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जैन आगम: वनस्पति कोश
प्रवाचक
गणाधिपति तुलसी
प्रधान सम्पादक
आचार्य महाप्रज्ञ
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जैन आगम में वर्णित ४५० से अधिक वनस्पतियों की पहचान इस जैन आगम वनस्पति कोश में दी गई है। भगवती और सूर्यप्रज्ञप्ति आगम में विर्णित पशु-पक्षी और जलचर के नामों के साथ ११ मांस परक शब्दों को आयुर्वेद के निघंटुओं में खोजा गया है। संस्कृत की छाया, हिन्दी अर्थ, अनेक प्रादेशिक भाषाओं में उसका रूप, उसका उत्पत्ति स्थान और चित्र सहित विस्तृत वर्णन इस ग्रंथ में उपलब्ध है।
इस शब्द कोश के प्रकाशन से आयुर्वेद एवं यूनानी-तिब्बत आदि देशी चिकित्सा पद्धतियों के लिए अतीव महत्वपूर्ण परन्तु सर्वथा अज्ञात वनस्पति कोष का द्वार खुला है।
lain. Education International
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जैन आगम : वनस्पति कोश
वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी
प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ
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जैन आगम : वनस्पति कोश
वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी
प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ
संपादक मुनि श्रीचन्द्र 'कमल'
जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान)
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प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं
© जैन विश्व भारती
सौजन्य :
प्रथम संस्करण : 1996
मूल्य : 300/
मद्रक : शान्ति प्रिन्टर्स एण्ड सप्लायर्स, दिल्ली
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भूमिका
जैन तत्त्व विद्या के अनुसार वनस्पति का जगत सबसे विशाल है। उसके सामने जल का जगत छोटा है। पृथ्वी का जगत् उससे भी छोटा है। वनस्पति जगत् जीवों का अक्षय कोश है। जीवों के छ निकाय हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस (दसवेआलियं ४/३)। पांच निकायों में असंख्य-असंख्य जीव हैं। वनस्पति निकाय में अनन्त जीव हैं। उसकी एक राशि का नाम अव्यवहारराशि है। उसमें से जीव बाहर आते हैं और अपने विकास की यात्रा करते हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय बन जाते हैं।
प्रज्ञापना, भगवती आदि आगमों में वनस्पति का सांगोपांग वर्णन उपलब्ध है। उसके सूक्ष्म जीवों का वर्णन इंद्रियगम्य और बुद्धिगम्य नहीं है। वह सूक्ष्म सत्य की शोध से जुड़ा हुआ है। प्रस्तुत कोश में उसका संग्रहण नहीं है। इसमें इंद्रियगम्य वनस्पति जगत् के कुछ पेड़-पौधों का संकलन है। जब हम प्रज्ञापना और भगवती का पाठ संशोधन कर रहे थे तब अनुभव हुआ कि वृक्ष, लता आदि की सम्यक् पहचान किए बिना सम्यक् पाठ का निर्धारण नहीं किया जा सकता। इसकी चर्चा हमने कुछ शोध टिप्पणों में की है।
प्रज्ञापना के प्रथम पद में अनेक प्रकार के गुल्म बतलाए गए हैं। उनके नाम तीन गाथाओं में संकलित हैं। मनि श्री पण्य विजय जी आदि द्वारा संपादित प्रज्ञापना प. १- से वे गाथाएं उदधत की
१. सेरियए णोमालिय कोरंटय बंधुजीवग मणोज्जे ।
पीईय पाण कणइर कुज्जय तह सिंदुवारे य ।। २. जाई मोग्गर तह जहिया य तह मल्लिया य वासंती।
वत्थुल कत्थुल सेवाल गंठि मगदंतिया चेव ।। ३. चंपग जाती णवणीइया य कंदो तहा महाजाई।
एवमणेगगारा हवंति गुम्मा मुणेयव्वा ।। इसमें मुख्यतः आलोच्य पाठ हैं 'गंठि' जो दूसरी गाथा के चौथे चरण में है। प्रज्ञापना की वृत्ति में इसकी कोई चर्चा नहीं है। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति का पाठ संशोधन करते समय हमें यह ज्ञान हुआ कि प्रज्ञापना का यह 'गंठि' पाठ अशुद्ध है। यहां 'गत्थि' पाठ होना चाहिए। दूसरी गाथा के तीसरे चरण का अंतिम पद सेवाल है। 'सेवाल अगस्थि' यहां अकार का लोप होने पर 'सेवालगत्थि' पाठ शेष रह गया। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति पत्र ६७ में 'सेवालगुम्मा', 'अगस्थिगुम्मा'-यह पाठ है। वृत्तिकार उपाध्याय शांतिचंद्र ने इनके संस्कृत रूप 'सेवालगुल्मा' अगस्त्यगुल्मा दिए हैं (वृत्ति पत्र ६८)। जीवाजीवाभिगम का गुल्म संबंधी मूल पाठ संक्षिप्त है। वृत्तिकार आचार्य मलयगिरी ने उनके संस्कृत नाम दिए हैं। उनमें भी सेवालगुल्मा अगस्त्यगुल्मा–ये पद उपलब्ध हैं। उन्होंने तीन संग्रहणी गाथाएं भी उदधत की है। उनमें भी सेवालगस्थि पाठ मिलता है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं
१. सेरियए नोमालिय कोरंटय बन्धजीवग मणोज्जा।
बीयय बाण य कणवीर कुज्ज तह सिंदुवारे य।। २. जाई मोग्गर तह जूहिया य तह मल्लिया य वासंतीं।
वत्थुल कत्थुल सेवालगत्थि मगदंतिया चेव ।। ३. चंपक जाई नवनाइया य कुंदे तहा महाकुंदे । एव मणेगागारा हवंति गुम्मा मुणेयव्वा ।।
(वृत्ति पत्र २६४)
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(vi)
इन दोनों आगमों और उनकी व्याख्याओं के आधार पर यह स्पष्ट निर्णित होता है कि प्रज्ञापना का समालोच्य पाठ सेवालगत्थि होना चाहिए।
प्रज्ञापना की पूर्व उद्धृत प्रथम गाथा में 'पीईय पाण' पाठ है जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति (वृत्ति पत्र ६७) में 'बीयगुम्मा', 'बाणगुम्मा' पाठ मिलता है। उपाध्याय शांतिचंद्र ने 'बीजकगुल्माः', 'बाणगुल्माः'-यह संस्कृत रूप दिया है। आचार्य मलयगिरि ने भी जीवाजीवाभिगम की वृत्ति (पत्र २६४) में ये ही संस्कृत रूप दिए हैं। इन दोनों के आधार से यह ज्ञात होता है कि प्रज्ञापना की उक्त गाथा में भी 'पीईय पाण', के बदले बीअक बाण पाठ होना चाहिए।
भाव प्रकाश के अनुसार सैरेयक, कुरण्टक और बाण-ये तीनों एक ही जाति के क्षुप हैं। सैरेयक को कटसरैया कहा जाता है। पीले फूल की कटसरैया को कुरण्टक, लाल फूल की कटसरैया को कुरबक और नीले फूल की कटसरैया को बाण कहा जाता है।
भावप्रकाशनिघंटु पुष्प वर्ग, पृ. ५०२ उक्त गाथा में सैरेयक, कुरण्टक और बाण-ये तीन शब्द उपलब्ध हैं।
गंठि, पीइय, पाण-ये तीन ही नहीं और भी अनेक समालोच्य शब्द वनस्पति और प्राणि वर्ग के प्रकरणों में अनुसन्धान सापेक्ष हैं।
प्रज्ञापना के आदर्शों (१/३७) में अट्टरूसग के स्थान पर अद्दरूसग पाठ मिलता है। यहां भी संयुक्त टकार के स्थान पर संयुक्त दकार लिखा गया प्रतीत होता है। अर्थानुसन्धान से इस परिवर्तन को पकड़ा जा सकता है। प्रज्ञापन की वृत्ति में इस पद का अर्थ उपलब्ध नहीं है। टब्बा में इसका अर्थ अरडूसो किया गया है। अरडूसो का हिन्दी रूप अडूसा है। शालिग्राम निघंटु में अडूसा के अर्थ में आटरूषक तथा वनस्पति कोश में अटरूषक शब्द मिलता है। इस आधार पर 'अट्टरूसग' पाठ ही मूल पाठ प्रतीत होता है।
यदि वर्तमान में उपलब्ध वनस्पति कोशों, विहार प्रान्तीय शब्द कोशों का प्रयोग किया जाए तो अनेक पाठ शुद्ध हो सकते हैं और उनके अर्थ का भी सम्यक् बोध हो सकता है।
आगम साहित्य में प्रयुक्त अधिकांश वनस्पतिवाचक शब्दों को खोज लिया गया है। कुछेक शब्द अब भी अज्ञात हैं। देश और काल के व्यवधान के कारण परिचय की कठिनाई असंभव नहीं है। फिर भी इस वनस्पति कोश से पाठ संशोधन और पाठ के अर्थ बोध की समस्या काफी हद तक सुलझ जाएगी। इस कार्य में मुनि श्रीचंद जी ने अत्यधिक श्रम किया है। झूमरमल बेंगानी जो आयुर्वेद और वनस्पति का विशेषज्ञ है, का विशेष योग रहा है। इन दोनों के श्रम-साधना से यह कार्य निष्पन्न हुआ है।
आगम संपादन की श्रृंखला में आगम शब्द कोश, देशी शब्द कोश, एकार्थक कोश और निरुक्त कोश-ये चार कोश पहले प्रकाश में आ चुके हैं। उनकी उपयोगिता प्रमाणित हुई है। यह पांचवा वनस्पति कोश भी आगम-अध्येता के लिए बहुत उपयोगी बनेगा।
हमने आगम संपादन के जिस कार्य का शुभारंभ किया था, वह कार्य उत्तरोत्तर विकासशील है, यह सबके लिए प्रसन्नता का विषय है।
१ दिसम्बर, १६६५ जैन विश्व भारती, लाडनूं
गणाधिपति तुलसी
आचार्य महाप्रज्ञ
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संपादकीय
प्रज्ञापना सूत्र का शब्दानुक्रम और छाया बनाते समय वनस्पतिपरक शब्दों की छाया व अर्थ की समस्या उपस्थित
हुई।
* उसकी टीका को देखा तो कुछेक शब्दों की छाया प्राकृतशब्दसम रूप में मिली। उसका अर्थ स्पष्ट न होने से
प्रश्न ज्यों का त्यों खड़ा रहा। * मन में भावना जागी। इन वनस्पतिवाचक शब्दों की छाया व अर्थ का अन्वेषण करना चाहिए। * मैंने अपनी भावना आत्मीय सहयोगी मुनि श्री दुलहराज जी के सामने रखी। * उन्होंने प्रोत्साहन की भाषा में कहा-“यदि यह काम आप करते हैं तो अमर हो जायेंगे।" * उनके उत्तर में प्रेरणा सहित समर्थन था। भावना को बल मिला।
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ (आचार्य श्री महाप्रज्ञ) के सामने अपनी भावना रखी तो उत्तर मिला “काम हो जाए तो अच्छा
* मन में निश्चय किया यह काम अब करना ही है।
भावना प्रबल थी पर मार्ग स्पष्ट नहीं था। आर्युवेदीय शब्दों का ज्ञान नहीं के समान था। * टीकाओं को देखा तो मार्ग स्पष्ट नहीं हुआ। * बृहतहिन्दीकोश को देखा। उसमें कुछ शब्दों की पहचान मिली। * हिन्दी भाषा के कोश में उन शब्दों का अर्थ भी मिला, जो संस्कृत कोश में नहीं मिला। मन में संतोष की रेखा
उभरी। * किसी का सुझाव आया श्रीचंद्रराज भंडारी का वनौषधिचंद्रोदय जो दस भागों में है, उनका निरीक्षण करना चाहिए। ★ उनको देखा। उनमें वनस्पतियों के शब्दों का अनक्रम है पर पयार्यवाची नामों की अल्पता है। जो शब्द मैं खोजना
चाहता था वह उनमें नहीं के समान है। * उत्साह आगे नहीं बढ़ा पर निराशा को भी स्थान नहीं दिया। * खोज की भावना प्रबल थी. चाह को राह मिली। * युवाचार्य भी महाप्रज्ञ की सेवा में श्री झूमरमल जी बेंगाणी (बिदासर) बैठे थे। संयोग से मैं भी सेवा में पहुँचा।
आपने फरमाया झूमर का सहयोग लिया या नहीं? * मेरा उत्तर था अभी तक तो नहीं। * वे आयुर्वेदीय डिग्री प्राप्त वैद्य नहीं हैं, किन्तु हमारा अनुभव है कि वे बड़े से बड़े परिपक्व वैद्य से कम नहीं हैं। __ उन्होंने आचार्य श्री तथा अन्य साधु-साध्वियों की चिकित्साएं की हैं, करते हैं। * निघंट और शब्द कोशों तथा अन्यान्य आयुर्वेदीय साहित्य का उनके पास विपुल भंडार है। भावप्रकाशनिघंटु
शालिग्रामनिघंटु, शालिग्रामौषधशब्दसागर आदि कई ग्रंथ उन्होंने मुझे उपलब्ध कराए। * ग्रंथों की उपलब्धि होने पर मेरे गति को बल मिला। मैं उत्साह के साथ चल पड़ा। * कुछ चला फिर अवरोध आया। निघंटुओं में शब्दों की अनुक्रमणिका भिन्न-भिन्न पर्यायवाची नामों से है। करेली
शब्द के लिए धन्वन्तरि निघंटु में काण्डीर शब्द है, सोढलनिघंटु में गंडीर शब्द है, अन्य निघंटुओं में दूसरा शब्द
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* आयुर्वेद के शब्दों का मुझे क, ख भी नहीं आता था। मेरे सामने समस्या थी कहां खोजूं। * मैं जो शब्द खोजना चाहता था वह अनुक्रमणिका में न मिलने से मेरे सामने वही समस्या पुनः आ गई। * शब्दों को खोजने में बहुत समय लगा। करीबन ५ वर्ष लगे। एक-एक शब्द के लिए उपलब्ध सारे निघंटु और
कोश देखने पड़ते थे। * मैं शब्दों को खोजता गया। एक शब्द के अनेक अर्थ मिलने पर समस्या सामने आई, कौन-सा अर्थ दिया जाये। * चित्र के अभाव में निर्णय करना कठिन हो रहा था। * प्रारंभ में श्री झूमरमलजी बैंगाणी से विमर्श करता गया। * धीरे-धीरे अनुभव बढ़ने लगा, समस्या हल होती गई। * श्री नोरतनमलजी सुराणा (तारानगर) गुरूदेव की सेवा में आए हुए थे। एक दिन मेरे पास आए और पूछा-आप
क्या कर रहे हैं? मैंने उत्तर दिया-जैनागमों में वनस्पतियों के नामों की विशाल संख्या है। उनकी पहचान का
प्रयत्न कर रहा हूं। * उन्होंने कहा-“मैंने २० वर्ष तक औषधियों का कार्य किया है, मेरा भी अनुभव है। मेरे पास कुछ पुस्तकें हैं।
वे भी आपके उपयोगी हो सकती हैं।" * उनके पास धन्वन्तरि पत्र के वनौषधि विशेषांक के ६ भाग मिले। * चित्र सहित विस्तार से वर्णन इन विशेषांकों में मिल गया। * ये विशेषांक मेरे लिए निधि बन गए। मैं वनस्पतियों के शब्दों के पहचान में स्वावलंबी बन गया। ४० प्रतिशत
समस्या समाहित हो गई। * आगामों में भगवती सूत्र और सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र के मांस परक ११ शब्दों की पहचान वनस्पति के अर्थ में कर ली
गई है। आगमों में वनस्पतिवाचक शब्द* स्थानांग, भगवती, उपासकदशा, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति,
सूर्यप्रज्ञप्ति आवश्यक, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन-इन सूत्रों में वनस्पतियों के नाम यत्र-तत्र आए हैं। प्रज्ञापना सूत्र में वनस्पतियों के लगभग ४२१ नाम हैं। इनको १५ वर्गों में विभक्त किया गया है। (१) एकास्थिक वर्ग में ३२ शब्द । (२) बहुबीजक वर्ग में ३३ शब्द । (३) गुच्छ वर्ग में ५३ शब्द । (४) गुल्म वर्ग में २५ शब्द । (५) लता वर्ग में १० शब्द । (६) वल्ली वर्ग में ४८ शब्द। (७) पर्वक वर्ग में २१ शब्द । (E) तृण वर्ग में २३ शब्द । (६) वलयवर्ग में १७ शब्द। (१०) हरित वर्ग में ३० शब्द । (११) औषधि (धान्य) वर्ग में २६ शब्द । (१२) जलरुह वर्ग में २७ शब्द । (१३) कुहण (भूस्फोट) वर्ग में ११ शब्द ।
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(१४) साधारणशरीर वर्ग में ६० शब्द ।
(१५) प्रकीर्णक वर्ग में ५ शब्द हैं।
* भगवती सूत्र में प्रज्ञापना के ही नाम हैं पर ६ नाम अधिक हैं।
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* भगवती सूत्र में कवोयमंस ( कपोतमांस), कुक्कुडमंस (कुक्कुटमांस) मज्जार ( मार्जार) ये ३ शब्द मांसपरक हैं * रायप्रश्नीय सूत्र और जीवाजीवाभिगम सूत्र में भी प्रज्ञापना सूत्र के ही नाम हैं, पर जीवाजीवाभिगम सूत्र में २८ नाम नए हैं ।
* जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में १२ नाम ऐसे हैं, जो जीवाजीवाभिगम सूत्र के सिवाय अन्यत्र नहीं हैं ।
★ आवश्यक और दशवैकालिक सूत्रों में एक-एक नाम है ।
* उत्तराध्ययन, उपासक दशा और स्थानांग में कुछेक नाम हैं।
* सूर्य प्रज्ञप्ति में २८ नक्षत्रों के भोजन दिए गए हैं उनमें ११ शब्द मांसपरक हैं।
*
कुल मिलाकर लगभग ४६६ शब्द हैं।
* प्रज्ञापना सूत्र में ये शब्द जितने व्यवस्थित रूप में उल्लिखित हैं उतने अन्य सूत्रों में नहीं हैं।
आगमों की टीकाओं में परिभाषा
गुल्मा
लता
पर्वक
वलय
हरित
:
औषधि (धान्य) औषध्य :
जलरुह
कुहण (भूमिस्फोट)
साधारण शरीर
(ix)
एकास्थिक बहुबीजक
: हस्वस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफलापेताः । जिसका स्कंध छोटा और कांड पत्र पुष्प तथा फल अधिक हो वह गुल्म होता है ।
: येषां स्कन्धप्रदेशे विवक्षितोर्ध्वशाखा व्यतिरेकेणान्यत् शाखान्तरं तथाविध परिस्थूरं न निर्गच्छति ते लता : व्यवह्रियन्ते । (प्रज्ञापना मलयवृत्ति पत्र ३० )
जिसके स्कंध प्रदेश से ऊपर एक शाखा के अतिरिक्त दूसरी शाखा न निकले वह लता होती है।
: पर्वगानि पर्वोपेतानि एतेषां यदक्षि यच्च पर्व यच्च बलिमोडउ त्ति पर्व परिवेष्टनं चक्राकारम् । गांठ वाली वनस्पति
: त्वग् वलयाकारेण व्यवस्थितेति । (प्रज्ञापना मलय वृत्ति) जिसकी छाल वलय के आकार की हो ।
:
:
हरे पत्तों का शाक या जो प्रायः हरे ही प्रयोग में आते हों ।
फलपाकान्ता ते च शाल्यादयः (प्रज्ञापनामलय वृत्ति पत्र ३६) । फल पकने से जिसका नाश होता हो ।
जले रुहन्तीति जलरुहाः । (प्रज्ञापनामलय वृत्ति पत्र ३१) जल स्थान में पैदा होने वाली । भूमि स्फोटाभिधानास्ते चायकायप्रभृतयः । (प्रज्ञापनमलय वृत्ति पत्र ३०२ ) जो भूमि को फोड़कर निकलते हों, वे आय, काय आदि ।
: समानं तुल्यं प्राणापानाद्युपभोगं यथा भवति एवमासमन्तादेकीभावेनानन्तानां जन्तूनां धारणं संग्रहणं येन तत् साधारणं, साधारणं शरीर येषां ते साधारणशरीराः ।
अनन्त जीव समान रूप में एक साथ जिस शरीर में प्राण अपान आदि का उपभोग करते
हैं ।
वह साधारण शरीर होता है। प्रज्ञापनामलय वृत्ति
: गुठली वाली वनस्पति ।
: जिसमें बीज अनेक हों वैसी वनस्पति ।
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निघंटुओं में परिभाषा -
★ गुल्मस्तम्बौ प्रकाण्डरहितो महीजः । (राजनिघंटु श्लोक ३६ पृ. २३)
शाखाओं से रहित महीज (वृक्ष) को गुल्म कहते हैं।
* तालाद्याः जातयः सर्वाः, क्रमुककेतकी तथा ।
खर्जूरी नारिकेलाद्या स्तृणवृक्षाः प्रकीर्त्तिताः । । (राजानिघंटु श्लोक ४७ पृ. २४)
ताड, खर्जूर आदि जाति के सभी वृक्ष तथा क्रमुक (सुपारी), केतकी, खजूर, नारियल आदि तृणवृक्ष कहे गए
हैं ।
* निघंटुओं में लता और बेल में कोई भेद रेखा नहीं है।
* शालिग्राम निघंटु पृ. १४५ में कंगुनी को बेल कहा गया है वहां भावप्रकाश निघंटु ने पृ. ६० में कंगुनी को लता माना है।
* वनौषधि चन्द्रोदय भाग १ पृ. ६१ में संस्कृत नाम आकाशवल्ली, हिन्दी नाम अमरबेल और बंगाली नाम आलोक लता है।
★ चमेली को भावप्रकाशकार गुल्म मानते हैं। वहां धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ. ४४ में उसको लता कहा है ।
★ निघंटुआदर्श उत्तरार्द्ध में यव, कंगू, गेहूं, चावल, कोद्रव, गवेधुक, नीवार, यावानल, चीनाक, मकई, ओट, नागली को तृणादि वर्ग में लिया है।
★ निघंटुओं के अपने-अपने मापदंड हैं। सूत्र की टीकाओं के अपने मापदंड हैं ।
* प्रज्ञापना सूत्र में वल्लीवर्ग के अन्तर्गत जो शब्द हैं, वे कुछ शब्द अन्य निघंटुओं में लता और गुल्म नाम से पहचाने गए हैं।
* वनस्पतियों का वर्णन भिन्न-भिन्न ग्रंथों से दिया गया है, इसलिए नाम की एकरूपता होने पर भी विवरण की भिन्नता है ।
निघंटुओं का संक्षिप्त परिचय
* शालिग्रामनिघंटुभूषण में पर्यायवाची नामों की विशेषता है। शब्द के पर्यायवाची नाम एक श्लोक में हैं। वे बहु कम हैं। पर, श्लोक के अर्थ में श्लोकगृहीत शब्दों के साथ कोष्ठक में अन्य निघंटुओं के शब्दों का संग्रह है। कहीं-कहीं पर एक शब्द के चालीस पर्यायवाची नाम भी मिलते हैं। वनस्पतियों के चित्र भी हैं। हिन्दी, बंगला, मराठी और गुजराती भाषाओं के शब्दों की अलग-अलग अनुक्रमणिका भी है।
★ कैयदेव निघंटु में पर्यायवाची शब्द अधिक हैं। संस्कृतेतर भाषाओं के शब्दों का उल्लेख नहीं है। संस्कृत शब्दों की अनुक्रमणिका भी है।
* राज निघंटु में वनस्पति के भेद-उपभेदों का उल्लेख है और उनके अलग-अलग पर्यायवाची शब्दों का भी वर्णन है । शब्दों की अकारादि अनुक्रमणिका नहीं है। पर्यायवाची शब्द खोजने में कठिनाई होती है। वर्ग के अन्तर्गत शब्दों की सूची है। कहीं-कहीं संक्षेप में संस्कृतेतर भाषाओं में भी पहचान मिलती है। शोधकर्त्ताओं को शब्द खोजने में कठिनाई का अनुभव होता है।
★ सोढलनिघंटु में केवल संस्कृत भाषा के पर्यायवाची शब्द है । पर्यायवाची शब्दों के लिए श्लोक का विभाजन भी किया गया है। उनका हिंदी अनुवाद नहीं है। दूसरे विभाग में वनस्पतियों के गुण धर्म हैं। शब्दों की अनुक्रमणिका शुद्ध है ।
★ भावप्रकाशनिघंटु आधुनिक संपादित है। इसमें पर्यायवाची शब्द कम हैं पर यथार्थ है। संस्कृतेतर भाषाओं के शब्दों
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की भी अनुक्रमणिका है। किसी-किसी शब्द की बीस भाषाओं (बोलियों) में पहचान दी हुई है। वनस्पति के प्रकारों का वर्णन है। वनस्पति के शब्दों की समीक्षा पूर्ण रूप से की गई है। वर्णन संक्षेप में है पर सारभूत है। हिन्दी भाषा का वर्णन संस्कृत भाषा से प्रभावित है। * निघंटुआदर्श दो भागों में विभक्त है, पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । संस्कृत भाषा के पर्यायवाची शब्द कम हैं। संस्कृतेतर
भाषाओं में वनस्पति के शब्दों की पहचान भी है। वनस्पति के शब्दों का वर्णन संक्षेप में है। पुराणमत और नव्यमत
भी दिए गए हैं। शब्दों की निरुक्ति भी है। अन्य ग्रन्थों की मान्यता की समीक्षा भी की गई है। * निघंटुशेष आचार्य हेमचन्द्र की कृति है। इसमें वृक्ष, लता आदि वर्गों का विभाजन आगम के शब्दों के निकट
है। इसमें पर्यायवाची नामों को अलग-अलग दिखाया गया है। इसके लिए एक श्लोक को भी तीन-चार भागों में विभक्त किया है। पर्यायवाची नामों के लिए कोष्ठक में धन्वन्तरि आदि निघंटु को भी उद्धृत किया गया है। * धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक इसके छ: भागों में अकार से लेकर हकार तक के शब्दों का वर्णन है। प्रत्येक भाग
में हिन्दी शब्दों की अनुक्रमणिका है और चित्र सूची भी है। प्रायः शब्दों के चित्र हैं। वनस्पति की पहचान के लिए चित्र उपयोगी हैं। यह एक प्रकार से वनस्पति कोश है। छ: भागों में हजार से अधिक वनस्पतियों की पहचान मिल जाती है। अनेक भाषाओं में शब्द की पहचान, वनस्पति का उत्पत्ति स्थान, वर्णन, गुणधर्म और प्रयोगों
का विस्तार से विश्लेषण है। शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी संग्रह है। * वनौषधि निदर्शिका में वर्णन संक्षेप है। प्रकाशन आधुनिक है। अन्य भाषाओं में नाम नहीं है। * वनौषधि चंद्रोदय दस भागों में है। शब्दों की अनक्रमणिका भी है। शब्दों में हिन्दी भाषा उर्दू भाषा और अन्य
भाषाओं का मिश्रण है। पर्यायवाची नाम कम है और वर्णन भी अधिक नहीं है। * मदनपालनिघंटु में पर्यायवाची नामों में कई नए नाम मिलते हैं। दूसरे निघंटु की अपेक्षा इसमें कई एक वनस्पतियों
के पर्यायवाची नाम भी मिलते हैं।
कालमान* प्रज्ञापना का कालमान ई.पू. दूसरी शताब्दि है। यह श्यामाचार्य की कृति है। इसमें वनस्पतिवाचक ४२१ शब्द
संगृहीत हैं। * सुश्रुत और चरक में जितने शब्द हैं उनसे अधिक शब्द आगम में है। * निघंटुओं में हजार से भी अधिक शब्द मिलते हैं। * निघंटुओं में सबसे पुराना धन्वन्तरि निघंटु है। * कुछ लोगों (आचार्य प्रिय व्रत शर्मा) की मान्यता है कि धन्वन्तरि निघंटु का कालमान विक्रम की १०वीं से १३व
सदी है। * इन्द्रदेव त्रिपाठी के अनुसार धन्वन्तरि निघंटु का कालमान विक्रम की पांचवीं या छठी सदी या इससे भी पूर्व
हो सकता है।
अशुद्ध अर्थ* आगमों की टीकाओं में वनस्पतिवाचक कुछेक शब्दों की संस्कृत छाया मिलती है। * हिंदी पाठकों के लिए सबसे पहले श्री अमोलक ऋषि संपादित आगम बतीसी उपलब्ध हुई। प्रयास स्तुत्य है। * उनके द्वारा संपादित प्रज्ञापना सूत्र में वनस्पतिवाचक शब्दों का अर्थ देखा । ऐसी अनुभूति हुई हिन्दी अर्थ यथार्थ
से बहुत दूर चला गया है।
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(xii)
प्राकृत शब्द
किया गया अर्थ
यथार्थ हिन्दी अर्थ
पत्र ३६
काइयामाइया कासमुद्रक करेडा रायण कुबुका संगत अंकबेदि आकडा
काकमाची कसौंदी भूखर्जूरी कूर्च, कारिका संघट्टा, कैवर्तिका अर्कमुखी, सूरजमुखी
पत्र ३६
इकडी
कायमाइया कासमदग करीर एरावण कुव्वकारिया संघट्ट अक्कबोंदि इक्कडे मासे य तउसिय एलवालुंकी सयपुप्पिंदरे बिल्ले य आमलग सयरी अक्कतुवरी
मांस
धमासा खीरा एलवालुका साग शतपुष्पी, कमल बिल्व, बेल आमला शतावरी आक, तुवरी
तंतुसिक एलची चीमडी शतपुष्पिं, दीवर बिल्ला इमली सश्री अक्टुम्बरी
पत्र ३५ पत्र ३६
पत्र ३७
* अनेक शब्द ऐसे हैं जिनके अर्थ का अनर्थ हो गया है। इक्कड का आकडा, मास का मांस, इंदीवर का दीवर,
सयरि का सश्री इसके उदाहरण हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में* प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारंभ में आगम का वनस्पति वाचक शब्द है। जो प्राकृत भाषा का है। जिस रूप में आगम में
उल्लिखित है उसे यथावत् दिया गया है। * उसके आगे कोष्ठक में तत्सम संस्कत रूप (छाया) दिया गया है * यदि प्राकृत शब्द संस्कृतेतर भाषा का है तो उसके लिए कोष्ठक खाली रखा गया है। * कोष्ठक के आगे हिन्दी भाषा का अर्थ दिया गया है। * निघंटुओं से प्राकृत का तत्सम संस्कृतरूप ही खोजा गया है। * जिस निघंटु में उसका रूप मिला उसे उद्धत किया गया है। * प्राकृत सम संस्कृत रूप निघंटुओं में न मिलने पर आयुर्वेद के कोशों में खोजा गया है। उसको कोश से उद्धत
किया गया है। * संस्कृत रूप के पर्यायवाची नाम दिए गए हैं। जिस निघंटु से श्लोक उद्धृत किया गया है उनका हिन्दी अर्थ
भी उसी निघंटु की भाषा में दिया गया है। * यदि संस्कृत रूप वनस्पति का गुणवाचक है और वह निघंटुओं में नहीं मिलता है तो उसके अर्थवाचक संस्कृत __ शब्द के पर्यायवाची नाम दिए गए हैं। जैसे महुसिंगी, महित्थ आदि। * जो शब्द संस्कतेतर भाषा का है उसके अर्थवाचक जो संस्कृत शब्द है उसके पर्यायवाची नाम दिए गए हैं। * संस्कृत के पर्यायवाची नाम यदि कोश से उद्धत किए गए हैं तो उनके केवल पयार्यवाची नाम ही दिए गए हैं, हिन्दी अर्थ नहीं।
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(xiii)
अन्य भाषाओं में नाम शीर्षक के अन्तर्गत संस्कृत के अतिरिक्त उपलब्ध भाषाओं में शब्द की पहचान दी गई है। * उत्पत्ति स्थान शीर्षक के अन्तर्गत वनस्पति का उत्पत्ति स्थान बतलाया गया है। * विवरण शीर्षक में उस वनस्पति का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी वर्णन के आधार पर प्रस्तुत शब्दों
की पहचान का प्रयास किया गया है। * चित्र भी वनस्पति के पहचान में सहयोगी बने हैं। * जहां आगम के मूल शब्द की अपेक्षा पाठान्तर शब्द को ग्रहण किया गया है वहां उसके लिए स्पष्टीकरण दिया
गया है। * स्थान-स्थान पर विमर्श शीर्षक के अन्तर्गत शब्द की समीक्षा की गई है। जहां जैसी अपेक्षा हुई उस दृष्टि से
उसकी समीक्षा की गई है। किसी शब्द में एक से भी अधिक विमर्श दिए गए हैं। * विवरण अनेक ग्रन्थों से उद्धृत होने के कारण भाषा की एकरूपता नहीं है। यथासंभव उद्धरण की भाषा को
सुरक्षित रखा गया है। ★ अंग्रेजी और लेटिन भाषा के शब्दों के उच्चारण भी ग्रंथ की भिन्नता के कारण समान शब्द होने पर भिन्न-भिन्न
* ५ वर्षों के श्रम से ४६६ शब्दों में लगभग ४५० शब्दों की पहचान हो पाई है। * पाणि (बेल), दहिवण्ण, महुसिंगी आदि शब्दों की पहचान दो वर्षों के बाद हुई है। सुंब शब्द तो प्रुफ देखते समय
ध्यान में आया। * (१) काय (२) छत्तोव, छत्तोवग (३) दंतमाला (४) परिली (५) पोक्खलत्थिभय (६) भेरुताल (७) मेरुताल (८) वंसाणिय
(६) वट्टमाल (१०) विभंगु, विहंगु (११) वोडाण, वोयाण (१२) सिंगमाल (१३) सिस्सिरिली (१४) सुभग (१५) हिरिली।
ये शब्द अभी भी अन्वेषण मांगते हैं। आभार* गणाधिपति गुरूदेव श्री तुलसी ने संयमरत्न दिया है। समय-समय पर उसकी सार संभाल की है। जीवन निर्माण का मार्गदर्शन दिया है। साहित्य विकास के लिए क्षेत्र दिया है और गति भी दी है।
नस से वंदन करता हूं। * दीक्षा के प्रथम वर्ष से लेकर आज तक आचार्य श्री महाप्रज्ञ की सेवा का मुझे सौभाग्य मिला है। सदा मेरे पर
छत्रछाया रही है। समय-समय पर मार्गदर्शन देकर गति की प्रेरणा दी है। उनका उपकार अनिर्वचनीय है, अनुभव गम्य है। श्रद्धाभरे मानस से नमन कर यही कामना करता हूं कि भविष्य में जीवन के पवित्र ध्येय की पूर्ति के लिए उनका मार्गदर्शन उपलब्ध होता रहे। इस ग्रंथ के लिए भूमिका लिखकर आपने मेरे उत्साह को अतिरिक्त बल दिया है। इस असीम कृपा को शब्दों में अभिव्यक्त देना संभव नहीं है। मुनि श्री दुलहराज जी के साथ ४७ वर्ष तक सह जीवन जीया है। जीवन में सदा सहयोगी रहे हैं। समय-समय पर सुझाव देकर मार्ग को प्रशस्त किया है। विकास में उनकी प्रेरणा सदा मूल्यवती रही है। इस ग्रंथ में भी उनकी प्रेरणा रही है। उनके प्रति आभार प्रदर्शन औपचारिक ही होगा, पूर्ण नहीं। मुनि श्री धनंजयकुमार जी साहित्य संपादन में कुशल हैं। उनका अनुभव परिपक्व है। इस ग्रंथ में मैंने उनके
अनुभवों का लाभ उठाया है। उनके प्रति भी हृदय से कृतज्ञ हूँ| * मुनि सन्मतिकमार जी और मनि जयकुमार जी का श्रम भी मेरे लिए मल्यवान रहा है। इन दोनों ने मेरे काम __ में हाथ बंटा कर मुझे समय उपलब्ध कराया है। इनके श्रम को भुलाया नहीं जा सकता। * जैन विश्व भारती मान्य विश्वविद्यालय के कुलाधिपति जैन विद्यामनीषी श्रीचंदजी रामपुरिया का चिंतन और अनुभव
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गहरा है। उनका सुझाव और प्रोत्साहन मेरे लिए मूल्यवान रहा T
★ जैन विश्व भारती के पूर्व महामंत्री श्री झूमरमलजी बैंगाणी (बिदासर) की सेवा को भी मैं नहीं भुला सकता, जिन्होंने
आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ उपलब्ध कराए। अपने आयुर्वेदीय ज्ञान से शब्द निर्णय में सहयोगी बने हैं।
* श्री नोरतनमलजी सुराणा (तारानगर) को औषधियों और वनस्पति नामों का अनुभव है। धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक के ६ भाग उपलब्ध कराए। ये ग्रंथ मेरे शोधकार्य में बहुत उपयोगी रहे। श्री सुराणा जी के सहयोग को मैं विस्मृत नहीं कर सकता ।
★ श्री राजकुमार बैद (राजलदेसर) ने बंगला भाषा में प्रकाशित भारतीय वनौषधि के ६ भागों के ६८६ शब्दों का हिन्दी रूपान्तर कर मुझे दिया, जिससे चित्रों को पहचानने में सहयोग मिला।
* इस आभार प्रदर्शन की परंपरा में मैं उन सब का आभारी हूं जिन्होंने मुझे वाचिक सहयोग भी दिया है। ★ शोध की दिशा में यह पहला प्रस्थान है। विकास के लिए अनंत आकाश सामने है। पाठक और समीक्षक असीम आकाश के अवगाहन की ओर गतिशील बन पाए तो प्रस्तुत प्रयास की सफलता असंदिग्ध है।
मुनि श्रीचंद 'कमल'
२८ अक्टूबर, १९६५ स्वास्थ्य निकेतन, लाडनूं
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प्रकाशकीय
जैन विश्व भारती द्वारा आगम प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य हो रहा है, वह न केवल मूर्धन्य विद्वानों, साहित्यकारों एवं धर्माचार्यों के लिये उपयोगी है वरन् उससे ही मानवता का कल्याण होना है। आगम-साहित्य जो स्वयं प्राणवान है एवं उसी में वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान निहित है। उस आगम की ज्ञान सम्पदा को ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रंथों को आधुनिक युग के सन्दर्भ में प्रस्तुत करना - निश्चित ही स्तुत्य एवं बहुमूल्य कार्य है। यह जितना जनोपयोगी है उतना ही दुरूह भी है। लेकिन पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के सान्निध्य, मार्गदर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का सम्बल पाकर यह दुरूह कार्य संभव हुआ है। अनेक साधु-साध्वियां पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी एवं पूज्य आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सान्निध्य में अनेक दुस्तर धाराओं को पार पाने में समर्थ हुए हैं।
"जैन आगम : वनस्पति कोश" आगम-प्रकाशन श्रृंखला का नवीन ग्रंथ है। आगमों में वनस्पति के अनेक शब्द एवं उनसे जुड़ा सम्पूर्ण दर्शन है। मुनि श्री श्रीचन्द "कमल" ने अथक परिश्रम करके उन वनस्पति शब्दों का संग्रह किया, उन शब्दों की छाया एवं अर्थ का अन्वेषण किया एवं प्रस्तुत ग्रंथ के रूप में उनका श्रम सामने है।
इस कार्य में श्री झूमरमल बैंगानी का विशेष योगदान रहा। सेवाभावी कल्याण केन्द्र के विभागाध्यक्ष हैं, उन्होंने इस ग्रंथ के तैयार होने में उल्लेखनीय सहयोग किया।
प्रस्तुत ग्रंथ से वनस्पति जगत को समझने में जहां सुविधा मिलेगी, वहीं चिकित्सा के क्षेत्र में भी इसका योगदान रहेगा ।
प्रस्तुत ग्रंथ में अनेक साधुओं की पवित्र अंगुलियों का योगदान रहा है, मुनि श्री दुलहराजजी मुनि श्री धनंजय कुमारजी ने भी अपना योगदान प्रदान किया। मैं इन सभी के प्रति आभार व्यक्त करता हूं।
आशा है, पूर्व प्रकाशनों की भांति यह प्रकाशन भी विद्वानों एवं शोधकर्त्ताओं के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध
होगा ।
जैन विश्व भारती, लाडनूं दिनांक 25 फरवरी, 1996
ताराचन्द रामपुरिया मंत्री
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संकेत
दस. द्रा. ध.नि.
धन्व, वनौ. विशे.
अफ. अवध. आ. आसा.
दसवेआलियं सूत्र द्राविडी भाषा धन्वन्तरि निघंटु धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक नेपाली पण्णवणा पंजाबी भाषा
इरा.
उडि. उत्. उत्त.
पहा.
फा.
उरि.
बंब.
उ.प्र. ओ.
ब्राह्म
क.
भ.
कच्छ. कच्छार
भा.नि. भोटिया मं.
कन्न.
मद्रा.
कर्णा. काठी. काश्मी.
अरबी अंग्रेजी अफगानी अवध क्षेत्रीय भाषा आसामी भाषा आसामी भाषा इरानी भाषा उड़िया भाषा उत्कल भाषा उत्तरज्झयणाणि उरि (डि) या भाषा उत्तर प्रदेश भाषा ओवाइयं सूत्र कर्णाटक भाषा कच्छ भाषा कच्छ प्रदेश की भाषा कन्नड़ भाषा कर्णाटक प्रदेश की भाषा काठियावाड की भाषा काश्मीर की भाषा कुमाऊं प्रदेश की भाषा कैयदेव निघंटु कोंकण प्रदेश की भाषा खासिया भाषा गढ़वाल भाषा आसम के गारो पहाडी प्रदेश की भाषा गुजराती भाषा गोवा की भाषा गोमती नदी के प्रदेश की भाषा गौरखी भाषा चरक सूत्रस्थान अध्याय जौनसर प्रदेश की भाषा जीवाजीवाभिगमे सूत्र ठाण (स्थानांग सूत्र) तामिल भाषा तेलगु भाषा दशवकालिक अगस्त्य चूर्णि
मल.
मां.
कुमा.
मि.मि.
म
कैय. नि.
कों.
पहाड़ी भाषा फारसी भाषा बंगाली भाषा बंबई क्षेत्र की भाषा ब्रह्म प्रदेश की भाषा भगवई सूत्र भाव प्रकाश निघंटु भूटान की भाषा मराठी भाषा मद्रासी भाषा मलयालम भाषा मारवाड़ी भाषा मिली मीटर मुंगेर क्षेत्र की भाषा यूनानी भाषा रायपसेणीय राजस्थानी भाषा राजनिघंटु राजपूताना (राजस्थानी) लेटिन भाषा शालिग्राम निघंटु संस्कृत भाषा संथाली भाषा सिंधी भाषा सिकम प्रांत की भाषा सिलोनी भाषा सेंटी मीटर स्त्रीलिंग हेमचंद्राचार्य
खासि.
गढ.
गारो.
रा. राज. राज.नि. राजपू. ले. शा.नि.
गोम.
गौ.
च.सू.अ.
संथाल
जौन.
सिं.
जीवा.
ठा.
सिकम सिलो. सें.मी.
ता.
स्त्री.
दशवै. अग. चू.
हेम.
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(जैन आगम : वनस्पति कोश)
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आगम : वनस्पति कोश
अइमुत्तकलया
मुत्तकलया (अतिमुक्तकलता ) माधवीलता, सन्ती । जीवा० ३/५८४ जं० २/११ प्रतिमुक्तः (क) माधवी लतायाम् । तिन्दुकवृक्षे । प्रतिमुक्तका हरिमन्थे (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २४) विमर्श - अतिमुक्त, अतिमुक्तक और अतिमुक्तका ये शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। प्रस्तुत प्रकरण में पवीलता अर्थ ही ग्रहण किया जा रहा है। राजनिघंटुकार प्रतिमुक्तक से नवमल्लिका अर्थ ग्रहण करता है, वहां सम्बन्तरिनिघंटुकार तथा भावप्रकाश निघंटुकार माधवी लता ग्रहण करते हैं। प्रतिमुक्त के पर्यायवाची नाम -
अतिमुक्त: कार्मुकरच, मण्डनो भ्रमरोत्सवः।
अविमुक्तो माधवी च, सुवसन्तः पराश्रयः ॥ १४१ ॥ कार्मुक, मण्डन, भ्रमरोत्सव, अविमुक्त, माधवी, सुवसन्त और पराश्रय ये अतिमुक्त के पर्याय हैं।
( धन्व० नि० ५ / १४१) पृ० २६४)
अन्य भाषाओं नाम - हि०-माधवी। बं०-माधवी लता । म० - मधुमालती, हलदबेल। गु० - रगतपीती, माधवीलता । ता० अडिगम। ते०माधवतोगे। अ० - Clustered Hiptage ( क्लस्टर्ड हिप्टेज)। ले०- Hiptage madablota gaertn (हिप्टेज मेडेब्लोटा ) । Fam. Malpighiaceae (मॅल्पिघिएसी) ।
94. Hiptage madablota Gaertn. (মাধবীলতা)
उत्पत्ति स्थान- यह दक्षिण, सिवालिक, कुमाऊं, पूर्वी बंगाल, आसाम, नेपाल तथा अंडमान में होती है एवं बागों में भी यह लगाई जाती है।
विवरण- इसकी लता बहुत विस्तार में फैलने वाली होती है और निकटवर्ती वृक्ष पर चढ़कर उसको ढक देती है। इसका स्तम्भ मजबूत होता है और शाखाएं मोटी होती हैं। पत्ते अण्डाकार लट्वाकार- आयताकार या आयताकार प्रासवत्, लम्बा, अभिमुख, चिकने, चमकीले एवं ४ से ७ इंच लम्बे तथा २.५ इंच चौड़े होते हैं। पुष्प आकर्षक श्वेत तथा सुगंधित रहते हैं। आभ्यन्तरदल झालरदार रहते हैं। जिनमें से एक दल पीला रहता है। प्रत्येक स्त्रीकेशर में एक बड़ा और दो छोटे पक्ष होते हैं। इसकी छाल तथा पत्तों का उपयोग किया जाता (भाव० नि० पुष्पवर्ग पृ० ४९७)
है।
1
अइमुत्तय लया
अइमुत्तय लया ( अतिमुक्तकलता ) माधवी लता ओ० ११
देखें अइमुत्तकला शब्द |
अंकोल्ल
अंकोल्ल (अङ्कोल) अंकोल, ढेरा
भग० २२/२ जीवा० ११७१ प० १।३५।१
अङ्कोल के पर्यायवाची नाम -
अङ्कोटो दीर्घकीलः स्यादङ्कोलरच निकोचकः ॥ अकोट, दीर्घकील, अङ्कोल और निकोचक ये सब अंकोल के पर्यायवाची नाम हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३६५ ) अन्य भाषाओं में नाम -
हि० - अंकोल, ढेरा, टेरा, ढेला। बं०-आंकोड, बाघ, आंकडा, अकरकंटा। म० अंकोल । गु० - आंकोल, अंकोल । क० - अंकोलेमर । ते० - कुड़गु, अंकोलम्। ता० - अलंगी । सन्ता० - ढेला, डेला । ले० - Alangium Lamarckii thwaites (एलॅन्जिअम् लेमार्काइ ध्वंट्स ) Fam Alangiaceae (एलेन्जियेसी) ।
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जैन आगम : वनस्पति कोश
SA
Alangium damarekiitw D E (Hagtacas)"
LIEF
IM
अंजणई अंजणई (अञ्जनी) कालीकपास। प० १४०५
विमर्श-अंजणई शब्द की संस्कृत छाया अञ्जनकी बनती है। अञ्जनकी शब्द आयर्वेद के कोशों में नहीं मिला है। एक पद में संधि करने से अंजणई की छाया अञ्जनी बन सकती है। अञ्जनी शब्द मिलता है। अञ्जनी का अर्थ दिया जा रहा है। अञ्जनी के पर्यायवाची नाम -
कालाञ्जनी चाञ्जनी च, रेचनी चासिताञ्जनी। नीलाञ्जनी च कृष्णाभा, काली कृष्णाञ्जनी च सा।
कालाञ्जनी,अञ्जनी, रेचनी, असिताञ्जनी, नीलाञ्जनी, कृष्णाभा, काली, कृष्णाञ्जनी ये सब कालीकपास के संस्कृत नाम हैं।
(राज०नि०४।१८६ पृ० ९९) अन्य भाषाओं में नाम -
हि०-कालीकपास। बं०-कालिकासिनी, तुला। मं०कालीसरकी, कापलशी। ग०-हिरवणी कपाशिया। क०हत्ति काउहत्ति। ते०-पतिचेटु। अ०-काटन्। फा०कुतुनपुवेदना। अ०-कुतुन हबुल कुतना अं0-Cotton (काटन्)। ले०-Gossypium Nigrum (गॉसिपिअम् नायग्रम)।
पुष्प
उत्पत्ति स्थान-यह मध्य और दक्षिण भारत, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, हिमालय की घाटी से गंगा तक और राजस्थान आदि कई प्रांतों में पाया जाता है। यह प्रायः नदी-नालों की ढालों पर अधिक होता है।
विवरण-इसका छोटा वृक्ष कांटेदार देखने में सुन्दर और सघन होता है। छाल धूसर रंग की मोटी एवं खुरदरी होती है। जड़ भारी पीताभ तेलिया तथा मजबूत होती है। जड़ की छाल दालचीनी की अपेक्षा भूरे रंग की रहती है। पत्ते कनेर पत्तों के समान तीन से पांच इंच लम्बे, एक से सवा दो इंच चौड़े आयताकार या कोई अंडाकार होते हैं। पुष्पोद्गम के पूर्व पत्ते गिर जाते हैं। फूल सुगंधित सफेद रंग के होते हैं। फल कच्ची अवस्था में नीले और पकने पर जामुनी लाल ४ से ६ इंच बड़े तथा मांसल होते हैं। बीज गुठलीदार और बड़े होते हैं।
(भाव. नि. पृ. ३६५)
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जैन आगम : वनस्पति कोश
उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष के अनेक भागों में बहुलता से इसकी खेती की जाती है। मिस्र, अमेरीका तथा संसार के अन्य उष्ण प्रदेशों में भी इसकी खेती की जाती है।
विवरण-यह गुल्म जाति की वनस्पति ४ से ५ फीट तक ऊंची होती है। इसके पत्ते हाथ के पंजों के समान कई भागों में विभक्त रहते हैं। प्रायः उसे ७ भाग तक देखने में आते हैं। फल घंटाकार पीले रंग के होते हैं। उनके बीच का हिस्सा बैंगनी रंग का होता है। फल डोडी या गोलाकार होता है तथा उसके भीतर सफेद रुई से लिपटे हुए ५ से ७ बीज होते हैं। बीज किंचित् काले रंग के, चने के समान गोल होते हैं और उनके भीतर सफेद मज्जा होती है। जड़ बाहर से पीले रंग की तथा अंदर से सफेद होती है।जड़ की छाल गंधयुक्त पतली, चिमड़, रेशेदार, धारीदार एवं करीब १ फीट तक लम्बी होती है। छाल का स्वाद कुछ तीता एवं कषाय होता है। प्रतिवर्ष प्राय: चौमासे के आरम्भ में खेतों में बीजों को रोपण करते हैं और फाल्गुन चैत में रुई संग्रह कर पौधे को काटकर खेत साफ कर लेते
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३७४, ३७५)
AJMERRCen
पर
"पुष्पचक्र
पत्र
अंजण केसिगा कुसुम अंजणकेसिगा (अञ्जनकेशिका) नलिका गन्धद्रव्य, रतनजोत।
रा० २६ जीवा० ३।२७९ अञ्जनकेशिका) नलिका नाम गन्धद्रव्ये उत्तरदेशे अञ्जनकेशी ) प्रसिद्धे (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०१९)
विमर्श-प्रस्तुत शब्द अंजण केसिगा कुसुम नीले रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। अञ्जनकेशी के पर्यायवाची नाम -
नलिका विद्रुमलता, कपोतचरणा नटी। धमन्यञ्जनकेशी च, निर्मध्या सुषिरा नली ॥
नलिका, विद्रमलता, कपोतचरणा, नटी, धमनी. अञ्जनकेशी, निर्मध्या सुषिरा, नली ये संस्कृत नाम नलिका के हैं।
(भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० २६६) अन्य भाषाओं में नाम - ___ हि०-रतनजोत। पं०-लालजरी, महारङ्गा, रतनजोत। ने०-नेवार, महारंगी। ले०-Onosma Echioides Linn (ओनोस्मा इचियाइड्स)।
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय में काश्मीर से कुमाऊं तक ५ हजार फीट की ऊंचाई से १ हजार फीट तक और बिलोचिस्तान में पैदा होती है।
विवरण-यह श्लेष्मान्तकादि कुल की वनस्पति है। इस वनस्पति से एक प्रकार का लाल रंग प्राप्त किया जाता है, जो तेलों में रंग देने के काम में लिया जाता है।
(धन्व० वनौ० विशे० भाग ६ पृ. ३५-३६) नलिका जो कि उत्तर देश में प्रसिद्ध सुगन्धिद्रव्य देखने में मूंगे के समान होती है और जो कि कहीं-कहीं यवारी नाम से भी प्रसिद्ध है। नलिका नाम गंध द्रव्य भी संदिग्ध है। कुछ लोग इसे रतनजोत मानते हैं। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्गपृ० २६६)
अंतरकंद अंतरकंद ( ) रास्ना, रायसन प० १४८६४२ रास्ना।स्त्री। स्वनामख्याततरु औषधौ। केदारदेशे प्रसिद्धे। हि०-वास्ना। ते०-किरम्मि चक्क। अन्तरदामर। :
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० ८९४)
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4
विमर्श - निघंटुओं और आयुर्वेद के शब्द कोशों में अंतरकंद शब्द नहीं मिला है। सम्भव है यह क्षेत्र विशेष की भाषा का शब्द हो। रास्ना का नाम अंतरदामर शब्द तेलगु में मिला है। यह शब्द गुणवाचक लगता है। कंद के अंतर कंद होना चाहिए। रास्ना के मूल जमीन के अंदर ही अंदर २५ से ४० फुट तक लम्बे चले जाते हैं। इससे अनुमान किया जा सकता है कि अंतरकंद रास्ना होना चाहिए। रास्ना के पर्यायवाची नाम -
रास्ना युक्तरसा रस्या, सुवहा रसना रसा । एलापर्णी च सुरसा, सुगंधा श्रेयसी तथा ॥ १६२ ॥ रास्ना, युक्तरसा, रस्या, सुवहा, रसना, रसा, एलापर्णी, सुरसा, सुगंधा तथा श्रेयसी ये सब रास्ना के नाम हैं। (भाव० नि० हरितक्यादिवर्ग पृ० ७९ )
अन्य भाषाओं में नाम -
हि० - रास्ना, सुरहि, वायसुरी, राशना, रायसन । म०रासन, रास्ना । गु० - रासना, रास्ना, रासनो। कच्छी-फाड, उफाड़, सन्निफाड़ । राज-राठकापान, रायसन, रासना, छोटाकलिया। पं०- मरिमण्डी, रासना । काश्मीरी - रासन | बं०रासना। बिहारी - रास्ना रचना क० राशना केदारे, रासना, रान्न, रास्मे । ते०रास्ना, किरमि, चक्कु । ता० - रास्ना | मल०रास्ना । मालवी० - रास्ना, राठका पानी। सिंधी कुरासना
कउरासन, काउरासन। अ०-रासन, रहसन, रवासन। फा०
रासन, रहसन | उर्दू ० - रासन, रहसन, रवासन। अंo-Indian ground sel (इन्डियन ग्राउण्ड सेल) । ले० - Pluchea Lanceolate (प्लूचिया लेन्सि ओलेटा ) ।
पत्र
Bat
पुष्प
डोड़ा
मूल
जैन आगम : वनस्पति कोश
उत्पत्ति स्थान - यह भारत में पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, सिंध, गुजरात और अफगानिस्तान में प्रभूत मात्रा में पायी जाती है। गुजरात में वीसा बाड़ा (मूल द्वारिका) और टुकड़ा गांवों की सीमाओं में, राजस्थान के पाली जिला के बिलाड़ा गांव के आस-पास तथा अन्यत्र यह खूब होती है। वहां इसको वायसुरई या वायसुरी भी कहते हैं। तथा उक्त सभी प्रदेशों में रास्ना के नाम से प्रयुक्त होता है।
विवरण - यह हरितक्यादिवर्ग और भृङ्गराजादि कुल के रास्ना के क्षुप प्रायः १२ माह ही देखे जाते हैं तथापि चातुर्मास के पश्चात् शरद् ऋतु में विशेषतया उपजते हैं। यह क्षुप १ से ३ फुट तक ऊंचे होते हैं और हरितक्षुप बड़े ही सुन्दर लगते हैं। इसके मूल जमीन के अन्दर ही अन्दर २५ से ५० फुट तक उससे भी अधिक लम्बे चले जाते हैं। उसके उपमूल चारों ओर फैलते हुए होते हैं। वे जमीन में जैसे-जैसे लम्बे बढ़ते हैं। वैसे जमीन के ऊपर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पुनः उनमें से अंकुर फूटकर निकलते हैं। यह जहां उगता है वहां प्रायः इसी का एक स्वतन्त्र जाल सा बिछ जाता है।
काण्डशाखाएं सूतली से लेकर अंगुली जितनी मोटाई वाले होते हैं। उन पर भूरे रोम होते हैं। कोमल शाखाओं पर ऊन या कपास के जैसे लम्बे श्वेत रोम घने होते हैं । काण्ड पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-छोटी गांठ सी होती है । पत्र जिह्वा के आकार के, यह पत्र गाढे हरिताभ अन्तर पर आते हैं। वे एक इंच से २.५ इंच तक होते हैं तथा १/२ इंच से १.२५ इंच तक चौड़े होते हैं। पत्र के दोनों पृष्ठों पर रोमावलि रहती है। पत्र के नीचे वृन्त नहीं होता। अगर होता है तो बहुत ही छोटा होता है । पत्रगत शिराएं अस्पष्ट एवं ऊपर को जाती हुई होती हैं। पत्रों में किंचित् सुगंध आती है, पुष्प के गुच्छे शाखाओं के अग्रभाग पर आते हैं। उसमें प्रत्येक पुष्प दो से तीन लाइन लम्बे होते हैं। उस पर चौड़े प्राय: रोम की रोमावली जैसे पुष्पपत्र आये हुए रहते हैं। वे अन्दर से धनिये के दल के समान दिखाई देते हैं। पुष्प रक्ताभा वाले कुछ जामुन रंग के होते हैं। फल बीज गहरे भूरे रंग में, सूक्ष्म, स्निग्ध,
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जैन आगम : वनस्पति कोश
Mangifera Indica, linn
प
अनुलम्बरेखा वाले होते हैं। प्रयोज्य अंग मूल होने के कारण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के आधार पर मूल का वर्णन दिया जा रहा है।
१. शब्द-मूल में द्रव्यगत कोई शब्द नहीं। तोड़ने पर कट्कट होता है। यह अभंगुर है।
२. स्पर्श-शीत, खर, कठिन एवं लघु यह मूर्त गुण पाए जाते हैं।
३.रूप-(क) बाह्य रचना (ख) आभ्यन्तरिक रचना ४. रस-प्रधान रस तिक्त है।
५.गंध-आर्द्र तथा शुष्कदोनों अवस्थाओं में बडी अच्छी सुगंध आती है।
बाह्य रचना-इसके मूल भूरे रंग के किंचित् श्यामाभ (सूखने पर) प्राय:चिकने और अनुलम्ब रूप में रुई पर झुर्रियां पड़ जाती हैं। इनकी गांठे (पूर्व) अनियमित दूरी पर होती है। इन गांठों या संधियों पर श्वेत छोटे-छोटे रोम (ऊन जैसे) होते हैं। मूल के ऊपर की त्वचा जरा मोटी भंगुर एवं जल्दी उतर जाने वाली होती है। एक मोटी गांठ के साथ अनेकों उपमूल लगे होते हैं।
(धन्व० वनौ० विशे० भाग ६ पृ०६७)
..
'आम
-
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उत्पत्ति स्थान-आम का वृक्ष इस देश में प्रायः सर्वत्र लगाया हुआ पाया जाता है। संभवतः वन्य अवस्था में यह सिक्किम, आसाम के नंबर जंगल, खासिया पहाड़, सत्पुरा पर्वत श्रेणी के नदियों के उद्गम स्थान तथा पश्चिम घाट में पाया जाता
अंब अंब (आम्र) आम। भ० २२/२ जीवा० १७१ प० १।३५।१ आम्र के पर्यायवाची नाम -
आम्रश्चूतो रसालश्च, कीरेष्टः मदिरासखः। कामाङ्गः सहकारश्च, परपुष्टो मदोद्भवः ॥१॥
आम्र, चूत, रसाल, कीरेष्ट, मदिरासख, कामाङ्ग, सहकार, परपुष्ट और मदोद्भव ये सब आम्र के पर्याय हैं।
(धन्व०नि० ५।१ पृ० २२१) अन्य भाषाओं में नाम -
हि०-आमाबं०-आमामo-आम्बा।ग०-आम्बो।ते०- मामिडिचेट्ट। ता०-मांगाय, मामरं। क०-अंब, अंम। फा०- अम्ब । अ०-अम्बजाअं०-Mango Tree (मंगो ट्री)।ले०
सोपान Mangifera Indica Linn (मंगीफेरा इण्डिका)।
विवरण-इसकी दो जाति होती हैं - बीजू और कलमी। बीजू बीज से उत्पन्न होता है और कलमी डालियों में जोड़ कलम करके उत्पन्न किया जाता है। बीजू वृक्ष बड़े-बड़े होते हैं और कलमी के वृक्ष अधिक ऊंचे नहीं होते। ये दोनों ही स्वाद के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं। कलमी आम प्रायः सुस्वादु होते हैं और इसी को लोग पसंद करते हैं। इसके फल भी छोटे और बड़े के भेद से कई प्रकार के होते हैं। संसार के सब फलों में उत्तम और अधिक गुणकारी आम का ही फल है। इसलिए इसको फलों का राजा कहते हैं।
(भाव० नि० आम्रादिफलवर्ग पृ० ५५२)
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जैन आगम : वनस्पति कोश
अंबाडग
विवरण-इसका बड़ा वृक्ष आम के वृक्ष जैसा ही होता
है। इसी से यह जंगली आम कहलाता है। इसकी शाखाएं अंबाडग (आम्रातक) आमड़ा, अंबाडा
छिटकी हुई, फैली हुई होती हैं। छाल पीपल की छाल जैसी भ०२२।३ प०१॥३६१
सफेदी लिए हुए मटमैली या खाकी रंग की होती है। यह आम्रातक के पर्यायवाची नाम -
सुगंधयुक्त चिकनी या फिसलनी होती है। छाल में से एक आम्रातकः पीतनकः, कपिचताम्लवाटकः।
प्रकार का गोंद, बबूल के गोंद जैसा निकलता है, जो पानी शृङ्गी कपी रसाढ्यश्च, तनुक्षीर: कपिप्रियः॥
में डालने से खूब फूलता है। इसकी लकड़ी खाकी रंग की आम्रातक, पीतनक, कपिचूत, अम्लवाटक, श्रृंगी,
हलकी कच्ची जल्दी टूटने वाली होती है। पत्ते शाखा में बराबर कपी रसाढ्य, तनुक्षीर, कपिप्रिया (धन्व०नि० ५।२३ दोनों ओर, आकार में रामफल के पत्र जैसे किन्तु उनसे कुछ
पृ० २२३)
छोटे और कोमल होते हैं। लम्बाई में २ से ५ इंच तथा चौड़ाई अन्य भाषाओं में नाम -
में १ से ३ इंच होते हैं। फूल वसन्त ऋतु के प्रारम्भ में पत्तों हि०-अम्बाडा, अमड़ा, अमरा, आमड़ा। बं०-आमडा। के झड जाने पर आम के बोर जैसे स्वर्णमंजरी के रूप में लगते म०-अंबाडा, ढोरआंबा, आंवचार। गु०-अंबेडा, अंभेड़ा, हैं। उसी में छोटे-छोटे फल होते हैं। इसके बीज बहुत छोटे अम्बाडो, जंगली आंबो क०-अंवर।ते०-अंबालमु।आमाटम्। होते हैं। प्राय: करौंदे के बीज जैसे ही होते हैं। फूलों की मंजरी अं०-Hogplum (हागप्लम), Wild mango (वाइल्ड झड़ जाने पर फल स्पष्ट हरितवर्ण के दृष्टिगोचर होने लगते हैं। म्यंगो)।ले०-Spondias Mangifera (स्पांडियस् में गिफेरा)। बढ़ते-बढ़ते ये तिगुने करौंदे के समान हो जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु
में पकने पर ये कुछ पीले पड़ जाते हैं और उनके अन्दर जाली बंध जाती है तथा भीतर चार कली के भाग प्रत्यक्ष होते हैं। ये स्वाद में कच्ची कैरी जैसा बहुत खट्टा होता है। इसका अचार, चटनी, लौंजी आदि बनाई जाती है।
(धन्व० वनौ० विशे० भाग १ पृ० २३२.२३३)
IMANSI
NA
अंबिलसाय अंबिलसाय (अम्लशाक) कोकम
भ० २०/२० प० ११४४।२ अम्लशाक के पर्यायवाची नाम -
वृक्षाम्ल मम्लशाक स्यान्जुक्राम्लं तित्तिडीफलम् ।
शाकाम्लमम्लपूरं च, पूराम्लं रक्तपूरकम् ॥१२२॥ अनातक (अम्बाडा
वृक्षाम्ल, अम्लशाक, चुक्राम्ल, तित्तिडीफल,शाकाम्ल, अम्लपूर, पूराम्ल, रक्तपूरक आदि अट्ठारह नाम वृक्षाम्ल के हैं।
(राज. नि०६।१२२ पृ० १६०) उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष में प्राय: सर्वत्र जंगल प्रदेशों अन्य भाषाओं में नाम - में होता है। कोकंण और कर्णाटक की ओर बहुतायत से पाया हि०-विषांविल, कोकमाम०-अमसूल,कोकम,रतांवि, जाता है। हिमालय की तलहटी में तथा चिनाव नदी के पूर्व में भिरंड, बीरुंड। गु०-कोकम। क०-मुगिंन हुलि। गोवा०ब्रह्मा आदि प्रदेशों में एवं कई जगह बागों में भी लगाया जाता है। ब्रिडाओ।ता०-पुलि, मुर्गलाते०-चिण्ट।गौ०-तैतुलाअं०
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Kokambutter tree (कोकमबटर ट्री) । ले०-Garcinia Putpuria (गारसीनिया पटप्युरिया)।
Garcinia indica chois.
कोकम
पुष्प
फल
शाख उत्पत्ति स्थान- कोंकण, कनारा आदि दक्षिण प्रान्तों में यह पाया जाता है।
विवरण- इसका वृक्ष छोटा होता है, शाखाएं झुकी हुई रहती हैं। पत्ते अंडाकार, आयताकार, भालाकार, २.५ से ३.५ इंच लम्बे, डेढ इंच चौड़े और ऊपर से गहरे हरे किन्तु नीचे से हलके रंग के होते हैं। फल गोल एक से डेढ इंच व्यास के तथा पकने पर जामुनी लाल रंग के होते हैं, जिनमें ५ से ८ बड़े-बड़े बीज होते हैं। बीज निकाले हुए सुखाए हुए फल को अमसूल या कोकम कहा जाता है। बीजों से तेल निकलता है जो मोम जैसा जम जाता है। इसे कोकम का घी या तेल कहते हैं। कोकम का स्वाद मधुराम्ल रहता है तथा इसको खटाई के लिए लोग काम में लेते हैं। (भाव० नि० आम्रादि फलवर्ग पृ० ६००)
अंबिलसाय
अंबिलसाय (अम्लशाक) चूकाशाक
पत्र
अम्लाक के पर्यायवाची नाम -
भ० २०२० प० ११४४१२
चुक्रं तु चुक्रवास्तूकं, लिकुचं चाम्लवास्तुकम् । दलाम्लमम्लशाकारव्यमम्लादि हिलमोचिका |||१२४/
चुक्र, चुक्रवास्तूक, लिकुच, अम्लवास्तुक, दलाम्ल, अम्लशाक, अम्लादिशाक तथा हिलमोचिका ये चूकाशाक के नाम हैं। (राज० ७ १२४ पृ० २१०, २११ ) अन्य भाषाओं में नाम -
हि० - चूकाशाक | बं० - चुका, पालंग । म० चुका, आंवट चुका। गु० - चुको, खारीभाजी । क०- -हुलीचको । फा०तुरश्क बड़ा, तुर्रेखुरासानी, तरह हिरासाई । अ० - हुम्माज, बुक्लेहा मेजा, बुल्फ येह मिज़ई । अ० - Bladder dock (ब्लॅडर डॉक) । ले० - Rumex Vesicarius (रुमेक्स वेसिकेरियस्) । Fam. Polygonaceae (पॉलिगोनेसी) ।
शास्त्र
7
फल
पत्र
फलकाट
उत्पत्ति स्थान - समस्त भारतवर्ष में प्रायः चूका के लगाए हुए अथवा कहीं-कहीं स्वयंजात भी पौधे मिलते हैं।
विवरण- चूका के ६ से १२ इंच ऊंचे वर्षायु क्षुप होते हैं, जो पाण्डुरहित, किंचित् मांसल और मूल के पास से ही द्विविभक्त होते हैं। पत्तियां लम्बे वृन्तवाली रूपरेखा में अण्डाकार - लट्वाकार, लट्वाकार या आयताकार १ इंच से ३ इंच लम्बी और उनका फल कमलकुन्तवत् स्फानवत् या हृद्वत् होता है। पुष्पमंजरी १ इंच से १.५ इंच लम्बी अग्राभिमुख होती है। पुष्पों के भीतर के पौष्पिक पत्र बड़ी झिल्ली की तरह पतले सफेद या गुलाबी दोनों सिरों पर
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द्विखण्ड वृत्ताकार और मध्यपर्शुक पर बिना गांठ के होते हैं। इसके फल गुलहम्माज के नाम से बिकते हैं, जो रक्ताभ भूरे रंग के लगभग ६ से १० इंच लम्बे होते हैं। चुक्र बीज गाढे भूरे रंग के तथा रूपरेखा में त्रिकोणाकार और चिकने चमकीले होते हैं। चुक्र एवं चांगेरी दोनों के ही पौधे स्वाद में खट्टे होते हैं, जिससे ग्रन्थकारों ने कहीं-कहीं भ्रम से इन्हें पर्याय रूप से लिख दिया है। किन्तु दोनों भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं। चूका एक प्रसिद्ध खट्टा साग है। ( वनौषधि निदर्शिका पृ० १५४)
अक्क
अक्क (अर्क) लाल पुष्पवाला आक। प० १।३७ ३
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण अक्क शब्द गुच्छवर्ग के अन्तर्गत है । इससे दो श्लोक पहले प० १।३७।१ में रूवी शब्द आया है। रूवी शब्द सफेद आक का वाचक है। इसलिए यहां अक्क शब्द का अर्थ रूवी से भिन्न लाल पुष्प वाला आक ग्रहण किया जा रहा है।
अर्क के पर्यायवाची नाम
-
रक्तोऽपरोर्कनामा स्यादर्कपर्णो विकीरणः । रक्तपुष्प: शुक्लफल स्तथाऽस्फोटः प्रकीर्त्तितः ॥६८॥ रक्तार्क, अर्कनामा ( सूर्य के वाचक सभी शब्द इसके पर्यायवाचक हैं) अर्कपर्ण, विकीरण, रक्तपुष्प, शुक्लफल तथा आस्फोट ये लाल आक के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३०३) अन्य भाषाओं में नाम -
हि० - आक, मदार । म० उबार, उबर । फा०- खरक, जहूक । अंo - Mudar (मडार) | Gigantic Swaliow wort (जायगांटिक स्वालो वार्ट) । ले० - Calotropis Gigantea (केलोट्रोपिस जायगेन्टिका ) ।
आक
(लाल)
जैन आगम : वनस्पति कोश अर्कनामानि
उत्पत्ति स्थान - लाल आक बंगाल के निचले भागों में, राजपूताना, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब, मध्य प्रदेश, बंबई, कच्छ, काठियावाड, गुजरात आदि दक्षिण भारतवर्ष, सिंध तथा मध्य भारत में प्राय: सर्वत्र खंडहर, जंगल, उजाड एवं ऊसर भूमि में बहुतायत से पाया जाता है।
विवरण- लाल आक का क्षुप २ से ६ हाथ तक ऊंचा, बहुमुखी और प्रायः गरमी के दिनों में ही हराभरा फल से युक्त होता है। लाल आक में दूध कम रहता है। लाल आक की जड़े मूसलीदार और शाखायुक्त होती है। ये शाखायुक्त जड़े सूखने पर असगंध जैसी ही मालूम देती है। जड़ के बाहर की या ऊपर की छाल विशेष मोटी और खुरदरी होती है। छाल, पत्ते, दूध आदि का स्वाद कडुवा, चरपरा, जी मिचलाने वाला तथा गंध उग्र होता है। प्रकांड और शाखाएं कुछ खाकी रंग की थोड़ीथोड़ी दूरी पर गांठदार होती है। इन्हें तोडने पर दूध टपकने लगता है। हरे पेड़ के प्रत्येक प्रदेश से तोड़ने पर दूध निकलता है। तना और प्रधान शाखा की छाल बहुत हलकी, शोले की तरह नरम और विदीर्ण होती है। पत्र सम्मुखवर्ती होते हैं। पत्र वरगद के पत्र जैसे ३ से ६ इंच तक जोड़े होते हैं। पत्रों का उदरभाग ऊन जैसे श्वेत क्षारमय रोवों से घना व्याप्त रहता है। आक के इस सारभाग और दूध में ही विशेष घातक विष के
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MAvi
अंश पाए जाते हैं। पत्र का पृष्ठ भाग चिकना होता है। पत्र के डंठल इतने छोटे होते हैं कि मानों ये डालियों से ही निकले हों।वर्षा ऋतु में पत्ते गल जाते हैं। छत्राकार पुष्प के तुरे पत्रवृन्त के पास से ही निकलते हैं तथा इन तुरौं या गुच्छों में कटारीनुमा या कनेर के पुष्प बैंगनी रंग के हल्की भीनी मधुर गंध युक्त, व्यास में १ इंच होते हैं। इनकी पंखुड़ियां सीधी खड़ी हुई होती हैं। इसके पुष्प फाल्गुन से जेठ मास तक ही पाए जाते हैं। पुष्पों की लौंग (कर्णफल) बड़े काम की वस्तु है, इसमें आक के सर्व अवयवों की अपेक्षा विष की मात्रा अत्यल्प होती है। फूलों के झड़ जाने पर प्रायः उनके ही स्थान में एक साथ दो-दो डोडे हरितवर्ण के निकलते हैं, जो चिकने, स्फुटनशील और लम्बोत्तरे होते हैं। इसकी डोडी लम्बाई में ४ से ६ अंगुल तक होती है। डोडी के अन्दर कोमल रुई से आवृत काले रंग के बीज होते हैं। इसका बीज जहां गिरता है वहीं चौमासे में ऊग आता है। आक की लकड़ी हल्की पोची या पीली होती
(धन्व० वनौ० विशे० भाग १ पृ०२९१.२९२)
m
अक्क बोंदी अक्क बोंदी (अर्क ‘बोंदी') सूरजमुखी, सूर्यमुखी
भ० २२/६ प० ११४०५ विमर्श-बोंदी देशीय शब्द है। इसका अर्थ है
मुख, मुंह (देशीनाममाला ६।९९) अक्क शब्द का अर्थ है सूर्य। अक्क बोंदी का अर्थ हुआ सूर्यमुखी, सूरज मुखी। सूर्यमुखी। स्त्री। पुष्पवृक्षविशेषे।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ११४७) सूर्यमुखी के पर्यायवाची नाम -
आदित्यपर्णिका,आदित्यपर्णिनी,आदित्यभक्ता, रविप्रीता। अन्य भाषाओं में नाम -
हि०-सूरजमुखी, सूर्यमुखी। बं०-सूरजमुखी। बोम्बे- सूरजमुखी। म०-सूर्यफूल। उ१०-सूरजमुखी। ते०-आदित्य भक्तिचेटु। मलय०-सूर्यकन्दी। अ०-अर्दियून, अर्झवाना फा०-गुलआफताब, परस्त, गुले आफताब परस्त। अं०- Sunflower (सनफ्लावर)। ले०-Helianthus Annuus (हेलिएन्थस एन्युएस)।
उत्पत्ति स्थान-यह अमेरीका का आदिवासी है और भारत में सर्वत्र वाटिकाओं में इसको लगाया जाता है।
विवरण-यह भृङ्गराजादिकुल का एकवर्षजीवी प्रसिद्ध पुष्प क्षुप प्रायःसब प्रदेशों की वाटिकाओं में रोपण किया जाता है। इसके क्षुप ४ से ५ हाथ ऊंचे होते हैं। पत्ते डंडी की ओर चौडे, आगे को संकुचित, लम्बे, खुरदुरे और पुराने होने पर झालर के समान कटे किनारेदार होते हैं। इन पर रोयें होते हैं। फूल बड़े-बड़े सूर्याकार गोल अनेक दल सहित नारंगी रंग के दिखाई देते हैं। कितने ही मनुष्य राधापद्म (जिसके फूल पीले होते हैं और आकृति सूरजमुखी फूल से बड़ी होती है तथा दल कम होते हैं।) सूर्यमुखी मानते हैं। सूरजमुखी फूल का मस्तक भोर के समय पूरब की तरफ रहता है। सूर्य की गति के साथ ही साथ यह ऊंचा होकर दिन के शेष भाग में पश्चिम की ओर नत हो जाता है। सदा सर्वदा सूर्य की ओर इसका मुख रहता है। इसी कारण इसको सरजमखी कहते हैं। फलों के मध्य भाग में केसर कोष रहते हैं और इनके बीच कसूम के बीज
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के समान सफेद बीज होते हैं। इसके पौधे बीज से उत्पन्न होते उत्पत्ति स्थान-भारत में जहां-जहां जल की प्रचुरता हैं और हर समय इसको रोपण किया जा सकता है। परन्तु
तथा वायुमंडल उष्ण प्रधान शीत है वहां-वहां यह प्रचुरता से शीतकाल और ग्रीष्म ऋतु ही बीजों को रोपण करने का अच्छा
होता है। उदाहरणार्थ बंग प्रदेश, मध्य प्रदेश, बरार, बंबई आदि समय है। बीज वपन करके ऊपर मिट्टी का चूरा छींटकर कई
दक्षिण की ओर तथा उत्तर प्रदेश के गंगा जमुना के बीच के दिनों तक थोड़ा-थोड़ा जल का छींटा देकर जमीन को सरस रखना चाहिए। बीज बोने के पहले मिट्टी के साथ खमी या गोबर
प्रदेशों में यह बाग बाड़ियों में बहुतायत से होता है। चौमासे का चूर्ण मिलाने से पौधे सतेज होते हैं।
में इसके बीज जहां-तहां उग उठते हैं। उत्तर आष्ट्रेलिया में यह (धन्व० वनौ० विशे० भाग ६ पृ० ३७६.३७७) ।
खूब होता है। इस पर पानों की और द्राक्षा की बेलें बहुत अच्छी
तरह चढ़ती हैं, अत: पान की पनवाड़ी और बाग बगीचों में अगस्थि
यह बहुत लगाया जाता है। अगस्थि (अगस्ति) हथिया, अगथिया प० १।३८।२ विवरण-इसका वृक्ष सजल प्रदेश में लगभग १० से ३० अगस्ति के पर्यायवाची नाम -
फीट ऊंचाई में बढ़ जाता है। किन्तु इसका जीवनकाल अन्य अगस्त्यः शीघ्रपुष्पः स्यात्, अगस्तिस्तु मुनिद्रुमः ।
वृक्षों की तरह दीर्घ नहीं होता। यदि इसे जल न मिले और शीत व्रणारिदीर्घफलको, वक्रपुष्पः सुरप्रियः ॥
विशेष हो तो बड़ी मुश्किल से २ से ४ फीट तक बढ़कर ही अगस्त्य,शीघ्रपुष्प,अगस्ति,मुनिद्रुम,व्रणारि,दीर्घफलक,
रह जाता है। इसका पेड़ सीधा साफ और श्वेत या धूसर वर्ण वक्रपुष्प तथा सुरप्रिय ये सब अगस्त्य के नाम हैं।
(राज० १०।४६ पृ० ३०६)
का होता है। जब यह पत्र और पुष्पों से लद जाता है तब बहुत अन्य भाषाओं में नाम -
ही सुन्दर दिखाई देता है। इसमें बहुत सी घनी शाखाएं छोटीहि०-अगस्त, अगस्तिया, हथिया, अगथिया। बं०-बक। छोटी पतली पीत हरित वर्ण की तथा कुछ शाखाएं जाड़ी मोटी न०-अगस्ता, हदगा। गु०-अगथियो। क०-अगसेयमरनु, भूरे रंग की होती हैं। यह वृक्ष पक्षियों को बहुत प्रिय होता है। अगचे। ते०-लल्लयविसेचेटु, अनीसे, अविसि। ता०- नाना प्रकार के पक्षी इस पर किलोल किया करते हैं। अगस्ति, हेतियो। गौ०-वकफुल। सिंघ०-कुतुरमुरेग। अं०
पत्र इमली या सहिंजना के पत्र जैसे किन्तु आकार-प्रकार Large flowered Agati (लार्जफ्लावर्ड अगति) ले०-
में उनसे बड़े अण्डाकार लम्बाई में१ से १.५ इंच तक फीके
* Sesbania Grandiflora (सेसबानिया ग्रांडिप्लोरा)।
हरितवर्ण के चिपचिपे से होते हैं। ये स्वाद में कुछ अम्ल और AeschynomeneGrandiflora (एसक्य नोमीनग्रांडी फ्लोरा)।
कसैले होते हैं। ग्रामीण लोग इसके कोमल पत्तों का शाक अगस्त
बनाकर खाते हैं। पुष्प वृक्ष के पत्रकोणों में से पुष्पों को धारण Sesbahia grandi llora
करने वाली श्वेत रोम युक्त २ से ३ इंच तक लम्बी लाल और श्वेत वर्णवाली बाल जैसी शाखाएं नीचे की ओर झुकी हुई निकलती हैं। इस पर २ से ५ तक पुष्प वक्र या चन्द्रकला के समान शुभ्र या लाल वर्ण के बड़े आकार के आते हैं। आयुर्वेद में नीले और पीले पुष्प युक्त अगस्तिया का भी उल्लेख मिलता है। प्रत्येक पुष्प की लम्बाई १.५ से २ इंच, कहीं-कहीं ४ इंच तक भी देखी गई है। वर्षा ऋतु के बाद ये फूल उगते हैं। ये गूदादार तथा मधुरी मादक गंधयुक्त होते हैं। ये अगस्त्योदय तक बने रहते हैं। एक ही वृक्ष पर कई बार श्वेत लाल वर्ण के पुष्प
आते हैं। कई वृक्ष पर केवल श्वेत ही पुष्प तथा कई वृक्ष पर पुण्य
केवल लाल वर्ण के ही पुष्प लगते हैं। लाल पुष्प वाले को लाल अगस्ति कहते हैं।
(धन्व० वनौ० विशे० भाग १ पृ०५१.५२)
o
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अत्थि गुम्म (अगस्ति गुल्म) अगथिया गुल्म
जीवा० ३१५८० जं० २११० इसका वृक्ष सजल प्रदेश में लगभग १० से ३० फीट ऊंचाई में बढ़ जाता है। यदि इसे जल न मिले और शीत विशेष हो तो बड़ी मुश्किल से २ से ४ फीट तक बढ़कर ही रह जाता
T
देखें अगत्थि शब्द ।
C
अगुरुपुड
अगुरु (अगुरु) अगर अगुरु के पर्यायवाची नाम -
अगुरु प्रवरं लोहं, राजार्हं योगजं तथा । वंशिकं कृमिजं वापि, कृमिजग्धमनार्यकम् ॥ अगुरु, प्रवर, लोह, राजार्ह, योगज, वंशिक, कृमिज, कृमिजग्ध और अनार्यक ये सब अगर के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० १९४)
पता
अन्य भाषाओं में नाम हि० - अगर । बं० - अगर काष्ठ, अगरु चंदन । म० - अगर । गु० - अगर। पं० ऊद, ऊदफारसी। अ०-ऊदखाम। कं०कृष्णाअगरु।ता०-कृष्णा अगरु । ते० - कृष्णागरु । अ०-Eagle wood (इगल ऊड)। ले० - Aquilaria Agallocha Roxb (एक्विलेरिया एगेलोचा राक्स), Fam. Thymelacaceae (थाइमेलिएसी) ।
अगर
रा० ३०
-
AQUILARIA AGALLOCHA, ( ROX B )
फूल
उत्पत्ति स्थान - यह पूर्व हिमालय, आसाम, भूटान, खासिया पहाड़ एवं तिलहट आदि प्रान्तों में पाया जाता है।
विवरण- इसका वृक्ष बड़ा ६० से ७० फीट ऊंचा, ५ से ८ फीट व्यास का धारीदार एवं सदा हरित रहता है । लकड़ी मुलायम, हलकी, लचीली श्वेत या हलकी पीताभ श्वेत एवं इसमें कोई विशेष गंध नहीं होती। इसमें वार्षिक वृद्धि के वलय नहीं होते तथा मध्य या छोटे आकार की ३ से ४ अरीय वाहिकाओं की कतारें एवं इनके बीच तन्तुगुच्छों का फ्लोएम (Phloem) रहता है। काष्ठसार अलग नहीं दिखलाई देता । पत्ते विपरीत २ से ४.५ और .८ से २ इंच बड़े आयताकार भालाकार या कुछ दीर्घवृत्ताकार चिकने तथा बहुत छोटे नाल से युक्त होते हैं। पुष्प श्वेत रंग के गुच्छों में आते हैं। फल १.५ से २ इंच लम्बे, अभिअण्डाकार एवं मृदु रोमावृत होते हैं। (भाव० नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० १९५ )
अग्घाडग
अग्घाडग (आघाट) अपामार्ग आघाट के पर्यायवाची नाम -
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प० ११३७१४
अपामार्गः शैखरिकः, शिखरी खरमंजरी । अधः शल्यः क्षारमध्यः, दुर्ग्रहो दुरभिग्रहः ॥१०३२॥ आघाट: किणिही मार्गः, प्रत्यक्पुष्पी मयूरक: । अपामार्ग, शैखरिक, शिखरी, खरमंजरी, अधः शल्य, क्षारमध्य, दुर्ग्रह, दुरभिग्रह, आघाट, किणिही, मार्ग, प्रत्यक्पुष्पी, मयूरक ये सब पर्याय अपामार्ग के हैं।
(कैयदेव. नि० ओषधिवर्ग श्लोक १०३२, १०३३ पृ० १९१) विमर्श - मराठी भाषा में आघाड़ा, गुजराती भाषा में अघेड़ो और मारवाडी भाषा में आंधोझाडो और ओंगा कहते हैं।
अन्य भाषाओं में नाम -
हि० - लटजीरा, चिचिरी, चिरचिरा, चिचडा । म०आघाडा । बं० - आपांग। गु०-अधेडो । क० - उत्तरणी । ते०अपामार्गमु। मा०-आंधोझाडो, ओंगा ।ता० - नायुरुवि । मला०वलियकटलाट । फा० - खारबाझ, गूनइ । अ० - अत्कुमह । अं०The Prichly Chaff flower (दि प्रिक्ली चैफ फ्लावर) । ०- Achyranthes Aspera Linn (एचिरेन्थिस् एस्पेरालिन) Fam. Amaranthaceae ( एमेरेन्थेसी) ।
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लालविरबिटा.
