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________________ ३४ महाजनवंश मुक्तावली कैसे हो सकती है, इतना सुणतेही राजानें क्रोधातुर होकर मुझे मरवा डाला, मैं दयाके परणामसें, मरकर, व्यन्तर निकायमैं ब्रम्ह राक्षस हुआ, पूर्व भवके वैरसे मैं, इसके कुलका नास कर डालता, लेकिन आप समर्थ योगी हो, ऐसा कह कर राजा धीरकों कहणे लगा, अरे दुष्ट तूं, देवीकों, जीवोंको मारकर मदिरा मांस चढाता, और खाता हुआ नरक जायगा, अगर स्वर्गमोक्षकी चाह रखता है तो, श्री जिन दत्त सूरिःधर्मकी जहान है, इन्होंका कहा धर्म धारण कर, सो तेरे कुटुम्बका दोनों भव कल्याण होगा, ऐसा कह कर, राजाके गढका मूल दर्वाना उत्तर था, सो पूर्वमैं स्थापन कर, गुरूसे सम्यक्त ग्रहण कर, ब्रह्मराक्षस. राणीका अङ्ग छोड दिया, अपनी निकायमैं चला गया, ऐसा चमत्कार देख राजाने अपने सहकुटुम्ब जैन धर्म अङ्गीकार करा, भंडसालमैं वासक्षेप किया इस वास्ते भणसाली गोत्र, मुरूने स्थापन करा, बद्धाजी भणसालीकी शन्तान बद्धाणी कहलाये, थेरूशाह नामका भणसाली विक्रम सम्बत् सोलसयमैं हुआ, वो लोद्रवपुरमैं घीका रुजगार करता था, उसवक्त रूपसियां गांमकी स्त्रियें इसकों नित्य घी लाकर बेचा करती थी, एक दिन पिछली रातकों, बहुतसी स्त्रियां घीके घड़े ले, गांमसें निकली, इन्होंमें एक स्त्री, अराई ( इढांणी ) भूलगई, रस्तमैं उसमें एक हरीबेलकों मरोड़के, अराई वणाली, लोद्रवपुर पहुंची, इसके घड़ेका घी तोलते २ अन्त नहिं आया, तब थिरूने बिचारा, १५ सेरका घड़ा, इसमें ३० सेर घी तो निकल चुका, और फिर भी इसमें घी इतनाही भरा है, अग्रिम बुद्धि वाणियां इस न्यायसें वो अराई, उसने नीचेसे निकाल कर, दुकानके अन्दर फेंकदी सबोंका घी लेके, अराई बालीको, दूणे दाम दिये, तब वो विचारणे लगी, आज थिरू भूल गया है, तब पीछे बोली अराई तो दे घड़ा कैसे ले जाऊं, इसने कोडा ला, जो जेसलमेरमैं वणता है वो निकालके उसको दे दिया, तब वो स्त्री बहुतही खुशी होगई आजमैं तो रूपारेल लेके आइथी, वो सब चली गई अवथिरू साहनें जो अपने पास द्रव्य था, उसके नीचे, वो अराई धरी, जितना द्रव्य निकाले, उतनाही अन्दर, तब, श्री जिनसिंहसूरिः आचार्यसें ये सब बात कही गुरूनें कहा सुकृतार्थ संच, तब
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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