्य ले लिया भोजराजाके पुत्र १२ थे १ निहंग पाल २ तालणपाल ३ तेजपाल ४ तिहुअणपाल ५ अनंगपाल ६ पोतपाल ७ गोपाल ८ लक्ष्मणपाल ९ मदनपाल १० कुमारपाल ११ कीर्तिपाल १२ जयतपाल इत्यादिक ये सब राजकुमार धारा नगरीकों छोड़ मथुरा मैं आ रहै तबसें माथुर कहलाये कुछ वर्षों के बीतने बाद गोपाल और लक्ष्मण पाल, के कई गांममैं जावसे, सम्बत् ९५४ मैं, श्री नेमिचन्द्रसूरिः श्रीवर्द्धमान सूरि के दादा गुरू उद्योतन सूरिःके गुर, वहां पधारे, उस वखत लक्ष्मणपालने, गुरूकी बहुत भक्ति करी, धर्मोपदेश हमेशा सुणा करे, एक दिन, एकान्तमैं, गुरूसें अरज करी, है गुरू न तो मेरे पास, ज्यादह धन है, और न मेरे, कोई शन्तान है, इन दोनों बिना जीवितव्य, संसारमैं बृथा है, आप परोपकारी हो, कोई ऐसी कृपाकरो के, मेरी आसा पूर्ण होय, तब गुरूने कहा के, १ इस गोत्रके भाग्यशाली सेठ बुद्धिचन्दजी सिंधीया सरकारके खजानची थे, इन्होंके पुत्र -गुलाबचन्दजीने फल वी पार्श्वनाथके मन्दिरके चारों और हजारों रुपे लगाकर गढ वणवाया पार्श्व प्रभूकी कृपासें इन्होंके पुत्र हीराचन्द्रजी अजमेर नगरमैं महा श्रीमन्त धर्मशाली देवगुरूके भक्त रहते हैं.
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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