अर्जकः (पुं) क्षुद्रतुलसीवृक्षभेदे।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६९) अर्जक के पर्यायवाची नाम -
अर्जकः क्षुद्रतुलसी, क्षुद्रपर्णी मुखार्जकः । उग्रगन्धश्च जम्बीरः, कुठेरश्च कठिञ्जरः ॥१५६॥
अर्जक, क्षुद्रतुलसी, क्षुद्रपर्णी, मुखार्जक,उग्रगन्ध, जम्बीर, कुठेर तथा कठिञ्जर ये सब अर्जक के नाम हैं।
(राज० नि० १०।१५६ पृ० ३२९) अन्य भाषाओं में नाम -
हि०-बाबरी। म०-आजबला। क०-कगोर्गले। ते०तेल्लगगेरचेटु। ता०-गगेर। गो०-वावुई तुलसी।
भाव प्रकाशकार ने तुलसी के ३ भेद माने हैं (१) सफेद पुष्प तुलसी (२) कृष्ण पुष्प तुलसी (३) वट पत्र। अर्जक को सफेद पुष्प वाली वनतुलसी माना है - तत्र शक्लेर्जकः प्रोक्तो वटपत्र स्ततोऽपरः।
(भाव० नि० पुष्पवर्ग पृ० ५११)
ALIGARH
उत्पत्ति स्थान-यह शहर या गांव के बाहर बागों या जंगलों में बिना बोए ही उत्पन्न होता है। यह प्राय: भारतवर्ष के सब प्रान्तों में ३००० फीट तक पाया जाता है।
विवरण-इसका क्षुप स्वावलंबी १ से ३ फीट ऊंचा तथा शाखाएं कुछ आरोहणशील एवं पर्यों के ऊपर मोटी होती है। पत्ते चौलाई के पत्तों की तरह कुछ गोल, अंडाकार, नोकीले एवं १ से ५ इंच लम्बे होते हैं। इसके पत्तों और कांटों पर बहुत सूक्ष्म सफेद-सफेद रोम होते हैं। पुष्प दंड लगभग डेढ फुट तक लम्बा होता है उस पर कुछ लाल गुलाबी पीलापन लिए हुए फूल निकलते हैं। उसी दंड पर कांटेदार छोटे-छोटे फल उल्टे लगते हैं। ये कांटेदार फल कपड़े पर चिपट जाते हैं। इसलिए कहीं-कहीं इसे कत्ता नाम से भी पुकारते हैं। जब फल पक जाते हैं तो इनके अन्दर से चावल निकलते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ४१५)
AN
PM
अज्जय अजय (अर्जक) बाबरी, तुलसी का एक भेद
उत्पत्ति स्थान-यह तुलसी बंगाल, बिहार, आसाम, मध्य भारत से दक्षिण में सीलोन तक के मैदानों में तथा छोटे पहाड़ों पर अधिक पाई जाती है। बाग बगीचों के आसपास प्राय:जंगली या अर्द्ध जंगली अवस्था में बहुत उगती है। पंजाब
प०१४४३
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मैदानों में सूखे प्रदेशों में निसर्गत: जंगली स्वयं उत्पन्न होती है। देहली के आसपास पहाड़ियों पर बहुतायत से उगी हुई है। विवरण - यह बबई तुलसी का ही एक जंगली भेद है। पौधा बहुशाखी, छोटा, सीधा, १.५ से २ फीट ऊंचा, सुमधुर किन्तु तेज गंधयुक्त, पत्ते कटावदार किनारे वाले, पुष्प श्वेत रंग के, चक्राकार गुच्छों में, आसपास लगे हुए। प्रति गुच्छे में प्रायः ६ पुष्प होते हैं। बीज किंचित् गुलाबी आभायुक्त काले रंग के पोस्त - बीज (खसखस ) के आकार वाले होते हैं।
वास्तव में तो यह उक्त वर्णित बबई तुलसी है तथा इसीलिए भावमिश्र जी ने इसे बबई (बर्बरी) के अन्तर्गत ही माना है, किन्तु यह जंगली शुष्क वातावरण में उगने से, उससे भिन्न नाम, रूपादि वाली हो गई है। इसके पत्र एवं विशेषतः पुष्प बबई से बहुत छोटे-छोटे होते हैं। बबई (बर्बरी) की अपेक्षा इस पर छोटे-छोटे खुरदरे रोम अधिक छाए रहते हैं । तथा इसकी गंध बहुत तेज होती है। इसके पत्तादि अधिक सूखने पर शीघ्र ही चूर-चूर हो जाते हैं । बबई के पत्तादि सूखने पर भी शीघ्र चुरा नहीं होते ।
( धन्व० वनौ० विशे० भाग ३ पृ० ३७० )
अज्जुण
अज्जुण (अर्जुन) तृण भ० २१ । १९ जीवा. ३।५८३ प० १४२ १ अर्जुन के पर्यायवाची नाम -
तृणे स्यादर्जुनं
तृण और अर्जुन ये दो नाम तृण के हैं।
सर्वं च तृणमर्जुनम् इति भागुरिः । सब तृणों को अर्जुन कहते हैं ।
(सटीक निघंटुशेष श्लोक ३७८)
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( सटीक निघंटु शेष पृ० २०३ )
अज्जुण
अज्जुण (अर्जुन) अर्जुन वृक्ष भ० २२/३ प० १।३६ । ३ अर्जुन के पर्यायवाची नाम -
अर्जुनः ककुभः पार्थ, रिचत्रयोधी धनञ्जयः । वीरान्तकः किरीटी च, नदीसर्जोपि पाण्डवः ॥ १०८ ॥ अर्जुन, ककुभ, पार्थ, चित्रयोधी, धनञ्जय, वीरान्तक,
किरिटी, नदीसर्ज, पाण्डव ये सब पर्याय अर्जुन के हैं। ( धन्व० नि० ५/१०४ पृ० २५१ )
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अन्य भाषाओं में नाम
हि० - अर्जुन, कहू, कोह । बं०- अर्जुनगाछ । म० अर्जुन, अर्जुनसादडा। गु० - अर्जुन। पं० - जुमरा । ते ० - तेल्लमद्दि। क०मात्र । ता० - मरुद्मरम् । ले०- Terminalia arjuna (टर्मिलेनिया अर्जुन) Fam Combretacea (कॉम्ब्रेटेसी) ।
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239. T. arjuna Bedd. (कून)
उत्पत्ति स्थान- यह सब प्रान्तों में कहीं न कहीं पाया जाता है किन्तु हिमालय की तराई, छोटा नागपुर, मध्य भारत, बंबई एवं मद्रास में अधिक होता है।
विवरण- इसका वृक्ष ६० से ७० फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते अमरूद के पत्ते के समान ३ से ६ इंच तक लम्बे, छोटीछोटी टहनियों पर कहीं विपरीत और कहीं एकान्तर लगे रहते हैं। हलके पीले रंग के नन्हे नन्हें फूलों के घनहरे से आते हैं। फल कमरख के समान ५ पहल वाले १ से १.५ इंच लम्बे एवं कुछ अंडाकार होते हैं। (भाव० नि० वटादिवर्ग० पृ० ५२३) इसकी छाल सफेद रंग की होती है और उसमें दूध निकलता है। (शा० नि० वटादिवर्ग० पृ० ५०३)
अट्टई
अट्टई ( आवर्त्तकी) भद्रदन्ती, भगतवल्ली प० १।३७ ३ विमर्श - पाइअसद्दमहण्णव में सयरी शब्द का संस्कृत रूप शतावरी दिया हुआ है। वैसे ही अट्टई शब्द का संस्कृत रूप आवर्त्तकी होता है। आवर्तकी के व का लोप करने के बाद आर्तकी रूप रहता है जो अट्टई से अट्ट (आर्च) की तरह सिद्ध
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होता है।
आवर्त्तकी (स्त्री) स्वनामख्यात लतायां कोकणादि देशे आहुली, तलाडवल्ली भगतवल्ली इति च प्रसिद्धायाम् ।
आवर्तकी, आहुली, तलाडवल्ली, भगतवल्ली आदि नाम से कोंकण देश में प्रसिद्ध है । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ११९ ) आवर्त्तकी (स्त्री) वनस्पति दन्तीभेदः लता (अष्टांग संग्रह चिकित्सा २१ ) (आयुर्वेदीय शब्द कोश पृ० १६५ ) आवर्त्तकी के पर्यायवाची नाम - आवर्त्तकी तिन्दुकिनी विभाण्डी, विषाणिका रङ्गलता मनोज्ञा । सा रक्तपुष्पी महदादिजाली, सा पीतकीलापि च चर्मरङ्गा ॥ १३४ ॥ वामावर्त्ता च संयुक्ता भूसंख्या शशिसंयुक्ता ।
आवर्त्तकी, तिन्दुकिनी, विभाण्डी, विषाणिका, रङ्गलता, मनोज्ञा, रक्तपुष्पी, महदादिजाली, पीतकीला, चर्मरङ्गा तथा वामावर्ता ये सब आवर्त्तकी के ग्यारह नाम हैं।
(राज० नि० ३।१३४, १३५ पृ० ५८ )
विवरण-दंती बड़ी-गुडूच्यादि वर्ग एवं एरण्डकुल के झाड़ीनुमा क्षुप अण्डी (मुगलाई एरण्ड) के क्षुप जैसा ही होता है। पत्र लाल रंग के, पुष्प हरिताभ पीतवर्ण के, फली १ से ३ से. मी. लम्बी, गोल, चिकनी तथा बीज काले चमकीले होते हैं। मूलगुच्छ बद्ध अनेक होते हैं। इसके क्षुप भारत के दक्षिण प्रान्तों में तथा बंगाल में भी पाए जाते हैं। हमारे विशेष अनुसंधान से हमें ज्ञात हुआ है कि बड़ी दंती (द्रवन्ती) यह जमाल गोटे (जयपाल) की ही एक जाति विशेष है, भद्रदंती इसी का एक भेद है।
भद्रदंती
विवरण - यह बड़ी दंती का ही एक छोटा भेद है। इसके सुन्दर छोटे-छोटे शोभायमान क्षुप होते हैं, जो प्रातः बागबगीचों में शोभा के लिए लगाए जाते हैं। पत्र आदि उक्त दंती के जैसे ही, बीज दन्तीबीज की अपेक्षा बहुत छोटे होते हैं। इसे संस्कृत, हिन्दी, मराठी और बंगभाषा में भद्रदन्ती, अंग्रेजी में Coral tree (कोरल ट्री) तथा लेटिन में Jatropha Multifiba (जेट्रोफा मल्टिफिबा) कहते हैं।
( धन्व० वनौ० विशे० भाग ३ पृ० ४२४)
अट्टरूसग
अट्टरूसग (अटरूषक) अडूसा । अटरूषक के पर्यायवाची नाम -
जैन आगम : वनस्पति कांश
क्षुप
वासको वासिका वासा, भिषमाता च सिंहिका । सिंहास्यो वाजिदन्ता, स्यादाटरूषोऽटरूषकः ॥८८॥ अटरूषो वृषस्ताम्र:, सिंहपर्णश्च स स्मृतः ॥ वासक, वासिका, वासा, भिषङ्माता, सिंहिका, सिंहास्य, वाजिदन्ता, आटरूष, अटरूपक, अटरूष, वृष, ताम्र और सिंहपर्ण - ये अडूसा के पर्यायवाची नाम हैं।
(भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३२० ) अन्य भाषाओं में नाम -
हि० - अडूसा, अडूस, अरूस, वाकस, बिसोटा, रूसा, अरुशा । बं० - बासक, बाकस । म० अडुलसा । मा०० - अड्डुसो । गु० - अरडुसो । क०० - आडुसांगे । ते०-आडासारं, अडसरमु । मल०-वलिय आटलोटकम् । ता० अटतोटै। पं० - भेकर। फा० - वॉस:, ख्वाजा । अ० हशीशतुस्सुआल । अं० - Malabar nut (मलाबार नट) । ले० Adhatoda Vasica Necs (अधाटोडा वासिका नीज ) | Fam. Acanthaccac (एकॅन्थेसी) ।
फूल
प० १।३७१४
शाख
पता
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जैन आगम : वनस्पति कोश
0) अतसी
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Linum usitatissimum , tirn उत्पत्ति स्थान-यह भारतवर्ष के प्राय: सब प्रान्तों में एवं हिमालय के निचले भागों में ४००० फीट की ऊंचाई तक उत्पन्न होता है।
विवरण-इसका क्षुप सदा हरित, झाड़ीदार, दुर्गन्धयुक्त ३ से ८ फीट ऊंचा एवं प्रायः समूहबद्ध होकर उगता है। कांड की गांठे फूली हुई रहती हैं। पत्ते ५ से ८ इंच लम्बे, १.५ से २.५ इंच चौड़े भालाकार या अंडाकार, दोनों सिरों पर नोकीले अखंड, अत्यन्त सूक्ष्म, मृदुरोमश विशेष कर नए पत्ते १/२ से १ इंच लम्बे पर्णवृन्त से युक्त होते हैं।पुष्प श्वेत विनाल द्वयोष्ठी एवं १३ इंच लम्बे होते हैं। तथा १ से ३ इंच लम्बी मंजरियों में पाए जाते हैं, जो उपशाखाओं के अग्र पर प्रायः समूह बद्ध रहती है। पुष्पों पर टेढ़ी बैंगनी धारियां होती हैं। इसमें बड़े-बड़े कोणपुष्पक और वृन्तपत्र भी रहते हैं। फली पौन इंच लम्बी, १/३ इंच चौड़ी, मुद्गराकार, लम्बाई में धारीदार मृदुरोमश एवं ४ छोटे बीजों से युक्त होती है। इसके पत्तों से एक प्रकार का पीला रंग निकलता है। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३२१)
उत्पत्ति स्थान-तीसी प्रायः सब प्रान्तों के खेतों में बोई जाती अतसी अतसी (अतसी) अलसी, तिसी। प० १३७।२
विवरण-इसका पौधा १.५ से २ फीट ऊंचा होता है। अतसी के पर्यायवाची नाम -
पत्ते छोटे रेखाकार या भालाकार एवं शिराओं से युक्त होते हैं। प्रतरीतमा प्रोक्ता, रुद्रपत्नी सुवल्कला।
फूल नीले रंग के घंटाकार, फल गोल धुंडी सा, ऊपर को
नोकीला एवं ५ कोष युक्त होता है। बीज प्रत्येक कोष में १० उमा सुनीलपुष्पा च, वसुतर्का क्षुमापि च ॥१०२॥
के करीब, चिपटे, चिकने, गहरे भूरे एवं चमकीले होते हैं। शीता तैलफला चैव, पालिका पूतिपूरकः ॥
(भाव० नि० धान्यवर्ग० पृ० ६५३) प्रतरीक़तमा, रुद्रपत्नी, सुनीलपुष्पा, वसुतर्का, क्षुमा, शीता, तैलफला, पालिका और पूतिपूरक ये अतसी के पर्यायवाची नाम हैं। (धन्व० नि० ६/१०२ पृ० २९६)
अतिमुत्त अन्य भाषाओं में नाम -
अतिमुत्त (अतिमुक्त) कुंद, कस्तूरी मोगरा हि०-तीसी, तिसी,अलसी, मसीना।बं०-तिसी, मसीना।
जीवा० ३।२९६ म०-जवस, अळशी। गु०-अलशी। क०-अगसि। ते०
विमर्श-भावप्रकाशकार अतिमुक्त को माधवी लता अविसि। ता०-अलिविराई। फा०-तुख्मे कतान, वजुरग, मानते हैं। माधवी के ८ पर्यायवाची नाम दिए गए हैं उनमें एक वजुर्ग। अ०-बजरूल कतान, वजरूल कनान, बजरूलकतां।
अतिमुक्त है।
(भाव० नि० पुष्पवर्ग० पृ० ४९७) अं०-Common Flax (कामन फ्लेक्स), Linseed अतिमक्त के पर्यायवाची नाम - (लिन्सीड)। ले०-Linum Usitatissimum Linn (लीनम्
अतिमुक्त, अट्टहास, अट्टपुष्पक, व्रणबन्धु, दल कोष । यूसिटेटिसिमम्) Fam. Linaceae (लिनेसी)।
कुंद, मकरंद, मनोदन, वसन्त, कुन्दो, कुन्दफल ॥
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अन्य भाषाओं में नाम
बं०- कुन्द, कुन्दफूल। क०-कुन्द । म० - मोगरा, कस्तूरी मोगरा । ता० - मगरंदम, मेलिगई। ते० - कुन्दम। ले०Gasminum Pubescens ( जेसिमिनम प्यूबिसेन्स) । ( वनौषधि चन्द्रोदय भाग ३ पृ० ६) उत्पत्ति स्थान- यह वनस्पति सारे भारतवर्ष में पैदा होती
है।
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विवरण - यह एक झाड़ीदार पौधा होता है। इसका वृक्ष मोगरे के वृक्ष की तरह होता है। इसके फूल भी मोगरे के फूल की तरह होते हैं मगर खुशबू में उससे कम होते हैं। (वनौषधि चन्द्रोदय भाग ३ पृ० ६)
अस्थिय
अत्थिय (अस्थिका) हडसंघारी, हडजोडी भ० २२।३ जीवा० १७२ ० १ ३६।१ अस्थिका के पर्यायवाची नाम -
अस्थि शृंखलिकायां तु शृंखला चास्थिका तथा ||६६९ ॥ अस्थिश्रृंखलिका, श्रृंखला, अस्थिका ये अस्थिश्रृंखला के पर्यायवाची नाम हैं। (सोढल नि० I श्लोक ६६९ पृ० ७६ ) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - हडजोड, हडसंघारी, हडजोडी, हडजोरवा । बं० हाड़भांगा, हाडजोडा। गु० - हाडसांकल । म० काण्डबेल । क० - मंगरवल्ली । ते० - नाल्लेरू, नुल्लेरोतिगे। ता० - पेरंडै। ले०-Vitis Quadrangularis Wall (वाइटिस् क्वॉड्रन्ग्युलेरिस वाल) Fam. Vitaceae (वाइटेसी ) ।
जैन आगम : वनस्पति कोश
उत्पत्ति स्थान- हडजोडी लता जाति की वनौषधि प्रायः गरम प्रदेशों में अधिक होती है। यह वाटिकाओं आदि में लगाई हुई अधिक पायी जाती है।
विवरण- जिस प्रकार लताएं वृक्षों की डालियों से लिपटी हुई फैलती हैं, उस प्रकार यह नहीं बढती पर वृक्षों का सहारा लेकर उस पर चढती और लटकती रहती हैं । काण्ड चौपहल हरा, बीच-बीच में संधियों से युक्त एवं मांसल होता है । संधियों पर सूत्र होते हैं और नवीन काण्ड संधियों पर तन्तुओं के विपरीत दिशा में पत्र होते हैं। पत्र एकान्तर, छोटे वृन्त वाले, हृद्वत्-चौड़े १ से २.५ इंच बडे, मोटे दन्तुर, उपपत्रयुक्त एवं संख्या में अल्प रहते हैं। पुष्प छोटे तथा हरित श्वेत वर्ण के आते हैं। फल गोल करीब ६ मि०मि० बड़े तथा चिकने होते हैं। दक्षिण की तरफ कोमल काण्ड एवं पत्तों का साग बनाकर खाते हैं । काण्ड तोडने पर बहुत रस निकलता है। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ४१८)
अप्पा अप्पा (आत्मन्) आत्मगुप्ता, कौंच
प० १२४०१४
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में अप्पा शब्द वल्ली वर्ग के अन्तर्गत है । आत्मा का प्राकृत में अप्पा रूप बनता है। श्लोक की दृष्टि से कई जगह वनस्पतियों का आधा नाम दिया गया है। आधे नाम से भी उसकी पहचान हो जाती है। आत्मगुप्ता का आधा नाम आत्मा (अप्पा) है आत्मगुप्ता के पर्यायवाची नाम -
कपिकच्छू रात्मगुप्ता, स्वयंगुप्ता महर्षभी ।
लाङ्गूली कण्डूला चण्डा मर्कटी, दुरभिग्रहा ॥ १५१ ॥ आत्मगुप्ता, स्वयंगुप्ता, महर्षभी, लाड्डूली, कण्डूला, चण्डा, मर्कटी, दुरभिग्रहा ये कपिकच्छू के पर्यायवाची नाम हैं। ( धन्व० नि० १।१५१ पृ० ६० ) अन्य भाषाओं में नाम -
हि० - केवॉच, कौंच, कौंछ, केवाछ, खुजनी। बं०आलकुशी । म० खाजकुहिली, कुहिली, कवच । गु० - कवच, कौंचा। क० - नासुगुन्नी । ते० - पिल्ली, अडुगु । ता० - पुनाइक काली, पुनैक्कल्लि । पं० - कवांच, कूंच। अं०- Cowhage (काउहेज), Cowitch (काउइच) | ले० - Mucuna Pruriens
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Malai
H
Bek (म्युक्युना पुरिएन्स बेक्) Fam. Leguminosae
अप्फोता (लेगुमिनोसी
अप्फोता (आस्फोता) अनन्तमूल, श्वेत सारिवा।
जीवा० ३।२९६
आस्फोता के पर्यायवाची नाम - SHIRTH
धवला शारिवा गोपा, गोपकन्या कृशोदरी । स्फोटा श्यामा गोपवल्ली, लताऽऽस्फोता च चंदना ॥२३७॥
धवलशारिवा, गोपा, गोपकन्या, कृशोदरी, स्फोटा,
श्यामा, गोपवल्ली, लता, आस्फोता और चंदना ये नाम श्वेत पत्र, बीफली सारिवा के हैं। पत्र सीस
सारिवा के हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ४२७) अन्य भाषाओं में नाम -
हि०-अनन्तमूल,कपूरी,सालसा।बं०-अनन्तमूल।म०उपलसर, उपलसरी। गु०-उपलसरी, कागडियों, कुंढेर, कपूरीमधुरी।ते०-पालसुगन्धी। ता०-नन्नारी।क०-नमडबेरु।
अ०-Indian Sarasaparilla (इण्डियन सारसापरिला)। INDEE
ले०-Hemidesmus IndicusR.Br. (हेमीडेस्मस्इण्डिकस्) उत्पत्ति स्थान-यह भारतवर्ष के सभी मैदानी भागों में Fam. Asclepiadaceae (एस्कलेपिएडेसी)। एवं लंका तथा वर्मा में पाया जाता है। यह सभी उष्ण प्रदेशों
अनन्तमूलक में होता है एवं इसकी खेती भी की जाती है।
विवरण-इसकी लता पतली चक्रारोही, एक वर्षायु तथा चौमासे में अधिक होती है। पत्ते त्रिपत्रक एवं २.५ से ५.५ इंच लम्बे पर्णवृन्त से युक्त होते हैं। पत्रक ३ से ६ इंच लम्ने पार्श्वपत्रक किञ्चित् हृद्वत् और लट्वाकार एवं अग्यपत्रक तिर्यगायताकार, पतले तथा ऊपर चिकने किन्तु अधरतल पर तलशयी रोमों से युक्त होते हैं। पुष्प नीलारुण, १.५ इंच तक लम्बे, सघन,लटकी हुई और ६ से १२ इंच लम्बी मंजरियों में आते हैं। फली २ से ३ इंच लम्बी, १/२ इंच चौडी, दोनों अग्रों पर विपरीत दिशाओं में टेढी, कुछ फूल सी एवं
उत्पत्ति स्थान-यह इस देश के सब प्रान्तों में विशेषतः लम्बाई में धारियों से युक्त होती है। यह भूरे रंग के करीब १
बिहार, बंगाल, सुन्दरवन, पश्चिमी घाट, मध्य प्रदेश, दक्षिण इंच लम्बे सघन दृढ रोमों से ढकी रहती है। ये रोम शरीर में
एवं लंका में पाई जाती है। लगाने से अत्यन्त खुजली उत्पन्न होकर दाह तथा सूजन उत्पन्न होती है। बीज प्रत्येक फली में ५ से ६ काले चमकीले तथा
विवरण-इसकी लता बहुवर्षायु पतली फैलने वाली या अन्तर्भित्ति के पतले आवरण में ढके रहते हैं। इसकी तरकारी
लपेट कर चढ़ने वाली गुल्म जातीय होती है। मूल स्तंभ बनती है किन्तु सर्वप्रिय नहीं होती।
काष्ठमय होता है। काण्ड पतला, गोल, चिकना या सूक्ष्म (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३५७)
रोमयुक्त लम्बाई में सूक्ष्म धारियों से युक्त एवं पर्व पर मोटा होता है। पत्र विपरीत परन्तु प्रायः दूर-दूर विभिन्न आकार के दीर्घवृत्त आयताकार से लेकर रेखाकार, मालाकार २ से ४ इंच
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लम्बे तथा विभिन्न चौड़ाई के (३से १.५ इंच) ऊपर के चिकने अन्य भाषाओं में नामगहरे हरे रंग के एवं सफेद चिन्हों से युक्त नीचे से हल्के रंग हि०-कमल, पुरइन। बं०-पद्म। उडि०-पदम्। म०के या कभी-कभी श्वेत मृदुरोमश नोकीले किन्तु चौड़े पत्र कमल।गु०-कमलाप०-कवलककरी।क०-बिलिया तावरे। के अग्र कुंठित जालिका विन्यास युक्त एवं ३ से ४ मि० मि० ते०-कलावा, तम्मिपुव्वु। ता०-तामरै, अम्बल। मला०लम्बे पर्णवृन्त से युक्त होते हैं। पुष्प छोटे बाहर से हरिताभ तमर। अ०-कातिलुनहल। अ०- Sacred lotus (सैक्रेड किन्तु भीतर बैंगनी रंग के पत्र कोणीय गुच्छों में आते हैं। फली लोट्स)।ले०-NelumbiumspeciosumWilld (नेलंबियम ४ से ६ इंच लम्बी, पतली, गोल दो-दो एक साथ परन्तु स्पेसिओजम् विल्ड) Fam.Nymphaeaceae (निफिएसी)। अपसारी अग्र की ओर क्रमशः संकुचित होती है। बीज ६ से ८ मि० मि० लम्बे अंडाकार आयताकार चिपटे काले रंग के एवं श्वेत रोमगुच्छ से युक्त होते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ४२७, ४२८)
अप्फोया अप्फोया (आस्फोता) अनन्तमूल, श्वेतसारिवा
प. १४०।३ विमर्श : प्रस्तुत प्रकरण में आस्फोता शब्द वल्लीवर्ग के अन्तर्गत आया है।
आस्फोतः । पुं। स्वनामख्यातलतागुल्मे। देखें अप्फोता शब्द। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १२२)
उत्पत्ति स्थान-यह भारत के सभी उष्ण प्रदेशों में होता
विवरण-यह तालाबों में होने वाला विस्तृत जलीय क्षुप है। इसकी जड़ कीचड़ में फैलती है। पत्र पतले, १ से ३ फुट व्यासके, चक्राकार, चिकने, चमकीले,नतोदरतथा वृन्तगोलायत होते हैं। पत्रनाल- बहुत लम्बा तथा उस पर दूर दूर छोटे-छोटे कांटे होते हैं। फूल एकांकी ४ से १० इंच व्यास में श्वेत या गुलाबी सुगंधित तथा लंबे दंड पर आता है। गर्मी तथा वर्षाकाल में यह फूलते हैं। (भा० नि० पुष्पवर्ग पृ० ४८०)
. अब्भरुह अब्भरुह(अम्भोरुह) कमल
भ. २११२० अम्भोरुह के पर्यायवाची नाम -
पाथो कमलं नभञ्च नलिनाम्भोजाम्बुजन्माम्बुजं। श्रीपद्माम्बुरुहाब्जपद्मजलजान्यम्भोरुहं सारसम्। पङ्कजं सरसीरुहं च कुटपं, पाथोरुहं पुष्करम्।
वार्ज तामरसङशेशय कजे कञ्जारविन्दे तथा ॥१७३॥ शतपत्रं विसकुसुमं सहस्रपत्रं महोत्पलं वारिरुहम्। सरसिज सलिलज पढेरुह राजीवानि वेदवह्निमितानि ॥१७४॥
पाथोज, कमल, नभ, नलिन, अम्भोज, अम्बुजन्मा, अम्बुज, श्रीपद्म, अम्बुरुह, अब्ज, पद्म, जलज, अम्भोरुह, सारस, पङ्केज, सरसीरुह, कुटप, पाथोरुह, पुष्कर, वार्ज, तामरस, कुशेशय, कज,कञ्ज,अरविन्द, शतपत्र, विसकुसुम, सहस्रपत्र, महोत्पल, वारिरुह, सरसिज, सलिलज, पढ़ेरुह तथा राजीव ये सब कमल के चौतीस नाम हैं।
(राज. नि० १०॥१७३ पृ० ३३२)
अयसि कसम अयसिकुसुम (अतसी कुसुम) तीसी के फूल
रा० २६ जीवा० ३।२७९ देखें अयसीपुप्फ शब्द।
अयसी
अयसी (अलसी) तिसी भ. २१।१६ रा० २६ प० १४५।२
देखें अतसी शब्द।
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अरिष्ट के पर्यायवाची नाम -
अरिष्टकस्तु मङ्गल्यः, कृष्णवर्णोऽर्थसाधनः। रक्तबीजः पीतफेनः फेनिलो गर्भपातनः ॥३८॥
अरिष्टक, मङ्गल्य, कृष्णवर्ण, अर्थसाधन, रक्तबीज, पीतफेन, फेनिल और गर्भपातन ये रीठा के पर्यायवाची नाम
अयसी पुप्फ अयसी पुप्फ (अतसी पुष्प) तीसी के फूल उत्त. ३४।६
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में अयसीपुप्फ शब्द नीले रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। अतसी के पर्यायवाची नाम -
अतसी नीलपुष्पी च, पार्वती स्यादुमा क्षुमा ॥६६॥
अतसी, नीलपुष्पी, पार्वती, उमा तथा क्षुमा ये तीसी के संस्कृत नाम हैं। तीसी के फूल नीले रंग के घंटाकार होते हैं।
(भा०नि० धान्यवर्ग० पृ०६५३)
(भा०नि० पृ०५२९) अन्य भाषाओं में नाम__हि०-रीठा। बं०-रीठे गाछ। म०-रीठा, रिठा। गु०अरीठााते०-कुंकड़ाक०-कुकुटेकायिाता०-पोन्नान कोट्टइ। अ०-बुन्दक हिन्दी। फा०-फुन्टुके फारसी। अं०- Soap nut tree of North India (सोपनट ट्री ऑफ नार्थ इंडिया)ले०-Sapindusmukorossigaertn (सेपिन्डस मुकोरोसी)।
अरविंद अरविंद (अरविन्द) नील उत्पल, चक्राकार पत्र वाला
प०१/४६ अरविन्द (आकार, चक्राकार पत्र वाला)
(धन्वन्तरि वनौपधि विशेषांक भाग २ पृ० १३९) अरविन्द के पर्यायवाची नाम -
कोकनदमरुणकमलं रक्ताम्भोजं च शोणपदमंच रक्तोत्पलमरविन्दं रविप्रियं रक्तवारिजं वसवः ॥१७८॥
कोकनद,अरुणकमल, रक्ताम्भोज,शोणपद्म,रक्तोत्पल, अरविन्द,रविप्रिय तथा रक्तवारिज ये सब रक्त कमल के आठ नाम हैं। अन्य भाषाओं में नाम - म०-रक्तकमला क०-कैदावरे। गो०-रक्तपद्म
(राज० नि० १०।१७८ पृ० ३३३)
हष्यफ पास
146. Sapindus mukorossi Gaertn. (Cशा बिग)
अरिट्ठ अरिट्ट (अरिष्ट) रीठा भ० २२।२ प० १।३५।२
विमर्श-भगवती २२।२ में "पुत्तंजीवग अरि?'' पाठ है। प्रज्ञापना १।३५।२ में 'पुत्तंजीवय रिटे' पाठ है। अरिट्ठ और रिट्ठ दोनों का अर्थ रीठा होता है। यदि अ का लोप माने तो अरिट्ठ का रिट्ठ शब्द बनता है। यहां दोनों स्थान पर अरिट्ठ शब्द ग्रहण कर रहे हैं।
उत्पत्ति स्थान-उत्तर पश्चिम भारत, बंगाल तथा आसाम में इसके लगाये हुए पेड़ पाये जाते हैं तथा हिमालय में ४००० फीट तक यह होता है।
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विवरण-इसका क्षुप २० से ३०फीट उंचा सुन्दर होता है। रोगमुक्त होता है, ऐसी कनावार के लोगों की मान्यता है। पत्ते संयुक्त, शाखाग्र पर समूह बद्ध एवं पत्रक १० से १६ गुणधर्म-इसकी जड़ में कृमिनाशक, मूत्रनिस्सारक और भालाकार, आयताकार, एकान्तर या न्यूनाधिक विपरीत विशूचिकानिवारण गुण भी पाया जाता है। सन्धिवात या गठिया तीक्ष्णाग्र या कुण्ठिताग्र चिकने एवं आधार पर तिर्यक् होते हैं। बीमारी में भी लाभदायक सिद्ध हुई है। इसका बफारा दिया पुष्प मंजरियों में १/५ इंच व्यास के एवं श्वेत या बैंगनी रंग जाता है और मूल के क्वाथ या कांटे को पिलाया जाता है।" के होते हैं। फल मांसल पीत या हलके भूरे कुछ गोलाई लिये
(धन्वन्तरि वनौ० विशे० भाग १ पृ० २७३) हुए ३/४ इंच व्यास के तथा पानी में डालने से फेन उत्पन्न करने वाले होते हैं। (भाव०नि० पृ०५३०)
अल्लाई
अलई (शल्लकी) सलईवृक्ष भ० २२।४ जीवा० ३।२८१ अलाई
विमर्श-प्रज्ञापना सूत्र (१३७।१) में सलई शब्द है। अल्लई (अल्ली) अल्लीपल्ली भ० २२।४ जीवा० ३।२८१ प्रस्तुत प्रकरण भगवती सूत्र में सल्लई के स्थान पर आलई है। विमर्श-प्राकृत में एक पद में भी संधि होती है। अल्लई
सल्लई का पर्यायवाची एक नाम वल्लई मिलता है। संभव है एक का अल्ली बनता है। अल्लीपल्ली का संक्षिप्त रूप अल्ली है। संभव
__नाम अल्ल्ई भी हो या अल्लई का संस्कृत रूप शल्लकी बनता है यह अल्ली-पल्ली प्राकृत में अल्लई नाम से व्यवहृत हुई हो। वनौषधि विशेषांक में इस (अल्ली पल्ली) का वर्णन इस प्रकार
देखें सलाई शब्द मिलता है--"निघंटुओं में इसका पता नहीं मिलता। कर्नल कीर्तिकर और मेजर बी. डी. वसु ने अपने ग्रंथ Indian
अल्लईकुसुम Medical Plants में इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार दिया है।
अलईकुसुम (अल्लका कुसुम) जलधनियां नाम-पंजाब की ओर हिन्दी में अल्ली पल्ली और लेटिन में
प०१७।१२७ एसपरगस फायलिसिनस Asparagus Filicinus कहते
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के लिए
अल्लईकुसुम शब्द का प्रयोग हुआ है। जलधनियां के पुष्प पीले उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के समशीतोष्ण प्रदेशों में
रंग होते हैं। (जहां जहां अलियार नामक वनौषधि होती है।) तीन हजार
देखें अल्लकीकुसुम शब्द। फीट से ८५०० फीट की ऊंचाई पर प्रायः काश्मीर से भूटान तक तथा पंजाब, आसाम, वर्मा और चीन में बहुतायत से पाई
अल्लकीकुसुम जाती है विवरण-अलियार के समान ही इसका छोटावृक्ष होता
अल्लकी कुसुम (अल्लका कुसुम) जल धनियां
रा०२८ है। शाखायें इधर-उधर से विस्तार से फैली और चिकनी फसलदार होती हैं। औषधि कार्यार्थ विशेषतः इसकी जड़ ली
अल्लका।स्त्री। धान्यके। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०७७) जाती है। इसकी जड़ बलवर्धक, पौष्टिक तथा संकोचक समझी
विमर्श-अल्लकाशब्द वैद्यकनिघंटु में है। उपलब्ध न होने जाती है। चेचक या शीतला माता के प्रकोप में जैसे रोगी के
से उसके पर्यायवाची नाम नहीं दिये जा रहे हैं। प्रस्तुत प्रकरण हाथों में अलियार की डाली थामाई (पकडाई या धराई ) जाती
राई जाती में अल्लकीकुसुम पीले रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। है, तैसे ही इसकी भी डाली उसके हाथों में देने से वह शीघ्र जल धनियां के पुष्प पीले रंग के होते हैं।
हैं।
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अवका शब्द से शैवाल का ग्रहण समुचित प्रतीत हो रहा है। यह एक जलीय क्षुप है। (अथर्व चिकित्सा विज्ञान पृ० १५६)
असकण्णी असकण्णी (अश्वकर्णी) शाल भ०७६६ प० १४८।१
अश्वकर्णः (कः) (र्णिका) शालवृक्षे।
अश्वकर्णम् (क्ली०) काण्डभननामास्थि भङ्ग विशेषे। यत्रास्थि अश्वकर्णवदुन्नतं तिष्ठति। (वैधक शब्द सिन्धु पृ० ८६) घोड़े के कान के समान को उठी अस्थि अश्वकर्ण है।
(सुश्रुत निदानस्थान अ० १५ पृ० १७४) अश्वकर्ण के पर्यायवाची नाम
शालस्तु सर्जकाश्विकर्णकाः शस्यशम्बरः।
शाल,सर्ज,कार्य,अश्वकर्णक और शस्यशम्बर ये शाल के पर्यायवाची नाम है। (भाव. नि. वटादिवर्ग. पृ. ५२०) अन्य भाषाओं में नाम -
हि०- साल, राल रालवृक्षा बं०-धूना, सखू, साल, सालवा। बम्ब०-साल। गु०-राल। म०-राल, सजारा, रालवृक्षापं०-साल, सरेल। मध्यप्रदेश-साल, रिजंल।कु०
साल। नेपाल-सकवा। अवध० - कोरोह। उर्दू०-राल। विवरण-वत्सनाभ कुल का इसका वर्षायु कोमल, खडा फा०-लोले मोहरी। ता०-शालम् तैलगू-सालुबा। अं0(सीधा) क्षुप १ से ३ फुट ऊंचा, काण्ड व शाखायें-मांसल, "
H The sal tree (दि शाल ट्री)। ले०- Shorea Rubusta पोली। पत्र धनियां के पत्र जैसे कटावदार, कई खंडो में विभक्त, gaerin (
a fauna gaertn (Pirten tarpei) Fam. Dipterocarpaceae नवसादर या राई के समान तीक्ष्ण गंधयक्त। पष्प १४ मे (डिप्टाकापसा)।
१/३ व्यास के श्वेत या पीली पंखुड़ियों से एवं पीले परागकोषयुक्त, सरसों के पुष्प जैसे। फल हेमंत और शिशिर ऋतु में,लम्बगोलाकार, मृदु रोमश, छोटी पीपल जैसे होते हैं।
(धन्वन्तरि वनौ० विशे० भाग ३ पृ० १८९)
शाख
वाड़यों से,
तुम,लम्बीसा के पुष्प
अवय अवय (अवका) शैवाल
प० १४६ अवका (स्त्री) शैवाल (बृहत् हिंदी कोशा)
अवका नाम हदादिजलेषु स्तबकाकारेण प्ररोहन्ती हरितवर्णाः पदार्थाः शैवालानीत्यर्थः।।
अवका तालाब आदि के जल में समूहबद्ध होकर होने वाला हरितवर्ण द्रव्य है। (अथर्व चिकित्सा विज्ञान पृ० १५६)
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उत्पत्ति स्थान - यह उत्तरी भारत में हिमालय के अंदर देहरादून, पालघाट, मोरंग वगैरह पहाड़ों में पैदा होता है। पंजाब की कांगडा डिस्ट्रिक्ट से अंबाले का कालेसर जंगल तक, आसाम की दाराङ्ग डिस्ट्रिक्ट, हिमालय की घाटियों में फीट की ऊंचाई पर, गारों की पहाड़ियां, कामरूप, , खासिया, जैनशियाहिल्स, संताल परगना से गंजम, जयपुर, मध्य प्रदेश विजिगापट्टम, गोदावरी के जंगल और दक्षिण कोरो मंडल से पंचमढ़ी की पहाड़ियों में बहुतायत से पाये जाते हैं।
५०००
विवरण - यह कर्पूरादि वर्ग और सर्ज रसादि कुल का एक बड़ा सरल वृक्ष होता है। मूल पृथ्वी में गहरी उतरी हुई मोटी होती है। तना गहरा रक्ताभि कपिश कठोर और शाखायें साधारण होती हैं। इसके पत्ते एकान्तर सादे १० से ३० सेंटीमीटर तक लंबे और ५ से लेकर १८ सेंटीमीटर तक चौड़े होते हैं। पत्रदंड १ इंची, पत्र मूल की ओर डिम्बाकृति, अग्रभाग क्रमशः नोकीला, घोड़े के कान के समान चिकने और पकने के समय चमकदार हो जाते हैं, जिनमें नसें बहुत स्पष्ट मालूम होती हैं। उपपान होते हैं। केवल फाल्गुन मास को छोड़कर वृक्ष पर बारहों मास पत्ते होते हैं। छोटे वृक्षों की छाल चिकनी होती है। बड़े वृक्षों की छाल १ से २ इंच मोटी ऊबड़-खाबड़ और फटी सी होती है। इसके धड़ में छिद्र करने से जो रस झरता है वो राल कहलाता है।
फूल शाखाग्रोद्भुत गुच्छदार श्वेतवर्ण नरम और लोमयुक्त परन्तु पुराना फीका अंबरी वा उदी। पुष्प पत्रदल फीके पीतवर्ण के १/२ इंच, लंबा और नोकीला वर्शाकृति और लोमश पुष्पदंड, अर्धवृत्ताकार । फल लंबा १/२ इंच, सूक्ष्म कोणी, श्वेत और नरम, कक्ष ५, २ से ३ इंच लम्बा, मूल की ओर नुकीला, पकने पर धूसर वर्ण, असमान, १० से १२ समान्तराल शिरायें होती हैं। मार्च में फूल आते हैं और मई जून मास में फल आ जाते हैं।
( धन्वन्तरि वनौ० विशे० भाग ६ पृ० ६१-६२)
असण
असण (असन) असन,
विजयसार
असन के पर्यायवाची नाम -
भ० २२/२ प० १।३५/३
असने तु महासर्ज:, सौरि बंधूकपुष्पकः ।
जैन आगम : वनस्पति कोश
प्रियको बीजकः काम्यो, नीलकः पीतशालकः ॥ ६०८ ।। असन, महासर्ज, सौरि, बन्धूकपुष्पक, प्रियक, बीजक, नीलक, पीतशालक, ये असन (विजयसार) के पर्यायवाची नाम हैं। (सोढल नि० प्रथमो भाग श्लोक ६०८) अन्य भाषाओं के नाम
हि० - विजयसार, विजेसार, विजैसार। बं०-पियाशाल, पीताल। म० - बिबला । गु० - बीयों । ते ० - बेगि क० - होनेमर । मा०-बिजैंसार | अ० - दम्भउल अखवैन हिन्दी । अं० - Indian Kino Tree (इण्डियन काइनोट्री ) । ले०- Pterocarpus marsupium Roxb टेरीकार्पस, मार्सुपियम | Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी) ।
आसन असली नं. १
(विजयसार) Terminalia tomentosa Bedd.
शाख
पुष्प
कटाफल
उत्पत्ति का स्थान - यह दक्षिण भारत, बिहार और पश्चिमी प्रायद्वीप में होता है।
विवरण- इसका वृक्ष सुंदर बहुत बड़ा किन्तु अचिरस्थाई होता है। छाल तिहाई इंच मोटी पीताभ धूसर रंग की खुरदरी होती है। पत्ते पक्षवत् एवं ५ से ७ पत्रक युक्त, जो आयताकार या अंडाकार, ३ से ५ इंच लंबे कुंठित या नताग्र, ऊपरी तल पर चमकीले एवं प्रधान शिरायें अनेक एवं स्पष्ट होती हैं। फूल चौथाई इंच के घेरे में किंचित् पीले या सफेद मंजरियों में आते हैं । फलियां १ से २ इंच व्यास में गोल व चिपटी होती है। जिसमें
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छोटे बीज होते हैं। छाल में घाव करने से लाल रस निकलता हि०-हरी दूब, बं०-नील दूर्वा। म०-नीली दूर्वा। गु०है जो कुछ दिनों में सूखकर काला और कड़ा हो जाता है। नीला ध्रो।क०-हसुगरूके ।ते०-दुर्वालु। ता०-अरुगम् पुल्ल। इसको उबालकर सुखाकर काम में लाते हैं। इसको मलावार उरिया-दुवा अं०-Creeping cynodon (क्रीपिंग साइनोडन)। काइनो कहते हैं।
ले०-cynodon Dactylon (साइनोडन टैक्टिलन)। ____ यह गाढ़ेवाल रंग के चमकीले पहलदार टुकड़ों में होता है। इसे किनारे से देखने से मानिक की तरह लाल या पारदर्शक दिखलाई देता है। इसको तोडने से भरे रंग का चरा निकलता है तथा सतह चमकीली होती है। इसे चबाने से यह दांत में चिपकता है तथा लार लाल हो जाती है। इसमें गंध नहीं होती. स्वाद कषाय रहता है। रखने से इसका कषायत्व कम हो जाता है। इसके गोंद एवं काष्ठसार का उपयोग किया जाता है
_ (भाव० नि० पृ० ५२४, ५२५)
असणकुसुम असणकुसुम (असमकुसुम) विजयसार के फूल
उत्त० ३४८ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में असण कुसुम' शब्द पीले रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। विजयसार के पुष्प पीले
विवरण-इसके प्रत्येक कांड. प्रत्येक पर्व से प्ररोह होते हैं। विवरण-बिजैसार के पुष्प छोटे-छोटे नीम के पुष्पों जैसे
निकलकर पृथ्वी में प्रतिष्ठित होता है। जिस प्रकार क्षत्रिय राष्ट्र तुरों में पीताभ वर्ण के शीतकाल के प्रारंभ में निकलते हैं। पुष्प
में प्रतिष्ठित होता है। इसलिए इसे औषधियों में क्षत्रिय कहा चौथाई इंच के घेरे में बन्धूक या गुलदुपहरिया के पुष्प जैसे
लदपहरिया के पष्प जैसे जाता है। अन्य औषधियां लोमसदृश कही गई हैं। जबकि दुर्वा होते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ४११) को उनका प्राणरस कहा गया है। इसलिए यह उनमें प्रधान
औषधि कही गई है। इसके पुष्प का भी वर्णन मिलता है। असाढय
(अथर्व चिकित्सा विज्ञान पृ० २६२) असाढय ( ) नील दूर्वा, शतमूला ५० १४२।१
असोग विमर्श-पाठान्तर में आसाढय शब्द है तथा भगवती सूत्र
___ असोग (अशोक) अशोक वृक्ष में भी आसाढय शब्द है। प्रस्तुत प्रकरण में यह शब्द तृणवर्ग
भ० २२।२ जीवा० १७१ १० १।३५।३ के अन्तर्गत है। संस्कृत में आषाढा शब्द तृणवाचक है। इसलिए
अशोक के पर्यायवाची नाम - यहां आसाढय शब्द ग्रहण किया जा रहा है। __ आसाढय (आषाढा) दूर्वा, शतमूला।
अशोकः शोकनाशश्च, विचित्रः कर्णपूरकः। आषाढा के पर्यायवाची नाम -
विशोको रक्तको रागी, चित्र: षटपद्मजरी ॥१४६॥ आषाढा, सहमाना, सहस्रवीर्या, सहस्रकाण्ड, शतमूला,
अशोक, शोकनाश, विचित्र, कर्णपूरक, विशोक, रक्तक, शतांकुरा अवद्विष्टा, शपथयोपनी आदि दर्वा के पर्यायवाची रागी, चित्र और षट्पदमंजरी ये अशोक के पर्यायवाची नाम शब्द हैं। (अथर्व चिकित्सा विज्ञान पृ० २६२)
(धन्यः नि०५।१४६ पृ० २६६) अन्य भाषाओं में नाम -
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अन्य भाषाओं में नाम -
हैं। इसीलिए इसको ताम्रपल्लव कहते हैं। बसन्त ऋतु में इस पर हि०-अशोकाबं०-अशोकाम०-अशोकागु०-अशोक। फूल तथा शरद् में फल आते हैं। पुष्प सघन गुच्छों में आते क०-अशोक। ता०-अचोकम्। ले०-Saraca Indica ___ हैं और वे नारंगी रंग से लेकर अत्यन्त रक्तवर्ण तक परम Linn (सराका इन्डिका) Fam. Leguminosae सुहावने होते हैं। इसमें कोणपुष्पक एवं बाह्यदल रंगीन होते (लेग्युमिनोसी)।
हैं। बाह्य दल ४ तथा आयताकार होते हैं। आभ्यन्तर दल नहीं रहते। पुंकेशर ७ से ८ करीब १ इंच लंबे एवं गहरे लाल रंग के होते हैं। फलियां ६ से १० इंच तक लंबी, चिपटी १ से डेढ़ इंच चौड़ी तथा दोनों सिरों पर कुछ-कुछ टेढ़ी होती हैं। प्रत्येक फली में ४ से ८ तक बीज रहते हैं। बीज १ से डेढ़ इंच लंबे एवं कुछ चिपटे रहते हैं। (भाव० नि० पुष्पवर्ग पृ० ५०१)
INS
उत्पत्तिस्थान-यह मध्य और पूर्वी हिमालय, पूर्व बंगाल और दक्षिण भारत में पाया जाता है तथा अनेक प्रकार की वाटिकाओं में भी देखने में आता है। बंगाल में इसका अधिक आदर है और प्रायः वहां के सब वाटिकाओं में देखा जाता है।
विवरण-इसका वृक्ष बड़ा सीधा और झोपडाकार होता है। तथा यह बारहों मास हरा भरा दिखाई पड़ता है। लकड़ी हलकी किंचित् लाली युक्त भूरे रंग की होती है। पत्ते सम पक्षवत् एवं पत्रक पतली-पतली टहनियों पर ३ से ६ जडे रहते हैं और वे ३ से ९ इंचलंबे आयताकार या आयताकार प्रासवत् चिकने, तीक्ष्ण या लंबाग्र एवं चर्मल होते हैं। नई-नई टहनियां नीचे की ओर झुकी हुई रहती हैं और उनके पत्ते अत्यन्त कोमल एक दूसरे से सटे हुए तांबे के रंग के लाल मनोहर दिखाई देते
असोग असोग (अशोका) कुटकी, अशोक रोहिणी लता।
जीवा० ३१५८४ जं० २।११ प० १।३९।१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में असोग शब्द लता वर्ग के अन्तर्गत प्रयुक्त हुआ है। अशोकरोहिणी लता है उसका संक्षिप्तरूप अशोक है। संस्कृत भाषा में इसका एक नाम अशोका है। अशोका के पर्यायवाची नाम -
कट्वी तु कटुका तिक्ता, कृष्णभेदा कटम्भरा ॥१४॥ अशोका मत्स्यशकला, चक्राङ्गी शकुलादनी॥ मत्स्यपित्ता काण्डरुहा, रोहिणी, कटुरोहिणी ॥१५॥
कट्वी, कटुका, तिक्ता, कृष्णभेदा, कटम्भरा, अशोका, मत्स्यशकला, चक्राङ्गी, शकुलादनी, मत्स्यपित्ता, काण्डरुहा। रोहिणी और कटुरोहिणी ये सब कुटकी के संस्कृत नाम हैं।
(भाव० नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ०६९) अन्य भाषाओं में नाम -
हि०-कुटकी, कटुकी, कटुका। बं०-कटकी। म०केदारकडू।ते०-कटुकुरोणी।क०-कटुकरोहिणी कटुकरोहिनी। ता०-कटुकुरोगणी। फा०-खब के हिन्दी। अ०-सर्व के अस्वद, खाने खस्वैल। अं०-Picrorhiza, (पिक्रोहाइझा)। ले०-Picrohiza Kurroa Royle ex Benth (पिकरोह्राइझा कुरों) Fam. Serophulariaceae (स्करोफ्युलॅरियासी)।
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असोगलया असोगलया (अशोकलता) अशोका, अशोक रोहिणी
ओ० ११ जीवा० ३५८४। देखें असोग (अशोका) शब्द।
Aam
AMAN
असोगवण असोगवण (अशोक वन) अशोक का वन
रा० १७० जीवा० ३१३५८
अस्सकण्णी अस्सकण्णी (अश्वकर्णी) साल
भ० ७६६ जीवा० १७३ उत्त० ३६९९ देखें असकण्णी शब्द।
अस्सत्थ अस्सत्थ (अश्वस्थ) पीपल देखें आसोत्थ शब्द।
ठा० १०१८२।१
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय पहाड़ की ९००० से १५००० फीट ऊंची चोटियों पर काश्मीर से सिक्कम तक बहुत उत्पन्न होती है।
विवरण-इसका क्षुप रोमश होता है। इसका भौमिक तना बहुवर्षायु छोटी उंगली के समान मोटा एवं ६ से १० या १२ इंच तक लंबा होता है। पत्ते २ से ४ इंच लंबे, सुवाकार, जड़ की ओर संकुचित आगे की ओर चौड़े, किंचित्, चिकने और कटे हुए झालदार किनारे वाले होतेहैं। क्षुप के बीच से एक डंडी निकलती है, जिसके अंत में फूलों के गुच्छे लगते हैं। फूल नीले या सफेद रंग के आते हैं। फली चौथाई इंच की होती है। कुटकी इस क्षुप के मूल को कहते हैं।
(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ०७०)
आढई आढई (आढकी) अरहर
प० १६३७१ आढकी के पर्यायवाची नाम -
आढकी तुवरी तुल्या, करवीरभुजा तथा। वृत्तबीजा पीतपुष्पा, श्वेता रक्ताऽसिता॥८२॥
तुवरी, करवीरभुजा, वृत्तबीजा, पीतपुष्पा ये आढकी के पर्याय है।
(धन्व० नि० ६८२ पृ० २६९) अन्य भाषाओं के नाम -
हि०-अरहड़, अडहर, रहर, रहरी, रहड़, तूर। बं०आहरी, अडर। मं०-तुरी, तूर। गु०-तुरदाल्य, तुवर। क०तोगारि। ते०-कंदुलु। ता०-तोवरै। फा०-शारवल। अ०शाखुल, शांज। अं०-Pigeon Pea (पीजन पी) Red gram (रेडग्राम)।ले०-cajanus Indicusng (केजेनस इन्डीकस) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)।
असोगलता असोगलता (अशोक लता) अशोका, अशोक रोहिणी
जं० २।११ १० ११३९।१ देखें असोग (अशोका) शब्द।
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उत्तम मानी जाती है। पीली,काली अरहर भी कहीं-कहीं पायी जाती है।
(वनौषधि विशे० भाग०१ पृ० २४६)
आमलक आमलक (आमलक) आमला। भ० २२॥३
विमर्श-प्रज्ञापना १।३६।१ में आमलग शब्द है। दोनों में समानता है। प्रज्ञापना सत्र में आमलग शब्द बहबीजक वर्ग के अन्तर्गत आया है। प्रज्ञापना की टीका में लोक प्रसिद्ध आमला ग्रहण न कर देश विशेष में हो वाले आमला का संकेत दिया है। आमले के भीतर १ गुठली होती है और उसमें ६ बीजों का उल्लेख मिलता है। नीचे इस तथ्य का स्पष्टीकरण दिया जा रहा
VV
अडहर.
उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में इसकी खेती की जाती है।
विवरण-इसका वृक्ष ४ से १० फीट ऊंचा एवं झाड़दार होता है। पत्ते त्रिपटक रहते हैं। पत्रक डेढ़ से २ इंच लंबे एवं आयताकार भालाकार होते हैं। इनके अधः पृष्ठ पर सूक्ष्म ग्रंथियां होती हैं। पुष्प पीले एवं बैंगनी धारी युक्त होते हैं। फलियां २ से ४ इंच लम्बी होती हैं। प्रत्येक फली में ३ से ५ तक बीज रहते हैं। बीज को ही अरहर कहते हैं। यद्यपि इसके अनेकों भेदोपभेद होते हैं तथापि इसके दो प्रकार अरहर एवं तूर होते हैं।
(भाव०नि० पृ० ६४८) ___ अरहर-यह दो प्रकार की होती है (१) एक तो वह जो प्रतिवर्ष होती है, जिसका पौधा दो या तीन हाथ ऊंचा होता है और दाल आकार में बड़ी होती है। (२) दूसरी वह जो तीन या चार वर्षों तक फलती फूलती रहती है। इसका पौधा ५ से ८ हाथ तक ऊंचा बढ़ता है तथा इसका काण्ड भी काफी मोटा होता है। जो घरों के छप्पर वगैरह में लगाया जाता है। इसकी दाल ता आकार म छाटा होता है। वणभद स श्वत आर लाल इसको दो मुख्य जातिया होता है। श्वत की अपेक्षालाल अरहर
नवरमिहामलकादयो न लोकप्रसिद्धा:प्रत्तिपत्तव्याः तेषामेकास्थिकत्वात् किन्तु देशविशेषप्रसिद्धबहुबीजका एव केचना
(प्रज्ञापना टीका पत्र ३२) यहां आमलक आदि लोक में प्रसिद्ध है उनको नहीं लेना चाहिए क्योंकि उनमें एक गुठली (अस्थि) होती है। किन्तु किसी देश में होने वाले बहुबीजक आमलक ही लेने चाहिए। आमलक के पर्यायवाची नाम -
वयस्थाऽऽमलकं वृष्यं, जातीफलरसं शिवम्। धात्रीफलं श्रीफलं च, तथाऽमृतफलं स्मृतम्॥२१५॥
आमलक,वयस्था,वृष्य, जातीफलरस, शिव, धात्रीफल, श्रीफल तथा अमतफल ये वयस्था के पर्याय हैं।
(धन्व० नि० १।२१५ पृ०७९) अय भाषाओं में नाम
हि०-आमला, आंवला, आंवडा, आंवरा, औडा, औरा। बं०-आमला, आमरो, अमला, आमलकी। म०-आवले, आवली, आवलकाठी। प०-आमला, अम्बुल, अम्बली। मा०-आंवला। गु०-आंवला, आमला, आंमला, आमली। क०-नेल्लि, नेल्लिकायि। ते०-उसरिकाय, उसरिक। उ०अण्डा। आसा०-अमला, आमलकी।गारो०-अम्बरी।ता०नेल्लिमरं, नेल्लिकाय। ब्रह्मा-शब्जु जिफियूसी।फा०-आमलज, आमलज, आमलय, आमलह, आमलाह, आम्लझ। अ०आमलज्ज।अं०-Indian gooseberry (इन्डियनगूसबेरी)। ले०-Phyllanthusemplication (फाइलेन्थस एम्ब्लिका)। Famharhinde (यफरबियेसी)।
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(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ०११) आमले के अन्दर की गुठली में तीन कोष होते हैं तथा प्रत्येक कोष में दो-दो त्रिकोणाकार बीज पाए जाते हैं।
(धन्व० वनौ० वि० भाग १ पृ० ३६२)
OVEM4
आमलग आमलग (आमलक) आमला, आंवला
भ० २२।३ जीवा ११७२ देखें आमलक शब्द।
Ear
आमला.
आय आय (आय) आय
भ० २३।३ प० १४७ विमर्श-आय कुहण (भूमि स्फोट) वर्ग के अन्तर्गत है। इस वर्ग की कुछेक वनस्पतियों के नाम उपलब्ध हैं। लेकिन इनके प्रकारों की संख्या हजारों में है। इसलिए लगता है आय नामक एक कुहण वनस्पति भी होनी चाहिए।
भूमि विस्फोट-वर्षाऋतु में जमीन को फोड़कर फूट उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष के प्रायः सभी उष्ण प्रदेशों में निकलने वाले कुकरमुत्ते, बिल्ली के टोप अथवा झोंप फोडों बागी और जंगली दोनों प्रकार का पाया जाता है। विशेष कर का यह वर्ग है। इस वर्ग की वनस्पतियों का अभ्यास क्लिष्ट उत्तर भारत, अवध, बिहार, और पूर्वी प्रदेशों में इसकी उपज है। वर्षा में सड़ी हुई लकड़ियों पर और वृक्षों पर इस वर्ग की अधिक है। हिमालय पहाड के नीचे जम्बू से पूर्व की ओर तथा वनस्पतियां उग जाती हैं। चमडे, कागज, रोटी आदि पर सफेद दक्षिण की ओर सिलोन तक उत्पन्न होता है। चीन एवं मलय अस्तर जैसी फफूंद जम जाती है वह भी इसी वर्ग की वनस्पति द्वीप में भी मिलता है।
है। इस वर्ग की कुकुरमुत्ते जैसी कुछ वनस्पतियां विषैली हैं। विवरण-इसका वृक्ष मध्यमाकार का सुहावना होता है कुछ शाक के रूप में खाई भी जाती हैं। काश्मीर में लछी अथवा किन्तु जंगली वृक्ष ऊंचे कद का बड़ा होता है। छाल चौथाई गुच्छी नाम की वनस्पति इसके शाक के लिए खूब प्रसिद्ध है। इंच मोटी हल्के खाकी रंग की एवं छिलकेदार होती है। लकड़ी संसार में फूग के २८५० कुटुम्ब हैं जिनमें ७५००० लाल रंग की और मजबूत होती है। इसमें सारभाग नहीं होता। पचहत्तर हजार प्रकार की वनस्पतियां हैं। १९३८ ई० वर्ष में पत्ते छोटे-छोटे इमली के पत्तों के समान और फूल लाई के भारत में फूग की ३४८० किस्में गणना में आई थीं। प्रतिवर्ष दानों के समान हरापन युक्त पीले रंग के गुच्छों में शाखाओं भारत के विभिन्न राज्यों में से फूग की अनेक किस्मों की में सटे रहते हैं। वसन्त ऋतु में जब इस के पुराने पत्ते झड़ जाते जानकारी प्राप्त होती जाती है। (निघंटु आदर्श उत्तरार्द्ध पृ० ७७८) हैं तब वृक्ष पत्रशून्य दिखाई पड़ता है। फूलों में नीबू के फूल के समान मन्द सुगंध आती है। फल डालियों से सटे हुए दिखाई
आलिसंद पड़ते हैं। वे गोल चमकदार और छ रेखाओं से युक्त होते हैं। आलिसंद ( )चवला, राजमाष। प० १४५।१ सूखने पर काले रंग के होकर फांके पथक-पथक हो जाती विमर्श-आलिसंद शब्द संस्कृत भाषा का शब्द नहीं है। हैं और साथ ही गुठली भी फट जाती है। उनसे त्रिकोणाकार
यह महाराष्ट्री भाषा का शब्द है। टीकाओं में इसका अर्थ
चवला किया गया है। इसलिए यहां चवला का अर्थ ग्रहण छोटे-छोटे बीज निकलते हैं। बीजों से तेल निकलता है। बीज
किया जा रहा है। देखें आलिसिंदग शब्द। से ही इसके पौधे उत्पन्न होते हैं।
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आलिसिंदग
आलिसिंदग (
ठा० ५/२०९. भ० २१/१५
अलिसिंदगा चवलया। स्था० वृत्ति पत्र ३२७ विमर्श - आलिसिंदग, आलिसंद और आलिसंदग ये सारे शब्द चवला अर्थ के वाचक हैं। स्थानांग वृत्ति और महाराष्ट्री तथा कन्नड़ भाषा के अलसंद शब्द के आधार पर निर्णय कर सकते हैं कि आलिसंद शब्द चवला का ही द्योतक है। राजमाष के पर्यायवाची नाम -
) चवला, राजमाष
राजमाषो महामाष चपलश्च बलः स्मृतः।
राजमाष, महामाष, चपल, बल ये राजमाष के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० धान्यवर्ग पृ० ६४५ ) अन्य भाषाओं के नाम -
हि० - राजमाष, बोडा, चौरा, लोबिया । बं० - बरबटी, कलाय, , बर्बटी । म० - चवळया, अलंसदे। गु० - चोळा । क०अलसंदे। ते० - अलसन्दलु । ता०-करामणि । फा० - लोवह, लोबिया | अ० - फरिका, फिरीका। अं० - Chinese Beans (चाइनीज बीन) Cowpeas (कापीज) । ले०- Vignacatiang (विग्नाकॅटियङ्ग ) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी) ।
लोबियां
उत्पत्ति स्थान- इसकी अनेक स्थानों पर खेती की जाती है। विवरण - यह वर्षायु अनेक मांसल पतले काण्ड के द्वारा
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जमीन पर फैलने वाला क्षुप है। पत्ते त्रिपत्रक एवं लम्बे वृन्त वाले, पत्रक बड़े, गहरे हरे एवं अंडाकार होते हैं। पुष्प पर्व से ३ से ६ एक साथ, एक इंच व्यास के श्वेत, हल्के, गुलाबी, हलके नीले रंगों के भेद से दो तीन प्रकार के होते हैं जो मुरझाने के समय भीतर से पीले होजाते हैं। फली पतली गोल एवं विभिन्न प्रकार के अनुसार भिन्न-भिन्न लम्बाई की होती है। लम्बी १८ इंच से २ फीट तक एवं छोटी ४ से ५ इंच तक हुआ करती है। बीज फली के अनुसार छोटे तथा बड़े एवं रंग के प्रकार के अनुसार क्रीम जैसे भूरे, फीके, लाल, हलके, बैंगनी या काले हुआ करते हैं । (भा०नि० पृ० ६४५)
आलुग
आलुग (आलुक) आलु आलुक के पर्याय वाची नाम -
C
आरूकं वीरसेनश्च, वीरं वीरारुकं तथा । आरुकमप्यालुकं तत्कथितं वीरसेनकम्॥ ९४॥ आरूक, वीरसेन, वीर, वीरारुक, आरुक, आलुक, वीरसेन ये आलुक के संस्कृत के नाम हैं।
(भाव० नि० शाकवर्ग० पृ०६९४)
पौधा
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - आलू । म०- बटाटा गु०-पापेटा। बं०- गोलालु । अं० - Potato (पोटाटो) ले० - Solanum Tuberosum' (सोलेनम ट्युबरोझम्)।
'मूल'
प० १/४८/२
1
एका
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उत्पत्ति स्थान-भारत के कुछ स्थानों को छोड इसकी उपज प्रायः सर्वत्र ही होती है।
विवरण-इस प्रजाति में अनेक जातियां होती हैं। भारत में करीब ५० जाती हैं, जिनमें कुछ वन्य एवं कुछ कृषित होती हैं। इनमें दो मुख्य प्रकार की लताएं होती हैं, एक वामावर्त तथा दूसरी दक्षिणावर्त। ये वर्षायु लताएं होती हैं, जिनमें से कृषित के कंदों का उपयोग खाने के लिए किया जाता है। भावप्रकाशकार इसके आकार, रंग, स्वाद आदि के आधार पर अनेक भेद लिखते हैं। जितनी जातियां भारत में होती हैं उनमें अनेक प्रकार के कंद पाए भी जाते हैं। इनमें बहुत बडे लंबे गोल, बहत गहराई में होने वाले, सतह के पास होने वाले, एकाकी गुच्छों में अनेक, मुलायम, कठोर, रोएंदार, बिना रोएंदार आदि प्रकार पाये जाते हैं। इनमें से कुछ लताओं में ऊपर पत्रकोणों में छोटी कन्दवत् रचनाएं भी पाई जाती है।
(भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०६९५)
पिप्पल, केशवावास, चलपत्र, पवित्रक, मङ्गल्य,श्यामल, बोधिवृक्ष, गजाशन, श्रीमान्, क्षीरद्रुम, विप्र,शुभद, श्यामलच्छद, गुह्यपत्र, सेव्य, सत्य, शुचिद्रुम, चैत्यद्रुम, धर्मवृक्ष और चन्द्रकर ये अश्वत्थ के पर्यायवाची हैं।
(धन्व० नि० ५/७१.७२ पृ० २४१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पीपल वृक्षा ब०-अश्वत्थ। म०-पिंपल। क०अरलो। गु०-पीपलो। ते०-राविचेटुं। ता०-अरशमरम्। फा०-दरख्तेलरंजा। अ०-शज्रतुलमुर्तअशा ले०-Ficus Religiosa(फाइकस् रिलीजिओसा)Fam.Moraceae (मोरेसी)। । (मोरेसी)। *
14
Ao
आलुय आलुय (आलुक) आलु।
भ०७/६६,२३/१ जीवा० १/७३ उत्त० ३६/९६ देखें आलुग शब्द।
वृक्ष
आसाढय आसाढय (आषाढा) दुर्वा, शतमूला
देखें असाढय शब्द।
भ०२१/१९
उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष देश के प्रायः सब प्रान्तों में आसोत्थ
लगाये हुए पाये जाते हैं और हिमालय के जंगलों, बंगाल तथा आसोत्थ (अश्वत्थ) पीपल भ० २२/३ प० १/३६/१ । मध्यभारत में भी पाए जाते हैं। अश्वत्थ के पर्यायवाची नाम
विवरण- इसका वृक्ष बहुत ऊंचा होता है और खूब पिप्पल: केशवावास श्चलपत्रः पवित्रकः।
फैलता है। पत्ते गोलाकार और नोकीले होते हैं। पत्रदण्ड लंबा मङ्गल्यः श्यामलोऽश्वत्थो बोधिवृक्षो गजाशनः।। ७१॥ होता है। इसमें भी वड के समान छोटे-छोटे गोल फल लगते श्रीमान् क्षीरद्रुमो विप्रः शुभदः श्यामलच्छदः। हैं। इसकी छाया सघन और प्रिय होती है। पीपल वृक्ष पवित्र पिप्पलो गुह्यपत्रस्तु, सेव्यः सत्यः शुचिद्रुमः।। ७२॥ माना जाता है।
(भाव०नि०वटादिवर्ग० पृ०५१४) चैत्यद्रुमो धर्मवृक्ष: चन्द्रकर मिताह्वयः।।
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इंदीवर
इंदीवर ( इन्दीवर) नीलकमल
इन्दि (न्दी) वरम्। क्ली० । नीलपद्मे ।
इक्कड
भ० २१/२१ प० १/४४/२
इक्कड (इक्कट) इकडी
इक्कटः। पुं। तृणविशेषे। तत्पर्याय :- बहुमूल : (त्रि) कोशाङ्गः, इत्कटः, (हारीत) बहुमूलक : (भा)
(वैद्यक शब्द सिन्धु० पृ० १२४ ) इक्कट (पुं) (सं) एक तरह का सरकंडा, जिसकी चटाई बनती है। (बृहत् हिन्दी कोश) इत्कटः । पुं । सूक्ष्मपत्रिका दीर्घलोहितयष्टिका काण्डविशेषरूपा ' इकडी ' इति लोके । ( अरुणदत्तः, अष्टांग हृदय सूत्र १५ / २४ )
(आयुर्वेदीय शब्द कोश पृ० १८० )
इक्खु (इक्षु) ख
इक्षु के पर्यायवाची नाम
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० १२५ )
इक्खु
भ० २१/१८
प० १/४१/१
इक्षुः कर्कोटको वंशः, कान्तारो वेणुनिस्वनः ।। १०९ ॥ कर्कोटक, वंश, कान्तार और वेणुनिस्वन ये इक्षु के पर्याय
( धन्व० नि० ४ / १०९ पृ० २१० )
हैं। अन्य भाषाओं में नाम
हि० - ईख, गन्ना, गांडा, पोंडा, ऊषा बं०- आक, कुशिर । म० - ऊष । गु० - शेरडी नूं मूल। क०- कबु, कब्बिनमेरु । ते०चिरकु । फा०-नेशकर । अ०- कस्नुसशक्कर । अंo - Sugar Cane (सुगर के न ) । ले०- Saccharum Officinarium (सेक्कॅरम् ऑफिसिनेरम्) । Fam. Gramineac (ग्रॅमिनी ) ।
एय
"ईव
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पत्र
'ईश्खा कटी हुई
मूल
उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष के समस्त उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में ईख की लंबे परिमाण में खेती की जाती है । जाडे के अंत में तथा ग्रीष्म में समूचा गन्ना बाजारों में बिकता है।
विवरण - यह शरजाति का क्षुप है। जिसके कांड (डंठल) में मीठा रस भरा रहता है। इसका काण्ड १८ मीटर से ३६ मीटर (६ से १२ फुट) ऊंचा होता है। जिस पर ६-६ या ७-७ अंगुल पर गांठें होती है और सिरे पर लंबी ९० से० मी० से १२० से० मी० या ३ से ४ फुट लंबी ५ से० मी० से ७५ से० मी० या २ से ३ इंच चौड़ी पत्तियां होती हैं, जिनको गेंडा कहते हैं । काण्ड पर भी सूखी कांड संसक्त पत्तियां होती हैं, जिनको पताई कहते हैं। यह जलाने पर तथा छप्पर एवं चटाई बनाने के काम आती है। पुष्पों की चूडा सरपत की तरह पक्षतुल्य होती है। अरब की फसल तैयार होने में प्राय: १२ महीना लग जाता है। इसके काण्ड को कोल्हू में दबाकर रस निकाला जाता है, जिसे पकाकर गुड, खांड और देशी शक्कर बनाई जाती है।
(वनौषधि निदर्शिका पृ० ४८, ४९ )
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इक्खुवाडिया
इक्खुवाडिया (इक्खुवाटिका) पुण्ड्रक नामक ईख उंबर (उम्बर) गुलर का भेद
प० १/४१ / १
इक्षुवाटिका (टी)। स्त्री । पुण्ड्रकेक्षौ । करङ्कशालीक्षौ (वैद्यक शब्द सिन्धु० पृ० १३३)
पुण्ड्रक के पर्यायवाची नाम
पुण्ड्रकस्तु रसालः स्यात्, रसेक्षुः सुकुमारकः । कर्बुरो मिश्रवर्णश्च, नेपालेक्षुश्च सप्तधा ॥ ८५ ॥ पुण्ड्रक, रसाल, रसेक्षु, सुकुमारक, कर्बुर, मिश्रवर्ण तथा नेपालेक्षु ये पुंड्रेक्षु के सात नाम हैं।
अन्य भाषाओं में नाम
म० - पुण्डाऊँस । क० - वासरकबु । गौ० - पुंडो आक, छांचि आव् (राज० नि० वर्ग १४/८५ पृ०४८९) इक्खुवाडिया (इक्षुवाटिका) करङ्क शालि नामक ईख का भेद । इक्षुवाटिका (टी) | स्त्री । पुण्ड्रकेक्षौ । करङ्कशाली क्षौ । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १३३ )
प०१/४१/१
इक्षुवाटिका के पर्यायवाची नामअन्यः करङ्कशालिः स्यादिक्षुवाटी क्षुवाटिका ।
यावनी चेक्षुयोनिश्च, रसाली रसदालिका ॥ ८७ ॥
करङ्कशालि, इक्षुवाटी, इक्षुवाटिका, यावनी, इक्षुयोनि, साली तथा रसदालिका ये सब करङ्क (रसाली) गन्ना के नाम
हैं।
अन्य भाषाओ में नाम
म० - रसदालि । क० - रसालऊंस ।
(राज० नि० १४/८७ पृ० ४८९, ४९० )
उंबभरिय
उंबभरिय ( ) वायविडंग
भ० २२/२
विमर्श - प्रज्ञापना १ / ३५ / २ में उंबभरिय के स्थान पर बेभरिया शब्द है। इसलिए इस शब्द के अर्थ के लिए बेभरिया शब्द देखो।
उंबर
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ठा० १०/८२/१५० २२/३ जीवा १/७२ प० १ / ३६ / १ विमर्श - मराठी और गुजराती भाषा में गूलर को उंबर और उम्बरो कहते हैं। संस्कृत भाषा में भी उम्बर शब्द है। पर उदुम्बर शब्द अधिक प्रचलित है।
उम्बरः । पुं । उदुम्बरवृक्षे । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १५३ ) निघंटुओं मे उदुम्बर शब्द मिलता है, उम्बर नहीं मिलता है। उदुम्बर के पर्यायवाची नाम
उदुम्बरो जन्तुफलो, यज्ञाङ्गो हेमदुग्धकः ॥
उदुम्बर, जन्तुफल, यज्ञाङ्ग और हेमदुग्धक ये गूलर के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० वटादिवर्ग० पृ०५१७)
अन्य भाषाओं मे नाम
हि० - गूलर, गुल्लर | बं०--यज्ञडुमुर । म० उम्बर, उम्बरा चे झाड । गु० - उम्बरो, ऊमरडो । क० अतिमर । अ० - ज़मीज । ते०- अतिचेट्टु । ता०- अत्तिमरं । फा० - अंजीरे आदम, समरपिस्ता | ले० - Ficusglomerata(फाइकसग्लोमेरटा) Fam. Moraceae (मोरेसी) ।
उत्पत्ति स्थान - समस्त भारत वर्ष में ६००० फुट (१८२८ मीटर की ऊंचाई तक गूलर के लगाये हुए तथा जंगली दोनों प्रकार के वृक्ष मिलते हैं। सदाबहार जंगलों एवं नदी, नालों के किनारे इसके वृक्ष अपेक्षाकृत अधिक मिलते हैं।
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विवरण-गूलर के मध्यमाकारी (कभी कभी ऊंचे) तथा वायविंडग के पर्यायवाची नामपतझड़ करने वाले क्षीरीवृक्ष होते हैं। जिसकी शाखाएं पावों विडङ्ग कृमिजिद् वेल्लं जन्तुनं मृगगामिनी। में न फैलकर प्रायःसीधी ऊपर की ओर बढ़ती है। काण्डस्कंध कृमिहन्तृ कृमिहरं कैरलं चित्रतण्डुलम् ॥ ११४७॥ अपेक्षा कृत लंबा एवं मोटा कुछ टेढा होता है।छाल खाकस्तरी अमोघा तण्डुला घोषा, भूतघ्नं कृमिहृदपि ॥ ११४८॥ या लालिमा लिए भूरे रंग की या मुरचई रंग लिए हरिताभ विडङ्ग, कृमिजित्, वेल्ल, जन्तुघ्र, मृगगामिनी, कृमिहन्त, अथवा हरिताभ भूरे रंग की होती है। इसके वृक्ष पर क्षत करने कृमिहर, कैरल, चित्रतण्डुल, अमोघा, तण्डुला घोषा, भूतघ्न से काफी दूध जैसा स्राव निकलता है, जो थोडी देर रखने पर एवं कृमिहृत् ये सब वायविडंग के पर्याय हैं। पीला हो जाता है। पत्तियां ६ से० मी० से १६ से० मी०
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ० २१२) (२.५ इंच से७ इंच) तक लंबी ३७५ से०मी० से ६१२५ से० अन्य भाषाओं में नाममी० (१.५ इंच से २.५ इंच) (१.५ इंच से २.५ इंच) तक हि०-वायविडंग,बायभिडंग बायभिरंग, भाभिरंगाबं०चौडी रूप रेखा में, लट्वाकार, आयताकार, लट्वाकार- विरंग। म०-वायविडंग। गु०-बावडींग। क०-वायुविडंग, आयताकार या अण्डाकार-भालाकार तथा सरल धारवाली बायबिलंग। ते०-वायुविडंघमु। ता०-वायुविलंगमु। प०सोपपत्र एवं एकान्तर क्रम से स्थित होती है। पर्णवृन्त २.५ से० बबरंग, वावरंग। मा०-वायविरंग सिंह०-उंम्बे लिया,अंबेलिया। मी० से ५ से० मी० लंबा तथा ऊर्ध्वतल पर हलखात युक्त और ने०-हिमलचेरी। अ०-वरंजकावली, बिरंजकावुली। फा०उपपत्र ५/४ से० मी० से २५ से. मी० बरंगकाबली, बिरंजकाबली, बिरंगकाबुली।अं०-Babreng (१/२ इंच से १ इंच) तक तथा सूक्ष्म रोमवृत होते हैं, जो fruits of Embelia ribes(बाबरिंग फुट आफ कांडस्कंध तथा अन्य पत्र हीन शाखाओं पर गुच्छों में निकलते एम्बेलिया राइबस्) ले० - Embelia Ribes Burm हैं। कच्चे पर यह हरे तथा पकने पर नारंगी के रंग के हो जाते (एम्बेलिया राइबस्) Fam. Myrsinaceae (मिसिनेसी) हैं। फल सदा लगे रहते हैं इसीलिए इसे सदाफल भी कहते
(वनौषधि निदर्शिका पृ० १३६)
उंबेभरिया उंबेभरिया () वाय विडंग
प० १/३५/२ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में उंबेभरिया शब्द है। यह संस्कुत भाषा का शब्द नहीं है क्योंकि आयुर्वेदीय कोशों तथा निघण्टुओं में यह शब्द तथा इससे मिलता जुलता कोई शब्द नहीं मिलता है। हिन्दी भाषा में भी इससे मेल खाता कोई शब्द नहीं मिला है। सिंहल भाषा में उंबेलिया और अंबेलिया शब्द मिलता है। उंबेभरिया शब्द में भ को लुप्त कर दें तो उंबेरिया
और सिंहली उंबेलिया शब्द की समानता दिखाई देती है। इसी समानता के आधार पर उंबेलिया शब्द को ग्रहण कर रहे हैं। उंबेलिया वायविडंग का वाचक है। वायबिडंग के लिए इन शब्द संग्रह में कोई शब्द नहीं है इसलिए इस शब्द (उंबे भरिया) का अर्थ वायविडंग कर रहे हैं।
भाव
प्रकार
पुष्पव्यूह
यमुकुट l
उत्पत्तिस्थान-यह मध्य हिमालय से भारतवर्ष के पहाडी भागों में तथा सिलोन से सिंगापुर तक बहुत पाया जाता है।
विवरण-हरीतक्यादि वर्ग एवं अपने कुल के प्रमुख इस
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बाला। गु०-वालो, कालो वालो। क०-बलरक्कसी गिडा। ते०-मुत्तुपलागमु, एर्राकुटी।ता०-पेरामुटिवेर।ले०-Pavonia Odorata willd (पॅवोनिया ओडोरेटा विल्ड)।
बडी लता एवं गुल्मकार क्षुप के कांड साधारणतः मनुष्य की जांघ जैसे मोटे, शाखायें खुरदरी, अनेक ग्रंथि युक्त, छाल १/२ इंची, चमकीली, भीतरी काष्ठ धूसर वर्ण का छिद्रयुक्त शाखाओं की टहनियां समीपवर्ती वृक्षों का सहारा लेकर उन पर लटकती हुई बढती हैं। पत्र अंडाकार तीक्ष्णाग्र, २ से ५ इंच तक लंबे ऊपरी भाग में कुछ चमकीले, निम्न भाग में चंदनियां रंग के दोनों ओर सूक्ष्म रोमश, पुष्प किंचित् हरिताभ श्वेत वर्ण के छोटे-छोटे १/५ इंची, पांच पंखुडी युक्त, टहनियों के अग्रिमभाग में श्वेत कोमल,लोमावत,पंकेसर५,फल चौथाई इंच तक गोलाकार, पकने पर लालवर्ण के किन्तु शुष्क दशा में काले रंग के कुछ झुर्सदार हो जाते हैं। फलों में डंठल के साथ पांच पट्ठों का पुष्प पत्र लगा रहता है, जो अग्रिम भाग में नोकीला होता है। फल के भीतर लाल रंग के आवरण से युक्त १-१ बीज निकलता है, जो स्वाद में चरपरा एवं गरम मसाले के समान सुगंधित होता है उसे ही भ्रम वश कई लोग कबीला (कमीला) मानते हैं। वसंत ऋतु में पुष्प आते हैं तथा वर्षा में फल पकते हैं।(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ१००)
शास्व
उक्खु
उक्खु
भ० २१/१८
(इक्षु) ईख। देखें इक्खु शब्द।
उदय उदय (उदक) सुगंधबाला, बाल प० १/४१/२
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में उदय शब्द पर्वक वर्ग के अन्तर्गत है।सुगंधबाला के पर्व होते हैं। इसलिए यह अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। उदक के पर्यायवाची नाम
बालं हीबेरबर्हिष्ठोदीच्यं केशाम्बु नाम च बालकं शीतलं रूक्षं लघुदीपनपाचनम् ॥८३॥
बाल, हीबेर, बर्हिष्ठ, उदीच्य, केशनाम (केशवाचक सभी शब्द ) एवं अम्बुनाम (जलवाची सभी शब्द) तथा बालक ये सब सुगंध बाला के संस्कृत नाम हैं। विमर्श-जलवाची शब्दों में एक शब्द उदक भी है।
(भा० नि० कर्पूरादि वर्ग पृ० २३७) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-सुगंधबाला, नेत्रबाला। बं०-बाला म०-काला
उत्पत्तिस्थान-पश्चिमोत्तर प्रदेश.सिन्ध.पश्चिम प्रायद्वीप और सिलोन में अधिक उत्पन्न होता है।
विवरण-इसका क्षुप सीधा तथा १.५ से ३ फीट ऊंचा होता है और समस्त क्षुप पर बारीक रोवें होते हैं। पत्ते १से ३ इंच लंबे गोलाकार हृदयाकृति, कंघी के पत्तों के आकार वाले ३ से ५ भागों में थोडी दूर तक विभक्त और ऊपर के पत्ते दन्तुर होते हैं। पत्तों को मसलने से चिपचिपापन मालूम होता है। शाखाओं के अन्त में फूलों के गुच्छे लगते हैं। पुष्प दल किंचित् हलके गुलाबी रंग के होते हैं। फल अण्डाकृति, छोटे एवं चने के बराबर होते हैं। बीज भूरे रंग के,तैल से युक्त लेकिन गंधहीन होते हैं। मूल ७ से ८ इंच लंबे, प्रायः ऐंठे हुए तथा अधिक से अधिक १/४ इंच मोटे, चिकने, भूरे रंग के तथा अनेक उपमूलों से युक्त रहते हैं। इनमें कस्तूरी के समान सुगंध रहती है।
(भाव०नि० कपूर्रादि वर्ग पृ० २३७, २३८)
उद्दाल उद्दाल (उद्दाल) कूठ जं २।८ उद्दाल (पुं) बहुवार वृक्ष। वन कोद्रव। कुष्ठ। हिन्दी में-लिसोडावृक्षा वन कोदो। कूठ।
( शालिग्रामौषध शब्द सागर पृ० १७)
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विमर्श-उद्दाल शब्द कुष्ठ अर्थ में केवल प्रस्तुत शब्द उत्पत्ति स्थान-लिसोडे के वृक्ष प्रायः समस्त भारत वर्ष कोष में मिलता है। अन्य कोषों तथा निघंटुओं में नहीं मिला में पाये जाते हैं। हिमालय प्रदेश के चिनाव से आसाम तक है। पूर्व के दो अर्थो में मिलता है। लिसोडावृक्ष अर्थ के लिए ५००० फीट की ऊंचाई तक,बंगाल के पर्वतीय प्रदेश, ब्रहमा, देखें उद्दालक शब्द।
मध्य और दक्षिण भारत, राजस्थान में ग्रामों के किनारे, खेतों
के किनारे और बगीचों में। भारतेतर चीन आदि देशो में भी उद्दालक
यह बहुतायत से उपलब्ध होता है।
विवरण-यह फलादि वर्ग और श्लेष्मान्तकादि कल का उद्दालक(उद्दालक) बड़ा लिसोडा
वृक्ष जमीन से ३० से ४० फीट ऊंचाई में होता है। इसकी फैली जीवा० ३/५८२
हुई और ऊंची शाखायें होती हैं। इसकी छोटी शाखायें कुछ उद्दालक के पर्यायवाची नाम
ललाई लिए हुए भूरे रंग की होती है। शरत् काल में पत्ते गिरते श्लेष्मातके भूतवृक्षः, पिच्छिलो द्विजकुत्सितः॥११८॥
हैं। काण्ड वक्र, ४ से ६ फुट तक की गोलाई में होता है। त्वक् वसन्तकुसुमः शेलुः, फलेलु लेखशाटकः।
१/२ से ३/४ इंची, मोटी, धूसर वर्ण,लंबे भाग में कर्तित दाग विषघाती बहुवारः, शीत उद्दालक: सेलुः॥११९॥ ।
होते हैं। काष्ठ कुछ धूसर वर्ण का होता है। यह वृक्ष बहुशाखी श्लेष्मातक,भूतवृक्ष,पिच्छिल,द्विजकुत्सित,वसन्तकुसुम,
होता है। पत्र शलाका के दोनों ओर होते हैं। १ से ४ इंच लंबे
बोहोराले शेलु, फलेलु,लेखशाटक,विषघाती, बहुवार,शीत, उद्दालक,
पत्र कोने से लंबा एवं किनारे अस्पष्ट होते है। पत्तों की कोंपल सेलु ये सब लिसोडे के पर्याय वाची हैं। लोक में यह गूंदी नाम
सुचिक्कण और पत्ते कुछ खुरदरे होते हैं। पत्र दण्ड की ओर से प्रसिद्ध है।
हत्पिण्डाकृति। पत्र की सिरायें ३ से ५, दंड १ से २ इंच लंबा (सटीक निघंटुशेष, वृक्षकांड १/११८,११९)
होता है। फूल छोटा, उभय लिङ्ग, विशिष्ट श्वेत वर्ण, गुच्छ अन्य भाषाओं में नाम
समूह में, पुष्प दण्ड में अनेक शाखायें होती हैं। फल भी गुच्छ हि०-लिसोड़ा बड़ा, निसोड़ा, लिटोरा, लटोरा, लफेड़ा,
समूह में लगते हैं। फल में गुठली १/२ से १ इंच लंबी होती लफेरा। बं०-बहुबडा, बोहोदरी, बालफल। बंबई-बडगुंद,
है। फल कच्ची अवस्था में हरे, पकने पर कुछ पीत वर्ण ललाई मोटाभोकर। गु०- बड़गूंद, पिस्तान, सपिस्तान। ता०
लिए सफेद भूरे रंग के होते हैं। फल का गूदा चिकना, उज्ज्वल, अलिनमाविरी। ते०-नेक्केरा, बोचकू। फा०-सपिश्ता। अ०
लस लसेदार, मीठा होता है। फल देखने में प्रायः सुपारी के दिबाक, मोखताह। मलय०-पेरिया विरी। कर्णा०-चेलु।
समान।प्रत्येक फल में एक बीज होता है। इस वृक्ष में एक प्रकार उ०-अड़। कन्नड-मन्ना। अं०- Large Sebesten
का गोंद भी लगता है। इसके मगज में से तैल निकाला जाता Plum(लार्जसेवेस्टनल्पम)।ले०-CordiaWallichii.G.
