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________________ महाजनवंश मुक्तावली. नहीं कारी, ये सब उहां मालवदेशसे, उठके मारवाड डीड वाणेमें आवसे वह सब महेश्वरी डीडू वणिये कहलाये। ___ इन माहेश्वरियोंमें, जोगदेव पमारके बेटे भी, महेश्वरी डीडू होगये थे, सो कई पीढीयों तक माहेश्वर ही रहे, ये बातका पूरा संवत् तो हाथ लगा नहीं है, मगर विक्रम सम्बत् सातसैका जमाना सम्भव है, वह चार राजपूत पमार १ चौहाण २ पड़िहार ३ सोलंखी ४ इस जातके थे, अव्वल वो सुजाणके नोकर थे, कर्म वस राजाका तो जागाभाट हुआ, और नौकरसो ठाकुर हुए, अब ब्राह्मण लोक इन महेश्वरियोंसें, कहणे लगे, तुम यज्ञ कराओ, और यज्ञका भाग पुरोडासा मांस खाओ, तब ये राजपूत जैनधर्मीपणे, दयाके भांजे हुए अन्तरंग, से बोले, है ब्राह्मणों, ये अकृत्य तो, हमसे नहीं होगा, तुमको गुरू माना, महेश्वर देवभी पूजा, लेकिन ये काम तो, मरजायगे तोभी नहीं करेंगे, तब ब्राह्मण, मरणे, परणे, दान, दापा, लेणा इन्होंसे, ठहराया, क्रम २ से इन्होंकी सन्तान, ब्राह्मण मिथ्यात्वीयोंकी संगतसे, रात्रीको भोजन, बिगर छाणा हुआ पाणी, और कन्दमूलादि अमक्ष पर उतरते गये, पीछे स्वामी शंकरका मत चला, उन्होंने जगतमें दयाधर्म फैला हुआ देख, अपना सिक्का जमाणेको, जैनियोंको मारकुटके वैदपर यकीन तो करवाया, लेकिन यज्ञकी क्रिया तो जैनके हुए दयाधर्मीयोंकों, कब रुचे, तब ब्राह्मणोंसे संप करा, सल्ला विचार कर कहा, अब बेदकी क्रिया छोड दो, वेद ईश्वरोक्त है उसकी फकत श्रुतियां विना अर्थ सोलह संस्कारादिकमें, काम लाओ, लेकिन यह बात कहते रहो, वेदकृत्य सच्चा है, ईश्वरोक्त है, यज्ञ करणा, सतयुगका काम था, अब कलियुग है, इसमें घी तिल खोपरा चिरोंजी, विदामादिक सुगन्ध द्रव्यही, हवन करणा चाहिये, ऐसा कराते रहो, करते रहो, नहीं तो, ये लोक हिन्सा जीवोंकी देखकर, फिर जैन होजायगे, और ऐसे २ शास्त्र बनानेका हुक्म ब्राह्मणोंको दिया के प्रजाका, दिल ठहरावो, तब पारासर स्मृतीमें ऐसा श्लोक डाला ( यतः) अश्वालभं गवालंमं, पैत्रिकं पलमेवच । देवराच सुतोत्पत्तिः,कलौ पंच विवर्जयेत् । ( अर्थ ) अश्वहोमणा गौ होमणी, श्राद्धमें, तथा मरेके पिछाड़ी, पिंडमें,
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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