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॥ श्री॥ ॥ अथ प्रस्तावना ॥
धर्म सुरतरू जैन धर्मी महाजन महाजन वंश मुक्तावली जो मैं संग्रह करी है इसमें वहत् खरतर भट्टारक गछके श्रीपूज्यजी महाराज बीकानेर विराजितके दपतरका मुख्य आश्रय तद्वत् श्रीवीकानेर वडे उपाश्रयके ज्ञान भंडारका आश्रय महोपाध्याय श्रीदेवचंद्रजी उ । श्री आसंकरणजी पं । प्र। श्रीमोतीचंद्रजी उ 1 श्रीलक्ष्मणजी तथा हमारे परमगुरु सम्यग्दर्शन ज्ञानव्रत दाता पंडितशिरोमाण साधजी महाराज इत्यादिकोकै श्रीमुखसैं श्रवण करा जो जो प्राचीन इतिहास उपलब्ध हुआ. वह मैंने लिखा है यदि मेरी अल्पज्ञताके कारण लिखनेमैं भूल रही हो तो सज्जन जन क्षमा प्रद होंगें किसी भी महाशयका चित्त दुखानेके लिये उल्लेख नहीं किंत सत्य लिखना धर्म है चंद्रमै शीतलता सूर्यमैं उष्णता समुद्र मैं क्षारता इत्यादि अनेकानेक गुणवाले पदार्थों में अंशाससैं किंचित् अपगुण भासमान है। लेकिन वह चंद्र आदि पदार्थों के अपगुणभी प्राणी जनोंके लिये हितावह ही है यदि किसीकों न हो तो क्या यथा चंद्र किरण राशि विरही जनोंको अप्रिय है तथापि सार्वजनक अप्रिय नहीं सूर्यके प्रकाशमैं उल्लूककों नहीं दीखता तो सूर्यका प्रकाश सार्वजनक अप्रिय नहीं ऐसा कोई कार्य नहीं जिसमैं दूषण खलजन नहीं देते यथा त्यागवैराज्ञ सर्वजन सम्मत है तो उसमें भी एकसमाजके त्यागी दुसरी समाजके त्यागी मैं अनेक दूषण निकालते हैं यदि एकांत ध्यान करने कोई स्थित हो तो अन्य समाजके जन उसकों खुदगरजी कहते हैं यदि ज्ञानकी , उच्चदशा प्राप्तकर अन्य जनोंकों सदुपदेश दे खुदगरजी पना त्यागता है तो अन्य समाजके मनुष्य कहते है परोपदेश देनेमैं ही तत्पर हैं आपका उद्धार क्या करा' यदि विरक्तता धारकर भिक्षावृत्ति करता है तो अन्यसमाजके जन कहते हैं पुरुषार्थहीनहोकर परायेकी आशा त्यागी नहीं यदि परासा है तो विरक्तता कहां यदि वनोवासी हो नग्नप. नदीका जलपान वृक्षोंसैं गिरे फल पुष्पसैं निर्वाह करता है तो अन्य समाजके जन कहते हैं यह जीव अदत्त सचित्तजल सचित्तफलादिखाते हैं इस लिये ये साधु नहीं, इस प्रकार जन्मसैं ब्रह्मचर्यधारी रहता है तो अन्यसमाजके जन कहते हैं यदि ऐसैं सर्व मनुष्य समाज हो जाय तो संसारका नाशही हो जाय और राज्य धर्म वर्तमान समयका गृहस्थ पन श्रेष्ठ मानते हैं