है, जो सूंघने और लगाने के काम आता है। चैत्र मास में फूल Don (कोर्डिया बेलिचि)।
आते हैं और ज्येष्ठ मास में फल पकते हैं। वर्षा में पूर्ण परिपक्व हो जाते हैं।
लिसोडा वृक्ष की दो जातियां होती हैं-बडा लिसोडा और छोटा लिसोडा। यथार्थत: लिगोडा फल के बडे और छोटे होने के कारण ही बडा और छोटा लिसोडा भेद किया गया है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० १६१, १६२) उद्दालक (उद्दालक) कोविदार जीवा० ३/५८२ उद्दालक के पर्यायवाची नाम
आस्फोतक: कोविदारः, कुण्डलः कुण्डली कुली। उद्दालक श्चमरिकः, कद्दाल: स्वल्पकेशरः।। ९३३॥
लिसौटे
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आस्फोतक, कोविदार, कुण्डल, कुण्डली, कुली, उद्दालक चमरिक, कुद्दाल और स्वल्पकेसर ये पर्याय कोविदार के हैं।
(कैयदेव नि० ओषधि वर्ग० पृ० १७२)
The
STHAN
शास्वा
उत्पल उत्पल (उत्पल)थोडा नील क्षुद्र उत्पल
जीवा० ३/२८६ प० १/४६ ईषच्छ्वेतं विदुः पद्ममीषन् नीलोथोत्पलम्। ईषद्रक्तं तु नलिनं क्षुद्रं तच्चोत्पलत्रयम्॥१३८॥
(धन्व०नि० ४/१३८ पृ० २१८) क्षुद्रोत्पल के तीन भेद हैं(१) ईषत् श्वेत पद्म (2) ईषत्नील उत्पल (3) ईषत्लाल नलिन, नाम से जाना जाता है। विवरण-उत्पल (जल में पकने वाला)
धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १३९
डाईक
उराल उराल (उदार) गुलूवृक्ष
प०१/४४/३ विमर्श-पाइअसद्दमहण्णव में उराल शब्द का संस्कृत रूप उदार किया है-ओरालिय सरीर (औदारिक शरीर)। प्रस्तुत प्रकरण में उराल शब्द वनस्पति का वाचक है। उरालशब्द का वनस्पतिपरक अर्थ नहीं मिलता, इसलिए यहां उदार रूप ग्रहण कर अर्थ किया जा रहा है। उदार (पुं) गुलू नामक वृक्ष (बृहत् हिन्दी कोश)
उत्पत्ति स्थान-गूलू के पेड भारत में प्रायः सर्वत्र जंगलों में विशेषतःकंकरीली या बालूवाली जमीन में पैदा होता है।
विवरण-यह मुचकुंद कुल का एक मध्यम ऊंचाई का सदा हराभरा रहने वाला वृक्ष है। इसकी छाल चिकनी, साफ, मुलायम, श्वेत कागज जैसी होती है। शाखायें प्राय: पीली सी होती है। पत्र प्रायः शाखाओं के अग्र भाग पर समूह बद्ध, ९ से १८ इंच व्यास के, प्राय: ५ खंड युक्त किनारे वाले, पृष्ठ भाग श्वेत, सूक्ष्म रोगों से युक्त होते हैं। फूल बैंगनी छटा युक्त लाल, हरे या पीले रंग के। फल बडे बैर जैसे, ऊपर से रोमश पकने पर स्वाद में खटमीठे होते हैं। वसन्त ऋतु में पत्तों के झड जाने पर इसमें आम के बोर जैसा ही बोर आता है तथा उसी में उक्त फल लगते हैं। बीज फल में ३ से ६, घुघची जैसे होते हैं। वृक्ष की जड रक्त वर्ण की होती है।
विदेशी पेडों से जिस प्रकार का कवीरा गोंद प्राप्त होता है वैसा ही गोंद प्रस्तुत प्रसंग के गुलू पेड से तथा पीली कपास पौधों से भी प्राप्त होता है। यह गोंद भी उक्त विदेशी कतीरा या ट्रागा कॉथ के स्थान में प्रयुक्त होता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ४२६)
अन्य भाषाओं में नाम__ सं०-बालिका। हि०-गुलू, कुल्ली, कालरू, खडिया। म०-कांडोल, सारढोल, पाढरुख। गु०-खड़ियो, कड़ायो। बं०-बुली। ले०-Sterculia Urens (स्टेर क्यूलिया यूरेन्स)।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ४२६)
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उव्वेहलिया उव्वेहलिया ( ) भ० २३/४ प० १/४८/५०
देखें दव्वहलिया शब्द।
विमर्श-प्रज्ञापना १/४७ और भगवती २३/४ में इसके स्थान पर दव्वहलिया शब्द है। प्रज्ञापना १/४८/५० में जो शब्द हैं वे ही शब्द प्रज्ञापना १/४७ में हैं। वहां उव्वेहलिया के स्थान पर दव्वहलिया शब्द है। इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में दव्वहलिया शब्द उपयुक्त लगता है।
विवरण-खस तृणजातीय औषधि का क्षुप २ से ५ फुट तक ऊंचा एवं दृढ होता है। यह गुच्छवद्ध होकर उगता है। पत्ते सरकंडे के समान १ से २ फूट लंबे और पतले होते हैं। ये दो कतारों में तथा आधार पर परस्पराच्छादित रहते हैं।मूलीय पत्र कुछ अधिक लंबे रहते हैं। मध्य शिरा दबी हुई तथा पत्तों के किनारों पर दूर-दूर पर तीक्ष्ण कांटे रहते हैं। फूलों का घनहरा पीलापन या किंचित् लाली युक्त होता है। इसकी जड सुगंधित होती है। इसी को खस कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु में इसके बने परदे एवं पंखों आदि का उपयोग किया जाता है। सुगंधि के लिए इसके इत्र का भी बहुत व्यवहार होता है।
(भाव०नि० पृ० २३९)
एक्कड एक्कड (इक्कट) इकडी
देखें इक्कड शब्द।
पं० १/४१/१
उसीर उसीर (उशीर) वीरण मूल,खस रा० ३० जीवा० ३/२८३ उशीर के पर्यायवाची नाम
वीरणस्य तु मूलं स्याद्, उशीरं नलदञ्च तत् अमृणालञ्च सेव्यञ्च, समगन्धिक मित्यपि॥
वीरण नामक घास के जड को खस कहते हैं। उसके संस्कृत नाम उशीर, नलद, अमृणाल, सेव्य और समगन्धिक ये सब हैं।
(भाव० नि० पृ० २३९) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-खस, वीरनमूल, गांडर, बेना। बं०-बेणरमूल, खसखस। म०-वाला। ग०-वालो। क०-मडिवाल। ते०वेट्टिवेर। फा०-रेशयेवाला, वीरवेवाला। अं०-Cuscus grass(कसकसग्रास)। ले०-Andropogon Muricatus Retz (एन्ड्रोपोगोन म्यूरिकॅटस् रेझ)।
एरंड
(चन्च
एरंड (एरण्ड) श्वेत एरण्ड, रेडी
भ० २१/१९ १० १/४२/२ एरण्ड के पर्यायवाची नाम
एरण्डस्तरुणः शुक्लश्चित्रो गन्धर्वहस्तकः। पञ्चाङ्गलो वर्धमान, आमण्डो दीर्थदण्डकः ॥२९५॥
तरुण, शुक्ल, चित्र, गन्धर्वहस्तक, पञ्चाङ्गुल, वर्धमान, आमण्ड, दीर्घदण्डक ये एरण्ड के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०१/२९५ पृ०१०१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-अरण्ड, एरंड, एरंडी, रेंडी। म०-एरंड, एरंडी। गु०-एरण्डो, एरंडियो, दिबेली। ते०-आमुडामु, एरंडमु। ता०-आमणक्कम्। मला०-चिट्टामणक्कु, आबणक्का।क०हरल। फा०-बेदंजीर, तुमे बेदंजीर। अ०-खिखा वनल खिर्बआ अ०-Castor oil plant(कॅस्टर ऑइल प्लान्ट)। ले०- Ricinus Communis Linn.(रिसिनस् कॉम्युनिस् लिन०) Fam. Euphorbiaceae(युफोर्विएसी)।
उत्पत्ति स्थान-प्रायः सब प्रान्तों में एरंड की खेती की जाती है। वह अपने आप ही मैदानों, सड़कों के किनारे परती
उत्पत्तिस्थान-यह देश के प्रायःसब प्रान्तों में पाया जाता है। यह अधिकतर खुले हुये दलदलवाले स्थानों में होता है।
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है।
जमीन एवं पहाडियों की खाली भूमि में उत्पन्न हुआ पाया जाता red small fruit (एरावणिका कृष्ण लोहिताल्प फला)डलहन
एक स्थान पर (सूत्र स्थान० ४६१९१) मानते हैं कि ऐरावत का विवरण-इसका क्षुप एकवर्षायु ऊंचा, चिकना तथा अर्थ एरावणिका है जो काली, लाल और छोटे फल वाली है। क्षोदलिप्त रहता है। कभी-कभी यह झाडीदार या छोटे वृक्ष Glossary of Vegetable Drugs in Brhattrayi सदृश भी हो जाता है। पत्ते एकान्तर, चौडे, खण्डित ___Page 60 (त्रिपदानुत्तर-पाणिवत्) खण्ड ७ या अधिक एवं पत्रतट ऐरावतः। । लकुचवृक्षे, नागरङ्गे, क्षुद्रद्वीपान्तरखजूरे आरावत दन्तुर होता है। पुष्प द्विलिंगी तथा सवृन्तकाण्डज, एलाकरवीरे, एरावत फले। पुष्पव्यूहों में आते हैं, जिसमें पुंपुष्प पुष्पव्यूह से ऊपर के भाग
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १७०) में रहते हैं तथा स्त्रीपुष्प नीचे के भाग में रहते हैं। फल गोल- क्षुद्रखर्जूरी। स्त्री। भूखर्जूरिकायाम्। गोल, सघन, गुंबजदार लगते हैं तथा उन पर मुलायम-मुलायम
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १२०६) कांटे से होते हैं। फल पकने पर धूप की गरमी से फट जाते विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में एरावण शब्द गुच्छ वर्ग के है और बीज भूमि में गिर पड़ते हैं, उसी समय गुच्छों को अन्तर्गत है। ऊपर के पांच अर्थों में क्षुद्रखर्जूर अर्थ उपयुक्त तोडकर संग्रह करते हैं। प्रत्येक फल में तीन-तीन बीज होते लगता है क्योंकि इसके फल गच्छ रूप में लगते हैं। हैं।बीज गोल,आयताकार तथा कुछ चिपटे ४ से १२ मि० मि० भूखजूर का काण्ड भूमि के ऊपर नहीं होता। इसी का एक लंबे एक तरफ से चिपटे किन्तु दूसरी तरफ कुछ गोल लंबाई भेद और होता है जिसे (Phoenix Humilis royle) कहते की अपेक्षा २/३ चौडे एवं १/३ मोटे होते हैं। बीज का बाह्य हैं। यह प्रायः पांच फीट से ऊंचा नहीं होता। त्वक् पतला, मिदुर, चिकना, चमकीला, भूरे रंग का तथा
(वनौषधि रत्नाकर तृतीयभाग पृ० १५४) चितकबरा रहता है। इसका अन्तस्त्वक् पतला और मुलायम एक भूखजूर भी होता है जिसके काण्ड भूमि के ऊपर होता है। बीजावरण में ऊपर द्वारक के समीप एक सफेद बाह्य नहीं आते। देहरादून के घास के मैदानों में यह पाया जाता है, वृद्धि होती है, जिससे कुछ -कुछ ढंका हुआ वृन्तयु होता है। इसके फल खाये जाते हैं। (वनोषधि दर्शिका) बीजावरण को हटा देने पर स्थूल तथा पीताभ श्वेत भ्रूणपोष
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३३२) दिखाई देता है। जिसके अंदर तैलीय खाद्यपदार्थ संचित रहता राजनिघण्टुकार ने जो भूमिखर्जूरी का वर्णन किया है,यह है। भ्रूणपोष के मध्य में गर्भ होता है जिसमें दो पतले पत्रसदृश भारत में होने वाला खर्जूर है। बीजपत्र और उनके बीच छोटा भ्रूणाक्ष होता है। बीजों में नाम
(वनौषधि रत्नाकर तृतीय भाग पृ० १५३) मात्र की गंध एवं किंचित् तीता स्वाद होता है। (भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० २९९, ३००)
एलवालुंकी एरावण
एलवालुंकी (एलवालुक) बालुका साग एरावण (ऐरावत) भूखर्जूरी, क्षुद्र खजूरी
प०१/४०/१ प० १/३७/४ एलवालक के पर्यायवाची नामविमर्श-एरावण शब्द स्पष्ट रूप से किसी निघंटु या शब्द
एलवालुक मैलेयं, सुगन्धि हरिवालुकम्। कोशों में वनस्पतिपरक अर्थ में नहीं मिला है। एकस्थान पर
ऐलवालुक मेलालु, कपित्थत्वच् मीरितम्॥१२०॥ एरावणिका शब्द मिलता है उससे अनुमान किया जा सकता
एलवालुक, ऐलेय, सुगंधि, हरिवालुक, ऐलवालुक, है कि एरावण शब्द भी है।
एलालु और कपित्थत्वम् ये सब संस्कृत नाम एलवालुक के बत AIRAVATA. Dalhana at one place हैं। (Sutrasthana 46.191) has described it as a blackish
(भाव०नि० कर्पूरादिवर्गपृ०२६२)
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स्थूलैला
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-बालुका साग। बं०-बालुक म०-बालु ची भाजी। ता०-मनलकिरै। ते०-एसकदन्तिकुर ले०-Gisekia Pharnaceoides Linn(गिसेकिआ फार्नेसिओ इडिस)
उत्पत्ति स्थान-यह वनस्पति पंजाब, सिंध, दक्षिण, तथा सिलोन में होती है।
विवरण-इसके क्षुप छोटे फैले हुए तथा अनेक शाखाओं से युक्त होते हैं। पत्र विपरीत, मांसल, अखंड, अंडाकृति, करीब १ इंच लंबे तथा आधार की तरफनोकीले होते हैं। पष्प अनेक. फल बाहयदल से आवत झिल्लीदार होते हैं। बीज काले से, पृष्ठ पर गोलाई लिए हुए एवं श्वेत छोटी ग्रंथियों से युक्त होते हैं। बंगाल में बालुक नाम से यह बीज बिकते
(भाव०नि० पृ० २६३)
उत्पत्ति स्थान-इसकी खेती नेपाल, बंगाल, सिक्किम तथा आसाम के पहाडी भागों के पास में गीली भूमि में की
जाती है। एला
विवरण-इसका क्षुप आमाहल्दी के समान होता है और
उसकी जड़ के नीचे कन्द रहता है। पत्र दण्ड ३ से ४ फूट ऊंचा एला (एला) इलायची, बडी इलायची
होता है। पत्ते १ से २ फुट लंबे, ३ से ४ इंच चौड़े, आयताकार
भालाकार हरे एवं चिकने होते हैं। फूल अवृन्त काण्डज, व्यूहों रा० ३०जीवा-३/२८३
में नलिकाकार सफेद रंग के आते हैं। फल किंचित् लंबाई एला स्थूला च बहुला, पृथ्वीका त्रिपुटाऽपिच॥६०॥
लिये गोल, १ इंच तक लंबे तथा लाल भूरे रंग के होते हैं। बीज भट्टैला बृहदेला च, चन्द्रबाला च निष्कुटिः।।
शर्करायुक्त, गाढे गूदे के कारण आपस में चिपके हुए अनेक एला,स्थूला, बहुला, पृथ्वीका, त्रिपुटा, भद्रेला, बृहदेला, बीज प्रत्येक कोष में होते हैं। बड़ी इलायची की बहुत सी चन्द्रबाला, निष्कुटि ये सब बडी इलायची के संस्कृत नाम हैं। जातियां भारत वर्ष में पाई जाती है।बडी इलायची में एक हलके
(भाव० नि० पृ० २२१) पीले रंग का उडनशील तैल पाया जाता है। इस तैल में
सिनिओल, नामक पदार्थ बहुत रहता है। अन्य भाषाओं में नाम
(भाव०नि० पृ० २२१,२२२) हि०-बड़ी इलायची, पूर्वी इलायची, लाल इलायची। बं०-बड़ा इलाची। म०-मोठी एलची, मोठे वेलदोड़े गु०एलचा, मोटी एलची। ते०-पेद्दायेलाकी। ता०-पेरेलम,
एलावालुंकी पेरिय एलक्के। क०-डोड्डा एलाकी। फा०-हीलकलॉ। अ०
एलावालुंकी (एलवालुक) बालुका साग काकुले कुवार। काकुले जंजी। अं०-Nepal or greater Cardamom (नेपाल या ग्रेटर कार्डेमोम्) ले०-Amomum
देखें एलवालूकी शब्द। Subulatum Roxb(एमोमम् सबुलेटम् राक्स्)Fam. Zingiberaceae (झिंजिबेरेंसी)।
भ० २२/६
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कंगू
कंगूया(
में से जो बारीक दाने निकलते हैं, उन्हीं को कंगुनी कहते हैं।
(भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ०६५७) कंगू (कंङ्ग) कंगुनीधान्य भ० २१/१६ प० १/४५/२ कंगू के पर्यायवाची नामकङ्गौ तु कङ्गनी क्वगुः प्रियङ्गु पीततण्डुला॥ ३९४॥
कंगूया सा कृष्णा मधुका, रक्तका शोधिका मुसटी सिता पीता माधवी
प०१/४०/२ कङ्गु, कङ्गुनी, क्वङ्ग, प्रियङ्ग, पीततण्डुला-ये कंगु धान्य
विमर्श-कंगूया शब्द की संस्कृत छाया कंगुका होती है के नाम हैं। काली कंगु को मधुका, लाल कंगुको शोधिका, और हिन्दी अर्थ होता है कंगुधान्य। प्रज्ञापना १/४५/२ में भी श्वेत कंगु को मुसटी और पीली कंगु को माधवी कहते हैं।
कंगु शब्द ओषधिवर्ग के अन्तर्गत आया है। प्रस्तुत प्रकरण में (सटीक निघंटुशेष पृ० २१४)
यह कंगुया शब्द वल्ली वर्ग के अन्तर्गत आया है। यहां पाठान्तर अन्य भाषाओं में नाम
में केमूयी शब्द है इसलिए यहां केमुयी शब्द ग्रहण कर रहे हैं। हि०-कंगुनी, कगनी, टंगुनी। बं०-कांगुनी। म०-कांग।
केमुयी (केमुका) केवुक कंद ता०-तेनई ग०-कांग।क०-नवणे।तें०-कोरलु।फा०-गल केमकः (का) त्रि०। केवुककन्दे उत्तरप्रदेशप्रसिद्धे। अरजुन। अ०-दुख्न। ले०-Setaria italica(सेटारिया
तत्पर्यायः-पेचुकः, पेचुनी, पेचुः, पेचिका, दलसारिणी, इटेलिका) Fam. Gramineae(ग्रेमिनी)।
केचुकः।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ३१६) केमुक के पर्यायवाची नाम
केमुकं पेचुला पेलुः, पेलुनी दलशालिनी॥१६०७॥
केमुक, पेचुला, पेलु, पेलुनी, दलशालिनी ये पर्याय केमुक के हैं। (कैयदेव० नि० ओषधिवर्ग पृ०६४३) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-केमुआ, केमुक, केवुककंद, केवा। म०-पेवा। ते०-चेंगल्बकोटु । बं०-के ऊ। ले०-Costus Speciosus(कोस्टस् स्पेसिओसस्)।
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सभी स्थानों पर किन्तु विशेष रूप से बंगाल तथा कोंकण में होता है। इसे शोभा के लिए बागों
में भी लगाते हैं। आर्द्र तथा छायादार स्थानों में वर्षा में यह उत्पत्तिस्थान-कगूनो का खता प्रायःसब प्रान्ता महाता अधिक होता है। है। यह ६ हजार फीट की ऊंचाई तक हो सकने के कारण
विवरण-इसका क्षुप २ से ६ फीट ऊंचा होता है। मूल हेमालय के तराई प्रदेश में भी इसे लोग बोते हैं। इसकी
स्तंभ कन्दवत् तथा अदरख के समान होता है। पत्ते भालाकार सालभर तक पैदावार की जा सकती है तथा यह सौ दिन में
६ से १२ इंच लंबे एवं अधरतल पर रोमश होते हैं। पुष्प कांड तैयार हो जाती है। अधिकतर वर्षा के प्रारंभ में इसे बोते हैं।
के अग्र पर सफेद ३ से ४ इंच बडे निर्गन्ध, पुष्प व्यूह में आते विवरण-इसका क्षुप ३ से ३.५ फीट ऊंचा , पतला एवं
हैं। जिनके कोण पुष्पक भड़कीले लाल होते हैं। इसके कंद बाल के बोझ से झुका हुआ होता है। पत्ते १२ से १८ इंच लंबे,
को पकाकर खाते हैं यह निर्गंध, कुछ कसैला एवं कुछ १.५ इंच चौडे, हलके हरे एवं रेखाकार भालाकार होते हैं। पुष्प
लुआवदार होता है। व्यह अवन्त काण्डज, ६ से १२ इंच लंबा, ३.४ से १.५ इंच
(भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०७०१) व्यास के होते हैं। भेद के अनुसार ये लंबे भी होते हैं। बालों
.
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कंड कंड( ) कंडा
देखें कंडा शब्द।
ठा०८/११७/१
PAN
NwyoNG
ISAMAAMIN
VARI
कंडरीय कंडरीय (कण्टारिका) छोटी कटेरी, रिंगणी
भ० २३/१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कंडरीय शब्द कंदवर्ग के शब्दों के साथ है। इसके मूल का उपयोग किया जाता है। इससे लगता है यह छोटी कटेरी ही होना चाहिए। कण्टारिका । स्त्री। कण्टकार्याम्। कण्टालिका (ली)। स्त्री। कण्टकार्याम्। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १९२)
उत्पन्न होती है। दक्षिण पूर्व एशिया, मलाया एवं आष्ट्रेलिया के कण्टारिका के पर्यायवाची नाम
उष्ण प्रदेशों में यह पाई जाती है। कण्टकारी कण्टकिनी, दुःस्पर्शा दुष्प्रधर्षिणी।
विवरण-इसका परिप्रसरी क्षुप बहुवर्षायु तथा अत्यन्त क्षुद्रा व्याघ्री निदिग्धा, च धाविनी क्षुद्रकण्टिका॥ ३०॥
कांटेदार होता है। कांड टेढे-मेढे एवं अनेक शाखाओं से युक्त बहुकण्टा क्षुद्रकण्टा, ज्ञेया क्षुद्रफला च सा।
रहते हैं। कांटे सीधे पोले, चिकने, चमकीले एवं ५ से ७ इंच कण्टारिका चित्रफला, स्याच्चतुर्दशसंज्ञका॥३१॥
तक लंबे होते हैं। इनमें साथ में छोटे कांटे भी होते है। पत्ते कण्टकारी, कण्टकिनी, दुःस्पर्शा, दुष्प्रधर्षिणी, क्षुद्रा,
२ से ४ इंच लंबे, १ से ३ इंच चौड़े लट्वाकार आयताकार
से इंच लंबे से व्याघ्री, निदिग्धा,धाविनी, क्षुद्रकण्टिका,बहुकण्टा, क्षुद्रकण्टा या अण्डाकार गहरे कटे हुए या पक्षवत् खंडित होते हैं। पत्रखंड क्षुद्रफला, कण्टारिका तथा चित्रफला ये सब छोटी कटेरी के ।
पुनः खंडित या दन्तुर होते हैं। ये तारकाकार रोमों के कारण चौदहनाम हैं।
खुरदरे होते हैं। फल गहरे नीले रंग के आते हैं। फल गोल आधे __ (राज. नि० ४/३०, ३१ पृ०६७) से एक इंच व्यास के, चिकने और पीले या कभी-कभी सफेद अन्य भाषाओं में नाम
होते हैं, तथा हरी धारियों से युक्त होते हैं। बीज चिकने एवं हि०-कटेरी,लघुकटाई,कंटकारी,छोटी कटाई,भटकटैया, छोटे होते हैं। इसके मूल का उपयोग किया जाता है। इसकी रेंगनी, रिगणी, कटाली, कटियाली। बं०-कंटकारी। म०- मूल छोटीअंगुली जैसी मोटी एवं सुदृढ़ होती है। रिगणी, भुईरिंगणी। गु०-बेठी,भोरिंगणी, भोयरिंगणी।क०
(भा० नि० पृ० २९०, २९१) नेल्लुगुल्लु। ते० चल्लन मुलग। मा०-पसर कटाई। पं०कंडियारी, बरुम्ब । ता०-कण्डनकत्तरि । अ०-हदक इसिम, शौकतुलअकरब। फा०-बादंगा नवरी, कटाई खुर्द। ले०- कंडा ( ) कंडा, सरकंडा Solanum Xanthocarpum Schrad & Wendl ( PICTT
भ० २१/१७ प० १/४१/२ झन्थोकार्पम् अँड वेण्ड)
विमर्श-कंडा शब्द हिन्दी भाषा का है। संस्कृत में इसकी उत्पत्तिस्थान- यह प्रायःसब प्रान्तों में और सब प्रकार पहचान भद्रमुञ्ज नाम से होती है। पंजाबी भाषा में इसे सरकंडा की मिट्टी में पाई जाती है परन्तु रेतीली भूमि में यह अधिक कहते हैं।
कंडा
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भद्रमुञ्ज के पर्यायवाची नाम
भद्रमुञ्जः शरो बाण, स्तेजनश्चेक्षुवेष्टनः ॥१५८॥
भद्रमुञ्ज, शर, बाण, तेजन और इक्षुवेष्टन ये सब नाम सरपत के हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३७९) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-भद्रमुञ्ज, रामसर, सरपत, कंडा, सरकंडा। क०रामसपु, सरगोल्लापं०- सरकंडा, करकाना। सन्ताल०-सर। ते०-वेल्लुपोनिका सिंध-सर। बं-शर। गु०-तीरकांस।
उत्पत्ति स्थान-यह उत्तरभारत, पंजाब तथा गंगा के ऊपरी मैदान में उत्पन्न होता है।
विवरण-यह तृणजाति की बहुवर्षायु वनस्पति प्रायः नदियों के किनारे गुच्छों में उगती है। यह १२ से १८ फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते बहुत पतले-पतले ५ से ७ फीट लंबे, ३/ ४ से १ इंच चौडे तथा तीक्ष्णाग्र होते हैं। डंठल के अंत में पीताभ सफेद से रक्ताभ बैंगनी बारीक फूलों का घनहरा लगता है। इसके कांड पत्र तथा पत्रकोषों से निकाले रेशे काम में लिये जाते हैं। इसकी एक और जाति होती है जिसे मूंज कहा जाता है जो आकार प्रकार में छोटी होती है।
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३८०)
कण्डु (कण्डु) ला (ली)। स्त्री। अत्यम्लपाम्
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १९३) कण्डुरा । स्त्री। अत्यम्लपर्णी लता। कपिकच्छु।
(शालिग्रामौषध शब्द सागर पृ०२३) कण्डुला के पर्यायवाची नाम
अत्यम्लपर्णी तीक्ष्णा च, कण्डुला वल्लिसूरणा। वल्ली करवडादिश्च, वनस्थाऽरण्यवासिनी॥
अत्यम्लपर्णी, तीक्ष्णा, कण्डुला, वल्लिसूरणा, वल्ली, करवडादि, वनस्था, अरण्यवासिनी ये अत्यम्लपर्णी के पर्यायवाची नाम हैं।
(राज. नि० ३/१२९ पृ०५६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-रामचना, खटुआ, अम्लबेल, अमलबेल, अमर्ती, इमर्ती, गिदादद्राक्, कस्सर।बं०-कड़बड़वेनि, बंदल, बुंदल, अमललता, सोनकेसुर। राज०-रामचिंणा। म०-आवेटबेल, कड़मड़ वल्लि, ओधी, अंवट बेल। ते०-मंडलमारी,कुरुदिन्ने, काडेयतिग्गे, कनपटिगे, मंडल मारीतिगे, मेकमेत्तनिचेट्ट खाट खटूब वेल्याक०-हिग्गोली, जारिललरा।ता०-तुकबुलिरिक। आसामिया०-मैमटी पं०-कारिक, आम्ल बेल, गिदरद्राक, द्रिकी, वल्लर। गु०-खाट खटंबो। सिंहली-बलरत दियलबु। ले०-Vitis trifolia (बिटिसट्रिफोलिया)Vitis Carnosa (बिटिस करनोसा) Vitis penta phylla (बिटिस पेनटा फाइला)।
1-1-पुष्प
कंडुक्क कंडुक्क (कण्डुका) काकतुण्डी, गुञ्जा
प०१/४८/६२ कण्डुका। स्त्री। काकतुण्ड्याम्। वैद्यकनिघंटु। .
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १९३) देखें कागणि शब्द।
कंडुरिया कंडुरिया (कण्डुरी, कण्डुली) अत्यम्लपर्णी,रामचना
प०१/४८/२ विमर्श-कंडुरिया शब्द की संस्कृत छाया कण्डुरिका और कण्डुलिका होती है।कण्डुरिका और कण्डुरी,कण्डुलिका और कण्डुली समान ही हैं। प्रस्तुत प्रकरण में कण्डुला या कण्डुली शब्द संस्कृत भाषा का ग्रहण किया गया है। प्रस्तुत प्रकरण में यह कंद वर्ग के शब्दों के साथ है। रामचना के कंद प्रयोग में आते हैं।
फलकटा.
हुआ
पुषण
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उत्पत्ति स्थान-यह भारत के सभी प्रदेशों में और क्रौञ्चा, श्यामा, पद्मकर्कटी ये सब पद्मबीज के पर्याय हैं। विशेषकर उष्ण प्रदेशों में हिमालय पहाड तक तथा सिलोन ।
(राज. नि० १०/१८६ पृ० ३३४, ३३५) के जंगलों में तथा झाडियों के वृक्षों आदि पर अधिकता अन्य भाषाओं में नामसे पाई जाती है।
हि०-कमलगट्टा। म०-कमलकाकडी ग०-पवडी।। _ विवरण-यह द्राक्षाकुल की एक बडी बेल होती है।वर्षा उत्पत्ति स्थान- यह भारत के सभी उष्ण प्रदेशों में होता ऋतु में इसकी हरीभरी बेल जंगलों,झाडियों तथा थूहर के वृक्षों हैं। पर खूब फैली हुई देखने में आती है। इसका डंठल पतला, विवरण-यह तालाबों में होने वाला विस्तृत जलीय क्षुप अनेक शाखा प्रशाखाओं से युक्त और त्रिकोणाकार होता है। है। इसकी जड कीचड में फैलती है। पत्र पतले १ से ३ फीट पत्ते की डंडी की दूसरी ओर अनियमित तागे के समान बाल व्यास के चक्राकार, चिकने, चमकीले, नतोदर तथा वृन्त होते हैं, जो झाडी आदि से लिपट जाया करते हैं। प्रत्येक सींक गोलायत होते हैं। पत्रनाल बहुत लंबा तथा उस पर दूर दूर छोटे पर तीन-तीन पत्ते लगते हैं। जिनमें से बीच का पत्ता बडा होता कांटे होते हैं। फूल एकाकी, ४ से १० इंच व्यास में श्वेत या है। पत्ते डंडी की ओर से गोलाकार होकर बीच के भाग में गुलाबी, सुगंधित तथा लंबे दंड पर आता है। गर्मी तथा अणीदार होते हैं। फूल किंचित् हरापन लिये सफेद रंग के वर्षाकाल में यह फूलते हैं। कर्णिका (बीजाधार) स्पंज के झूमकों में आते हैं और फल भी झूमकों में ही, मटर के समान समान एवं धूसर होती है, जिसमें १.५ इंच लंबे, गोल, काले गोल होते हैं। कच्चे रहने की दशा में हरे और पकने पर नीले तथा चिकने बीज होते हैं। इन्हें कमलगट्टा कहा जाता है। रंग के तीन चार बीज वाले और रस से भरे हुए होते हैं। बीज
(भाव० नि० पुष्पवर्ग० पृ०४८०) त्रिकोणाकार और नुकीले होते हैं। इस लता के नीचे लगभग ९ इंच का एक कंद बैठता है। इस कंद से तंतु निकल कर जमीन
कंदुक्क के अंदर फैलता है। और एक दो हाथ की दूरी पर वैसे ही एक
प.१६४८५० एक कंद बैठता है। इस प्रकार जगह-जगह आठ दस कंद होते
कंदुक्क (कंदुक) सुपारी हैं। इस बेल के पत्ते, डंडी, सब खट्टे होते हैं।
कन्दुकम्। क्ली। पूगफले। अङ्गुरे।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २०१) (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०५०,५१)
कंबू
कंदलि कंदलि (कन्दली) पद्मबीज, कमलगट्टा
___ भ० २२/१ उत्त० ३६/९७ कन्दली । स्त्री० कदली। पद्मबीज।
(शालिग्रामौषधशब्द सागर पृ०२४) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कदलि के बाद कंदलि शब्द है। कंदलि के दो अर्थ हैं केला और कमलगट्टा । केला के अर्थ में कदलि शब्द आगया है इसलिए यहां कंदलि का अर्थ पद्मबीज ग्रहण कर रहे हैं। कंदली के पर्यायवाची नाम
पद्मबीजन्तु पद्माक्षं, गालोदयं कन्दली च सा। भेडा क्रौञ्चादनी क्रौञ्चा,श्यामा स्यात् पद्मकर्कटी॥१८६॥ पदमबीज.पदमाक्ष,गालोदय,कन्दली.भेडा.क्रौञ्चादनी
कंबू (कम्बू) शंख, शंखपुष्पी प० १/४८/३
विमर्श- कम्बूशब्द का अर्थ शंख होता है। शंख का पर्यायवाची नाम शंखपुष्पी है। शंखपुष्पी और कंबुपुष्पी पर्यायवाची नाम है। इसलिए यहां शंखपुष्पी अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। शड्.ख-Sanpha शङ्खपुष्पी-Synonym (Glossary of Vegetable Drugs in Brhattrayi Page 384) शंखपुष्पी के पर्यायवाची नाम
शंखपुष्पी क्षीरपुष्पी, कंबुपुष्पी मनोरमा॥१४९३॥ शिवब्राह्मी भूतिलता, किरीटी कम्बुमालिका। मांगल्यपुष्पी शंखाहवा, मेध्या वनविलासिनी॥१४९४॥
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शंखपुष्पी, क्षीरपुष्पी, कंबुपुष्पी, मनोरमा, शिवब्राह्मी बांस की जातियां ५५० हैं। इनमें १३६ जाति भारत में, भूतिलता, किरीटी, कम्बुमालिका, मांगल्यपुष्पी, शंखाह्वा ३९ ब्रह्मदेश में,२९ अंडमान में, ९ जापान में,३० फिलिपाइन मेध्या, वनविलासिनी ये पर्याय शंखपुष्पी के हैं। में तथा शेष में कुछ न्यूगिनी में, कुछ दक्षिण अफ्रीका और
(कैयदेव० नि० ओषधवर्ग पृ० ६२२) कुछ क्विन्सलेंड में पैदा होती है। अन्य भाषाओं में नाम
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ०५८) हि०-शंखाहुली, शंखपुष्पी। ले०-Conyolvulus विमर्श-भारत में १३६ जाति के बांस होते हैं। संभव है pluricaulis chois (कन्ह्वाल्ह्वयुलस् प्लुरिकॉलिस को) एक जाति का नाम कर्का हो। Fam. Convolvulaceae (कन्ह्वाल्ह्वयुलेसी)।
कक्कोड कक्कोडइ (कर्कोटकी) ककोडा प० १/४०/२ कर्कोटकी के पर्यायवाची नाम
कर्कोटकी स्वादुफला, मनोज्ञा च कुमारिका, अवन्ध्या चैव देवी च, विषप्रशमनी तथा।। १८७॥ कर्कोटकी, स्वादुफला, मनोज्ञा, कुमारिका, अवन्ध्या, देवी, विषप्रशमनी ये कर्कोटकी के पर्याय हैं। ,
(धन्व०नि० १/१८७ पृ०७१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-वेकसा,रवेखसा,ककोड़ा,ककोरा बं०-वनकरेला। ववियुमी (शंखाहली
म०-कर्टोली, कांटोलें।गु०-कंटोला, कोडा।ते०-आगाकर। उत्पत्ति स्थान-यह भारत के सभी प्रदेशों में तथा
क०-माडहा। ता०-एगारवल्लिा ले०-Momordica dioica हिमालय पर ६००० फीट तक होती है।
Roxb (मोमोर्डिकाडायोइका) Fam. Cucurbitaceae विवरण-इसके क्षप प्रसरणशील तथा संदर होते हैं। (कुकुबिटसा)। शाखाएं मूल के ऊपर से ४ से १५ इंच, लंबी अनेक शाखाएं निकल कर चारों ओर फैली रहती हैं। पत्ते अखण्ड, रेखाकार से लेकर अंडाकार तक २५ से ५ इंच तक लंबे (कभी-कभी एक इंच) एवं पृष्ठलग्न तथा रेशम तुल्य मुलायम रोमों से युक्त होते हैं। पुष्प भडकीले नीले रंग के होते हैं और दो या तीन की संख्या में, पतले, पुष्पदण्डों के अग्र पर रहते हैं। बाह्यदल रोमश और प्रासवत् होते हैं। आभ्यन्तर कोश कभी-कभी श्वेत और कुछ-कुछ चन्द्राकार होते हैं। फल में २ से ४ फांक होते
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ४५४,४५५)
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कक्कावंस कक्कावंस (कविंश) वांस का एक प्रकार।
भ० २१/१७ प० १/४६/२
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HAMALING
PRAMMARY
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S4
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उत्पत्ति स्थान - यह बंगाल, उडीसा, मध्यप्रदेश, बंबई, गुजरात, कनाडा आदि दक्षिण भारत तथा कूचबिहार, रंगपूर आदि कई स्थानों की रेतीली जंगली एवं पहाडी भूमि में प्रचुरता से पैदा होता है।
विवरण- इसकी लता आरोहणशील चिकनी एवं प्रायः दुर्गन्ध युक्त होती है। कांड कोनदार होते हैं। तन्तु बिना शाखा के होते हैं। पत्ते हृदयाकार कट्वाकार, अखण्ड या ३ खंड वाले प्रायः लहरदार दन्तूर किनारे वाले एवं २ से ४.५ इंच व्यास के होते हैं। पुष्प पीले होते हैं। इसमें नर एवं नारी पुष्पों की लताएं अलग-अलग होती हैं। नरपुष्प की लता में फल न लगने के कारण उसे बांझ खेखसा या वन्ध्याकर्कोटकी कहा जाता है। फल वाली नारीपुष्प की लता होती है, जिसे कर्कोटकी कहते हैं। नरपुष्प वाले पतले एवं २ से ६ इंच लंबे दण्ड से युक्त तथा नारीपुष्प के दंड छोटे या उतने ही बडे होते हैं। फल १ से ३ इंच लंबा, दीर्घवृन्ताभ एवं तीक्ष्णाग्र या अंडाकार होता है तथा इस पर मुलायम कांटे सदृश उभार होते हैं। इसके नीचे कन्दवत् बहुवर्षायु मूल होता है, जो शलगम की तरह किन्तु लंबा पीताभ, श्वेत, गोल कंकणाकृति चिन्हों से युक्त एवं स्वाद में कसैला होता है।
(भाव० नि० शाकवर्ग० पृ० ६९१, ६९२)
M
कच्छा
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कच्छा (कच्छा) भद्रमुस्ता कच्छा | स्त्री । भद्रमुस्तायाम्, श्वेत दुर्व्वायाम्, चौरिकायाम्, वाराहीकंदे |
(वधक शब्द सिंधु पृ० १७९ )
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में कच्छा शब्द जलरुह वर्ग के अन्तर्गत है। ऊपर के चार अर्थो में भद्रमुस्ता और श्वेत दुर्वा ये दो अर्थ जलरुह के अन्तर्गत आ सकते हैं। यहां भद्रमुस्ता अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। अन्य भाषाओं में नाम
हि० - मुथा, मोथा, भद्रमोथा । म० - मोथा, बिम्बल। बं०मोथा, मूथ। बंबई - बडीकमोठ, मुस्ता। पं० - डीला । गु०मोथ, मोथा। ता०-कारा, कोरइ । ते० भद्रमुस्त, तुङ्गमुस्ते ले०-Cyperus Rotundus ( सायपरस रोटुण्डस्) ।
उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष में सर्वत्र यह ६००० फीट की ऊंचाई पर जमीन, बगीचा और सड़क के किनारे खुली जगहों
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में, पानी के स्थानों में, नदियों, तालाबों में, जलभरे गडहों में पाया जाता है।
विवरण - यह कर्पूरादि वर्ग और मुस्तादि कुल की क्षुद्र वनस्पति होती है। नागरमोथा जहां सूखी जमीनों में पैदा होता है वहां यह भद्रमोथा सजल जमीन में या जल के किनारे पैदा होता है। क्षुप तृणाकार काण्ड तनु, सरल, कांड के शिखर पर लंबे तनु, चक्र के आराओं की तरह जुडे हुए पत्र । इसकी डंडी तिकोनी होती है और वह १ से २ फुट तक ऊंची होती है। डंडी के सिरे पर फूल का गुच्छा आता है। उसके ऊपर हरे रंग के छोटे-छोटे फूल आते हैं। इन फूलों के इधर उधर लंबे-लंबे पत्ते भी होते हैं। इसकी जड़ें गोल बाहर से काली कठोर और भीतर से सफेद सुगंधित होती है अथवा सहज लाल होती है। यह कंद भूमि में फैलता हुआ तृणरूप कांड देता जाता है। यही जडें औषधि प्रयोग के काम में आती हैं।
( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ४७० )
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कच्छुरी
प० १ / ३७ / १
कच्छुरी (कच्छुरी) आमला कच्छुरी | स्त्री । धातक्याम् ( वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १८० ) कच्छुरा । स्त्री । कपिकच्छौ, रक्तदुरालभायाम्, कर्पूरशट्याम् आम्रहरिद्रायाम्, महाबलायाम्। (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० १८० )
विमर्श - कच्छुरा के ऊपर पांच अर्थ दिए गए हैं और कच्छुरी का एक अर्थ है। प्रस्तुत प्रकरण में कच्छुरी शब्द गुच्छ वर्ग के अन्तर्गत है। इसलिए ऊपर के ६ अर्थों में धातकी (आमला) अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। क्योंकि आमला के फूल गुच्छों में शाखाओं से सटे रहते हैं।
विवरण- इसका वृक्ष मध्यमाकार का सुहावना होता है, किंतु जंगली वृक्ष ऊंचे कद का बडा होता है। छाल चौथाई इंच मोटी हलके खाकी एवं छिलकेदार होती है। लकडी लाल रंग की और मजबूत होती है। इसमें सारभाग नहीं होता है। पत्ते छोटे-छोटे इमली के पत्तों के समान और फूल लाई के दानों के समान हरापन युक्त, पीले रंग के गुच्छों में शाखाओं से सटे रहते हैं। वंसत ऋतु में जब इसके पुराने पत्ते झड जाते हैं तब वृक्ष पत्रशून्य दिखाई पडता है। उसी समय वह फूलता है और नवीन पत्ते निकलते हैं। फल डालियों में सटे हुए दिखाई देते हैं। वे गोल चमकदार और ६ रेखाओं से युक्त होते हैं। कच्ची अवस्था में हरे, पकने पर हरापन युक्त किंचित् पीले या सुर्ख
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और सूखने पर काले रंग के होकर फांके पृथक्-पृथक् हो जाती है और साथ ही गुठली भी फट जाती है। उनसे त्रिकोणाकार छोटे-छोटे बीज निकलते हैं।
(भाव० नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ० ११ )
कच्छुल
प० १/३८/२
कच्छुल (कच्छुरा) महाबला कच्छुरा । स्त्री । कपिकच्छौ । रक्त दुरालभायाम् । कर्पूरशट्याम् आम्रहरिद्रायाम्। महाबलायाम् ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १८० ) विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में कच्छुल शब्द गुल्मवर्ग के अन्तर्गत है । महाबला के क्षुप होते हैं इसलिए यहां महाबला अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
महाबला के पर्यायवाची नाम
महाबला पीतपुष्पा, सहदेवी च सा स्मृता । महाबला, पीतपुष्पा और सहदेवी ये सब महाबला के पर्यायवाची नाम हैं।
(भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३६६ )
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - सहदेई, सहदेया, पीतबला । बं० - पीतबेडेला । म०चिकणी, सहदेवी, तुपकडी । गु० -खेतराऊ बल, खेतराऊबल दाणा | पं० - सहदेवि । ते० - मयिलमाणिक्यम्, ता० - मयिरमाणि क्कम्।ले०-Sida Rhombifolia Limn (सिडा राम्बिफोलिया लिन० ) Fam. Malvaceae (माल्वेसी)।
उत्पत्ति स्थान- यह क्षुप जाति की वनौषधि प्रायः सब प्रान्तों में कहीं न कहीं पाई जाती है। यह ऊसर भूमि में अधिक होती है।
विवरण- इसका क्षुप १ से ४ फीट ऊंचा, झाडदार और सीधा होता है। पत्ते २ से ३ इंच लंबे अभिलट्वाकार या तिर्यगायताकार तथा दन्तूर होते हैं। फूल पीले रंग के बरियारे फूलों के आकार वाले किन्तु उनसे कुछ बड़े होते हैं। फल बरियारे के ही समान होते हैं।
(भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३६९)
कटाह
कडाह (कटाह) कटाह
प०१/४८/४९
विमर्श - सोढल निघंटु में कटाह के गुण धर्म मिलते हैं। पर इसके पर्यायवाची नाम, विवरण आदि विशेषवर्णन कहीं नहीं मिला है।
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सुरभिः श्वासकासघ्नो रूक्षोष्णो दीपनो लघुः । कटाहवल्कलगुंदौ च ग्राहिणौ शीतलौ गुरुः ।। ५८९ ॥ (सोढल निघंटु श्लोक ५८९ पृ० १४२)
कडुयतुंबग
कडुयतुंबग (कटुतुम्बक) कडवी लौकी ।
उत्त०३४/१०
कटुतुम्बी के पर्यायवाची नाम
तुम्बी लंबा पिण्डफला, राजन्या प्रवरा परा ॥ कटुतुम्बी तिक्तबीजा, तिक्तालाबु र्महाफला ५४१ राजपुत्री पिण्डफला, दुग्धिनीका च दुग्धिका ॥ तुम्बी, लम्बा, पिण्डफला, राजन्या, प्रवरा, कटुतुम्बी तिक्तबीजा, तिक्तालाबु, महाफला, राजपुत्री, पिण्डफला दुग्धनका और दुग्धिका ये पर्याय कटुतुम्बी के हैं । (कैयदेव नि० औषधिवर्ग श्लोक ५४१, ५४२)
कड़वी तुम्बी के लता, पत्र, पुष्पादि सब अलाबू के समान होते हैं। फल बहुत कडवा होता है। यह इसका वन्य भेद है।
(भाव० नि० शाकवर्ग० पृ० ६८२ )
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कडुयरोहिणी कडुयरोहिणी (कटुकरोहिणी) कटुरोहिणी, कटुकी।
उत्त० ३४/१० विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कडुयरोहिणी शब्द रस की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है।
अन्य भाषाओ में नाम
हि०-कनेर, कनइल, कनैल, करवीर। बं०-कराबी, करवी। म०-कण्हेर। गु०-कणेर, करेण। ता०-अलरी ते०कस्तूरिपट्टे,गन्नेस।क०-कणगिलु।मल०-कणावीरम्।संथा०राजबाहा। पं०-कनिर। अ०-दिफ्ली, सम्मुलहिमार। फा०खरजहरा। अं०-Sweet Scented Oleander (स्वीट सेटेंड ओलिएण्डर)RooseberrySpurge (रुजबेरी स्पज)ले०Nerium Odorum Soland (नेरियम् ओडोरम्सोलँड) Fam. Apocynaceae (एपोसाइनेसी)।
Nenum odonium, Soland)
विवरण-इसके मूल की लकड़ी सफेद या लाल रंग की होती है। छाल मोटी, लाल रंग की और इसके ऊपर का छिलका भूरे रंग का खड़ बचडा होता है। गंध कड़वी, स्वाद कषैला, और कड़वा होता है। (धन्वन्तरिवनौषधि विशेषांक भाग६ पृ० ११६) देखें लोहि शब्द।
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता है।
दक्षिण एवं उत्तर प्रदेश में यह जंगली होता है। बगीचों में फूलों कणइर
के लिए यह लगाया हुआ मिलता है। कणइर (कणवीर) कनेर, सफेद कनेर प०१/२८/१
विवरण-इसका क्षुप मजबूत सदा हरित, सीधी शाखाओं कणवीर के पर्यायवाची नाम
से युक्त एवं प्रायः१० फीट से अधिक ऊंचा नहीं होता। पत्ते
४ से ६ इंच लंबे, करीब १ इंच चौडे, नुकीले एवं एक साथ करवीरो मीनकाख्यः, प्रतिहासोऽश्वरोहकः॥१५३९॥
तीन-तीन रहते हैं। फूल सुगंधयुक्त,श्वेत, रक्त एवं गुलाबी वर्ण शतकुम्भः श्वेतपुष्पः, शतप्राशोऽब्जबीजभृत्।
के करीब १.५ इंच व्यास के एवं व्यस्त छत्राकार होते हैं। फली कणवीरोऽश्वहाऽश्वघ्नो, हयमारोऽश्वमारकः।। १५४०॥
करीब ५ से ६इंच लंबी, चिपटी एवं गोलाकार होती है। बीज करवीर, मीनकाख्य, प्रतिहास, अश्वरोहक, शतकुम्भ,
भूरे वर्ण के रोमावृत अनेक बीज होते हैं। इसके कांड को काटने श्वेतपुष्प, शतप्राश, अब्ज बीजभृत्, कणवीर, अश्वहा, अश्वन, .
' से दूध बहता है। इसके सभी भाग विषैले होते हैं। जानवर हयमार, अश्वमारक ये सब श्वेत करवीर के पर्याय हैं।
इसको नहीं खाते। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३१५) (कैय०नि० ओषधिवर्ग० पृ० ६३१)
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कणइरगुम्म कणइरगुम्म
ल्म देखें कणइर शब्द। जीवा०३/५८० जं० २/१०
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के मन्द कटिबंध में काश्मीर से लेकर सिक्किम तक ९००० फीट की ऊंचाई तक, मध्यभारत के पहाडी प्रदेश, दक्षिणी एवं अन्य प्रान्तों में भी पाया जाता
है।
विवरण-इसका क्षुप एक वर्षायु तथा करीब २ से ४ फीट कणक
ऊंचा होता है। कांड हरा या जामुनी रंग का काला होता है। पत्ते कणक (कनक) धतूरा
भ०२१/१७ अण्डाकार, धार पर लहरदार या गहरे विच्छोदों से युक्त, करीब कनक के पर्यायवाची नाम
७ इंच लंबे, ५ इंच चौडे, हल्के हरे रंग के चिकने (कोमल धत्तूरः कनको धूर्तो, देवता कितवः शठः।
पत्र लोम युक्त) तथा पर्णवन्त से युक्त होते हैं। इनमें उग्रगंध उन्मत्तको मदनक: कालिश्च हरवल्लभः ।।६।।
रहती है तथा इनका स्वाद कडवा एवं अरुचिकारक होता है।
पुष्प श्वेत भूरे या कभी-कभी बैंगनी आभायुक्त, दलपत्र करीब कनक, धूर्त, देवता, कितव, शठ, उन्मत्तक, मदनक, कालि
३ से ६ इंच लंबे तथा संख्या में ५ रहते हैं। फल अंडाकार, और हरवल्लभ ये धत्तूर के पर्याय हैं। (धन्व० नि० ४/६ पृ० १८१)
ऊर्ध्वमुख चार खंडों से युक्त तथा कठोर, लंबे एवं छोटे कंटकों अन्य भाषाओं में नाम
से ढका हुआ शीर्ष पर चार फांक में खुलने वाला एवं इसके हि०-धतूर, धतूरा, धातूरा। बं०-धुतुरा, धुत्तूरा। म०- आधार पर बाहर और नीचे की ओर मुडा हुआ स्थायी प्रबुद्ध धोत्रा। गु०-धंतूरो, धत्तूरो। प०-धत्तूर, धत्तूरा। मल०-उन्म, बाह्य दल रहता है। बीज चिपटे, वृक्काकार, करीब ३ मि० मि० उन्मत्तं।क०-मदेकणिकेते०-उम्मेत्त धत्तरमाता०-उम्मत्तई। लंबे, २ मि० मि० चौडे १ मि० मि० मोटे, काले से भरे रंग फा०-तातूरह, तातूरा।अ०-बौजमासम, जौजुल्मासेल।अं०
के ,खुरदरे, स्वाद में कडवे, तैलीय एवं अत्यन्त गंधवाले रहते Datura (दतुरा), Thornapple (थार्ने पल) ले०
(भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३१८) D.NILHUMMATU (ड. निलहुम्माटु)।
कणय कणय (कनक) कसौंदी, कासमई क्षुप। प० १/४१/२ कनकः। पुं. कासमईक्षुपे। जयपालवृक्षे, रक्तपलाशवृक्षे नागकेसरवृक्षे,कृष्णागुरुवृक्षे, धूस्तूरवृक्षे,चम्पकवृक्षे,लाक्षातरौ, कृष्णधूस्तुरे।
(वैधक शब्द सिन्धु पृ० १९६) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कणय शब्द पर्वक वर्ग के अन्तर्गत है इसलिए कनक के ९ अर्थो में यहां कासमई (कसौंदी) अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। कनक के पर्यायवाची नाम
कासमर्दोऽरिमर्दश्च, कासारिः कासमईकः। कालः कनक इत्युक्तो, जारणो दीपकश्च सः।। १७९॥
कासमर्द, अरिमर्द, कासारि, कासमईक, काल तथा कनक ये सब कासमई के नाम हैं और यह जारण तथा दीपक कहा गया है।
(राज०नि०४/१७१ पृ०९६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कसौंदी, कासिंदा, कसौंजी, गजरसाग तथा काली
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कसौंदी। गु०-कासोंदरो, कसंदी, कूजो। म०-कासबिंदा, फलियां ३ इंचलंबी तथा आधे इंच से कुछ कम चौडी, लम्बी, हिकल तथा रानटांकला।बं०-केसेन्दा, कालकसुंदा, कालका पतली, चिकनी व चिपटी होती है। बीज प्रत्येक कली में १० कसौंदा।अं०-Negro Coffee Plants(निग्रोकाफी प्लांटस्)। से ३० तक भूरे चक्रिकाकार या गोलाकार होते हैं। कसौंदी और ले०-Cussia Occidentalis (कसीआ ऑक्सीडेन्टलिस्)। चकवड में भेद यह है कि चकवड़ के क्षुप छोटे, पत्ते गोल,
फली पतली गोल और बीज उर्द जैसे होते हैं। कसौदी
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १८२, १८३) Casaia, occidentalis,lim.
कणियाररुक्ख कणियाररुक्ख (कर्णिकार वृक्ष) छोटा अमलतास। कनियार।
ठा०१०/८२/१ कर्णिकारः। । क्षुद्रस्वालुवृक्षे।
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० २२१, २२२) कर्णिकार के पर्यायवाची नामअथभवति कर्णिकारो राजतरुः प्रग्रहश्च कृतमालः। सुफलश्च परिव्याधो व्याधिरिपुः पङ्क्ति बीजको वसुसंज्ञः।।४२॥
कर्णिकार, राजतरु, प्रग्रह, कृतमाल, सुफल, परिव्याध, व्याधिरिपु तथा पङ्क्तिबीजक ये सब कर्णिकार के आठ नाम
(राज०नि०९/४२ पृ० २७२) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कलियार, कनियार, अमलतास, धनबहेरा, बानर
काकडी। म०-लघुबाहवा। गो०-छोट सोणालु गाछ। ते०उत्पत्ति स्थान-कसौंदी बाहर से यहां लाई गई है और चारों रेल्लचेट्ट, गोगुचेटु।ते०-रेल्लचेट्टाबं०-सोनालु, बन्दरलाटी।
ओर प्रचरता से इसने अपना विस्तार कर लिया है। हिमालय पं०-कनियार अमलतास करंगल। ग०-गरमालो। अं0से लेकर दक्षिण में सीलोन पर्यन्त तथा पश्चिम बंगाल आदि
Pudding Pipe Tree(पुडिंग पाइप ट्री) ले०-Cassia देशों में प्रायः सर्वत्र सुलभ है किन्तु काली कसौंदी अब दुर्लभ Fistula(केशिया फिस्तुला)। होती जाती है। यह प्राय: पर्वतीय प्रदेशों में गांवों के आसपास कहीं-कहीं मिलती है। ब्रह्मदेश में यह अधिक पायी जाती है।
अमलतास. विवरण-शाकवर्ग और सुरसादि गण की यह वनौषधि नैसर्गिक क्रम से मुख्यतः शिम्बी कुल एवं उपकुल पूतिकरंज कुल की है। सर्वसाधारण कसौंदी का क्षुप चकवड़ के क्षुप जैसा वर्षारम्भ में ही कूडाकर्कट वाले खाली स्थानों पर उपज आता है तथा पूर्ण वर्षाकाल तक यह अधिक से अधिक ५-- ६ फीट लंबा सीधा बढ़ जाता है। यह बहुशाखा युक्त होता है। पत्र संयुक्त आमने सामने, प्रत्येक सीक में प्रायः५-५, २ से ४ इंच लंबे तथा १ से ३ इंच चौडे, गोल नुकीले होते हैं। पत्र का ऊपरी भाग चिकना, अधोभाग कुछ खरदरा सा होता है। फूल क्षुद्र, पीतवर्ण के, चकवड के पुष्प जैसे १ इंच व्यास के होते हैं। यह क्षुप वर्षान्त में या शीतकाल में फूलता फलता है। हेमन्त में फलियां परिपक्व होने पर यह सखने लगता है।
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उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः समस्त भारतवर्ष में ब्रह्म देश, खूब चिकने होते हैं। ये बीज बड़े कड़े होते है। फोडने से अंदर बंगाल,पश्चिम भारतीय द्वीपसमूह,दक्षिण अमेरिका के ब्रेझिल । से पीली दाल निकलती है। पेड़ की लकडी बडी मजबूत होती प्रान्त में तथा अफ्रीका के उष्ण प्रदेशों में पाया जाता है। है। घरों पर छप्पर के काम में या कूप के अंदर पानी की सतह
विवरण-बडा अमलतास और छोटा अमलतास ऐसे दो पर लगाने के काम में आती है। लकडी की राख रंग के काम भेद अमलतास के हैं। बड़े को महाकर्णिकार और छोटे को आती है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १पृ० २१५ से २१७) कर्णिकार कहा गया है। छोटा अमलतास या कर्णिकार का पेड बडे अमलतास से कम कद का रेत मिश्रित भूमि (मध्य प्रदेश
कण्ह चांदा के जंगल में तथा अन्य ऐसे ही जंगलों में) पाया जाता कण्ह (कृष्णा) कृष्ण सारिवा, दुधलत प० १/४०/३ हैं। इसकी फलियां बडे अमलतास की फलियों की अपेक्षा विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में "कण्ह-सूरवल्ली य" पाठ है। लंबाई और गोलाई में छोटी होती हैं। इसकी पुष्पमाला निर्गन्ध कण्ह और सूरवल्ली का समास है। यहां कण्ह शब्द कण्हवल्ली होती हैं। पेड की गोलाई ३ से ५ फुट तक होती है। शाखायें का द्योतक है इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में कण्हवल्ली का अर्थ खूब घनी मोटी और पतली होती है। शाखाओं से एक प्रकार किया जा रहा है। कण्हवल्ली यानि कृष्ण वल्ली। इसका संक्षिप्त का लाल रस निकलता है जो जमकर पलास के गोंद जैसा हो नाम या पर्यायवाची नाम कृष्णा भी है। जाता है। पेड़ की जड़ें जमीन में बहुत गहरी गई हुई होती हैं। कृष्णवल्ली । स्त्री। कृष्णतुलस्याम्। कृष्णसारिवायाम्। जड़ की लकडी बडी कड़ी होती है तथा ऊपर छाल धूसर
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०३१३) लालवर्ण की रस से युक्त होती है।छाल की गंध उग्र और स्वाद कृष्णा के पर्यायवाची नाममें कुछ कसैली कडुवी होती है। पत्र जामुन के पत्र जैसे सारिवाऽन्या कृष्णमूली कृष्णा चन्दनसारिवा। अंडाकार, आमने सामने जोड़े से लंबी सीकों पर लगते हैं। पत्र भद्रा चन्दनगोपा तु चन्दना कृष्णवल्ल्यपि॥११८॥ धारण करने वाली सींक १२ से १८ इंच तक लंबी होती है। दूसरे प्रकार की सारिवा को कृष्णमूली कहते हैं। जिसमें पत्रों के ४ से ८ जोडे लगते है। पत्ते की लंबाई ३ से कृष्णमूली, कृष्णा, चन्दनसारिवा, भद्रा, चन्दनगोपा, चन्दना ५ इंच तक (कर्णिकार से पत्ते की लंबाई १.५ से ३ इंच) और तथा कृष्णवल्ली ये सब कृष्णसारिवा के नाम हैं। चौडाई १.५ से २.५ इंच तक होती है। पत्र का पृष्ठ भाग चिकना
(राज०नि० व०१२/११८ पृ०४२०) और डंठल ह्रस्व होता है। कर्णिकार में पत्तियों के झड जाने ___ अन्य भाषाओं में नामपर प्राय:वैशाख या जेठ मास में पीत पुष्पों की माला से सम्पूर्ण हि०-कालीसर, काली अनन्तगूल, दुधलत बं०-कृष्ण पेड बडा ही सुन्दर दिखाई देता है। इसमें गंध नहीं होती। प्रत्येक अनन्तमूल,श्यामालता।म०- श्यामलता।क०-करीउंबु।ते०-- पुष्प में प्राय: ५ पंखुडियां होती हैं। पुष्पों का डंठल १.५ से नलतिग। ले०-Ichnocarpus fruitcscens (इक्रोकार्पस् २.५ इंच लंबा, मुलायम और नीचे की ओर झुका हुआ होता टेसेन्स)। है। पुष्प डंठल के मूलभाग में तीन पुष्पपत्र होते हैं जो १.८ उत्पत्ति स्थान-इसकी लता भारतवर्ष के सभी भागों में से ३.१६ इंच लंबे तथा धूसर चमकीले रोवों से व्याप्त रहते होती है। हैं। बीच का पुष्पपत्र कुछ अधिक लंबा होता है। फली ज्येष्ठ विवरण-यह बहुत फैलने वाली एवं काष्ठीय होती है। मास में प्रायः पुष्पों के झड जाने पर आती हैं। ये फलियां आरंभ पत्ते चिकने, आयताकार, अण्डाकार, जामुन के पत्रसदृश में पतली पतली सलाई जैसी नील हरित वर्ण की निकलती क्षोदलिप्त रहते हैं। पत्रसिराएं पत्र तट के पहले ही परस्पर मिली है। जो वर्षा के अंत तक २.५ फुट तक लंबी हो जाती है। छोटे हुई रहती है। पुष्प पाण्डुरपीत और फलियां दो-दो एक साथ अमलतास की फलियां अधिक से अधिक १.५ फुट लंबी और रहती हैं। काण्डत्वक रक्ताभ कृष्ण एवं पतने परतों में छूटने गोलाई में ३/४ से १ या १.५ इंच तक नलाकार होती है। बीज वाली होती हैं। इस लता से अत्यधिक दूध निकलता है। इसके फली के प्रत्येक परत में २ से ३ बीज होते है। प्रत्येक फली मूल में कोई गंध नहीं होती। ( भाव०f ० गुडुच्यादि वर्ग पृ०४२७) में कुल २५ से १०० तक बीज चक्रादार, रक्ताभ धूसरवर्ण के
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उत्पत्ति स्थान-इस देश में गरम प्रान्तों में पूर्व नेपाल से आसाम खासिया के पहाड़ों पर, बंगाल में पश्चिम की ओर बंबई तक तथा दक्षिण की ओर ट्रावनकोर तक पायी जाती है, सीलोन, मलाक्का तथा फिलीपाइन द्वीपों में भी यह पाई जाती
कण्ह कण्ह (कृष्णा) पीपल, पीपर। प०१/४०/३ कृष्णा के पर्यायवाची नाम
पिप्पली मागधी कृष्णा वैदेही चपला कणा उपकुल्योषणा शौण्डी कोला स्यात् तीक्ष्णतण्डुला
पिप्पली,मागधी, कृष्णा,वैदेही, चपला,कणा, उपकुल्या, ऊष्णा,शौण्डी, कोला और तीक्ष्णतण्डुला ये सब संस्कृत नाम पीपर के हैं। (भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ०१५) अन्यभाषाओं के नामहि०-पीपर, पीपल।बं०-पीपुल,पिपुलाम०-पिंपली।गु०पीपर, लीड़ीपीपल, लिंडीपीपल। क०-हिप्पली। ते०पिप्पलु, पिप्पलि,पिप्पलचेटुाता०-तिप्पिली।तु०-इप्पली। मला०-तिप्पली। ब्राह्मी-पौरवीन। गोम०-हिपली। मा०पीपल। फा०-पिलपिल दराज, फिलफिल दराज। अ०दारफिल्फिलाडालफिल्फिलाअं०-Long Peppr (लॉग पीपर) Dried catkins (ड्राइड कॅट किन्स)। ले०-Piper Longum Linn (पाइपर लॉगम) Chavica Roxburghii (चविकाराक्सबर्घाइ)।
विवरण-पीपल लताजाति की वनौषधि का फल है। इसकी बेल अन्य लताओं की भांति अधिक विस्तार में नहीं बढ़ती किन्तु थोडी ही दूर में फैलती है। पत्ते २-१/२ से ३-१/२ इंच के घेरे में, गोलाकार पान के पत्तों के आकार वाले कोमल होते है। ऊपर के पत्ते बिनाल होते है। फल गुच्छ १ से १-१/२ इंच लंबे और कृष्णाभ होते हैं। जिनमें अत्यन्त छोटेछोटे फल लगे रहते हैं।
(भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग० पृ०१६)
कण्ह कण्ह (कृष्णा) कृष्ण तुलसी। प०१/४४/३
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कण्ह शब्द तुलसी शब्द के अनन्तर ही है। लगता है यह कण्ह शब्द कृष्ण तुलसी का वाचक होना चाहिए। यहां कृष्णतुलसी का अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। कृष्णा के पर्यायवाची नाम
तुलसी सुरसा कृष्णा भूतेष्टा देवदुन्दुभिः भूतप्रिया नागमाता चक्रपर्णी सुमंजरी॥ १५५१॥ स्वादुगन्धच्छदा भूतपति श्चापेतराक्षसी॥
तुलसी, सुरसा, कृष्णा, भूतेष्टा, देवदुन्दुभि, भूतप्रिया, नागमाता, चक्रपर्णी, सुमञ्जरी, स्वादुगन्धच्छदा, भूपति, अपेतराक्षसी ये सब कृष्ण तुलसी के नाम है।
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग पृ०६३३) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-तुलसी। बं०-तुलसी। गु०-तुलसी। म०-तुलस। ते०-गग्गेर चेट्ट। ता०-तुलशी। क०-एरेड तुलसी। अं०Holy Basil (होली वेसिल)।ले०-Ocimum Sanctum Linn(ओसीमम् सेंक्टम्)।
उत्पत्ति स्थान- केवल भारतवर्ष में ही प्रायः सर्वत्र उष्ण एवं साधारण प्रदेशों के वनों उपवनों में निसर्गतः होती है एवं घरों, मंदिरो में भी प्रचुरता से पूजाकार्यार्थ तथा मलेरिया आदि रोगों के कीटाणुनाशार्थ वायुशुद्धि के लिए लगाई जाती है।
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पिप्पली
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विवरण-श्वेत और कृष्ण (काले) भेद से तुलसी आरबोरिया)। की दो जातियां है। कृष्णा के पत्रादि कृष्णाभ होते हैं। उत्पत्ति स्थान-भारत वर्ष के कई प्रान्तों में तथा गुण धर्म की दृष्टि से काली तुलसी श्रेष्ठ मानी जाती है। सीलोन, श्याम आदि देशों में इसके वृक्ष जंगलों में पाये (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग 3 पृ० ३५८) जाते हैं।
विवरण-वटादि वर्ग की इन वनौषधि के वृक्ष ऊंचे कण्ह
३० से ६० फुट तक होते हैं। पुष्प भेद से इसके श्वेत कण्ह (कृष्ण) रक्त उत्पल प० १/४८/७ उ० ३६/६८
और कृष्ण दो प्रकार हैं। श्वेत कटभी जिसके वृक्ष बहुत
ऊंचे होते हैं वह महाश्वेता और जिसके वृक्ष छोटे कद विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कण्ह शब्द वज्जकंद और
के होते हैं वह हस्वश्वेता कही जाती है। इनके फलों का सूरणकंद के साथ है । (भ०७/६६) में कण्हकंद वज्जकंद सूरण कंद शब्द हैं। इससे लगता कि यह कण्हकंद शब्द
आकार प्रकार कुछ कुंभ (घडा) जैसा होने के कारण इसे का ही संक्षिप्त रूप है। इसलिए यहां कण्ह शब्द से
कुंभी भी कहते हैं। इसके पत्ते महुये के पत्ते जैसे लंबे, कण्हकंद शब्द ग्रहण कर रहे हैं।
गोलाकर, चौड़े, मुलायम और तीक्ष्ण नोंक वाले होते हैं। पुष्पों की मंजरी साथ लगती है। किसी वृक्ष में श्वेतवर्ण
के और किसी में कुछ काले वर्ण के फूल, कुछ दुर्गन्ध कण्हकंद
युक्त होते हैं। इनमें ४ पंखुडियां होती हैं। इसके फल कण्हकंद (कृष्णकन्द) रक्त उत्पल
हरित वर्ण के गोलाकार, मुलायम, गूदेदार अण्ड खरबूजे
भ० ७/६६ जीवा० १/७३ जैसे किन्तु इनसे छोटे होते हैं। वृक्ष की छाल भूरे रंग कृष्णकन्दम् । क्ली। रक्तोत्पले।
की और लकडी सदढ होती है। इसके दस्ते बनाये जाते ___ (वेधक शब्द सिन्धु पृ० ३०६) हैं। इसकी छाल, फल, फूल और पत्ते औषधि कार्य में
लिये जाते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ४४,४५) कण्हकडबू कण्हकडबू (कृष्ण कटभी) कृष्णपुष्पवाली कटभी
कण्हकणवीर प०१/४८/३ विमर्श-वनस्पतिशास्त्र में कडबू, कटबू, कडभू
कण्ह कणवीर (कृष्ण कणवीर) काला कनेर ।
(जीवा० ३/२७८) और कटभू ये संस्कृत रूप नहीं मिलते हैं। कटभू के स्थान
देखें किण्ह कणवीर शब्द। पर कटभी मिलता है। इसलिए इसे ही ग्रहण किया जा रहा है।
" किण्ह कणवीर (कृष्ण कणवीर) काला कनेर ।
रा० २५ जीवा० ३/२७८ प० १७/१२३ कटभी के पर्यायवाची नाम
कृष्ण कणवीर के पर्यायवाची नामकटभी स्वादुपुष्पश्च, मधुरेणुः कटम्भरः। कटभी, स्वादुपुष्प, मधुरेणु, कटम्भर ये कटभी के
कृष्णस्तु कृष्णकुसुमः। पर्यायवाची हैं। (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४३)
__कृष्ण कनेर का कृष्णकुसुम नाम है। (रजि०नि० अन्य भाषाओं में नाम
१०/१६) राजनिघंटु और निघंटुरत्नाकर में कृष्ण या
कालेकनेर की भी बात कही गई है किन्तु यह कहीं देखने हि०-कटभी, कटही, हारियल। म०-कुम्भा,
में नहीं आता है (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ६०) वाकुम्भा। बं०-कम्ब, कुम्भ, वकुम्भ,। गु०-कुम्बि,
देखें कणइर शब्द। टीबरू, वापुम्बा । अंo-Patana Oak Careystree (पाटन ओक केरियास ट्री)। ले०-Careya Arborea (केरिया
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कण्हा कटभू
कहा कटभू (कृष्णकटभी) कृष्णपुष्प वाली
कटभी |
रा० भ० २३/१
देखें कण्हकडबू शब्द ।
कण्हासोय
कण्हासोय (कृष्णाशोक) काला अशोक,
रा० जीवा० ३/२७८ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में कण्हासोय शब्द काले वर्ण की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। अशोक की पक्की फलियों का रंग काला होता है। फलियों के रंग के आधार पर अशोक को काला कहा गया है ।
विवरण- फलियां ४ से १० इंच लंबी और १ से २ इंच चौड़ी, सिरस की फली जैसी ज्येष्ठमास में लगती है । फली के अंदर बीज ४ से १० तक होते हैं। फलियां कोमल अवस्था में गहरे जामुनी रंग की और पकने पर काले वर्ण की हो जाती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० २७६ )
www.
कतमाल
कतमाल (कृतमाल) छोटा अमलतास ।
कृतमालः (पु०) हस्वारग्वधे
कृतमाल के पर्यायवाची नाम
आरग्वधे कृतमालः, कर्णिकारः सुपर्णकः ।। ६७ ।। पीतपुष्पो दीर्घफलः, शम्याक श्चतुरङ्गुलः । व्याधिहा रेवतश्चूली, प्रग्रहो राजपादपः ।। ६८ ।। आरोग्यशिम्बिका कर्णी, स्वर्णशेफालिकेत्यपि ।। आरग्वध, कृतमाल, कर्णिकार, सुपर्णक, पीतपुष्प, दीर्घफल, शम्याक, चतुरङ्गुल, व्याधिहा, आरेवत, चूली, प्रगह, राजपादप, आरोग्यशिम्बिका, कर्णी, स्वर्णशेफलिका ये कृतमाल के नाम हैं ।
( सटीक निघंटुशेष १/६७,६८,६६ पृ० ५५.५६)
जीवा० ३ / ५८२ जं० २/८
कर्णिकारवृक्षे ।
(वैधक शब्द सिन्धु पृ० ३०६ )
देखें कणियाररुक्ख शब्द ।
जैन आगम वनस्पति कोश
कच्छुल
कच्छुल (कच्छुरा ) महाबला देखें कच्छुल शब्द |
कत्थुलगुम्म (
DOO
कत्थुलगुम्म )
विमर्श - प्रस्तुत
जीवा० ३ / ५८० जं० २/१० प्रकरण जीवाजीवाभिगम (३ / ५८०) और जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति ( २/१०) में समान पाठ है। प्रज्ञापना १/३८/१,२,३ श्लोक में गुल्म वाचक जितने शब्द हैं वे ही सब शब्द उसी क्रमसे जीवाजीवाभिगम और जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में हैं। केवल एक दो स्थान पर शाब्दिक अन्तर है। प्रज्ञापना सूत्र १ / ३८/२ में वत्थुल के बाद कच्छुल शब्द है । प्रस्तुत सूत्रों में वत्थुल के बाद कत्थुल शब्द है । कत्थुल शब्द निघंटुओं और आयुर्वेद के कोशों में कहीं नहीं मिलता। कच्छुल शब्द मिलता है। संभव है कच्छु शब्द के स्थान पर कत्थुल लिखा गया हो। पुरानी लिपि में च्छ और त्थ में लिखने में बहुत थोड़ा सा अन्तर है । इसलिए यहाँ कच्छुल शब्द ग्रहण कर रहे हैं।
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कदंब
कदंब (कदम्ब) कदम कदम्ब के पर्यायवाची नाम
औ० ६ जीवा० ३ / ५८३
कदम्बो वृत्तपुष्पश्च, सुरभि र्ललनाप्रियः । कादम्बर्यः सिन्धुपुष्पो, मदाढ्यः कर्णपूरकः ।। ६४ ।। कदम्ब, वृत्तपुष्प, सुरभि, ललनाप्रिय, कादम्बर्य, सिन्धुपुष्प, मदाढ्य, कर्णपूरक ये कदम्ब के पर्याय हैं। (धन्व० नि० ५ / ६४ पृ० २४८ )
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कदम, कदंब । बं० - कदम । म० - कदम्ब । गु० - कदम्ब । क० - कड़ब | ० - कदंबमु । ता० - येल्लइ कदम्ब । ले० - Anthocephalus Cadamba
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Mig (एंथोसिफेलस कदम्ब)Fam. Rubiaecae (रूबिएसी)।
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NEXTREMEE
MEIN
कदलि कदलि (कदली) केला
भ०२२/१ कदली के पर्यायवाची नाम
कदली वारणा मोचाऽम्बुसारांशुमती फला।।
कदली. वारणा, मोचा, अम्बुसारा तथा अंशुमतीफला ये केला के संस्कृत नाम हैं।
(भाव०नि० आम्रादिफल वर्ग० पृ० ५५६) अन्य भाषाओं में नाम
हिO-केला, कदली. केरा। बं०-केला, कला। म०-केल। गु०-केला। क०-बालि। ते०-अरटि। ता०-वाले। फाo-मोज़, मोझ। अ०-तल्ह। so-Plantain (प्लॅन्टेन) ले०-Musa Sapientum Linn (म्यूसा सेपिएन्टम) ले०-Fam. Musacease (म्यूसेसी)।
केला MUSA SAPIENTUM LINN.
Cl.
wwUON
MARA
DMIN
ROINVI
Chirien
-
फल
उत्पत्ति स्थान-कदम के पेड़ उत्तर, पूर्व बंगाल, मलयदेश, पेगु आदि प्रान्तों की रेतीली एवं क्षारमिश्रित भूमि में आप ही आप जंगली उत्पन्न हो जाते हैं। उत्तर भारत, उत्तर प्रदेश (विशेषतः मथुरा, वृन्दावन की ओर) तथा बिहार, बंबई, ब्रह्मा, सिंहल आदि प्रान्तों में भी कहीं बाग-बगीचों में इनका रोपण किया जाता है।
विवरण-कदम्ब का वृक्ष ४० से ५० फीट ऊंचा बड़ा और छायादार होता है। पत्ते महवे के पत्तों के समान लंबाई युक्त अंडाकार ५ से ६ इंच लंबे होते हैं। इन पर सिराएं बहुत स्पष्ट होती हैं। पुष्पगुच्छ १ से २ इंच के घेरे में, गोलाकार, नारंगी रंग के अनेक पुष्प गुच्छ होते हैं और उनसे विशेष कर रात्रि में सुगंध आती है। फल कच्चे में हरे और पकने पर फीके नारंगी रंग के १ से १.५ इंच व्यास में गोल तथा मधुराम्ल होते हैं।
(भाव०नि० पुष्पवर्ग० पृ० ४६६)
Tan
तरती
कदली
फलकाट
उत्पत्ति स्थान-इसका वृक्ष प्रायः सब प्रान्तों में होता है।
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विवरण- फलने पर इसका पेड नष्ट हो जाता है । अन्तर्भूमिशायी कंद से अंकुर निकल वृक्ष तैयार हो जाता । इसके बड़े-बड़े लंबे पत्ते मुलायम होते हैं। हवा के झोकों से जगह-जगह फट जाते हैं। इसके पत्तों पर भोजन करते हैं । भारतवर्ष में उत्पन्न होने वाले फलों में 1 आम के बाद केला ही है। सब प्रकार के केलों में बंबई का लालकेला, कलकत्ते का चाटिमकेला, चम्पककेला, (पीला केला ) प्रशंसा के योग्य हैं। पर्वतीकेला, कालाकेला राजभोग, मानभोग, चीनिया आदि केले भी बढ़िया गिने जाते हैं। अच्छी किस्म के फलों में बीज नहीं होते । (भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग० पृ० ५५६)
केले का वृक्ष बहुत ऊंचा होता है, पत्ते दो चार गज लंबे और आध-आध गज चौड़े होते हैं। यह वृक्ष खंभ के समान होता है और पत्ते में पत्ते निकलते चले जाते हैं। सिवाय पत्तों के और कोई शाखा इसमें नहीं होती, केवल पत्तों से ही वेष्टित होता है। उसके बीच में एक डंडा निकलता है। उस डंडे पर एक हजार फली आती है।
(शालि० नि० पृ० ७२४)
कदुइया
कदुइया (
प० १/४०/२
विमर्श - वनस्पति कोष में संस्कृत में यह शब्द तथा इससे निकटवर्ती शब्द नहीं मिलता। हिन्दी भाषा में कद्दूशब्द मिलता है। निघंटु आदर्श पूर्वार्द्ध पृ० ६५६ में कद्दू का अर्थ लालपेठा किया है इसलिए कहुइया शब्द के लिए कद्दू का वाचक लालपेठा और मीठी तुम्बी अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। अन्य भाषाओं में नाम
) मीठी तुम्बी, लालपेठा
सं० - अलाबु, मिष्टतुम्बी । हि० - कद्दू, मीठा कद्दू, लौका, लौकी, लौआ, रामतरोई, मीठी तुम्बी, घिया आदि। म० - दुध्या भोंपला । बं०-लाउ, कोदू मिष्टलाऊ । गु० - दुधियुं तुंबडी । क० - उबलकाई । ते० - अलबुवु, आनपकाया । फा०—कदुशीरिन् । ० - युक्तिनेहुलुकर अं० - White gourd (ह्वाइट गोर्ड) Sweat gourd (स्वीट गोड) । ले० - Cucurbita Lagenaria
अ०
( कुकुरबिटा लेजेनेरिया) ।
पत्र
फल
लता
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कली
पुष्प
फल
उत्पत्ति स्थान- यह प्रायः सब प्रान्तों में रोपण की जाती है। खेत, बाग, मचान, छप्पर आदि पर फैली हुई इसकी बेल देखने में आती है।
विवरण- इसके पत्ते मृदुरोमश ६ से ७ इंच घेरे में गोलाकार, पंच कोणाकार या पांच खण्ड वाले होते हैं। फूल सफेद रंग के आते हैं। फल १ से २ हाथ लंबागोल या गोल अथवा चिपटागोल विभिन्न प्रकार का होता है। कृषिजन्य के अनेक आकार होते हैं। कृषिजन्य की गुद्दी मीठी होती है। (भाव० नि० शाकवर्ग० पृ० ६८१ ) मीठी तुम्बी की बेल कड़वी तुम्बी जैसी ही होती है। फल के आकार में भी साम्य होता है। बीज कुछ भूरा चिपटा तथा सिरे पर त्रिशीर्ष युक्त होता है। कड़वी तुम्बी के बीज की अपेक्षा इसके बीज कुछ छोटे और मटमैले से होते हैं। यह वर्ष में दो बार फलती फूलती है। बंगाल
सभी प्रकार के कद्दू को कदु या लाऊ कहते हैं । किन्तु उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर गोल फल वाले को कद्दू तथा लंबे फल को लौकी, लौआ आदि कहते हैं। ( धन्वन्तरी वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ८१ )
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कप्पूर
सुमात्रा में होते हैं इसके वृक्ष भारत वर्ष में नहीं पाए जाते
हैं। इधर कुछ वृक्षों को लगाने का प्रयत्न किया गया है। कप्पूर (कर्पूर) कपूर रा० ३० जीवा० ३/२८३
विवरण-प्राचीनों ने कर्पूर का अपक्व भेद जो कहा कर्पूर के पर्यायवाची नाम
है वह संभवतः यही है, क्योंकि यह वृक्ष में जहां पोल हो पुंसि क्लीबे च कर्पूरः, सिताभ्रो हिमवालुकः।
अथवा चीरे पड़े हों वहां जमा हुआ ही प्राप्त होता है। घनसार श्चन्द्रसंज्ञो, हिमनामापि स स्मृतः ।।
इसको चीनी कपूर की तरह पकाकर बनाना नहीं पड़ता। कर्पूर (यह पुलिंग तथा नपुंसक लिंग में होता है)
यह कपूर चीनीकपूर की अपेक्षा भारी होने के कारण जल सिताभ्र, हिमवालुक, घनसार, चंद्रसंज्ञ (चंद्रमा के सभी ।
____ में डूब जाता है। यह हवा की उष्णता से उड़ता नहीं। पर्याय वाची नाम) हिमनामा (जितने हिम के नाम हैं वे ।
__ इसे बोतलों में रखने पर इसके कण बोतल पर जमा नहीं सभी इसके पर्यायवाची शब्द है) ये सब कपूर के संस्कृत ।
होते । यह चीनीकपूर की अपेक्षा अधिक उष्णता से उड़ता नाम हैं। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० १७३)
है। इसमें कपूर के अतिरिक्त कुछ अम्बर आदि की अन्य भाषाओं में नाम
मिश्रित गंध होती है। इसके छोटे, बड़े, गोलस्फटिक होते हि०-कपूर, भीमसेनी कपूर, बरास कपूर।
हैं, जो सफेद चमकीले, चिकने, कुछ बड़े, चूर्ण करने बं०-कर्पूर। मा०-कापूर। म०-कापूर। गु०-कपुर। में चीनीकपर की अपेक्षा देर में चूर्ण होने वाले एवं वायु ते०-कर्पूरम। ता०-कर्पूरम। फा०-कापूर। से आर्द्रता को न सोखने वाले होते हैं। यह कपूर बहुत अ०-काफर। यूंo-रियाही काफूर। अ०-Camphor महंगा होता है। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग० पृ० १७४) (कॅम्फर) Borneo Camphor (बोर्निओ कॅम्फर) ले०-Camphora (कॅम्फोरा)।
। कयंब कयंब (कदम्ब) कदम
प० १/३६/३ देखें कदंब शब्द।
करंज करंज (करञ्ज) करंज, कंटक करंज
भ० २२/२ प० १/३५/१ करज के पर्यायवाची नाम
करजो नक्तमालश्चिरबिल्वक: ।।६७||
करञ्ज, नक्तमाल, पूतिक और चिरबिल्वक ये पर्याय करज के हैं। (धन्व०नि० ५/६७ पृ० २४६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-करंज, करंजवा, किरमाल, पापर, दिठोरी। बं०-डहर, करंजा | म०-करंज । गु०-कणझी, करंज। पं०-सूचचेइन। ताo-पुंगम्, पुंकु। ते०-पुंगु, कानुगुचे? मला०-पोन्नम्, उन्नेमरम्। क०-होंगे। अंo-Smooth Leaved Pongamia (स्मूथ लीब्ड पोंगेमिया) Indian Beech (इण्डियन बीच)। ले०-Pongamia Glabra
फलशास्त्र
उत्पत्ति स्थान-इसक बहुत बड़ वृक्ष बानिआ तथा
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Vent (पोन्गेमिआ ग्लॅब्रा वेण्ट) Fam. Leguminosae ( लेग्युमिनोसी) ।
पत्र
शाख ।
फल
पुष्प
फली
उत्पत्ति स्थान - यह प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता है। सड़कों के किनारे, बगीचों में एवं नदी तथा समुद्री किनारों पर यह बहुत पाया जाता है।
विवरण- इसका वृक्ष साधारण वृक्षों की ऊंचाई का होता है और सदा हराभरा रहता है। इसकी छाया ठंडी और प्रिय होती है। शाखायें लटकी हुई होती हैं। पत्ते पक्षवत्, ८ से १४ इंच लंबे एवं पत्रदंड आधार पर फूला हुआ होता है । पत्रक हरे रंग के चमकीले, चिकने, संख्या में ५ से ७ आयताकार या लट्वाकार, नुकले २ से ५ इंच लंबे एवं छोटेवृन्त से युक्त होते हैं। फूल जरा गुलाबी और आसमानी छाया लिये हुए श्वेतवर्ण के गुच्छों में आते हैं। एक दलपत्र बड़ा होता है जो अन्य चार दलपत्रों को ढककर रखता है। सूखने के पहले ही असंख्य संख्या में पुष्प जमीन पर गिरकर भूमि को आच्छादित कर देते हैं । फलियां चिकनी, चिपटी, कठोर, एक बीजयुक्त, गहरे धूसर रंग की तथा १ से २ इंच लंबी, सेम के आकार की होती है। बीज चिपटे कृष्णाभ रक्तवर्ण के कुछ सिकुड़नदार गोलाई लिए आयताकार एवं तैल युक्त
होते हैं।
करकर (
जैन आगम वनस्पति कोश
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३५० ३५१ )
करकर
) करकरा, अकरकरा प० १/४२/२ विमर्श - करकर शब्द हिन्दी भाषा का है।
....
अन्य भाषाओं में नाम
सं०- आकारकरभ, अकल्लक, आकरकरा तीक्ष्णमूल, लक्ष्णकीलकादि । हि० - अकरकरा, करकरा, अकलकरहा म० - आक्कलकाला, अक्कलकारा। गु० - अकलकरो | ता०- अक्किरकारम् । ले०Anacyclus Pyrethrum (एनासाइक्लर्स पाइरीश्रम) Pyre - thrum Radix (पाइरीश्रम रैडीक्स) । अंo - Pellitory root (पेलीटरी रूट ) ।
उत्पत्ति स्थान- उत्तरी अफ्रीका, अरब, अल्जीरिया लीवाण्ट आदि प्रदेशों में होता है। तथा बहुत ही कम प्रमाण में बंगाल के कुछ हिस्सों में, आबू के पर्वतीय प्रदेशों में तथा गुजरात, महाराष्ट्र आदि भारतवर्ष के कतिपय
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जैन आगम वनस्पति काश
प्रान्तों की उपजाऊ भूमि में पाया जाता है।
विवरण- इसके छोटे-छोटे क्षुप वर्षा ऋतु के आरंभ काल में ही उत्पन्न हो जाते हैं। शाखायें पत्र और पुष्प सफेद बाबूना के समान ही होते हैं । किन्तु इनके डंठल कुछ पोले होते हैं। तना और शाखायें रुएंदार । ये शाखायें एक तने या डाली में से निकल कर कई हो जाती हैं। जड़ में एक प्रकार की सुगंध होती है। मूल दो इंच से ४ इंच तक लंबी और आधे से पौन इंच तक मोटी वजनदार होती है। डाली ऊपर को उठी हुई तथा पुष्प पटल श्वेतवर्ण के होते हैं। मूल की छाल मोटी, भूरी और झुर्रीदार होती है। अन्य वनस्पतियों का गुणधर्म तो एक वर्ष में नष्टप्रायः हो जाता है किन्तु इस असली अकरकरा मूल का गुणधर्म ६ वर्षों तक प्रायः जैसे का तैसा ही रहता है । इसको मुख में चबा लेने पर अन्य कटु, तिक्त आदि औषधियों का कुछ भी स्वाद मालूम नहीं देता। वे सरलता पूर्वक सेवन की जा सकती हैं। इसकी डाल के ऊपर गोल गुच्छेदार छत्री के आकार का, किन्तु बाबना से विपरीत सफेदी लिए हुए पीत वर्ण का पुष्प होता है । (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ३३)
करकर
करकर ( क्रकर ) करीर
भ०२१/१६ प० १/४२/२, १/४८/४६
क्रकरः पुं । वंशकरीरे पर्यायमुक्तावली
(वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ३२६)
विमर्श - करकर का एक अर्थ करकरा (अकरकरा ) किया है। दूसरा अर्थ करीर भी होता हैं यहां दूसरा अर्थ भी दे रहे हैं। पर्यायमुक्तावली में क्रकर शब्द है । वह उपलब्ध न होने से क्रकरीपत्र शब्द दिया जा रहा है। क्रकर के पर्यायवाची नाम
करीरः क्रकरपत्रो, ग्रन्थिलो मरुभूरुहः ।। करीर, क्रकरीपत्र, ग्रन्थिल, मरुभूरुह ये करील के संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४१)
देखें करीर शब्द |
करमद्द
करमद्द (करमर्द) करौंदा करमर्द के पर्यायवाची नाम
करमर्दक माविग्नं, सुषेणं पाणिमर्दकम् ।
कराम्लं करमर्दं च, कृष्णपाकफलं मतम् ।। ६२ ।। करमर्दक, आविग्न, सुषेण, पाणिमर्दक, कराम्ल करमर्द और कृष्णपाकफल ये सभी करमर्दक के पर्याय हैं। ( धन्व० नि० ५ / ६२ पृ० २४८ )
फल
करोंदा |
अन्य भाषाओं में नामहि० - करौंदा, म० - करवंद | गु० - करमदां । ते० - वाकाकरवंदे | ता० - कलक्के | Carandas Linn (करिसा कॅरण्डस् ) Fam. Apocynaceae (एपोसाइनेसी) ।
ao-Carissa
पुष्प
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प० १/३७/४
शाख
बं० - करमचा
क० - करिजगे ।
पत्र
उत्पत्ति स्थान - यह प्रायः बाग-बगीचों में रोपण किया जाता है तथा सभी भागों में होता है।
विवरण -- इसका वृक्ष छोटा झाड़दार और सदा हराभरा रहता है। इस पर तीक्ष्ण युग्म कांटे होते हैं । पत्ते १.५ से २ इंच लंबे, १ से १.५ इंच चौड़े, नींबू के पत्तों
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के समान होते हैं। फूल सफेद रंग के आते हैं और उनसे सुगंध आती है। फल झरबेर के आकार वाले १/२ से १ इंच लंबे, काले या सफेदयुक्त लाल रंग के होते हैं। इनका स्वाद अत्यन्त खट्टा होता है।
इसकी अन्य दो जातियां होती हैं, जिनमें से एक दक्षिण की तरफ होती है। जिसमें फल बड़े होते हैं, तथा अन्य छोटे फलवाली सभी स्थानों पर होती है जिसे मूल में करमर्दिका कहा गया है। इसका उपयोग सर्प ने काटा है या नहीं इसकी परीक्षा के लिए करते हैं। इसको शीत जल में घिसकर पिलाते हैं। यदि सांप ने कांटा है तो वमन नहीं होता।
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग पृ० ५७५)
करीर, मृदुफल, तीक्ष्णसार, हुताशन, शाकपुष्प गूढपत्र, ग्रन्थिल, सुफल, क्रकच, तीक्ष्णकंटक और कटुतिक्तक ये पर्याय करीर के हैं।
(कैयदेव नि० औषधिवर्ग श्लोक ३७६, ३७७ पृ० ७०) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-करीर, करील, करेल। बं०-करील म०-नेवती, किरल, सोदद। गु०-केरडो, केर। क०-चिप्पुरी। ते०-करीरमु। फा०-सोदाब । ता०-सेंगम्। ले०-Capparis aphylla Roth (कॅपेरिस, एफीला) Fam. Capparidaceae (कॅपेरीडेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह पंजाब, सिंध, कच्छ, पश्चिमराजपुताना गुजरात एवं दक्षिण के उत्तरीभाग में शुष्क प्रदेशों में होता है।
विवरण-इसका वृक्ष झाड़दार, कांटेदार, घना, बारीक शाखाओं से भरा हुआ एवं ६ से ७ फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते केवल नवीन शाखाओं पर होते हैं तथा ये १/२ इंच लंबे, रेखाकार, नोकीले, स्वाद में कटु तथा शीघ्र ही गिर जाते हैं। फूल गुलाबी रंग के ४/५ इंच व्यास के गुच्छों में, वसंत ऋतु में फूलते हैं। फल गोल १/२ से ३/४ इंच व्यास के लाल या गुलाबी एवं छोटे से वृत्त पर आते हैं। (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४१)
करीर करीर (करीर) करील, केर
प० १/३७/४
SURO
पुष्प
करेणुय करेणुय (करेणुक) छोटी अमलतास, कर्णिकार
भ० २३/८ करेणुकम्। क्ली०। कर्णिकारफले। तच्च विषमयमिति ज्ञेयम्। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २१५) कर्णिकार के पर्यायवाची नाम
अथ भवति कर्णिकारो राजतरु: प्रग्रहश्च कृतमालः। सुफलश्च परिव्याधो व्याधिरिपुः पंक्तिबीजको वसुसंज्ञः ।।४२।।
कर्णिकार, राजतरु, प्रग्रह, कृतमाल, सुफल, परिव्याध, व्याधिरिपु तथा पङ्क्तिबीजक ये सब कर्णिकार के आठ नाम हैं।
(राज०नि० ६।४२ पृ० २७२)
करीर के पर्यायवाची नाम
करीरको मृदुफलः, तीक्ष्णसारो हुताशनः ।।३७६ ।। शाकपुष्पो गूढपत्रः, करीरो ग्रन्थिलो मतः। सुफलः क्रकचस्तीक्ष्णकण्टक: कटुतिक्तकः ।।३७७।।
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देखें 'कणियार रुक्ख' शब्द ।
कलंब कलंब (कलम्ब) कदम्ब, धाराकदम्ब ।
ठा०८/११७/१, भ० २२/३ ओ०६ कलम्बः ।पु० । कदम्बवृक्षे,'शाकनाडिकायाम्, धाराकदम्बे
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २२७) देखें कदंबशब्द।
कल कल (कल) गोलचना
ठा०५/२०६ भ०६/३०; २१/१५ प० १/४५/१ कला वट्टचणगा
(स्थानांग वृत्ति पत्र ३२७) कल गोलचना को कहते हैं।
विमर्श-भगवती सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र और स्थानांग सूत्र में “कल मसूर तिलमुग्ग" आदि पाठ मिलता है। स्थानांग की वृत्ति में कल का अर्थ गोलचना किया है इसलिए यहाँ यही अर्थ दिया जा रहा है।
कलंबुया कलंबुया (कलम्बुका) कलमीशाक। प० १/४६ कलम्बुका। स्त्री। जलजशाकविशेषे । कलमीशाक
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० २२७)
पूष्पा
mily
'पत्र
कल कल ( ) बडी खेसारी
भ०६/३०; २१/१५ प० १/४५/१ विमर्श-धान्यवर्ग में निघंटुओं में कलायशब्द मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण में पाठान्तर में कलाय और कलाव शब्द है। इसलिए यहां कलाय शब्द ग्रहण कर रहे हैं। कला (कलाय) बडी खेसारी
कलायः खण्डिको ज्ञेय स्त्रिपुटः क्षुद्रखण्डिकः ।।६७।।
कलाय का पर्यायवाची खण्डिक और त्रिपुट का पर्याय वाची क्षुद्रखण्डिक है। कैय० नि० धान्यवर्ग. पृ. ३१३
विमर्श-कलाय शब्द को लेकर निघुटुकारों में मतभेद है। धन्वन्तरिनिघंटुकार, भावप्रकाशकार, राजनिघंटुकार और शालिग्रामनिघंटुकार कलाय शब्द का अर्थ मटर करते हैं। कैयदेवनिघंटुकार कलाय का अर्थ खेसारी धान्य करते हैं।
प्रस्तुत धान्य प्रकरण में मटर के लिए सतीण शब्द और चना के लिए पलिमंथ (हरिमंथ) शब्द आया है। इसलिए कलायशब्द का अर्थ खेसारी अर्थ उपयुक्त लगता है। बिहार में कलाय शब्द से खेसारी आज भी प्रचलित है। देखें कलाय शब्द।
लता की
शारव
कलम्बुका के पर्यायवाची नाम
कलम्बी शतपर्वा च। (भाव०नि०शाकवर्ग-पृ० ६६६)
कलम्बी शतपर्वा-ये कलमीशाक के पर्यायवाची संस्कृतनाम है।
कलंबिका स्थूलफला, मद्यगन्धा, कटभरा ।।६६०।। कलंबिका, स्थूलफला, मद्यगन्धा, कटंभरा ये
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कलंबिका के पर्यायवाची नाम हैं।
(कैयदेव० नि० औषधिवर्ग० पृ०१७७) अन्य भाषाओं में नामहि०-कलंबीशाक, करमी, कलमी का साग,
-कल्मीशाक । ते०-तोमेवच्चलि। म०-नाली ची भाजी। गु०-नालोनी भाजी । अ०-SwampCabbage (स्वम्प कॅबेज)। ले०-Ipomoea aquatica Torsk (आइपोमिया अक्वेटिका)।
उत्पत्ति स्थान-यह लताजाति की वनस्पति प्रायः सब प्रान्तों के सजल स्थान में जल के ऊपर तैरती हुई या समीप की भूमि पर फैली हुई दिखाई देती है।
विवरण-पर्व से इसकी जड़ निकल कर कीचड़ में फैलती है। डंडी पोली होती है। पत्ते ३ से ६ इंच लंबे, दीर्घवृत्ताभ या अंडाकार-आयताकार आधार की तरफ हृदयाकार या दो कोने निकले हुए एवं लंबे वृन्त से युक्त होते हैं। फूल नलिकाकार १ से २ इंच लंबे, निसोत के समान श्वेत या हलके जामुनी (कंठ में गाढ़े जामुनी) रंग। के तथा एकाकी या ५ के समूह में आते हैं। फल .८ से०मी० व्यास में गोलाभ चिकना तथा २ से ४ घनरोमश बीज युक्त होता है। इसकी नवीनशाखाओं तथा पत्तों का शाक होता है। (भाव०नि० शाकवर्ग० पृ० ६७०)
कलम या कलमाधान वह है जो एक स्थान में बोया जाय तथा दूसरे स्थान में उखाड़ कर लगाया जाय । इसे ही जड़हन कहते हैं। मगध आदि देशों का कलमाधान पसिट है। काश्मीर में इसे महातण्डल कहते हैं।
शालिधान्य-जो भूसी रहित श्वेत हो अर्थात् बिना कांडे कूटे ही जो श्वेत होते हैं। एवं हेमन्त ऋतु में उत्पन्न होते हैं। उन्हें शालिधान्य, जड़हन या मुड़िया कहते हैं। इसके रक्तशालि, कमला आदि कई भेदोपभेद हैं।
इसे ही राजशालि (वासमती चावल) कहते हैं। अन्य चावल तष छडाने के बाद कटकर या मशीन पर साफ किया जाता है किन्तु यह बिना कूटे ही श्वेत एवं साफ बारीक सुन्दर और उत्तम होता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ७३.७४)
कलाय कलाय (कलाय) छोटी मटर, बड़ी खेसारी
उवा० १/२६
पुष्य
कलमसालि कलमसालि (कलमशालि) कलम जाति के चावल
उत्त०१/२६ रक्तशालिः सकलमः, पाण्डुकः शकुनाहृतः । सुगन्धकः कर्दमको, महाशालिश्च दूषकः ।।४।। पुष्पाण्डकः पुण्डरीकस्तथा महिषमस्तकः । दीर्घशूकः काञ्चनको, हायनो लोध्रपुष्पकः ।।५।।
शालि (चावल) के जातिभेद से नाम-रक्तशालि, कलम, पाण्डुक, शकुनाहृत, सुगन्धक, कर्दमक, महाशालि, दूषक, पुष्पाण्डक, पुण्डरीक, महिषमस्तक, दीर्घशूक, काञ्चनक, हायन और लोध्रपुष्पक इत्यादि शालि (चावल) बहुत से देशों में उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के होते हैं। (भाव०नि० धान्य वर्ग पृ०६३५)
पाली
फलो
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विमर्श - बिहार प्रान्त में कलाय शब्द आज भी खेसारी के लिए प्रचलित है। खेसारी छोटी मटर को कहते हैं।
कलाय के पर्यायवाची नाम
कलायः खण्डिको ज्ञेयः ।
(कैयदेव० नि० धान्यवर्ग पृ० ३१३) कलाय, खण्डिक ये कलाय के पर्यायवाची नाम हैं। अन्य भाषाओं में नाम
हि० - खेसारी, खिंसारी, कसूर, मटरभेद । बं० - खेसारी । म० - लाग । गु० - लांग । फा० - मासंग | अ० - इवुलबकरखलज । 310-Chickling Vetch ( चिकलिंग वेच) । ले० - Lathyrus Sativus Linn (लेथीरिस् सेटीवस)।
उत्पत्ति स्थान - प्रायः सब प्रान्तों में इसकी खेती की जाती है और उत्तरभारत में अधिक उत्पन्न होती है। विवरण- इसकी शाखाएं पंखदार होती हैं । पत्ते पक्षवत् तथा अग्र २ या ३ सूत्रों में विभाजित रहते हैं । पत्रक पतले १ से २.५ इंच लंबे रेखाकार - भालाकार लम्बाग्र एवं संख्या में २ से ४ रहते हैं। फूल नीलापन युक्त लाल या श्वेत होते हैं। फलियां १ से १.५ इंच लंबी, एक किनारे पर पंखदार तथा ४ से ५ बीजों से युक्त होती हैं। अकाल के समय गरीब इसकी दाल खाते हैं। यह ( खेसारी) सेवन करने से लंगडा तथा पंगुला बना देने वाली और वायु को अत्यन्त कुपित करने वाली होती है। (भाव० नि० धान्यवर्ग० पृ० ६५० ) यह धान्यवर्ग एवं नैसर्गिक क्रमानुसार शिम्बीकुल के अपराजिता उपकुल का एक द्विदल धान्य विशेष है । यह मटर का ही एक छोटा भेद है। इसके पत्तों की कोपलें भी नमक मिर्च मिलाकर ग्रामवासी खाते हैं या पत्तों का साग बनाकर खाते हैं। विन्ध्यप्रदेश की ओर खेसारी को तीऊर, तेवरा कहते हैं ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३६३)
कल्लाण
कल्लाण (कल्याण) गरजन अश्वकर्ण
भ० २१/१७ पं० १/४१/२
कल्याणम्। क्ली० । लघुसर्ज्जवृक्षे ।
( वैद्यक शब्द सिंधु पृ० २३१ )
कल्याण के पर्यायवाची नामशाल: सर्जः सर्जरसः, कान्तो मरिचपत्रकः । शक्रद्रू रालनर्यासः, श्रीकरः शीतलस्तथा । 1808 ।। दीपवृक्षः स्निग्धदारुः, कल्याणः कान्तभूरुहः ।
सर्ज, सर्जरस, कान्त, मरिचपत्रक, शक्रद्रु, राल निर्यास, श्रीकर, शीतल, दीपवृक्ष, स्निग्धदारु, कान्तभूरुह और कल्याण ये पर्यायशाल के हैं।
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(कैयदेव निघंटु ओषधिवर्ग पृ० १५० १५१ ) नोट- यद्यपि भाव प्रकाश में अश्वकर्ण, शाल का पर्याय एवं अजकर्ण सर्जक का पर्याय दिया है तथापि ये चार भिन्न वृक्ष सकते हैं। क्योंकि सुश्रुत सालसारादिगण में साल, अजकर्ण एवं अश्वकर्ण नामक ३ वृक्ष तथा चरक में कषाय स्कंध में साल, सर्ज, अश्वकर्ण एवं अजकर्ण नामक ४ वृक्षों का वर्णन मिलता है। इस दृष्टि से अश्वकर्ण यह डिप्टेरोकार्पस अॅलेटस् (Dipterocarpus alatus), हिन्दी में गर्जन अजकर्ण यह टर्मिनेलिया टोमेन्टोझा (Terminalia tomentosa) हिन्दी में असन हो सकता है। (भाव०नि० वटादि वर्ग पृ० ५२० ) विमर्श - शाल का पर्याय नाम अश्वकर्ण भाव प्रकाश में दिया गया है। अश्वकर्ण की हिन्दी में गर्जन नाम से पहचान होती है। प्रस्तुत प्रकरण (प० १ / ४१/२) में यह शब्द पर्वक वर्ग के अन्तर्गत है । गर्जन पर्ववृक्ष है। इसलिए यहां गर्जन अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। अन्य भाषाओं में नाम
हि०- गरजन । म० - यक्षद्रम, गर्जन, अश्वकर्ण । बं०-गर्जन (तेलिया, काली) । अंo - (Gurjun oil tree (गरजन ऑयल ट्री) Wood oil tree (वुड ऑयल ट्री) । o - Dipterocarpus Alatus Roxb (डिप्टेरोकार्पस एलेटस) Dip. Incanus (डिप्टे. इनकेनस) D. Laevis (डिप्टे. ली हिस) ।
उत्पत्ति स्थान- इसके वृक्ष बंगाल, चिटगांव, आसाम, वर्मा, सिंगापुर, मलाया और अण्डमान में बहुत होते हैं।
विवरण- शाल कुल के इसके बड़े ऊंचे वृक्ष ४० १५० फीट तक ऊंचे होते हैं। इसकी कई जातियों में
से
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गर्जन DIPTEROCARPUS ALATUS ROXB
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २३६) कल्हार के पर्यायवाची नाम
सौगन्धिके तु कल्हारं सौगन्धिक और कल्हार पर्यायवाची नाम हैं।
(सटीक निघंटुशेष ३/३३२ पृ० १७६)
पत्र
कविट्ठ
कविट्ठ (कपित्थ) कैथ
भ० २२/३ जीवा० १/७२ प० १/३६/१ कपित्थ के पर्यायवाची नाम
कपित्थस्तु दधित्थः, स्यात् तथा पुष्पफलः स्मृतः । कविप्रियो दधिफलस्तथा दन्तशठोपि च ।।६१।
कपित्थ, दधित्थ, पुष्पफल, कविप्रिय, दधिफल, दन्तशठ ये सब कैथ के संस्कृत नाम हैं।
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग० पृ० ५६५)
से मुख्य जातियां गरजन, तेलिया धूलिया गरजन है। दोनों जातियों के वृक्ष प्रायः एक समान ऊंचे सुंदर एवं तैलयुक्त निर्यासमय होते हैं। इनके पिण्ड का व्यास लगभग 15 फीट होता है। छाल धूसर वर्ण की, लकड़ी नरम भीतर से लाल धूसर, निर्यास श्वेतवर्ण का या भूरापन लिये हुए पीला होता है। पत्र चर्म सदृश, रोमश, अण्डाकार, उसे ५ इंच लम्बे, १२ से १५ जोड़ी सिराओं से युक्त, पुष्प शीतकाल में बड़े आकार के रक्ताभ श्वेतवर्ण के आते हैं। फल कुछ बड़े गोल एवं कवचदार वसंत ऋतु में लगते हैं।
(धन्व० वनौ० विशेषांक भाग २ पृ० ३८३, ३८४)
कल्हार कल्हार (कल्हार) थोड़ा सफेद लाल कमल
प० १/४६ कल्हारम्। क्ली०। ईषत्श्वेतरक्तकमले।
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कैथ, कैथा, कैंत, कइंत। बं०-कयेद, कयेत्, बेल । म०-कंवठ। गु०-कोठ। क०-वेललु । ते०-वेलग। ता०-वलामरं । अ०-Wood Apple (उंड एपल) Elephant Apple (एलिफेंट एपल)। Feronia elephantum Correa (फेरोनिया एलिफॅन्टम्) Fam. Rutaceae (रुटेसी)।
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DREST
उत्पत्ति स्थान-यह इस देश के प्रायः सूखे प्रान्तों ले०-Scirpus Kysoor Roxb (स्किर्पस् कायसुर) Fam. में अधिक उत्पन्न होता है तथा दक्षिण में वन्य अवस्थाओं Cyperaceae (साइपेरेसी)। में पाया जाता है।
विवरण-इसका वृक्ष बहुत बड़ा होता है और उस पर सीधे कांटे होते हैं। वृक्ष से बबूर के गोंद के समान B Y पुष्प एवं बीज। एक प्रकार का गोंद निकलता है। पत्ते संयक्त सदलपर्ण ३ से ४ इंच लंबे होते हैं। पत्रक अंडाकार या अभिअंडाकार छोटे-छोटे एक-एक सींक पर तीन-तीन अथवा ५ या ७-७रहते हैं। फूल फीके लाल रंग के होते हैं। छाल २ से ३ इंच के घेरे में गोल होते हैं और छिलका कठोर होता है। भीतर सगंधित, स्वाद. खाने लायक गदी होती हैं, और गूदी में छोटे-छोटे अनेक चिपटे बीज होते हैं। इसमें एक आश्चर्यजनक गुण यह है कि यदि हाथी कैंत के फल को खा जावे तो इसका गदा हाथी के पेट में रह जाता है और गूदा रहित अखण्डित फल मल के साथ बाहर निकल आता है। इसके दो भेद होते हैं। एक में फल छोटे तथा अम्ल होते हैं। दूसरे में फल बड़े तथा मीठे होते हैं। पक्व फल को चीनी के साथ या शरबत बनाकर या चटनी के रूप में खाया जाता है। इसकी जेली भी बनाई जाती है। इसके पत्र, गोंद तथा फल का
उत्पत्ति स्थान-यह सभी प्रान्तों में होता है, इसके उपयोग किया जाता है।
(भाव०नि० पृ० ५६६) पौधे तालाबों में प्रायः एक फट या अधिक गहरे पानी में
होते हैं। कसेरुया
विवरण-काण्ड ४ से ६ फीट ऊंचा तथा ३ पहल कसेरुया (कसेरुका) कसेरू प० १/४६ का होता है। पत्ते एक इंच चौड़े तथा कांड के बराबर
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कसेरुया शब्द या कुछ कम लंबे होते हैं। पुष्पमंजरी करीब-करीब ३ फीट जलरुहवर्ग के अन्तर्गत है। कसेरू तालाबों में होता है। लंबी होती है। फल छोटे धूसर या कृष्णवर्ण के होते हैं। कसेरुका के पर्यायवाची नाम
कन्द ऊपर से काले रंग के, अंदर से श्वेत, जायफल गुण्डकंदः कसेरु:, क्षुद्रमुस्ता कसेरुका।
जितने बड़े एवं कुछ गोलाई लिये होते हैं। इनका स्वाद शूकरेष्टः सुगन्धिश्च, मुकन्दो गन्धकन्दकः ।।१४५।। कुछ मधुर एवं सुगंधित होता है। गुण्डकंद, कसेरु, क्षुद्रमुस्ता, कसेरुका, शूकरेष्ट,
(भाव०नि० शाकवर्ग पृ० ७०१, ७०२) सुगन्धि, मुकन्द, गन्धकन्दक ये सब कसेरू के नाम हैं। (राज०नि०८/१४५ पृ० २६०)
काउंबरि अन्य भाषाओं में नाम
काउंबरि (काकोदुम्बरिका) कठूमर प० १/३६/२ हि०-कसेरू। बं०-केशुर। म०-कचरा,
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में काउंबरि शब्द बहु फुरड्या। क०-सेकिनगड्डे। ते०-इट्टिकोति। बीजक वर्ग के अन्तर्गत है। अंजीर की तरह इसमें बहत
बीज होते हैं।
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.
.
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काकोदुम्बरिका के पर्यायवाची नाम
काकोदुम्बरिका फल्गु र्मलयूर्जघनेफला । काकोदुम्बरिका, फल्गु, मलयू, जघनेफला- ये कठूमर के संस्कृत नाम हैं ।
(भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५१७)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कठूमर, कठगूलर | बं० - काठउंमुर । म० - भुई० अम्बर, बोखाड़ा । गु० - टेड उंबरो । ते०- ब्रह्ममेडिचेट्टु । ता० - पेअट्टिस । ले०-Ficus hispida Linn (फाइकस हिस्पिडा) Fam Moraceae
(मोरेसी) ।
उत्पत्ति स्थान - कठूमर भारतवर्ष के प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता है। यह नदी नालों के किनारे अधिकतर होता है।
विवरण- इसका वृक्ष मध्यमाकार का शीघ्र बढ़ने वाला होता है । किन्तु कहीं-कहीं पथरीली भूमिका का वृक्ष बड़ा झाड़ सा दिखाई पड़ता है। इसकी कोमल टहनियों पर सूक्ष्म रोवें होते हैं। पत्ते विपरीत लंबे, किंचित् अंडाकार, जड की ओर गोलाकार, नोकदार और दन्तूर होते हैं। आकार में वे एक समान नहीं होते, बल्कि छोटे बड़े हुआ करते हैं। वे साधारणतः ४ इंच तक चौड़े तथा ६ इंच लम्बे होते हैं और पत्र दण्ड १.५ इंच तक लंबा होता है। नई शाखाओं के पत्ते १२ इंच तक लंबे एवं सूक्ष्म रोवेदार होते हैं। स्पर्श में वे रूक्षे और खुरदरे होते हैं । फल हलके हीरे या पीत हरिताभ गूलर के समान लगते
। इस कारण इसको उदुम्बरफल तथा जंगली गूलर कहते हैं। देखने में फलों का आकार अंजीर के समान होता है । इस कारण इसे जंगली अंजीर भी कहते हैं । फलों के ऊपर सूक्ष्म रोवें होते हैं। इसकी छाल एवं फल का उपयोग किया जाता है।
(भाव०नि० पृ० ५१७)
काउंबरिय
काउंबरिय (काकोदुम्बरिका) कठूमर भ० २२/३
देखें काउंबरि शब्द |
जैन आगम वनस्पति कोश
काउंबरीय
काउंबरीय (काकोदुम्बरिका) कठूमर जीवा० १/७२ देखें काउंबरि शब्द |
काओली
काओली (काकोली) काकोली
भ० २३/८ प० १/४८/५ विर्मश - प्रस्तुत प्रकरण में काओली शब्द कंदवर्ग के शब्दों के साथ है। काकोली का कंद होता है। काकोली के पर्यायवाची नाम
काकोली मधुरा शुक्ला, क्षीरा ध्वांक्षोलिका स्मृता । वयस्था स्वादुमांसी च, वायसोली च कर्णिका ।। १३२ ।। काकोली, मधुरा, शुक्ला, क्षीरा, ध्वांक्षोलिका, वयस्था स्वादुमांसी, वायसोली, कर्णिका ये काकोली के पर्यायवाची नाम हैं । ( धन्व० नि०१ ।१३२ पृ० ५५)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - काकोली, काककोला । बं०- काकल, लवंगलता । ले० - Luvunga Scandens ( लवंग स्केडन्स) ।
687. Roscoea purpurea Royle
उत्पत्ति स्थान - हिमालय पर मोरंगादि प्रदेशों में
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65 जहां मेदा महामेदा उत्पन्न होती है वहीं पर क्षीरकाकोली केवल तिरहुत और दानानगर में कुछ उपज होती है। भी उत्पन्न होती है और जहां पर क्षीरकाकोली उत्पन्न विवरण-कच्चे, हरे या पक्के फलों को अंगर होती है वहां पर काकोली भी होती है। इनका कंद कहते हैं। ये ही जब विशेष प्रकार से सुखा लिए जाते शतावरी जैसा किन्तु उससे कुछ स्थूल होता है। इस मूल हैं तब मुनक्का या दाख कहलाते हैं। ये बडे, छोटे, काले, या कंद को काटने से उसमें से प्रिय गंधयुक्त दुग्ध बेदाना (बीजरहित) आदि कई प्रकार के होते हैं। इनमें निकलता है। काकोली का वर्ण कुछ श्यामता लिये हुए काले अंगूर (काकली द्राक्षा) और बड़े अंगूर या पिटारी होता है।
का अंगूर (गोस्तनी द्राक्षा) ये दोनों सर्वश्रेष्ठ गिने जाते इसकी वर्षायु झाड़ीनुमा कांटेदार बेल होती है। पत्र हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ६५, ६६) वी के आकार के लगभग ६ से १० इंच तक लंबे होते हैं। तथा पत्रवृन्त दीर्घ और मुलायम होता है। पुष्प श्वेत
कागणि फलगोल, कुछ लम्बाकार तथा उसमें १ से ३ तक बीज
कागणि (काकिणी) रक्तगुंजा, लालपुंघची होते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २११)
प० १/४०/५ काकिणी |स्त्री। रक्तिकायाम् । (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० २४१) काकलि
काकिणी के पर्यायवाची नामकाकलि (काकली) काकली दाख, भ० २२/६ काकादनी काकपीलुः, काकणन्ती च रक्तिका।। काकली के पर्यायवाची नाम
वक्त्रशल्या ध्वांक्षनखी, दुर्मोहा काकणन्तिका ।।२४ ।। अन्या सा काकलीद्राक्षा, जाम्बुका च फलोत्तमा ।। काकपीलु, काकणन्ती, रक्तिका, वक्त्रशल्या, लघुद्राक्षा च निर्बीजा, सुवृत्ता रुचिकारिणी।।१०५ ।। ध्वांक्षनखी, दुर्मोहा और काकणन्तिका ये पर्याय काकादनी काकलीद्राक्षा, जाम्बुका, फलोत्तमा, लघुद्राक्षा, के है।
(धन्व०नि० ४/२४ पृ० १८६) निर्बीजा, सुवृत्ता और रुचिकारिणी ये सब काकलीद्राक्षा के नाम हैं।
(राज०नि० ११/१०५ पृ० ३६१; शा०नि० पृ० ४८४) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-किशमिश, बेदाना। बं०-किशमिश । गु०-किशमिश । म०-किशमिश, द्राक। ते०-किशमिश पांडु। क०-चिकुद्राक्षे । अंo-Raisins (रजिन्स)।
उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष के प्रायः समस्त शीत प्रधान स्थानों में न्यूनाधिक प्रमाण में यह पैदा होता है। किन्तु काश्मीर, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, कन्दहार प्रभृति उत्तर पश्चिम के प्रदेशों में तथा कुमाऊं, कनावर, देहरादून आदि हिमालय के समीपवर्ती प्रदेशों में और नासिक, पूना, औरंगाबाद, दौलताबाद आदि दक्षिण दिशा के प्रदेशों में यह बहुतायत से होता है। हिमालय Sion (Abrus Precatorus) के पश्चिम भागों में यह स्वयमेव हो जाता है। इसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। बंगाल में अधिक विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में वल्ली वर्ग में गंजावली वर्षा के कारण इसकी ऊपज विस्तार से नहीं हो पाती, और कागणि ये दो शब्द आए हैं। कागणि का अर्थ
FRICA
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रक्तगुंजा और गुंजाका अर्थ श्वेतगुंजा ग्रहण किया है। धन्वन्तरि निघंटु में रक्तिका को काकादनी और गुंजा को चूड़ामणि का पर्याय माना है । अन्य भाषाओं में नाम
हि० - गुंजा, घुंघची, घुँघची, चिरमी, चिरमिटी, घुमची, करजनी, रत्ती, चौटली । बं०-कुंच, सादा कुंच । म० - गुंज | को० - माडल बेल । गु० - चणोठी राती । क० - गुलगुति, गुरुगुजी । मल० - कुन्नि । ता० - कुन्थमणि, कुँरि । प० - चर्मटी । ते० - गुरुगिंज। उडिο- रुंज । तु० - गोजी । फा० - चस्मे खरूस, सुर्ख । अ०- हबसुर्ख । अँo - Gequirity (जेक्विरिटी) । ले० - Abrus precatorius linn (एब्रस प्रिकेटोरिअस लिन) ।
उत्पत्ति स्थान - घुंघची की बेल भारत में प्रायः सर्वत्र जंगल एवं झाड़ियों में पाई जाती है ।
विवरण- गुडूच्यादि वर्ग एवं नैसर्गिक क्रमानुसार शिम्बीकुल की अनेक पतली, लचीली शाखायुक्त, वर्षायु, सुन्दर चक्रारोही पराश्रयी लता होती है। पत्र इमली पत्र जैसे, किंचित बड़े, संयुक्त १ से ३ इंच तक लम्बे, पत्रक ८ से २० तक जोडे, विपरीत, १/२ से १ इंच लम्बे एवं १/३ इंच चौड़े होते हैं। पुष्प शरद ऋतु में सेम के पुष्प जैसे किन्तु बडे, सघन गुच्छों में गुलाबी या नीले रंग के आते हैं। फली १ से १.५ इंच लम्बी 1/4 से १/२ इंच चौड़ी रोमश, नुकीली, गुच्छों में लगती है। बीज प्रत्येक फली में जाति के अनुसार लाल, श्वेत या काले रंग के अंडाकार छोटे, चिकने, चमकीले एवं कड़े, २ से ६ तक होते हैं। इन बीजों को ही गुंजा, घुंघची कहते हैं । शीतकाल में फली के पक जाने पर लता सूख जाती है तथा वर्षा के प्रारंभ में पुनः मूल से लता अंकुरित हो उठती है। मूल काण्डमय टेढीमेढी अनेक शाखा युक्त होती है। इसके पत्र और मूल में मुलैठी जैसी ही मिठास होती है। कई लोग भ्रमवश इसी के मूल को मुलैठी मानते हैं । ( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ४०३)
विमर्श - गुंजा ३ प्रकार की होती है-लाल, श्वेत और काली । लाल - इसके मुख पर काला दाग होता है। श्वेत- यह संपूर्णश्वेत होती है। बहुतकम प्राप्त होती है । काली - श्वेत लाल की अपेक्षा कुछ बड़ी, काले रंग की, मुख पर कुछ श्वेत दाग युक्त काले उडद जैसी होती
है ।
जैन आगम वनस्पति कोश
काय (
)
भ० २३/४ प० १/४७
विमर्श - उपलब्ध निघंटुओं और आयुर्वेदीय शब्द कोशों में काय शब्द वनस्पतिपरक अर्थ में नहीं मिला है।
शास्त
....
काय
कायमाई (काकमाची) मकोय
प० १/३७/२
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में कायमाई शब्द गुच्छ वर्ग के अन्तर्गत है ।। मकोय के पुष्प गुच्छाकार लगते हैं।
BER
कायमाई
काकमाची ध्वाङ्क्षमाची, काकाहवा चैव वायसी । कट्वी कटुफला चैव, रसायन वरा स्मृता ।।१८ || ध्वाङ्क्षमाची, काकाहवा, वायसी, कट्वी, कटुफला, रसायनवरा ये काकमाची के पर्याय नाम हैं ।
( धन्वन्तरि नि० ४ / १८ पृ० १८५)
अन्य भाषाओं में नाम
मूल
हि० - मकोय, छोटी मकोय |
फल
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New
गुडकामाई। म०-कानोणी। गु०-पीलुडी। फा०- (मोमोर्डिका चेरण्टिआ)। रूबाहतुर्बुक । अ०-इनबुस्सालव । अंo-Garden Night Shade (गोर्डेन नाइटशेड)। ले०-Solanum nigrum linn (सोलॅनम् नाइग्रम् लिन०)।
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में एवं ८००० फीट तक पश्चिम हिमालय में उत्पन्न होती है।
विवरण-इसका क्षुप १ से १.५ हाथ तक ऊंचा होता है और शाखायें सघन होती हैं। यह गर्मी में नष्ट हो जाता है और वर्षा के अन्त में उत्पन्न हो जाड़े में खूब हराभरा दिखलाई पड़ता है। इसके पत्ते अखण्ड लहरदार या कभी-कभी दन्तुर या खण्डित, लट्वाकार, प्रासवत् लट्वाकार या आयताकार ४४१.७ इंच तक बड़े और उनका फलक प्रायः और पत्रकोण से हटकर निकले हुए पुष्पदंड पर समस्थ मूर्धज क्रम में निकले रहते हैं। फल गोल और पकने पर काले हो जाते हैं। कभी-कभी लाल या पीले भी होते हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ४३८)
फूल के समान सफेद और पत्रकोण से हटकर निकले हए पुष्प दंड पर गच्छाकार एवं दीर्घ वन्त पर
उत्पत्ति स्थान-प्रायः सब प्रान्तों में इसे रोपण अधोमुख लवित समस्थ मूर्धज क्रम में निकले रहते हैं। करते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ३४२) विवरण-इसकी लता मृदुरोमश होती है। पत्ते १
से ५ इंच के घेरे में गोलाकार, गहरे कटे किनारे वाले कारियल्लई
एवं ५ से ७ भागों में विभक्त रहते हैं। फूल चमकीले पीले कारियल्लई ( ) करेला प० १/४०/२
रंग के आते हैं। फल १ से ५ इंच लम्बे बीच में मोटे तथा विमर्श-पाइअसद्दमहण्णव में कारियल्लई, कारिल्ली
दोनों तरफ नोकीले त्रिकोणाकृति उभारों के कारण ऊबड़ और कारेल्लय ये देशीशब्द हैं। इनका अर्थ करेला का
खाबड़, हरे किन्तु पकने पर पीले रंग के हो जाते हैं।
बीज चिपटे होते हैं। गाछ किया है। निघंटुओं में कारवल्ली, कारवेल्ल और कारवेल्ली आदि शब्द मिलते हैं। इन सब का अर्थ करेला
(भाव०नि० शाकवर्ग पृ०६८४) है। प्रस्तुत प्रकरण में यह वल्लीवर्ग के अन्तर्गत है। करेला की लता होती है।
कारिया अन्य भाषाओं में नाम
कारिया (कारिका) छोटीकटेरी, कण्टकारी। हि०-करेला, करैला, करइला| बं०-करोला
प०१/३७/५ बडामसिया, उच्छे। म०-कारलें, कारली। कारिका के पर्यायवाची नामगु०-कारेला, करेलु। क०-हागल। ते०-काकर। कारी तु कारिका कार्या, गिरिजा कटुपत्रिका।। ता०-पागल। फा०-कारेलाइ। अ०-किस्सा तत्रैता कण्टकारी स्यादन्या त्वाकर्षकारिका ।।६४ । उल्हिमार, कसायुल हिमार। अंo-Carilla Fruit कारी, कारिका, का- गिरिजा तथा कटुपत्रिका (कॅरिल्ला फूट)। ले०-Momordica Charantia linn ये सब कारी के नाम हैं। इनमें से एक कण्टकारी है और
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दूसरी आकर्षकारी है।
कांटे होने से यह कण्टकारी कहाती है। छोटी कटेरी के (राज० नि० व० ८/६४ पृ० २४५) दो भेद हैं-एक तो बैंगनी या नीले रंग के फूलवाली जो अन्य भाषाओं में नाम
कि प्रायः सर्वत्र सुलभ है। दूसरी श्वेतपुष्पवाली, जो सर्वत्र हि०-कटेरी, लघुकटाई, कटकारी, भटकरैया सुलभ नहीं है। रेंगनी, रिगणी, कटाली, कटयाली। बं०-कंटकारी। इसकी शाखायें बहुत आड़ी टेढ़ी होती है। पत्ते २ म०-रिगंणी, भुइरिंगणी (गु०-बेठी, भोरिंगणी, से ४ इंच लंबे, विषम दरार युक्त या गहरे कटे किनारों भोयरिंगणी। क०-नेल्लगुल्लु। ते०-चल्लनमुलग। वाले, १ से ३ इंच चौड़े, डिम्बाकृति के एवं श्वेत रेखांकित मा०-पसरकटाई। पं0-कंडियारी, बरुम्ब | ता०-कंडन होते हैं। शाखाओं पर तथा पत्तों के नीचे और ऊपरी पृष्ठ कत्तरि। अ०-हदक, हसिम, शौकतुलअकरब। भाग पर असंख्य कांटे होते हैं। यह सरलता से स्पर्श नहीं फा०-बादंगानबरी,
___ कटाईखुर्द। की जा सकती। फूल बेंगनी या गहरे नीले रंग के ले०-Solanumxanthocarpumschrad &Wendi (सालॅनम छोटे-छोटे बसंत या ग्रीष्म में फूलते हैं। इनके बहिरावरण न्थोकार्पम श्रड वेण्ड)।
भाग पर भी कांटे होते हैं। पुष्प के भीतर पीले रंग की
केसर होती है। फल गोलाकार लगभग १ इंच व्यास के Solamin xanthocantur. Schr& Wendl.
चिकने पीले एवं नीचे की ओर झुके हए, कच्ची अवस्था में श्वेत रेखांकित हरे रंग के ग्रीष्म ऋतु में आते हैं। तथा शरद में ये परिपक्व होकर पीले पड़ जाते हैं। हेमन्त और शिशिर ऋतु में इसके क्षुप जीर्ण शीर्ण हो जाते हैं। फलों में बीज नन्हें नन्हें बैंगन के बीज जैसे चिकने और मुलायम होते हैं। इसकी मूल छोटी अंगुली जैसी मोटी एवं सुदृढ होती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ५२, ५३)
mami
कालिंग कालिंग (कालिङ्ग) तरबूज प०१४८/४८ कालिङ्ग के पर्यायवाची नाम
कालिन्दकं स्यात् कालिङ्ग, कृष्णबीजं प्रकीर्तितम् ।५३५ । पराग
कालिन्दक, कालिङ्ग, कृष्ण बीज ये कालिङ्ग के पर्याय है
(कैयदेव, नि० ओषधिवर्ग-पृ०६८) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-तरबूज, तरबूजा। बं०-तरमुज। म०उत्पत्ति स्थान-छोटी कटेरी (बेंगनी पुष्पों वाली) कलिंगड। ता०-कोमाट्टि। ते०-पुच्चकाया, तरबूज । भारतवर्ष में पायः सर्वत्र ही, विशेषतः रेतीली भूमि पर फा०-हिन्दबाना, हिन्ददानह । अ०-बत्तिख हिन्दी, जकी। अपने चारों ओर २ से ६ फीट के घेरे में फैली हुई पायी अं-Watermelon (वाटर मेलन)। ले०-Citrullus जाती है। दक्षिण पूर्व एशिया, मलाया एवं आष्ट्रेलिया के Vulgaris Schrad (सिट्रयुलस बलॅगरिस्)। उष्णप्रदेशों में भी यह पायी जाती है।
उत्पत्ति स्थान-प्रायः सब प्रान्तों के खेतों में यह विवरण-इसके सर्वांग में सीधे, पीले चमकीले रोपण किया जाता है। उत्तर पश्चिमी उष्ण तथा शुष्क
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प्रदेशो में अधिक रोपण किया जाता है। नदियों के किनारे रेतीली भूमि में यह अधिक उत्पन्न होता है।
पत्र
आरोही तंतु
फल
लता की शाखे
फल काट
विवरण- इसकी लता भूमि पर पसरी हुई रहती है । पत्ते इन्द्रायन के पत्तों के समान गहरे कटे किनारे वाले होते हैं। फूल एक इंच के घेरे में गोलाकार होते हैं ।
फल बड़े-बड़े पेठे और कोहडे के आकार वाले होते हैं। गूदी लाल या सफेदी होती है। बीज चिपटे, लाल, भूरे या काले होते हैं ।
(भाव नि० आम्रादिफल वर्ग पृ० ५६० ) मारवाड़ राजपूताना के ये फल बहुत बड़े एवं अच्छे मीठे होते हैं। सिंधु व गुजरात में भी उत्तम तरबूज होते हैं। भारतवर्ष के अतिरिक्त यह अन्यत्र बहुत कम होता है । इसी से यह हिन्दवाना कहलाता है ।
इसकी एक जाति के फलों का ऊपरी छिलका चित्रित वर्ण का भीतर गूदा पीला, बीज काले होते हैं। एक जंगली जाति भी होती है, जिसे गुजरात में दिल पसंद, सिन्ध देश में मेली, ढेंढसी आदि कहते हैं। ये प्रायः
शाक के ही काम आते हैं। सिन्ध के इस जाति के एक कडुवे तरबूज को किरबुट कहते हैं। यह दस्तावर होता है ।
( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ३१५)
कालिंगी
कालिंगी (कालिङ्गी) तरबूज भ० २२ / ६ प० १/४०/१ कालिङ्गिका (ङ्गी) | स्त्री । त्रिवृति, राजकर्कट्याम् । त्रिवृति का अर्थ तरबूज है। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २६५) कालिंगी। स्त्री। (कालिङ्गी) वल्ली विशेष । तरबूज का (पाइअसद्दमहण्णव पृ० २३६ )
गाछ ।
देखें कालिङ्ग शब्द ।
कासमद्दग
कासमद्दग (कासमर्दक) कसौदी कासमर्द्दः (कः) स्वनामख्यातपत्रशाकविशेषे ।
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कासमर्द्दक के पर्यायवाचीनाम
प० १/३७/४
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २६६ )
कासमर्दोऽरिमर्दश्च, कासारिः कासमर्दकः
कालः कनक इत्युक्तो, जारणो दीपकश्च सः ।।१७१ ।। कासमर्द, अरिमर्दः, कासारि, कासमर्दक, काल तथा कनक ये सब कासमर्द के नाम हैं। यह जारण तथा दीपक कहा गया है। (राज० नि०४/१७१ पृ० ६६) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कसौदी, कासिन्दा, चकोडी । बं० - कालका सुन्दा, कालका कसोंदा । म० - कासविंदा । गु०कासोन्दरी । क०-कासबंदी । तै० - गुर्रपुताढ़यां । मला०पोन्नाबीर | पं० - फनछत्र । अंo Negro Coffee Plants (निग्रोकॉफी प्लांटस्) ले० Cassia occidentalis (केसिया ओक्सिडेण्टेलिस) Fam Leguminosae ( लेग्युमिनोसी) ।
उत्पत्ति स्थान - काली कसौंदी का आदि उत्पत्ति स्थान भारतवर्ष ही है। साधारण कसौंदी बाहर से यहां लाई गई है और चारों ओर प्रचुरता से इसने अपना विस्तार कर लिया है। हिमालय से लेकर दक्षिण में सीलोन पर्यन्त तथा पश्चिम बंगाल आदि देशों में प्रायः
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सर्वत्र सुलभ है। किन्तु काली कसौंदी अब दुर्लभ होती क्षुप वर्षान्त में या शीतकाल में फूलता फलता है। हेमन्त जाती है। यह प्रायः पर्वतीय प्रदेशों में गांवों के आसपास में फलियां परिपक्व होने पर यह सूखने लगता है। कहीं-कहीं मिलती है। ब्रह्मदेश में यह अधिक पायी जाती फलियां ३ इंच लम्बी तथा आधे इंच से कुछ कम चौड़ी,
लम्बी, पतली, चिकनी व चिपटी होती है। बीज प्रत्येक कली में १० से ३० तक भूरे चक्रिकाकार या गोलाकार होते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १८२)
किंसुय किंसुय (किंशुक) ढाक पलाश
रा०२७
5
पुष्प ७
दाक BUTEA FRONDOSA ROXB.
फली
AS
विवरण-शाकवर्ग और सुरसादि गण की यह वनौषधि नैसर्गिक क्रम से मुख्यतः शिम्बी कुल एवं उपकुल पूतिकरंज कुल की है। इसके मुख्यतः दो भेद हैं। एक अर्थात् साधारण कसौंदी, दूसरे भेद का काली कसौंदी या वांस की कसौंदी नाम है।
सर्व साधारण कसौंदी का क्षुप चकवड़ के क्षुप जैसा वर्षारम्भ में ही कूड़ाकर्कट वाले खाली स्थानों पर उपज आता है तथा पूर्ण वर्षाकाल तक यह अधिक से अधिक
किंशुक के पर्यायवाची नाम५-६ फीट लंबा सीधा बढ जाता है। यह बहुशाखायुक्त
किंशुको वातपोथश्च, रक्तपुष्पोऽथ याज्ञिकः । होता है। पत्रसंयुक्त आमने-सामने, प्रत्येक सीक में प्रायः ।
त्रिपर्णो रक्तपुष्पश्च, पूतद्रुब्रह्मवृक्षकः ।।१४८ // ५-५, दो से चार इंच लम्बे तथा १.२५ से ३ इंच चौड़े,
क्षार श्रेष्ठ: पलाशश्च, बीजस्नेहः समीद्वरः ।। गोल नुकीले होते हैं। पत्र का ऊपरी भाग चिकना,
किंशुक,वातपोथ,रक्तपुष्प, याज्ञिक, त्रिपर्ण, पूतद्रु, अधोभाग कुछ खुरदरा सा होता है। फूल क्षुद्र पीतवर्ण
__ ब्रह्मवृक्षक क्षारश्रेष्ठ, पलाश, बीजस्नेह, समीद्वर ये सब के, चकवड़ के पुष्प जैसे १ इंच व्यास के होते हैं। यह
किंशुक के पर्याय है। (धन्व० नि०५/१४८,१४६ पृ० २६७)
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अन्य भाषाओं में नाम
हि० - ढाक, पलाश, परास, टेसु । बं० - पलाश गाछ । म० - पलस । गु०- खाखरो। मु०- खाकरो । क० - मुत्तग । ते० - मोद्गु । ता०- पलासु । अंo - The forest flame (दि फॉरेस्ट फ्लेम) ले० -- Butea frondosa Koen (व्यूटिया फ्रॉन्डोसा) Fam Leguminosae ( लेग्युमिनोसी) ।
उत्पत्ति स्थान - यह अत्यन्त शुष्क भागों को छोड़कर प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता है और इसको वाटिकाओं में भी रोपण करते हैं।
विवरण- इसके वृक्ष छोटे या मध्यम ऊंचाई के होते हैं तथा समूहों में रहते हैं। पत्ते त्रिपत्रक होते हैं। पत्रक १० से २० से०मी० चौड़े, कर्कश, ऊपर से चिकने किन्तु नीचे मृदु रोमश तथा उभरी हुई शिराओं से युक्त होते हैं । अग्रपत्रक तिर्यगायताकार, वृन्त की तरफ कुछ पतला या अभिअंडाकार, कुण्ठिताग्र या खण्डिताग्र एवं बगल के तिर्यक् अण्डाकार होते हैं। पुष्प बड़े सुंदर नारंग रक्तवर्ण के होते हैं, जो प्रायः पत्रहीन शाखाओं पर एक साथ बहुत होते हैं। स्वरूप में ये दूर से सुग्गे की चोंच की तरह मालुम होने से इसे किंशुक कहा जाता है। फली १२.५४२० और २.५ से ५ बड़ी, अग्र की तरफ एक बीज युक्त होती है। बीज चिपटे, वृक्काकार २५ से ३८ मि०मी० लम्बे १६ से २५ मि०मी० चौड़े १.५ से २ मि०मी० मोटे, रक्ताभ भूरे, चमकीले सिकुडनयुक्त स्वाद में कुछ कटु एवं तिक्त तथा गंध हल्की होती है। इसका गोंद Bengal Kino (बंगाल किनो) रक्तवर्ण, सूखने पर कृष्णाभ रक्त, भंगुर और चमकदार होता है । (भाव० नि० पृ० ५३६)
किट्टि
किट्ठि (किटि, गृष्टि) वाराहीकंद किटि के पर्यायवाची नाम
वाराही मागधी · गृष्टि, स्तत्कन्दः सौकरः किटिः । वाराही, मागधी, गृष्टि, सौकर, किटि ये वाराहीकन्द के नाम हैं। ( मदनपाल निघण्टु शाकवर्ग ७ / ८४) विमर्श - किट्टि शब्द की संस्कृत छाया किटि और गृष्टि दोनों हो सकती है। दोनों ही छाया किट्ठि के
भ० २३/१
निकटवर्ती है । पहले में ठ शब्द अधिक है और दूसरी छाया में क को ग हुआ है ।
आर्षप्राकृत में यह संभव है ।
किरितटं - गिरितटं (प्राकृत व्याकरण ४ / ३२५) काठं- गाढम् (प्राकृत व्याकरण ४ / ३२५)
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किट्टिया
किट्टिया (गृष्टिका) वाराही कंद
भ० ७/६६ जीवा० १/७३ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में किट्टिया शब्द कंदवर्ग के शब्दों के अन्तर्गत है । कंदवाचक संस्कृत शब्दों में कृष्टिका शब्द नहीं मिलता है, गृष्टिका शब्द मिलता है। इसलिए यहां गृष्टिका का अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। गृष्टिका के पर्यायवाची नाम
स्याद्वाराही शूकरी क्रोडकन्या, गृष्टिर्विष्वक्सेनकान्ता वराही । कौमारी स्याद् ब्रह्मपुत्री, त्रिनेत्रा, क्रौडीकन्या गृष्टिका माधवेष्टा ।६५।। शूकरकंद, क्रोडी वनवासी, कुष्ठनाशनो वन्यः । अमृतश्च महावीर्य्यो, महौषधिः शकरकन्दश्च । ८६ ।। वराहकंदो वीरश्च, ब्राह्मकन्दः सुकन्दकः । वृद्धिदो व्याधिहन्ता च वसुनेत्रमिताहवयाः ।। ८७ ।। वाराही, शूकरी, क्रोडकन्या, गृष्टि, विष्वक्सेन कान्ता, वराही, कौमारी, ब्रह्मपुत्री, त्रिनेत्रा, क्रौडीकन्या, गृष्टिका, माधवेष्टा, शूकरकन्द क्रोडी, वनवासी, कुष्ठनाशन, वन्य, अमृत, महावीर्य, महौषधि, शकरकन्द, वराहकन्द, वीर, ब्राह्मकन्द, सुकन्दक वृद्धिद तथा व्याधिहन्ता ये सब वाराहीकन्द के अट्ठाइस नाम हैं । (राज० नि० ७।६५ से ८७ पृ० २०४ ) अन्य भाषाओंमें नाम
हि० - वाराहीकंद, गेंठी, म० - डुक्करकन्द. कडूकरांदा। गु० - डुक्करकंद, बणाबेल । बं० - रतालु । T ले०- Dioscorea bulbiferalinn (डायोस्कोरिआ बल्बिफेरा लिन० ) Fam. Dioscoreaceae (डायोस्कोरिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान - यह दून और सहारनपुर के वनों ५ हजार फीट की ऊंचाई तक तथा सभी स्थानों
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MELEMEET
ASS
पाया जाता है।
वाला दुपहरिया
रा० २५ प० १७/१२३ असितसितपीतलोहितपुष्षविशेषाच्चतुर्विधो बन्धूकः ।।
यह (बन्धूक) कृष्ण, श्वेत, पीत तथा लोहित वर्ण पुष्प विशेष से चार प्रकार का होता है।
(राज० नि० व० १० ११८ पृ० ३२०) विवरण-इसके फूल प्रायः दुपहर के समय में ही खिलने तथा सायंकाल में मुझी जाने के कारण इसे गुल दुपहरी कहते हैं। पुष्प वर्षाकाल में अधिक आते हैं। वैसे तो प्रायः सब काल में ये फूल आते हैं।
किसी-किसी पौधे में श्वेत फीके पीले और सिन्दूरी रंग के भी पुष्प आते हैं।
(धन्वन्तरि व नौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ४१८) वाराहीकंद.
_ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में काले रंग की उपमा के लिए 'किण्ह बंधुजीवग' शब्द प्रयुक्त हुआ है। संस्कृत में
बन्धूक और बन्धुजीव पर्यायवाची नाम हैं। हिन्दी में इसे विवरण-इसकी लता आरोही तथा वामावर्त होती द
दुपहरिया और पंजाबी में गुलदुपहरिया कहते हैं। है। कांड चिकने तथा पत्रकोणों में लगभग १ इंच व्यास की कन्द सदृश रचनाएं होती हैं । पत्ते साधारण एकान्तर
किण्हासोय २.५से ६ इंच लम्बे। १.७५ से ४ इंच चौड़े, पतले, पुच्छाकार, लंबे नोकवाले तथा आधार पर तांबूलाकार किण्हासोय (कृष्णाशोक) काला अशोक होते हैं। इनके आधारीय खंड गोल और पत्राधार पर ६
रा० २५ प० १७/१२३ शिराएं होती हैं। नरपुष्पों की मंजरियां नीचे की ओर देखें कण्हासोय शब्द । लटकी हुई २ से ४ इंच लंबी और प्रायः पत्रकोणों में समूहबद्ध होकर निकली हुई रहती है। नारी पुष्पों की
किमिरासि मंजरियां ४ से १० इंच लम्बी होती हैं। फल ३ पंखवाले और बीज भी आधार पर सपंख होते हैं। कंद छोटे आकार
किमिरासि (कृमिराशि) माजूफल, मायाफल । का भूरे रंग का होता है जिस पर सुअर की तरह रोम
भ० २३/८ प०१/४८/६ होते हैं। यह भीतर से पीताभ श्वेत होता है।
कृमिकोष, पु०-न० फलविशेष । माजूफल
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० ४१) (भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३८७)
विमर्श-कृमिराशि और कृमिकोष दोनों शब्द अर्थ
की दृष्टि से समान हैं। माजूफल में कीड़े घुस जाते हैं किट्ठीया
इसलिए कृमिराशि माजूफल होना चाहिए। किट्ठीया (गृष्टिका) वाराहीकंद प० १४८।२ मायाफल (माजूफल) के पर्यायवाची नामदेखें किट्ठिया शब्द।
मायाफलं, मायिफलच मायिका, छिद्राफलं मायि च पञ्चनामकम
मायाफल, मायिफल, मायिका, छिद्राफल तथा किण्ह बंधुजीवग
मायि ये सब मायाफल के पांच नाम हैं। किण्ह बंधुजीवग (कृष्ण बंधुजीवक) कृष्ण पुष्प
(राज०नि०६/२५६ पृ० १८७)
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अन्य भाषाओं में नाम
एक प्रकार के कृमि द्वारा उत्पन्न यह एक प्रकार हि०-माजूफल । ब०-माजूफल । म०-मायफल। का कीट गृह है। जो वृक्षों की नवीन शाखाओं पर पाया गु०-कांटावालांमायां, मायां। फा०-माजू। क०- जाता है। यह गोल १० से २५ मि०मी० व्यास का मायूफल | ता०-माचकाय । तै०-माचकाय, मशीकाया। वजनदार, गोल उभारों से युक्त तथा आधार की तरफ क०-मचीकायी। मल०-मासीकाय। अं0-अप्स। छोटे से डंठल से युक्त होता है। इसका रंग प्रारंभ में ब्राह्मी०-पिंजाकनीसी। अंo-Oakgalls (ओकगाल्स)। नीलाभ धूसर, फिर हरा तथा अंत में जब इसमें से छेद ले०-Quercus Infectoria oliv (क्वेर्कस इन्फेक्टोरिया)। करके भीतर का कृमि बाहर निकल जाता है तब श्वेत माजफल-यह माजूफलादि कुल कवृक्ष भारतवर्ष दे कुल के वृक्ष भारतवर्ष हो जाता है। हरा अच्छा माना जाता है। इसका स्वाद
हा जाता ह। हरा अच्छा माना जाता में पैदा नहीं होते। इसके झाड़ीदार वृक्ष की आकृति सरू कषाय होता है। यह कषाय स्तंभन, कफघ्न एवं विषघ्न के वृक्ष के समान होती है। इस वृक्ष के फलों में एक प्रकार है। इसका उपयोग अतिसार प्रवाहिका तथा विषाक्तता की मक्खी के समान नीले रंग के कीड़े छेद करके घुस में करते हैं। दंत मंजनों में इसे डालते हैं तथा व्रण पर जाते हैं और उसके गूदा को साफ करके उसमें बच्चे इसका बाह्य प्रयोग करते हैं, जिससे रक्तस्राव रुकता दे देते हैं। ये बच्चे उसी फल में बढ़ते रहते हैं और पूर्ण
(भाव०नि० पृ० ८३४) होने पर निकल जाते हैं। इसलिए माजूफल के हर एक फल में एक छेद होता है। किन्तु यथार्थ में ये फल नहीं
कुंकुम है। वृक्ष में ही फल से दीखते हैं। इस कारण इनकी छाल और बीज नहीं होते। एक विशेष प्रकार की मक्खियां
कुंकुम (कुकुम) केशर रा० ३० जीवा० ३।२८३ (Cynips gallel tinctoria) पतली टहनियों और शाखाओं कुकुम के पर्यायवाची नामको कुतर कर उसमें अपने अण्डे रख देती है। फिर शाखा
कुडमं घुसृणं रक्तं, काश्मीरं पीतकं वरम् ।। में वेदना या उत्तेजना होकर रसस्राव होता है,जो अण्डे
संकोचं पिशुनं धीरं, बाल्हीकं शोणिताभिधम् ।।७४ ।। को चारों ओर से घेर लेता है। परिणाम में वह उन्नाव कुंकुम, घुसृण, रक्त, काश्मीर, पीतक, वर, जितना बड़ा कृत्रिम फल बन जाता है। इन फलों के भीतर संकोच, पिशुन, धीर, बाल्हीक और शोणिताभिध अण्डे या भ्रूण का विविध रूपान्तर होता है। जब उसके (रक्तवाची सभी शब्द) ये सब केशर के संस्कृत नाम हैं। पंख आ जाते हैं, वह तोड़कर बाहर निकल जाता है,
(भाव०नि० पृ० २३२)
अन्य भाषाओं में नामतब रूपान्तर बन्द हो जाता है। जो माजूफल मक्खी निकलने के पहले इकट्ठे किए जाते हैं, वे उत्तम माने जाते
हि०-केशर । म०-केशर। गु०-केशर | बं०हैं। छिद्र युक्त सफेद या हल्के रंग का माजूफल कम
कुंकुम, केशर। क०-कुंकुम। ते०-कुंकमपुव । गुणवाला होता है। माजूफल का आकार उन्नाव के बराबर
ता०--कुंकुमपु। फा०करकीमास। अ०-जाफरान । और रंग बाहर से पीलापन लिये गहरा हरा और धरातल
310-Saffron vestido-Crocus Sativus linn (Salcher पर छोटे-छोटे उभार तथा अंदर से पीला या सफेदी लिये
सेटाइवस् लिन०)।
उत्पत्ति स्थान-केशर का नैसर्गिक उत्पत्ति स्थान भूरा, मध्य में किंचित् पीला निर्गन्ध और स्वाद में अत्यन्त
दक्षिण योरप है। यह स्पेन से बम्बई में बहुत आता है कषाय होता है। रंग के विचार से ये चार प्रकार के होते । हैं। (१) नीला (२) काला (३) हरा (४) सफेद।
और भारतवर्ष के बाजारों में बिकता है। ईरान, स्पेन, उत्पत्ति-यूनान, एशिया माइनर, सीरिया और
फ्रांस, इटली, ग्रीस, तुर्की, चीन और फारस आदि देशों फारस। वहीं से इसका आयात भारतवर्ष में होता है।
में इसकी खेती की जाती है। हमारे देश के काश्मीर में (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग पृ० ३६५, ३६६) पम्पूर (४३०० फीट) नामक स्थान पर तथा जम्मू के
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किश्तवाड़ में इसकी खेती की जाती है। यहां का उत्पन्न हुआ केशर भावप्रकाशकार की दृष्टि से सर्वोत्तम समझा गया है ।
Crocus sativus linn.
करार
पुष्प
विवरण- इसका बहुवर्षायु क्षुप १.५ फुट तक ऊंचा होता है। जड़ के नीचे प्याज के समान गांठदार कंद होता है। इसमें काण्ड नहीं होता। पत्ते घास के समान लम्बे, पतले, पनालीदार और जड़ ही से निकले हुए मूलपत्र रहते हैं। इनके किनारे पीछे की तरफ मुडे हुए होते हैं। आश्विन कार्तिक में इस पर फूल आते हैं। फूल एकाकी या गुच्छों में नील लोहित वर्ण के पत्तों के साथ ही शरद ऋतु में आते । नीचे के पत्रकोष (Spathe) पुष्पध्वज (Scape) को घेरे रहते हैं तथा दो हिस्सों में विभक्त रहते हैं। परिपुष्प निवापसम, नाल पतला, दल ६ खण्डों में विभक्त दो श्रेणियों में एवं नाल का कण्ठ श्मश्रुल (बालों से युक्त) रहता है। कण्ठ पर ३ पुंकेशर रहते हैं एवं परागाशय पीतवर्ण का रहता है । कुक्षिवृन्त परिपुष्प के बाहर निकले हुए नारंग रक्त रंग के, मुद्गराकार अखण्ड या खण्डित रहते हैं। फल सामान्य स्फोटी आयताकार एवं बीज गोल होते हैं 1
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इन फूलों के स्त्रीकेशर के सूखे हुए अग्रभाग जिन्हें कुक्षि कहा जाता है उन्हें ही केशर कहते हैं ।
कुक्षि ३, कुक्षिवृन्त के ऊपर लगी हुई या अलग, करीब १ इंच लम्बी गहरे लाल से लेकर हल्के रक्ताभ भूरे रंग की एवं सामान्य दन्तुर या लहरदार होती है। कुक्षिवृन्त करीब १ से०मि० लम्बे करीब-करीब रंभाकार, ठोस, पीताभ भूरे से लेकर पीताभ नारंगी रंग के रहते हैं। इसमें विशिष्ट प्रकार ही तीव्र सुगंध रहती है, तथा इसका स्वाद सुगंधि तथा कड़वापन लिए हुए होता है । (भाव० नि० कपूर्रादिवर्ग पृ० २३३)
कुंद
कुंद (कुन्द) कुंद
भ० २२/५ रा० २६ जीवा० ३/२८२प० १/३८/३
पुष्प
पत्र
कुन्द के पर्यायवाची नाम
LE/KE
पुष्प काट
कली
कुन्दः सुमकरन्दश्च सदापुष्पो मनोहरः ।। अट्टहासो भृङ्गसुहृच्छुक्लः शाल्योदनोपमः । । १३८ ।। कुन्द, सुमकरन्द, सदापुष्प, मनोहर, अट्टहास,
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भृङ्गसुहृत्, शुक्ल और शाल्योदनोपम- ये सब कुन्द के संस्कृत नाम हैं (धन्व० नि० ५ / १३८ पृ० - २६३ )
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कुंद, कुंदे का वृक्ष । बं० - कुंद, कुन्दफूल । क० - कुन्द | म० - मोगरा, कस्तूरी मोगरा । गु० - मोगरो । ता० - मल्लिगै, मगरंदम् । ते० - कुन्दमु । ले० - Jasminum Pubescens (जेसमिनम प्यूविसेन्स) ।
वर्णन - यह एक झाड़ीदार पौधा होता है। इसका वृक्ष मोगरे के वृक्ष की तरह होता है। इसके फूल भी मोगरे के फूल की तरह होते हैं मगर खुशबू में उससे कम होते हैं। यह वनस्पति सारे भारतवर्ष में पैदा होती है।
( वनौषधि चन्द्रोदय तीसरा भाग पृ० ६) उत्पत्ति स्थान - यह भारत के अनेक प्रान्तों में विशेषतः बंगाल तथा दक्षिण के पूर्वीय व पश्चिमी घाटियों पर तथा ब्रह्मदेश से चीन तक यह बागों में बोया जाता है । विवरण- इसके क्षुप १० फीट तक ऊंचे होते हैं। कांड व शाखाएं गोल, भंगुर, छाल धूसर वर्ण की, पत्र अभिमुख, लंबगोल, १.५ से ३ इंच लंबे, ३/४ से १.५ इंच चौड़े, नोकदार, चिकने, नीलाभ, हरितवर्ण के, दोनों ओर कोमल एवं रोमश होते हैं। पत्रवृन्त आधइंच से कुछ छोटा सघन रोमश, पुष्पमंजरी में बेला के फूल जैसे किन्तु उससे कुछ लम्बे सुगंधयुक्त किन्तु बेला से सुगंध कम, प्रायः सदैव यह पुष्पित से कुंद को सदापुष्पी कहते हैं। विशेषतः शीतारंभ से बसंत तक इसमें पुष्पों की खूब बहार रहती है। किसी-किसी क्षुप में फल भी ग्रीष्मकाल में आते हैं जो आधा इंच व्यास के तथा पकने पर पीले पड़ जाते
हैं ।
इस कुल (पारिजात) की कई जाति उपजाति हैं । प्रस्तुत कुंद यह बेला (मोगरा) का ही एक भेद है। इसे बेलाकुंभी नाम दिया गया है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २७२, २७३ )
....
कुंदगुम्म
कुंदगुम्म (कुन्दगुल्म) कुंद का गुल्म
जीवा० ३ / ५८० जं० २/१०
विवरण- इस पारिजाति कुल के रोमयुक्त लतारूप क्षुप १० फीट तक ऊंचा होता है। प्रायः सदैव यह पुष्पित रहने से कुंद को सदापुष्पी कहते हैं । विशेषतः शीतारंभ से वसंत तक इसमें पुष्पों की खूब बहार रहती है। किसी-किसी क्षुप में फल भी ग्रीष्मकाल में आते हैं जो १/४ इंच व्यास के तथा पकने पर काले पड़ जाते हैं। ( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २७२, २७३ )
कुंदलता
कुंदलता (कुन्दलता) कुंदलता
जीवा० ३ / ५८४ प० १/३६/१ जं० २ / ११ विमर्श - प० १।३६।१ में कुंद- सामलता यह समासान्त पद है । विग्रह में कुंदलता शब्द है। यद्यपि कुंद का गुल्म होता है परन्तु आरोहणशील होने के कारण इसे लता के रूप में भी निघंटुओं में लिया गया है।
विवरण- इसका गुल्म बड़ा रोमश लतासदृश आरोहणशील होता है ।
(भाव० नि० पृ० ५०४)
कुंदलया
कुंदलया (कुदलता) कुंदलता
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ओ० ११ जीवा० ३ / ५८४ जं० २ / ११ देखें कुंदलता शब्द ।
कुंदु
कुंदु (कुन्दु) कुन्दुरू, लबान ।
भ० २३/१
कुन्दु के पर्यायवाची नाम
पालङ्क्या कुन्दुरुः कुन्दु, सौराष्ट्री शिखरी वली ।। पालक्या, कुन्दुरु, कुन्दु, सौराष्ट्री, शिखरी, वली ये कुन्दुरु के संस्कृत नाम हैं।
(शा०नि० कपूर्रादिवर्ग पृ०२६)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कुन्दुरु, लबान, कुन्दुर, थुस । बं०- कुंदो, कुन्दुरुखोटी । म० - विसेस | फा० - कुन्दुर । अ०
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कुन्दुरेजकर, लबान। वस्तज। अ०-Olibanum है। यह सुगंधित तथा स्वाद में कुछ कड़वा होता है। (ऑलिबॅनम) Frankincense (फ्रेंकिन्सेस)। ले०-Gum
(भाव०नि० कपूर्रादिवर्ग पृ० २१३) resin of Boswellia carterii Birdw & other sp. (गमरेजिन ऑफ बॉस्वेलिया कार्टेराइ वर्ड एण्ड अदर
कुच्च स्पीसीज)। ___ उत्पत्ति स्थान-यह शल्लकी (सलई) की ही जाति
कुच्च (कूर्च) जीवक
प० १/३७/५ के विदेशी वृक्ष का गोंद है जो अरब तथा अफ्रीका के
विमर्श-संस्कृत के कूर्च शब्द का वनस्पतिपरक एबीसीनिया नामक स्थान से आता है। बाजार में कुन्दुरु
अर्थ नहीं मिलता है। कूर्चक शब्द का अर्थ जीवक मिलता नाम से यही बिकता है एवं बम्बई में इसका आयात होता
है। कूर्चशीर्षक का अर्थ भी जीवक होता है। संभव है कूर्चशीर्षक का संक्षिप्तरूप कूर्च रह गया हो।
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कुच्च शब्द गुच्छ वर्ग के अन्तर्गत है। जीवक के फूल गुच्छों में आते हैं इसलिए यहां जीवक अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। कूर्चक और कूर्चशीर्षक के पर्यायवाची नाम
हस्वाङ्गकः शमी कूर्चशीर्षक: कूर्चको मतः ।।८६ ।। जीवको जीवदः क्षोदी, मंगल्यो मधुरः प्रियः जीवनः शृङ्गकः श्रेयो, दीर्घायु चिरजीव्यपि।।६० ।।
हस्वाङ्गक, शमी, कूर्चशीर्षक, कूर्चक, जीवक, जीवद, क्षोदी, मंगल्य, मधुर, प्रिय, जीवन,श्रृंगक, श्रेय, दीर्घायु और चिरजीवी ये जीवक के पर्याय हैं।
(कैयदेव० नि० ओषधिवर्ग पृ० २०) देखें जीवग शब्द।
कुज्जय कुज्जय (कुब्जक) कूजा
प०१/३८/१ कुब्जक के पर्यायवाची नाम
कुब्जको भद्रतरुणो, वृत्तपुष्पोऽतिकेसरः ।।
महासहः कण्टकादयः, खोलिकुलसङ्कुलः ।।१०१।। ___ कुब्जक, भद्रतरुण, वृत्तपुष्प, अतिकेसर, महासह, कण्टकाढ्य, खर्व तथा अलिकुलसकुल ये सब कूजा के नाम हैं।
(राज०नि० १०/१०१ पृ० ३१७) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कूजा । गु०-कुजड़ो। म०-काष्ठे शेवती। कुब्ज इति कोङ्कणे प्रसिद्धः। गो०-कूजा। बं०-कूजा। ले०-Rosa Moschata Herrm (रोजा मॉस्केटा) Fam.
विवरण-इसके छोटे-बड़े एवं अंडाकार ५ से २५ मि०मी० बड़े टुकड़े होते है, जो कभी-कभी आपस में चिपके रहते हैं। इसका बाह्य स्तर मटमैला एवं पीताभ, नीलाभ या हरीआभायुक्त होता है। यह आसानी से टूट जाता है। भीतरी सतह चिकनी तथा अर्धपारदर्शक होती
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Rosaceal (रोझेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह मध्य तथा पश्चिम हिमालय के साधारण उष्ण प्रदेशों में मुरी से नेपाल तक २ हजार से ११ हजार फीट तक होता है।
सेवती, गुलाब और कूजा यह तीनों क्षुप जाति के वृक्ष वन, उपवन और पुष्पवाटिका में होते हैं।
(शा०नि० पुष्पवर्ग पृ० ३७१) विवरण-यह तरुणी कुल का जंगली गुलाब का क्षुप गुलाब जैसा ही होता है। छोटा बड़ा, श्वेत, पीला, नारंगी आदि भेदों से यह कई प्रकार का होता है। प्रायः पीताभश्वेत पुष्प वाला अधिक होता है। तथा बाग बगीचों में लगाया जाता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ४२५)
कली
कुटगपुप्फरासि कुटगपुप्फरासि (कुटकपुष्पराशि) सफेद पुष्पों वाला कुड़ा
भ० २२/३ प० १७/१२८ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में श्वेत रंग की उपमा के लिए 'कुडग पुष्फरासि' शब्द आया है। कुटक दो प्रकार का होता है-सितपुष्पवाला और असितपुष्प वाला। यहां श्वेतरंग की उपमा के लिए है इसलिए श्वेत पुष्पवाला कुडा ग्रहण किया गया है।
देखें कुटय शब्द।
शारव
...
विवरण-गुलाब की जाति की यह इतस्ततः फैलने वाली विस्तृत लता होती है। काण्ड ५ इंच तक मोटे तथा ५० फीट तक ऊंचे होते हैं। कांटे भूरे रंग के होते हैं। पत्ते संयुक्त २ से ६ इंच लम्बे एवं वृन्त पर कांटे होते हैं। पत्रक संख्या में ५ से ६ अंडाकार, तीक्ष्णाग्र, दन्तुर १ से ३ इंच लम्बे एवं अधर पृष्ठ पर मृदुरोमश होते हैं। पष्प श्वेत. सगंधि १ से १५ इंच व्यास में एवं इनके वन्त पर कांटे नहीं होते, फल नारंगी रक्त या हलके लाल रंग के गोल या अंडाकार एवं व्यासें .३ से .६ इंच रहते हैं। पुष्पकाल अप्रैल से जून एवं फलोद्गम अक्टूबर से फरवरी तक। (भाव०नि० पुष्पवर्ग० पृ०४६६, ४६७)
कुटय कुटय (कुटक) कुटज, कुडा
ओ० ६ जीवा० ३/५८३ प० १/४१/२ कुटकः। पुं। कुटजवृक्षे (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २७६)
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण (प० १४१।२) में कुटय शब्द पर्वकवर्ग के अन्तर्गत है। कुडा वनस्पति में पर्व होते हैं इसलिए यहां ग्रहण किया गया है। कुटक के पर्यायवाची नाम
कुटज: कौटजः कौटो, वत्सको गिरिमल्लिका।। कलिङ्गो मल्लिकापुष्प, इन्द्रवृक्षोथ वृक्षकः ।।१३।।
कुटज, कौटज, कौट, वत्सक, गिरिमल्लिका, कलिङ्ग, मल्लिकापुष्प, इन्द्रवृक्ष और वृक्षक ये कुटज के पर्याय हैं। (धन्व०नि० व० २।१३ पृ० १०७,१०८) कुटज, मल्लिकापुष्प, शक्राश, कटुक, कुटक आदि ३० नाम कुडा के संगृहीत हैं। (शा०नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० २५२)
कुज्जाय गुम्म कुज्जायगुम्म (कुब्जक गुल्म) कूजा का गुल्म
जीवा० ३/५८० ज०२/१०
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अन्य भाषाओं में नाम
ब०
हि० - कूडा, कोरयां, कुड़ा, कौरैयां, कुरैयां । ० - कुरचि । म० - पांढरा कुडा । गु० - कडो क०कोरासिमिन । ते० - काककोडिसे, पलाकोडसा । उडि०कुड़िया । ता० - वेप्पालै कोडगपल । मल० - वेनपाला । फा० - जबाने गुजस्खे तल्ख । अ० - लसनुल्लास फिरुलमुर्र, तिबाज । अं०-Kurchi conessi or tellicherry Bark (कुर्चि कोनेसि या तेल्लिचेरि बार्क) । ले०-Holarrhena antidysenterica wall (होलेहवेना एन्टिडिसेन्टेरिका वाल) ।
पता
फूल →
फली के अन्दर
का 'भाग
इन्द्रयव
जैन आगम वनस्पति कोश
इंच तक मोटी, खुरदरी, भीतर से कुछ लाल हलकी और कडुवी । पत्र लंबगोल, चिकने, ५ से १० इंच लंबे, १.५ से ५ इंच चौड़े, मृदुरोमश, कदंबपत्र सदृश होते हैं। कोमल शाखा का अग्रभाग या पत्राग्र तोड़ने से श्वेतवर्ण का रस निकलता है। पत्ते सूखने पर भी पांडुवर्ण के ही रहते हैं।
पुष्प श्वेत, छोटे, चमेली पुष्प जैसे, पत्रकोण से निकली हुई सलाका पर गुच्छों में, किंचित् गंधयुक्त होते हैं। पुष्पवृन्त छोटा, ४ से ५ पंखुड़ियों युक्त होता है। फलियां सहजने की फल जैसी, ८ से १६ इंच लंबी, १/२ इंच मोटी कुछ टेढी दो-दो एक साथ वृन्त की ओर जड़ी हुई किन्तु अग्रभाग पर पृथक् कुछ श्वेत दागों से युक्त होती है। बीज यव के सदृश होने से इन्हें इन्द्रयव कहते हैं। ये १/२ इंच लंबे, रेखाकार धूसरवर्ण के अन्त के सिरे पर प्रायः हल्के भूरे रंग के, रोम गुच्छ से युक्त तथा स्वाद में अति कडुवे होते हैं । चबाने से जीभ पर संक्षोभ सा प्रतीत होता है। ये बीज कच्ची दशा में हरे पकने पर कुछ लालवर्ण के तथा सूखने पर धूसर या मटमैले एवं भीतर से पीताभ श्वेत होते हैं |
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २६५, २६६ ) इन्द्रजव तथा इसकी आर्द्र छाल का विशेष व्यवहार किया जाता है। इसी वृक्ष को श्वेत कुटज या पुंकुटज कहा जाता है। (भाव० नि० पृ० ३४७)
कुडा
कुडा (कुटी) कपूरकचरी भ० २१/१७
उत्पत्ति स्थान—इसके क्षुप हिमालय की चोटियों कुटी (स्त्री) मुरानामकगंधद्रव्य। कपूरकचरी,
एकाङ्गी ।
पर एवं उष्णप्रदेशों में बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, आसाम आदि स्थानों में विशेष पाए जाते हैं। कहीं-कहीं ये लगाये भी जाते हैं।
विवरण- दोनों (सित, असित) कुड़ा एक ही कुटज कुल की प्रमुख वनौषधियां संभवतः वे हैं जिन्हें चरकाचार्य जी ने पुंकुटज और स्त्रीकुटज नाम से पुकारा है। अनेक शाखायुक्त क्षुपरूपी वृक्ष दुग्धसदृश, रसयुक्त, ४ से १० फीट ऊंचा, काण्ड की छाल पांडु धूसरवर्ण की, चौथाई
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० ३७) विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में कुडा शब्द तृण वनस्पति के साथ है। कपूरकचरी के काण्ड पत्रमय होते हैं। 1 इसलिए यहां कपूरकचरी अर्थ ग्रहण किया गया | भगवतीसूत्र (२२ 1३) में कुटग, शब्द आया है, जो कूडा नामक वृक्ष का अर्थ देता है। इसलिए यहां कुडा शब्द का भिन्न अर्थ कपूरकचरी किया गया है। कुटी का पर्यायवाची नाम
मुरा गन्धवती दैत्या, हृद्या गन्धकुटा कुटी । । १३८६ ॥
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भूरिगन्धा च सुरिभ, र्गन्धाद्या गन्धमादनी।। होने पाते। ये गोलाकार चपटे, छोटे-छोटे टुकड़े, कचूर
गन्धवती, दैत्या, हृद्या, गन्धकुटा, कुटी, भूरिगन्धा, के टुकड़ों जैसे ही बाजार में बिकते हैं। भेद इतना ही सुरभि, गन्धाद्या और गंधमादनी ये पर्याय मुरा के हैं। है कि ये कपूरकचरी के टुकड़े अत्यन्त श्वेत, कपूर की
(कैयदेव नि० ओषधिवर्ग पृ० २५७) विशिष्ट सुगंधयुक्त होते हैं। इनके किनारों पर अन्य भाषाओं में नाम
लालिमायुक्त भूरे रंग की छाल लगी होती है। इस छाल हि० कपूरकचरी (काचरी). शोदुरी, सितरुती। पर श्वेत गोल-गोल चिन्ह भी होते हैं। गुण-धर्म में यह कचूर म०-कापूरकाचरी, सीर, सुत्ती, गंधशटी, बेलतीकच्चर। की अपेक्षा उत्तम माने जाते हैं। गु०-कपूरकाचली, गन्धपलाशी। बं०-कपूरकाचरी।। ऊपर का वर्णन भारतीय कपूर कचरी का है। चीनी
उत्पत्ति स्थान-कपूरकचरी भारत के पूर्वी प्रान्तों कपूरकचरी भारतीय की अपेक्षा आकार प्रकार में कुछ में तथा हिमालय के कुमायुं, नेपाल, भूटान आदि देशों बड़ी अत्यधिक श्वेत किन्तु बहुत कम चरपरी होती है। में, पंजाब में तथा चीन देश में अधिक होती है। काश्मीर । इसका ऊपरी छिलका विशेष चिकना तथा हलके रंग का की ओर इसे वनहल्दी कहते हैं। किन्तु यह वनहल्दी से । होता है। यह दीखने में सुंदर किन्तु गुण और गंध में भिन्न है।
भारतीय से घटिया होती है। विवरण-इस हरिद्राकुल की वनौषधि की गणना
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १२७) चरकसंहिता में श्वासहर एवं हिक्कानिग्रहण गणों में की गई है। कपूरकचरी को कहीं-कहीं छोटा कचूर भी कहते
कुडुंबय हैं। हरिद्रा के क्षुप जैसे ही किन्त लताकार, इसके
कुडुंबय (कुतुम्बक) द्रोणपुष्पी, गूमा । बहुवर्षायु क्षुप, ४ से ६ फुट ऊंचे होते हैं। हिमालय के पहाड़ी लोग इसे सेंदुरी कहते हैं, क्योंकि इसके फल कुछ
गूमा (हलकुसा) पं० १/४८/४३ उत्त० ३६।६८ । सिन्दुरी वर्ण के होते हैं। इसके क्षुप के काण्ड पत्रमय
LEUCAS LINIFOLIA SPRENG होते हैं। पत्ते डंठल रहित, लगभग एक फुट लम्बे चौड़े गोलाकार भाले जैसे होते हैं। इसके पुष्पदण्ड शाखा प्रशाखा युक्त श्वेतवर्ण के, मधुर, सुगंधित, लम्बे गोलाकार डंठलरहित पुष्प १ से १.५ इंच लम्बे, पौन इंच चौड़े, परतदार (एक पुष्प पर दूसरा पुष्प इस तरह नियमित वर्षाकाल में निकलते हैं। फल आयताकार (लम्बाई चौड़ाई से अधिक तथा दोनों किनारे समानान्तर) चिकने, चमकदार, भीतर से पीताभ, किंचित्, सिन्दुरवर्ण के होते
पुष्प जड़ या कंद-क्षुप के नीचे जमीन के भीतर चारों ओर फैले हुए इसके मूलस्तम्भ गांठदार (अनेक गोल मांसल खंडों की माला जैसे) होते हैं। ये छोटे-छोटे कंद लम्ब गोलाकार किंचित् कपूर जैसी सुगन्धि से युक्त, स्वाद में कड़वे और चरपरे होते हैं। इन कंदों को जल में औटाकर गोल-गोल टुकड़े कर सुखा कर रखते हैं। ऐसा करने से ये कृमि तथा वायु आदि से दूषित नहीं
/
पत्र
RA
शारखा
Hinder
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कुतुम्ब के पर्यायवाची नाम
कुम्भयोनि द्रोणपुष्पी, द्रोणा छत्रकुतुंबकः ।।६६३।। (धन्वन्तरि वनौषाधि विशेषांक भाग २ पृ० ४३३,४३४) कौण्डिन्योथ महाद्रोणस्तथा द्रोणकुतुम्बकः वृषाकारः श्वसनकः, श्वसनःस्यात् कुसुम्भकः ।।६६४
कुडुंबय कुम्भयोनि, द्रोणपुष्पी, द्रोणा, छत्रकुतुम्बक, कौण्डिन्य,
कुडुंबय (कुटुम्बक) भूतृण |प०१/४८/४३ उत्त०३६/६८ महाद्रोण, द्रोणकुतुम्बक, वृषाकार, श्वसनक, श्वसन और कुसुम्भक ये पर्याय द्रोणपुष्पी के हैं।
कुटुम्बकः ।पु। भूतृणे। (वैद्यकशब्दसिन्धु पृ०२८२) (कैयदेव० नि० ओषधिवर्ग. पृ० १२३) अन्य भाषाओं में नाम
कुणक्क हि०-गुमा, गोमा, दडधल, गुलडोरा, दनहली,
कुणक्क ( )
प० १/४७ मोढ़ापानी बं०-बड़ धलघसा घसघस, हलकसा । म०
विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं और आयुर्वेद के कोशों तुम्बा, गुमा, कुंभा, शेतकुंभा । गु०-कुबो । ले०-Leucas
में कुणक्क शब्द का वनस्पतिपरक अर्थ नहीं मिला है। Cephalotes (ल्युकस सिफेलोटस)।
उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप भारत में प्रायः सर्वत्र खेतों में तथा जूनी दीवालों या खंडहरों में विशेषतः दक्षिण
कुत्थुभरिय में, एवं बंगाल, बिहार, उड़ीसा, पंजाब में अधिकता से
कुत्थंभरिय (कुस्तुम्बरी) धनियां भ० २२।३ पाये जाते हैं।
देखें कुत्थंभरी शब्द। विवरण-गुडूच्यादि वर्ग एवं नैसर्गिक क्रमानुसार तुलसी कुल का यह वर्षायु क्षुप वर्षा ऋतु (कहीं जलाशय के समीप सब ऋतुओं) में प्रायः आधे से १.५ या ३ फुट
कुत्थंभरी तक ऊंचा पाया जाता है। इसकी मूल कुछ श्वेत रंग की कुत्युंभरी (कुस्तुम्बरी) धनियां प० १/३६/२ तुलसी जैसी, २ से ६ इंच लंबी, स्वाद में चरपरी होती कुस्तुम्बरी के पर्यायवाची नामहै। पत्र समवर्ती, १ से २ इंच लम्बे, आधे से एक इंच कुस्तुम्बरी वेषणाग्रया, कटुभद्रा!िकाल्लका ।।११६३ ।। चौडे तुलसी पत्र जैसे, अनीदार, कंगूरेदार, रोमश, स्वाद धनिका धानिका धान्यं, धानी धाना वितुन्नकम्। में कडुवे एवं गंध तुलसीपत्र जैसी होती है। शाखायें धानेयं धान्यका छत्रा, हृद्यगन्धा च वेषणा /११६४।। चतुष्कोण रोमश (सूक्ष्म श्वेत रोमयुक्त) तथा पुष्प शाखा कुस्तुम्बरी, वेषणाग्रया, कटुभद्रा, आद्रिका, अल्लका, की प्रत्येक गांठ पर पुष्प गुच्छों में श्वेत छोटे-छोटे गोल धनिका, धानिका, धान्य, धानी, धाना, वितुन्नक, धानेय १ से २ इंच व्यास के कोण पुष्पों से घिरे हुए होते हैं। धान्यका, छत्रा, हृद्यगंधा और वेषणा ये पर्याय कुस्तुम्बरी तथा पुष्प गुच्छ के ऊपर प्रायः दो पत्तियां निकलती हुई के हैं।
(कैयदेव० नि०ओषधि वर्ग० पृ० २२०) होती हैं। उक्त पुष्पगुच्छ में ही इसका बीजकोष या फल अन्य भाषाओं में नामहाता है। पुष्प के विकसित होने पर शीघ्र ही पंखुड़ियां हि०-धनियां । बं०-धने। म०-धने. कोर्थिवीर. झडकर पुष्पाभ्यन्तर कोष के निम्न भाग में एक सूक्ष्म ४ धणे गु०-धाना, धाणा, कोथमीर। क०-कोथंबुरी, विभागों वाला हरा चमकीला फल आता है। पकने पर कोथम्बरी, हविज। ते०-कोत्तिमिरि, धनियल। इसके ये ४ विभाग ही बीजों में परिवर्तित हो जाते हैं। ता०-कोट्टमल्लि कोत्तमल्ली। सिन्ध०-धान्। पुष्प प्रायः शीतकाल में आते हैं। ये आकार में द्रोण (दोन फा०-कजबुरा, कजबुरह। अंo-Coriander fruit या प्याला) सदृश होने के कारण इसे द्रोणपुष्पी कहते (कोरियअण्डर फुट)। ले०-Coriandrum Sativum linn
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(कोरिएण्ड्रम सॅटिवम् लिन) Umbelliferae (अंबेलि फेरी)।
कोविदार और श्वेतपुष्प की जाति कांचनार है।
(धन्व०नि० पृ०७४) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कोविदार, खैखरवाल, सोना। बं०देवकांचन, रक्तकाञ्चन। संथा-सिंहरा। ता०-मंदारि, पेद्दाआरिते०-कांचनम् । ले०-Bauhiniapurpurealinn (बौहिनिआ पर्युरिआ लिन०)।
फली
उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में एवं विदेशों में भी इसकी उपज होती है।
विवरण-इसका पौधा १ से २ फुट ऊंचा, शाखायें चिकनी, पत्ते विषमवर्ती, जड़ के निकट वाले पत्ते गोलाकार, ३-४ या ५ भागों में विभक्त. प्रत्येक भाग कटे किनारे वाले और कंगूरेदार तथा शाखाओं के पत्ते सोआ, चनसुल आदि के पत्तों के समान होते हैं। फूल छत्ते से सोया के फूल के समान सफेद या किंचित् गुलाबी रंग के आते हैं। फल नन्हें-नन्हें, अंडाकार, गुच्छों में छत्राकार लगते हैं। सूखने पर वे दो टुकड़े होकर धनिये के नाम से बिकते हैं। (भाव० नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ० ३४)
कुद्दाल कुद्दाल (कुद्दाल) कोविदार
जं २/ कुद्दाल के पर्यायवाची नान
कोविदारश्च मरिकः, कुद्दालो युगपत्रकः ।। कुण्डली ताम्रपुष्पश्चाश्मतकः स्वल्पकेशरी ।।१०२।।
कोविदार, मरिक, कुद्दाल, युगपत्रक, कुण्डली, ताम्रपुष्प अश्मन्तक और स्वल्पकेशरी ये सब कोविदार के संस्कृतनाम हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३३७)
विमर्श-पुष्प के आधार पर कोविदार और कांचनार को पृथक् किया गया है। रक्तपुष्प की जाति
विवरण-इसके वृक्ष मध्यम ऊंचाई के होते हैं। ये छोटे रहने पर ही फूलने फलने लगते हैं। पत्ते बहुत गहराई तक कटे हुए आयताकार ५ से ७ इंच लम्बे, खण्ड के अग्र प्रायः कोणीय एवं पत्र सिराएं ६ से ११ रहती है। पुष्पकलिका गहरे हरे या भूरे रंग की एवं पांच कोणों से युक्त होती है। पुष्प कांचनार की अपेक्षा छोटे पांच दलपत्रों से युक्त चमकीले बैंगनी नीलारुण या गहरे गुलाबी रंग के होते हैं। काचनार तथा कोविदार दोनों में बाह्यनाल लम्बा और पूर्ण, पुंकेशर ३ से ५ होते हैं। फली लम्बी हरिताभ बैंगनी रंग की होती है। इसकी जड़ विषैली होती है।
(भाव० नि० पृ० ३३८) इसके पत्ते को घृत, भुनकर खाने से बुद्धि बढ़ती है। इसके पुष्प अधिकतर साग बनाने के काम में लाये जाते हैं। यह पुष्प शाकों में स्वादिष्ट है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २६)
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की तरफ पंकेसर में बदल जाते हैं। फल स्पंज सदश होता है, जो जल के अंदर पक्व होकर फट जाता है, जिसमें से बीज बाहर निकल कर जल पर तैरते हैं। बीज छोटे कच्चे लाल एवं पकने पर काले होते हैं। इन्हें भेंट या बेरा कहते हैं। बिहार और बंगाल में इनका लावा बनाकर उसके लडडू बनाते हैं। उनको यहां रामदाने के लड्डू कहते हैं।
(भाव० नि० पृ० ४८४) कुमुद के वर्ण के अनुसार चार भेद पाए जाते हैं, पीतवर्ण का भेद भी विदेशों में पाया जाता है।
कुमुद कुमुद (कुमुद) चंद्रविकासी श्वेत कमल
जीवा० ३१२८६ प० ११४६; १७ ॥१२८. कुमुद के पर्यायवाची नाम
श्वेतकुवलयं प्रोक्तं, कुमुदं कैरवं तथा।
श्वेत कुवलय, कुमुद, कैरव ये सब कुमुद के संस्कृत नाम हैं। इसे लोक में कमोदनी कहते हैं। (भाव० नि० पुष्पवर्ग पृ० ४८३) कमल सूर्यविकासी तथा कुमुद प्रायः चंद्रविकासी होते हैं।
(भाव० नि० पृ० ४७६) चंद्रविकासी छोटे कमल या कुमुदनी होती है जो सायं रात्रि में चंद्रोदय पर खिलती और प्रातः बन्द हो जाती है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १३८) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कुमुद, कमोदनी, कोंई, कुईं । बं०-शालुक, सुदी। गु०-पोयणु। म०-कमोद। फा०-नीलूफर। अ०-अर्नबुल्मा। अं0-Water lily (वाटर लीली)। ले०-Nymphaea alba linn (निम्फिआ अल्बा लिन)।
कुमुय कुमुय (कुमुद) चंद्र विकासी श्वेत कमल
(रा० २६ जीवा० ३/२८२) देखें कुमुद शब्द ।
...
कुरय कुरय (कुरका) सालइ वृक्ष
प १/४७ कुरका |स्त्री। सल्लकीवृक्षे ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २६०)
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कुरुकुंद कुरुकुंद
भ० २१/१६ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कुरुकुंद शब्द है। प्रज्ञापना (१/४२/२) में इसी के स्थान पर कुरुविंद शब्द
है। कुरुकुंद शब्द का वनस्पति शास्त्र में अर्थ नहीं उत्पत्ति स्थान-यह काश्मीर में जलाशयों में पाया। मिलता। इसलिए यहां कुरुविंद शब्द ही ग्रहण कर रहे जाता है।
विवरण-इसका जलीय क्षुप बहुवर्षायु होता है। कुरुविंद (कुरुविंद) मोथा इसकी जड़ें जलाशय की सतह में फैलती है। पत्ते गोल, देखें कुरुविंद शब्द। हृदयाकार चमकीले तथा जल की सतह पर तैरते रहते हैं। पत्रनाल १० फुट तक लंबा होता है तथा फलक के
कुरुविंद मध्य में जुटा रहता है। पुष्प श्वेत २ से ५ इंच व्यास में
कुरुविंद (कुरुविंद) मोथा प० १/४२/२ आते हैं। बाह्यदल ४, बाहर से कुछ हरिताभ तथा अंदर से श्वेत होते हैं। आभ्यन्तर दल करीब १० होते हैं जो अंदर
कुरुविन्दः |पुं० । कुरुक्षेत्रजव्रीहिभेदे, कुल्माषे अयं कुधान्यवर्गीयः, कुलत्थ । भद्रमुस्तायाम्, मुस्तायाम्, माषे,
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हिंगुले ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २६२ ) विमर्श - कुरुविन्द शब्द के ऊपर ५ अर्थ हैं। प्रस्तुत प्रकरण में कुरुविन्द शब्द तृणवर्ग के अन्तर्गत है इसलिए यहां मुस्ता (मोथा) अर्थ ग्रहण कर रहे हैं । कुरुविन्द के पर्यायवाची नाम
मुस्तकं न स्त्रियां मुस्तं त्रिषु वारिदनामकम् । कुरुविन्दश्... ।।६२।। मुस्तक (इसका स्त्रीलिंग को छोड़कर शेष लिंगों में प्रयोग होता है, मुस्त ( यह तीनों लिंगों में होता है) वारिदनामक (मेघवाची सभी शब्द ) और कुरुविन्द ये सब संस्कृत नाम मोथा के हैं।
(भाव० नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० २४३)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - मोथा । बं० - मुता, मुथा । म० - मोथा, बिम्बल | गु० - मोथ | क० - कोरनारि । ते०- तुंगमुस्ते । ता० - कोरय, किलंगु । फा०- मुष्के जमीं। अ० - सोअदं कूफी । अं० - Nutgrass (नाटग्रास) । ले०- Cyperus rotundus linn (साइपेरस् रोटन्डस् लिन०) Fam,Cyperaceae (साइपेरॅसी) ।
उत्पत्ति स्थान - मोथा इस देश के सब प्रान्तों में बहुलता से होता है । यह तृणजातीय वनस्पति बारहों मास पायी जाती है किन्तु बरसात में सर्वत्र देखने में आती है ।
विवरण- इसमें मूलीय पत्रगुच्छ होता है, जो एक कठोर कंदसदृश भौमिककांड से निकलता है। नीचे सूत्राकार अन्तर्भूमिशायी कांड भी प्राय होते हैं। जिनमें पौन से एक इंच के घेरे में अंडाकर कंद निकले रहते हैं। जो कसेरु के समान ऊपर से काले रंग के और भीतर से लालीयुक्त सफेद होते हैं और इनमें सुगंध आती है। डंडी पतली ६ से २४ इंच तक ऊंची त्रिकोणाकार तथा पत्तों के बीच से निकली रहती है। पत्ते लम्बे और पतले होते हैं। डंडी के अग्र पर समस्थ मूर्धजक्रम में पुष्पवाहक शाखायें निकलती रहती है, जो छोटे-छोटे अवृन्त काण्ड व्यूहों का संयुक्त व्यूह होती है। पुष्पव्यूह का आधार भाग तीन पत्रसदृश कोणपुष्पों से घिरा रहता है। (भाव० नि० कर्पूरादि वर्ग० पृ० २४३)
कुलत्थ
कुलत्थ (कुलत्थ) कुलथी ।
ठा० ५/२०६ भ० २१/१५ प० १/४५/१ कुलत्थ के पर्यायवाची नाम
कुलत्था श्चक्रका ज्ञेया स्ताम्रवर्णा श्चलापहाः ।।७४ ।। कुलत्थ, चक्रक, ताम्रवर्ण, चलापह ये के कुलत्थ
(कैयदेव, नि० धान्यवर्ग० पृ० ३१५)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कुरथी, कुलथी । म० - कुलीथ । क०हुरूली । ते० - उलवलु । गु० - कुलथी । ता० - कोळळु । क० - किल्लत, माशहिन्दी । इब्बुल्कतल । अ० - Horsegram (हॉर्सग्राम) । ले० - Dolichosbiflorus linn ( डोलिकोस् बाईफ्लोरस्) ।
उत्पत्ति स्थान- इस देश में प्रायः सर्वत्र होती है। दक्षिण में जानवरों को खिलाने के लिए इसकी बहुत खेती की जाती है
पर्याय हैं ।
• पुष्प
फलिएँ ।
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फली
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विवरण - इसका क्षुप झाड़ीदार आरोहणशील, पतला, धूसर, रोमश १२ से १८ इंच ऊंचा एवं मूल से अनेक पतली शाखाओं से युक्त होता है । पत्ते त्रिपत्रक एवं २ इंच लम्बे वृन्तयुक्त होते हैं। पत्रक पीताभ हरे, १.७५ इंच लम्बे, तिर्यक् अंडाकार एवं अग्र तीक्ष्ण और रोमश होता है। पुष्प छोटे पीताभ श्वेत रंग के आते हैं। फली चिपटी १.५ से २ इंच लम्बी, १/४ इंच चौड़ी तथा कुछ टेढी होती है। बीज ५ से ६ हलके लाल, काले, चितकबरे, चिपटे १/७ से १/४ इंच बड़े एवं चमकीले होते हैं। इसको विशेषरूप से घोड़ों को खिलाते हैं। इसको बिना दाल बनाये ही उपयोग में लाते हैं। गरीब इसको खाते हैं। (भाव० नि० धान्यवर्ग पृ० ६५१)
....
कुलसी
कुलसी (
)
भ० २१/२१ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में कुलसी शब्द है । प्रज्ञापना (१/४४/३) में इसके स्थान पर तुलसी शब्द है। संभव है तुलसी का कुलसी लिखा गया हो या तुलसी का पर्यायवाची नाम कुलसी हो । निघंटुओं में और शब्दकोषों में कुलसी शब्द नहीं मिलता है। इसलिए यहां तुलसी शब्द ग्रहण कर रहे हैं। तुलसी (तुलसी) तुलसी ।
देखें तुलसी शब्द |
....
कुवधा
कुवधा (
>
प० १/४०/२
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में कुवधा शब्द है। आयुर्वेद कोषों में कुवधा शब्द नहीं मिलता है। पाठान्तर में कुवया शब्द है। उसका वनस्पति परक अर्थ मिलता है। इसलिए कुवया शब्द ग्रहण कर रहे हैं । कोषों में कुवकालुका शब्द मिलता है। इसका संक्षिप्तरूप कुवका है। कुवया शब्द वल्ली वर्ग के अन्तर्गत है। इसका क्षुप ६ से १२ इंच लम्बा होता है ।
कुवकालुका | स्त्री । घोलीशाके ।
रा०नि०व० ७
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २६६ )
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घोलीशाक के पर्यायवाची नाम
घोला च घोलिका घोली, कलन्दुः कवलालुकम् ।।१४६ ।। घोला, घोलिका, घोली, कलन्दुः कवलालुक ये घोलीशाक के नाम हैं । (राज० नि० ७ / १४६ पृ० २१६ )
विमर्श - कोष में कुवकालुका शब्द घोलीशाक के अर्थ में दिया गया है और साथ में राजनिघंटु के वर्ग ७ का प्रमाण दिया गया है। राजनिघंटु में कवलालुक शब्द है संभव है, छपाई की अशुद्धि हो । अन्य भाषाओं में नाम
हि० - बडीलोणा, लोणाशाक, कुल्फा । बं०बडणुनी । म० - घोल । गु० - लुणीम्होटो । फा० - खुल्फा, खुर्पा । अ० - बकुतुल हुनका । अंo - Garden purslane ( गार्डन पर्सलेन ) । ले० - Portulaca oleracealin (पोर्टुलेका ओलेरेसीया) Fam. Portulacaceae (पार्टुलेकेसी) ।
उत्पत्ति स्थान- भारत के उष्णप्रदेशों में प्रायः खादर या आर्द्रभूमि पर बहुत उपजते हैं तथा बागों में यह बोई जाती है। सीलोन में यह अधिक पाई जाती है।
विवरण - यह अपने लोणिका कुल का एक प्रधान शाक है। बड़ी जाति को कुलफा और छोटी जाति को लोनिया कहते हैं। बड़ी जाति के कुलफे का वर्षायु क्षुप हरा या रक्ताभ रंग का रसपूर्ण ६ से १२ इंच लम्बा बिल्कुल चिकना होता है। पत्र वृन्तरहित १/२ से १.५ इंच लम्बे, गोलाकार, मांसल, रक्ताभ, किनारे युक्त होते हैं। स्वाद नमकीन और अम्ल होता है । पुष्प वर्षाकाल में पीतवर्ण के वृन्तरहित शाखाओं के अग्रिम भाग पर निकलते हैं। कहीं-कहीं ये पुष्प वसंत और ग्रीष्म में प्रस्फुटित होते हैं। फल या डोडी अण्डाकार या शुंडाकार प्रायः शीतकाल में निकलती है। डोडी के अनेक बीज दाने जैसे होते हैं। मूल बड़ी की ४ इंच से १ फुट लम्बी पेन्सिल जैसी मोटी, उपमूलयुक्त एवं स्वाद में अप्रिय होती है ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २८२ )
कुविंदवल्ली
कुविंदवल्ली (कोविदवल्ली) तिलक तिलिया,
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तिलियाकोरा
कोविदः । पुं । तिलक वृक्षे ।
(वैद्यक निघंटु ) (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ३२५) विमर्श - कोविद शब्द के पर्यायवाची नाम वैद्यक निघंटु में है। वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इसलिए तिलक के पर्यायवाची नाम दिए जा रहे हैं। हिन्दी में इसे तिलिया कहते हैं । तिलियाकोरा लता होती है। तिलक के पर्यायवाची नाम
तिलकः क्षुरकः श्रीमान्, पुरुष श्छिन्नपुष्पकः । तिलक, क्षुरक, श्रीमान्, पुरुष और छिन्न पुष्पक ये सब तिलक के पर्यायवाची नाम है ।
(भाव०नि० पुष्पवर्ग० पृ० ५०५)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - तिलक तिलिया, तिलका संथाल - हुण्ड्र । ले० - Wendlandia exerta D. C. (वेण्डलैण्डिया एक जर्टा ) Fam. rubiaceae (रुबिएसी)
उत्पत्ति स्थान - तिलियाकोरा लता बंगदेश, पूर्व बंगाल से लेकर उड़ीसा तक तथा कोंकण सिंगापुर, जावा, कोचीन, चायना आदि में विशेषतः पाई जाती है।
प० १/४०/३
विवरण- गुडूची कुल की इस पराश्रयी विस्तृत पत्राच्छादित, धूसरवर्ण की लताविशेष के पत्र कोमल रोम, २ से ६ इंच लम्बे, १ से २ इंच चौड़े, डिम्बाकृति या गोल, अग्रभाग में क्रमशः पतले नोकदार । पुष्प लगभग १ से २ इंच लम्बे, ६ पंखुड़ीयुक्त, त्रिकोणाकार, मूल १ इंच लम्बा होता है। फल १ से २ इंच लम्बा पकने पर लालरंग का होता है ।
( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ३५४ )
कुस
कुस ( कुश) कुसघास, कुशा
भ० २१/१६ प० १/४२/१
कुशोदर्भस्तथा बर्हिः, सूच्यग्रो यज्ञभूषणः ।।१६५ ।। कुश, दर्भ, बर्हि, सूच्यग्र, यज्ञभूषण ये सब कुशा (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३८२ )
के नाम हैं।
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कुशा, दाभ, कुसघास । म० - दर्न । बं०कुश | पं० - दभ, द्रभ । गु० - दाभडो, दरभ। क०वीलीय बुट्टशशी । ते० - कुश, दर्बालु । ता०-दर्भ | ले०-Eragrostis cynosuroides Beauv (इरेग्रॉस्टिस् साइनोसुरोइडीस् बी०) Syn. Desmostachya bipinnata Stapf (डिस्मोस्टेचिआ वाइपिन्नाटास्टा०) Fam, gramineae (ग्रामिनी) ।
शा
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Beaur
बीज
पुष्प
उत्पत्ति स्थान- यह खुले हुए घास के मैदानों में सर्वत्र पाया जाता है।
विवरण- इसके पौधे मोटे बहुवर्षायु दृढ़ तथा १ से ३ फीट ऊंचे होते हैं। मूल स्तंभ सीधा खड़ा परन्तु बहुत गहराई तक होता है । पत्ते १८ इंच तक लम्बे . २ इंच चौड़े, अग्र पर कांटे की तरह तीक्ष्ण और पत्रतट सूक्ष्म रोमों के कारण तेज धार का होता है। पुष्पदंड ६ से १८ इंच लम्बा तथा सीधा होता है। बीज १/४ इंच लम्बे अंडाकार तथा चपटे होते हैं। वर्षा ऋतु में पुष्प तथा शीतऋतु में फल लगते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३८२ )
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कुसुभ
के कंटीले तथा बिना कांटे वाले ऐसे दो प्रकार के रुप
है। होते हैं। इसके फूलों का वर्ण कुंकुम (केशर) जैसा होने कुसुंभ (कुसुम्भ) कुसुंभ का बीज, वरट्टिका, करें, वरें। . भ० २१/१६ प० १/४५/२
से इसे ग्राम्यकेशर कहते हैं। ये फूल स्वाद में कुछ कडुवे विमर्श-कुसुंभ शब्द का अर्थ कुसुम होता है,
__होते हैं। इन पुष्पों के कारण ही इसके क्षुपों को कुसुम जिसके फूल रंगने के काम में आते हैं। प्रस्तुत प्रकरण
___फूल कहते हैं।
इसमें जो डोंडी बडीसुपारी जैसी नोंकदार तथा में कुसुंभ शब्द धान्यवाचक है। कुसुंभ के बीज धान्य में
कांटों से युक्त होती है, उन्हीं में केसरिया फूल तथा माने गए हैं इसलिए यहां कुसुंभ का बीज अर्थ ग्रहण किया
छोटे-छोटे शंख जैसे चिकने, श्वेत बीज होते हैं। ये बीज जा रहा है।
स्वाद में कुछ तिक्त तथा तैल से युक्त होते हैं। इन्हें भाषा संस्कृत नामकसम्भबीजं वरटा, सैव प्रोक्ता वरद्रिका। में बरे कहते हैं
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २८८) कुसुम्भबीज, वरटा और वरट्टिका ये सब कुसुंभ बीज के संस्कृत नाम हैं। (भाक० नि० धान्यवर्ग० पृ० ६५६) अन्य भाषाओं में नाम
कुहंडिया हि०-कुसुभ, कुसुम्भ, वरें। बं०-कुसुभ फूल। कुहंडिया (कूष्माण्डी) कुम्हडी, सफेद कदू। म०-करडई। गु०-कसुम्बो। क-कसुम्बे ।
रा०२८ जीवा० ३/२८१ ते०-लत्तुक, लक्क, बंगारमु, वंगारम, अग्निशिक्षा, कूष्माण्डी के पर्यायवाची नामकुसुम्बा, वित्तुलु। पं०-कूसम, कर्तुम, करर।
कूष्माण्डी तु भृशं लध्वी, कर्कारुरपि कीर्तिता। उ०प्र०-बरे, करी। फा०-खश्कदाने, गुलेमश्कर ।
कूष्माण्डी और करुि कुम्हडी के संस्कृत नाम हैं। अ०-अखरीज झरतम। अं0-Safflower (सफ्फ्लावर) अत्यन्त लघु पेठे को कूष्माण्डी कहते हैं। Parrot seed (पॅरट्सीड) Bastard saffron (बॅस्टर्ड
(भाव० नि० पृ०६८०) सॅफ्रॉन)। ले०-Carthamus tinctorius linn (कार्थमस् अन्य भाषाओं में नामटिंक्टोरियस् लिन०)।
हि०-कुम्हरा, सफेद कदू । बं०-सादाकुम्हरा। उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में म०-कौला। ता०-सुरईकई। अ०-Vegetable Marइसकी खेती की जाती है।
_row (बेजिटेबुल मॅरो) Field Pumpkin (फील्ड पम्पकिन)। विवरण-इसका क्षुप १ से ३ फीट ऊंचा होता है। ले०-Cucurbita pepo linn (कुकरविटा पेपो) Fam. पत्ते लम्बे किनारों पर कटे हुए नुकीले और कांटेदार होते Cucurbitaceae (कुकर विटेसी)। हैं। केसरिया लालरंग के पुष्प गोल, गुच्छों में आते हैं। उत्पत्ति स्थान-यह सभी प्रान्तों में कृषित अवस्था चतुष्कोणीय चर्मल फल आते हैं। बीज सफेद, चिकने में होता है। तथा शंख की आकृति के समान होते हैं । कृषिजन्य इसके विवरण-इसकी लता वर्षायु दृढ़, एवं खरदरी से अनेक प्रभेद पाये जाते हैं तथापि इनका वर्गीकरण दो रोमश होती है। पत्ते गोलाकार, अल्पखण्डित एवं वृन्त, वर्गों में किया जा सकता है। एक में कांटे होते हैं और तीक्ष्ण रोमश होते हैं। पुष्प पीले रंग के आते हैं। फल दूसरे में कांटे नहीं होते। कांटे वालों की अपेक्षा बिना कई प्रकार के किन्तु सामान्यतः नाशपाती के आकार वाले कांटेवाले के फूलों से बहुत उत्तम रंग निकलता है। कांटे या कुछ आयताकार होते हैं। इसका डण्ठल कड़ा, अनेक वाले पौधे तेल की दृष्टि से अच्छे समझे जाते हैं। गहरी धारियों से युक्त एवं फल के आधारीय भाग में फूला
(भाव० नि० हरीतक्यादि वर्ग०पृ० ११२) हआ नहीं रहता। हरीतक्यादि वर्ग एवं मृगराज कुल की इस बूटी
इसके अनेक प्रकार होते हैं। गद्दी हलके रंग की
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एवं गंधहीन होती है। बीजों को तथा उसके तेल को खाने के काम में लाते हैं । ( भाव०नि० शाकवर्ग पृ० ६८०)
श्वेत कद्दू के पत्ते बहुत ही मुलायम और प्रायः श्वेत धब्बों से होते हैं। लाल कद्दू का सर्वांग शाक रूप युक्त में खाया जाता है। श्वेत का सर्वांग इस प्रकार काम में नहीं आता । केवल इसके कच्चे फलों का शाक बनाया जाता तथा पके फलों की टुकड़ीदार मिठाई (पेठा ) आदि बनाते । औषधि रूप में तो इनके फल (स्वरस) बीज, तैल, पत्रादि काम में आते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ८२)
कुहग
कुहग (कुहक) ग्रन्थिपर्ण, गठिवन उत्त०३६/६८ कुहक : (पुं) ग्रन्थिपर्णवृक्षे । वैद्यक निघु
(वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ३०२ )
ग्रन्थिपर्ण के पर्यायवाची नाम
ग्रन्थिपूर्ण ग्रन्थिकश्च, काकपुच्छश्च गुच्छकम् । नीलपुष्पं सुगन्धञ्च कथितं तैलपर्णकम् ||१०७ ।। ग्रन्थिपर्ण, ग्रन्थिक, काकपुच्छ, गुच्छक, नीलपुष्प सुगन्ध और तैलपर्णक ये सब संस्कृत नाम गठिवन के हैं। (भाव०नि० कूर्परादिवर्ग श्लोक १०७ पृ० २५२) विमर्श - गठिवन का स्वरूप भी संदिग्ध है। स्थौणेयक और चोरक नामक दो ग्रन्थिपर्ण के भेद दिए गए हैं, वे भी संदिग्ध ही हैं। कुछ विद्वान इन तीनों नामों को एक दूसरे का पर्याय मानते हैं। श्री शालिग्राम जी इसको आसाम में बहुत होने वाली तृणजाति की गांठदार सुगंधित वनस्पति को माना है। श्री डा० वा०ग० देसाई ने ग्रन्थितृण नाम से एक वनस्पति का वर्णन किया है। उसके गुण शास्त्रीय ग्रन्थिपर्ण से मिलते नहीं फिर भी सादृश्य होने से उसका संक्षेप में वर्णन यहां दिया जाता है ।
अन्य भाषाओं में नाम
सं०- ग्रन्थितृण । हि० - केस्री मचोटी । पं०मटि, केसु । काश्मी०-द्रोब । सिं०- एंद्राणी । इरा०झार बंदुक अंo - Knot grass (नॉट् ग्रासं ) । ले० - Polygonumaviculare linn (पॉलिगोनम् एविक्युलेर
लिन०) Fam, Polygonaceae (पॉलिगोनॅसी)। उत्पत्ति स्थान - यह काश्मीर से कुमाऊं तक ६ से १२ हजार फीट की ऊंचाई में होता है।
विवरण - इसका छोटा सा क्षुप होता है। जड़ लम्बी कुछ काष्ठमय एवं चिमड़ी होती है तथा उससे अनेक उपमूल निकले रहते हैं। शाखाएं बहुत सी जमीन पर फैली हुई एवं गोल होती है। इसकी टहनियों की ग्रंथियां बहुल गांठदार होती हैं तथा वहीं से पत्र निकलते हैं। पत्र एकान्तर, शल्याकृति, अखंड, धूसर रंग के एवं १ इंच से छोटे होते हैं। पुष्प श्वेत या लाल रंग के होते हैं। फल त्रिकोणयुक्त हरे एवं अग्र पर सूक्ष्म झुर्रीदार चमकीले एवं काले होते हैं।
सिंध में बीजों को बीजबंद कहते हैं। बला के बीजों को भी अनेक स्थानों में बीजबंद कहा जाता है। (भाव०नि० कपूर्रादिवर्ग० पृ० २५३)
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कुहण
कुहण (कुहक ) ग्रन्थिपर्ण
प० १/४७
विमर्श - उपलब्ध निघंटुओं और आयुर्वेदीय शब्दकोशों तथा अन्यकोषों में कुहण शब्द का वनस्पतिपरक अर्थ नहीं मिलता है। उत्तराध्ययन ३६/६८ में कुहग शब्द है जिसकी छाया कुहक होती है। भगवती सूत्र २३ / ४ में कुहण शब्द के स्थान पर कुहुण शब्द है । कोषों में कुहक और कुहुक दोनों शब्द मिलते हैं और दोनों का अर्थ भी एक ही है। इससे लगता है कुहण की छाया कुहक ही होनी चाहिए ।
कुहकः । पुं । ग्रन्थिपर्णवक्षे । (वै०नि०)
देखें कुह शब्द |
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ३०२ )
....
कुहुण
कुहुण (कुहुक) ग्रन्थिपर्ण
भग० २३/४
विमर्श - उपलब्ध निघंटुओं और आयुर्वेदीय शब्द कोशों तथा अन्य कोषों में कुहुण शब्द नहीं मिलता है कुहुक शब्द मिलता है। प्रज्ञापना १/४७ में कुहुक और
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कुहक दोनों शब्द एक अर्थ के ही वाचक हैं। इससे लगता में बीजू केले होते हैं। इसमें बीज होते हुए भी मिठास है कुहुण का संस्कृतरूप कुहुक होना चाहिए। अच्छा होता है। जंगली बीजदार केलों में मिठास नहीं
कुहुकः पुं। ग्रन्थिपर्णवृक्षे (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ३०२) होता। मर्त्य या मर्त्यवान जाति के केले का गूदा मक्खन देखें कुहग शब्द।
जैसा और सुस्वादु होता है। चंपककेला कुछ
अम्लरसयुक्त सुगंधित एवं ऊपर कुछ पीतवर्ण होता है। केतकि
कोकनीकेला बड़ा सुस्वादु होता है। इसके गूदे को
सखाकर भी बेचते हैं। ब्रह्मप्रदेश में भी स्वर्ण वर्ण के अनेक केतकि (केतकी) केवड़ा जीवा०३/२८३
प्रकार के केले होते हैं । यवद्वीप में विचित्र प्रकार के केले देखें केयइ शब्द।
होते हैं। एक पिस्यांटण्डक नामक केला २ फुट लंबा होता केतगि
पश्चिमी भारतीयद्वीप में एक प्रकार का क्षुद्राकार केतगि (केतकी) केवडा
रा० ३० बेंगनी रंग का केला होता है। अमेरिका में ओटंको केला देखें केयइ शब्द।
अत्युत्तम होता है। डाल का पका होने पर इसकी सुगंध
सबको उन्मत्त सा बना देती है। इसके अतिरिक्त अन्यान्य केदकंदली
प्रदेशों में कई प्रकार के केले होते हैं। केदकंदली (केदकंदली) केदकेला उत्त०३६/६७
एक केला ऐसा होता है जिसके एक ही फूल होता
है, वह भी बाहर नहीं कांड के भीतर ही होता है और कन्दली (स्त्री) कदली। पद्म बीज।
पकता है। पूरा पक जाने पर कांड फट जाता है। यह (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ०२४)
इतना बड़ा होता है कि एक ही फल से चार मनुष्यों का केला के भेद-राजनिघंटु पृ० ३४७.३४८ में केला,
पेट भर जाता है। काष्ठकदली, गिरिकदली, सुवर्णकदली के पर्यायवाची
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २६६) नाम तथा गुण धर्म हैं।
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में केदकंदली शब्द कन्द ___कैयदेवनिघंटु पृ०५६ में सुगंधकदली, कृष्णकदली
नामों के अन्तर्गत है इसलिए ऊपर वर्णित केलों के भेदों और शैलकदली को उत्तरोत्तर निंदित कहा है।
में अंतिम भेद केदकंदली होना चाहिए। भावप्रकाश निघंटु पृ० ५५७ में माणिक्यकदली, मयंकदली, अमृतकदली तथा चंपककदली इत्यादि केले बहुत से भेद हैं ऐसा लिखा है।
केयइ शालिग्रामनिघंटु पृ० ४२२ से ४२४ में, कदलीकद, केयइ (केतकी) केवड़ा। भ० २२/१ प० १/३७/५ अरण्यकदली, काष्ठकदली, सुवर्णकदली महेंद्रकदली केतकी के पर्यायवाची नामकृष्णकदली आदि भेदों के गुण वर्णित हैं।
केतकी कंबुको ज्ञेयः, सूचीपुष्पो हलीमकः । वनौषधि विशेषांक में वर्णन इस प्रकार मिलता है- तृणशून्यं, करतृणं, सुगन्धः क्रकचत्वचः: ।/१४८३।।
आजकल तो विभिन्न स्थानों में अनेक प्रकार के केतकी, कंबुक, सूचीपुष्प, हलीमक, तृणशून्य, केले पाए जाते हैं। आसाम में आठिया, भीमकला आदि करतृण, सुगंध, क्रकचत्वच ये केवड़ा के नाम हैं। १५ प्रकार का केला प्रचलित है। बंगाल में रामरंभा,
(कैयदेव०नि० श्लो० १४८३ ओषधिवर्ग पृ० ६२०) मालभोग, उक्त भावप्रकाश के मर्त्य, चम्पक आदि कई अन्य भाषाओं में नामजाति के केले होते हैं। इसके अतिरिक्त इसी बंग प्रदेश हि०-केवडो। बं०-केया। म०-केवड़ा।
गु०-केवडो। ते०-मुगली पुवु। ताo-तालहै।
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क०-केदगे। फा०-गुलकेरी। अ०-कादी। अ-Screw Pine (स्क्रपाइन) ले०-Pandanus odoratissimus Roxb (पेन्डेनस् ओडोरेटिसिमस्)।
कोतिय कोतिय (
) सितदर्भ भ० २१/१६ विमर्श-प्रस्तुतकरण में कोंतिय शब्द है। प्रज्ञापना (१/४२/१) में इसके स्थान पर होत्तिय शब्द है। होत्तिय शब्द की व्याख्या आगे है। कोंतिय शब्द के लिए देखें होत्तिय शब्द।
AIVioe
SAMAGRAT
LADHAN
S
कोकणद कोकणद (कोकनद) लाल कमल प० १/४६ कोकनद के पर्यायवाची नाम
रक्तपदमं तु नलिनं, पुष्करं कमलं नलम्। राजीवं स्यात् कोकनदं, शतपत्रं सरोरुहम् ।।१३४।।
नलिन, पुष्कर, कमल, नल, राजीव, कोकनद, शतपत्र तथा सरोरुह ये रक्तपदम के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०४/१३४ पृ० २१७)
-GC
उत्पत्ति स्थान भारतीय प्रायःद्वीप के दोनों तरफ समुद्री किनारों तथा अण्डमान में यह पाया जाता है। सभी स्थानों में बागों में लगाया हुआ भी मिलता है।
विवरण-इसका गुल्म या छोटा वृक्ष करीब १० से १२ फीट ऊंचा होता है। काण्ड से वायवीय मूल निकल कर उसे सहारा देते हुए जमीन में घुसे रहते हैं। पत्ते सघन, चमकीले, हरे, तलवार की तरह, इसे ७ फीट लम्बे, पतले तथा किनारों एवं मध्यशिरा पर तीक्ष्ण कांटों से युक्त होते हैं। पुष्प पत्रावृत अवृन्त काण्डज व्यूह में आते हैं। जिनके पत्रकोश सगंधित तथा श्वेतवर्ण के होते हैं। पुंपुष्प एवं स्त्रीपुष्प भिन्न-भिन्न वृक्षों पर होते हैं। पुंपुष्पव्यूह में कई गुच्छ ५ से १०४२.५ से ३.८ से०मी० बड़े रहते हैं किन्तुस्त्रीपुष्प व्यूह में एक ही गुच्छ ५ से०मी० व्यास का रहता है। फल गोल या आयताकार १५ से २५ से०मी० लम्बा चौड़ा पीत या रक्तवर्ण का होता है। वर्षा ऋतु में पुष्प एवं शरद ऋतु में फल आते हैं।
(भाव०नि० पुष्पवर्ग पृ०४६८)
कोट्ट कोट्ठ (कुष्ठ) कूठ
रा० ३० जीवा० ३/२८३ कुष्ठ के पर्यायवाची नाम
कुष्ठं रोगाह्वयं वाप्यं, पारिभव्यं तथोत्पलम् ।।१७२ ।।
कुष्ठ, रोगाह्वय (रोगवाचीनाम) वाप्य, पारिभव्य तथा उत्पल ये सब कूठ के नाम हैं ।(भाव० नि० पृ० ६१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कूठ, कूट, कुष्ट । बं०-पाचक, कुर। म०-कोष्ठ, उपलेट । गु०-उपलेट, कठ । क०-कोष्ट । ते०-बेंगुलकोष्टम्। प०-कुढ्ढ, कुट, कोठ। फा०-कृष्ठाई तल्ख। अ०-कस्त बेहेरी। काश्मी०-पोस्तरवै, कूठ। भोटिया०-कुष्ट । ता०-कोष्टम्, गोष्टम्। अंo-Costus Root (कोस्टस् रूट) ले०-Saussurea Lappa C.B. Clarke (सॉस्सुरिया लप्पा)।
उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप काश्मीर तथा उसके आसपास के आर्द्र ढालों पर ८००० से १३००० फीट की
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AGRAM
पुष्पकाट
ऊंचाई पर तथा चेनाव और झेलम नदियों के आसपास अलग होकर नहीं गिरते तथा वह मृगशृंग के समान होता के प्रदेशों में १०००० से १३००० फीट की ऊंचाई पर पाये है।
(भाव०नि० पृ० ६१, ६२) जाते हैं।
कोदूस कोदूस (कोरदूष) कोदों, एक जाति का कोदो।
भ० २१/१६ प० १/४५/२ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कोदूस शब्द धान्यवाची शब्दों के साथ है। धान्य के नामों व पर्यायवाची नामों में कोरदूष शब्द मिलता है। कोदूस शब्द के निकटवर्ती होने से लगता है संस्कृत का कोरदूस शब्द प्राकृत के शब्द कोदूस की ही छाया है। कोरदूष के पर्यायवाची नाम
कोद्रवः कोरदूषश्च, कुद्दालो मदनाग्रजः । स च देशविशेषेण, नाना भेदः प्रकीर्तितः । ।१२८ /
कोद्रव, कोरदूष, कुद्दाल और मदनाग्रज ये सब कोदों के नाम हैं। यह देश विशेष के अनुसार अनेक भेदों से कहा गया है। (राज० नि० १६/१२८ पृ० ५५३, ५५४)
अन्य भाषाओं में नामविवरण-इसका क्षुप बहुत दृढ़ होता है। काण्ड हि०-कोदोधान, कोदव, कोदो। स्वावलम्बी ४ से ७ फीट ऊंचा, भद्दा, जड़ की ओर, छोटी बं०-कोदोआधान। म०-कोद्र, हरिक, कोद्रु । उंगली प्रमाण मोटा होता है। पत्ते कौशेय सदृश, विषम गु०-कोदरा। क०-हारक। ते०-अरिकेले । दन्तूर, खण्डित, आधारीय बहुत लंबे २ से ४ फीट ता०-वरगु। अ०-कोद्रु। फा०-कोदिरम। त्रिकोणाकार लम्बे, खण्डयुक्त सपंख डण्ठलवाले तथा ले०-Paspalum Scrobiculatum Linn (पास्पेलम् ऊपर के छोटे । फूल दृढ़ १ से १.५ इंच गोल विनाल स्क्रोकबिक्यूलेटम्) Fam, Grarnineae (ग्रेमिनी)। गुच्छेदार, गहरे नील बैंगनी रंग के या काले फल .३१ उत्पत्ति स्थान-सभी भागों में यह वन्य अथवा इंच तक लम्बे, दबे हुए, मुडे हुए चर्मलफल । मूल हलके कृषित रूप में होता है। मुरचई लाल या काले बादामी हलके, दृढ सीधे, १ से विवरण-कोदो एक प्रकार का तृणजातीय धान्य, ३ इंच लंबे, १ से १.५ इंच मोटे, छोटे-छोटे उभारों से वर्षाकाल के आरंभ ही में रोपण किया जाता है और युक्त, मोटे टुकड़े अन्दर से पोले, इससे ठीक कटे हुए आश्विन कार्तिक में काट लिया जाता है। इसका क्षुप पृष्ठ में ३ भाग स्पष्ट दिखाई देते हैं जिसमें से बाहरी वर्षाय. सीधा खडा एवं १.५ से २ फीट तक ऊंचा होता भाग अंगूठी की तरह गोल, बीच का काष्ठमय भाग कुछ है। इसके पत्ते पतले घास के समान लम्बे होते हैं। इसकी हलके रंग का तथा महीन किरणों के समान धारियों से मंजरी बाहर नहीं निकलती बल्कि सीकों के बीच में ही युक्त एवं अन्दर में मध्यभाग, भग्न छोटा तथा शृंगवत्। रहकर पक जाती है। इसके बीज सरसों के समान, गंध मधर, स्वाद कछ कडवा, इन्हीं मूलों का व्यवहार छिलका सहित काले रंग के और भसी निकलने पर औषध में किया जाता है। चक्रपाणि ने अच्छे कूठ की किंचित् पीलापन युक्त सफेद रंग के होते हैं। इस अन्न पहचान यह दी है कि उसे तोड़ने पर नीचे उसे कण में विशेषता यह है कि भसी सहित रखने से यह पचासों
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वर्ष तक नहीं बिगड़ता। इसमें भुसी निकाल कर गरीब कृषक खाते हैं। इसमें आटा भी कम निकलता है तथा भूसी हटाने में भी कठिनाई रहती है। इसके कई प्रकार पाए गए हैं। (भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ०६५८, ६५६)
पर्याय हैं।
(भाव०नि० धान्यवर्ग पृ० ६५६) स च देश विशेषेण, नानाभेदः प्रकीर्तितः ।।१२८ ।।
देश विशेष के अनुसार यह अनेक भेदों में कहा गया है।
(राज०नि० १६/१२८) देखें कोदूस शब्द।
कोद्दव कोद्दव (क्रोदव) कोदो धान्य
भ० २१/१६ प०१/४५/२ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कोद्दव शब्द धान्यवाची शब्दों के साथ है। कोदूस और कोद्दव शब्द एक श्लोक में ही हैं। ये दोनों शब्द कोरदूस और कोद्रव कोदोधान्य के पर्यायवाची संस्कृत नाम हैं। सभी निघंटुओं में दोनों समान रूप से पर्यायवाची हैं। देश भेद के कारण इनके नामों में भेद हो सकता है और कोई भेद प्रतीत नहीं होता। इसके कई प्रकार बताये गए हैं। संभव है प्रकारों के भेद से या देशविशेष के कारण इनमें भेद हो।
कोदालक कोद्दालक (कुद्दाल) कोविदार
जीवा० ३/५८२ जं० २/८ देखें कुद्दाल शब्द।
__ कोरंटक कुसुम कोरंटक कुसुम (कुरण्टक कुसुम) कटसरैया के पीले फूल।
जीवा० ३/२८१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के लिए 'कोरंटक कुसुम' शब्द का प्रयोग हुआ है। कुरण्टक पीले फूल वाली कटसरैया को कहते हैं।
पीतः कुरण्टको ज्ञेयः (धन्व०नि० १/२७६ पृ० ६६ पीले फूलवाली कटसरैया को कुरण्टक कहते हैं। देखें कोरंटय शब्द।
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कोरंटकदाम कोरंटकदाम (कुरण्टकदामन्) कटसरैया के पीले फूल की माला
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कोरंटय कोरंटय (कुरण्टक) पीले फूलवाली कटसरैया
प० १/३८/१ कुरण्टक पर्यायवाची नाम--
पीतः कुरण्टको ज्ञेयो, रक्तः कुरबकः स्मृतः ।।२७६ ।।
पीले रंग की कटसरैया को कुरण्टक औरलाल रंग की कटसरैया को कुरबक कहते हैं।
कोद्रव के पर्यायवाची नाम
कोद्रवः कोरदूषः स्यात्, उद्दालो वनकोद्रवः ।
कोद्रव तथा कोरदूष ये सब कोदो के पर्यायवाची संस्कृत नाम हैं। उद्दाल तथा वनकोद्रव ये वनकोदों के
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(धन्व०नि० १/२७८ पृ० ६६) लम्बे एवं नोकदार होते हैं। पत्र और शाखा के मध्य तीक्ष्ण अन्य भाषाओं में नाम
नोंक वाले, बबूल के कांटे जैसे लम्बे जोड़ों से निकलते हि०-पीली कटसरैया, पीला पियावांसा, झिण्टी। हैं। पुष्प वर्षा व शीतऋतु में विशेषतः कार्तिक मास से म०-पीवला कोरण्टा, कालसुंद। गु०-कांटा सेरियो, ही फूलना शुरू होते हैं। ये छोटे-छोटे किंचित् घण्टाकार पीलो कांटारियो। ब०-पीतझांटी गाछ, कांटाझांटी। कुछ लालिमायुक्त पीले वर्ण के होते हैं। फल बीजकोष ले०-Barleria Prionitis (बरलेरिया प्रायोनिटिस)। या डोडी भी कांटों से युक्त १ इंच लम्बी और चिपटी
होती है। प्रत्येक बीजकोष में २-२ बीज चिपटे अंडाकार होते हैं ये बीजकोष प्रारंभ में हरे रंग के, पकने पर भूरे वर्ण के हो जाते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ४६,४७)
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कोरंटय गुम्म कोरंटय गुम्म (कुरण्टकगुल्म) पीले पुष्प वाली कटसरैया का गुल्म जीवा० ३/५८० ज० २/१०
विमर्श-इसका क्षप २ से ५ फीट तक ऊंचा होता है। इसलिए इसे गुल्म कहा गया है।
देखें कोरंटय शब्द।
कोरेंटग कोरेंटग (कुरण्टक) पीले पुष्प वाली कटसरैया। देखें कोरंटय शब्द ।
भ० २२/५ उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप उष्णपर्वतीयप्रदेशों में अधिक होते हैं। पंजाब, बम्बई, मद्रास, आसाम, लंका,
कोरेंटमल्लदाम सिलहट आदि प्रान्तों में विशेष पाये जाते हैं। सबके क्षुप एक समान २ से ५ फीट तक ऊंचे होते हैं। इसके
कोरेंटमल्लदाम (कुरण्टकमाल्यदामन्) पीले बहुशाखी क्षुप प्रायः सर्वत्र बाग बगीचों की बाड़ों में, खेतों फूलवाली कटसरैया की माला। प० १७/१२७ के किनारे इत्यादि स्थानों पर देखे जाते हैं।
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के विवरण-यह पुष्प वर्ग की वनौषधि है। यह पुष्पभेद लिए 'कोरेंट मल्लदाम' शब्द का प्रयोग हुआ है। कुरण्टक से पीला, नीला या बेंगनी, श्वेत और लाल, चार प्रकार पीले फूल वाली कटसरैया को कहते हैं। का होता है। इनमें से पीली फूलवाली कटसरैया
"पीतः कुरण्टको ज्ञेयः' धन्व०नि० १/२७६ पृ० ६६ (पियावांसा) प्रायः सर्वत्र प्राप्त होती है। औषधि प्रयोगों
पीले फूलवाली कटसरैया को कुरण्टक कहते हैं। में इसी का विशेष उपयोग किया जाता है। शेष तीन प्रकार की कटसरैया भी प्रयत्न करने से प्राप्त हो सकती
कोसंब है। २००० फीट की ऊंचाई पर ये विशेष पाये जाते हैं। कोसंब (कोशाम्र) कोसम जंगली आम शाखाएं मूल से निकलती हैं। पत्र आरंभ में छोटे
भ० २२/२ जीवा० १/७१ प० १/३५/१
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कोशाम्र के पर्यायवाची नाम
१से 3 चिकने तथा लम्बगोल चिपटे होते हैं। इस पर क्षुद्राम्रः स्यात् कृमितरु लाक्षावृक्षो जतुद्रुमः ।। लगी हुई लाख बहुत उत्तम मानी जाती है। बीज की सुकोशको धनस्कन्धः, कोशाम्रश्च, सुरक्तकः ।।६।। गुदि तथा बीजचोल खाये जाते हैं। इसकी छाल मोटी
कृमितरु, लाक्षावृक्ष, जतुद्रुम, सुकोशक, मुलायम, बाहर से धूसर, खुरदरी तथा भीतर से फीके धनस्कन्ध, कोशाम्र और सुरक्तक ये कोशाम्र के पर्याय लालरंग की होती है। तोड़ने से भग्न छोटा होता है। स्वाद
कुछ कषाय तथा गंध हलकी। कलकत्ते की तरफ बीजों (धन्व०नि०५/६ पृ० २२२) को पक कहते हैं।
(भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग० पृ० ५५४)
हैं।
खज्जूर खज्जूर (खर्जूर) पिण्डखजूर उत्त० ३४/१५ खर्जुरम् ।क्ली० । खजूरफले, पिण्डीखजूंरे।
(वैद्यक शब्द सिन्धु० पृ० ३४२) ___ खजूर | पु० क्ली० । फल खजूरभेदाः-म धु-भूपिण्ड-राज खजूर भेदेन चतुर्धा, पिण्डखरं मधुर फलेषु श्रेष्ठम्।
(आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ० ४६५) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में यह खज्जूर शब्द मधुररस की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है । पिण्ड खजूर
मधरफलों में श्रेष्ठ होता है, इसलिए यहां खजूर का अर्थ मुष्पकाट ।
पिण्डखज्जूर ग्रहण किया गया है। वैद्यक शब्द सिन्धु में अन्य भाषाओं में नाम
पिण्ड खज्जूर अर्थ स्पष्ट है। हि०-कोशम्भ, कुसुम, कोसम। म०-कोसिंब। खजूर के पर्यायवाची नामक०-चकोत। ता०-पुमरम्। मल०-पुपम् ।
पिण्डखर्जूरका खजूं:, दुःप्रधर्षा सुकण्टका।। गु०-कोसुंब। अं०-Ceylo Oak (सिनोन् ओक) खर्जूरं तुवरं शीतं, मधुरं रसपाकयोः ।।२६४ ।। ले०-Schleichera trijuga willd (श्लीकेरा ट्राइज्यूगा)
खर्जूर, दुःप्रधर्षा, और सुकण्टका ये पिंडखजूरिका Fam, Sapindaceae (सेपिण्डेसी)।
के पर्याय हैं। उत्पत्ति स्थान-यह सतलज से नेपाल तक दक्षिण
(कैयदेव निघंटु ओषधिवर्ग श्लोक २६४ पृ० ५६) तथा सिवालिक पहाड के ऊपर मध्य भारत में पाया जाता अन्य भाषाओं में नामहै।
__हि०-खजूर, छुहारा। गु०-खजूरो, खारेक । विवरण-इसका वृक्ष बड़ा छायादार तथा सुंदर बं०- खजूर, खेजूर। ता०-पेरिच्चु, तमररुतब! होता है। पत्ते पक्षवत तथा ८ से १६ इंच लम्बे होते हैं। अंo-Date edidle (डेटएडीवल)। ले०-Phoenix पत्रक ३ से ४ जोड़े अखण्ड ३ से १० इंच लम्बे आयताकार Dactylifera (फिनिक्स डेक्टिलिफेरा) (P. Excelsa) अवन्त तथा चिकने होते हैं। नीचे वाले पत्रक ऊपर के (फिनिक्स एक्सेल्सा)। पत्रकों की अपेक्षा छोटे होते हैं। फूल मंजरी में आते हैं उत्पत्ति स्थान-खजूर या छुहारों का मूल उत्पत्ति और वे पीलापन युक्त हरे रंग के होते हैं। फल १.५ इंच स्थान ईराक, उत्तरी अफ्रीका, मिश्र, सीरिया, अरब तथा लम्बे गोल, दानेदार और किंचित नोकीले होते हैं। बीज काबुल, कन्दहार है। संप्रति पंजाब और सिंध में ये बोए
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जाते हैं। किन्तु ठीक उपज नहीं होती।
खजूर गाछ। म०-शिन्दी। क०-इचुली। ते०-इण्ढा चेटु, पेड्डयिटा। गु०-खजूर | फा०-तमररुतब, खुरमायहिन्दी । अ०-खुरमातर, रतबहिन्दी। अं०-Wild date tree (वाइल्ड डेट ट्री) ले०-Phoenix Sylvestris (फिनिक्स सिलहेट्रिस)।
उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष भारत में प्रायः सर्वत्र ही एवं जंगलों में स्वयमेव उपजते हैं। कहीं लगाये भी जाते हैं। सिन्ध में ये बहत होने से इसे सिन्धी कहते हैं।
विवरण-इसका वानस्पतिक विवरण खजूर वृक्ष के अनुसार ही है। अन्तर इसका यही है कि इसके वृक्ष खजूर वृक्ष की अपेक्षा बहुत ऊचे (४० से ५० फुट तक) किन्त मोटाई में कम मोटे होते हैं। पत्ते अपेक्षाकत अधिक लम्बे, पतले एवं तीक्ष्ण नोंकदार होते हैं। फल ग्रीष्म ऋतु में पत्रदण्डों के मूल भाग से अनेक शाखायुक्त डंडियां निकलती हैं। इन्हीं डंडियों पर १ इंच लम्बे, गोल-गोल
फल गुच्छों में आते हैं; जो पकने पर लालिमा युक्त नारंगी विवरण-फलादिवर्ग एवं नारिकेल कुल का यह
रंग के हो जाते हैं। देहाती लोग इन फूलों को खूब खाते वृक्ष ताड़ या नारियल के वृक्ष के समान होता है। प्रकांड
हैं। फलों में गुठली का ही विशेष भाग होता है। गूदा तो पर पत्रवृन्त के डंठल खजूरी वृक्ष के डंठल जैसे ही नीचे
पर नाममात्र का थोड़ा होता है। इसे ही खाकर गुठली को
फेंक देते हैं। गुठली या बीज की नोकें गोल एवं बीज से ऊपर तक लगे हुए रहते हैं। पत्ते खजूरी पत्र के समान
के एक ओर गहरी लकीर सी तथा दूसरी ओर हल्की ही किन्तु कुछ बड़े होते हैं। फल भी खजूरी के फल से
एवं अधूरी लकीर होती है। इन बीजों के गुणधर्म और बड़ा तथा मांसल या गूदेदार होता है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३३२)
प्रयोग खजूर के बीज जैसे ही हैं। खजूर के पेड़ का रस तो भारत में मुश्किल से प्राप्त होता है किन्तु इसके पेड़
से निकलने वाला रस यहां प्रचुरता से प्राप्त होता है। खज्जूरि
इस रस को भी हिन्दी में खजूरी रस या ताड़ी तथा दक्षिण खजूरि (खर्जूरी) खर्जूरी
में सिंधी कहते हैं। इससे गुड़, चीनी, सिरका, मद्य आदि भ० २२/१ जीवा० ३/५८१ जं० २/६ प० १/४३/२ प्रस्तुत किए जाते हैं। खज्जूरी (खजूरी) खजूरी
इस वृक्ष का विशेष महत्त्व एवं प्रचार इससे प्राप्त खर्जूरी के पर्यायवाची नाम
होने वाले रस के कारण बहुत बढ़ाचढ़ा हुआ है। है भी खर्जूरी तु खरस्कन्धा, कषायाः मधुराग्रजा। यह महान् उपयोगी, पौष्टिक एवं आरोग्यदायक पेय दुःप्रधर्षा दुरारोहा, निःश्रेणी स्वादुमस्तका।।४६।। पदार्थ। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३३८,३३६)
खरस्कन्धा, कषाया, मधुराग्रजा, दुःप्रधर्षा, दुरारोहा, निःश्रेणी, स्वादुमस्तका ये खजूरी के पर्यायवाची
खज्जूरी वण नाम हैं। __(धन्व०नि० ५/४६ पृ० २३३) ।
खज्जूरीवण (खर्जूरी वन) खर्जूरी का वन अन्य भाषाओं में नाम
जीवा० ३/५८१ हि०-खजूर, देशी खजूर, खिजूर | बं०-जांगलेर
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देखें खज्जूरी शब्द।
होती है। इसके पत्ते गिलोय के समान मोटे, गोल, नोकदार और जोड़े। फूल लाल और सफेद तथा सुगंधित
और उनके ऊपर छत्री के आकार के तुर्रे रहते हैं। इसके खल्लूड
पत्ते मोडने से दूध निकलता है। इसकी डोडी नुकीली खल
प० १/४८/४७ होती है। इसके बीज लम्बे और पतले रहते हैं। इसकी विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में खल्लूड शब्द कंद नामों जड़े खाकी रंग की और जड़ों की छाल मोटी होती है। के साथ है। भगवती सूत्र७/६६ में खल्लूड के स्थान पर
(वनस्पति चन्द्रोदय भाग ४ पृ० ४८) खेलूड शब्द है। कंद के नामों में केलूट शब्द मिलता है, जो खेलूड के अति निकट है। इसलिए यहां खल्लूड का
खीरकाओली अर्थ केलूट (कौटुम्ब कंद) ग्रहण कर रहे हैं।
खीरकाओली (क्षीरकाकोली) क्षीरकाकोली केलूट (क) म्। क्ली० पु० । कन्दशाकविशेषे ।
भ० २२/८ प० १/४८/५ जलोदम्बरे। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ३१७)
क्षीरकाकोली के पर्यायवाची नाम
साली नामकेलूट के पर्यायवाची नाम
द्वितीया क्षीरकाकोली, क्षीरशुक्ला पयस्विनी। केलूटं स्वल्पविटपं, कन्दं तत् स्वादु शीतलम्।
वयस्था क्षीरमधुरा, वीरा क्षीरविषाणिका ।/१३४।। कोविदेन तु लोकेन, कोटुम्ब इति कथ्यते ।।१६३६ ।।
क्षीरकाकोली, क्षीरशुक्ला, पयस्विनी, वयस्था, केलूट का छोटा पौधा होता है और कंद मधुर तथा
क्षीरमधुरा, वीरा, क्षीरविषाणिका ये क्षीरकाकोली के पर्याय शीतल होता है। लोक में इसे कौटुम्ब कहते हैं।
(धन्व०नि० १/१३४ पृ० ५५) .(कैयदेव नि० ओषधिवर्ग पृ० ६४६,६४७)
उत्पत्ति स्थान-महामेदा के उत्पन्न होने का जहां
स्थान है वहीं क्षीरकाकोली भी उत्पन्न होती है। क्षीर खीर
काकोली का कंद पीवरी (शतावरी) के समान होता है खीर ( ) खीर बेल, छिर बेल और काटने पर उसमें से दूध निकलता है तथा यह
प० १/४२/१ प्रियगंध से युक्त होता है। यह मूलिका हिमालय में २७०० विमर्श-गुजराती भाषा में खीर बेल और हिन्दी मीटर से ३००० की ऊंचाई तक उपलब्ध है। भिलंगना भाषा में छिर बेल कहते हैं।
घाटी में पंवाली, गंगी, राजखर्क, किनकोलियाखाल, संस्कृत भाषा में नाम
ताली आदि स्थानों में उपलब्ध होती है। केदारनाथ घाटी अर्कपुष्पी, दुर्धषी, जलकांडका, जीवंती, क्षीरोदधि, में, रामवाडा केदारनाथ एवं वासुकी ताल आदि स्थानों शीतला, शीतपर्णी, सूर्यवल्ली।
में उपलब्ध होती है। इसी भांति भागीरथी एवं टौंसवन अन्य भाषाओं में नाम
खण्ड के हरकी, दन, नेटवाड मोरी आदि स्थानों में हि०-छिरबेल। बम्बई-दूदोली सीदोरी, उपलब्ध होती है। तुलतुली। गु०-खरनेर, खीर बेल। म०-शिरदोड़ी
विवरण-यह हरीतक्यादि वर्ग और रसोन कुल का तुलतुली, खानदोड़की। मुंडारी-अपंग । संथाल-अपंग क्षुप है जो कि ऊंचाई में ८ इंच से डेढ़ फीट के लगभग भोटो राख। ते०-पलेकिरे। ता०-पलपुर। होता है। डंठल सीधा मूल से निकलता है। पत्र स्टेम ले०-Holostemma Rheedii (होलोस्टेमो रेडी)। (Stem) के साथ जुड़े रहते हैं। पत्र क्रमानुसार एवं
उत्पत्ति स्थान-यह वनस्पति हिमालय, वर्मा और भालाकार होते हैं। शाखाओं और प्रशाखाओं पर फूल कोंकण में बहुत पैदा होती है।
खिलते हैं। खिलने पर ये पुष्प कुछ पीले व श्वेतवर्ण के विवरण-यह एक बड़ी जाति की झाड़ीनुमा बेल होते हैं तथा सूंघने पर इन पुष्पों से तीव्र सुगंध आती है।
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फलकोष एक इंच से सवा इंच लंबे होते हैं। ये कोष तीन खिरनी के संस्कृत नामप्रखण्डों में विभक्त होते हैं। मूलकंद आग में भुनने के बाद राजादनो राजफलः, क्षीरवृक्षो नृपद्रुमः ।। खाने में यह परतदार कंद मीठा होता है। ताजी अवस्था निम्नबीजो मधुफलः, कपीष्टो माधवोद्भवः ।।७० ।। में यह कंद श्वेतवर्ण के होते हैं। औषधि संग्रह करने से क्षीरी गुच्छफलः प्रोक्तः, शुकेष्टो राजवल्लभः । पूर्व इन ताजे मूलकंदों को उबलते हुए पानी में उबाल श्रीफलोऽथ दृढस्कंधः, क्षीरशुक्लस्त्रिपञ्चधा |७१।। लेते हैं, ऐसा करने पर इनका जलीयांश नष्ट हो जाता राजादन, राजफल, क्षीरवृक्ष, नृपद्रुम, निम्बबीज, है और ये मूलकंद सडने से बच जाते हैं। पुष्पकाल अगस्त मधुफल, कपीष्ट, माधवोद्भव, क्षीरी, गुच्छफल, शुकेष्ट, सितम्बर। फलकाल सितम्बर से नवम्बर।
राजवल्लभ, श्रीफल, दृढ़स्कंध तथा क्षीरशुक्ल ये सब (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० ५०७, ५०८) खिन्नी (खिरनी) के पन्द्रह नाम हैं।
(राज०नि० ११/७०,७१ पृ० ३५३)
अन्य भाषाओं में नामखीरणी
__ हि०-खिरनी, खिन्नी। म०-खिरणी, राजन,
रायण। बं०-क्षीरखेजुर खीरखेजूर, क्षीरणी, राजणी । खीरणी (क्षीरणी) खिरनी
___ भ० २२/२ गु०-रायण, राणकोकडी। क०-खिरणी मारा। विमर्श-खीरणी यह बंग भाषा का शब्द है। हिन्दी ता०-पल्ल, पलै। ते०-पालमानु। ले०-Mimusops भाषा में खिरनी। मराठी भाषा में खिरणी बंगभाषा में
Hexandra (माइमुसोप्स हेक्जेंड्रा)। क्षीरणी, खीरखेजूर और कन्नड भाषा में खिरणीमारा कहते
उत्पत्ति स्थान-यह भारत का ही एक खास वृक्ष हैं । खिरनी इतिगुर्जरे प्रसिद्धः।
है। यह बंबई, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, मद्रास आदि प्रायः सब स्थानों में पाया जाता है।
विवरण-फलादि वर्ग एवं नैसर्गिक क्रमानुसार मधूककुल का यह प्रसिद्ध चिरहरित सदा हरे पर्णों से युक्त, वृक्ष २० से २५ फट ऊंचा होता है। कांड की छाल तीन स्तरों वाली (प्रथम स्तर धसर वर्ण की गहरी झरीदार, बीच की स्तर हरितवर्ण की तथा अन्तिम स्तर दुग्धपूर्ण कुछ काली सी) होती है। पत्र लंबगोल दोनों ओर चिकने २ से ४ इंच लंबे तथा १ से २ इंच चौड़े, चिमड़े होते हैं। पत्रवृन्त लगभग १/२ इंच का होता है। पुष्पदंड पत्रकोण से निकाला हआ, अनेक शाखायुक्त, जिस पर छोटे-छोटे चक्राकार आधा इंच व्यास की, पीताभ श्वेतवर्ण के सुगंधित पुष्प गुच्छों में प्रायः शीतकाल में लगते हैं। फल प्रायः वसंत में नीम के फल जैसे आध इंच लंबे गुच्छों में, कच्ची दशा में हरे व पकने पर पीले होते हैं। फलों में गाढा लसदार दूध निकलता है। बीज प्रायः प्रत्येक फल में एक, किसी-किसी में क्वचित दो
बीज स्निग्ध, काले, चमकदार होते हैं। बीजों के भीतर का पुष्य
की पीताभ गिरी या मज्जा से तैल निकाला जाता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३५७, ३५८)
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खीरामलय
आमले सर्वोत्तम माने जाते हैं किन्तु खपत की अपेक्षा
इनकी उपज कम होने से ये दूसरी जगह से मंगाये जाते खीरामलय (क्षीरामलक) राज आमला
हैं और बनारसी के नाम से बेचे जाते हैं। ये प्रायः कच्ची उवा० १/२६
अवस्था में ही तोड़कर बेच लिए जाते हैं। परिपक्व विमर्श-डा० जीवराज घेलाभाई दोशी L.M. & S...
बनारसी आमला बहुत ही कम मिलता है। ने उवासगदशा का शब्दार्थ और भावार्थ पुस्तक में
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ३६१, ३६२) खीरामलक का अर्थ किया है-दूध सरीखं मधुर एवं खीर आंबलु (राय आंबलु)। (उवासगदशासूत्र, शुद्धमूल, शब्दार्थ भावार्थ सहित पत्र १८)
खीरिणी रायआंवला-आमला दो प्रकार का होता है। (१) खीरिणी (क्षीरिणी) गंभीरी कुंभेर प० १/३५/२ बागी-बाग -बगीचों में होने वाला और (२) जंगली । जो क्षीरिणी/स्त्री/काञ्चनक्षीरी (ऊंटकटीला), वराहक्रान्ता, आंवले बाग में लगाये जाते हैं. उनके दो भेद हैं-बीजू
(वराहक्रान्ता), काश्मीरी (कुम्भेर), दुग्धिका (दूधिया वृक्ष) (बीज से पैदा होने वाला) और कलमी (जो कलम द्वारा
कुटुम्बिनी (अर्क पुष्पी) । (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० २१६) लगाये जाते हैं।) बीजू के फल छोटे होते हैं, कलमी के
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में खीरिणी शब्द बहुत बड़े फल होते हैं। ये राजआमला, शाहआमला,
एकास्थिक वर्ग के अन्तर्गत है। ऊपर पांच अर्थ दिए गए आमलजु मूलक कहलाते हैं। काशी या बनारस का यह
हैं उनमें से काश्मीरी (कुम्भेर) अर्थ ग्रहण कर रहे हैं आमला प्रसिद्ध है। ये बनारसी कलमी आमले अमरूद
क्योंकि गंभीरी की गुठली होती है। के आकार के अत्यन्त गुदार, रेशारहित तथा अत्यन्त ही
क्षीरिणी के पर्यायवाची नामछोटी गुठली युक्त होते हैं।
स्यात् काश्मर्यः काश्मरी कृष्णवृन्ता। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ३६१)
हीरा भद्रा सर्वतोभद्रिका च।। विवरण-बीजू आमला के पेड़ मध्यामाकार होते
श्रीपर्णी स्यात् सिन्धुपर्णी सुभद्रा। हैं। राजपूताने में २० से ३० फीट तक और काठियावाड
कम्भारी सा कट्फला भद्रपर्णी।।३५ ।। में १५ से २० फीट तक ऊंचे इसके पेड़ लगाये जाते हैं।
कुमुदा च गोपभद्रा विदारिणी क्षीरिणी महाभद्रा। कलमी आंवले का पेड़ बीज, से भी छोटा कुछ विशेष
मधुपर्णी स्वभद्रा कृष्णा श्वेता च रोहिणी गृष्टिः ।३६ / लंबी शाखा युक्त फैलावदार होता है। पेड का तना सरल
स्थूलत्वचा मधुमती सुफला मेदिनी महाकुमुदा। या सीधा नहीं होता। लकड़ी कुछ ललाई लिये हुए सफेद
सुदृढ़त्वचा च कथिता विज्ञेयोनत्रिंशति नाम्नाम् ।।३७ ।। और मजबूत होती है। इसमें सारभाग बहुत ही कम होता
काश्मरी, कृष्णवृन्ता, हीरा, भद्रा, सर्वतोभद्रिका, है। लकड़ी के ऊपर का छिलका राख के रंग का चौथाई
श्रीपर्णी, सिन्धुपर्णी, सुभद्रा, कम्भारी, कट्फला, भद्रपर्णी, इंच मोटा होता है तथा प्रतिवर्ष उतरता रहता है। पत्ते
कुमुदा, गोपभद्रा, विदारिणी, क्षीरिणी, महाभद्रा, मधुपर्णी शमीपत्र जैसे या इमली के पत्ते जैसे किन्तु इससे बड़े
स्वभद्रा, कृष्णा, श्वेता, रोहिणी, गृष्टि, स्थूलत्वचा, लगभग आधे इंच लंबे होते हैं। बीजू आमले पौष मास
मधुमती, सुफला, मेदिनी, महाकुमुदा, सृदृढत्वचा ये सब में पकना आरंभ हो जाते हैं किन्तु ये उतने रस वीर्ययुक्त
उन्नीस नाम गंभारी के हैं। नहीं होते जितने माघ से लेकर चैत तक के परिपक्व चैती
(राज०नि० ६/३५, ३६, ३७ पृ० २७०, २७१) आमले होते हैं। कलमी आमला ५ तोले से भी अधिक देखने में आता है किन्तु यह प्रायः मुरब्बे के ही कार्य में हि०-गंभारी, खंभारी, कंभार, गंभार, गम्हार, अधिक आता है। इनमें बीजू आमले की अपेक्षा औषधि
कुम्हार, कासमर। बं0--गाभागरगाछ, गम्वार, पं0गणधर्म की कुछ न्यूनता पाई जाती है । बनारसी कलमी गंभारी खंभारी कंभार गंभार गम्हार कम्हार
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कासमर। म०-शिवण। गु०-शीवण, सवन। क०-सीवनी ते०-गुमारटेक। ता०-गुमड़ी। आसामी०-गोमरी। गरो०-बोल्कोबक। मा०-शेवण, शिवण, कुंभेरन। ले०-Gmelina arborea Linn (मेलिनाआर्बोरिआ लिन) Fam. Verbenaceae (वर्विनेसी)।
उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष हिमालय, नीलगिरी तथा दक्षिण के पूर्वी पश्चिमी घाटों के पहाड़ी प्रदेशों में प्रचुरता से तथा मध्यभारत, बरार, पूर्व बंगाल, बिहार और कोंकण आदि प्रान्तों में भी पाये जाते हैं।
बादाम जैसी, भीतर २ से ३ बीज होते हैं। प्रायः वसन्त में पुष्प और ग्रीष्म में फल आते हैं।
गंभीरी वृक्षों में कुछ वृक्षों की पुष्पमंजरी खूब बड़ीसी होती है। तथा पत्ते उक्त वर्णितानुसार ही होते हैं तथा कुछ वृक्षों की पुष्पमंजरी बहुत छोटी तथा पत्ते भी अपेक्षाकृत छोटे मोटे दलदार अधोभाग पर नसें उभरी हुई, ऐसे होते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३७५)
खेलुड खेलूड (केलूट) कौटुम्ब कंद
भ०७/६६ जीवा० १/७३ केलूटम् । क्ली० । कन्दशाकविशेषे । जलोदुम्बरे ।
(वैद्यक शब्द सिन्धुः पृ० ३१७) केलूटं स्वल्प विटपं, कन्दं तत् स्वादु शीतलम् ।
केलूट का छोटा पौधा होता है और इसका कंद मधुर और शीतल होता है।
(कैयदेव० नि० ओषधिवर्ग पृ० ६४७) केलूटं च कदम्बं च, नदीमाषक मैन्दुकम् १/१११।। विशदं गुरु शीतं च, समभिष्यन्दि चोच्यते।।
केलूट, कदम्ब, नदीमाषक, ऐन्दुक ये चारों विशद, भारी, शीतल तथा अत्यन्त अभिष्यन्दी होते हैं। (चरक संहिता पूर्वोभागः सूत्रस्थान अध्याय २७ श्लोक
१११, ११२ पृ० २३४.२३५)
गंज
विवरण-गडच्यादि वर्ग एवं नैसर्गिक क्रमानसार निर्गुण्डी कुल की इस वनौषधि के बहुशाखी वृक्ष ४० से ६० फीट ऊंचे होते हैं। काण्ड गोलाई में ६ फुट तक सीधा,
गंज (गञ्जा) गांजा भ० २२/४ प० १/३७/५ कांड की छाल श्वेतवर्ण, कुछ भूरी, कुछ काले चिन्हों या अन्य भाषाओं में नामगोल-गोल दानों से युक्त, पत्र ४ से ६ इंच लंबे, ३ से
स०-गंजा, मातुलपुत्रक, सम्बिदामंजरी, उग्रा। ७ इंच चौड़े, पीपल पत्र जैसे, पत्रोदार चिकना तथा पत्र हि०-गांजा, गंजा, गांझा। म०-गांजा। गु०-गांजों। का पृष्ठभाग श्वेत चूने जैसा होता है। पुष्प लंबीमंजरियों बं०-गांजा अकु। ता०-गांजायेला। ते०-गांजाई में अडूसे पुष्प जैसे किन्तु पीतवर्ण के होते हैं। फल फा०-किन्नब। अ०-कुन्नब अंo-Indian hemp मौलसिरी के फल जैसे लंबगोल पकने पर पीतवर्ण के. (इन्डियन हेम्प) Cannabis (कॅन्नाबिस) ले०-Cannabis चिकने, स्वाद में मधुर, कषैले होते हैं। फल की गुठली Sativa (कॅनाविस सेटिवा) Cannabis Indica Lam
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(कॅन्नाबिस इण्डिका लेम)
विमर्श - निघंटुओं में गांजा और भांग के पर्यायवाची नाम समान हैं। फिर भी दोनों में गुण धर्म अन्तर है। भांग और गांजे के गुण लगभग समान ही है किन्तु भांग की क्रिया विशेषतः आमाशय एवं आंत्र पर अधिक होती है तथा यह गांजे की अपेक्षा अधिक ग्राही है। गांजे की प्रधान क्रिया मस्तिष्क पर होती है। वैसे तो भांग की भी क्रिया मस्तिष्क पर होती है पर उतनी नहीं।
(धन्च० वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० २६६) विवरण- विशेषतः बोए हुए मादा जाति के क्षुपों की पुष्प मंजरियां फलित होने के पूर्व ही तोड़ ली जाती है। क्योंकि फलित या बीजोत्पत्ति हो जाने पर इसकी मादक शक्ति का हास हो जाता है। फिर इन तोड़ी हुई रालदार मंजरियों को सुखा लेते हैं। इसे ही गांजा कहते हैं। यह रंग में मटमैला हरा, स्वाद में कुछ कटु या चरपरासा तथा गंध में विशिष्ट प्रकार की मादकता युक्त होता है। इसमें प्रभावशाली तत्त्व २६ प्रतिशत होता है। इस तत्त्व की दृष्टि से पूर्वी बंगाल, मध्य प्रदेश तथा बंबई प्रान्त के बोए हुए क्षुपों से प्राप्त किया गया गांजा श्रेष्ठ माना जाता है। भारत के दक्षिण तथा पश्चिम में प्रायः गांजा नाम से भांग और गांजा दोनों का व्यवहार होता है। उड़ीसा में प्रायः गांजे को ही पीसकर बनाए गए पेय को भांग कहते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० २६५) देखें भंगी शब्द |
....
गयदंत
गयदंत (गजदन्त) मूलक, मूली
रा० २६ जीवा० ३/२८२ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में गयदंत शब्द श्वेत वर्ण की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। आयुर्वेदीय कोशों में गजदन्त शब्द नहीं मिलता है पर हस्तिदन्त शब्द मिलता है । हस्तिशब्द गजशब्द का पर्यायवाची है, इसलिए यहां हस्तिदन्त शब्द का अर्थ मूलक (मूली) है उसे ग्रहण कर रहे हैं।
हस्तिदन्त/ पुं/ मूलके । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ११८८ )
....
गयमारिणी गयमारिणी (गजमारिणी) श्वेत कनेर
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कनेर के संस्कृत नाम
करवीरो मीनकारव्यः, प्रतिहासोऽश्वरोहकः । शतकुम्भः श्वेतपुष्पः, शतप्राशोऽब्जबीजभृत् । । कणवीरोऽश्वहाश्वघ्नो, हयमारोश्वमारकः । करवीर, मीनकाख्य, प्रतिहास, अश्वरोहक, शतकुम्भ, श्वेतपुष्प, शतप्राश, अब्जबीजभृत्, कणवीर, अश्वहा, अश्वघ्न, हयमार और अश्वमारक ये करवीर (श्वेत) के पर्याय हैं। (कैय०नि० औषधिवर्ग पृ० ६३१ ) संस्कृत में कनेर के पर्यायवाची नामों में अश्वघ्न, हयमार, तुरंगारि नाम होने से यह नहीं समझना चाहिए कि कनेर केवल घोड़ों का ही काल है प्रत्युत यह सब के लिए एक घातक विष है। यहां अश्व, तुरंग आदि शब्दों को उपलक्षणात्मक समझना चाहिए। तारतम्यभेद से श्वेतकर लालकनेर की उपेक्षा अधिक घातक तथा पीला कनेर उससे भी विशेष घातक होता है।
प० १/३७/५
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ६०) विमर्श - वनस्पति शास्त्र में गयमारिणी शब्द नहीं मिलता है। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि अश्व की तरह गज का भी यह मारक है। इसलिए यहां श्वेतकनेर अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
LOOD
गिरिकण्णइ
गिरिकण्णइ (गिरिकर्णिकी) कोयल, अपराजिता
प० १/४०/५ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में गिरिकण्णइ शब्द वल्ली वर्ग के अन्तर्गत है । अपराजिता की लता होती है। गिरिकर्णिका / स्त्री / अपराजितायाम् (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ३७२)
गिरिकर्णिका के पर्यायवाची नामअश्वखुरा श्वेतपुष्पी, महाश्वेता, गवादनी । विषघ्नी कोविदा श्वेतकटभी गिरिकर्णिका । ।१०७८ ।। नीलस्यंदा नीलपुष्पी, श्वेतस्यंदापराजिता । वल्ली विभाण्डा वशिका, व्यक्तगंधा च पापिनी । । १०७६ ||
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100
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24- कोपली
DUKTE
___ अश्वखुरा, श्वेतपुष्पी, महाश्वेता; गवादनी, विषघ्नी २ इंच बड़े एवं पत्रकोणीय पुष्पदंड में एकाकी रहते हैं। कोविदा, श्वेतकटभी, नीलस्यंदा, नीलपुष्पी, श्वेतस्यंदा, ध्वजदल चम्मच के आकार का और पक्षदलों के नीचे अपराजिता, वल्ली, विभाण्डा, वशिका, व्यक्तगंधा और फैला रहता है। कोणपुष्पक बड़े स्थायी तथा पर्णसदृश पापिनी ये पर्याय गिरिकर्णिका के हैं।
होते हैं। फली २ से ४ इंच लंबी, चिपटी, नुकली तथा (कैयदेव नि० ओषधिवर्ग पृ० १६६) सीधी या बहुत थोड़ी मुड़ी हुई होती है। बीज ६ से १० अन्य भाषाओं में नाम
अंडाकार, चिपटे, चिकने तथा गहरे भूरे रंग के होते हैं। हि०-अपराजिता, कोयल कालीज़र ।
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० ३४३) बं०-अपराजिता। म०-गोकर्णी, काजली, गोकर्ण । पं0-धनन्तर। गु०-गरणी। कo-शंखपुष्प,
गुंजावली गिरिकर्णिके। ता०-काक्कणनकोटी। ते०-दिटेन।
गुंजावली (गुञ्जावल्ली) श्वेत गुंजा । प० १/४०/४ मल०-शंखपुष्पम् । अ०-Winged leavedclitoria (विंगड लिब्ड
विमर्श-प्रस्तुत शब्द गुंजावली यह गुञ्जावल्ली क्लिोटोरिया) ले०-Clitoria ternatia Linn
का ही रूप लगता है। प्रस्तुत प्रकरण में यह शब्द वल्ली (क्लिटोरिआ टर्नेटिआ लिन)।
वर्ग के अन्तर्गत है। गुंजा (घुघची) की बेल होती है इसलिए गुंजावल्ली शब्द उपयुक्त लगता है। श्वेतगुञ्जा के पर्यायवाची नाम
श्वेता गुजोच्चटा प्रोक्ता, कृष्णला चापि सा स्मृता।
श्वेतगुजा, उच्चटा (श्वेतोच्चटा), कृष्णला ये सब संस्कृत नाम सफेद धुंघची के हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३५४) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-गुंजा, चूंघची, घुघुची, चिरमी, चिरमिटी, घुमची, करजनी, चौंटली। बं०-कुञ्च। म०-गुञ्ज । गु०-चणोठी। क०-गुलगुंति, गुरुगुजी। मल०-कुन्नि । ता०-कुन्थमणि, कुरि। पं०-चर्मटी। ते०-गुरुगिंज । फा०-चस्मे, खरूस, सुर्ख। अंo-gequirity
(जेक्विरिटी) ले०-Abrus precatorius Linn (एब्रस, उत्पत्ति स्थान-यह सब प्रान्तों में पाई जाती है।
प्रिकेटोरिअस् लिन०) Fam. Leguminosae अधिकतर यह बगीचों में लगाई हई मिलती है। बस्तियों (लग्युमिनासा)। के आसपास, वन्य अवस्था में भी कभी-कभी दिखाई देती
उत्पत्ति स्थान-गुंजा प्रायः सब प्रान्तों के जंगल है। पुष्पभेद से यह नील एवं श्वेत दो प्रकार की होती है। झाड़ियों में उत्पन्न होती है तथा हिमालय में ३००० फीट
_ विवरण-इसकी लता बहुवर्षाय, संदर तथा पतले की ऊंचाई तक पाई जाती है। कांड की होती है। यह वृक्षों या झाडियों पर लिपटती विवरण-घुघची की बेल जंगल में अधिकता से हुई (चक्रारोही) बढ़ती है। पत्ते संयुक्त असमपक्षवत रहते होती है। पत्ते इमली के समान होते हैं और खाने में मीठे हैं। पत्रक प्रायः ५, कभी-कभी ७ अंडाकार एवं १ से २ लगते हैं। फूल सेम के समान होते हैं और फली भी सेम इंच लंबे होते हैं। पुष्प जलसीप के आकार वाले नलीयक्त सदृश गुच्छेवाली होती है। उन फलियों में घुघची गोल, चमकीले नीले अथवा कभी-कभी श्वेतपुष्प १५ से (चौंटली) होती है। सफेद रंग की चोंटली सम्पूर्ण सफेद
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होती है।
(शा०नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० २५८)
गोत्त गोत्त (गोत्र) गोत्रवृक्ष, धामिन, धामन ।
प० १/४०/५ गोत्र के पर्यायवाची नाम
धन्वङ्गस्तु धनुर्वृक्षो, गोत्रवृक्षः सुतेजनः ।।६१।।
धन्वङ्ग, धनुर्वृक्ष, गोत्रवृक्ष तथा सुतेजन ये धामिन के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४०) अन्य भाषाओं के नाम
हि०-धामिन, धामन। म०-धामणी चा वृक्ष । गु०-धामण। बं०-धाम ना गाछ। ते०-चरचि । ता०-सहचि, थड़। क०-बुतले। ले०-Grewia tiliaefolia Vahl. (ग्रोविआ टिलीफोलिआ)।
अण्डाकार, मध्यशिरा के दोनों ओर के भाग छोटे-बड़े, प्रायः कुण्ठिताग्र, गोलदन्तुर, आधार का भाग एक ओर अत्यधिक बढ़ा हुआ एवं १ इंच लंबे वृन्त से युक्त होते हैं। पुष्प सफेद रंग के छोटे-छोटे फूलों के गुच्छे लगते हैं, जिनके भीतर पीलापन झलकता है। फल २ से ४ खंड के, मटर के समान एवं पकने पर काले पड़ जाते हैं। इनके फल खाने लायक खट्टे होते हैं। इसकी छाल का उपयोग किया जाता है। यह बाहर से धूसर या गहरे भूरे रंग की तथा मोटी होती है। पत्तों को बाल धोने के लिए काम में लाया जाता है। लकड़ी का भी उपयोग फर्नीचर इत्यादि बनाने के लिये किया जाता है।
(भाव० नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४१)
गोधूम
/१२६: २१/६ प० १/४५/१
TRITICUM VULGARE VILL LINN.
.SATIVUM,LAM.
SSF
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय पहाड़ के निचले भागों में जमुना से नेपाल तक ४००० फीट की ऊंचाई तक एवं मध्यभारत, मद्रास, बिहार एवं उड़ीसा में पाया जाता है।
विवरण-इसका वृक्ष मध्यमाकार का होता है। पत्ते २ से ५ इंच तक लंबे तथा १ से ४ इंच तक चौडे
गोधूम के पर्यायवाची नाम
गोधूमो यवक श्चैव, हड्म्बो म्लेच्छभोजनं।। गिरिजः सत्यनामा च, रसिकश्च प्रकीर्तितः ।।५।।
गोधूम, यवक, हुडुम्ब, म्लेच्छभोजन, गिरिज, सत्यनामा, रसिक ये गोधूम के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०६/८५ पृ० २६०)
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अन्य भाषाओं में नाम
हि०- गेहूँ । बं०-गम । म०-- गहूं। गु० - घेऊ, धउ । क० - गोधी । ते० - गोदुमेलु । फा०- गंदुम | - गोदूमै । अ० - हिन्ता । अंo - Wheat (ह्वीट)। ले० - Triticum Sativum Lam (ट्राइटिकम् सटाइवम् ) Fam. Gramineae (ग्रेमिनी) ।
ता०
उत्पत्ति स्थान - अनेक प्रान्तों में इसकी खेती की जाती है। संसार भर में अन्न के लिए इसकी उपज की जाती है। यह मैसूर, मद्रास में कम होता है। उत्तरभारत में यह अधिक होता है ।
विवरण- इसके पौधे जव के समान होते हैं। यद्यपि इसकी ३-४ जातियां होती हैं। तथापि उपर्युक्त जाति ही अधिक बोई जाती है। इसके अनेक प्रकार होते हैं। इनमें भी शूकयुक्त या विहीन भेद पाये जाते हैं। कडा, मुलायम, श्वेत या लाल आदि दाने के भेद होते हैं। खाने के लिए बड़ा दाने वाले तथा स्टार्च के लिए मुलायम गेहूं काम
लाया जाता है। महागोधूम, मधूली और दीर्घगोधूम इन भेदों से यह तीन प्रकार का होता है। महागोधूम - यह भारत के पश्चिम के देशों (पंजाब आदि) से आता है। मधूली- यह बड़ा गेहूं की अपेक्षा कुछ छोटा होता है और मध्य देश ( आगरा मथुरा आदि) में उत्पन्न होता है । दीर्घगोधूम - यह शूक ( ढूंड ) रहित होता है तथा इसे कहीं-कहीं नन्दीमुख भी कहते हैं ।
(भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६४१, ६४२ )
गोवल्ली
गोवल्ली (
) गोपाल काकड़ी
प० १/४०/४ विमर्श - प्रस्तुत, प्रकरण में गोवल्लीशब्द वल्लीवर्ग के अन्तर्गत है । पाठान्तर में गोवाली शब्द है । वनस्पति शास्त्र में गोवाली का अर्थ गोपालकाकडी है। जो एक प्रकार की बेल है। इसलिए यहां गोवाली शब्द ग्रहण कर रहे हैं।
गोवाली (गोपाली) गोपाल काकड़ी ।
जैन आगम वनस्पति कोश
गोपाली के पर्यायवाची नाम
गोपालकर्कटी वन्या, गोपकर्कटिका तथा ।
क्षुद्रेर्वारु: क्षुद्रफला, गोपाली क्षुद्रचिर्भटा ||१०४ ।। गोपालकर्कटी, वन्या, गोपकर्कटिका, क्षुद्रा, एर्वारु, क्षुद्रफल, गोपाली तथा क्षुद्रचिर्भटा ये सब गोपाल कर्कटी के नाम (राज० नि० ३ / १०४ पृ० ५०)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कचरी, कचरिया, सेंध, पेंहटा भकुर, गोरख ककड़ी, गुराडी । मा० - काचरी, सेंध | पं० - चिम्भड | म० - चिभूड, रोंराड, रौंदणी, टकमके । गु० - चिभडो कोटीर्वा, गोठभडी, काचरां । बं० - वनगोमुक, कुन्दुरुकी, काकुड़ फुटी । अं० - Cucumber Pubescent (ककुम्बर प्युबेसेंट) ले० - Cucumis pubescent (क्युक्युमिस प्युबेसेंट) C. Maculata (क्युक्युमिस मेक्युलाटा) ।
उत्पत्ति स्थान- यह प्रायः समस्त भारतवर्ष के खेतों और पहाड़ी स्थानों में होती है। विशेषतः राजपूताना उत्तरप्रदेश, पंजाब आदि प्रदेशों में अधिक पैदा होती है।
विवरण- इसकी बेल खीरे की बेल जैसी किन्तु उससे लंबाई में छोटी, लगभग ५ या ६ हाथ लंबी होती है। यह वर्षाकाल में प्रायः स्वयं पैदा होती है। कहीं-कहीं बोई भी जाती है। इसकी शाखायें खीरे की शाखा जैसी ही पतली तथा कांटेदार रोवों से व्याप्त होती है। पत्ते छोटे, ४ इंच तक लंबे और ६ इंच तक चौड़े, नरम या कोमल होते हैं। आकार प्रकार में ककड़ी पत्र जैसे ही होते हैं। फूल भी ककड़ी के फूल जैसे ही किन्तु कुछ छोटे, पीले रंग के होते हैं । प्रायः भाद्रपद मास में छोटे लंबेगोल या अंडाकार फल लगते हैं। १ से २.५ इंच लंबे, कोई-कोई इससे भी बड़े ४ या ५ अंगुल तक लंबे होते हैं । इन फलों को ही कचरी कहते हैं। बीज खीरे के बीज जैसे किन्तु अपेक्षाकृत छोटे होते । पक्के बीज का छिलका कुछ काला सा हो जाता है और अंदर की गिरी ताश्वेतरंग की होती है। कच्चे बीज बहुत कडवे होते हैं किन्तु पकने पर कुछ खट्टे हो जाते हैं।
कचरी की बड़ी जाति को या बड़े-बड़े फल वाली कचरिया को गोपालककड़ी कहते हैं। यह ४ या ५ अंगुल तक लंबी, कच्ची दशा में कडुवी और पकने पर कुछ खटास स्वाद वाली होती है। मरुदेश में (मारवाड) में यह
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हैं।
अत्यधिक होने से मरुजा कहलाती है। गोपाल (ग्वाले) जालिनी, कर्कशच्छदा, श्वेल, तिक्ता, सुघण्टाली, इसे बहुत खाया करते हैं, अतः गोपाल ककड़ी इसे कहते ज्योत्सना, जाली और घोषक ये पर्याय कोशातकी के हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३१०३२)
(कैय०नि० ओषधिवर्ग पृ० १०५)
अन्य भाषाओं में नामघोसाडई
हि०-तोरई, तरोई, तुरई। बं०-घोषालता, घोसाडई (घोषातकी) श्वेततोरई
झिंगा। म०-दोडका, शिरालें। गु०-तुरिया, घिसोडा, प० /४०/१
तुरया । क०-हीरे । ते०-बीर | ता०-मीर्छ । ले०-Luffa घोषातकी (स्त्री) श्वेतकोशातक्याम् (रत्नमाला)
acutangula Roxb (लूफा एक्यूटेंगूला)। तत्पर्याय-मृदङ्गौ, जालिनी, कृतवेधकः,
___ उत्पत्ति स्थान-तोरई सभी प्रान्तों में रोपण की श्वेतपुष्पा, आकृतिच्छत्रा, ज्योत्स्ना।
जाती है तथा वन्य भी पाई जाती है। (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० ४०६) विवरण-इसकी लता और पत्ते नेनुआ के समान विमर्श-रत्नमाला में घोषातकी शब्द है और होते हैं। फूल पीले किन्तु पुंकेशर ३ रहते हैं जबकि नेनुआ निघंटुओं में संस्कृत नाम घोषातकी के स्थान पर में ५ रहते हैं। फल ६ से १२ इंच लंबे आधार की तरफ कोशातकी मिलता है।
संकुचित एवं १० धारीदार होते हैं। इसमें कभी-कभी कडवे फल होते हैं। वह वास्तव में जंगली प्रकार नहीं है।
(भाव० नि० शाकवर्ग० पृ०६८५)
MART
घोसाडिया घोसाडिया (घोषातकी) तोरई
रा० २८ जीवा० ३/२८१ देखें घोसाडई शब्द।
HAPAN
घोसेडिया कुसुम घोसेडिया कुसुम (घोषातकी कुसुम)
तोरई का फूल रा० २८ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में घोसेडिया शब्द पीले रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसकी छाया घोषेतिका होनी चाहिए परन्तु अन्यत्र आगमों में घोसाडिया शब्द ही मिलता है और उसकी छाया घोषातकी ही की गई है। इसलिए यहां भी इस शब्द की छाया घोषातकी की जा रही है। देखें घोसाडइ शब्द ।
कोशातकी के पर्यायवाची नाम
श्वेतघोषा कृमिच्छिद्रा, घण्टाली कृतवेधना। मृदंगवत् कोशवती, मृदंगफलिनी तथा ।।५६८ // कोशातकी तु कर्कोटी, जालिनी कर्कशच्छदा।। श्वेलः तिक्ता सुघंटाली, ज्योत्स्ना जाली च घोषकः ।।५६६ ।।
श्वेतघोषा, कृमिच्छिद्रा, घण्टाली, कृतवेधना, मृदंगवत्, कोशवती, मृदंगफलिनी, कोशातकी, कर्कोटी,
चंडी चंडी (चण्डी) लिंगनी, शिवलिंगी
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भ० २३/६ प० १/४८/४
चण्डी (स्त्री) चिडोदेवदारौ । शिवलिङ्गन्याम् ।
(वैद्यकशब्द सिंधु पृ० ४१४ ) विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में चंडी शब्द कंदवर्ग के शब्दों के साथ है। इसलिए यहां शिवलिंगी अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
चण्डी के पर्यायवाची नाम
लिङ्गिनी बहुपत्रा स्यादीश्वरी शैवमल्लिका । स्वयम्भू र्लिङ्गसम्भूता,
लिङ्गी चित्रफलाऽमृता । ।४५ ।।
पण्डोली लिङ्गजा देवी, चण्डापस्तम्भिनी तथा । शिवजा शिववल्ली च,
विज्ञेया षोडशाहवया । ।४६ ।।
लिङ्गिनी, बहुपत्रा, ईश्वरी, शैवमल्लिका, स्वयम्भू, लिङ्गसम्भूता लिङ्गी, चित्रफला, अमृता, पण्डोली, लिङ्गजा, देवी, चण्डा, अपस्तम्भिनी, शिवजा तथा शिववल्ली ये सब लिङ्गिनी के सोलह नाम हैं । (राज० नि० ३ / ४६ पृ० ३६, ३७ )
अन्य भाषाओं में नाम
I
हि० - शिवलिंगी, ईश्वरलिंगी । बं० - शिवलिंगिनी म० - शिवलिंगी, वाडुबल्ली, पोपटी, कावले चे डोले ।. गु० - शिवलिंगी । क० - पचगुरिया, ईश्वरलिंगी । ते०लिंगड़ोडा। अ० - Bryony (ब्रयोनी) ले० - Bryonia Laciniosa Linn (ब्रायोनिया लेसिनोसा) ।
उत्पत्ति स्थान - बाडों और बगीचों के झाड़ियों में शिवलिंगी की बेलें समग्र भारतवर्ष में होती है ।
विवरण - यह गुडूच्यादि वर्ग और पटोलादि कुल की एकवर्षजीवी आरोही लता होती है, जो वरसात के दिनों में बहुत पैदा होती है। लता में बहुतसी शाखाएं निकली हुई और चारों ओर फैली हुई होती हैं। इसके पत्ते करेले के पत्तों से मिलते हुए होते हैं। फूल सूक्ष्म फीके हरे पीले रंग के हो जाते हैं और उन पर सफेद बिन्दियें होती हैं।
मूल - सुतली से पेन्सिल जितनी मोटी १/२ से १ फीट लंबी और इसमें से निकले हुए भाग मुख्य मूल भी लंबी होती है। मूल फीका भूरा रंग का स्वाद में
जैन आगम वनस्पति कोश
कड़वापन लिये होता है ।
काण्ड और शाखायें - लता चिकनी और चमकीली होती है। शाखायें सुतली जैसी पतली और इन पर खड़ी लाइनें आयी हुई होती हैं। इन लाइनों पर सूक्ष्म कांटे आये हुये होते हैं। इन पर अंगुली फिराने से खुरदरे लगते हैं। स्वाद कड़वापन लिये होता है।
पत्र - एकान्तर और नरम होते हैं। पत्र ३ से ५ या ७ कोण वाले होते हैं। बीच का कोण सबसे लंबा होता
। पत्तों की किनारी दांतेदार होती है। पत्र ऊपर की ओर से हरे और खुरदरे और सफेद रोमावली युक्त होते हैं। नीचे की तरफ से फीके हरे रंग के और चिकने कुछ होते हैं। पत्र १.५ से ४ इंच लंबे और १ से ३ या ४ इंच चौड़े होते हैं। पत्रदंड १ से ३.५ इंच लंबा खुरदरा • और सख्त रोमावली युक्त होता है। पत्र की गंध करेले के पान की गंध के समान और स्वाद फीकापन लिए कड़वा किन्तु पीछे से थोड़ा चरपरा और कड़वा लगता है। तंतु-बारीक और शाखाओं से युक्त होते हैं।
फूल - एक ही पत्रकोण से नर और मादा फूल अलग-अलग निकले हुए होते हैं। उसमें नरफूल ३ से ४ और मादा १ से ३ होते हैं। नरफूल ३, लाइन से १/२ इंच लंबी सूक्ष्म दंडी पर फूल आया हुआ होता है। इसका व्यास ३ लाइन जितना, रंग फीका पीला, गंध कड़वी होती है। पुष्प दंड हरापन लिए पीला और चमकीला होता है और इस पर सफेद सूक्ष्म बालों की रोमावली होती ( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० २४१)
I
....
चंदण
चंदण (चन्दन) चंदन, सफेद चंदन
भ० २२/३ ओ० ६ रा० ३० जीवा० ३/२८३, ५८३ प० १ / ३६ / ३ चंदन के पर्यायवाची नाम
भद्रश्रियं मलयजं, चन्दनं श्वेतचन्दनम् । भद्रश्रीर्मलयं शीर्षचन्दनं शिशिरं हिमम् । । १२५६ ।। श्वेतश्रेष्ठं गन्धसारं महार्हं तिलपर्णकम् ।।
भद्रश्रिय, मलयज, चन्दन, श्वेतचन्दन, भद्रश्री मलय, शीर्षचन्दन, शिशिर, हिम, श्वेतश्रेष्ठ, गन्धसार,
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महार्ह, और तिलपर्ण ये चन्दन (श्वेत चन्दन) के पर्याय हैं।
(कैयदेव नि० ओषधिवर्ग० पृ० २३२) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-चन्दन, सफेद चंदन । बं०-चंदन। म०चंदन। क०-श्रीगंधमर । गु०-सुखड। ता०-चंदन मरं। ते०-गंधपुचेक्का। फा०-संदले सफेद। अ०संदेल अव्यज । अं०-Sandal wood (सैन्डलवुड)। ले०Santalum album (सॅन्टॅलम् अॅल्बम्) Fam. Santalaceae (सॅन्टॅलेसी)।
अंशों में पोषक द्रव्यों का शोषण करता है। उद्भेद के कुछ महीने पश्चात् ही इसके मूल आसपास के पेड़ पौधों के मूल में घुस जाते हैं तथा उनसे खाद्य द्रव्यों का शोषण करते हैं। छोटे पौधों को बहुत सावधानी के साथ इतर पोषितृ वृक्षों के साथ पुनः रोपण किया जाता है। यदि सावधानी के साथ रोपण न किया जाए और आस-पास रोपण किया जाय तो स्पाइक नाम के रोग से ये बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। इसकी छाल कालापन युक्त भूरे रंग की, अन्तर छाल लाल, लकड़ी तेल युक्त दृढ़ और सारभाग पीलापन युक्त भरेरंग का तथा सगंधित होता है। पत्ते विपरीत, २ से ३ इंच लंबे अंडाकार-लट्वाकार एवं उपपत्र रहित होते हैं। फूल छोटे निर्गन्ध जामुनी रंग के तथा गुच्छों में आते हैं। फल मांसल गोल एवं कृष्णाभ बैंगनी रंग के होते हैं। इसका केवल काष्ठसार की सुंगधित होता है। ____ इसके वृक्ष १८ से २० वर्षों में परिपक्व होते हैं तब तक इसमें काष्ठसार सतह ले २ इंच अन्दर तक विकसित होता है। इस अवस्था में वृक्षों को काटते हैं। बाहर की छाल एवं बाहरी रसकाष्ठ तथा डालियां जो गंध हीन होती हैं, उन्हें फेंक दिया जात है। अंदर के काष्ठसार को करीब २.५ फीट लंबे टुकड़ों में काटकर बंद गोदामों में सूखने के लिए रख दिया जाता है। ऐसा समझा जाता है कि इससे इसकी सुगंध और अच्छी हो जाती है। वृक्ष का तिहाई भाग करीब काष्ठसार होता है।
(भाव० नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० १८७)
फल कार
G
चंपअ चंपअ (चम्पक) चंपा
देखें चंपकगुम्म शब्द ।
ठा०८/११७/२
उत्पत्ति स्थान-यह मैसुर, कुर्ग, कोयम्बटूर एवं मद्रास के दक्षिणभागों में ४००० फीट की ऊंचाई तक उत्पन्न होता है तथा इसकी उपज भी की जाती है। करीब ६००० वर्ग मील का क्षेत्र इससे व्याप्त है, जिसमें से ८५ प्रतिशत भाग मैसुर एवं कुर्ग में है। कहीं-कहीं वाटिकाओं में भी रोपण करते हैं।
विवरण-इसका वृक्ष सदा हरित २० से ३० फीट ऊंचा एवं अर्धपराश्रयी स्वरूप का होता है। क्योंकि यह दुसरे आसपास के घास, झाडी, क्षुप एवं वृक्षों से कुछ
चपकगुम्म चंपकगुम्म (चम्पक गुल्म) चंपा का गुल्म, पीला चंपा
जीवा० ३/५८० ज० २/१० चंपक के पर्यायवाची नामचपक क पयायवाचा नाम
काकः सुकुमारच, सुरभिः शीतलश्च सः।
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चाम्पेयो हेमपुष्पश्च काञ्चनः षट्पदातिथिः । । १३१ | | चम्पक, सुकुमार, सुरभि, शीतल, चाम्पेय हेमपुष्प, काञ्चन, षट्पदातिथि ये चम्पक के पर्यायवाची नाम हैं। (धन्व० नि० ५ / १३१ पृ० २६१)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - चंपा नागचंपा, चामोटी। बं० - चांपा, चम्पक | गु० - पीलो चंपो, रायचंपो । म० - सोनचाफा, पिंवलाचांफा । क० - संपगे । ते० - संपङ्गी । ले०-Micheliachampaca
ता० - शंपंगि।
Fam. Magnoliaceae
(माइकेलियाचम्पक) (मग्नोलिएसी) ।
शाख
फल काट
फल
उत्पत्ति स्थान - चम्पा के वृक्ष प्रायः वाटिकाओं में रोपण किये जाते हैं किन्तु पूर्वी हिमालय में ३००० फीट तक तथा आसाम एवं दक्षिण भारत में यह वन्य अवस्था में भी पाया जाता है ।
विवरण- इसका वृक्ष छोटा करीब २० फीट ऊंचा होता है और बारही मास हराभरा रहता है । पत्ते ८ से १० इंच लंबे, २.५ से ४ इंच तक चौड़े, नोकीले चिकने
जैन आगम वनस्पति कोश
और चमकीले होते हैं। फूल २ इंच के घेरे में घंटाकार, फीके पीले या नारंगी रंग के सुगन्धित होते हैं। फल लंबे १ से ४ धूसर बीजों से युक्त होते हैं। इसके पुष्प तथा छाल में उडनशील तैल होता है। छाल का क्वाथ करने से यह तेल उड़ जाता है। (भाव०नि०पुष्प वर्ग० पृ० ४६३)
पुष्प वर्ग एवं अपने चम्पक कुल का यह मंझले या बड़े कद का सदैव हरा रहने वाला सुंदर वृक्ष बाग-बगीचों में लगाया जाता है। शाखाएं खड़ी फैली हुई तथा पास-पास होती हैं। कई वृक्षों में फूलों के झड़ जाने के बाद अत्यधिक फल आते हैं, ऐसे वृक्षों में फिर कई वर्षों तक पुष्प नहीं आते हैं। ये फल प्रायः शीतकाल में पक जाते हैं। इन फलों में श्यामाभ लाल वर्ण के गोल बीज तन्तुओं पर लटके हुए होते हैं। वृक्षों की उत्पत्ति इन बीजों से ही होती है ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ४८ )
चंपकगुम्म
चंपकगुम्म (चम्पक गुल्म) भुंइ चम्पा, चन्द्र मूला जीवा० ३ / ५८० जं २/१०
अन्य भाषाओं में नाम
संo - भूमिचम्पक | हि० - चंद्रमूला बं०-भुंइ चांपा । ते० - कोंडा कारवा। ले० Kaempferia rotunda (केफेरिया रोटुंडा) ।
उत्पत्ति स्थान -छोटानागपुर, पार्श्वनाथ पहाड, चिटग्राम, समग्रभारत में लगाया तथा कृषि की जाती है। आदिवास स्थान- दक्षिण-पूर्व एशिया ।
विवरण- यह सोंठ कुल का विस्तृत सुगंधित फूलों का क्षुप होता है। यह बाग बगीचों में कई स्थानों पर लगाया जाता है। इसके पत्ते १२ इंच लंबे, तीन चार इंच चौड़े, हरे गाढ़े पीतवर्ण और बैंगनी रंग विशिष्ट होते हैं। पुष्पदंड का पत्र लंबा, फूल लंबे गंधयुक्त श्वेतवर्ण । इसकी जड़ के बीच गोल-गोल गंठाने होती हैं। उन गठानों में से बहुत सी मांसल और मोटी जड़ें फूटकर उनके समान कंद बन जाते हैं। इनका स्वाद कडवा होता है। ग्रीष्म काल में फूल और बाद में फल आते हैं।
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( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ३३४ )
....
चंपग
चंपग (चम्पक) चंपा देखें चंपकगुम्म शब्द ।
चंपगलया
चंपगलया (चम्पकलता) चंपकलता
देखें चंपयलता शब्द
चंपय
चंपय (चम्पक) चंपा
देखें चंपक गुम्म शब्द ।
....
ओ० ११ जीवा० ३ / ५८४
प० १/३८/३
रा० २८ जीवा० ३/२८६
चंपयलता
चंपयलता (चम्पकलता) चंपाबहा
जं० २/११ प० १/३६/१
विमर्श - वनौषधि चंद्रोदय के अनुसार चंपे के वृक्ष बहुत बड़े और सुंदर होते हैं। भाव प्रकाशनिघंटुकार के अनुसार - इसका वृक्ष छोटा करीब २० फुट ऊंचा होता
। प्रस्तुत प्रकरण में यह लता शब्द के साथ है इसलिए यह कोई चंपा जाति का गुल्म या पौधा होना चाहिए । चंपाबहा पौधा है इसलिए चम्पकलता के अर्थ में चंपाबहा लता का अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
अन्य भाषाओं में नाम
संथाल - चम्पाबहा । ले०-Ochna Pumila (ओछना
पोमिला)
उत्पत्ति स्थान - यह वनस्पति हिमालय की तलहटी में कुमाऊं से सिक्कम तक तथा बिहार और छोटानागपुर में पैदा होती है।
विवरण - यह एक प्रकार का झाडीनुमा पौधा है। इसके फल लंबे और हरे होते हैं।
( वनौषधि चंद्रोदय चौथा भाग पृ० ४)
चंपयलता
चंपयलता (चम्पक लता) भूचंपक
जं २/११ प० १/३६/१
विमर्श - वनौषधि चंद्रोदय (भाग ४ पृ० १) के अनुसार - "चंपे के वृक्ष बहुत बड़े और सुंदर होते हैं।" प्रस्तुत प्रकरण में चंपक शब्द लता के साथ है इसलिए भूचम्पक अर्थ उपयुक्त लगता है क्योंकि इसका क्षुप होता है ।
अन्य भाषाओं में नाम
सं०-भूचंपक, भूमिचंपा । हि० - भुइचंपा | बं०- भुइचंपा। गु० - भुइचांपा । म० - भुइचंपा । काठिया वाड-भूचंपक | कोकण-भूचंपो । ते० - कोंडा कारवा । ले० - Kaempferia Rotunda (केंफेरिया रोटुंडा ) ।
उत्पत्तिस्थान - यह एक सुगंधित फूलों का क्षुप होता है। बाग-बगीचों में कई स्थानों पर यह लगाया जाता है । इसके पत्ते बडे, हरे और कुछ बैंगनी रंग के होते हैं। विवरण- इसकी जड़ के बीच में गोल-गोल गठानें होती हैं। उन गठानों में से बहुत सी मांसल और मोटी जड़ें फूटकर उनके समान कंद बन जाते हैं। इसका स्वाद कडवा होता है । औषधि प्रयोग में इसका कंद काम आता ( वनौषधि चंद्रोदय सातवां भाग पृ० १२० )
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चंपा
चंपा (चम्पक) चंपा
रा० ३० जीवा० ३/२८३ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में चंपा शब्द है। यह हिन्दी व बंगला भाषा का शब्द है । संस्कृत में इसका एक नाम चंपक है।
देखें चंपकगुम्म शब्द ।
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चंपाकुसुम
चंपाकुसुम (चम्पक कुसुम) चंपा के फूल
रा० २८ जीवा० ३ / २८१
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में चंपा कुसुमशब्दपीले रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है।
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चम्मरुक्ख
चम्मरुक्ख (चर्मवृक्ष) भोजपत्र का वृक्ष भ० २२/१ चर्म्मवृक्षः |पु० |भूर्ज्जवृक्षे ।
(सुश्रुत कल्पस्थान ५ अध्याय) (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ४२२ ) विमर्श - शालिग्राम निघंटु में भोजपत्र वृक्ष के २६ नाम हैं उनमें एक नाम चर्म्मद्रुम है । द्रुम वृक्ष का पर्यायवाची नाम है।
अन्य भाषाओं में नाम
ब०
हि० - भोजपत्र, भूजपत्र, भोजपत्तर । भूजिपत्र । म० - भूर्जपत्र । ते० - भेजपत्रमु । अं०Himalayan Silver Birch (हिमालयन् सिलव्हर बर्च) । ले०-Betula utilis (बेटुला यूटिलिस) ।
फल
शाख
उत्पत्ति स्थान - यह हिमालय में ७ हजार फीट से १३ हजार फीट की ऊंचाई पर, काश्मीर से सिक्किम तक और ६ हजार से १४ हजार फीट की ऊंचाई तक भूटान में होता है।
विवरण- यह वटादिवर्ग भोजपत्रकुल का एक छोटी जाति का झाडीनुमा वृक्ष होता है। वृक्ष की छाल को ही भोजपत्र कहते हैं। यह कागज के समान अथवा
जैन आगम वनस्पति कोश
केले के सूखे पत्ते के समान होता है। पहले जब कागज नहीं बनता था तब भोजपत्र का ही कागज के स्थान पर व्यवहार किया जाता था।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ३३६) इसका वृक्ष ४० से ६५ फीट तक ऊंचा होता है। छाल चिकनी, चमकीली सफेद या किंचित् लाली युक्त सफेद, आड़े धब्बेदार, पर्त के पर्त कागज के समान एक साथ सटी रहती है और यह आसानी से पृथक् पृथक् हो जाती है । पत्ते २ से ३ इंच तक लंबे, १.५ इंच चौड़े, लट्वाकार, लम्बाग्र, दन्तुर एवं नये पत्ते पीत, रालीय बिन्दुओं से युक्त होने के कारण चिपचिपे होते हैं। फूल बारीक मंजरियों में आते हैं और फल काष्ठवत् गोल होते हैं। वृक्ष की छाल को ही भोजपत्र कहते हैं। प्राचीन काल में इनका लिखने के काम में प्रयोग किया जाता था । (भाव०नि० वटादिवर्ग पृ० ५३५)
चारुवंस
चारुवंस ( चारुवंश), चारुवांस, वांस की एक जाति ।
भ० २१/१७
विमर्श - प्रज्ञापना १/४१ / २ में इस शब्द के स्थान पर चाववंस शब्द है । चाववंस का अर्थ मिलता है। संभव है चारुवंश भी वांस की एक जाति हो ।
विवरण - वांस की ५५० जातियां हैं। उनमें ११६ जातियां भारत में हैं । उनमें से एक प्रकार चारुवंस हो सकता है।
चाववंस (चापवंश) चाप नामक वांस प ० १ / ४१/२ चाक्ली०पुं । चापस्य वंशविशेषस्य विकारः ।
( शब्दकल्पद्रुम द्वितीयो भागः पृ० ४४२ ) विमर्श - वांस की ५५० जातियां हैं। उनमें ११६ जातियां भारत में हैं। उनमें से एक प्रकार चापवांस है। देखें कंकावंस शब्द ।
चिउर
रा० २८ जीवा० ३/२८१
चिउर (चिकुर) चिउरा चिकुरः । पुं । वृक्षविशेष (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० ६२)
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विमर्श - मेदिनी में चिकुर शब्द मिलता है। वह वर्तमान में हमारे पास उपलब्ध नहीं है। निघंटुओं में इसके पर्यायवाची नाम नहीं मिलते। संभव है पर्यायवाची नाम अधिक नहीं है।
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - चिउरा, फलवारा, फुलेल बेडली । अं०Phulwara Butter (फुलवारा बटर) Indian butter tree (इन्डियन बटर ट्री) । ले० - Bassia Butyracea (वेसिया व्यूटी रेसिया ) ।
उत्पत्ति स्थान- इसके वृक्ष हिमालय के दक्षिण भागों में कुमाऊं से भूटान तक अधिक पाए जाते हैं ।
विवरण - मधूक कुल के इसके वृक्ष ऊंचे मध्यम श्रेणी के होते हैं। छाल कृष्णाभश्वेत या कुछ लाल वर्ण युक्त गहरे बादामीरंग की, पत्र शाखा पर दल बद्ध ६ से १२ इंच लंबे, ४ से ५ इंच चौड़े, अंडाकार, ऊपर से हरे, चमकीले, नीचे की ओर रोमश । फूल श्वेत वर्ण के, फल अंडाकार, हरे चमकीले, चिकने १ इंच लंबे मीठे होते हैं। ये फल खाए जाते हैं। बीज प्रत्येक फल में १ से ३ तक होते हैं जिनमें मक्खन जैसा गाढ़ा तैल होता है ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०७६, ८०)
चुच्चु
चुच्चु (चुञ्चु ) चंचुशाक चेबुना शाक ।
प० १/३७/२
चुञ्चु के पर्यायवाची नाम
चुञ्चुश्व विजला चञ्चुः, कलभी वीरपत्रिका ।। चुञ्चुरचुञ्चुपत्रश्च, सुशाकः क्षेत्रसंभवः । ।१४४ ।। चुञ्चु विजला, चञ्चु कलभी, वीरपत्रिका, चुञ्चुर, चुञ्चुपत्र, सुशाक तथा क्षेत्रसंभव ये सब चञ्चु के नाम हैं। ( राज० नि०व० ४ / १४४ पृ० ६०) अन्य भाषाओं में नाम
म०
हि० - चंचुशाक, चोंच, माफली । बं० - बिलनबिता ० - हरणखुरी, मगरमिठी । गु० - उभी बहुफली, छंछडी । o-Corchorus Fascicularis Lam (कोर्कोरस् फ्सीक्यूलेरिस ) Fam. Tiliaceae (टिलिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान - यह गरम प्रान्तों में अधिक उत्पन्न्न
होता है।
विवरण- इसका क्षुप एक फुट ऊंचा, प्रसरण शील एवं वर्षायु होता है। पत्ते १ से २ इंच लम्बे, पाव से आधा इंच चौड़े, एकान्तर, आयताकार भालाकार तथा दन्तुर होते हैं। फल पीले रंग के २ से ५, एक वृन्त पर पत्तों के सामने आते हैं। फलियां मृदुरोमश, करीब १/२ इंच लम्बी, ३ से ४ एक साथ एवं प्रत्येक ३ से ४ कोष्ठयुक्त होती है। बीज अनेक, काले एवं कोनयुक्त होते हैं। (भा०नि० शाकवर्ग पृ० ६७३ )
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चूतलता
चूतलता (चूतलता) आमगुल
जीवा० ३ / ५८४ जं २/११ प० १/३६/१ विमर्श - निघंटुओं में आम की लता के रूप में वर्णन नहीं मिलता। आमगुल लता है। आम के साथ होने से संभव है यही आमलता हो । अन्य भाषाओं में नाम
हि० -- आमगुल घिवेन । म० - नरकी, नागरी । बं- गुअरा । ले० - Elaeagnus Lotifolia (इलेगिनस लोटिफोलिया) ।
उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष के दक्षिण में, सीलोन के पहाड़ी भागों में तथा चीन और मलायाद्वीप समूह में प्रचुरता से पाई जाती है ।
विवरण - इसकी झाड़ीदार बेल में बहुत-सी शाखाएं फूटती हैं, जो प्रायः ऊंचे वृक्षों पर चढ़ जाती हैं। छाल चिकनी या फिसलनी, पत्ते कुछ वर्धी के आकार के या तरबूजे के पत्ते जैसे होते हैं। पत्ते श्वेत छोटे-छोटे राओं से आच्छादित रहते हैं। फूल श्वेत वर्ण के बड़े-बड़े गुच्छों में लगते हैं। फल कर्णफूल जैसे या छोटी लालमिर्च जैसे लाल या हलके गुलाबी रंग के धारी धार होते हैं। औषधि कार्य में इसका फल, फूल और कंद लिया जाता है । (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ३५८)
DOO
चूतलता
चूतलता (चूतलता) चूत की लता
जीवा० ३ / ५८४ जं० २ / ११५० १/३६/१
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अपुष्प फलवानाम्रः, पुष्पित श्थूत उच्यते।।
उत्पत्ति स्थान-यह सब प्रान्तों के खेत, मैदान, पुष्पैः फलैश्च संयुक्तः, सहकारः स उच्यते।। झाडी, खण्डहर, सड़क के किनारे आदि गन्दी जमीन
पुष्परहित फल वाले वृक्ष को आम्र, फलरहित में उत्पन्न होती है। शिमले में ५००० फीट ऊंची भूमि पर पुष्पित वृक्ष को चूत, तथा फल, फूल से युक्त को सहकार भी पाई जाती है। कहते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ३३४) विवरण-सत्यानाशी क्षुप जाति की वनस्पति २ से
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में चूतलता शब्द है। ऊपर ४ फीट तक ऊंची, अनेक शाखाओं से युक्त सघन होती की परिभाषा के अनुसार फल रहित पुष्पित वृक्ष को चूत है। इसके क्षुप पत्ते, फल इत्यादि पर तीक्ष्ण कांटे होते कहा गया है। संभव है ऐसी स्थिति में चूत को लता मान हैं। डण्डी और पत्तों को तोड़ने से पीला दूध निकलता लिया गया हो। इसीलिए चूत शब्द के साथ लता शब्द है। पत्ते ३ से ७ इंच तक लंबे, कटे हुए, तीक्ष्ण कंटीले, का प्रयोग हुआ है, आमवाची अन्य शब्दों के साथ नहीं। नोक वाले, सफेद धब्बों से युक्त तथा रेशेवाले होते हैं।
फूल कटोरीनुमा चमकीले पीले रंग के आते हैं और वे चूयलया
खुले मुख होते हैं। फल लम्बे तथा गोल होते हैं और उनसे
राई के समान काले रंग के बीज निकलते हैं। वैशाख, चूयलया (चूतलता) चूत की लता
ज्येष्ठ की गरमी से इसका क्षुप सूख कर नष्ट हो जाता
ओ० ११ जीवा ३/५८४ देखें चूतलता शब्द।
है। फल के सूखने पर बीज भूमि पर गिर जाते हैं और वे ही शरद्ऋतु में अंकुरित हो पौधे के रूप में परिणत
हो जाते हैं। इसकी जड़ का नाम 'चोक' है। चोय
(भाव० नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ० ६६) चोय (चोक) सत्यानाशी की जड़। रा० ३० जीवा० ३/२८३
चोरग कटुपी हैमवती, हेमक्षीरी हिमावती।।
चोरग (चौरक) सूक्ष्मपत्रशाक। प० १/४४/३ हेमावा पीतदुग्धा च, तन्मूलं चोकमुच्यते ।।१७६ ।।
चौरक के पर्यायवाची नामकटुपर्णी, हैमवती, हेमक्षीरी, हिमावती, हेमाह्वा
सूक्ष्मपत्र स्तीक्ष्णशाको, धनुःपुष्पः सुबोधकः । और पीतदुग्धा ये सब सत्यानाशी के नाम हैं और इसी
चौरकः कफवातघ्नः, सुतीक्ष्णो नातिपित्तलः ।।५६ ।। के जड़ भाग को चोक कहते हैं।
सूक्ष्मपत्र, तीक्ष्णशाक, धनुःपुष्प, सुबोधक, चौरक (भाव० नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ० ६६)
ये सूक्ष्मपत्र के नाम हैं। सूक्ष्मपत्र कफवात को नाश करता अन्य भाषाओं में नाम
है, बहुत तेज है और अत्यन्त पित्तल नहीं है। . हि०-सत्यानाशी, पीलाधतूरा, फरंगीधतूरा,
(मदन०नि० शाकवर्ग ६/५६)। उजरकांटा, सियालकांटा, भडभांड, चोक। बं०
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण प्रज्ञापना १/४४/३ में चोरग सोनाखिरणी, शियाल कांटा, बडो सियाल कांटा।
शब्द हरितवर्ग के अन्तर्गत है। इसलिए सूक्ष्मपत्र शाक मं०-कांटे धोत्रा गु०-दारुडी। क०-अरसिन उन्मत्त।
___ अर्थ उपयुक्त है। ता०-ब्रह्मदण्डु, कुडियोट्टि. कुरुक्कुम चेडि। ते०-ब्रह्मदण्डी चेटु। पं०-कण्डियारी, स्यालकांटा भटमिल, सत्यनशा, भटकटेया । सन्ता०-गोकुहल जानम। मला०-पोन्नुम्मत्तम् । उडि०-कांटाकुशम | अंo-Mexican चोरग (चोरक) स्पृक्का, लंकोईकपुरी। Poppy (मेक्सिकन पॉप्पी) Prickly Popply (प्रिक्ली पॉप्पी)
प० १/४४/३ ले०-Argemone mexicana Linn (आर्जिमोन् मेक्सिकाना)।
चोरग
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चोरकः ।पुं। पृक्कायाम् । स्वनामख्यातगंधद्रव्ये ।
चोरा ग्रंथिपर्णस्यैवभेद, भटेउर इति नेपालदेशे, . चोरा (चोरा) शंखिनी
भ०२१/११ गठिवना इति महाराष्ट्रादौ, चौरा इति पार्वतीय चोरा। स्त्री। चोरपुष्याम् । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ४३८) देशादौ प्रसिद्धे। (वैद्यक शब्द सिन्धुः पृ० ४३७) चोरपुष्पी के पर्यायवाची नाम
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण प्रज्ञापना १/४४/३ में शंखिनी नाकुली विश्वा, चोरपुष्पी सुकेशिनी। चोरकशब्द हरित् वर्ग के अन्तर्गत है। असबरग शाक है। बहुफेना बहुरसा, दृढपादा विसर्पिणी।।१४६१।। इसलिए यह अर्थ किया जा रहा है।
यशस्करी वेत्रमूला, यवतिक्ताक्षि पीडिका।। चोरक के पर्यायवाची नाम
शंखिनी, नाकुली, विश्वा, चोरपुष्पी, सुकेशिनी, स्पृक्का लता कोटिवर्षा, मरुन्माला लतामरुत्। बहुफेना बहुरसा, दृढ़पादा, विसर्पिणी, यशस्करी, लङ्कारिका समुद्रान्ता, कुटिला देवपुत्रिका।। वेत्रमूला, यवतिक्ता, अक्षिपीडिका ये शंखिनी के पर्याय हैं। स्पृक्का, लता, कोटिवर्षा, मरुन्माला, लतामरुत्
(कैय० नि० ओषधिवर्ग पृ० ६२२) लङ्कारिका, समुद्रान्ता, कुटिला, देवपुत्रिका (देवपुत्री) अन्य भाषाओं में नाम(देवी, पृक्का, पिशुना, लघु, वधू, लङ्कायिका, लंकापिका हि०-शंखिनी। बं०-यवेची, श्वेत बोना (कालमेघ)। ब्राह्मणी, मनु, मालालिका, मालानी, लघ्वी, पंचगुप्तिरसा । म०-यवोची, टीटवी । को०-शांखवेल्य गु०-शखहेल्य,
समुद्रकान्ता, मरुत्, माला, कोटीवर्षा, लंकोपिका, वर्षा । भगलिंगी, आख्युफुटामाणा। क०-शंखिनी ले०लंकायिका, तस्कर, चोरक, चण्ड, असृक)।
Andrographis paniculata (एण्डोग्राफिस् पेनिक्युलेटा) (शालि०नि० कपूर्रादिवर्ग पृ० ६६, ६७) Bryoniascabrella (ब्रायोनियास्काब्रेला)। अन्य भाषाओं में नाम
_ विवरण-शंखिनी की बेल शिवलिंगी के समान हि०-असवरग अस्परक परी। बं-पिडिशाक। होती है फल भी शिवलिंगी के समान होते हैं। शंखिनी
गगौना, कापुरीशाक। कर्ना०-हिके। के बीज शंख के सदश होते हैं। शिवलिंगी के फल के तैलि०-स्पृक्कुथनेडुद्रव्यम् । उत्-फिरिकिशाक। ऊपर सफेद छींटे होते हैं किन्तु शंखिनी के फल के ऊपर भाव प्रकाश में
छींटे नहीं होते। (शा०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३२६,३३०) गु०-मखमलीचोधारों । म०-कपुरीमधुरी, कालोतुंबो गावजबान, चोधारा। क०-करितुंबे। ते०-मोगबीराकु
छत्ता ता०-पेथिमसरी। अंo-Malabar catmint (मॅलॅबर
छत्ता (छत्रक) भुइंछत्ता
भ० २३/४ केटमिण्ट)। ले०-Anisomeles Malabarica R.Br. (ऐनिसोमेलिस् मलबारिका र०ब्र०) Fam.labiatae (लेबिएटी)
विमर्श-छत्ता शब्द हिन्दी भाषा का है, संस्कृत में
इसका रूप छत्रक बन सकता है। इसलिए छत्रक छाया उत्पत्ति स्थान-इसका क्षुप अत्यन्तरोमश तथा झाडीदार दक्षिण भारत में होता है।
देकर उसका अर्थ भुइंछत्ता किया जा रहा है। विवरण-यह ४ से ६ फीट ऊंचा रहता है। पत्ते
छत्रक के पर्यायवाची नाममोटे, लंबगोल, कुछ शल्याकृति दन्तुर तथा सवृन्त होते
__ सर्पच्छत्रं भूमिकन्दो, भूमिस्फोटश्च छत्रकः । हैं। पुष्प हलके जामुनी रंग के होते हैं। इसके पत्र सुगंधित
भूकन्दः पृथिवीस्फोटः, शिलीन्ध्र कवकं स्मृतम् ।।१६१० ।। एवं कड़वे होते हैं। स्पृक्का (असबरग) सुगंध द्रव्यों में से
सर्पच्छत्र, भूमिकन्द, भूमिस्फोट, छत्रक. एक प्रकार का शाक ही है तथा जिसे लोक में लंकोर्डकपरी पृथिवीस्फोट, शिलीन्ध्र, कवक ये पर्याय भूकन्द के हैं।
(कैय० नि औषधिवर्ग पृ० ६४३, ६४४) भी कहते हैं। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० २६५)
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अन्य भाषाओं के नाम
हि०-भुइंछत्ता, भुइंफोड छत्ता, छतोना, छाता, सांप की छत्री, खुमी, धरती फूल । बं०-कोड़क छाता, व्यांगेर छाता, छातकुड़, भुईछाति, छातकुंड। पं०ब्लेओफोरे। सि०-खुम्भी। म०-अलम्बे । गु०-बिलाडी नो रोम। अंo-Mushroom (मशरूम)। ले०-Agaricus campestris Linn (एगेरिकस् कॅम्पेस्ट्रिस)।
(वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ४३६) छत्राक के पर्यायवाची नाम
जालबर्बुरकस्त्वन्यश्छत्राकः स्थूलकण्टकः सूक्ष्मशाख स्तनुच्छायो, रन्ध्रकण्टः षडाह्वयः ।।३६ ।।
जालबर्बुरक, छत्राक, स्थूलकण्टक, सूक्ष्मशाख, तनुच्छाय तथा रन्ध्रकण्ट ये सब जाल बबूल के ६ नाम
(राज०नि० ८/३६ पृ० २३६)
AAPAN
छत्तोव ) ओ० ६, १० जीवा. ३/५८३
का
छत्तोव (
छत्तोवग छत्तोवग (
जीवा० ३/३८८ विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं तथा आयुर्वेद के कोशों में छत्तोव और छत्तोवग शब्द का वनस्पति परक अर्थ अभी तक नहीं मिला है।
छत्तोह
छत्तोह (छत्रौघ) गुण्डतृण भ० २२/३ प० १/३६/२ उत्पत्ति स्थान-यह सभी प्रान्तों में होता है किन्तु
विमर्श-वनस्पतिशास्त्र में छत्रौघ शब्द नहीं पंजाब में अधिक होता है।
मिलता है। छत्रगुच्छ मिलता है। अर्थ की समानता होने विवरण-भुइंछत्ता वर्षाऋतु में आप ही आप जमीन
के कारण संस्कृत का छत्रगच्छ शब्द ले रहे हैं। फोड़कर उत्पन्न होता है। यह खाद की दूरी पर अधिक
छत्रगुच्छ के पर्यायवाची नामहोता है। इसका क्षुप ६ से ७ इंच ऊंचा होता है और इस
गुण्डस्तु काण्डगुण्डः स्याद्, दीर्घकाण्ड स्त्रिकोणकः । में कोई डाली नहीं होती, केवल एक डंडी जो जमीन
छत्रगुच्छोऽसिपत्रश्च नीलपत्रस्त्रिधारकः ।।१४२।। फोड़कर निकलती है। उस पर गोल छत्ते के आकार का
गुण्ड, काण्डगुण्ड, दीर्घकाण्ड, त्रिकोणक, छत्रगुच्छ, एक छत्र होता है। छत्र के नीचे की सतह से पतले परदे ।
__ असिपत्र, नीलपत्र, त्रिधारक ये सब गुण्ड के नाम है। लटकते हैं जिन्हें गिल (Gill) कहा जाता है। जिसमें अनेक
(राज०नि० ८/१४२ पृ० २६०) बीजाणु रहते हैं। छत्रक के अनेक प्रकार होते हैं जिनमें से कुछ विषैले होते हैं। (भाव०नि० शाकवर्ग पृ० ७०३)
छिण्णरुहा
छत्ताय छत्ताय (छत्राक) जालबडूर । प० १/४७ छत्राकः ।पुं। जालबर्बुरकवृक्षे, आमलकवृक्षे।
छिण्णरुहा (छिन्नरुहा) पद्मगुडूची, गिलोयपद्म ।
भ० २३/१ प० १/४८/३ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में छिण्णरुहा शब्द कंद
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नामों के साथ है। छिण्णरुहा का अर्थ गिलोय होता है। (गिलोयपद्म), कंद या पिंडगुडुची है। इसके कांड पर गिलोय की एक जाति गिलोयपद्म होती है, जिसका कंद छोटे-छोटे गोल तीक्ष्णाग्रयुक्त (अर्बुदाकार) उत्सेध या होता है। इसलिए यहां छिण्णरुहा का अर्थ गिलोयपद्म कंद होते हैं। ग्रहण कर रहे हैं।
पत्रत्रिखण्डयुक्त एवं बड़े,७ से २३ सेन्टीमीटर तक छिन्नरुहा के पर्यायवाची नाम
लंबे होते हैं। गुणधर्म में लता गुडुची तथा यह कंद गुडूची ___ गूडूची, मधुपर्णी, छिन्नरुहा, अमृता, ये गुडूची के प्रायः दोनों समान हैं। पर्याय हैं।
(धन्व. वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३६३) अन्य भाषाओं में नामहि०-गिलोय, गुरुच, गुडुच । बं०-गुलंच, पालो।
छिरिया म०-गुलवेल, गरुडबेल । अंo-Tinospora (टिनोस्पोरा)।
छिरिया (क्षीरिका) भूखजूर, पिंडखजूर, खिरनी Heart leaved (हार्ट लीब्ड) | Moon Seed (मून सीड)। ले०-Tinospara Cordifolia Miers (टिनोस्पोरा
भ०७/६६ कार्डिफोलिया मायस) Fam. (Menispermaceae)
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में छिरिया शब्द कंद नामों (मेनिस्पर्मेसि)।
के साथ है। इसलिए यहां भूखर्जूर अर्थ ग्रहण कर रहे हैं जिसके कांड भूमि के ऊपर नहीं आते।
क्षीरिका (स्त्री०) क्षीरवृक्ष । खिरनी-हिन्दी। क्षीर खजूर बंगभाषा। पिण्डखजूर केचित् भाषा। (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० २१६) क्षीरिका के पर्यायवाची नाम
राजादनः फलाध्यक्षो, राजन्या क्षीरिकापि च।।
राजादन, फलाध्यक्ष, राजन्या तथा क्षीरिका ये सब खिरनी के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० पृ० ५७६) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-खिरनी, खिन्नी। बं०-खीरखेजूर। म०खिरणी, रांजण | गल-रायण, काकडिआ। क०-खिरणी मारा । ताo-पल्ल, पलै । तेल-पालमानु।ले०-Mimusops
hexandra Rorbe (माइमुसोप्स हेक्सॅड्रा)।। पुष्प
खजूर-इसी का एक भेद पिंड खजूर है। इसके पत्ते अति तीक्ष्ण होते हैं तथा फल बड़ा और अति मांसल होता है। यही जब वृक्ष पर ही पक कर सूख जाता है तब यह गोस्तन (गो के स्तन जैसा) खजूर या छुहारा कहाता है। किन्तु गोस्तन खजूर के वृक्ष पिण्डखजूर के
वृक्ष से कुछ बड़े होते हैं। इस प्रकार ये तीनों (खजूर, उत्पत्ति स्थान-यह बंगाल, देहरादून, आसाम,
पिण्ड खजर और गोस्तना खजर) आयर्वेद के खजर उड़ीसा, कोकण, मद्रास आदि के घने जंगलों में
त्रितय हैं। कहीं-कहीं प्राप्त होती है।
पिण्ड खजूर का ही एक भेद सुलेमानी खजूर है। विवरण-इसकी (गिलोय की) एक जाति पद्मगुडुची
एक खजूर वह भी होता है जिसके वृक्ष की ऊंचाई ४ फुट
शाख
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से अधिक नहीं होती। इसे लेटिन में फिनिक्स हुमिलिस कहते हैं। यह शालवनों में पाया जाता है। एक भूखर्जुर भी होता है। जिसके काण्ड भूमि के ऊपर नहीं आते। देहरादून के घास के मैदानों में यह पाया जाता है, इसके फल खाये जाते हैं ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग० २ पृ० ३३३ )
छीरविरालिया
छीरविरालिया (क्षीरविदारिका) क्षीरविदारी कंद
भ० ७ /६६ जीवा० १/७३
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में छीर विरालिया शब्दकंद वाची नामों के साथ है। क्षीरविदारी कंद होता है। इसलिए यहां यह अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
डोडा
लता शार
फल काट
है?
बीज
क्षीरविदारिका के पर्यायवाची नाम
पुष्प
अन्या शुक्ला क्षीरशुक्ला, क्षीरकंदा पयस्विनी । क्षीरवल्लीक्षुकंदेक्षुवल्ली क्षीरविदारिका ।।१५८२ ।। इक्षुपर्णी शुक्लकन्दा:, महाश्वेतेक्षुगन्धिका ।।
जैन आगम वनस्पति कोश
शुक्ला, क्षीरशुक्ला, क्षीरकंदा, पयस्विनी, क्षीरवल्ली, इक्षुकंदा इक्षुवल्ली, इक्षुपर्णी, शुक्लकन्दा, महाश्वेता, इक्षुगन्धिका ये क्षीरविदारिका के पर्याय हैं। (कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग पृ० ६३८ )
अन्यभाषाओं में नाम
हि० - बिलाईकंद,
विदारीकंद, भुइकुम्हडा ।
क०
बं०-भुइकुमडा । म०-भुईकोहला । गु० - विदारीकन्द । - नेलकुम्बल । ते० - मत्तपलतिगा, नेल्लगुम्मुडु | मल० - मोतल्कंट | ता० - फल मोदिक । ले० - Ipomoea digitata linn (आइपोमिया डिजिटॅटा लिन० ) ।
1
उत्पत्ति स्थान- यह भारतवर्ष के उष्णकटिबंध में विशेषकर आर्द्रप्रदेशों, जैसे बंगाल, आसाम आदि में पाया जाता है।
विवरण - यह लता जाति की वनस्पति झाड़दार और विस्तार में फैलने वाली होती है। पत्ते ३ से ७ इंच के घेरे में हाथ के पंजे के समान ५ से ७ भागों में विभक्त रहते हैं। फूल नलिकाकार, चौथाई इंच गोल, ऊपर का भाग १.५ इंच से २.५ इंच के घेरे में होता है और यह बैंगनी रंग का दिखाई पड़ता है। फल चार छिलके वाले, गोलाकार, छोटे-छोटे होते हैं और वे झूमकों में आते हैं। उनके भीतर एक प्रकार की पर्तदार रूई से ढके हुए त्रिकोणाकार अर्द्धगोल बीज रहते हैं। बीजों के रोपण करने से लता उत्पन्न होती है। इसके नीचे जो कंद बैठता है वह रतालू के आकार का होता है। इसका वजन एक सेर से अधिक नहीं होता। कंद बाहर से भूरे रंग का तथा खुरदरा होता है । काटने पर अंदर से यह श्वेतरंग का दिखाई देता है तथा उसमें से बहुत क्षीर निकलता है। इसकी सुखाई हुई कचरी बहुत हलकी रहती है तथा उसमें मंडल दिखलाई देते हैं। इसका स्वाद पिष्टमय, कुछ कषैला एवं कडुवा सा होता है।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३८६ )
छीरविराली
छीरविराली (क्षीर विदारी) क्षीरवल्ली, घोड बेल, खाखर बेल ।
भ० २३/१प० १/४०/४
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में यह शब्द वल्लीवर्ग के
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अन्तर्गत है इसलिए इसकी पहचान बेलवाची नाम से की
भ० २२/२ जीवा० १/७१ प० १/३५/१ गई है। इसे बंगभाषामें और मारवाडी भाषा में घोडबेल जंबू सुरभिपत्रा च, राजजम्बूर्महाफला। गुर्जरभाषा में खाखर बेल, कहते हैं।
सुरभी स्यान्महाजम्बू महास्कन्धा प्रकीर्तिता ।।७६ ।। क्षीर विदारी के पर्यायवाची नाम
सुरभिपत्रा, राजजम्बू, महाफला, सुरभि, महाजम्बू क्षीर विदारी के पर्यायवाची नाम क्षीर विदारिका के और महास्कन्धा ये जम्बू के पर्याय हैं। हैं वे ही हैं। देखें छीर विरालिया शब्द।
(धन्व०नि०५/७६ पृ० २४२) अन्य भाषाओं में नाम
अन्य भाषाओं में नामहि०-बिलाईकंद, बिदाईकंद, भुइकुम्हडा, सुराल, हि०-बड़ी जामुन, फरेन्द्र, फडेना, फलेन्द्रा, राज पाताल कोहडा। म०-बेंदर, घोडबेल। गु०-खाखर जामुन बं०-बडजाम, कालजाम। म०-जाम्भूल । बेल, फगियो, फगडानो वेली, विदारी। ते०-दारी,
गु०-जाम्बून । क०-दोड्डनिरलु, दोदुनिरली। ते०नेल्लगुम्मुडु। मा०-गोरवेल । ले०-Pueraria tuberosa पेद्देनेरडि, नेरढुंचे?। ताo-नागै, सम्बल अं०Dc (प्युरेरिआ ट्यूबरोजा डीसी)।
Jambul Tree (जाम्बुल ट्री)। लेo-Eugenia Jambolana ___ उत्पत्ति स्थान-यह कोकण के पहाड़ों पर दक्षिण, Lam (युजेनिमा जम्बोलेना) Fam. Myrtaceae (मिर्टेसी) कनारा, पश्चिम हिमालय, शिमला, कुमाऊ, नेपाल,
(भाव०नि०पृ० ५७०) विन्ध्याचल, उड़ीसा और छोटा नागरपुर में उत्पन्न होता है। बिहार में भी कहीं कहीं पाया जाता है। यह नदी नालों के करारों में अधिक पाया जाता है।
विवरण--यह अत्यन्त विस्तार में फैलने वाली लता जाति की वनस्पति अचिरस्थायी होती है। इसका कांड पोला सा होता है। छाल भूरे रंग की आध इंच तक मोटी होती है। लकड़ी छिद्रयुक्त कोमल होती है। पत्ते पलाश के समान पक्षाकार त्रिपत्रक होते हैं। पत्रक ४ से ६ इंच लंबे ३ से ४ इंच चौड़े अग्यपत्रक तिर्यगायताकार और पार्श्वपत्रक तिरछे लट्वाकार तथा अधरतल पर श्वेत तलशायी रेशमतुल्य सघन रोओं से युक्त होते हैं। पुष्प ६ से १८ इंच, लंबी मंजरियों में आते हैं। पुष्प नीले या नीलरक्त रंग के सुंदर दिखलाई देते हैं। फलियां २ से ३ इंच तक लंबी, चिपटी बीजों के बीच दबी हुई और खाकी रंग के रोवों से भरी रहती है। प्रत्येक फली में २ से ६ तक बीज रहते हैं। प्रायः पत्तों के गिरने पर नवीन पत्तों के निकलने के प्रथम ही फूल आते हैं। ये लताएं
उत्पत्ति स्थान-यह अत्यन्त शुष्क भागों को छोडकर घोड़ों को बहुत प्रिय होती है जिससे इन्हें गजवाजिप्रया'
सब प्रान्तों में पायी जाती है | घोड़बेल कहा गया है। (भाव०नि० ३८८, ३८६) विवरण-फलादिवर्ग एवं लवंग कुल का इसका
सदैव हरा-भरा बड़ा वृक्ष होता है। पत्र ३ से ६ इंच लंबे, जंबू
२ से ३ इंच चौड़े, आम्रपत्र या पीपल के पत्र जैसे चिकने जंबू (जम्बू) जामुन
चमकदार, पुष्प वसंतऋतु में, हरिताभ श्वेत या स्वर्णवर्ण
फलकाट
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के, मंजरियों में आते हैं। फल ग्रीष्मान्त या वर्षा के प्रारंभ में १/२ से २ इंच तक लंबे, १ से १.५ इंच मोटे, अंडाकार, कच्ची दशा में हरे, कुछ पकने पर लाल, बेंगनी रंग के, तथा परिपक्वावस्था में गाढ़े नील वर्ण के एवं गोललंबी छोटी गुठली से युक्त होते हैं। ये फल खाये जाते हैं तथा औषधि कार्य में भी आते हैं। इसके वृक्ष बागों में लगाए जाते हैं। फल आकार में जितना बड़ा हो उतना ही अधिक गुणकारी होता है।
बड़ी जामुन (राजजम्बू) की कई उपजातियां हैं। उनमें ये प्रसिद्ध हैं - (१) छोटी जामुन (२) भूमि जामुन (३) गुलाब जामुन । जामुन की जितनी जातियां हैं उनमें राजजम्बू ही श्रेष्ठ माना गया है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० २१19, २१८)
Loca
जंबूरुक्ख
जंबूरुक्ख (जम्बूवृक्ष) जामुन का वृक्ष जं० ७/२१३
देखें जंबू शब्द ।
जंबूवण
जंबूवण ( जम्बूवन) जामुन का वन जं० ७/२१३ देखें जंबू शब्द |
जव (यव) जौ । यव के पर्यायवाची नाम
जव
भ० ६ / १२६ २१ / ६ प० १/४५ / १
यवस्तु मेध्यः सितशूकसंज्ञो दिव्योक्षतः
कंचुकिधान्यराजौ स्यात् । तीक्ष्णशूकस्तुरगप्रियश्च शक्तु र्हयेष्टश्च पवित्रधान्यम् ।।
यव, मेध्य, सितशूक, दिव्य, अक्षत, कंचुकि, धान्यराज, तीक्ष्णशूक, तुरगप्रिय, शक्तु, हयेष्ट, पवित्रधान्य ये सब के पर्यायवाची नाम हैं।
( शा० नि० धान्यवर्ग० पृ० ६०६)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - जव, जो जौ । बं० - जव । म० - जव क०
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जवेगोधी । ता०- बालिअरिसि । ते० - यवधान्य | फा० - जव ओ, अतः ईर | अं० - Barley (बारली) । ले० - Hordeum Vulgare Linn (हॉरडीयम् वलगेयर) ।
जव
(जौ)
HOR DEUM VULGARE LINN.
DOO
यव
उत्पत्ति स्थान- इसकी खेती उत्तर भारत में विशेष होती है । उपज का ८० प्रतिशत भाग उत्तर प्रदेश, बिहार तथा उड़ीसा में होता है। पंजाब में १३ प्रतिशत एवं अन्य प्रान्तों में मिलाकर ७ प्रतिशत उपज होती है ।
विवरण- इसका क्षुप वर्षायु तथा २ से ३ फीट ऊंचा होता है। मूल बहुत तथा रेशेदार होते हैं ! पत्ते रेखाकार भालाकार ६ से १२ इंच लंबे तथा १/२ से ५/८ इंच चौड़े एवं मध्यपर्शुक श्वेत रहती है । वाली शूकयुक्त होती है। (भाव० नि० धान्य वर्ग पृ० ६४१)
जवजव
पुष्प कार
पुष्य
जवजव ( यवयव) जई
भ० ६ / १२६ प० १/४५/१ विमर्श - धान्यनामों के साथ जव शब्द के बाद जवजव शब्द है । राजनिघंटु शाल्यादि वर्ग पृ० ५४२ में जव का फारसी भाषा में जवजओ नाम है। भाव प्रकाश
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निघंटु पृ० ६४१ में भी जव का फारसी नाम जवजओ है। वनस्पतियां सूख जाती हैं तब यह हराभरा रहता है। गुजराती भाषा में यवभवा नाम है। इससे लगता है जवजव शब्द जव का ही एक भेद है। भावप्रकाश में जव का भेद जइ धान्य किया है।
अतियवो निःशूकः कृष्णारुणवर्णो यवः ।। तोक्यो हरितो निःशूकः स्वल्पो यवः जई इति प्रसिद्धः ।
अतियव शूकरहित काले तथा अरुण (लाल) रंग का होता है।
तोक्य हरे रंग का शूकरहित छोटा जव होता है और जई इस नाम से लोक में प्रसिद्ध है।
इसके (जव के) कई प्रकार पाये जाते हैं। जई (तोक्य) यह यव का भेद...या भारतीय ओट (Indian oat) जिसका लेटिन नामएह्वेना वाइझेंटिना (Ivenabyzantina) है, हो सकता है।
(भाव. नि० धान्य वर्ग० पृ० ६४१)
शारख
पुष्प पांव
जवसय जवसय (यवासक) जवासा प० १/३७/३ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में जवसय शब्द गुच्छवर्ग
विवरण-इसके गुल्म छोटे-छोटे १ से १/२ हाथ के अन्तर्गत है। जवासा के पुष्प मंजरियों में आते हैं। ऊंचे, अनेक शाखाओं से युक्त कांटेदार होते हैं। पत्ते यवासक के पर्यायवाची नाम
छोटे-छोटे चिकने आयताकार, रोमश, कुंठिताग्र तथा यासो यवासकोऽनन्तो, बालपत्रोऽधिकण्टकः।।।
नीचे की ओर झुके हुए होते हैं। पत्रकोणों में सामान्य दूरमूलः समुद्रान्तो, दीर्घमलो मरुदभवः ।।२२।।
शाखाओं के अतिरिक्त प्रायः १.५ इंच तक लंबे कांटे होते यास, यवासक, अनन्त, बालपत्र, अधिकण्टक,
हैं। फूल वसंत में लाल रंग के १.५ इंच मंजरियों में आते दूरमूल, समुद्रान्त, दीर्घमूल, मरुद्भव ये यास के पर्याय हैं। फली एक इंच लंबी सीधी या टेढी तथा भालाकार
धन्व०नि० १/२२ पृ० २२)
होती है। यवासा के क्षुप से एक प्रकार का निर्यास अन्य भाषाओं में नाम
निकलकर कुछ रक्ताभ या भूरापन लिये सफेद रंग के हि०-जवासा, यवासा। बं०-जवासा। म०- दानों के रूप में जम जाता है, जिसे यूनानी में तुरंजवीन जवासा, यवासा। गु०-जवासो। फा०-खारेशतर, नाम से बहुत व्यवहार में लाते हैं। शुतुरखार। अ०-अलगुल हाज। अंo-Arabian or
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ४११) persian Manna Plant (अरेबियन या पशियन मन्नाप्लांट)। ले०-Alhagi Camelorum (अॅल्हागी कॅमेलोरम)।
जवासा उत्पत्ति स्थान-यह दक्षिण महाराष्ट्र, गुजरात,
जवासा (
) जवासा प० १७/१२५ सिंध, बलचिस्तान, पंजाब, उत्तरप्रदेश तथा राजपताना
विमर्श-हिन्दी भाषा, बंगभाषा और मराठी भाषा में (राजस्थान) में होता है। यह शुष्क ऊसर भूमि में या नदियों के किनारे पाया जाता है। ग्रीष्म में जब अन्य
जवासा को जवासा कहते हैं।
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देखें जवसय शब्द ।
जाई
जाई (जाती) जाई, सफेद पुष्पवाली चमेली
प० १/३८/२
विमर्श - हिन्दी भाषा और मराठी भाषा में चमेली को जाई कहते हैं ।
जाती के पर्यायवाची नाम
जाती सुरभिगंधा स्यात्, सुमना तु सुरप्रिया । चेतकी सुकुमारा तु, सन्ध्यापुष्पी मनोहरा । । ७४ ।। राजपुत्री मनोज्ञा च, मालती तैलभाविनी । जनेष्टा हृद्यगन्धा च, नामान्यस्याश्चतुर्दश ।।७५।। जाती, सुरभिगंधा, सुमना, सुरप्रिया, चेतकी, सुकुमारा, सन्ध्यापुष्पी, मनोहरा, राजपुत्री, मनोज्ञा, मालती, तैलभावनी, जनेष्टा तथा हृद्यगन्धा ये सब चमेली के चौदह नाम हैं ( राज० नि० १०/७४,७५ पृ० ३११, ३१२ )
TRA
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - जाती, जाई, चमेली, चंबेली । म० जाई मालती, चमेली, मोगयी चा भेद जाई । बं० - जाती,
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चामिल | गु० - चंबेली । क० - जाजि । ता०-पिचि । ते० - जाति गौर० - चमेली, मालती । अ० - यासमीन, यासमून | फा०-यासमन। अं० - Spanis Jasmine (स्पेनिस जेस्मिन) | ले० - Jasminum grandiflorum Linn (जेस्मिनम् ग्रेण्डिफ्लोरम्) | Fam. Oleceae (ओलिएसी)।
उत्पत्ति स्थान - यह भारत में प्रायः सर्वत्र ही बागों में पुष्पों के लिए बोयी जाती है।
विवरण - पुष्पवर्ग एवं पारिजात कुल की इसकी खूब 'फैलने वाली लता होती है। इसका कांड मोटा नहीं होता, किन्तु पतली-पतली शाखायें बहुत लंबी बढ़ जाती हैं। इन्हें यदि सहारा न मिले तो ये भूमि पर ही खूब फैल जाती हैं। ये शाखायें कडी एवं धारीदार पत्र अभिमुख, संयुक्त २ से ५ इंच लंबे, नोंकदार, छोटे-छोटे गोल, अग्रभाग का पत्र कुछ अधिक लंबा । पुष्पवर्षाकाल में, पत्रकोण से या शाखा के अंत में मंजरी में, बाहर से गुलाबी आभायुक्त वर्ण के ५ पंखुडी युक्त, १ से १.५ इंच व्यास के, १/२ से १ इंच लंबे होते हैं। पुष्प दीखने में तो सुंदर नहीं होते किन्तु सुगंध अतिमनोहर एवं दूर तक फैलने वाली होती है।
श्वेत और पीत भेद से इसके दो प्रकार । पीताभ श्वेत पुष्पवाली को कहीं-कहीं जुही भी कहते हैं । चमेली जुही और मालती इन तीनों में बहुत घोटाला हो गया है । इन तीनों के गुणधर्म प्रायः एक समान ही है । ( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ४४ )
.....
जाउलग
जाउलग (जातुक) हींग जातुकम् क्ली० | हिङ्गौ ( शब्द चंद्रिका) (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० ४६२ )
विमर्श - जाउलग शब्द का संस्कृत रूप जातुलक, जागुडक, जांगुलक, जाकुलक आदि बनते हैं । जागुड और जांगुल का अर्थ क्रमशः केसर और तोरइ होता है। प्रस्तुत प्रकरण में जाउलग शब्द गुच्छवर्ग में आया है। इसलिए जागुडक शब्द उपयुक्त नहीं। जातुलक शब्द निघंटुओं में नहीं मिलता है। संस्कृत में जातुक शब्द मिलता है जिसका अर्थ होता है हींग हींग के फूल
प० १/३७/५
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गच्छों में आते हैं। इसलिए यहां यही अर्थ ग्रहण किया ८.६फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते अनेक भागों में विभक्त जा रहा है।
अजमोदे के पत्तों के समान कटे किनारे वाले एवं १ से जातुक के पर्यायवाची नाम
२ फुट लंबे होते हैं तथा टहनियों के अन्त में फूलों के हिंगु शूलिद्विट् रमठं, बाल्हीकं जतुकं जतु ।। गुच्छे लगते हैं। फल तिहाई से तीन चौथई इंच के घेरे सहस्रवेधि जन्तुघ्नं, सूपाङ्गं सूपधूपनम्।। में अंडाकार होते हैं। चार वर्ष का वृक्ष होने पर इसको
काटते हैं और भूमि के पास वाली जड़ को तिरछे तराशने हिंगु, शूलद्विट्, रमठ, बाल्हीकं, जतुक, जतु,
से जो रस निकलकर सूख जाता है उसको दो दिन के सहस्रवेधि, जन्तुघ्नं, सूपाङ्ग, सूपधूपन (रामठ...जातुक...
बाद खुरच कर संग्रह कर लेते हैं। फिर दो दिन के बाद आदि ३१ नाम हैं) शा०नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ० १०६
जड़ को उसी प्रकार से तराश कर छोड़ देते हैं और अन्य भाषाओं में नाम
सूखने पर खुरच कर इकट्ठा कर लेते हैं। यही सूखा हुआ हि०-हींग। बं०-हिंगु। पं०-हिगे, हींग।
पदार्थ हींग है। (भाव० नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ० ४१) म०-हिंग। मा०-हींग। गु०-हिंगुडो, वधारणी, हिंगवधारणी । तेल-इंगुव, इंगुर, इंगुरा । ता०-पेरुंगियम्, पेरुंग्यम्। क०-हिंगु। फा०-अंगूजह, अंगुजा,
जातिगुम्म अंघुजेह-इलरी। अ०-हिलतीत्, हिलतीस। जातिगुम्म (जातिगुल्म) सफेद पुष्पवाली चम्बेली, अंo-Asafoetida (असेफीटिडा)। ले०-Ferula narthex जाई
जीवा० ३/५८० ज० २/१० Boiss (फेरुला नार्थेक्स बॉयस्) Ferula Foetida Regal विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण दोनों सूत्रों में एक साथ (फेरुला फीटिडा)।
जातिगुम्म शब्द दो बार आया है। इससे लगता है चमेली के दोनों भेदों का ग्रहण गया किया है। चमेली दो प्रकार की होती है (१) सफेद पुष्प वाली (२) पीले पुष्प वाली। यहां सफेद पुष्पवाली चमेली ग्रहण कर रहे हैं। जाति के पर्यायवाची नाम
जाति र्जाती च सुमना मालती राजपुत्रिका। चेतिका हृद्यगन्धा च, सा पीता स्वर्णजातिका ।।२७।।
जाति, जाती, सुमना, मालती, राजपुत्रिका, चेतिका, हृद्यगंधा ये सब जाई के पर्यायवाची नाम हैं। यदि पीली जाई हो तो उसे स्वर्णजातिका कहते हैं।
(भाव० नि० पुष्पवर्ग० पृ० ४६१) अन्य भाषाओं के नाम__ हिo-चमेली, चम्बेली, चंबेली । बं०-जुई, चमेली,
जाति । गु०-चंबेली। म०-चमेली, जाई ता०-पिचि । उत्पत्ति स्थान-हींग के वृक्ष काबुल, हिरासत,
ते-जाति । अ०-यासमीन, यासमून । फा०-यासमान। खुरासन, फारस एवं अफगानिस्तान आदि प्रदेशों में
अंo-Spanish Jasmine (स्पॅनिश्जस्मिन्)। ले०उत्पन्न होते हैं तथा इस देश के पंजाब और काश्मीर में
Jasminum grandiflorum (जस्मिनम् ग्रेण्डी फ्लोरम्)। कहीं-कहीं देखने में आते हैं।
उत्पत्ति स्थान-यह भारत में सभी स्थानों पर बागों विवरण-इसका वृक्ष झाड़ के समान छाटा ५ स में लगाया मिलता है। इसका आदि स्थान उत्तरपश्चिम
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हिमालय मानते हैं। उत्तर प्रदेश में इसकी विस्तृत पैमाने पुष्पवाली। यहां पीले पुष्प वाली चमेली ग्रहण कर रहे पर खेती की जाती है।
हैं क्योंकि इससे पूर्व सफेद पुष्पवाली चमेली का वर्णन कर दिया गया है।
विवरण-जाती का स्वर्णजाती भेद लिखा हुआ है, जिसमें पीले रंग के पुष्प आते हैं। (भाव०नि० पृ० ४६२)
शेष वर्णन सफेद पुष्प वाली चमेली के समान हैं। इसलिए देखें जातिगुम्म शब्द ।
जातिपुड जातिपुड (जातिपुट) सफेदपुष्प वाली चमेली का दल
रा०. ३० जीवा० ३/२८३ देखें जातिगुम्म शब्द ।
जाती जाती (जाती) गंधमालती, रतेड ५० १/३८/३ जाती-स्वनामख्यातपुष्पवृक्ष, मालव्याम् जातीफल वृक्षे
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ४६१)
विवरण-इसके गुल्म बड़े आरोही तथा फैलने वाले होते हैं। शाखायें धारीदार होती हैं। पत्ते विपरीत संयुक्त तथा २ से ५ इंच लंबे होते हैं। पत्रक संख्या में ७ से ११ अंतिम अग्र का पत्रक बड़ा तथा बगल के पत्रक विनाल तथा अग्र के जोड़े का अधिकार मिला हुआ रहता है। पुष्प सुगंधित सफेद, बाहर से कुछ गुलाबी तथा १.5 इंच तक व्यास में रहते हैं।
(भाव०नि० पुष्पवर्ग पृ० ४६१, ४६२)
प
जातिगुम्म जातिगुम्म (जातिगुल्म) पीले फूल वाली चमेली 365. Aganosma caryophyllice, G. Don. (*. मागी) का गुल्म, स्वर्ण जातिका जीवा० ३/५८० जं. २/१० जाती के पर्यायवाची नामविमर्श-प्रस्तुत दोनों सूत्रों के प्रमाणों में जातिगुम्म
मालती सुमना जाती, हृद्यगन्धा प्रियम्वदा। शब्द दो बार आया है। या तो भूल से दो बार आया है
राजपत्री, रात्रिपुष्पी, चेतिका तैलभाविनी।।१४७३।। या फिर चमेली के दो भेदों के लिए दो बार आया है।
सुमना, जाती, हृद्यगन्धा, प्रियम्वदा, राजपुत्री, चमेली के दो भेद हैं-सफेद पुष्पवाली और पीले रात्रिपष्पी, चेतिका और तैलभाविनी ये पर्याय मालती के
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(कैयदेव नि० ओषधिवर्ग पृ० २७२, २७३) फ्लोस रेजिनी) Fam. Lythraceae (लिथरेसी) । विमर्श-प्रज्ञापना १/३८/२ में जाई शब्द आया है और प्रस्तुत प्रज्ञापना १/३८/३में जाती शब्द आया है। इसलिए जाती शब्द के लिए ऊपर लिखित तीन अर्थों में मालती का अर्थ तथा उसका भेद गंधमालती ग्रहण कर रहे हैं।
विवरण-पुष्पवर्ग में (जाती, चमेली) एवं स्वर्णजाती का वर्णन आया है। मालती (रतेड) नामक एक अन्य लता होती है जिसे कुछ लोगों ने गंधमालती लिखा है।
(भाव०नि०पृ० २६०) अन्य भाषाओं में नाम
हिO-मालती। बं०-मालती। संथा०-रतेड। ले०-Aganosma Caryophyllata G.Don. (अॅगॅनोस्मा कॅरियोफाइलॅटा जी.डोन) Fam. Apocynaceae (एपोसाइनेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह पूर्व बंगाल, आसाम और उत्पत्ति स्थान-यह बंगाल के नीचे के भाग में,
रत्नागिरी आदि प्रान्तों में उत्पन्न होता है। यह प्रायः मुंगेर, पूर्वी दक्षिण कर्नाटक, गंजाम से रम्पा पहाडी और नदियों के किनारे पहाड़ियों से निर्गम स्थान पर होता नेल्लोर, वेल्लिगोण्डस में पायी जाती है।
है। इसको शोभा के लिए बागों में लगाते भी हैं। विवरण-यह कुटजादि कुल की (Apocyanaceae)
विवरण-इसका वृक्ष बड़ा ३० से ६० फीट तक की एक लता होती है यह बेल हमेशा हरी रहती है। इसकी ऊचा होता है। पत्ते ४ से ८ इंच तक लंबे, कुछ चौड़े, डालियां रुंएदार, पत्ते जीवन्ती के समान लंब गोल, लाल किंचित् अंडाकार, आयताकार-भालाकार और नुकीले सिरे वाले और फूल सफेद रंग के होते हैं। इसके फलों होते हैं। फूल सुंदर २ से ३ इंच के घेरे में बैंगनी युक्त में अत्यन्त खुशबू आती है। गर्मी के दिनों में ये अत्यन्त लाल होते हैं। बाह्यदल श्वेतरज से आवृत होते हैं । फल मनमोहक रहते हैं।
१.२५ से १ इंच बड़े कुछ गोल होते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ३८१)
(भाव०नि० वटादि वर्ग० पृ० ५४८)
जावई ) जायची, यावची तितली
जावई ( जाप ।
जारु जारु (जारुल) जरुल भ० २३/१ प० १/४८/२
२ विमर्श-वनस्पति के कोषों में जारु शब्द नहीं मिलता है, जारुल शब्द मिलता है। संभव है यह जारुल ही जारु हो। अन्य भाषाओं में नाम
हिo-जरुल, जारुल, अर्जुन। बं०-जरुल । म०-तामण। ता०-कोहली। तेल-वारगोगु। ले०-LagerstroemeaFlos-reginale Retz (लाजर स्ट्रोमिया
उत्त० ३६/६७ विमर्श-जावई शब्द प्रस्तुत प्रकरण में अनन्त जीवों के अन्तर्गत है। जायची या यावची हिन्दी भाषा का शब्द है। इसे तितलीथूहर भी कहते हैं। अन्य भाषाओं में नाम
हि०-जायची, तितली, यावची, कांगी बं०छागलपुपटी, जायची। प०-कंगी। मद्रा०-तिल्लाकाड।
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लेo-Euphorbia Dracunculoides Lam (युफोर्बिआ फ्रग्रेन्स हाउट) Fam. Myristicaceae (मायरिस्टिकॅसी)। डॅकनक्युलॉइडिस्)।
विमर्श-जायफल और जावित्री का एक ही वृक्ष विवरण-इसका क्षुप एक वर्षायु प्रायः ४ से ८ इंच है फिर भी भावप्रकाश निघंटु में दोनों का अलग-अलग ऊंचे, चिकने तथा सामान्यतः धूसर वर्ण के होते हैं। इसमें वर्णन किया है। पीताभ क्षीर होता है। शाखायें प्रायः द्विविभक्त क्रम में विवरण-जिस वृक्ष से जायफल उत्पन्न होता है निकली हई रहती हैं। पत्ते अभिमुख (नीचे कुन्तल) उसी से जावित्री भी उत्पन्न होती है। इस वृक्ष के अवन्त, रेखाकार, रेखाकारप्रासवत या रेखाकार आयताकार वास्तविक फल के भीतर के बीज (जायफल) से लिपटा
इंच लंबे होते हैं। पुष्प पुष्पाकार व्यूह एकाकी हुआ लाल रंग का जालीदार जो वेष्टन दिखाई देता है और द्विविभक्त काण्ड के बीच में होते हैं। ग्रामीण इसके वही जावित्री है। बीज तैल को जलाने के काम में लेते हैं। चर्मरोगों में भी
(भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० २१८) यह उपयोगी बतलाया जाता है। (भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३१२)।
जासुअण जावति
जासुअण (जपासुमन) जवाकुसुम रा० २७ ।। जावति ( ) जावित्री
देखें जासुमण शब्द। भ० २२/१ प० १/४३/१ विमर्श-पाइअसद्दमहण्णव में जावति की छाया
जासुमण जातिपत्री है। उसे हिन्दी में जावित्री और गुजराती में जासुमण (जपासुमन) जवाकुसुम प०.१/४०/३ जावंत्री कहते हैं। ये दोनों शब्द जावई के निकट हैं। प्रस्तुत प्रकरण में जावति शब्द वलयवर्ग के अन्तर्गत है। जातिपत्री (जावित्री) वृक्ष की छाल होती है। इसलिए जावति का अर्थ जावित्री उपयुक्त है। जातिपत्री के पर्यायवाची नाम
मालतीपत्रिका ज्ञेया, सुमनःपत्रिकापि च । जातीपत्री जातिकोश, स्तथा सौमनसायिनी ।।१२२६ ।।।
मालतीपत्रिका, सुमनपत्रिका, जातिकोश, जातीपत्री तथा सौमनसायिनी ये जातीपत्री के पर्याय हैं।
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ० २४६) जातीफलस्य त्वक् प्रोक्ता जातीपत्री भिषगवरैः
जातीफल (जायफल) की छाल को जातीपत्री कहा जाता है। अन्य भाषाओं में नाम
हिo-जावित्री, जायपत्री। बं०-जायिपत्री, जैत्री। म०-जायपत्री। गु०-जावंत्री। कo-जायत्री। ते०जातिपत्री । फा०-बज्बाजा ।अ०-बसवास । अंo-Mace
___ जपासुमन के पर्यायवाची नाम(मेस)। ले०-Myristica fragrans Houtt (मारिस्टिका
जपापुष्पं जवापुष्पं, मोण्ड्रपुष्पं जवा जपा।।१५११।।
पुष्प
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देखें जासुमण शब्द।
हैं।
पिण्डपुष्पं हेमपुष्पं, त्रिसन्ध्या त्वरुणासिता
जपापुष्प, जवापुष्प, ओण्ड्रपुष्प, जवा, जपा पिण्डपुष्प, हेमपुष्प, त्रिसन्ध्या और अरुणासिता ये पर्याय जपा के
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ०६२७) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-ओड्रहुल, ओडहुल, अढौल, गुडहल, जवाकुसुम । बं-जवाफूल । म०-जास्वंद । गु०-जासुस, जासुद । तेo-दासनमु । ता०-शष्यात्तुप्पु । कo-दासणिगे। फा०-अंगिराहिन्दी। अंo-Shoe Flower(शू फ्लावर) ले०-Hibiscus Rosa Sinensis (हिबिस्कस् रोजा साइनेन्सिस) Fam. Malvaceae (माल्वेसी)।
(भाव०नि०पृ० ५०७) उत्पत्ति स्थान-यह समस्त भारतवर्ष के बाग बगीचों में लगाया जाता है।
विवरण-पुष्पादि वर्ग का एवं नैसर्गिक क्रमानुसार कार्पासकुल का अनेक शाखा प्रशाखा युक्त छोटा वृक्ष होता है। पत्र शहतूत के पत्र जैसे, अण्डाकार, दन्तुर, तीक्ष्णाग्र तथा पुष्प वर्षा व ग्रीष्म में लाल रंग के और श्वेताभ लाल रंग के घंटाकार होते हैं। पुष्प एकहरा, दुहरा, तिहरा, लाल, श्वेत या श्वेताभ लाल, पीले आदि ३-४ रंग के होते हैं। इनमें लाल सर्वत्र तथा श्वेत भी अनेक स्थलों में सुलभ है । श्वेत या श्वेताभ लाल रंग के पुष्प वाला गुड़हल विशेष लाभकारी होता है। बीजकोष पुष्प की पंखुड़ियों के मध्यवर्ती कोमल सलाका पर गोल-गोल केसरिया रंग के हैं। ये ही या इसमें ही अनेक बीज होते हैं। इसमें अलग कोई फल नहीं लगते।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ४१०)
जियंतय जियंतय (जिवन्तक) जिवसाग,
भ० २०/२० प० १/४४/२ जीवन्तः (क:) पुं। जीवशाके मालवदेशप्रसिद्ध ।
(वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ४६७) जीवन्तक के पर्यायवाची नाम
जीवन्तको रक्तनालस्ताम्रपत्रः प्रनालकः ।।६२४ शाकवीरः सुमधुरो, वास्तुको मार्षक: स्मृतः।।
जीवन्तक, रक्तनाल, ताम्रपत्र, प्रनालक, शाकवीर, सुमधुर, वास्तुक, मार्षक ये जीवन्त के पर्याय हैं।
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग ६२४,६२५ पृ० ११५)
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जासुयण कुसुम जासुयण कुसुम (जपासुमन कुसुम) जवाकुसुम के पुष्प।
जीवा० ३/२८० देखें जासुमण शब्द।
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-जिवसाग, डोडी। बं०-जिबै, जीवन्ती। म०-जीवन्ती |गु०-जिवन्ति। वाछंटी। क०हिरियांहलि। ले०-Dendrobium Macraei lindl (डेन्ड्रोबिअम् मेक्रीइ लिंड) Fam. Orchidaceae (ऑर्किडसी)।
जासुवण जासुवण (जपासुमन) जवाकुसुम प० १/३७/१
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ले०-Leptadenia reticulata w&A (लेप्टाडेनिआ रेटिक्युलॅटा) Fam. Asclepiadaceae (एस्क्लेपिएडसी)।
होडीगाका जीवली
(भाव०नि०पृ० २६६) उत्पत्ति-यह विशेषतः पश्चिम एवं उत्तर भारत, पंजाब, उत्तर गुजरात एवं दक्षिण भारत में पाई जाती है।
विवरण-गडच्यादि वर्ग एवं अर्ककुल की वर्षाऋतु में होने वाली, वृक्षों पर चक्रारोही, पत्रमय, अनेक शाखावली इस लता विशेष के कांड का नवीन भाग श्वेताभ, मृदुरोमश एवं जीर्णदशा में कार्क (Cork) जैसा फूला हुआ, शाखाएं-अंगली से लेकर कलाई जैसी मोटी, स्थान-स्थान पर फटी हुई. पत्र अण्डाकार, सरलधारयुक्त,श्वेताभ चीमट, १ से ४ इंच लंबे, १ से २ इंच चौड़े, ऊपर चिकने, नीचे नीलाभ, रोमश, अग्रभाग में नुकीले, उग्रगन्धी, पत्रवृन्त १/२ से १ इंच लंबा, कुछ मोटा, पुष्प पत्रकोण से निकले हुए छोटे गुच्छों में, नीलाभ श्वेत या पीताभ हरित वर्ण के. फली एकाकी शृंगाकार अग्रभाग मोटा व कुछ टेढा, २ से ५ इंच लंबी, आध इंच से कुछ मोटी सरस, कुछ कड़ी, चिकनी, बीज आध इंच लंबे, संकड़े लगभग आक के बीज जैसे होते हैं । मूल पुरानी होने पर कलाई जैसी मोटी, अनेक शाखा या उपमूलयुक्त। मूल की छाल मोटी, कुडकीली नरम, भीतर से श्वेत, चिकनी, उग्रगन्धी व स्वाद में फीकी मधुर होती है। औषधि कार्य में प्रायः मूल ही ली जाती है।
(धन्वन्तरि० वनोषधि विशेषांक भाग 3 पृ० २४६, २४७)
48.30
पुष्पगुच्छ
शारव
उत्पत्ति स्थान-यह लता सहारनपुर, शिवालिक जियंति
के नीचे तथा बरकाला, रानीपूर एवं दक्षिण में भी जियंति (जीवन्ती) जीवंती लता प० १/४०/४ मिलती है। देहरादून में मोथानवाला के पास घास के जीवन्ती के पर्यायवाची नाम
मैदानों में भी होती है। जीवन्ती जीवनी जीवा, जीवनीया मधुस्रवा।।
विवरण-इसकी लता क्षुपजातीय तथा चक्रारोही माङ्गल्यनामधेया च, शाकश्रेष्ठा पयस्विनी।।५० ।। होती है। इसके पुराने कांड कार्क युक्त होते हैं और
जीवन्ती, जीवनी, जीवा, जीवनीया, मधुस्रवा, नवीन भाग श्वेताभ मृदुरोमश होते हैं। पत्ते २ से ३ इंज माङ्गल्यनामधेया (मंगलवाचक सभी शब्द) शाकश्रेष्ठा, लम्बे, १ से १.५ इंच चौड़े, लट्वाकार, आयताकार या पयस्विनी च जीवन्ती के पर्यायवाची नाम हैं।
अंडाकार, नोकीले, सरल धार, चर्मसदृश और अधःपृष्ठ (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० २१५) पर नीलाभ श्वेतरज से ढके होते हैं। इनका आधार प्रायः अन्य भाषाओं में नाम
गोल या नोकीला होता है। पुष्प कुछ मटमैले हरिताभ हि०-जीवन्ती, डोडी। गु०-दोडी, डोडी, खरखोड़ी, पीत रंग के होते हैं। फलियां एकाकी, २ से ३ इंच राडारुडी। म०-डोडी, राईदोडी, खीरखोडी। लम्बी, आधे से पौन इंच मोटी, सीधी, सरस परन्तु
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कठोर, चिकनी और उनका अग्रभाग मोटा परन्तु चोंचदार (टेढा) होता है।
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० २६५)
जीरा जीरा ( ) जीरा, सफेद जीरा
भ० २१/२१ विमर्श-जीरा हिन्दी भाषा का शब्द है। प्राकृत के जीरा शब्द का संस्कृतरूप जीरक भी बनता है। जीरक के पर्यायवाची नाम
जीरकोजरणोऽजाजी,कणा स्याद्दीर्घजीरकः ।।१।।
जीरक, जरण, अजाजी, कणा और दीर्घजीरक ये सफेदजीरा के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० पृ० ३०)
जीलकरर, जीलकरी। ताo-शीरागम। फाo-जीरये सफेद । अ०-कमूलअवियज़ | अंo-Cumin Seed (क्यूमिन सीड)। ले०-Cuminum cyminum linn (क्यूमिनम् साइमिनम् लिन०) Fam. Umbelliferae (अंबेलिफेरी)।
उत्पत्ति स्थान-आसाम और बंगाल के सिवा प्रायः सब प्रान्तों में विशेषकर राजपूताना (राजस्थान) और उत्तर भारत के कई प्रान्तों में इसकी खेती की जाती है।
विवरण-यह खेतों में प्रतिवर्ष बोया जाता है। इस क्षुप जाति की वनस्पति की शाखायें पतली होती हैं। पत्ते सौंफ के पत्तों के समान पतले-पतले लम्बे तथा २ से 3 एक साथ रहते हैं। वारीक सफेद फूलों के छत्ते लगते हैं। फल सौंफ के समान होता है। (भाव०नि० पृ० ३१)
जीवग
काड पत्र
Admy
S
मूल
CELLS
जीवग (जीवक) जीवक
भ०२३/८ जीवक के पर्यायवाची नाम
ह्रस्वाङ्गकः शमी कूर्चशीर्षको कूर्चको मतः ।।८६ ।। जीवको जीवदः क्षोदी, मंगल्यो मधुरः प्रियः । जीवनः शृङ्गकः श्रेयो, दीर्घायु चिरजीव्यपि।।६० ।।
हस्वाङ्गक, शमी, कूर्चशीर्षक, कूर्चक, जीवक, जीवद, क्षोदी, मंगल्य, मधुर, प्रिय, जीवन, शृङ्गक, श्रेय, दीर्घायु, चिरजीवी ये सब जीवक के पर्यायवाची नाम
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग पृ० २०) अन्य भाषाओं में नाम
ले०-Pentaptera Tomentosa (पेन्टापटेरा टोमेन्टोन्सा)।
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय पर्वत के शिखर के ऊपर उत्पन्न होती है।
विवरण-इसका कंद ठीक लहसुन के कंद के समान होता है और निस्सार होता है तथा पत्ते सूक्ष्म होते हैं। जीवंक का आकार कूची के समान होता है। यह बल-कारक, शीतवीर्य, शुक्र तथा कफ के वर्धक होता है मधुररसयुक्त, पित्त, दाह, रक्तदोष, कृशता, वात तथा क्षय रोग को दूर करने वाला है। (भाव०नि०पृ० ६१)
विवरण-आजकल पहाड़ी जंगलों में कामराज
पुष्प
बीज
अन्य भाषाओं में नाम
हिo-जीरा, सादाजीरा, साधारण जीरा, सफेद जीरा। बं०-सादाजीरे, शाहाजीरे, जीरे। म०-जीरे,
की पांढरेजीरे। गु०-जीरूं, शाक न जीरूं, सादजीलं, धोलुजीरुं। क०-जीरिगे, विलियजीरिगे। तेल-जिलाकारा,
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और बलराज नामक दो कंदों के विषय में जंगली लोग
जीविय बड़ी प्रशंसा किया करते हैं। संभव है ये ही ऋषभक और
जीविय (जीविका) डोडीशाक प० १/४८/५ जीवक हों। कमराजकंद पर सूक्ष्मपत्र देखने में नहीं आये
देखें जियंतय शब्द। किन्तु गुणधर्म में यह जीवक की बराबरी करता है। कामराजकंद बहुत कुछ रसोन कंदवत् दिखलाई देता
जूहिया बंगाल एशियाटिक सोसायटी के सभापति सर जूहिया (यूथिका) जूही विलियम जोन्स के मत का अनुसरण करते हुए स्वामी
रा० ३० जीवा० ३/२८३ प० १/३८/२ हरिशरणानंद जी लिखते हैं कि ऋषभक और जीवक दोनों यूथिका के पर्यायवाची नामएक ही जाति की वनस्पति है। दोनों ही कंद होते हैं।
यूथिका पीतिका बाला, बालपुष्पा गुणोज्वला।। तथा दोनों ही के कंद के ऊपर छिलका होता है। सिरे
काण्डी शिखण्डिनी चान्या युवती पीतयूथिका /१४७५ की पत्तियों की जड़ के पास से अनेक पुष्पदंड निकलते यूथिका, पीतिका, बाला, बालपुष्पा, गुणोज्वला, हैं, जिस पर सघन फूल आते हैं। फूल कतार में रहते काण्डी और शिखण्डी ये यूथिका के पर्याय हैं। हैं और उनका जुड़ाव नीचे की ओर मिला हुआ होता है।
(कैय०नि० ओषधिवर्ग पृ० ६१६) उनमें विशेषता यह है कि कंद एक ही पर्त में लिपटे नहीं अन्य भाषाओं में नामहोते। पत्तियां लम्बी और चिपटी होती हैं। तथा वे कुछ हि०-जूही। क०-कदरमल्लिगे। ते०-मागधी। तिरछी झुककर डंठल का थोड़ा भाग ढके रहती हैं। जहां ता०-उसिमल्लिगै। ले०-Jasminumauriculatum Vahl ढके हए भाग का अन्त होता है वहां चिकने चमकदार (जसमिनस ऑरी क्यूलेटम्)Fam.Oleaceae (ओलिएसी)। और कोमल तने निकलते हैं, जिन पर छोटे-छोटे सफेद उत्पत्ति स्थान-यह दक्षिण कर्नाटक तथा पश्चिम रंग के फूलों के गुच्छे लगते हैं। जिस तरह लहसुन या प्रायद्वीप में होती है। भारत के सभी स्थानों पर इसकी प्याज में बुरी गंध आती है वैसी दोनों में किसी प्रकार खेती होती है। उत्तरप्रदेश में तो व्यापारिक दृष्टिकोण से की बुरी गंध नहीं आती। दोनों कंद चेपदार गूदे से भरे इसकी खेती करते हैं। होते हैं। स्वाद किंचित् कड़वापन युक्त मीठा होता है और विवरण-इसका गुल्म मृदुरोमश, लता के समान बाजार में मिलने वाली उसी श्रेणी की साधारण वनस्पति आरोहणशील या फैला हुआ रहता है। पत्ते प्रायः साधारण के कंद से इनका कंद बहुत छोटा होता है। दोनों पौधे । कभी-कभी त्रिपत्रक जिसमें दो नीचे के पत्रक बहुत छोटे समुद्र की सतह से ४५०० से १०००० फुट ऊंची हिमालय या कभी-कभी अनुपस्थित बीच का पत्रक २ से ३.२४१ की चोटियों पर पाये जाते हैं। और वे वहां के जंगल या से १५ से.मि चौड़ाई लिये हुए अण्डाकार या गोल खुली जमीन में उत्पन्न होते हैं।
मृदुरोमश या चिकना होता है। पुष्प श्वेत, सुगंधित, गुच्छो इन दोनों के पत्ते वर्षाकाल में जब नवीन फूटते में आते हैं। बाह्यदल नलिका ४ मि.मी. लम्बी तथा दन्तुर हैं तो ये अच्छे चौड़े, लगभग एक इंच चौड़े होते हैं। फिर एवं अन्तर्दलनलिका १३ मि.मि. लम्बी तथा उसके खण्ड पौधों के खूब बढ़ जाने पर शरदऋतु में ये पतले हो जाते ५ से ८ एवं ६ मि.मी. लम्बे होते हैं। (भाव० नि० पृ० ४६२,४६३) हैं। शीतलता (सरसता) गुण के कारण कंद को शरद विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में जूही गुल्म होती शब्द में संग्रह करना होता था, उस समय पतले पत्तों का होना गुल्मवर्ग के अन्तर्गत है। जूहियागुल्म है। अवश्य देखा गया होगा। ऐसा स्वामी जी ने अनुमान किया है।
जूहियागुम्म (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ५३२)
२ जूहियागुम्म (यूथिकागुल्म) जूही का गुल्म
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जीवा० ३/५८० इसका गुल्म मृदुरोमश, लता के समान आरोहणशील या फैला हुआ रहता है।
डब्भ डब्भ (दर्भ) डाभ ।श्वेतदर्भ
प० १/४२/१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में यह तृणवर्ग के अन्तर्गत
णंगलई णंगलई (लाङ्गलकी) कलिकारी,कलिहारी
भ० २३/८ प० १/४८/६ विमर्श-आचार्य हेमचन्द्र की प्राकृतव्याकरण सूत्र १/५६ के अनुसार इस शब्द की छाया लाङ्गलकी बनती है। प्रस्तुत प्रकरण में यह शब्द कंदवर्ग में है इसलिए लाङ्गलकी का अर्थ कलिकारी ग्रहण कर रहे हैं। इस वनस्पति के कंद होते हैं। लाङ्गलकी-स्त्री। कलिकारी।
(आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ० १२२६) लाङ्गलकी-स्त्री० कलिहारी
(शालिग्रामौषध शब्द सागर पृ. १५७) लाङ्गलकी के पर्यायवाची नाम
कलिहारी तु हलिनी, लाङ्गली शक्रपुष्यपि। विशल्याग्निशिखानन्ता वह्निवक्त्रा च गर्भनुत्
कलिहारी, हलिनी, लाङ्गली, शक्रपुष्पी, विशल्या अग्निशिखा, अनन्ता वह्निवक्त्रा और गर्भनुत् ये कलिहारी के संस्कृत नाम हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० ३१२,३१३)
दर्भ के पर्यायवाची नाम
कुशो दर्भो हस्वदर्भो, याज्ञेयो यज्ञभूषणः | श्वेतदर्भः पूतिदर्भो, मृदुदर्भो लवः कुशः ।।१२३६ ।। बर्हिः पवित्रको यज्ञसंस्तरः कुतपोऽपरः
कुश, दर्भ, हस्वदर्भ, याज्ञेय, यज्ञभूषण, श्वेतदर्भ, पूतिदर्भ, मृदुदर्भ, लव, कुश, बर्हि, पवित्रक, यज्ञसंस्तर, कुतप ये दर्भ के पर्यायवाची नाम हैं।
(कैयदेव निघंटु ओषधिवर्ग पृ० २२६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कुशा, दाभ, कुसघास । म०-दन। बं०- कुश | पं०-दभ, द्रभ । गु०-दाभडो, दरभ । कo-वीलीय, बुट्टशशी । ते०-कुश, दर्बालुं । ता०-दर्भ। लेo-Eragrostis cynosuroides Beauv (इरेग्रॉस्टिस् साइनो सुरोइडीस् बी) Fam. Gramineae (ग्रॉमिनी)।
उत्पत्ति स्थान-यह खुले हुए घास के मैदानों में सर्वत्र पाया जाता है।
विवरण-इसके पौधे, मोटे, बहुवर्षायु, दृढ़ तथा १ से ३ फीट ऊंचे होते हैं । मूलस्तम्भ सीधा खड़ा परन्तु बहुत गहराई तक होता है। पत्ते १८ इंच तक लम्बे.२ इंच चौडे. अग्र पर कांटे की तरह तीक्ष्ण और पत्रतट सूक्ष्म रोमों के कारण तेज धार का होता है। पुष्पदंड ६ से १८ इंच लम्बा तथा सीधा होता है। बीज १/४ इंच लम्बे, अंडाकार तथा चपटे होते हैं। वर्षा ऋतु में पुष्प तथा शीत ऋतु में फल लगते हैं।
__इसकी छोटी जाति को कुश तथा बड़ी जाति को दर्भ कहते हैं। दर्भ के पत्ते लम्बे तथा खर होते हैं।
(भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३८२)
WAR
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अन्य भाषाओं में नाम
लाल रंग के बीज होते हैं। कंदों के भेद से कलिहारी हि०-कलिहारी, कलिकारी, करियारी कलहिंस, दो प्रकार की मानी जाती है। जिसका कंद लम्बा, गोल, कलारी, लांगुली, करिहारी। बं०-विषलांगुली, दो भागों में विभक्त अथवा दो लम्बे टुकड़े समकोण के उलटचंडाल । म०-कललावी, इंदै, लालि, खड्यानाग, समान जुड़े हुए होते हैं वह पुरुषजाति का और जिसका नागकरिआ। गु०-कलगारी, दूधियोवच्छनाग। कंद गोल, किंचित् लम्बा एक ही रहता है वह स्त्रीजाति क०-लांगुलिक । पं०-मलिम, करियारी। मा०-राजाराड। कहलाती है। (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३१३) ते०-अग्निशिखा, अडवीनाभी। ता०-कलई पैकिशंगु। मल०-मेशोन्नि । अंo-The glory lily (दि ग्लोरी लिलि)
णंदिरुक्ख Tigers clawj (टाइगर्स क्यॉज)। ले0-Glorisa Superba
दिरुक्ख (नन्दिवृक्ष) तून linn (ग्लोरिओजा सुपर्वा०लिन०) Fam. Liliacae
ओ० ६ जीवा० ३/५८३ प० १/३६/२ (लिलीएसी)।
उत्पत्ति स्थान भारत के प्रायः सभी प्रान्तों के जंगल-झाडियों में आप ही आप उत्पन्न होती है तथा वर्मा एवं लंका में भी पाई जाती है।
विवरण-इसकी लता मृदु, आरोहणशील और सुंदर है, जो झाड़ियों या छोटे वृक्षों के ऊपर चढ़ी हुई पाई जाती है। काण्ड पतला, कलम जितनी मोटाई का, गोल, मृदु एवं हरे रंग का होता है। यह १.५ से २.५ फीट लंबा होने पर भूमि की ओर नत हो जाती है किन्तु जब उसे किसी दूसरे वृक्ष का आश्रय मिलता है तब उसके सहारे ८ से १० फुट तक ऊंची चढ जाती है। यह चौमासे के प्रारंभ में निकलती है और शीतकाल
पत्र के पहले ही सूख जाती है। इसका भौमिक तना हलाकार टेढ़ा, बेलनाकार परन्तु जगह-जगह कुछ संकुचित रहता है। इसीसे, प्रतिवर्ष इसकी पुनरावृत्ति होती है। पत्ते विषमवर्ती ३ से ६ इंच तक लम्बे, पौन से एक इंच तक चौड़े, प्रायः बिनाल, लट्वाकार भालाकार एवं उनके अग्र सूत्राकार होते हैं। जिनसे आश्रय को लपेटकर यह बढ़ती है। वर्षा के अंत में इसमें फूल आते हैं। फूल व्यास में ३ से ४ इंच, अधोमुखी और सुंदर होते हैं। पुष्पनाल ३ विमर्श-नंदिवृक्ष के दो अर्थ मिलते हैं-नन्दिक और से ६ इंच लम्बा और उसका अग्र टेढा होता है। पंखुड़ियां मेषशृंगी। नंदीवृक्ष के तीन अर्थ मिलते हैं-बेलिया ६ लहरदार, नीचे आधार की ओर पीताभ, ऊपर नारंगी पीपरवृक्ष, मेढाशिंगी, तून । नंदिवृक्ष और नंदीवृक्ष दोनों लाल और अन्त में पूर्णतः लाल हो जाती है। तथा शब्दों के अर्थों में दो नाम समान हैं-नंदिक (तून) और जैसे-जैसे इसका विकास होता है वैसे इनका रंग भी पीत मेषशृंगी (मेढाशिंगी) । प्रस्तुत प्रकरण में नंदिवृक्ष बहुबीजक से रक्त होता जाता है। फलियां केराव की फलियों के वर्ग के अन्तर्गत आया हुआ है इसलिए यहां तून वृक्ष का समान होती है। उनमें केराव के आकार के गोल-गोल अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
पम्प
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poftoSOPIB
SPICIGERAL
नन्दिवृक्ष के पर्यायवाची नाम
के उपर्युक्त ६ अर्थों में शमीवृक्ष अर्थ ग्रहण किया जा रहा तूणि स्तूणीकण: पीतस्तूणिक: कनकस्तथा। है। क्योंकि छोंकर में अनेक बीज होते हैं। कुठेरकः कान्तलको, नन्दिवृक्षोथ नन्दिकः ।।१७।। अन्य भाषाओं में नाम
तूणीकण, पीततूणिक, कनक, कुठेरक, कान्तलक, हि०-छोंकर, शमी, छिकुर | बं०-शांई। मं०-शमी। नन्दिवृक्ष और नन्दिक ये पर्याय तूणि के हैं। गु०-खीजड़ो, खमडी। ता०-कलिसम्, वण्णि।
(धन्व०नि० ३/१७ पृ० १४१, १४२) मार०-खेजड़ो, जाट, जांटी। कठि०-खेजड़ी। अन्य भाषाओं में नाम
कच्छी-कंडो, समरी। ते०-जिम्म। पं०-जंड, जंडी। हि०-तुन तून, तूनी, महानिम । बं०-तूनगाछ। ले०-Prosopis Spicigera linn (प्रोसोपिस् स्पिसिजेरा) म०-तूणी, कूरक। गु०-तूणी। ता०-तूनमरम्। Fam. Leguminosae (लेग्युमिनासी)। ते०-नन्दिवृक्षमु । कo-बिलिगंधगिरि। अं0-The Toon (दि तून) ।। ले०-Cedrela toona roxb (सेड्रेलातून) Fam. Meliaceae (मेलिएसी)।
(भाव०नि०पृ० ५३५) उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के निचले प्रदेशों में ४००० फीट तक आसाम, बंगाल, छोटा नागपूर, पश्चिमीघाट एवं दक्षिण प्रायद्वीप में होता है।
विवरण-इसका वृक्ष ऊंचा या मध्यम ऊंचाई का ७० से १०० फीट तक होता हैं। पत्ते सदलपर्ण, १ से २.५ फीट लम्बे, पत्रक ५ से १२ जोड़े, भालाकार या आयताकार-भालाकार, ३ से ७ इंच लम्बे, अखण्ड सवन्त तथा तिरछे फलक मूल वाले होते हैं। पुष्प छोटे, सुगंधित तथा नवीन टहनियों पर निकलते हैं। फली १ इंच तक लम्बी आयताकार होती है। बीज दोनों शिराओं पर सपक्ष होते हैं। इसकी लकड़ी फर्नीचर बनाने के काम आती है।
(भाव०नि० वटादिवर्ग०पृ० ५३४)
TA
CROSS DENROP
णग्गोह णग्गोह (न्यग्रोध) शमी वृक्ष, छोंकर, खेजडी बापत्र
जीवा० १/७२ प० १/३६/१ न्यग्रोध ।पु० । वटवृक्षे, श्रुतश्रेण्याम्, आखुकर्णी उत्पत्ति स्थान-यह पंजाब, सिन्ध राजपुताना, लतायाम् । शमीवृक्ष, विषपाम्, मोहननामौषधौ। गुजरात और बुंदेलखण्ड में अधिक होता है और इसको (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० ६२४)
वाटिकाओं में भी लगाते हैं। विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में णग्गोह शब्द वड शब्द
विवरण-वटादिवर्ग एवं शिम्बी कुल के बब्बुलादि के बाद आया है। बहबीजक वर्ग के अन्तर्गत है। संस्कृत
उपकुल के ये वृक्ष मध्यमाकार के, कंटकित, १५ से ३० शब्दकोशों में न्यग्रोध वट का पर्यायवाची है। वड और फुट ऊंचे होते हैं। शाखायें पतली झुकी हुई, धूसरवर्ण णग्गोह शब्द एक साथ आने के कारण यहां णग्गोह शब्द की, छाल फटी सी, खुरदरी, बाहर से श्वेताभ तथा भीतर
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से पीताभ धूसर । पत्र बब्बूल के पत्र जैसे किन्तु छोटे, संयुक्त एक-एक सीक पर १२ जोड़े पत्रक। पुष्प शीतकाल में या ग्रीष्म में; पीताभ श्वेत पुष्पों का घनहरा लगता है। फली प्रायः वर्षाकाल में ४ से ८ इंच लम्बी, आध इंच मोटी, श्वेतवर्ण की तथा इसमें धूसरवर्ण के बीज होते हैं। कच्ची फली को सांगर, सांगरी मारवाड़ में कहते हैं, तथा इसका शाक बनाया जाता है। पक्की फली को खोखा कहते हैं। यह मधुर होता है तथा बच्चे इसे खूब खाते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० १४५)
नालवंशः पोटगल, इत्यस्याहास्त्रिपश्चधा ।।१०२।।
नाल,नड, नल, कुक्षिरन्ध्र, कीचक, वंशान्तर, धमन, शून्यमध्य, विभीषण, छिद्रान्त, मृदुपत्र, रन्ध्रपत्र, मृदुच्छद, नालवंश तथा पोटगल ये सब पन्द्रह नाम नल के हैं।
(राज०नि०८/१०१,१०२ पृ० २५२) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-नरसल, नल। म०-देवनल, बोकेनल, ढवनल, नल | बं०-बड़ानल। क०-काडहोगे, सोप्पु ता०-काटुपुगैयिलै। कच्छ०-आंची। गु०-नाली। तेल-अडवियोगाकु । अ०-Wildtobacco (वाइल्ड टोबॅको) Lobelia (लोबेलिओ) ले०-LobeliaNicotianaefoliaHeyne (लोबेलिआ निकोटिआ निफोलिया हेन) Fam. Lobeliaceae (लोबेलियेसी)।
णट्टमाल णट्टमाल (नक्तमाल) बड़ी करंज
जीवा० ३/५८२ जं० २/८ विमर्श-उपलब्ध वनस्पति शास्त्र में णट्टमाल शब्द नहीं मिला है। संस्कृत रूप नक्तमाल मिलता है। जिसका प्राकृतरूप णत्तमाल बनता है। ट का त हुआ है। नक्तमाल (बडीकरंज) सु०सू०अ० ३८/१० पृ० १३७ नक्तमाल के पर्यायवाची नाम
करंजो नक्तमालः स्यान्, नक्ताह्वो गुच्छपुष्पकः । घृतपूरः स्निग्धपत्रः, प्रकीर्या पुष्पमअरी।।६६४।। उदकीर्या पूतिकर्णः, प्रकीर्णो मातृनन्दनः।। पतिकरअ: प्रतीक: कैडर्यश्चिरबिल्वकः ।।६६५ ||
करञ्ज, नक्तमाल, नक्ताह्व, गुच्छपुष्प,घृतपूर, स्निग्धपत्र, प्रकीर्या, पुष्पमअरी, उदकीर्या, पूतिकर्ण प्रकीर्ण, मातृनन्दन, पूतिकरञ्ज, पूतीक, कैडर्य और चिरबिल्व और ये पर्याय करंज के हैं।
(कैयदेव नि० ओषधिवर्ग० पृलोक ६६४, ६६५ पृ० १७८.)
नरसल.
णल णल (नल) देवनल, नरसल प० १/४१/१ नल के पर्यायवाची नाम
नालो नडो नलश्चैव, कुक्षिरन्ध्रोथ कीचकः । वंशान्तरश्च धमनः, शून्यमध्यो विभीषणः ।।१०१।। छिद्रान्तो मृदुपत्रश्च, रन्ध्रपत्रो मृदुच्छदः
उत्पत्ति स्थान-यह पश्चिमी घाट में बम्बई से त्रावनकोर तक २ से ७ हजार फीट की ऊंचाई तक, कोंकण, माथेरान, दक्षिण, महाराष्ट्र का दक्षिण प्रदेश, नीलगिरी, मलावार तथा मैसूर में पाया जाता है।
विवरण-इसका क्षुप ५ से १२ फीट ऊंचा, द्विवर्षायु या बहुवर्षायु होता है। काण्ड ऊपर की तरफ पोला तथा ऊपर की ओर इससे शाखाएं निकली रहती हैं। पत्ते
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तंबाकू की तरह, संख्या में बहुत, हलके हरे रंग के, छोटे पर्णवृन्त से युक्त, नीचे के 12x2 इंच लंबे तथा ऊपर के क्रमशः छोटे, भालाकार, महीन दांतों से युक्त एवं मृदुरोमश होते हैं। पुष्प जामुनी आभायुक्त, श्वेत वर्ण के, 1 फीट तक लंबी मंजरिओं में आते हैं। फल ८ मि० मि० व्यास के गोल सामान्य स्फोटीफल होते हैं। बीज बहुत छोटे, अंडाकार, दबे हए, पीताभ भूरे रंग के तथा स्वाद में अत्यन्त तीते होते हैं। इसके पुष्प कांड पर एक गाढ़ा, पीले रंग का स्राव जमा हुआ पाया जाता है। इसमें एक प्रकार की अप्रिय गंध होती है। इसके वायवीय भाग को अक्टूबर तथा नवम्बर में तोड़कर, छाया में सुखाकर उपयोग में लाया जाता है। सूखे हुए पौध पर राल की तरह एक पदार्थ लगा रहता है तथा इसका स्वाद उष्ण एवं तीता होता है। इसकी धूल से नाक तथा गले में तंबाकू की तरह प्रक्षोभ होता है। इसकी नली से वंसी बनाई जाती है जिसे कोंकण में पावा कहते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ० ३७८)
का क्षुप पांच फुट से लेकर ७ फुट तक लम्बा होता है। भूरि नवनीता के पर्यायवाची नाम
आरामशीतला देवगन्धा कुक्कुटमर्दकः ।।११०३।। विटिका भक्षिका भूरिनवनीता प्रकीर्तिता।।
आरामशीतला, देवगन्धा, कुक्कुटमर्दक, विटिका भक्षिका, भूरिनवनीता ये देवगंधा के पर्याय हैं।
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग श्लोक ११०३,११०४ पृ०२०४) देवगन्धा |स्त्री। महामेदायाम् । राज०नि० वर्ग० ५। आरामशीतलायाम् । वैद्यक निघंटु ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ५५७)
णलिण णलिण (नलिन) थोडा लाल क्षुद्रोत्पल
जीवा० ३/२८६. ईषद् रक्तं तु नलिनं ।।१३४।।
थोड़ा लाल नलिन (क्षुद्रोत्पल) के नाम से जाना जाता है।
(धन्व०नि० ४/१३४ पृ० २१७) नलिन (सुगंधित) कमल
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०१३६)
__णवणीइया णवणीइया ( ) महामेदा प० १/३८/३
विमर्श-उपलब्ध वनस्पति शास्त्र के निघंटुओं तथा आयुर्वेदीय शब्दकोशों में संस्कृत का नवनीतिका या नवनीता शब्द नहीं मिला है। कैयदेव निघण्टु में भूरि नवनीता शब्द मिला है। वर्तमान में नवनीता के स्थान । पर भूरिनवनीता शब्द ग्रहण कर रहे हैं। प्रस्तुत प्रकरण में णवणीइया शब्द गुल्म वर्ग के अन्तर्गत है। महामेदा
महामेदा अन्य भाषाओं में नाम
हिo-महामेदा। पं०-महामेदा। बं०-महामेदा। म०-महामेदा। राजा-महामेदा। मन्दाकिनी घाटी उत्तराखण्ड में-रीगाल धोता। ले०-Polygonatum Verticilltaum Allioni (पोलिगोनेटम बरटिसिलेटम आलिओनि
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उत्पत्ति स्थान-मोरंग में और मोरंग के आसपास
देखें णवणीइया शब्द हिमालय में होती है। मोरंग नेपाल के एक निकटवर्ती स्थान का नाम है और वह हिमालय के उसी प्रदेश का है। यह उत्तराखण्ड की प्रायः सभी घाटियों से सुलभ है।
णहिया भागीरथी घाटी में, रैथल, वक्सया, गंगोत्री, सुक्की आदि णहिया (नहिका) शुकनासा, कटुनाही प० १/४७ छायादार ढलानो में एवं भिलंग घाटी में धुत्तू, गंजी, न
नहिका It has been identified with what is called पंवाली, गेगाणा, पौवांगी, मंदाकिनी घाटी में, गौरीकुंड,
sukanasa 17 by Bopadeva, If this view is correct रामबाड़ा, केदारनाथ, मदमहेश्वर आदि स्थानों में ८०००।
20 Nahika may be the name of Katunahi कटुनाही or फीट से लेकर १२००० फीट की ऊंचाई तक उपलब्ध है। Kadavinai कडवीनाई Which has been proved to be विशेषकर गौरीकुंड, रामवाडा, मंदाकिनी छोटी, मसूरी, corallocarpus epigaeus Benth, ex, Hook. चकरोत आदि उत्तराखंड में पायी जाती है।
वोपादेव ने नहिका को शकनासा माना है। यदि विवरण-यह हरीतक्यादिवर्ग के अन्तर्गत अष्टवर्ग यह मत वस्तुतः ठीक है तो नहिका कटुनाही अथवा की एक महौषधि है और इसका रसोन कुल है। यह कड़वीनाई हो सकती है। हिमालय में उपलब्ध आरोही लता जाति की वनस्पति है। शुकनासा के दूसरे नाम कीरकंद, मिरचाकंद, आरोही क्षुप पांच फुट से लेकर ६ से ७ फुट तक लम्बा कटुनाही, कटुनाई है। होता है। मूल से ही लता सीधी ऊपर को निकलती है। शुकनासा के पर्यायवाची नामलता पीलापन लिए होती है। पत्र कांड से ही जुड़े रहते नहिका, शुकाख्य शुकाह्वया, और शुकाह्वा हैं। हैं। एवं पत्र आकृति में भालाकार तथा सूच्याकार होते (Glossary of Vegetable Drugs in Brhattrayi Page
219&402 हैं। ये पत्रकांड से जुड़े हुए एवं क्रमानुसार होते हैं। फल
णहिका के पर्यायवाची नामकच्चे हरे वर्ण के तथा पकने पर गोल लाल वर्ण के होते
शुकनासा सूक्ष्मनालो, नालिका नाहिका च सा। हैं। मूल शुष्क आर्द्रक सदृश होती है। कंद सुपाण्डुर है।
शुकनासा, सूक्ष्मनाल, नालिका, नाहिका ये अथवा महामेदा पीलापनयुक्त सफेद रंग का होता है।
शुकनासा के पर्याय हैं ।(अभिधानरत्न माला ४/१०५ पृ०२८) यद्यपि पाण्डुर का अर्थ श्वेत भी हो सकता है पर यहां उसे श्वेत से भिन्न समझना चाहिए क्योंकि इन दोनों के भिन्न करने का यही एक भेद है। मेदा और महामेदा दोनों एक
णही ही कुल की वनौषधियां है। महामेदा के ८ दाग (चिन्ह) णही (नाही) नाही कंद भ०२२/८ प०१/४८/५ होते हैं। अथवा इतने ही कंद एक साथ जुड़े हुए होते विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में णही शब्द कंद वर्ग के हैं। महामेदा मेदा से किंचित् बड़ा होता है। पुष्प काल, शब्दों के साथ है। इसलिए यहां नाहीकंद अर्थ ग्रहण कर फलकाल, ग्राह्य अंग और औषध संग्रह काल मेदा के रहे हैं समान है।
नाही के पर्यायवाची नाम(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ३७५, ३७६) कटुनाही, नाहीकंद, महामूला।
अन्य भाषाओं में नामणवणीइया गुम्म
हि०-कड़वीनई, आकाशगदा, राक्षसगदा, णवणीइयागुम्म (नवनीतिका गुल्म) महामेदा ।
कड़वीनायकंद, मिर्चाकंद म०-गरजफल, नरकी चा
कांदा। बं०-आकाश गड्डी। गु०-कड़वीनाही, कड़वी प० १/४७
नाइनो कंदा, मरचीबेल, नाहीकंद। अंo-Bryoms
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(प्रायोमस) । ले० - Corallocarpus Epigeous (कोरलोकार्पस एपिजियस) Bryonia Epigoea (ब्रायोनियाएपिजिया) ।
उत्पत्ति स्थान - कडवी नाहीकंद की लता वर्षा ऋतु में जमीन पर या वृक्षों पर बड़ी शीघ्रता से फैलती है । लता में सुतली जैसी दो धार वाली, पतली हरी एवं चमकीली कई शाखायें फूटती हैं। पत्ते तिकोन या पंचकोनयुक्त नोकदार, किनारे तीक्ष्णरोमयुक्त, दोनों ओर खुरदरे और कुछ मोटे होते हैं। पत्र की डंठल १.५ इंच तक लम्बी होती है तथा पत्र ३ इंच तक लम्बा होता है। फूल गुच्छों में हरिताभयुक्त पीले रंग के होते है। फल वृन्तयुक्त आधे से एक इंच तक लम्बा गोलाकार, मोटी छोटी लालमिर्च के समान हरे रंग के होते हैं। इसीलिए राजस्थान की ओर इसे मिर्चियाकंद कहते हैं। प्रत्येक फल पर छोटी चोंच सी निकलती है। मध्यभाग फल का कुछ लाल होता है। फल के गूदे के भीतर नारंगी रंग के नन्हें-नन्हें बीज होते हैं। इसका कंद गाजर जैसा पीताभश्वेत खुरदरा तथा गाढ़ा चिपचिपा रस वाला होता है । यह कंद कुछ अम्लतायुक्त कडुवा होता है। बाद में इसका स्वाद कुछ मीठा हो जाता है।
यह शाक वर्ग की ही एक वनौषधि है । आधुनिक शास्त्रानुसार यह कोषातक्यादि वर्ग की बूटी है । यह कड़वी और मीठी दो प्रकार की होती है। मीठी का शाक बनाया जाता है | ( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग०२पृ०७०, ७१)
....
णागरुक्ख
णागरुक्ख (नाग वृक्ष) सेंड थूहर
ठा० ८/११७/२ जीवा० १/७१ विमर्श - निघंटु शब्द कोशों में नागवृक्ष के स्थान पर नागद्रु शब्द मिला है। द्रुशब्द वृक्ष का पर्यायवाची है, इसलिए नागवृक्ष के लिए नागद्रु का अर्थ सेहुंडवृक्ष (सेंड थूहर ) ग्रहण कर रहे हैं।
वृक्ष के पर्यायवाची नाम
वृक्षोऽगः शिखरी च शाखिफलदावद्रिर्हरिद्रुर्द्रुमो, जीर्णोद्रु टिपी कुठः क्षितिरुहः कारस्करो विष्टरः ।। नन्द्यावर्त्तकरालिको तरु- वसू-पर्णी पुलाक्यंहिपः ।
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सालाऽनोकह-गच्छ-पादप-नगा रूक्षाऽगमौ पुष्पदः, ( अभिधान चिन्तामणौ तिर्यग् काण्डः ४ श्लोक १११४) नागद्रु-पुं० स्नुहीवृक्ष (सेहुण्डवृक्ष)
(शालिग्रामौषधशब्द सागर पृ० ६५)
नागद्रु के पर्यायवाची नाम
स्नुही समन्तदुग्धा च, नागद्रु बहुदुग्धिका । महावृक्षः सुधा वज्रा, शीहुण्डो दण्डवृक्षकः । । स्नुही, समन्तदुग्धा, नागद्रु, बहुदुग्धिका, महावृक्ष, सुधावज्रा, शीहुण्ड, दण्डवृक्षक ये स्नुही के पर्याय हैं । (शा०नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० २२५)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - थूहर सेहुंड, सेंहुर, सेंड, मुठरिया, सीज, सौझ, थोहर, एटके । बं०- मनसा सिज । म० - नई निवडुंग, मिनगुटथोर । गु०-थोर, कांटलो, कंटालो ते० -आकुजे, मुडु ता० इल्लैकल्लि क० - इल्लैकल्लि । मल० - इल्लैकल्लि फा० - लादनाम् । अ० - जकुमफर्य्यन । अं०-Milk Hedge (मिल्क हेडगे) | Common Dulkhedge (कामन डक हेज) ले० - Euphorbia neriifolia Lin (युफोर्बिआ ) नेराइफोलिआ लिन० ) Fam. Euphorbiaceae (युफोर्बिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान- यह बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिमोत्तर प्रदेश, दक्षिण तथा अन्य प्रान्तों में पाया जाता है ।
विवरण- इसका झाड़ १० से १५ फीट तक ऊंचा होता है। शाखाएं, सीधी और गूदेदार होती हैं और कांटे चौथाई से आध इंच तक लंबे जोड़े में होते हैं। इन कंटकीभूत उपपत्रों के परस्पर मिलने से कांड पंचकोणीय बन जाता है। लकड़ी कोमल होती है। प्रायः शाखाओं के अंत में चारों ओर से गुच्छाकार पत्ते लगे रहते हैं। वे पत्थरचट्टे के सामान मोटे, ६ से १२ इंच तक लंबे, अभिलट्वाकार होते हैं। अधः पत्रावलि पीताभ होती है। फूल छोटे-छोटे हरापन युक्त पीले और फल आधा इंच तक चौड़े होते हैं। बीज चपटे तथा कोमल लोमयुक्त होते हैं। इसकी शाखाओं और पत्तों से दूध निकलता है। (भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३०८ )
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णागलया
णागलया (नागलता) पान की बेल
ओ० ११ जीवा० ३ / २६६ ३ / ५८४० १/४०/३ नागलता | स्त्री | नागवल्ल्याम् । वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० ६८ ) नागलता के पर्यायवाची नाम
अथ भवति नागवल्ली ताम्बूली फणिलता च सप्तशिरा पर्णलता फणिवल्ली भुजंगलता भक्ष्यपत्री च । ।२४६ ।। नागवल्ली, ताम्बूली, फणिलता, सप्तशिरा, पर्णलता. फणिवल्ली, भुजंगलता, भक्ष्यपत्री ये नागवल्ली के संस्कृत नाम हैं। (राज० नि० ११ / २४६ पृ०३६० )
पान लला
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - पान | बं० - पान | म० - नागवेल, विड्याचेपान । ते० - तमालपाकु । ता० - वेत्तिलै । गु० - नागरबेल | मा०नागरबेल | मला० - वेत्तिल । फा० - तंबोल, बर्गे तम्बोल । अ०- तंबूल । अं०-Betal leaf (बिटल लीफ) । ले० – Piper betle linn (पाइपर वीटल लिन० ) Fam Piperacear
(पाइपरेसी) ।
उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष, लंका एवं मलयद्वीप के उष्ण एवं आर्द्रप्रदेशों में इसकी खेती की जाती है 1
विवरण- इसकी मूलरोहिणी लता अत्यन्त सुहावनी और कोमल होती है। कांड अर्धकाष्ठमय मजबूत तथा गांठों पर मोटा रहता है। पत्ते पीपल के पत्तों के समान बड़े, चौड़े, अंडाकार कुछ हृदयाकृति, कुछ लंबाग्र, प्रायः ७ शिराओं से युक्त, चिकने, मोटे एवं करीब १ इंच लम्बे पर्णवृन्त से युक्त रहते हैं। पुष्प अवृन्त काण्डज पुष्पव्यूहों में आते हैं। फल करीब दो इंच लम्बे, मांसल, लटकते हुए व्यूहाक्ष में छोटे-छोटे बहुत फल रहते हैं। पान में मनोहर गंध रहती है तथा इसका स्वाद कुछ उष्ण एवं सुगंधयुक्त रहता है।
इसके खेत की जमीन बीच में ऊंची और दोनों किनारे नीची होती है। इसके खेते में पानी नहीं ठहरता । धूप और पाले से बचाव के लिए खेते के चारों ओर फूस की दीवार और छाजनी बना देते हैं। खेते के भीतर क्यारी बनाकर फरहद, जियल इत्यादि की डालियां लगा देते हैं । इन्हीं के सहारे पान की बेल फैलती है । बंगला, सांची, महोबा, महाराजपुरी, विलोआ, कपुरी, फुलवा इत्यादि नामों से इसकी कई जातियां होती हैं । धन्वन्तरिनिघंटु में इसके कृष्ण और शुभ्र ये दो भेद लिखे हैं। राजनिघंटु में श्रीवाटी (सिरिवाडी पान) अम्लवाटी (अंबाडेपण) सतसा (सातसीपर्ण) गुहागरे (अडगरपर्ण) अम्लसरा ( मालव में होने वाला अंगरापर्ण) पटुलिका (आंध्र में होने वाला पोटकुली पर्ण) एवं ह्वेसणीया (समुद्रदेश पर्ण) ये पान के सात भेद लिखे हैं । (भा०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ०२७२)
जैन आगम वनस्पति कोश
लिए रिवण
णालिएरिवण (नालिकेरीवन) नारियलों का वन जीवा०३/५८१
देखें नालिएर शब्द |
णालीया
णालीया (नाडीका) नाडीशाक
प०१/४०/१
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नाडीका के पर्यायवाची नाम
नाडीकं कालशाकं च, श्राद्धशाकं च कालकम् ।। नाडीका, कालशाक, श्राद्धशाक और कालक ये नाडीका के पर्यायवाची नाम हैं।
(भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०६६८)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - नरिंचा, नाडी का शाक, तीतापाट । बं०नालिता शाक, चिनल्तेपात, तितपाट, नची । म० - चोंचे, सण | गु० - छंछ, अलवी, नीलानी भाजी । ले० - Corchorus capsularis linn (कोर्कोरस कॅपसुलेरिस ) Fam, Tillaceae (टिलिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान - यह गरम प्रदेशों में अधिक उत्पन्न होता है।
विवरण- इसका क्षुप ३ से ४ फीट तक ऊंचा होता है । पत्ते २ से ४ इंच लम्बे, आध से पौन इंच चौड़े, प्रासवत् अथवा आयताकार, लम्बाग्र एवं आरावत् दन्तूर होते हैं । फूल पीले रंग के आते हैं। फल गोलाकार, पांच भागवाले तथा पृष्ठ पर दानेदार होते हैं। बीज ताम्ररंग के होते हैं। इसके कृषित भेद में यह १० से १२ फीट तक ऊंचा रहता है। (भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०६६६)
बि
निंब (निम्ब ) नीम
निम्ब के पर्यायवाची नाम
निम्बो नियमनो नेता, पिचुमंदः सुतिक्तकः । । अरिष्टः सर्वतोभद्रः, प्रभद्रः पारिभद्रकः । २६ ।। निम्ब, नियमन, नेता, पिचुमन्द, सुतिक्तक, अरिष्ट, सर्वतोभद्र, प्रभद्र, पारिभद्रक ये निम्ब के पर्यायवाची नाम हैं।
भ०२२ / २ प ०१ / ३५/१
( धन्व०नि० १/२६ पृ०२५)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - नीम | बं० - निम, निमगाछ । म० - निंब, लिंब, कडूनिंब, बालंतनिंब। गु० - लींबडो लीमडो । पं० - निंब, निम । उरि० - नीमो । ता० - बेप्पु, बेम्बु । ते० - वेप । मल० - आर्यवेप्पू, वेप्पू । क० - बेविनमर ।
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अ०--आजाद दख्तुल हिंद | फा० - नीब । अंo - Neem tree ( नीमट्री) Margosa ( मार्गोसा) Indian lilac (इन्डियन लिलॅक) | ले० - Azadirachta indica. A. Juss (एझाडिरेक्टा इन्छिका ए. जस) Melia azadirachta linn (मेलिआएझाडिरेक्टा लिन० ) Fam, Meliaceae (मेलिएसी) ।
नीम.
उत्पत्ति स्थान- नीम के लगाये वृक्ष इस देश के सभी प्रान्तों में पाये जाते हैं। दक्षिण एवं वर्मा के शुष्क जंगलों में यह जंगली स्वरूप में पाया जाता है ।
विवरण - यह ४० से ५० फीट ऊंचा अनेक शाखा प्रशाखाओं से युक्त सघन और छायादार होता है। छोटी-छोटी टहनियों के अंत में ८ से १५ इंच लम्बे असमपक्षवत् पत्ते रहते हैं। पत्रक संख्या में १४ से १६ विपरीत या एकान्तर टेढे भालाकार, ४ से ५ अंगुल लम्बे, १ से १.५ गुल चौड़े, नुकीले और दन्तुर होते हैं । वसन्त ऋतु में पुराने पत्ते गिर जाते हैं और नवीन पत्ते निकलने के साथ छोटे-छोटे सफेद रंग के सुगंधयुक्त फूलों के गुच्छे लगते हैं। फल करीब १/२ इंच रिवरनी के समान लम्बाई लिये गोल होते हैं। जिसमें एक एक बीज होते हैं। बीजों को निम्बोली कहते हैं । इसकी छाल से एक स्वच्छ चमकीला, अम्बर के वर्ण का गोंद निकलता है। इसकी छाल मूलत्वक्, पत्र, गोंद, फल, बीज, पुष्प, ताड़ी एवं तैल का चकित्सा में व्यवहार किया जाता है। (भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३२६ )
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निंबारग
निंबारग (निम्बरक निम्बकर) महानीम, बकायन
भ० २२/२
निम्बरकः । पुं । महानिम्बे (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६०६) निम्बकर के पर्यायवाची नाम
महानिम्बो निम्बकरः, कामुको विषमुष्टिकः । रम्यको गिरिकोद्रेकः क्षारः स्यात् केशमुष्टिकः । ।४१।। महानिम्ब, निम्बकर, कामुक, विषमुष्टिक, रम्यक, गिरिक, अद्रेक, क्षार, केशमुष्टिक ये नाम बकायन के हैं। (मदन०नि० अभयादि वर्ग० १ / १४१ पृ० २६) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - महानिम्ब, घोड़ाकरंज । बं०- महानिम | म० - महारूक्ष | गु० - मोटो असो, अरलबो । पं० - अरूअ । ता० - पेरूमरूत्तु । ते० - पेद्दमानु । क० - दोडुमणि । मल०पेरूमरम् । उरि० - महानिम, महाल। ले०- Ailanthus excelsa Roxb (एइलेन्थस, एक्सेल्सा राक्स) Fam. Simarubaceae (सिमारूबेसी) ।
विमर्श - महानीम के दो भेद होते हैं। एक भेद में फल में ५ बीज होते हैं, दूसरे भेद में एक फल में एक ही बड़ा-सा बीज होता है। (धन्व०वनौ० विशेषांक भाग ४ पृ० १६०) प्रस्तुतप्रकरण में निंबारगशब्द एगट्ठियवर्ग के अन्तर्गत है इसलिए दूसरा भेद ग्रहण किया जा रहा है। उत्पत्ति स्थान - यह भारत के कई प्रान्त - उत्तर
जैन आगम वनस्पति कोश
प्रदेश, बिहार, पश्चिमी पेनिनसुला, कर्नाटक एवं गुजरात आदि में पाया जाता है।
विवरण - इसका वृक्ष ६० से ८० फीट ऊंचा होता है । छाल धूसर वर्ण की होती है। पत्ते २ से ३ फीट लंबे पक्षवत् संयुक्त पत्र होते हैं। पत्रक ३.५ से ६ इंच लंबे, २ से ३ इंच चौडे, अधरतल पर रोमश, नोकदार, दन्तुर, धारवाले, तिरछे आधार वाले, संख्या १० से १३ जोड़े, १ से २ इंच लंबे वृन्त से युक्त एवं आधार के पास दो रोमश ग्रंथियों से युक्त होते हैं। पत्तों में उग्रगंध आती है। पुष्प पीताभ बड़ी-बड़ी मंजरियों में आते हैं। फल छीमी की तरह बीच से फूला हुआ एवं अन्त में अकुड़ेदार होता है जिसमें एक बीज रहता है तथा उसमें अप्रिय गंध आती है । (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३३३) णिग्गुंडी
णिग्गुंडी (निर्गुण्डी) नील सम्हालू
निर्गुण्डी के पर्यायवाची नाम
प० १/३७/३
पत्र
सिन्दुवारः श्वेतपुष्प, सिन्दुकः सिन्दुवारकः ।
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137 नीलपुष्पी तु निर्गुण्डी, शेफाली सुवहा च सा ।।११३।। निष्पाव के पर्यायवाची नाम
सिन्दुवार, श्वेतपुष्प, सिन्दुक, सिन्दुवारक, सफेद निष्पावो राजशिम्बिः स्याद्, राजवल्लकः श्वेतशिम्बिकः । फूल वाले सम्हालू के संस्कृत नाम हैं। निर्गुण्डी, शेफाली निष्पावो यह लोक में राजशिम्बी का बीज अथवा और सुवहा ये नील पुष्प वाले सम्हालू के नाम हैं। भटवासु इस नाम से प्रसिद्ध है। इसके संस्कृत
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३४४) नाम-निष्पाव, राजशिम्बि राजवल्लक, तथा श्वेतशिम्बिक अन्य भाषाओं में नाम
ये सब है।
(भाव०नि०पृ०६४६) हि०-सम्भालू, सम्हालू, सन्दुआर, सिनुआर, अन्य भाषाओं में नामभेउडी । बं०-निशिन्दा । म०-लिंगड, निगड, निर्गुण्डी। हि०-निष्पाव, भटवासु, बल्लार, सेम। प०-बन्न, भरवन, मौरा । गु०-नगोड, नगड। ता०- बं०-मखानसिम। म०-पावटे, वाल। गु०-ओलीया, नोच्चि । म०-करिनोञ्चि । ते०-वाविली, तेल्ला वाविली। ओलियवाल । क०-अवरे। ते०-अनुमूल। ताo-मोचै। क०-बिलिनेक्कि। फा०-पंजंबगुस्त। अ०-असलक। अंo-Flat Bean (फ्लॅट बीन)। ले०-Dolichos lablab अंo-Five leaved chaste Tree (फाइव लिब्ड चेष्ट ट्री) linn (डोलिकोस् लब्लब). leguminosae (लेग्युमिनोसी)। Indian privet (इंडियन प्रिवेट)। ले०-Vitex negundo उत्पत्ति स्थान-यह जंगली तथा कृषित दोनों Linn (वाइटेक्स नेगुण्डो लिन०) Fam. Verbenaceae प्रकार का सभी स्थानों पर होता है। दक्षिण में विशेषरूप (बर्विनेसी)।
से मैसूर में यह अधिक होता है। वरण-इसके बडे-बड़े गल्म प्रायः ६ से २८ फीट विवरण-इसकी लता होती है। पत्ते त्रिपत्रक होते ऊंचे अथवा कभी-कभी बड़े वृक्ष के समान होते हैं। इस हैं। पुष्प सीधे दण्ड पर विभिन्न रंगों के किन्तु विशेषरूप पर श्वेताभ रोमावरण होता है । छाल पतली, चिकनी तथा से गुलाबी और श्वेत होते हैं। फली आयताकार, ३ इंच धूसरवर्ण की होती है। पत्ते सदल तथा ३ से ५ पत्रकों लम्बी तथा ४ से ६ बीजयुक्त होती है। हरी फलियों के से युक्त होते हैं। पत्रक भालाकार, लम्बाग्र, अखण्ड या ऊपर की तैल ग्रन्थियों से दुर्गन्धयुक्त तैल निकलता है। गोल दन्तुर, २ से ५ इंच लंबे, १/२ से १.५ इंच चौड़े इसके अनेक प्रकार बीजों के रंग, आकार आदि के तथा छोटे बड़े आकार के होते हैं। अग्र का पत्रक लंबा अनुसार होते हैं। एवं उसका वृन्त भी लंबा होता है। नीचे के पत्रक या
(भाव०नि०धान्यवर्ग० पृ०६४६) बगल वाले पत्रक छोटे तथा वृन्त के होते हैं। वे ऊपर से हरे तथा नीचे श्वेताभ वर्ण के होते हैं। पुष्प आयताकार
णिरुहा और २ से. इंच लंबी मंजरियों में निकले रहते हैं। ये
णिरुहा ( )
प०१/४८/३ श्वेत या हलके नीले (बैंगनी) रंग के होते हैं। फल छोटे,
देखें निरुहा शब्द गोल १/४ इंच व्यास के तथा पकने पर काले रंग के होते हैं। इसकी जड़ पर एक पराश्रयी वनस्पति पाई जाती है। यह वर्षा काल में होती है तथा अक्टूबर, नवम्बर तक
णीम परिपक्व होने पर इसके कंद को संग्रह कर सुखा कर इसका चूर्ण बना प्रयोग करते हैं।
णीम (नीप) कदम्ब, धाराकदंब। प०१/३६/३ (भाव०नि०. गुडूच्यादि वर्ग पृ० ३४४,३४५) नीप के पर्यायवाची नाम
धाराकदम्बः प्रावृष्यः, पुलकी भृङ्गवल्लभः । णिप्फाव
मेघागमप्रियो नीपः, प्रावषेण्यः कदम्बक: ।।६६ || णिप्फाव (निष्पाव) सेम
धाराकदम्ब, प्रावृष्य, पुलकी, भुंगवल्लभ, मेघागमप्रिय, ठा०५/२०६
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नीप, प्रावृषेण्य तथा कदम्ब ये सब धाराकदंब के नाम यह कृष्ण, श्वेत, पीत तथा लोहित वर्ण विशेष से
(राज०नि०६/६६/ पृ०२८४) चार प्रकार का होता है। (राज0 नि० वर्ग०१०/११८ पृ०३२०) अन्य भाषाओं में नाम
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में यह नीले रंग की उपमा हि०-हल्दु । म०-धारा कदम्दु । कं०-धारेयकइड। के लिए व्यवहृत हुआ है। तै०-मोगुलुकोई मि। गो०-केलिकदम्ब । (राज०नि०पृ०२८४)
णीलासोग उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के निचले भागों में
णीलासोग (नीलाशोक) नव पल्लव वाला कच्चा नेपाल से पूर्व की तरफ वर्मा तक तथा दक्षिण में उत्तरी
अशोक सरकार तथा पश्चिमी घाट में होता है। सभी स्थानों पर
रा०२६ बागों में लगाया हआ भी पाया जाता है।
देखें नीलासोय शब्द । विवरण-कदम्ब का वृक्ष ४० से ५० फीट ऊंचा, बड़ा और छायादार होता है। पत्ते महवे के पत्तों के समान,
णीलासोय लम्बाई युक्त, अंडाकार, ५ से ६ इंच लम्बे होते हैं। इन णीलासोय (नीलाशोक) नव पल्लव वाला कच्चा पर सिरायें बहुत स्पष्ट होती हैं। पुष्पगुच्छ १ से २ इंच
अशोक
जीवा०३/२७६ के घेरे में, गोलाकार नारंगी रंग के अनेक पुष्पगुच्छ होते
देखें नीलासोय शब्द। हैं और उनसे विशेष कर रात्रि में सुगंध आती है। फल कच्चे में हरे और पकने पर फीके नारंगी रंग के, १ से
णीलुप्पल इंच व्यास में गोल तथा मधुराम्ल होते हैं। (भाव०नि० पुष्पवर्ग०पृ०४६६) णीलुप्पल (नीलोत्पल) नीलकमल ।
रा०२६ जीवा० ३/२७६ प० १७/१२४ णीलकणवीर
नीलोत्पल के पर्यायवाची नामणीलकणवीर (नीलकणवीर) नीले पुष्पों वाला
नीलोत्पलं कुवलयं, नीलाब्जमसितोत्पलम् १४४६
इंदीवरं च कालोड़यं, कज्ज्लं काककुड़मलम्।। कनेर रा०२६ जीवा३/२७६५०१७/१२४
नीलोत्पल, कुवलय,नीलाब्ज, असितोत्पल, इंदीवर, विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में नीले रंग की उपमा के
कालोड्य, कज्जल, काककुड्मल ये पर्याय नीलोत्पल के लिए णीलकणवीर शब्द का प्रयोग हुआ है। राजनिघंटु
(कैयदेव० औषधिवर्ग पृ०२६८) (१०/१६ पृ०३००) में कनेर के चार प्रकारों का उल्लेख
देखें अब्भोरुह शब्द। मिलता है "यह (कनेर) चार प्रकार (श्वेतकनेर, लालकनेर, पीतकनेर तथा कृष्ण कनेर) का होता है और गुण में
णीव समान है। लेकिन नील कणवीर का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है।
णीव (नीप) कदम्ब ओ०६ जीवा०३/५८३
देखें णीम शब्द। णीलबंधुजीव णीलबंधुजीव (नील बंधुजीव) नीला गुलदुपहरिया
णीह _रा०२६ जीवा०३/२७६ प० १७/१२४ णीहु (स्निहू) तिधारा थोहर, विलायती थोहर असितसित पीललोहित पुष्प विशेषाच्चतुर्विधो बन्धूकः
भ०७/६६:२३/२ प०१/४८/१ उत्त०३६/६८
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स्निहुः-स्निहुपुष्पं (थोहरपुष्प) प्रज्ञापना टीका पत्र ३७) जाते हैं।
विवरण-इसके झाड़ीदार वृक्ष या क्षुप १२ से १५ फुट तक ऊंचे कंटकयुक्त, कांड छोटे-छोटे खंडयुक्त, शाखाएं नरम, पतली, गहरे हरे रंग की तथा तीन, कभी-कभी चार या पांच धारों या पत्रों वाली, जिनपर कंटक प्रचुर, उपपत्र छोटे-छोटे, पुष्प प्रायः १/२ इंच बड़े हरिताभ पीत या लाल रंग के द्विलिंगी, फल १/२ इंच व्यास के गोल होते हैं। कहा जाता है कि जिस घर की छतपर तिधारा थूहर के गमले होते हैं उस घर पर बिजली नहीं गिरती।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ४०६)
ALS
णोमालिय णोमालिय (नवमालिका) नेवारी
रा० ३० जीवा०३/२८३, २६६ प० १/३८/१ नवमल्लिका (ल्ली:) (मालिका) स्त्री। स्वनामख्याते पुष्पवृक्षविशेषे । सा ग्रीष्मोद्भवा, वासन्ती, नेयाली, सेउती नेवारी इति लोके।
(वैद्यक शब्दसिन्धु पृ० ५६४) विमर्श-टीकाकार ने णीहु शब्द की छाया स्निहु नवमालिका के पर्यायवाची नामकी है और उसका अर्थ थोहर किया है। संस्कृत शब्द नेपाली ग्रैष्मिकी ग्रीष्मा, सुगन्धा वनमालिका। कोशों में थोहर के लिए स्नुहा, स्नुहि और स्नुही आदि लूता मर्कटका कान्ता, ग्लायिनी नवमालिका । ।१५२७ । शब्द मिलते हैं परन्तु स्निहुशब्द नहीं मिलता है। स्नुही काकाहृता शिखरिणी, सुमनाः शिशुगंधिका ।। का अर्थ तिधार थोहर किया गया है।
ग्रैष्मिकी, ग्रीष्मा, सुगंधा, वनमालिका, लूता, स्नुहा (हिः, ही) स्त्री। स्वनामख्यात क्षीरसारवृक्षे, मर्कटका कान्ता, ग्लायिनी, नवमालिका, काकाहृता, स्नुहीविशेषे । हि०-थोहर, तिधार, जाकुनिया। शिखरिणी, सुमना और शिशुगंधिका ये नेपाली के
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११६६) पर्याय हैं। स्नुही, गुडा-ये बिलायती थोहर के नाम हैं।
(कैयदेव० नि० ओषधि वर्ग पृ० ६२६) (अभिधान चिंतामणीकोश श्लोक ११४०) अन्य भाषाओं में नामअन्य भाषाओं में नाम
हिo-नेवारी, वासंती, चमेली। बं०-बुराकुन्दा, हि०-तिधारा थूहर। म०-तीनधारी निवडुंग। बदकूद, नवमल्लिका। गु०-गुंदा। मुं०-कुसर | गु०-अधारियोथूहर । अंo-Triangular spurge (ट्रायंगुलर ता०-नागमल्ली ते०-नागमल्ले। ले०-Jasminum स्पज)। लेo-Euphorbia Antiqurum (युफोर्बिआ arborescens Roxb (जस्मिनम् आर् बोरेसेन्स)। एटिकोरम)।
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय में ४००० फीट की ___ उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप प्रायः सभी उष्ण, शुष्क ऊंचाई तक तथा बंगाल, छोटानागपुर, उड़ीसा, मध्य स्थानों में पाये जाते है। ये प्रायः खेतों की बाडों में लगाये तथा दक्षिण भारत एवं गंजम और विजगापट्टम के पहाड़ों
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पर होता है।
भेदों का वर्णन धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक में इस विवरण-यह झाड़ीदार वृक्ष होता है। शाखायें प्रकार हैरोमश होती हैं। पत्ते साधारण विपरीत, ५ से ७.५ से.मी. इसके अनेक भेद और उपभेद हैं। उनमें से प्रमुख लंबे अंडाकार या अंडाकारआयताकार, लंबाग्र तथा १ से भेद इस प्रकार है (A) बेला (B) वासन्ती (नेवारी) (C) २ से.मी. लंबे पत्रनाल से युक्त होते हैं। पुष्प अत्यन्त इसका दूसरा भेद वनमल्लिका, मदयन्ती, भूपदी, सुगंधित, सफेद रंग के, २.५ से ३.३ से.मी. व्यास में एवं अतिमुक्ता (मोतिया, बुटमोगरा, बेलमोगरा) है । (D) चंबा, मृदुरोमश होते हैं। इनके खण्ड नलिका से बड़े या बराबर मोतिया, बनसू, जेहसिंग (E) हरेल चारा (नेपाली नाम) होते हैं। अन्तर्दल नलिका १ से १.३ से.मी. तथा खण्ड (F) कस्तूरी मल्लिका (G) बेलाकुंद भी इसकी एक जाति ६ से १२ रहते हैं। स्त्रीकेशर १, आयताकार या अंडाकार विशेष है। (H) बिख मोगरा (I) एक एरण्ड कुल का दूध १, ३ से.मी. लंबा एवं काला होता है।
मोगरा होता है। (भाव०नि०पुष्पवर्ग, पृ० ४८६,४६०) (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० २१७ से २१६)
णोमालिया
तउसी णोमालिया (नवमालिका) नेवारी
तउसी (त्रपुषी) खीरा, बालमखीरा रा०३० जीवा० ३/२८३
भ. २२/६ प० १/४०/१ देखें णोमालिय शब्द।
त्रपुषी के पर्यायवाची नाम
त्रपुषी, पीतपुष्पी, कण्टालु स्त्रपुसकर्कटी। __णोमालिया गुम्म
बहुफला कोशफला, सा तुन्दिलफला मुनिः।।२०५ ।।
त्रपुषी, पीतपुष्पी, कण्टालु, त्रपुस कर्कटी, बहुफला, णोमालियागुम्म (नवमालिका गुल्म) नेवारी का कोशफला, तुन्दिलफला ये सब खीरा के संस्कृत गुल्म
जीवा० ३/५० पर्यायवाची नाम हैं। इसके कांड की ऊंचाई ५ से ७ फुट की होती है।
(राज०नि०७/२०५ पृ० २२८) (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० १६६)
di
पहाणमल्लिया ण्हाणमल्लिया (स्नान मल्लिका) मोगरा का एक भेद
रा०३० जीवा०३/२८३ विमर्श-मल्लिका संस्कृत भाषा का शब्द है। हिन्दी भाषा में इसे बेला (मोगरा) कहते हैं। स्नानमल्लिका भी इसका एक भेद होना चाहिए। निघंटुओं में और आयुर्वेद के कोशों में इसका नाम नहीं मिलता। मल्लिका के अनेक भेद और उपभेद होते हैं। कुछेक नाम मिलते हैं, जो आगे दिए जाते हैं। कुछ नाम नहीं मिलते। संभव है कस्तूरी मल्लिका, वनमल्लिका की तरह स्नानमल्लिका भी एक अन्य भाषाओं में नामनाम होना चाहिए।
हि०-खीरा, बालमखीरा। बं०-क्षीरा, शाशा।
रवीरा.(ग)
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dite Amaranth (हरमाफ्रो एमेरेंथ)। ले०-Amaranthus Spinosus linn (अॅमॅरेन्थस् स्पाईनोसस्)| Fam, Amaranthaceae (अमरेन्थेसी)।
............. . Amaranthus spinosus Linn.
म०-तौसे। क०-तसेयकायि। गु०-तांसली। ते०- दोसकाई। ताo-मुल्लुवेल्लेरी। फा०-शियार खुर्द, खयार, वावरङ्ग। अ०-कंशद। अंo-Cucumber (क्युकुम्बर) ले०-Cucumis Sativus Linn (क्युक्युमिस
* स्टाइवस) Fam. Cucurbitaceae (कुकुर्बिटेसी)।
उत्पत्ति स्थान-प्रायः सब प्रान्तों में इसकी खेती की जाती है।
विवरण-इसकी बेल खेतों में फैली हुई रहती है। पत्ते ५ से ६ इंच के घेरे में गोलाकार और पांचकोण वाले होते हैं। फूल पीले रंग के होते हैं। फल ६ से १२ इंच तक लंबे होते हैं और उनमें ककड़ी के समान बीज होते हैं। एक बड़ी जाति का खीरा होता है, जिसको बालमखीरा कहते हैं। इसकी लम्बाई अधिक होती है। इसका एक प्रकार 'मुंडोसा' मद्रास की तरफ अधिक प्रचलित है, जिसके फलों पर छोटे कांटे होते हैं।
(भाव०नि०आम्रादिफलवर्ग०पृ०५६२)
तंदुलेज्जग तंदुलेज्जग (तण्डुलीयक) चौलाई का शाक।
भ०२०/२० प०१/४४/१ तण्डुलीयक के पर्यायवाची नामतण्डुलीयस्तु भण्डीरस्तण्डुली तण्डुलीयक:
उत्पत्ति स्थान-यह देश के प्रायः सब प्रान्तों के ग्रन्थिली बहुवीर्यश्च, मेघनादो घनस्वनः ।।७३।। खेत, बाग, बगीचों में और वीरानभूमि में आप ही आप सुशाकः पथ्यशाकश्च, स्फूर्जथुः स्वनिताह्वयः। उत्पन्न होती है। वीरस्तण्डुलनामा च, पर्यायाश्च च तुर्दश।।७४|| विवरण-इसका क्षुप २ फीट तक ऊंचा और
तण्डुलीय, भण्डीर, तण्डुली, तण्डुलीयक, ग्रन्थिली, शाखाएं झाड़ीदार होती हैं। पत्ते १.५ से २ इंच लम्बे चौडे, बहुवीर्य, मेघनाद, घनस्वन, सुशाक, पथ्यशाक, स्फूर्जथु, भालाकार किन्तु नोकरहित होते हैं। पत्तों की जड़ में स्वनिताह्वय, वीर तथा तण्डुलनामा ये सब चौलाई के महीन तीक्ष्ण कांटे होते हैं। काण्ड पर वारीक फूलों के चौदह संस्कृत नाम हैं।
गुच्छे रहते हैं। इनमें से वारीक काले रंग के गोल,
(राज०नि०५/७३ पृ०११६) चमकाले बीज निकलत है।। अन्य भाषाओं में नाम
कांटेवाली, बिना कांटेवाली, हरे पत्ते की, लाल पत्ते हि०-चौलाई का शाक, चौराई का साग, कटैली की और नीलापन युक्त लाल अथवा लालीयुक्त नीले पत्ते चवलाई। ब०-कांटानटे। म०-कांटेमाठ, तण्डलिजा। की-इस प्रकार चौलाई कई प्रकार की होती है। क०-किरु कुशाले। गु०-कांटालो डाभो। क०
(भाव०नि०शाकवर्ग०पृ०६६७) मुल्लुहरिवेसोप्पु। तेo-मोलाटोटा कुरा । ताo-मुलुक्कोरै। अंo-Prickly Amaranth (प्रिक्ली अॅमॅरेन्थ) Hermaphro
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तंबोली तंबोली (ताम्बूली) पान
जीवा०३/२६६ ताम्बूली के पर्यायवाची नाम
ताम्बूलवल्ली ताम्बूली, नागिनी नागवल्लरी। ताम्बूलं विशदं रुच्यं, तीक्ष्णोक्ष्णं तुवरं सरम् ।।११।।
ताम्बूलवल्ली, ताम्बूली, नागिनी, नागवल्लरी और ताम्बूल ये संस्कृत नाम पान के हैं। (भाव०नि०पृ०२७२) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पान। बं०-पान। म०-नागवेल, विड्याचेपान। तेल-तमालपाकु। ता०-वेत्तिलै । गु०-नागरबेल। मा०-नागरबेल। मला०-वेत्तिल । फा०-तंबोल, वर्गे तम्बोल। अ०-तंबूल । अंo-Betel leaf (विटल लीफ)। ले०-Piper Betel linn (पाइपर वीट लिन०) Fam. Piperaceae (पाइपरेसी)।
बड़े, चौड़े, अंडाकार, कुछ हृदयाकृति, कुछ लंबाग्र, प्रायः ७ शिराओं से युक्त, चिकने, मोटे एवं करीब १ इंच लम्बे पर्णवृन्त से युक्त रहते हैं। पुष्प अवृन्त काण्डज पुष्पव्यूहों में आते हैं। फल करीब दो इंच लम्बे, मांसल, लटकते हुए व्यूहाक्ष में छोटे-छोटे बहुत फल रहते हैं। पान में मनोहर गंध रहती है तथा इसका स्वाद कुछ उष्ण एवं सुगंधयुक्त रहता है।
इसके खेत की जमीन बीच में ऊंची और दोनों किनारे नीची होती है। इससे खेते में पानी नहीं ठहरता। धूप और पाले से बचाव के लिए खेत के चारों ओर फूस की दीवार और छाजनी बना देते हैं।
खेते के भीतर क्यारी बनाकर फरहद, जियल इत्यादि की डालियां लगा देते हैं। इन्हीं के सहारे
पान की बेल फैलती है। बंगला, सांची, महोवा, माराजपुरी, विलोआ, कपुरी, फुलवा इत्यादि नामों से इसकी कई जातियां होती हैं। (भाव०नि०पृ०२७२)
HARA
MAN
AL
XII
तक्कलि तक्कलि (तर्कारि) गणिकारिकावृक्ष, अरणी
भ०२२/१ प०१/४३/१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में तक्कलिशब्द वलयवर्ग के अन्तर्गत है। अरणी की छाल होती है इसलिए यहां अरणी अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। तेलगु भाषा में अरनी का नाम तक्किली चे? है।
(वनौषधि चंद्रोदय भाग १ पृ०७६) तर्कारि के पर्यायवाची नाम
अग्निमन्थो जयः स स्याच्छ्रीपर्णी गणिकारिका। जया जयन्ती तारि नादेयी वैजयन्तिका।।२३।।
अग्निमंथ, जय, श्रीपर्णी, गणिकारिका, जया, जयन्ती, तर्कारि नादेयी और वैजयन्तिका ये सब संस्कृत नाम अगेथु या अरनी के हैं।
(भाव०नि०गुडूच्यादि वर्ग पृ०२८१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-अरनी, अरणी, गणियारी,रेन, गनियल। म०-टांकला, थोर, टाकली, नरवेल, एरण | गु०--अरणी, एरण । बं०-गनिर, आगगन्त, भत विरखी। ते०-तक्किली
उत्पत्ति स्थान भारतवर्ष, लंका एवं मलयद्वीप के उष्ण एवं आर्द्रप्रेदशों में इसकी खेती की जाती है।
विवरण-इसकी मूलारोहणी लता-अत्यन्त सुहावनी और कोमल होती है। कांड-अर्धकाष्ठमय, मजबूत तथा गाठों पर मोटा रहता है। पत्ते पीपल के पत्तों के समान,
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चेट्टु । द्रावि०-बन्निभरम | ले० - Premna Interfolia (प्रेम्ना इंटरफोलिया) Clerodendron phlomoides (क्लेरोड्रेन्ड्रान पलोमायडिस) ।
अरणी संस्कृत में उस मन्थन काष्ठ को कहते हैं जिसके परस्पर मथने और घर्षण से अग्नि पैदा होती है। इसीलिए अरनी को संस्कृत का प्रसिद्ध नाम अग्निमंथ दिया गया है। डा० गेम्बल साहब का कथन है कि सिक्किम के पहाड़ी लोग अब भी अग्नि पैदा करने के लिए इसकी लकड़ी का उपयोग करते हैं । अरणि के पत्तों और पुष्पों के गुच्छे के गुच्छे पताकाकर शोभायमान दृष्टिगोचर होते हैं । इसीलिए संभवतः इसके कई नाम संस्कृत में वैजयन्तिका आदि पताका वाचक रखे गए हैं। नदी के ऊंचे कगारों पर यह बहुतायत से होती है इससे इसका एक संस्कृत नाम 'नादेयी' नदीजा भी पड़ा 1 रोगों पर यह जय प्राप्त करती है अतः जय, जया, विजया भी कहती है । उष्ण वीर्य होने से अथवा रोगों को अग्नि के समान नष्ट करने के कारण इसको पावक ज्योतिष्क आदि अग्निवाचक नाम दिए गए हैं।
Premna integrifolia Linn
पुष्प
'पत्ता
निघंटुकारों ने बड़ी और छोटी के भेद से इसके दो प्रकार बतलाये हैं। बड़ी अरनी दो प्रकार की है और
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छोटी भी दो प्रकार की है। बड़ी और छोटी अरनी का खास भेद यह भी है कि बड़ी अरनी के वृक्ष के कांड बृहत् तथा दृढ होते हैं और उनकी तीक्ष्णाग्र शाखायें परस्पर एक छोटी के विपरीत विस्तीर्णरूप से फैली हुई होती है। क्षुद्र अरनी का वृक्ष बहुत छोटा गुल्म रूपमें होता है।
उत्पत्ति स्थान- बड़ी अरनी बंगाल, बिहार, अवध, गढ़वाल राजपूताना, मध्यप्रदेश, बम्बई आदि दक्षिण भारतवर्ष और सिलोन में पायी जाती है ।
विवरण - बड़ी अरनी के पेड़ १० से ३० फीट तक ऊंचे होते हैं। तथा बैंगनी या काले और श्वेत रंग के फूलों के भेद से इसके दो प्रकार माने गए हैं। इसकी जड़ से ही प्रायः ३ या ४ शाखाएं निकलती हैं, अतः इसका कांड बहुत मोटा नहीं होता। इसकी जड़ से ही पेड़ों की कई शाखायें होती हैं, इसका कारण यही है कि इसके फल में अनेक सूक्ष्म बीज होने से एक साथ अंकुरित होकर पौधे तैयार होते हैं। यदि इसकी आबादी पर कुछ ध्यान दिया जाय तो यह पेड़ कुछ और मोटा स्तम्भ वाला हो सकता है। जहां इसका जंगल होता है वहां इसके वृक्ष एक दूसरे के साथ इस प्रकार संगठित रहते हैं कि इनको पार करना कष्टसाध्य हो जाता है, इनकी पुरानी शाखाओं पर जो नई टहनियां निकलती हैं, वे प्रायः सूख कर झड़ जाती हैं, तथा इसके शेष भाग ३ से ४ इंच लम्बे जो उन पर लगे रहते हैं, वे मजबूत कांटे के समान हो जाते हैं। इसकी लकड़ी भी मजबूत होती है। पुरानी टहनियों पर भी छोटे-छोटे उक्त प्रकार के कांटे होते हैं ।
मूल जमीन में गहरी गई हुई सुदृढ़ और कई उपमूलों से युक्त होती है। मूल की लकड़ी धूसर या खाकी रंग की तथा अंदर से चक्राकार एवं सच्छिद्र होती है। मूल की छाल जाडी, पोची कुछ श्वेत या भूरे रंग की, सुगन्धित, स्वाद में कसैली चरपरी और कुछ कडवी सी लगती है । प्रकाण्ड और ऊपर की शाखायें फीके श्वेत वर्ण की लम्बी, खड़ी दरारों से युक्त होती है। पत्र टहनियों पर आमने सामने लगते हैं। ये निम्नभाग में चौड़े और अग्रभाग की ओर कुछ सकरे से प्रायः त्रिकोणाकार, जाडे दोनों ओर से फीके नीले वर्ण के होते हैं। लम्बाई में अर्ध इंच से ५ इंच तक लम्बे, और अर्ध से चार इंच तक चौड़े
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तगरपादुका, शुमियो, असारून । म०-तगर गण्ठोडा, तगरमूला । गु०-तगरगण्ठोडा । फा०-असारून । उ१०रिशवाल। पं०-बालमुश्क, मुश्कवली। उत्कल०पाणिफलरा। गौo-तगर पादुका, गिउलीछीप । नै०चम्मा। पिण्डीतगर इति कोंको प्रसिद्धम् । अंo-Indian Valerian Rhiyzme (इन्डियन बेलेरियन हाइजोम)। ले०Valeriana wallichii DC (वॅलेरिआना वालिशिआई) Fam.Valerianaceae (वॅलेरिअॅनेसी)।
पुष्य मुच्छ
होते हैं। इसके नवीन पत्र किनारे कटे हुए कंगूरेदार और अनीदार होते हैं। इन पत्रों के पुराने होने पर इनके कंगूरे गायब हो जाते हैं। चैत, वैशाख में तथा दक्षिण में कहीं-कहीं कार्तिक और मार्गशीर्ष में इसके वृक्ष सुपल्लवित और सुपुष्पित बड़े ही मनोहर दिखाई देते हैं। पुष्प छोटे-छोटे नीलापन लिये श्वेत वर्ण के और किसी-किसी में बैंगनी रंग के गुच्छों में निकलते हैं। ये पुष्प प्रायः ५ पंखुड़ी वाले, बाहर से ढके हुये होते हैं। इनमें प्रायः चमेली के पुष्पों जैसी सुगन्ध आती है किन्तु काली अरणी के पुष्पों की गंध विशेष प्रिय नहीं होती। इसके पत्तों का डंठल आधे इंच से २ इंच तक लम्बी होती है। पत्तों को मसलने से नीला या गहरे हरे वर्ण का चिपचिपा सा रस निकलता है। यह गंध में उग्र, स्वाद में चरपरा, कुछ खारापन लिए कडुवा सा लगता है। फल मकोय के फल जैसे झुमकों में लगते हैं। कच्ची दशा में हरे और पकने पर पीतवर्ण या खाकी रंग में होकर अंत में काले पड़ जाते हैं। ये फल वर्षा के प्रारंभ में झड जाते हैं। बीज ताजी अवस्था में श्वेत वर्ण के और फिर धूसर वर्ण के हो जाते हैं। फल के अंदर के बीज चार भागों में विभक्त रहते हैं। किसी वृक्ष के फल में से ४ ही बीज निकलते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० २३५,२३६)
पुषमुहर
VERSA
तगर
रा०३० जीवा०३/२८३ साय तगर के पर्यायवाची नाम
उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप हिमालय पहाड़ के तगरं कुटिलं वर्क, विननं कुञ्चितं नतम्। साधारण भाग में काश्मीर से भूटान तक ४ से १२ हजार शठञ्च नहुषाख्यञ्च, दद्रुहस्तञ्च वर्हणम् ।।१४१।। फीट की ऊंचाई पर तथा खासिया के पहाड़ों पर ४ से
६ हजार फीट की ऊंचाई पर बहत पाये जाते हैं। कालानसारकं क्षत्रं, दीनं जिह्म मुनीन्दुधा ।।१४२।। विवरण-इसका क्षुप किंचित् रोमश एवं बहुवर्षायु
तगर, कुटिल, वक्र, विनम्र, कुञ्चित, नत, शठ, होता है । मूलस्तंभ मोटा अधोगामी, मोटे तंतुओं से युक्त नहुष, दद्रुहस्त, वर्हण, पिण्डीतगर, पार्थिव, राजहर्षण, एवं जमीन में दिगन्तसम फैला रहता है। काण्ड १५.४५ कालानुसारक, क्षत्र, दीन तथा जिह्म ये सब सतरह नाम से.मी. ऊंचे एवं प्रायः गुच्छेदार होते हैं। पत्ते आधारीय, तगर के हैं। (राजनि०१०/१४१, १४२ पृ०३२५,३२६)
पत्र प्रायः २.५ से ६.५ से.मी. व्यास में लम्बे नाल से युक्त, अन्य भाषाओं में नाम
लट्वाकार, आधार पर गहरे ताम्बूलाकार तीक्ष्णाग्र तथा हि०-तगर, सुगंधबाला, मुश्कबाला। बं०- धारयुक्त दन्तुर या लहरदार होते हैं। कांडपत्र संख्या में
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थोड़े बह
बहत छोटे एवं अखंड या खंडित होते हैं। फल श्रेत इसे पीतपष्पा भी कहते हैं। तरवड यह हिन्दी भाषा तथा रंग के या कुछ-कुछ गुलाबी होते हैं और समशिख क्रम मराठी भाषा का शब्द है। संस्कृत में इसका शब्द से शाखाओं पर पाये जाते हैं। ये प्रायः एक लिंगी होते आवर्तकी है। हैं। वृन्तपत्रक-फल के इतने लम्बे आयताकार रेखाकार आवर्तकी के संस्कृत में नामहोते हैं। बाह्यकोश-पुष्पित होते समय बाह्यदल के खंड आवर्तकी तिन्दुकिनी, विभाण्डी पीतकीलका।। क्वचित् व्यक्त लेकिन बाद में करीब १२, रेखाकार, चर्मरङ्गा पीतपुष्पा, महाजाली निरुच्यते।।१६८ // रोमयुक्त खंडों में दिखलाई देते हैं। आभ्यन्तर कोश-यह तिन्दुकिनी, विभाण्डी, पीतकीलका, चर्मरङ्गा, कुप्पी के आकार का पांच खंडों से युक्त तथा फैला हुआ पीतपुष्पा,महाजाली ये आवर्तकी के पर्याय हैं। होता है। फल रोमश या करीब-करीब रोम हीन होते हैं।
(धन्व०नि०१/१६८ पृ०७४) (भा०नि० कर्पूर्रादिवर्ग०पृ०१६६,२०१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-तरवड़, तरवर, खखसा, तरोंदा, आलूण। तडवडा कुसुम
मु०-तरवड, चांभारतरोटा, चांभार आवडी। गु०-आवल ।
बं०-बर्वेर, बरातरोदा। अ०-Tanneris cassia (टेनर्स तडवडा कुसुम। (तरवडका फूल)
केसिया ले०-Cassia Auriculata (केसिया आरिकुलेटा)। रा०२८ जीवा०३/२८१
उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप दक्षिण भारत में मध्य तरवड (आँवल) .
प्रदेश, बरार, तथा गुजरात, काठियावाड, कच्छ, CASSIA AURICULATA LINN.
राजस्थान आदि प्रायः शुष्क स्थानों में अधिक पाये जाते
RE.का भाग
विवरण-शिम्बीकुल के पूतिकरंज उपकुल के, इसके क्षुप अनेक शाखायुक्त, ५ से ६ फुट ऊंचे। पत्र इमली के पत्र जैसे, प्रत्येक सींक पर ८ से १२ तक संयुक्त। पुष्प वर्षाकाल में, पीतवर्ण के छोटे, चमकीले, गुच्छों में, फली लम्बी-चपटी, पतली, तीक्ष्ण नोकदार, भूरे रंग की; १ से ५ इंच लम्बी, १/२ से ३/४ इंच चौड़ी। बीजगोल, चिपटे, छोटे-छोटे, प्रत्येकफली में १० से २० तक होते हैं। ___ इसकी छाल कपड़ा रंगने के काम में अधिक उपयोगी होने से इसे चर्मरंगा कहते हैं।
(धन्व० वनौ० विशे० भाग ३ पृ० ३१७)
MODEO, पुष डोरिट
पुणकाट
* शारण विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा में इस तडवडकुसुम शब्द का प्रयोग हुआ है। संस्कृत में
तण तण (तृण) रोहिसघास भ०२०/२० प०१/४४/१
तृणम्। क्ली०। कत्तृणे। नडादौ तृणवर्गे। त्रिधा वंशः कुशः कास स्त्रिधा...नलः, गुन्द्रो मुओ दर्भ मेथी, चणकादिगणस्तृणम्। वंश, कुश, कास, नल, गुन्द्र, मुअ, दर्भ, मेथी,
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चणक आदि शब्दों का समूह तृण होता है। (अर्क प्रकाश रावणकृत)
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०५०८) तृण के पर्यायाची नाम
कुतृणं कत्तृणं भूति भूतिक रोहिषं तृणम्। श्यामकं ध्यामकं पूति र्मुद्गलं दवदग्धकम् ।।६७||
कुत्तृण, कत्तृण, भूति, भूतिक, रोहिष. तृण, श्यामक ध्यामक, पूति, मुद्गल, दवदग्धक ये सब रोहिष (गंधेजवास) के दस नाम हैं।
(राज०नि० ८।६७ पृ०२५१)
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-वरुन, बरना, बं०-बरुनगाछ, बरुणगाछ। म०-वायवर्णा । गु०-बरणो, कागडाकेरी। कo-नारुवे । ते०-मगलिंगम्। ता०-मरलिङ्गम। ले०-Crataeva nurvala Buch (क्रेटीवा नुर्वाला) Fam. Capparidaceae (कॅपेरीडेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह मालावार और कनारा में नदियों के आसपास पाया जाता है तथा सभी स्थानों पर लगाया हुआ भी होता है।
विवरण-इसका वृक्ष मध्यमाकार का होता है और शाखायें फैली हुई रहती हैं। छाल आध इंच मोटी सफेद रंग की होती है। टहनियों पर सफेद दाग होते हैं। पत्ते तीन-तीन पत्रकों के पाणिवत् सदल पर्ण होते हैं, जो बेल की तरह किन्तु लम्बे वृन्त से युक्त दिखलाई देते हैं। पत्रक लट्वाकार या भालाकार एवं लंबाग्र होते हैं। पुष्पश्वेत, पीत या गुलाबी भिन्न-भिन्न रंग के होते हैं। फल नींबू के आकार के तथा पकने पर लाल हो जाते है। पत्तों का स्वाद कडवा तथा उन्हें मसलने से उग्रगंध आती हैं। इसकी छाल, पत्ते तथा पुष्पों का उपयोग किया जाता है।
(भाव०नि० वटादिवर्ग०पृ०५४३)
तमाल तमाल (तमाल) वरुण, वरना
भ०२२/१ओ० ६ जीवा०३/५८३ प०१/४३/१
बरूण (बरना) CRATAEVA RELIGIOSA,FORST.
"५ .PART
म
तरुणअंबग तरुणअंबग (तरुणाम्र) गुठली सहित बडी कैरी
उत्त०३४/१२ बड़ी कैरी गुठली जिसमें पड़ गई हो (तरुणाम्र) अत्यन्त खट्टी, पित्तवर्धक, रूखी, त्रिदोष व रक्तविकृतिजन्य
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ०३३६) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में तरुणअंबग शब्द रस की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है।
है।
परबड
तमाल के पर्यायवाची नाम
वरुणः श्वेतपुष्पश्च, तिक्तशाकः कुमारकः । श्वेतद्रुमो गन्धवृक्षस्तमालो मारुतापहः ।।१०६ ।।
वरुण, श्वेतपुष्प, तिक्तशाक, कुमारक, श्वेतद्रुम, गंधवृक्ष, तमाल और मारुतापह ये वरुण के पर्यायवाची नाम हैं।
(धन्व०नि०५/१०६ पृ०२५३)
तलऊडा तलऊडा ( ) छोटी इलायची प०१/३७/३
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में तलऊडा शब्द गुच्छवर्ग के अन्तर्गत है। तलऊडा शब्द तथा इसके सम संस्कृत शब्द निघंटुओं और शब्दकोषों में नहीं मिलते हैं। तलऊडा
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शब्द केल कोर करने से तरऊडा का संस्कृत रूप त्रपटा आर्द्र पहाड़ी जंगलों में उत्पन्न होती है। सीलोन तथा
टी बन सकता है। इसके पाठान्तर में तउडा शब्द दक्षिणी प्रायःद्वीप के चाय, कॉफी एवं रबर के बगानों में है। तलऊडा शब्द में ल का लोप करने पर तऊडा शब्द इसकी खेती की जाती है। बर्मा के जंगलों में भी यह शेष रहता है। उसकी संस्कृत छाया भी त्रपुटी बनती है उत्पन्न होती है। इसलिए यहां तउडा शब्द ग्रहण कर रहे हैं। छोटी विवरण-इसका क्षुप अदरख के क्षुप के समान इलायची के पुष्प व्यूह में आते हैं।
तथा बहुवर्षायु होता है और इसकी जड़ के नीचे मोटा, तउडा (त्रपुटी) छोटी इलायची
मांसल, तथा अनप्रस्थ फैला हआ राइझौम (भौमिक त्रपुटी ।स्त्री। सूक्ष्मैलायाम्। (वैद्यकशब्द सिंधु पृ०५१४) काण्ड) रहता है। राइझौम से ८ से २० की संख्या में सीधे, अन्य भाषाओं में नाम
चिकने, हरे रंग के चमकीले तथा ६ से ६ फीट ऊंचे काण्ड हि०-छोटी इलायची, गुजराती इलायची, चौहरा निकलते रहते हैं, जिन पर एकान्तरित पत्र लगे होते हैं। इलायची, सफेद इलायची। बं०-छोट इलायच। पत्ते १ से २ फुट लम्बे, ३ इंच तक चौड़े, आयताकारगु०-एलची कागदी,एलची, मलबारी एलची।म०-वारीक भालाकार तथा कोषाकार होते हैं। कांड के आधार भाग वेलदोडे, एलची। ते०-एलाक्कि ता०-एलाक्के, चिन्न से १ से २ फीट लम्बा पुष्पदंड निकला रहता है जो जमीन एलं। मा०-छोटी इलायची। क०-एलाक्कि। पर फैला रहता है। पुष्पव्यूहों में तथा किंचित्नील फा०-हीलबवा, हील, खैरबवा, इलायचीखर्द, हीलउन्सा। लोहिताभ वर्णयुक्त छोटे-छोटे होते हैं। पंखड़ियों के ओष्ठ अ०-काकुलह सिगार | अंo-CardamomFruit (कार्डेमोम् श्वेत होते हैं। फल हलके पीले या हरिताभ पीतरंग के फुट) lesserCardamom (लेसरकार्डेमोम्)। ले०-Elettaria १ से २ से.मी. लम्बे अंडाकार बड़े फल कुछ तिकोने, ३ Cardamomum Maton (इलेट्टेरिआ का.मोमम् मेटन) कोष वाले अनेक महीन खड़ी धारियों से युक्त, सामान्य Fam. Zingiberaceae (झिंजीबेरेंसी)।
स्फोटी फल होते हैं। जिनका स्फुटन पाळिंक संधियों पर होता है। बीज फलों के अंदर अनेक छोटे बीज होते हैं, जो प्रत्येक कोष में दो-दो कतारों में एवं अक्षलग्न जरायु से लगे हुए एक साथ रहते हैं। यह हलके या गहरे रक्ताभ भूरे रंग के ४ मि.मि. लम्बे, ३ मि.मि. चौड़े, अनियमित कोण यक्त, कडे एवं ६ से ८ आडी झरियों से युक्त होते हैं। प्रत्येक बीज महीन वर्णहीन आवरण से युक्त रहता है। इसका स्वाद कुछ कटु तथा शीतल एवं गंध मनोहर होती है।
(भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग०पृ०२२३)
तामरस तामरस (तामरस) नीलकमल
प०१/४६ तामरस के पर्यायवाची नाम
सौगन्धिकं नीलपद्म, भद्रं कुवलयं कुजम् । इन्दीवरं तामरसं, कुवलं कुंड्मलं मतम् ।।१३२ ।।
सौगन्धिक, नीलपद्म, भद्र, कुवलय, कुज, इन्दीवर, तामरस, कुवल, कुड्मल ये सब सौगंधिक
उत्पत्ति स्थान-यह पश्चिम तथा दक्षिण भारत में कनारा, मैसूर, कुर्ग, वैनाड, ट्रावंकोर तथा कोचीन में
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(नीलोत्पल) के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०४/१३२ पृ०२१७)
ताल ताल (ताल) ताल, ताड भ०२२/१ओ०६/प०१/४३/१ ताल के पर्यावाची नाम___तालो ध्वजद्रुमः प्रांशुदीर्घस्कन्धो दुरारुहः ।।
तृणराजो दीर्घतरु लेख्यपत्रो द्रुमेश्वरः ।।६१।।।
ताल, ध्वजद्रुम, प्रांशु. दीर्घस्कन्ध, दुरारुह, तृणराज, दीर्घतरु, लेख्यपत्र, द्रमेश्वर ये ताल के पर्यायवाची हैं।
(धन्व०नि०५/६१ पृ०२३७) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-ताड़, ताल, तार | बं०-ताल। म०-ताड़। ता०-पनैमरम । कo-तालिमारा । तेल-ताति । गु०-तड। फा०-ताल । अ०-तार । अं0-The Palmyra Palm (दी पामिरापाम)। ले०-Borassus flabellifer linn (बोरेसस् फ्लेबेलिफेर) Fam. Palmae (पामी)।
उत्सेधयुक्त, पत्रकाण्ड से निकले हुए ४ से ५ हाथ, लम्बे, ३ से ६ इंच चौड़े, पत्रदंड पर पत्र पंखाकार, ५ से ६ फुट लम्बे, उभरी हुई मोटी शिराओं से युक्त, चिमड़े, कड़े, धारीदार किनारी वाले । पुष्प वसंत ऋतु में, कोमल, गुलाबी व पीले रंग के, एक लिंगी, पुंजाति में अमलतास की फली जैसे लम्बगोल जटा या बालों के ऊपर ही ये पुष्प आते हैं। ये मोटी जटायें ही पुष्प दंड है। फल शरद ऋतु में, स्त्री जाति के वृक्षों के उक्त पुष्प दंड पर पुष्पों के स्थान पर नारियल जैसे १५ से २० फल, गोलाकार, कड़े, कृष्णाभ धूसर, पकने पर पीताभ हो जाते हैं। कोमल कच्ची दशा में फलों के भीतर कच्चे नारियल के दुधिया पानी के समान पानी होता है। पकने पर भीतर का गुदा सूत्रबहुल रक्ताभ पीत मधुर होता है। बीज प्रत्येक फल में अंडाकार कुछ चपटे, कड़े १ से ३ बीज होते हैं ये फल प्रायः वर्षाकाल में पकते हैं।
जिस प्रकार खजूर वृक्ष से नीरा नामक रस प्राप्त किया जाता है वैसे ही ताड़ वृक्ष से ताडी नामक रस प्राप्त होता है। स्त्री जाति के वृक्ष से नारी जाति की अपेक्षा १.५ गुनी अधिक ताड़ी प्राप्त होती है। प्रत्येक वृक्ष से कम से कम ७ सेर तक ताड़ी प्राप्त होती है। प्रत्येक वृक्ष ६० से ७० वर्ष तक इस प्रकार प्रवित होता रहता है। इस नाड़ी में १३ से १५ प्रतिशत शर्करा होती है। अतः इसकी गुड़, शर्करा दक्षिण भारत में अत्यधिकप्रमाण में बनाई जाती है। वृक्ष के उगने के बाद १० से १५ वर्ष के बाद इसमें फल आते हैं। इसकी आयु ६० वर्ष की मानी गई है। वह अपने आयु काल में एक ही बार फलता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०३२१,३२२)
E
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सभी स्थानों पर विशेषकर शुष्कप्रदेशों में पेनिनसुला के तटीय प्रदेशों, बंगाल तथा बिहार में होता है।
विवरण-फलवर्ग एवं नारिकेल कुल के इस शाखाहीन, सीधे वृक्ष की ऊंचाई ६० से ७० फुट, काण्ड स्थूल, गोल, २ से ३ फुट व्यास का, खुरदरा, काला,
तिंदु तिंदु (तिन्दु) तेंदु,
गाभ प०१/३६/१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में तिंदु शब्द बहुबीजक वर्ग के अन्तर्गत है। तेंदु के बीज ४ से ८ तक होते हैं। तिन्दु के पर्यायवाची नाम
स्फुर्जकः, कालस्कन्धः, शितिसारकः स्फूर्जकः, केन्दुः, तिन्दुः तिन्दुलः, तिन्दुकी, नीलसारः, अतिमुक्तकः, स्वर्यकः, रामणः, स्फुर्जनः, स्पन्दनाह्वयः, कालसार:
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ये १५ नाम तिन्दु के हैं। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०४६७) कहते हैं।
(भाव०नि०आम्रादिफलवर्ग०पृ०५६७) अन्य भाषाओं में नाम
___तेंदु के वृक्ष अत्यन्त ऊंचे-ऊंचे होते हैं। पत्ते हिo-तेंदू, गाब, गाभ । बं०-गाब । म०-टेंबुरणी। गोल-गोल नोकदार सीसम के से होते हैं। छाल गु०-टींबरू । तेल-तुमिवि । ता०-तुम्बिक । अंo-Gaub काली-काली होती है, उसमें खार होता है। इसकी लकड़ी Persimon (गॉब पर्सिमॉन)।ले०-Diospyrosembryopteris स्थान आदि को बनाने के काम में आती है। इसके भीतर Pers (डायोस्पाईरॉस एम् ब्रीओप्टेरिस्)।
का सार काला और वजनदार होता है। हिन्दुस्तानी लोग इसको आवनूस कहते हैं। तेंदु के फल गोल और शोभायमान, नींबू के समान हरे-हरे होते हैं। पकने पर पीले पड़ जाते हैं।
(शा०नि० फलवर्ग०पृ०४५१)
तिंदुय
तिंदुय (तिन्दुक) तेंदू
प०१/४८/४८ तिन्दुक के पर्यायवाची नाम
तिन्दुकः स्फूर्जकः कालस्कन्धश्चासितकारकः ।
तिन्दुक, स्फूर्जक, कालस्कन्ध तथा असितकारक ये सब तेंदु के संस्कृत नाम हैं
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग०पृ०५६७) देखें तिंदु शब्द।
तिगडुय
तिगडुय (त्रिकटु) सूंठ, पीपल और कालीमिरच। उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता
उत्त० ३४/११ है। विशेष कर बंगाल में अधिक होता है। त्रिकटु ।क्ली०। शुण्ठीपिप्पलीमरिचेषु । विवरण-इसका वृक्ष मध्यमाकार का,शाखा-प्रशाखा
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०५१६) करके सघन और बारही मास हराभरा रहता है। छाल त्रिकटु के पर्यायवाची नामभूरे रंग की होती है। पत्ते २ इंच चौड़े, ५ से ६ इंच लम्बे, त्र्यूषणं, व्योषं, कटुत्रिकं कटुत्रयं । किंचित् अंडाकार, आयताकार, चिकने, चर्मसद्दश और
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ५१६) चमकीले होते हैं। फूल सफेद पत्रदण्ड के पास झुमकों विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में यह तिगडुय शब्द रस में आते हैं। फल २ से ३ इंच घेरे में गोलाकार और पकने की तुलना के लिए प्रयुक्त हुआ है। कृष्ण लेश्या का रस पर कुछ पीले रंग के हो जाते हैं। ये रक्तकिट्टावरण से इन तीनों के रस से अनंतगुणा होता है। ढके रहते हैं। इसके भीतर लसीली गूदी होती है। मल्लाह लोग सन के साथ इसकी गूदी को मिलाकार नाव के
तिमिर छेदों को बंद करते हैं। बीज ४ से ८ रहते हैं। इसको
तिमिर (तिमिर) मेहंदी भ०२१/१८ प०१/४१/१ बंदर बहुत खाते हैं। इसी आधार पर इसे मर्कटतिन्दुक
तिमिर |पुं०,क्ली० /जलजवृक्षभेदे । नखरंजन वृक्षे ।
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विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में तिमिर शब्द पर्वकवर्ग के अन्तर्गत है। नखरंजनवृक्ष (मेंहदी) के पर्व होते हैं। इसलिए तिमिर का अर्थ मेंहदी ग्रहण कर रहे हैं। तिमिर के पर्यायवाची नाम
तिमिर: कोकदंता च, द्विवृन्तो नखरंजकः ।। तिमिर, कोकदंता, द्विवृन्त, नखरंजक (मेदिका, राग गर्भा, रंजका, नखरंजिनी, सुगंधपुष्पा, रागांगी, यवनेष्टा) ये नखरंजक के पर्यायवाची नाम हैं।
(शा०नि० परिशिष्टभाग पृ०६१४ )
अन्य भाषाओं में नाम
I
हि० - मेंहदी, हीना । बं० - मेदी शुदी । म० - मेंदी | पं० - हिना मेंहदी पनवार । गु० - मेदी । तैलिंग - गोरंटम | फा०-हिना । अ० - हिन्ना अकान, काफलयुन । अं०Henna (हेना) । ले० - Lawsonia alba (लासोनिया आल्वा) । LAWSONIA INERMIS LINN.
फल
फल
पुष्प
पुष्प
फलकाट
उत्पत्ति स्थान - समस्त भारतवर्ष में विशेष कर बाड़ के रूप में लगाई जाती है।
विवरण - यह मेहंदीकादि कुल की एक प्रसिद्ध झाड़ी होती है। मेहंदी का झाड़ ४ से ८ फीट और कहीं पर १६ फीट तक ऊंचा देखा जाता है। इसकी शाखाएं पतली, गोल, सीधी, लम्बी लकड़ी जैसी निकलती है।
जैन आगम वनस्पति कोश किसी-किसी वक्त इसकी कोमल और छोटी शाखाओं की नोक कांटे के समान तेज होती है। पान छोटे सनाय के पत्ते के समान अंडाकृति के होते हैं, जो आमने सामने आते हैं। पान चिकना, चमकता हरारंग का, १/२ से १.५ इंच चौड़ा होता है। पत्रदंड बहुत छोटा होता है। पान आगे से कुछ तीखे और पत्रदंड की ओर चौड़े होते हैं । पान दलदार, लाल किनारी वाला और कोमल, पान दोनों ओर लाल होते हैं । पत्तों को छाया में सुखाकर उनको पीस लिया जाता है। यही चूर्ण बाजार में मेहंदी के नाम से बिकता है। इसको जल में भिंगोकर हाथ पैरों में लगाने से वे लाल हो जाते हैं। फूल शाखाओं के किनारे पुष्प धारण करने वाली सलियां आती है। इन पर फूल सफेद खुशबूदार छोटे और आम की बोर की तरह झुमकों में आए हुए देखे जाते हैं। फूल फीका, पीला, धौला, ललाई लिये हुए रंग का सुवासित होता है। पुष्पदंड बहुत छोटा और फूल १/४ इंच व्यास का होता है। बीज गहरे भूरे रंग के १/२ से ३/४ लाइन लम्बे और १/४ लाइन चौड़े होते हैं। मेहंदी के झाड़ की डाली काटकर लगाने से यह जल्दी बड़ी हो जाती है। फूलने का समय - वर्षाकाल है । इसके पत्तों को पीसकर हाथ पांव लगाने से लाल हो जाते हैं तथा गरमी और हाथ पांव आदि की दाह दूर होती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ०४५५)
....
तिमिर
तिमिर (तिमिर ) जल मधूक, जल महुआ ।
भ०२१/१८ पं० १/४१/१
तिमिर |पु०क्ली० । जलजवृक्षभेदे, नखरंजन वृक्षे (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ४६८ ) जलजः ।पु० । हिज्जलवृक्षे, शैवाले, जलवेतसे कुचेलके, काकतिन्दुके, जलमधूके ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ४५५) नोट- तिमिर शब्द वनस्पतिवाचक दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है - जलजवृक्ष और नखरंजन वृक्ष | जलज शब्द के ६ अर्थ हैं। उनमें जलमधूक अर्थ ग्रहण किया
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जा रहा है। प्रस्तुत प्रकरण (प्रज्ञापना) में तिमिर शब्द पर्वक वर्ग के अन्तर्गत है । इसलिए जल में होनेवाला महुआ अर्थ लिया गया है। मधूक के पर्यायवाची नाम
मधूकोऽन्यो मधूलः स्याज्जलजो दीर्घपत्रकः । । ४५६ ।। गौरशाखी नीरवृक्षों, मधुवृक्षो मधुस्रवः । वानप्रस्थो मधुष्ठीलो, हस्वपुष्पफलः स्मृतः ।।४५७ ।। जो महुआ जल में रहता है उसे मधूलक, जलज, दीर्घपत्रक, गौरशाखी, नीरवृक्ष, मधुवृक्ष, मधुस्रव, वानप्रस्थ, मधुष्ठील, हस्वपुष्पफल कहते हैं।
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ०८४)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - महुआ, महुवा । बं० - महुल, मौआ । ता०मधुकम | ते० - इप्प, पिन्ना, इपा | गु० - महुडी | म० - मोहडा । बनारस० - कोइन्दा। राज० - डोलमा । क० - महुइप्पे | फा०-चकां | अं०-Eiloopatree (इलूपाट्री ) | ले० - Bassia latifolia Roxb (वेसिया लाटिफोलिया) ।
उत्पत्ति स्थान - मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल से पश्चिम घाट तक राजस्थान, बिहार, गुजरात, दक्षिण आदि अनेक प्रदेशों में पाया जाता है।
विवरण - यह फलवर्ग और मधुकादि कुल का महुआ का वृक्ष भारतवर्ष भर में प्रसिद्ध है । कोई-कोई किसान अपने खेतों के आसपास या बीच में खलियानों में या सड़कों के किनारे-किनारे लगाते हैं। बाकायदे वृक्ष के तने की जड़ों में चारों तरफ गड्डा खोदकर पानी दिया जाता है। इस प्रकार सिंचित महुआ के पुष्प फल आदि एवं पत्ते बड़े-बड़े होते हैं।
महुआ के पुष्प पीली झाई लिए हुये श्वेत वर्ण के रसदार, ठोस और बीच में खोखलापन लिये होते हैं। इस खोखले भाग में जीरे के समान छोटे-छोटे पुष्प पराग होते हैं। इन पुष्पों से मीठी-मीठी भीनी-भीनी सी गंध आती रहती है। खूब रसदार होने पर पुष्प नीचे गिर जाते हैं। कृषक बालायें इन पुष्पों को एक टोकरी में एकत्र करती हैं और खलियान या आंगन में सुखाती हैं। सूखने पर ये लाल वर्ण के मुनक्का के समान हो जाते हैं। गरीब ग्रामीण जनता अपने कुदिनों में इन महुआ के पुष्पों से
ही जीवन रक्षा कर लेती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ०३६१,३६२)
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C...
तिल
तिल (तिल) तिल
ठा० ५/२०६ भ० ६/१३०, २१/१५ प० १/४५/१ तिल के पर्यायवाची नाम
तिलस्तु होमधान्यं स्यात्, पवित्रः पितृतर्पणः ।। पापघ्नः पूतधान्यञ्च, जर्तिलस्तु वनोद्भवः । ।१०६ || तिल, होमधान्य, पवित्र, पितृतर्पण, पापघ्न, पूतधान्य ये तिल के पर्याय हैं। वन में होने वाले को जर्तिल कहते हैं ।
(धन्व० नि० ६ / १०६ पृ० २६८)
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अन्य भाषाओं में नाम
हि० - तिल, तील, तिली । बं० - तिलगाछ, म० - तील । गु० - तल । क० - बुल्लेल्लु । ते० - नुब्बुलु । ता० - एल्लु । फा० - कुंजद । अ० - सिमासिम, बजरूलखस, खासुलवरी अंo - Gingelli ( जिंजेल्ली) Sesame (सीसेम) । ले० - sesamum indicum Lin (सिसेमम् इंडिकम् ) Fam. Pedaliaceae (पेडालिएसी) । उत्पत्ति स्थान- इसकी प्रायः सभी प्रान्तों में खेती की जाती है।
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विवरण-इसका क्षुप ३.५ से ४.५ फीट ऊंचा, कांड श्वेत होते हैं। आभ्यन्तर दल मुड़े हुए एवं उनके स्वतंत्र चौपहल एवं अनेक शाखायुक्त होता है। पत्ते नीचे से ऊपर खंड आभ्यन्तर नाल से बड़े होते हैं। पुष्पकाल मार्च विभिन्न प्रकार के दन्तुर या अखंड होते हैं। पुष्प विभिन्न अप्रैल। उस समय वृक्ष का शिखर सफेद चांदनी से ढका रंगों के श्वेत से लेकर गहरे बैंगनी रंग के एवं नलिकाकार मालूम पड़ता है। फल १/१० इंच व्यास के, श्वेत एवं द्वयोष्ठ होते हैं । फली १.५ से २ इंच लंबी, करीब १/२ मृदुरोमावृत होते हैं। छाल रक्ताभ होती है। से १ इंच गोलाई में एवं अनेक बीजों से युक्त होती है।
(माव०नि० पुष्पवर्ग० पृ० ५०५) बीज विभिन्न प्रकार के अनुसार श्वेत, मंदश्वेत, हलके भूरे, निघण्टुओं में वर्णित इस तिलकवृक्ष के बारे में अभी गहरे भूरे या काले रंग के हुआ करते हैं। ये चिपटे तक किसी को पता नहीं था कि यह वृक्ष कैसा होता है? अंडाकार तथा एक इंच की लंबाई में ६ से ८ तथा चौड़ाई तथा इसका लेटिन नाम क्या है? सर्वप्रथम ठाकुर में १० से १२ आते हैं। विभिन्न ऋतुओं में बोने के अनुसार बलवन्तसिंह जी ने अपनी पुस्तक “बिहार की वनस्पतियां इसके भेद हुआ करते हैं।
पृ०६८ में अनेक प्रमाणों के आधार पर तिलक को सिद्ध (भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६५२) किया है तथा इसका वैज्ञानिक वर्णन किया है। तिलग
(भाव०नि० पुष्पवर्ग० पृ० ५०५) तिलग (तिलक) तिलकपुष्पवृक्ष, तिलिया
भ० २२/३
तिलय तिलक के पर्यायवाची नाम
तिलय (तिलक) तिलक पुष्पवृक्ष तिलक: पूर्णकः श्रीमान्, क्षुरक छत्रपुष्पकः ।
जीवा० १/७२: ३/५८३ प० १/३६/३ मुखमण्डनको रेची, पुण्ड्रश्चित्रो विशेषकः ।।१४५।। देखें तिलग शब्द।
तिलक, पूर्णक, श्रीमान्, क्षुरक, छत्रपुष्पक, मुखमण्डनक रेची, पुण्ड्र, चित्र और विशेषक ये तिलक के पर्याय हैं।
तुंब (धन्व०नि०५/१४५ पृ० २६६) अन्य भाषाओं में नाम
तुंब (तुम्ब) मीठी तुंबी
प० १/४८/४८ हि०-तिलक, तिलका, तिलिया। संथाल०-हुन्छ। तुम्बः ।अलाव्याम् । (शब्दरत्नावली) ले०-Wendlandia exerta DC. (वेन्ड लैन्डिया एक जटा) देखें कडुइया शब्द । Fam. Rubiaceae (रूबिएसी)। उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के उष्णप्रदेशीय
तुंबसाय शुष्कजंगलों में चेनाब से नेपाल तक ४००० फीट की ऊंचाई तक एवं उड़ीसा, मध्यभारत, कोंकण एवं उत्तरी ।
तुंबसाय (तुम्बशाक) मीठी तुम्बी का शाक डेक्कन में पाया जाता है। यह खुली हुई और छोटी-छोटी
उवा० १/२६ वनस्पतियों से रहित भूमि, जैसे नालों के ढालों पर अधिक तुम्बापुरा अलाव्याम्। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ५०४) होता है।
विमर्श-तुम्बी दो प्रकार की होती है-मीठीतुम्बी विवरण-इसके वृक्ष सुंदर झुके हए तथा छोटे होते और कडवीतुम्बी। मीठीतुंबी कृषित होती है और कड़वी हैं। पत्ते चर्मवत 35 आयताकार या लटवाकार प्रासवत तुबी वन्य होती है। मीठीतुबी का शाक होता है और लबाग्र तथा ४ से ६४१ से ३.५ इंच बड़े होते हैं। शिराएं कड़वीतुबी का चिकित्सा में उपयोग होता है। प्रस्तुत १०-१० जोडी तथा उपपत्र चौडे प्रायः लटवाकार एवं अग्र प्रकरण में लुबी का शाक है इसलिए यहां मीठीतुंबी का पर टेढ़े होते हैं। पुष्प १/६ इंच व्यास में सगंधित एवं अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
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तुंबी
com
melan
देखें कदुइया शब्द।
अन्य भाषाओं में नाम
हिo-तुलसी। बं०-तुलसी गु०-तुलसी। तेल
गग्गेरचेटु । म०-तुलस। ता०-तुलशी। क०-एरेड तुंबी (तुम्बी) कड़वी तुम्बी, भ० २२/६ प० १/४०/१
तुलसी । अंo-Holy Basil (होली वेसील)। ले०-Ocimum
Sanctum Linn (ओसीमम् सेंक्टम्) Fam. Labiatae तुम्बी के पर्यायवाची नाम
(लेबिटएटी)। कटुकालाम्बुनी तुम्बी लम्बा पिण्डफला च सा। इक्ष्वाकुः क्षत्रियवरा, तिक्तबीजा महाफला।।
तुम्बी, लम्बा, पिण्डफला, इक्ष्वाकु, क्षत्रियवरा, तिक्तबीजा महाफला ये कटुकालाम्बुनी के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०१/१७० पृ० ६६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कटुलौकी, कडवी तोंबी, तितलौकी, तितुआ लौका, तुमरी, तुम्बी। बं०-तितलाउ, तितलाओ । म०-कडुभोपला । गु०-कड़वी तुम्बरी । क०-कहिसोरे। फा०-कदूय तल्ख । अ०-कर अउलमुर, करउबमुर । अ०-Bitter Gourd (विटरगोर्ड)। ले०-Lagenaria Vulgaris Ser (लॅगेनेरिया वल्गेरिस | Fam.Cucurbitaceae (कुकरबिटेसी)।
__उत्पत्ति स्थान-यह भारतवर्ष में प्रायः सर्वत्र उत्पत्ति स्थान-इसके पौधे समस्त भारत में बगीचों जंगलों में, गांवडों में पाई जाती है। कहीं-कहीं यह लगाई । में मंदिरों के पास एवं घरों में लगाये जाते हैं। यह सर्वत्र भी जाती है। इसकी बेल या लता बहुत दूर तक फैलती सुलभ एवं प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं यह जंगली रूप से भी है। इसके तंतु लंबे एवं दो शाखा युक्त होते हैं। पायी जाती है।
विवरण-इसकी लता पत्र पुष्पादि सब मीठी तुंबी विवरण-तुलसी के कोमल कांडीय छोटे पौधे होते के समान होते हैं। फल बहत कड़वा होता है। यह इसका। हैं। जड़ के पास का कांड कुछ काष्ठीय होता है। पत्तियां वन्य भेद है।
अत्यन्त सुगंधित होती हैं। इसके मुख्य दो भेद होते हैं। (भाव०नि०शाकवर्ग पृ०६८२) (१) श्वेत एवं (२) कृष्ण । काली तुलसी की डालियां कृष्णाभ
होती हैं। पुष्पमंजरी शाखाओं पर निकलती है। तुलसी तुलसी
के बारे में ऐसा भी विश्वास है कि जहां तुलसी के रुप तुलसी (तुलसी)तुलसी ठा०८/११७/१ प० १/४४/३
होते हैं, मच्छर भाग जाते हैं। जाडे के दिनों में फूल फल आते हैं।
(वनौषधि निदर्शिका पृ० १८१) तुलसी के पर्यायवाची नाम
यह क्षुप जाति की वनस्पति १ से २.५ फीट तक सुरसा तुलसी ग्राम्या, सुरभि बहुमञ्जरी। अपेतराक्षसी गौरी, भूतघ्नी देवदुंदुभिः ।।४५।।।
___ऊंची होती है और समस्त क्षुप से तीव्रगंध आती है। सुरसा, तुलसी, ग्राम्या, सुरभि, बहुमंजरी,
र शाखायें सीधी और फैली हुई रहती हैं। पत्ते १ से २.५
इंच तक लंबे और अंडाकार तथा सुगंधित होते हैं। अपेतराक्षसी, गौरी, भूतघ्नी, देवदुंदुभि ये तुलसी के ।
शाखाओं के अंत में मंजरी लगती है। जिसके पत्ते हरे पर्यायवाची नाम हैं। (धन्व०नि० ४/४५ पृ० १६१)
सफेदी लिये होते हैं उसको सफेद तुलसी और जिसके
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पत्ते तथा डंडियां कालापन युक्त हरे होते हैं, उसको काली तुलसी कहते हैं । तुलसी की अन्य भी कई जातियां पाई जाती हैं। (भाव०नि० पुष्पवर्ग० पृ० ५०६ )
तुवरकविट्ठ
तुवरकविट्ठ (तुवरकपित्थ) कषायरस वाला कपित्थ
उत्त० ३४/१२
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में तुवरकविट्ठ शब्द कषाय रस की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। कैथ कुछ कच्चा कुछ पका होता है तब उसका रस कषाय होता है।
विवरण- कच्चापका - कसैला, अकण्ठ्य (स्वर को बिगाड़ने वाला) रोचक, कफनाशक, लेखन, रूक्ष, लघु, ग्राही, वातकारक, एवं विषनाशक है ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३१८)
....
तूवरी
तूवरी (तुवरी) तूर
प० १/३७/३
विमर्श-प्रज्ञापना सूत्र १/३७/३ में तूवरी शब्द है और १/३७/१ में आढइ शब्द है। दोनों शब्द गुच्छवर्ग
के अन्तर्गत हैं और दोनों ही अरहर के वाचक हैं। अरहर का एक भेद तूर होता है। आढइ शब्द का अर्थ अरहर ग्रहण किया है इसलिए यहां तूवरी का अर्थ तूर अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
आढकी तुवरीतुल्या, करवीर भुजा तथा ।
वृत्तबीजा पीतपुष्पा, श्वेता रक्तासिता त्रिधा ।।८२ ।। आढकी, तुवरी, करवीरभुजा, वृत्तबीजा, पीतपुष्पा, ये आढकी के पर्याय हैं। श्वेत रक्त और कृष्ण भेद से आढकी तीन प्रकार की है । ( धन्व०नि० ६ / ८२ पृ० २८६ ) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - अरहड, अडहर, रहर, रहरी रहड़, तूर । बं० - आइरी, अडर । म०- तुरी, तूर । गु० - तुरदाल्य । क० - तोगरि । ते० - कंदुलु । ता० - तोवरै । फा० - शाख़ला । अ० - शाखुल, शांज। अंo - Pigeon Pea (पीजन् पी) । ले० - Caganus Indicus Spreng (केजेनस् इन्डीकस्) । Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी) ।
जैन आगम वनस्पति कोश
उत्पत्ति स्थान- इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में इसकी खेती की जाती है।
विवरण - बीज को ही अरहर कहते हैं। यद्यपि इसके अनेकों भेदोपभेद होते हैं तथापि इसके दो प्रकार अरहर एवं तूर होते हैं। तूर - क्षुप छोटा, पुष्प पीत, फली छोटी एवं २ से ३ बीज युक्त हुआ करती है। यह जल्दी परिपक्व होती है। बीजों से दाल बनाने की दो विधियां प्रचलित हैं। एक में आर्द्र करके बनाते हैं तथा दूसरे में वैसे ही दल कर बनाते हैं। दलकर बनाने में दाल अच्छी होती है तथा जल्दी पकती है किन्तु दलने में टूटने से महंगी पड़ती है । भिंगोकर बनाने में अधिक दाल निकलती है किन्तु यह देर में पकती है। अच्छी दाल मोटी छोटी तथा गोल होती है तथा दूसरी चिपटी, बीच में छोटे गर्तदार पतली तथा बड़ी होती है, जो जल्दी नहीं पकती । (भाव० नि० पृ०६४८)
....
तेंदुअ
ठा० ८/११७/२
तेंदु ( ) तेंदु | इसके लिए तिन्दुक शब्द है। विमर्श - तेंदु शब्द हिन्दी भाषा का है। संस्कृत में
विवरण- फलादिवर्ग एवं अपने ही तिन्दुककुल का यह मध्यम प्रमाण का बहुशाखा प्रशाखा युक्त २५ से ४० फुट तक ऊंचा, सघन सदा हरति पत्रों से आच्छादित वृक्ष जंगलों में बहुत होता है। काण्ड मजबूत व सीधा होता है । काण्ड या मोटी डालियों की लकड़ी कड़ी, काले रंग की, साधारण, सुदृढ़ होती हैं। यह लकड़ी आवनूस के समान चिकनी, काले वर्ण की होने से यह फर्नीचर बनाने के काम आती है । काण्ड की छाल गाढी धूसर या काले रंग की। पत्र हरे, स्निग्ध, आयताकार, दो पंक्तियों में क्रमबद्ध, ५ से ७ इंच लंबे, १.५ २ इंच चौडे चमकीले । पुष्प श्वेत वर्ण के सुगन्धित । फल गोल, लड्डू जैसे कड़े, सिर पर या मुख पर पंचकोण युक्त ढक्कन से लगे हुए । कच्ची दशा में मुरचई रंग के, अति कसैले, पकने पर लालिमा युक्त पीले मधुर होते हैं। इसके भीतर चीकू के समान मधुर, चिकना गूदा रहता है, जो खाया जाता है। इन्हीं फलों को तेंदु कहते हैं। इनके पत्तों का ठेका बीड़ी
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तैयार करने वाले व्यापारी लोग लिया करते हैं। वृक्ष की छाल चमडा रंगने के काम में आती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ३८०) देखें तिंदु शब्द।
तेंदुस तेंदुस ( ) तेंदु का वृक्ष।
देखें तिंदु शब्द ।
ले०-EuphorbiaDracunculoidesLamयूफोर्बिआ डकन्क्यु लॉईडिस्लैम Fam. Euphorbiaceae (यूफोब्रिएसी)।
उत्पत्ति स्थान-जव आदि के साथ खेतों में ही इसके क्षुप अधिकतर पाये जाते हैं।
विवरण-इसके क्षुप एकवर्षायु प्रायः ४ से ८ इंच ऊंचे, चिकने तथा सामान्यतः धसरवर्ण के होते हैं। इसमें पीताभ क्षीर होता है। शाखायें प्रायः द्विविभक्त क्रम में निकली हुई रहती हैं। पत्ते अभिमुख (नीचे कुन्तल) अवृन्त, रेखाकार, प्रासवत् या रेखाकार आयताकार और .७ से २ इंच लंबे होते हैं। पुष्प पुष्पाकार व्यूह एकाकी और द्विविभक्त काण्ड के बीच में होते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ४१०)
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३१२)
प० १/४८/४८
तेतली तेतली ( ) तितली बूटी। भ० २२/१
विमर्श-तेतली शब्द हिन्दी भाषा का शब्द है। संभवतः यह तितली बूटी होना चाहिए। संस्कृत भाषा में तेतली शब्द नहीं मिलता है।
रण-यह बटी चना के पौधों के समान होती है, तथा चना जो, गेहूं के खेतों में साथ ही उगती और आषाढ तक बनी रहती है। पुष्प कुछ पीताभ, पत्र चने या छोटी नुनिया के पत्र जैसे; फल अण्डी के समान, तीन बीजों के कोष में आते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ३४१)
तेयली गयी। __) तितली, सातला
प० १/४३/१ देखें तेतली शब्द।
तेतली तेतली ( ) तितली।
भ० २२/१ विमर्श-तितली शब्द हिन्दी भाषा का शब्द है। संस्कृत भाषा में इसके लिए सप्तला शब्द है। सप्तला के पर्यायवाची नाम
शातला सप्तला सारा, विमला विदुला च सा। तथा निगदिता भूरिफेना चर्मकषेत्यपि।।
शातला, सप्तला, सारा, विमला, विदुला, भूरिफेना और चर्मका ये सब संस्कृत नाम शातला के हैं।
(भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ०३१०) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-जायची, तितली। संथा०-परवा। ब०छागल पुपटी, जायची। पं०-कंगी। मद्रा०-तिल्लाकाड।
त्थिभग त्थिभग (स्तबक) स्तबक कंद, गुच्छाह्वकंद।
प०१/४८/१ स्तबक के पर्यायवाची नाम
गुच्छाहकन्द स्तवकाहकंदको। गुलुच्छकन्दश्वविघण्टिकाभिधः ।।११८ ।।
गुच्छाह्वकंद, स्तवकाह्वकंद, गुलुच्छकंद तथा विघण्टिकाकंद ये सब गुच्छाह्वकंद के नाम हैं।
(राज०नि० ७/११८ पृ० २०६) अन्य भाषाओं में नाम
म०-कुलीहाल | कo-मुकुन्लियागड्डे । तैलसारू इति लोके ।
थिहु
त्यह .
प० १/४८/१ विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं तथा आयुर्वेद के कोशों
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में स्थिहु और थीहु शब्द का वनस्पतिपरक अर्थ नहीं मिला
थिभग थिभग (स्तबक) स्तबक कंद।
देखें 'त्थिमग शब्द'।
०७/६६
गया वियूपगा
उपलब्ध न होने से उसका प्रमाण नहीं दिया जा सकता। नागबला शब्द अनेक निघंटुओं में मिलता है इसलिए नागबला के पर्यायवाची नाम दिए जा रहे हैं। नागबला पर्यायवाची नाम
गाङ्गेरुकी नागबला, खरगन्धिका झषा। विश्वदेवा तथारिष्टा, खण्डा
नागबला, खरगन्धिका, झषा, विश्वदेवा, अरिष्टा, खण्डा, हस्वगवेधुका ये गांगेरुकी के पर्याय हैं।
(धन्व०नि० १/२८४ पृ० ६८) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-गंगेरन, गुलसकरी । गु०-गंगेटी, बाजोठियुं। पोरबंदर-गंगेटी। म०-गांगी, गांगेटी। ऊंधी, खाटली, कंटीयेजाल (समनी, हांसोट) ब०-गोरक्षचाकुले । ले०-Grewia Populifolia (ग्रिविआ पॉप्युलीफोलिआ) Grewia Lenax Syn (ग्रिविआ लेनेक्ष)।
थीह थीह ( ) भ० ७/६६०, २३/२ जीवा० १/७३
देखें त्थिहु शब्द ।
थूरय थूरय (स्थूलक) स्थूल इक्षुर, स्थूलशर ।
___ भ० २१/१६ प० १/४२/२ स्थूलकः पुं। तृणविशेषे
सूच्यग्र स्थूलको दर्भो जूर्णाख्यश्च खरच्छः ।।
(रत्न माला) (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० ११६२) स्थूल के पर्यायवाची नामस्थूलकः |पुं। तृणविशेषे।
सूच्यग्रः स्थूलको दर्भो जूर्णाख्यश्च खरच्छदः ।। (रत्न माला) (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० ११६२) स्थूलोन्यः स्थूलशरो महाशरः स्थूलसायकमुखाख्यः । इक्षुरकः क्षुरपत्रो बहुमूलो दीर्घमूलको मुनिभिः ।।८२।।
दूसरे प्रकार का इक्षुर स्थूलइक्षुर होता है। स्थूलशर, महाशर, स्थूलसायकमुख, इक्षुरक, क्षुरपत्र, बहुमूल, दीर्घमूलक ये सब स्थूलशर के सात नाम हैं।
(राज०नि० व० ८/८२ पृ० २४८)
शाव
दंडा दंडा (दण्डा) नागबला, गंगेरन। भ० २१/१७ दण्डा।स्त्री। नागबलायाम्। वैद्यक निघंटु ।
___ (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ५२८) विमर्श-दण्डा शब्द वैद्यकनिघंटु में मिलता है। वह
उत्पत्ति स्थान-नागबला सौराष्ट्र में बरडा की पहाड़ियों में बहुत पाई जाती है। पंचमहाल में तथा सिन्ध, पंजाब में भी होती है।
विवरण-नागबला ३ से ६ या ५ से १० फुट ऊंची
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आमादम्। ता०-नागदन्ती। गु०-दन्ती। फा०-दंद, वेदजीर खताई । अ०-हब्बुस्सला ।ले०-Boliospermum montanum Muell. Arg. (बॅलिओस्पर्मम् मॉन्टेनम् मुएल आर) Fam. Euphorbiaceae (युफोबिएसी)।
होती है। यह घने जंगलों में नहीं परंतु बंजर स्थानों में होती है। इसके पत्र ०.५ से १.५ इंच लंबे होते हैं। इनकी चौड़ाई भी इतनी ही होती है। पुष्प श्वेत रंग के थोड़ी। सुगंन्धिवाले ज्येष्ठ और आषाढ मास में विकसित होते हैं। शीतकाल में फल पकते हैं। इन फलों में दो से चार बीज होते हैं। फल में दो से लेकर चार अस्थि होती है, जिससे बाजठ के चार पैर सदृश प्रतीत होते हैं। इसीलिए गिरनार की ओर इसे बाजोठियुं कहते हैं। इसके फल 'शिकारी मेवा' के नाम से पहचाने जाते हैं, क्योंकि इसके फल प्यास लगने पर शिकारी मुंह में रखते हैं। वनों में घूमने वालों के लिए इन्हें मुंह में रखना ठीक होता है। नागबलामूल पर से त्वचा सरलता से अलग कर सकते हैं और त्वचा का चूर्ण भी शीघ्र हो जाता है। औषधार्थ मूलत्वचा का चूर्ण उपयोग किया जाता है।
(निघंटु आदर्श पूर्वार्द्ध पृ० १६७, १६८)
दंतमाला दंतमाला ( ) जीवा० ३/५८२ जं० २/८
विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं और शब्दकोशों में यह शब्द वनस्पति के अर्थ में नहीं मिला है। संभव है यह हिन्दी आदि किसी देशीय भाषा का शब्द हो।
दंती दंती (दन्ती) दंती,लघुदंती भ० २३/६ प० १/४८/४ दन्ती।स्त्री। स्वनामख्यातहस्वक्षुपे ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ५३३) दन्ती के पर्यायवाची नाम
दन्ती शीघ्रा निकुम्भा, स्यादुपचित्रा मकूलकः। तथोदुम्बरपर्णी च, विशल्या च घुणप्रिया।।२२३।।
दन्ती, शीघ्रा, निकुम्भा, उपचित्रा, मकूलक, उदुम्बरपर्णी, विशल्या और घुणप्रिया ये दन्ती के पर्याय
(धन्व०नि० १/२२३ पृ० ८१) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-दंती, छोटी दंती, ताम्बा। म०-दांती, लघुदती, दांतरा। ब०-दन्ती, हाकन। ते०-कोंटा
उत्पत्ति स्थान-छोटी दंती प्रायः सब प्रान्तों में पाई जाती है। विशेषकर काश्मीर में भूटान तक तथा आसाम और लासिया पहाड़ से चटगांव तक एवं दक्षिण में कोंकण ट्रावनकोर तक जंगलों में उत्पन्न होती है। आर्द्रस्थानों में प्रायः अन्य वृक्षों आदि की छायादार जगहों में अधिक पाई जाती है।
विवरण-यह गुल्म जाति की वनस्पति ३ से ६ फीट तक ऊंची होती है। प्रायः जड़ से ही अधिक शाखाएं निकलती हैं। पत्ते प्रायः अंजीर और गूलर के आकार के होते हैं। इसलिए इसको उदुम्बरपर्णी कहते हैं। लंबाई चौड़ाई में इसका आकार भिन्न-भिन्न होता है। नीचे वाले ६ से १२ इंच लंबे अंजीर के पत्तों के समान कटे किनारे वाले, ३ से ५ भागों में विभक्त तथा किंचित् नुकीले होते हैं। ऊपर वाले पत्ते गूलर के पत्तों के आकार वाले २ से ३ इंच लंबे और भालाकार होते हैं। फूल एकलिंगी गुच्छाकार हरिताभ रंग के होते हैं। फल किंचित् रोमश. ३ खंड का एवं करीब १/2 इंच लंबा होता है। बीज भूरे बाह्यवृद्धि से युक्त तथा एरण्ड से छोटे होते हैं। इसकी जड़ एवं बीज औषधि के काम में आते हैं। जड़ अंगुलि
हैं।
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के बराबर, मोटी, सीधी और कभी-कभी टूटी हुई होती है। जड़ की छाल भूरे रंग की खुरदुरी एवं काष्ठभाग श्वेत, पीताभ, मुलायम किन्तु चीमड़ रहता है। यद्यपि जमाल गोटे को दन्ती बीज कहते हैं तथापि जमालगोटा छोटी दंती का बीज नहीं है।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ४००)
दगपिप्पली दगपिप्पली (दकपिप्पली) जलपीपल
भ० २०/२० प० १/४४/२ दकपिप्पली के पर्यायवाची नाम
जलपिप्पल्यभिहिता, शारदी तोयपिप्पली।। मत्स्यादनी मत्स्यगन्धा, लाङ्गली शकुलादनी।।५।।
लपिप्पली, शारदी, तोयपिप्पली, मत्स्यादनी, मत्स्यगन्धा, लाङ्गली, शकुलादनी ये पर्याय जल पिप्पली के हैं।
(धन्व०नि०४/५६ पृ० १६५)
अन्य भाषाओं में नाम
हिo-जलपीपल, पनिसगा, भुईओकरा, बुक्कन बूटी। बं०-बुक्कन, कांचडा । म०-जलपिप्पली, रतबेल । गु०-रतवेलियो। अंo-Purple Lippia (पर्पल लिपिआ)। ले०-LippianodifloraMich.(लिप्पिआ नोडिफ्लोरा मिक) Fam. Verbenaceae (वर्बिनेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों की गीली भूमि में अधिक पाई जाती है तथा बलूचिस्तान में भी होती है।
विवरण-यह प्रसर (प्रसरीक्षुप) जाति की वनौषधि भूमि पर फैली हुई रहती है। पत्तेअभिमुख, अभिलट्वाकार, आरावत् दन्तुर, कुण्ठिताग्र तथा .५ से १ इंच लंबे होते हैं। श्वेत रंग के छोटे पुष्प आते हैं, जो कोण पुष्पकों से युक्त, पत्रकोणीय सदण्ड मुण्डकाकार व्यूह में आते हैं। यही बाद में फल में परिवर्तित हो जाते हैं, जो पिप्पली की तरह दिखलाई पड़ते हैं। इसके स्वरस का उपयोग करते हैं। चरक में शाकवर्ग में इसका उल्लेख मिलता
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ४७०)
दधिफोल्लइ दधिफोल्लइ (दधिपुष्पी) सेमचमरिया भ० २२/६ दधिपुष्पी-स्त्री। कोलशिम्बि । सुअरासेम।
दधिपुष्पी के पर्यायवाची नामदधिपुष्पी तु खट्वाङ्गी, खट्वा पर्यङ्क पादिका। वृषभी सा तु काकाण्डी, ज्ञेया सूकरपादिका ।।१५३ ।।
खट्वाङ्गी, खट्वा, पर्यपादिका, वृषभी. काकाण्डी और सूकरपादिका ये दधिपुष्पी के पर्याय हैं।
(धन्व०नि० १/१५३ पृ०६१) विमर्श-प्राकतभाषा में फल्ल और फोल्ल शब्द देशीशब्द हैं। इनका अर्थ है फूल । प्राकृत में एक पद में भी संधी होती है। इसलिए दधिफोल्लइ की छाया दधिपुष्पी की है। दधिपुष्पी का धन्वन्तरि निघंटुकार ने केवांच अर्थ किया है। शालिग्रामौषधशब्दसागर में कोलशिम्बि (सुअरासेम) किया है। दोनों का सामअस्य भावप्रकाश निघंटु पृ० ६८६ के अनुसार इस प्रकार है-"केवांच की एक अन्य जाति होती है जिसकी फली
पुष्प
विमर्श-दक शब्द जल का पर्यायवाची है।
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का भी सेम के नाम से व्यवहार होता है। धन्वन्तरिवनौषधि दुर्लभा दुष्प्रधर्षा च, स्याच्चतुर्दशसंज्ञका।।५४ ।। विशेषांक भाग ६ में शिम्बिकल की ३ जातियों का वर्णन
(राज० नि०४/५३, ५४ पृ० ७२) है-सेम, सेमचमरिया और सुअरासेम। दधिपुष्पी के धन्वयास, दुरालम्भा, ताम्रमूली, कच्छुरा, दुरालभा, ऊपर लिखित पर्यायवाची नामों का इनमें विभाजन हो दुस्पर्शा, धन्वी, धन्वयवासक, प्रबोधिनी, सूक्ष्मदला, गया है। समेचमरिया का संस्कृत नाम दधिपुष्पी और विरूपा, दुरभिग्रहा, दुर्लभा तथा दुष्प्रधर्षा ये सब धमासा सुअरासेम का संस्कृत नाम-कोलशिम्बि, कृष्णफला, के चौदह नाम हैं। सूकरपादिका दिया है। प्रस्तुत प्रकरण में दधिपुष्पी शब्द अन्य भाषाओं में नामहै। इसलिए कोष द्वारा सुअरासेम अर्थ ग्रहण न कर हि०-धमासा, हिंगुआ, धमहर, बं०-दुरालभा। सेमचमरिया अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
मा०-धमासो । गु०-धमासो | म०-धमासा | पं०-धमाह, अन्य भाषाओं में नाम
धमाहा। फा०-बादाबर्द। अ०-शुकाई। ले०-Fagonia सं०-दधिपुष्पी। हि०-करिय, सेमचमरिया।। arabica Linn (फॅगोनिया अरेबिका लिन०) Fam. बं०-कटराशिम। गु०-अडदवेल्य, कागडोलिया। Zggophyllaceae (झाइगोफाइलेसी)। कर्णाo-कुगरी। ले०-Mucuna monosperma D.C. मुक्युना मोनोस्परम)।
उत्पत्ति स्थान-हिमालय, खासिया पर्वत, आसाम, चिट्टागोंग और पश्चिमी घाट की पर्वतश्रेणियों में होती है।
विवरण-यह शाकवर्ग और शिम्बिकुल की एक जाति है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० ३८०, ३८१)
दधिवासुय दधिवासुय (दधिवास्तुका) धमास. जवास
जीवा० ३/२६६ दधिवास्तुका स्त्री। गोदन्त हरिताले । दुरालभा भेदे ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ५३०) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण वनस्पति का है इसलिए
पुष्पको दधिवास्तुका के दो अर्थों में दुरालभा अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। दुरालभा धमासा अर्थ में प्रयुक्त होता है। धमासा और जवासा यद्यपि दो हैं पर कैयदेवनिघंटकार दुरालभा के पर्यायवाची नामों में जवासा को लेकर दोनों को एक मानते हैं। भावप्रकाशनिघंटुकार धमासा और
फलकार जवासा को भिन्न मानते हैं। धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक उत्पत्ति स्थान-यह पंजाब, पश्चिम राजपुताना, में धमासा को जवासा की ही एक जाति मानी जाती है। राजस्थान) दक्षिण, प० खानदेश, कच्छ, सिंध, बलूचिस्तान, इसका स्पष्टीकरण नीचे धमासा के विवरण में देखें। बजीरिस्तान तथा पश्चिम में अफगानिस्तान तक पाया दुरालभा के पर्यायवाची नाम
जाता है। धन्वयासो दुरालम्भा, ताम्रमूली च कच्छुरा। विवरण-इसका क्षुप फीके हरे रंग का अनेक दुरालभा च दुःस्पर्शा, धन्वी धन्वयवासकः ।।५३।। शाखाओं वाला, छोटा, फैला हुआ, १ से ३ फीट ऊंचा प्रबोधनी सूक्ष्मदला, विरूपा दुरभिग्रहा। तथा तीक्ष्ण कांटेदार होता है। पत्र विपरीत, पत्रक १ से
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उत्पत्ति स्थान-इसको वाटिकाओं में लगाते हैं। पश्चिम हिमालय, खासिया पहाड, आबू, पश्चिम घाट, कोंकण, लंका आदि जगहों में यह आप ही आप जंगली उत्पन्न होता है।
३ इंच लंबे, अखंड, रेखाकार दीर्घवृत्ताकार होते हैं। दो पत्र, चार कांटे तथा एक पुष्प यह चक्राकार क्रम में एक साथ रहते हैं। पत्रकोण में फीकेगुलाबी रंग के फूल आते हैं। फल पांच खंडों वाला तथा शीर्ष पर एक कांटा रहता है। वास के रंग के इसके टुकड़े बाजार में बिकते हैं। इसका स्वाद लुआवदार तथा जल में डालने पर ये चिपचिपे हो जाते हैं।
(भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० ४१२) गुडूच्यादि वर्ग एवं गोक्षुरकुल के इस फीके हरितवर्ण के बहुशाखायुक्त १ से ३ फीट के क्षुप होते हैं।
यह जवासा की ही एक जाति विशेष, किन्तु उससे भिन्न कुल एवं भिन्न स्वरूप की है। इसे मरुस्थल का जवासा कहा जाता है । गुणधर्म में दोनों बहुत एक समान होने से, को कोई इसे ही जवासा मान लेते हैं। किन्तु वास्तविक जवासा इससे भिन्न है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ५१०)
दब्भ
दब्भ (दर्भ) डाभ।
देखें डब्भ शब्द
भ० २१/१६
विवरण-इसके क्षुप ४ से ८ फीट ऊंचे एवं गंधयुक्त होते हैं। पत्ते नीचे के २ से ४ इंच लंबे, १ से २ इंच चौड़े, सनाल, लट्वाकार, एक या दो बार पक्षाकार क्रम से विच्छिन्न, दोनों पृष्ठों पर रोमश एवं नीचे के पृष्ठ पर राख या श्वेतवर्ण के होते हैं। ऊपर के पत्ते प्रायः विनाल, रेखाकार भालाकार, सरलधारवाले तथा तीन विच्छेदों से युक्त होते हैं।
(भाव०नि० पुष्पवर्ग० पृ० ५११)
दमणग दमणग (दमनक) दौना, दवना।
जं० ५/५८ प० १/४४/३ दमनक के पर्यायवाची नाम
उक्तो दमनको दान्तो, मुनिपुत्रस्तपोधनः । गन्धोत्कटो ब्रह्मजटो, विनीतः कलपत्रकः ।।६७।।
दमनक, दान्त, मुनिपुत्र, तपोधन, गन्धोत्कट, ब्रह्मजट, विनीत और कलपत्रक ये सब दौना के पर्याय
(भाव० नि० पृ० ५१०, ५११) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-दौना, दवना। बं०-दोना। म०-दवणा। गु०-डमरो। अ०-अफसंतीन |ले०-ArtemisiaVulgaris Linn. (अर्टिमिसिया बल्गॅरिस)| Fam. Compositae (कम्पोजिटी)।
दमणय दमणय (दमनक) दौना, दवना। ज० ३/१२, ८८
देखें दमणग शब्द।
....
हैं।
दमणा दमणा (दमनक) दौना, दवना।
भ० २१/२१ रा० ३० जीवा० ३/२८३ देखें दमणग शब्द।
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दव्वहलिया
दव्वहलिया (दार्वीहरिद्रा) दारूहल्दी प० १/४७ दावहरिद्रा के पर्यायवाची नाम
दार्वी दारुहरिद्रा च पर्जन्या पर्जनीति च । कटङ्कटेरी पीता च भवेत् सैव पचम्पचा । । सैव कालीयकः प्रोक्तस्तथा कालेयकोपि च । पीतद्रुश्च हरिद्रुश्च पीतदारु च पीतकम् ।। दार्वी, दारुहरिद्रा, पर्जन्या, पर्जनी, कटङ्कटेरी, पीता, पचम्पचा, कालीयक, कालेयक, पीतद्रु, हरिद्रु, पीतदारु और पीतक ये सब दारूहल्दी के पर्यायवाची शब्द हैं। (भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग० पृ० ११८ )
जरिठक
शाख
पारव
फूल
अन्यभाषाओं में नाम
दारुहलदर
हि० - दारुहलदी, दारुहरदी, दारहलद । बं०दारुहरिद्र । म० - दारु हलद, जरकिहलद । गु०मा० - दारुहलदी । क० - दोद्दा मरदरिसिन । ते० - मनिपसुपु । ता० - मरमंजिल । कुमा० - चित्रा, कीलमोरा । पं०-सुमलु । ने० - चित्रा फा० - दारचोबह, फिलझरह । अ० - दारहलक । अं०
Indian berberry (इन्डियन बरबेरी) ले० - Berberis Spe cies बर्बेरिस की विभिन्न जातियां) Fam. Berberidaceae (बर्बेरिडॅसी) ।
उत्पत्ति स्थान- इसकी १२ - १३ जाति की कंटकित झाडियां अधिकतर हिमालय के पहाड़ों पर तथा आसाम में पाई जाती है। इनमें से चार जातियां मध्य तथा दक्षिणभारत (नीलगिरि पर्वत) में पाई जाती है। छोटा नागपूर के पारसनाथ की पहाड़ी पर भी एक भेद पाया जाता है।
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विवरण- हरीतक्यादि वर्ग एवं अपने ही दारुहरिद्रा कुल के इसके सदा हरे भरे, कंटकित गुल्म ४ से ५ या १५ फुट तक ऊंचे, कांड ८ इंच व्यास के चिकने, चमकीले, छाल ऊपर से धूसरवर्ण की अंदर से पीली, अन्तःकाष्ठ गहरे पीतवर्ण का तथा कड़ा होता है । पत्र चर्मवत्, मोटे, कडे, मजबूत, सूक्ष्म शिराजाल युक्त, सरल धार वाले, टहनियों पर दो दो या तीन-तीन इंच के अंतर पर आकार में इंगुदी या सनायपत्र जैसे नोंकदार या कुछ कटे हुए कंगूरेदार तथा कंगूरे के चारों ओर सूक्ष्म कांटे होते हैं । १ से १.५ इंच लंबे, ३/४ इंच चौड़े। पत्रगुच्छे के निकट टहनियों पर ३ कांटे होते हैं और इन गुच्छों में एक छोटा-सा पुष्पघोष (घुमचा ) निकलता है । पुष्प छोटे-छोटे निम्बपुष्प जैसे, पीतवर्ण के उक्त २ से ३ इंच लंबी पुष्पघोष या मंजरी में वसंतऋतु में आते हैं। फल ग्रीष्मारंभ में पुष्पों के झड़ जाने पर, फल हरे रंग के आते हैं, जो फिर क्रमशः नीले या लाल रंग के रजावृत्त, किसमिस जैसे हो जाते हैं। मूल मोटी तथा स्थान-स्थान पर बहुत शाखाओं में विभक्त होती है। ये मूल की शाखाएं एक ओर विशेषतः भूमि की ओर झुकी रहती है। इस पौधे की ताजी लकड़ी सुगंधित, स्वाद में कडुवी और कषैली होती है। इसे कितना भी उबालें तो भी यह पीली ही रहती है । (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ४३४ )
दव्वी
दव्वी (दर्वी) दारुहलदी
दव के पर्यायवाची नाम
भ० २०/२०/ प० १/४४/२
अन्या दारुहरिद्रा च, पीतद्रुः पीतचंदनम् ।। ५७ ।।
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निर्दिष्टा काष्ठरजनी, सा च कालेयकं स्मृतम्।। के साथ कर्णीवाले शब्द तथा अश्ववाचक सभी शब्दों के कालीयकं दारुनिशा, दर्वी पीताह पीतकम् ।।५८ ।। साथ भुरी वाले शब्द अश्वखुरा (अपराजिता) के नाम हैं। कंटकंटेरी पर्जन्या, पीतदारु पचंपचा।
(राज०नि०३/८७.८८ पृ० ४५) हेमवर्णवती पीता, हेमकान्ता कुसम्भका ।।५।। अन्य भाषाओं में नाम
दारुहरिद्रा, पीतद्रु, पीतचंदन, काष्ठरञ्जनी, हि०-कोयल, अपराजिता । म०-कोकर्णिसुपली। कालेयक, कालीयक, दारुनिशा, दर्वी, पीतांह, पीतक, गु०-गरणी, घोली। बं0-अपराजिता अं0-Megin कंटकटेरी, पर्जन्या, पीतदारु, पचंपचा, हेमवर्णवती, (मेगिन)। ले०-Clitoria Termatia (क्लिटोरिया टरनेशिया)। पीता, हेमकान्ता कुसुम्भ का ये सभी दारुहरिद्रा के पर्याय विवरण-गुडूच्यादि वर्ग की लता रूप में यह एक
(धन्व०नि० १/५६ से ५६ पृ० ३३) ऐसी वनौषधि है जो अपने प्रयोग में प्रायः अपराजिता या देखें दव्वहलिया शब्द।
सफल ही होती है अथवा जिसके प्रयोग से वैद्य पराजित
नहीं होता इसीलिए मालूम होता है संस्कृत में इसे दहफुल्लइ
अपराजिता कहते हैं।
श्वेत और नीले फूलों के भेद से यह दो प्रकार की दहफुल्लइ (दधिपुष्पी) श्वेत अपरजिता।
है। इसके फूल ग्रीष्म ऋतु को छोड़कर प्रायः वर्षभर प० १/४०/५
फलते रहते हैं। इसकी बेलें बाग-उपवन ग्रामों में खेती दधिपुष्पिका (पी) स्त्री। कटभीवृक्षे। श्वेत
की मेड़ों पर वृक्ष या झाड़ियों के सहारे खूब फैलती हुई अपराजितायाम्। (वैद्यक शब्दसिन्धु पृ०५२६)
होती हैं। कई लोग अपने घर के दरवाजे या फाटकों विमर्श-प्राकृत भाषा में फुल्ल शब्द का अर्थ पुष्प
पर शोभा के लिए इसे चढ़ा देते हैं। फूल सीप जैसे या या फूल होता है। प्राकृत में एक पद में भी संधि होती
गौ के कान जैसे आगे को कुछ गोलाकार फैले हुए और है इसलिए इसकी छाया पुष्पी बनी है। प्रस्तुत प्रकरण
डंडी की ओर सिकडे हए से होते हैं। इसीलिए इसे में दहफुल्लइ शब्द वल्लीवर्ग के अन्तर्गत है। इसलिए
गोकर्णी भी कहते हैं। इसका अर्थ मोरबेल उपयुक्त है। देखें दधिफोल्लइ शब्द ।
अपराजिता के पत्ते अंडाकार, वनमंग के पत्ते जैसे यदि एक पद में संधि न करें तो दहफुल्लइ की छाया
किन्तु उनसे कुछ बड़े आकार के, प्रत्येक सीक पर ५ दधिपुष्पकी बनती है। वनस्पति शास्त्रों में दधिपुष्पकी
से ७ तक युग्म या जोड़ से निकलते हैं। फलियां मटर शब्द नहीं मिलता है, दधिपुष्पिका मिलता है।
की फली जैसी किन्तु चपटी २ से ४ इंच लंबी होती है। दधिपुष्पिका का अर्थ श्वेतअपराजिता होता है। यह
बीच ५ से ७ या १० तक काले वर्ण के चिकने उड़द जैसे लता होती है। इसलिए इस शब्द का दूसरा अर्थ श्वेत
कुछ चपटे प्रत्येक फली में होते हैं। अपराजिता भी ग्रहण कर रहे हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० १६७, १६८) दहफुल्लइ (दधिपुष्पिका) श्वेत अपराजिता । दधिपुष्पिका के पर्यायवाची नाम
दहिवण्ण अश्वक्षुराद्रिकर्णी च कटभी दधिपुष्पिका।। दधिवण्ण (दधिवर्ण) कैथ गर्दभी सितपुष्पी च श्वेतस्यन्दापराजिता ।।७// ठा० १०/८२/१ भ० २२/३ समवाय १५/ ओ० ६, १०, जीवा० श्वेता भद्रा सुपुष्पी च, विषहन्त्री त्रिरेकधा।
३/३८८ प० १/३६/३ नाग पर्यायकर्णी स्यादश्वाहादिक्षुरी स्मृता ।।८८ // अश्वखुरा, अद्रिकर्णी, कटभी, दधिपुष्पिका, गर्दभी,
विमर्श-वनस्पति शास्त्र में दधिवर्ण शब्द नहीं सितपुष्पी, श्वेतस्यन्दा, अपराजिता. श्वेता भदा सपष्पी मिला है। लगता है दधि के समान वर्ण के आधार पर विषहन्त्री ये सब तेरह नाम हैं। नागवाचक सभी शब्दों
दधिवर्ण शब्द बना हो। कैथ के पर्यायवाची नामों में एक
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नाम है-दधित्थ। उसका अर्थ है दही जैसे गूदेवाला। दाडिम, दाडिमीसार, कुट्टिम, फलषाडव, स्वादम्ल, इससे लगता है दहिवण्ण शब्द कैथ अर्थ का ही वाचक रक्तबीज, करक, शुकवल्लभ ये दाडिम के पर्याय हैं। है। प्रस्तुत प्रकरण में 'दहिवण्ण' शब्द बहुबीजक वर्ग के
(धन्चः नि०२/६१ पृ० १२२) अन्तर्गत है। कैथ में अनेक बीज होते हैं। इससे स्पष्ट अन्य भाषाओं में नामहोता है कि दहिवण्ण शब्द कैथ वनस्पति का ही वाचक है। हिO-अनार, दाडिम । बं०-दाडिम, डालिमगाछ। कैथ के संस्कृत नाम
मं०-डालिम्ब। गु०-दाड़ म । क०-दालिम्ब । कपित्थस्तु दधित्थः स्यात्, तथा पुष्पफलः स्मृतः। ते०-दालिम्बकाया। ता०-मादलै, मडलै, मडतम । कपिप्रियो दधिफल स्तथा, दन्तशठोपि च ।।६० ।। अंo-Pomegranate (पोमेग्रेनेट)। ले०-Punicagranatum
कपित्थ, दधित्थ, पुष्पफल, कपिप्रिय, दधिफल Linn (प्युनिका ग्रॅनेटम्) | Fam. Punicaceae (प्युनिकेसी)। तथा दन्तशठ ये सब कपित्थ के संस्कृत नाम हैं।
उत्पत्ति स्थान-प्रायः सब प्रान्त की वाटिकाओं में (भाव०नि०आम्रादिफल वर्ग पृ० ५६५) अनार के वृक्ष लगाये जाते हैं। यह हिमालय में ३ से ६ कपित्थ (बन्दरों को प्रिय) दधित्थ (दही जैसा गूदे हजार फीट तक तथा अफगानिस्तान एवं फारस में वाला)
वन्यरूप में पाया जाता है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ३१७) विवरण-इसका वृक्ष छोटा अनेक शाखा-प्रशाखा देखें कविट्ठ शब्द।
करके झाड़दार होता है। पत्ते विपरीत या न्यूनाधिक
विपरीत या समूहबद्ध, अत्यन्त सूक्ष्म, पारभाषक छीटों से दाडिम
युक्त, १ से २.५ इंच लंबे, आयताकार या अभिलट्वाकार, दाडिम (दाडिम) अनार।
चिकने एवं आधार की तरफ छोटे वृन्त से युक्त रहते हैं। भ० २२/३ ओ० ६ जीवा० १/७२ प० १/३६/१
फूल अत्यन्त लाल रंग के होते हैं। फल गोल और छिलका मोटा होता है। फलों में सफेदी युक्त लाल अथवा गुलाबी रंग के अगणित नोकदार दाने होते हैं। सूखने पर यह अनारदाना कहलाता है। इसके संपूर्ण फल जड़ या कांड की छाल, फल की छाल एवं स्वरस आदि का उपयोग किया जाता है।
(भाव० नि० आम्रादिफल वर्ग० पृ० ५८२. ५८३)
दासि दासि (दासी) नील कटसरैया भ० २२/४ प० १/३७/५ दासी के पर्यायवाची नाम
नीलपुष्पा तु सा दासी, नीलाम्लानस्तु छादनः । बाला चार्तगला चैव, नीलपुष्पा च षड्विधा१३४ ।।
नीलपुष्पा, दासी, नीलाम्लान, छादन, बाला तथा आर्तगला ये सब नीलपुष्पा कटसरैया के नाम हैं।
(राज०नि० १०/१३४ पृ० ३२४) अन्य भाषाओं में नाम
म०-काला कोरण्ट । क०-करिये गोरटे । गौ०-नीलझांटी। हि०-काली कटसरैया या पियाबांसा।
THSP
दाडिम (Punicagranatum) दाडिम के पर्यायवाची नाम
दाडिमो दाडिमीसारः, कुट्टिमः फलषाडवः। स्वादम्लो रक्तबीजश्व, करक: शुकवल्लभः ।।६१।।
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बं०-नील झांटी।ले०-BarleriaStrigosa willd (वर्लेरिया स्ट्रिगोसा)।
शारव
दासी के पर्यायवाची नाम
काकजचा ध्वांसजङ्घा, काकपादा त लोमशा।। पारापतपदी दासी, नदीकान्ता प्रचीबला ।।२०।।
काकजंघा, ध्वांसजङ्घा, काकपादा, लोमशा, पारापतपदी, दासी, नदीकान्ता, प्रचीबला ये काकजंघा के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०४/२० पृ० १८६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-काकजंघा, मसी, चकगोनी। बं०-केडया टुंटी, काडपाठेंगा, कांटागुड़काड़ली गु०-अघाड़ी, बोड़ी। म०-कांग। ले०-Leea Acquata (लीआ एक्वेटा)।
उत्पत्ति स्थान-यह बूटी मध्य व पूर्व बंगाल, हिमालय के तटवर्ती प्रदेश, सिक्कम, सिलहट, आसाम, उड़ीसा तथा बिहार आदि प्रदेशों के जंगलों एवं विशेषतः आर्द्र या जलसमीपवर्ती भूमि में पाई जाती है।
विवरण-यह द्राक्षादि कुल (Vitaceae) की है। इसे बंगाल की ओर काकजंघा कहते हैं। इसके लंबे-लंबे रुप ४ से १० फीट ऊंचे होते हैं। इस सदाहरित पत्रयुक्त क्षुप का नूतन कोमल भाग कुछ रोमश एवं खुरदुरा होता है। इसकी शाखाएं ग्रंथियुक्त ऐंठी हुई, कर्कश एवं काक की जंघा के समान होने से इसका भी वही नामकरण हो गया है। पत्ते कंगूरेदार किनारीयुक्त, अग्रभाग में नुकीले ४ से १२ इंच लंबे तथा २ से ४ इंच चौड़े, ऊपरी भाग खुरदरा एवं निम्नभाग मृदुरोमश युक्त होते हैं। पुष्प श्वेत कुछ बड़े आकार के. छोटी-छोटी रोम युक्त मंजरियों में लगते हैं। पुष्पवृन्त बहुत छोटा होता है। फल कुछ दबा हुआ सा, गोल मटर जैसा, ३ से ४ इंच व्यास का, २ से ६ खंड वाला, कच्ची दशा में लाल तथा पकने पर काला पड़ जाता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २०१, २०२)
उत्पत्ति स्थान-कटसरैया के क्षुप उष्ण पर्वतीय प्रदेशों में अधिक होते हैं। पंजाब, बंबई, मद्रास, आसाम लंका, सिलहट आदि प्रान्तों में विशेष पाए जाते हैं। यह बाग-बगीचों में शोभा के लिए बहुत लगाया जाता है।
विवरण-इसके क्षुप प्रायः २००० फीट की ऊंचाई पर अत्यधिक पाए जाते हैं। इसका क्षुप पीत और श्वेत कटसरैया के क्षुपों की अपेक्षा कुछ ऊंचा दिखाई देता है। शाखाएं बहुत सीधी, खुरदरी तथा गोल ग्रन्थियों से युक्त होती है। इसके नीले पुष्प बड़े सुहावने होते हैं । यह शीतकाल में ही विशेष फलता है।
(धन्वन्तरि वनौ०विशे०भाग 2 पृ० ४८)
देवदारु
दासि दासि (दासी) काक जंघा | भ० २२/४ प० १/३७/५ दासी-स्त्री० काकजंघावृक्ष, नीलाम्लान वृक्ष, पीताम्लानवृक्ष।
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ०८४) विमर्श-प्रज्ञापना (१/३७/५) में दासि शब्द गुच्छवर्ग के अन्तर्गत है। काकजंघा के पुष्प मंजरियों में आते हैं इसलिए यहां काकजंघा का अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
देवदारु (देवदारु) देवदार प०१/४०/२
देवदारु के पर्यायवाची नामदेवदारु स्मृतं दारुभद्रं दार्विन्द्रदारु च। मस्तदारु द्रुकिलिमं किलिमं सुरभूरुहः ।।
(भाव० नि० कार्पूरादिवर्ग पृ० १६७)
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देवदारु, दारुभद्र, दारु, इन्द्रदारु, मस्तदारु, टुकिलिम, किलिम और सुरभूरुह ये सब देवदारु के संस्कृत नाम हैं।
अन्य भाषाओं के नाम
हि०म० गु० - देवदार | बं०- देवदारु । पहा०केलोन । ने० – देवदारिचेट्टु । पं०- केलु। ता०देवदारुचेडि । फा०- देवदार। अं० - Himalayan Cedar (हिमालय सिडार) Pinus Deodar (पाइनस देवदार) ले०-Cedrus deodara (Roxb) (सेड्स देवदार ) Fam. Pinaceae (पिनॅसी)।
फल
फल परत
....
देवदाली
देवदाली (देवदाली) घघरबेल, देवदाली
भ० २२/३ प० १/३६/२
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में देवदाली शब्द बहुबीजक वर्ग के अन्तर्गत आया है। घघर बेल के फल में अनेक बीज होते हैं।
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देवदाली के पर्यायवाची नाम
देवदाली तु वेणी स्यात्, कर्कटी च गरागरी । देवताडो वृत्तकोशस्तथा जीमूत इत्यापि । । २६१ ।। देवदाली, वेणी, कर्कटी, गरागरी, देवताड, वृत्तकोश और जीमूत ये नाम देवदाली के हैं । (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ४६८ )
अन्य भाषाओं में नाम
हि०- देवदाली, सोनैया, बंदाल, घघर बेल, घुसरान । बं० - बिंदाल, घोषलता देवताड़ देयाताड । म० - देवडांगरी, कुकरबेल । गु० - कुकड़बेल । ने०पनिबिर | क० -देवडंगर । अंo - Bristty Luffa (ब्रिस्टिलि लुफा) । ले० - Luffa Cucurbitaceae (कुकुर बिटेसी) ।
उत्पत्ति स्थान- यह सिंध, गुजरात, बिहार, देहरादून, उत्तरी अवध, बुंदेलखंड, उत्तरप्रदेश और बंगाल आदि स्थानों में अधिक उत्पन्न होती है।
विवरण- इसकी लता खेकसा (कर्कोटकी) के समान होती है। कर्कोटकी का विस्तार अधिक सघन होता है परन्तु देवदाली का विस्तार बहुत कम होता है। इसके कांड पतले एवं पांच कोन वाले होते हैं। तन्तु द्विशाख शाखाओं वाले होते हैं । पत्ते १ से २.५ इंच के घेरे में गोलाकार, वृक्काकार, लट्वाकार, पञ्चकोणाकार अथवा पांच भाग वाले एवं गहरे कटे किनारे वाले तथा प्रत्येक भाग दन्तुर दीर्घवृत्ताभ होते हैं। पत्रदंड १ से २ इंच लंबा होता है । पुष्प श्वेत तथा व्यास में ५ से १ इंच होते हैं। पुपुष्प २ से ६ इंच लंबी मंजरियों में और उन्हीं पत्र कोणों में एकाकी स्त्रीपुष्प निकले रहते हैं। फल १ से १.५ इंच लंबे, लगभग आधा इंच मोटे, १/६ से १/४ इंच लंबे, सघन, कडे रोम (वाह्यवृद्धि) अथवा कोमल कांटों से आच्छादित रहते हैं। फल कच्चे होते हैं। कांटे हरे रंग के और सूखने पर भूरे रंग के हो जाते हैं। फलों के मुंह पर सूक्ष्म ढक्कन होता है। जब फल जाड़े में पककर सूख नाता है तब यह ढक्कन अपने आप फल से अलग होकर गिर जाता है और फल के अंदर के रेशे वाले तीन छिद्रों में से बीज निकलना आरंभ हो जाता है। इस लता का स्वाद बहुत कडवा होता है।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ४६६ )
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धम्मरुक्ख धम्मरुक्ख (धर्मवृक्ष) पीपल प० १/४३/१ धर्मवृक्ष के पर्यायवाची नाम
पिप्पलः केशवावास श्चलपत्रः पवित्रकः । मङ्गल्यः श्यामलोश्वत्थो, बोधिवृक्षो गजाशनः ७१ श्रीमान् क्षीरद्रुमो विप्रः, शुभदः श्यामलच्छदः। पिप्पलो गुह्यपत्रस्तु, सेव्यः सत्यः शुचिद्रुमः।।७२ ।।
चैत्यद्रुमो धर्मवृक्षः, चन्द्रकर मिताहवयः ।।
पिप्पल, केशवावास, चलपत्र, पवित्रक, मंगल्य श्यामल, बोधिवृक्ष, गजाशन, श्रीमान्, क्षीरद्रुम, विप्र, शुभद, श्यामलच्छद, गुह्यपत्र, सेव्य, सत्य, शचिद्रम, चैत्यद्रुम, धर्मवृक्ष और चंद्रकर ये सब अश्वत्थ के पर्यायवाची नाम हैं। (धन्व०नि०५/७१,७२ कर्पूरादिवर्ग० पृ० २४०)
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में धम्मरुक्ख शब्द वलयवर्ग के अन्तर्गत है। इसकी छालश्वेत धूसर वर्ण की होती है।
देखें अस्सत्थ शब्द।
धव के पर्यायवाची नाम
धवः पिशाचवृक्षश्च, शकटाख्यो धुरन्धरः ।।
धव, पिशाचवृक्ष, शकटाख्य, धुरन्धर ये धव के पर्यायवाची नाम हैं। (शा०नि० फलवर्ग० पृ० ५२०) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-धौरा, धौं, धव, धों, धव वृक्ष । बं०-घाउयागाछ। म०-धावडा, धामोडा, धवल । गु०-धावडो । क०-दिदुंग। ते०-वेल्लमदि। अ०-Axle Wood (अॅक्सेल वुड)। ले०-Anogeissus Latifolia Whall (एनो जिस्सस् लेटिफोलिया) Fam. Combretaceae (कॅम्ब्रेटेसी)।
उत्पत्ति स्थान-धव के वृक्ष जंगल में अधिक होते हैं। यह पूर्वबंगाल तथा आसाम को छोड़कर प्रायः सब प्रान्तों में कहीं न कहीं पाया जाता है।
विवरण-इसका वृक्ष बड़ा या मध्य ऊंचाई का होता है। छाल १/४ इंच मोटी, चिकनी, श्वेताभ धूसर एवं पपडी छूटने के कारण कुछ गढेदार होती हैं। पत्ते चौड़े आयताकार अंडाकार, २ से ४ इंच लंबे, कुंठित या गोलाग्र सनाल एवं पृष्ठ पर बिन्दुकित होते हैं। फरवरी में गहरे लाल रंग के पत्र गिरते हैं तथा मार्च, अप्रैल तक वृक्ष पर्णहीन रहता है। पुष्प छोटे हरिताभ मुंडक के रूप में सितम्बर से जनवरी तक आते हैं। फल चिपटे द्विपक्ष चोंचदार एवं दिसम्बर से मार्च तक पकते हैं। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और लचकदार होती है। गाड़ी के धूरे तथा औजारों की मुट्ठियां आदि बनाने में काम आती है। इसका पर्याय धुरंधर तथा व्यापारी नाम Axle wood इसीलिए पड़ा है। (भाव०नि० वटादि वर्ग० पृ० ५४०)
धव धव (धव) धौंवृक्ष
भ० २२/३ ओ० ६, जीवा० १/७२, ३/५८३ प० १/३६/३
पत्र
NA
सारव
धायई धायई (धातकी) धाय भ० २२/२ प० १/३५/२ धातकी के पर्यायवाची नाम
धातकी ताम्रपुष्पी च, कुञ्जरा मद्यवासिनी। पार्वतीया सुभिक्षा च, वह्निपुष्पा च शब्दिता ।।८६ ।।
धातकी, ताम्रपुष्पी, कुञ्जरा, मद्यवासिनी, पार्वतीया सुभिक्षा, वह्निपुष्पा ये धातकी के पर्याय हैं।
(धन्व० नि० ३/८६ पृ० १६१)
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अन्य भाषाओं में नाम
भालाकार या लट्वाकार-भालाकार नोकदार तथा हि०-धातकी, धवई धाई, धावा, धाओला, धाय।। सरलधार होते हैं। पुष्प १/२ से ३/४ इंच, चमकीले बं०-धाइफुल । म०-धायटी, धावस। गु०-धावणी, लालरंग के नलिकाकार फूल आते हैं। यह शाखाओं के धावडी ना फूल । क०-धातकि । ते०-सेरिजि एर्रापुषु। संपूर्ण कांड से छोटे-छोटे गुच्छों में निकले रहते हैं। बीज उ०-जातिको। पं०-धा। अवधo-धेति ने०-दहिरि।। कोष छोटा और बीज चिकने भूरे रंग के होते हैं । औषधि ले०-WoodfordiaFruticosaKurz (खुडफोर्डिआ फूटिकोसा। के लिए इसके फूलों का व्यवहार किया जाता है तथा कुर्ज०) Fam. Lythraceae (लिफ्रेसी)।
इससे रेशम रंगने के लिए एक लाल रंग निकाला जाता
(भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ० १०६)
नंदिरुक्ख नंदिरुक्ख (नन्दीवृक्ष) तून देखें णंदिरुक्ख शब्द
भ० २२/३
नग्गोह नग्गोह (न्यग्रोध) छोंकर, खेजडी
देखें णग्गोह शब्द।
भ० २२/३
नल नल (नल) नल, नरकट
देखें णल शब्द।
भ०२१/१८
नलिण
नलिण (नलिन) थोड़ा लाल कमल ५० १/४६ उत्पत्ति स्थान-धातकी के क्षुप प्रायः सब प्रान्तों
देखें णलिण शब्द। में कहीं न कहीं देखने में आते हैं। ये पहाड़ों में ५००० हजार फीट की ऊंचाई तक एवं देहरादून के जंगलों में
नागमाल बहुतायत से पाये जाते हैं तथा वाटिकाओं में भी रोपण नागमाल (नागमाल) शालिधान्य का भेद किये जाते हैं।
जं० २/८ विवरण-इसका क्षुप बड़ा तथा १० से १२ फीट नागमालः- शालिधान्यभेदे। तक ऊंचा होता है। शाखाएं लंबी फैली हुई और सघन रहती है। नवीन शाखाओं तथा पत्तियों पर काले-काले
नागरुक्ख त हैं। पत्ते समवर्ती या कुछ विषमवर्ती और कहीं-कहीं तीन-तीन पत्ते एक साथ गच्छों में दिखाई नागरुक्ख (नागवृक्ष) सेहुण्डवृक्ष भ० २२/२ पड़ते हैं। वे २ से ४ इंच लंबे, ३/४ से १.२५ इंच चौड़े,
देखें णागरुक्ख शब्द।
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जन आगम : वनस्पति कोश
नागलता
फा०-जोजहिन्दी, नारीयल, नारगील । अ०-नारिजल।
अ०-Cocount (कोकोनट)। ले०-Cocas nucifera Linn नागलता (नागलता) पान की बेल ५० १/३६/१
(कोकस् न्यूसीफेरा) Fam. Palmea (पामी)। देखें णागलया शब्द।
उत्पत्ति स्थान-यह भारत के उष्ण एवं आर्द्र
प्रदेशों, विशेषकर समुद्र, नदी आदि के किनारे लगाया नालिएरि
हुआ पाया जाता है। नालिएरि (नालिकेरि) नारियल
विवरण-इसका वृक्ष सीधा या कुछ टेढा ८० फीट भ० २२/१ प० १/४३/२
या अधिक ऊंचा, आधार की तरफ कुछ मोटा, जहां से नालिकेरि के पर्यायवाची नाम
मूल निकलते हैं एवं क्वचित् शाखायुक्त होता है। पत्ते ६ नालिकेरे रसफलः, सुखङ्गः कूर्चकेसरः ।
से १८ फीट लंबे पक्षवत संयुक्त, पत्रक २ से ३ फीट लंबे लतावृक्षो दृढफलो, लाङ्गली दाक्षिणात्यकः ।।
क्रमशः नोकदार एवं कम चौड़े होते हैं। पुष्प प्रत्येक पत्र नालिकेर, रसफल, सुतुङ्ग, कूर्चकेसर, लतावृक्ष,
के कोण से ४ से ६ फीट लंबा नारंग या तृणवर्ग का दृढफल, लाङ्गली, दाक्षिणात्यक ये सब नालिकेर के ।
कोशावृत पृष्पव्यूह निकलता है, जिसमें स्त्रीपुष्प नीचे की पर्यायवाची नाम हैं। (सोढल नि० ! श्लोक ५८५)
तरफ संख्या में कम, १ इंच लंबे तथा गोल होते हैं और पुंपुष्प अधिक छोटे, मधुर गंध वाले एवं अग्रभाग पर होते हैं। फल अंडाकार त्रिकोण युक्त, ६ से ११ इंच लंबा तथा एक बीज युक्त होता है। फलभिति का बाह्यस्तर मोटा तथा रेशेदार होता है। जो कठोर अन्तस्तर को घेरे रहता है। अन्तस्तर के अन्दर बीज रहता है। अन्तस्तर के एक सिरे पर ३ छिद्र रहते हैं, जिनमें से किसी एक से बीजोभेद के समय अंकुर निकलता है। गिरि के अंदर • अपक्व अवस्था में बहुत पानी रहता हैं किन्तु पक्वावस्था
में यह कम हो जाता है। नारियल के अनेक प्रकार होते हैं, जिनमें से कुछ के पेड़ छोटे तथा कुछेक ऊंचे होते हैं। फलों के रंग, आकार तथा संख्या के अनुसार भी अनेक प्रकार पाये जाते हैं।
(भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग० ५५६)
AS
फल
AM
PMOTION
ABOR
ira
- V
पत्र
निंब निंब (निम्ब) नीम जीवा० १/७१ उत्त० ३४/१०
निम्बः स्याद् पिचुमर्दश्च, पिचुमन्दश्च तिक्तकः । अरिष्टः पारिभद्रश्च, हिङ्गुनिर्यास इत्यपि।।६३ ।।
निम्ब, पिचुमर्द, पिचुमन्द, तिक्तक, अरिष्ट, पारिभद्र और हिंगुनिर्यास ये सब संस्कृत नाम नीम का है।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३२८)
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-नारियल, नरियल, गरी, गिरी। बं०- नारिकले, डाब | म०-नारली (फल) नारळ (वृक्ष) माड़। गु०-नारियल। ते०-टकाईं। ता०-तेंगाई, टेन्ना।
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जैन आगम वनस्पति कोश
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में निंबशब्द रस की उपमा
के लिए प्रयुक्त हुआ है। देखें बि शब्द |
...
निंबकरय
निंबकर (निम्बरक) महानिंब वकायन
निम्बरक|पुं |महानिम्बे ।
प० १/३५/३
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६०६ )
देखें निंबारग शब्द ।
विमर्श - निघंटुओं में तथा शब्दकोशों में निंबकरक शब्द नहीं मिलता, निम्बरक शब्द मिलता है। संभव है क का लोप होकर निम्बरक शब्द रह गया | प्रस्तुत शब्द एकास्थिवर्ग के अन्तर्गत है । महानिम्ब के पर्यायवाची नाम
महानिम्बो मदोद्रेकः कार्मुकः केशमुष्टिकः । काकाण्डो रम्यकोक्षीरो महातिक्तो हिमद्रुमः । ।११ । । महानिम्ब, मदोद्रेक, कार्मुक, केशमुष्टिक, काकाण्ड रम्यक, अक्षीर, महातिक्त, हिमद्रुम ये सब वकायन के संस्कृत नाम हैं। (राज० नि० ६/११ पृ० २६५)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - वकाइन, वकायन बकैन, डकानो । बं०घोडानिंब महानिंब मं० - बकाणनिंब काणीनिम्ब कवड़यानिंब । क० - बेट्टदबेउ | गु० - बकान्य, बकानलिंबडो । ते० - पेदवेया, तुरकवयक, कण्डवेय । दा० - गौरीनिंब | ता० - मालाइवेतु वावेप्यम् । गौ०महानिम्ब, घोडानिम्, वननिम् । फा० - तुजा कुनार्य । अ०-वान । ले०- M. Bukayum (एम. बकायन) Melia.Sempervirenswill (मेलिया समपर वीरनस विल) M. Ayradirach (एम.एजा डिरेच) अ० - Persian Lilac (पर्शियन लिल्याक) Common Beadtree (कामन बीड ट्री ।
उत्पत्ति स्थान- इस वृक्ष का मूल निवास स्थान पर्सिया और अरब माना जाता है। भारत के हिमांचल प्रदेशों में २ से ३ हजार फीट की ऊंचाई पर विशेषतः उत्तरभारत, पंजाब, दक्षिणभारत में बोए हुए इसके वृक्ष तथा कहीं-कहीं नैसर्गिक पैदा हुए भी पाए जाते हैं। इनके
अतिरिक्त ब्रह्म देश, चीन, मलायाद्वीप, बलूचिस्तान आदि में भी यह नौसिर्गक रूप से पैदा होते हैं।
विवरण - यह भी नीम के कुल का एक मध्यम प्रमाण का वृक्ष है। इस २० से ४० फुट तक ऊंचे सीधे, सुंदर, वृक्ष के तने का व्यास ६ से ७ फुट तक, छाल १/४ से १/२ इंच तक, मोटी, अंदर से भूरे लाल वर्ण की, कड़ी, बाह्य भाग में हलकी, मटमैली, शाखाएं फैली हुई, पत्र संयुक्त १० से २० इंच लंबे, त्रिपक्षवत् । पत्रक १/२ से ३ इंच लंबे, १/२ से १.२५ इंच चौड़े, लंबाग्र आरा जैसे, दन्तुर धार वाले, नीमपत्र की अपेक्षा लंबाई में छोटे, किन्तु अधिक चौड़े । पत्र की सींक ६ से १८ इंच तक लंबी ३ ५ या ७ अभिमुख संयुक्त पत्रकों से युक्त होती है । शीतकाल में ३ से ४ महीनों तक यह वृक्ष पत्ररहित अशोभनीय होता है। फाल्गुन से वैशाख तक यह पत्रों से और पुष्पों से सघन सुशोभनीय हो जाता है। पुष्प नीम पुष्पों से बड़े, गुच्छों में, किंचित् नीलाभ मधुर तिक्त गंध वाले, लंबे वृन्त युक्त, आभ्यन्तर दल फैले हुए श्वेत या बैंगनी रंग के तथा बीच में पुंकेसरों की गहरे बैंगनी रंग की नलिकायुक्त होते हैं। फल नीमफल जैसे, प्रायः १ इंच से कम लंबे, कच्ची दशा में हरे, पकने पर पीले, भीतर पंचकोष युक्त एवं बीजों से युक्त, कहीं कहीं ४ ही बीज कुछ लंबे गोल से, मध्यभाग में मणि के समान छिद्र होते हैं। जिसमें तागा पिरोकर इसकी माला बनाई जाती है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ० १६० )
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....
निप्फाव
निप्फाव (निष्पाव) मोठ
भ० २१/१५ प० १/४५/१ विमर्श - निष्पाव शब्द का अर्थ राजशिम्बिज बीज, सेम या भटवासु होता है। उसका वर्णन णिप्फाव शब्द में किया गया है। कैयदेवनिघंटुकार निष्पाव शब्द को मोठ के पर्यायवाची नामों में एक माना है। इसलिए यहां मोठ अर्थ भी ग्रहण कर रहे हैं। निष्पाव के पर्यायवाची नाम
मकुष्ठको मकुष्ठः स्याद्, निष्पावो वल्लको मतः । मकुष्ठक, मकुष्ठ, निष्पाव और वल्लक ये मकुष्ठ के पर्यायवाची हैं। (कैयदेव नि० धान्यवर्ग पृ० ३१२ )
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उत्पत्ति स्थान-यह अनेक प्रान्तों में होती है।
क प्रान्तों में होती है।
(लेग्युमिनोसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह जंगली तथा कृषित दोनों प्रकार का सभी स्थानों पर होता है। दक्षिण में विशेष रूप से मैसुर में यह अधिक होता है।
विवरण इसकी लता होती है। पत्ते त्रिपत्रक होते हैं। पुष्प सीधे, दण्ड पर विभिन्न रंगों के किन्तु विशेष रूप से गुलाबी और श्वेत रहते हैं। फली आयताकार, ३ इंच लंबी तथा ४ से ६ बीज युक्त होती है। हरी फलियों के ऊपर की तैलग्रंथियों से दुर्गन्धयुक्त तैल निकलता है। इसके अनेक प्रकार, बीजों के रंग, आकार आदि के अनुसार होते हैं।
(भाव०नि० धान्यवर्ग पृ० ६४६)
निप्फाव
निरुहा निरुहा ( )
भ०२३/१ फल काट
विमर्श-निरुहा शब्द के पाठान्तर में विरुहा शब्द OS दाल
है। निरुहा और विरुहा दोनों शब्द वनस्पति वाचक नहीं
मिले हैं। विरुहा के स्थान पर विनारुह शब्द मिलता है। विवरण-इसका क्षुप मुद्गपणी की तरह फैला प्रस्तत प्रकरण में निरुहा शब्द अनन्तजीववर्ग में कंद हआ तथा अल्पमिश होता हैं। पत्ते त्रिपत्रक होते हैं। पुष्प वाचक शब्दों के साथ है। विनारुहा शब्द का अर्थ छोटे होते हैं। फली दृढ तथा बीज बड़े होते हैं।
तेलियाकंद होता है इसलिए अर्थ की समानता के कारण __ (भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६४७) विनारुहा शब्द ग्रहण किया जा रहा है। संभव है संस्कृत
का विनारुहा शब्द प्राकृत में ना का लोप होकर विरुहा
शब्द रह गया हो। निप्फाव (निष्पाव) भटवांसु सेम
विनारुहा (विनारुहा) तेलिया कंद, त्रिपर्णिका भ० २१/१५ प० १/४५/१
विनारुहा स्त्री। त्रिपर्णिका कन्दे निष्पाव के पर्यायवाची नाम
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६७५) । निष्पावो राजशिम्बिः स्याद, वल्लक: श्वेतशिम्बिकः। त्रिपर्णिका के पर्यायवाची नामनिष्पाव, राजशिम्बि, वल्लक तथा श्वेतशिम्बिक ये
त्रिपर्णिका बृहत्पत्री, छिन्नग्रन्थिनिका च सा। भटवांसु के संस्कृत नाम हैं ।(भाव० नि० धान्यवर्ग पृ० ६४६)
कन्दालः कन्दबहलाप्यम्लवल्ली विषापहा ।।११३।। अन्य भाषाओं में नाम
त्रिपर्णिका, बृहत्पत्री, छिन्नग्रन्थिनिका, कन्दाल, हि०-निष्पाव, भटवास, वल्लार, सेम। कन्दबहला, अम्लवल्ली तथा विषापहा ये सब त्रिपर्णीकंद बं०-मखानसिम। म०-पावटे, वाल। गु०-ओलीया,
(राज०नि०७/११३ पृ० २०८) ओलियवाल। क०-अवरे। ते०-अनुमुल। ताo-मोचै ।
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय की चोटियों पर अंo-Flat Bean (फ्लॅट बीन)। ले०-Dolichos lablab
नेपाल तथा आसाम में उत्पन्न होता है। Linn (डोलिकोस् लबलब)। Fam. Leguminosae
विवरण--इसका क्षुप १ से २ हाथ ऊंचा होता है।
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पत्ते करतलाकार एवं अनेक भागों में विभक्त होते हैं। पुष्प ता०-अवरि। तेल-निलीचेटु, अविरि। फा-नील. लंबे, पुष्पदंड पर नीले पुष्प आते हैं। मूलयुग्म एवं कन्द नीलज, हिमामजनुन । अ०-नील्ज, वस्मा । अं0-Indiga) सदृश होता है, जिसमें नए वर्ष का कंद १ से १.५ इंच (इण्डीगो) ले०-Indigofera Tinctoria Linn (इन्डीगोफेरा लंबा, २/५ से ३/५ इंच मोटा, अंडाकार, आयताकार टिक्टोरीआ लिन०) Fam Leguminosae (लेग्युमिनोसी)। से लेकर दीर्घवृत्ताकार, कुछ सूत्राकार उपमूलों से युक्त एवं तोड़ने पर कुछ पिष्टमय पीताभ होता है। तथा पहले वर्ष का कंद बहुत सिकड़ा हुआ एवं झुरींदार होता है। इसमें गन्ध नहीं होती और स्वाद में पहले मीठा और फिर कड़वा जान पड़ता है। चबाने से थोड़ी देर बाद चिनचिनाहाट और शून्यता मालूम होती है,जो कुछ समय तक बनी रहती है।
(भाव०नि० पृ० ६३०)
नीम नीम (नीप) कदंब
देखें णीम शब्द।
OMITA
भ०२२/३
नीलासोय नीलासोय (नीलाशोक) नवपल्लव वाला कच्चा ।
उत्पत्ति स्थान-पहले इस देश के प्रायः सब प्रान्तों अशोक
में नील रंग के लिए लोग इसकी खेती करते थे। किन्त प० १७/१२४ उत्त० ३४/५ नोट-प्रस्तुत प्रकरण में नीले रंग की उपमा के इस समय कृत्रिम नील रंग के आने से इसकी खेतीपाय. लिए नीलासोय शब्द का प्रयोग हुआ है।
नष्ट ही हो गयी है। अशोक के कच्चे फल का रंग नीला होता है।
विवरण-इसका क्षुप ४ से ६ फीट तक ऊंचा होता
है। शाखाएं पतली, दुर्बल, कोणदार, अल्परोमयुक्त एवं (शा०नि० पुष्पवर्ग पृ० ३८४)
फैली हुई होती है। पत्ते असमपक्षवत् संयुक्त पत्र होते हैं।
पत्रक ३ से ६ जोड़े, शरपंखा के समान अंडाकार या नीली
अंडाकार-लट्वाकार ०.५ से ०.६ इंच लंबे पतले तथा नीली (नीली) नीली, नील प० १/३७/१ कालापन लिये हुए हरे रंग के होते हैं। तोड़ने से इसके नीली के पर्यायवाची नाम- .
पत्ते सीधे टूटते हैं। पुष्प पतली, पत्रकोणज मंजरियों में नीली तु नीलिनी नीला, मेघवर्णा च कुत्सला। हलके नीलाभ गुलाबी रंग के आते हैं। फलियां पतली दूली क्लीतकिका काला, नीलिका नीलपुष्पिका।। एक इंच तक लंबी होती हैं, जिनमें ८ से १२ तक बीज
नीली, नीलिनी, नीला, मेघवर्णा, कुत्सला, दूली, होते हैं। इसकी कई अन्य जातियां होती हैं। क्लीतकिका काला, नीलिका, नीलपुष्पिका ये नाम
(भाव०नि० गूडूच्यादि वर्ग पृ० ४०७) नीलिका के हैं। (शा०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३०५) अन्य भाषाओं में नाम
नीलुप्पल हि०-नीली, नीलीवृक्ष, लील । म०-गुली, नील। .
नीलुप्पल (नीलोत्पल) नीला उत्पल रा० २६ बं०-नील। मा०-लील। गु०-गली। क०-नीली
देखें णीलुप्पल शब्द।
.
.
.
.
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पउम पउम (पद्म) थोड़ा सफेद कमल
पउमलया ____उवा० १/२६ जीवा० ३/२६१ प० १/४६ पउमलया (पद्मालया) लवङ्गलता ईच्छ्वे तं विदुः पद्मम् ।।१३८ //
ओ० ११ जीवा० ३/५८४ जं० २/११ क्षुद्रोत्पल के तीन भेद हैं-(१) ईषत् श्वेत पद्म। पद्मालया स्त्री। लवङ्गलतायाम् (अमरकोष)
(धन्व०नि० ४/१३८ पृ० २१८) विमर्श-पउमलया शब्द की पद्मलता छाया विमर्श-सभी निघंटुओं में पद्म को कमल माना करके एक अर्थ पद्मिनी किया गया है। दूसरा अर्थ है। धन्वन्तरि निघंटुकार उसे (पद्म को) थोड़ा सफेद पद्मालया छाया करके लवंगलता किया जा रहा है। कमल मानते हैं। धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६३७) १३६ में पदम को मनोहर कहा गया है।
पउमलता
पउमा पउमलता (पदलता) पद्मिनी प० १/३६/१
पउमा (पद्मा) स्थल कमल, पद्मचारिणी पद्मिनी।स्त्री। पद्मलता।
भ० २३/६ प० १/४८/४ (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० १०३) पदमा के पर्यायवाची नामविमर्श-पदिमनी को गौरखी भाषा में पदम लता पदमचारिण्यतिचराव्यथा पदमा च शारदा। कहते हैं।
पद्मचारिणी,अतिचरा,अव्यथा, पदमा और शारदा पद्मिनी के पर्यायवाची नाम
ये स्थलकमल के नाम हैं। (भाव०नि० पुष्पवर्ग पृ० ४८२) पलाशिनी पुटकिनी पद्मिनी नलिनी मता।।१४३८ // अन्य भाषाओं में नामविसनाभिः पदमवती, बिसिनी नलिकामयी।
हि०-गुलिया जैब। बं०-थल पद्म। ले०पलाशिनी, पुटकिनी, पद्मिनी, नलिनी, Hibiscus Mutabilis Linn (हिबिस्कस् म्यूटेबिलिस्)। विषनाभि, पद्मवती, बिसिनी, नलिकामयी ये पद्मिनी उत्पत्ति स्थान-यह बागों में लगाया जाता है। के पर्याय हैं। (कैयदेव०नि० औषधि वर्ग० पृ० २६७) इसका आदि स्थान चीन है। पदिमनी नलिनी प्रोक्ता. कुटपिन्यब्जिनी तथा
विवरण-इसका वक्ष छोटा तथा कांटे विहीन होता इत्थं तत्पद्मपर्यायनाम्नी ज्ञेया प्रयोगतः।।१८५।। है। शाखाएं मृदुरोमश होती है। पत्ते हृदयाकार, दन्तुर,
पद्मिनी, नलिनी, कूटपिनी तथा अब्जिनी ये सब ४ इंच व्यास में तथा ३ इंच लंबे, दंड से युक्त होते हैं। पद्मिनी के नाम हैं। (राज०नि० १०/१८५ पृ० ३३४) पुष्प ३ से ४ इंच व्यास में आते हैं, जो प्रातः खिलने पर अन्य भाषाओं में नाम--
श्वेत या गुलाबी रंग के तथा शाम तक गहरे लाल रंग म०-पद्मिनी। का०-ताम्बरेवभेद। गौ०- के हो जाते हैं। फल गोल, चिपटे तथा रोमश होते हैं। पद्मलता।
बीज वृक्षाकार एवं खरखरे होते हैं। (भाव०नि० पृ० ४८३)
पउमलया पउमलया (पद्मलता) पद्मिनी।
__ओ० ११ जीवा० ३/५८४ जं २/११ देखें पउमलता शब्द।।
पउय पउय (पटुक) वच
भ० २३/६ पटु (कः) ।पुं। पटोललतायाम्, कारवेल्ल्यां , चीन कर्पूरे, चोरकनामगंधद्रव्ये, पटोलपत्रे, वचायाम्, छिक्किन्यां
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SAPAN
पत्र
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६३१)
(एरॅसी)। विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पउय शब्द कंदवर्ग के उत्पत्ति स्थान-एशिया खंड का मध्यमभाग तथा शब्दों के साथ है इसलिए यहां ऊपर के पांच अर्थों में । पूर्वी यूरोप के आनूपदेशों में तथा भारत के युक्तप्रांत के वचा अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। वच के कंद होते हैं। सजल दलदल एवं रेतीले स्थानों में, आसाम, मनीपर
नागापहाड, काश्मीर, वर्मा तथा सीलोन में प्रायः सर्वत्र
नैसर्गिक होते हैं तथा बोई भी जाती है। ACORUS CALAMUS LINN:
विवरण-हरीतक्यादि वर्ग एवं सूरणकुल के इस सदैव हरित ३ से ५ फीट ऊंचे, आड़ी टेढ़ी शाखा युक्त, क्षुप के पत्र मूल स्थान से उत्पन्न अभिमुख, चिकने चमकीले, हरे नोकदार ईख या बाजरे के पत्र जैसे ३ से ६ फुट लंबे, ३/४ से १.२५ इंच चौड़े किनारे, तरंगदार, मध्य में मोटे होते हैं। पुष्प इसका पीताभ श्वेत वर्ण का, पुष्पकोश बाह्य आच्छादन युक्त होने से स्पष्ट दिखलाई नहीं देता। यह पुष्पकोश ६ से ३० इंच लंबा, १/४ इंच व्यास का तथा मंजरी पुष्पकोश के भीतर २ से ४ इंच लंबी, आधा पौन इंच व्यास की, किंचित् मुडी हुई, एवं परागकोष पीला होता है। फल त्रिकोणाकार, शुण्डाकार, पार्श्वयुक्त, दो खंड वाला, मांसल एवं बहुबीज युक्त होता
...
..
५
२
भन्द
___ मूल या कंदभूमि में अदरक जैसा प्रसरणशील, मध्यमांगुलि जैसा स्थूल, खुरदरा, ५ से ६ पर्ववाला (षड्ग्रन्थ) या अनेक पर्वयुक्त (जटिला), अरुणवर्ण का उग्रगंधी होता है। वर्षाकाल में फूल तथा पश्चात् फल आते हैं। इसकी मल को ही वच कहते हैं तथा यही औषधि कार्य में ली जाती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ० ३६५)
वच के पर्यायवाची नाम
वचोग्रगन्धा षड्ग्रन्था, गोलोमी शतपर्विका। क्षुद्रपत्री च मङ्गल्या, जटिलोग्रा च लोमशा।
वचा, उग्रगन्धा, षड्ग्रन्था, गोलोमी, शतपर्विका नाम वच के हैं। (भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ० ४३) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-वच, घोरवच, घोड़वच। बं०-वच। म०वेखण्ड। ते०-वासा, वस। गु०-वज, घोडावज | क०-वजे। ता०-वशाम्बु । मला०-व्वयम्प। गोमा०येखण्ड। पं०-बरिबोज । फा०-सोसनजर्द, अगरितुर्की। अ०-उदल बुज, अकरुन, बज, बिजरु। य०-अकन। अं०-Sweet Flag (स्वीट फ्लॅ ग) ले०-Acorus Calamus Linn (एकोरस् कॅलॅमस् लिन०) Fam. Araceae
पउल पउल (पंगुल) बिदारी आदि भ० २३/- प०१/४८/६ पङ्गुलः ।पुं। एरण्डवृक्षे, विदर्यादिः
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६२५) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पउल शब्द कंदवर्ग के शब्दों के साथ है। बिदारी कंद होता है इसलिए बिदारी अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
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पंचगुलिया
पंचगुलिया (पञ्चाङ्गुलिका) तक्रा । प० १/४०/१ पञ्चाङ्गुली | स्त्रीतक्राक्षुपे । (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ६३० ) पञ्चाङ्गुली के पर्यायवाची नाम
तक्राह्वा तक्रभक्षा तु, तक्रपर्यायवाचका ।
पञ्चाङ्गुली सिताभा स्यादेषा पञ्चाभिधास्मृता ।।१६१ । । तक्राह्वा, तक्रभक्षा, तक्र के पर्यायवाची शब्द, पञ्चांगुली तथा सिताभा ये सब तक्राह्वा के पांच नाम हैं। (राज० नि० ४ / १६१ पृ० ६४ )
अन्य भाषाओं में नाम
म० - ताका | क० - हिदृणिके ।
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पक्ककविट्ठ
पक्ककविट्ठ (पक्व कपित्थ) पका हुआ कैथ
उस० ३४ / १३
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में इस के लिए पके हुए कैथ की उपमा दी गई है।
विवरण- इसमें एक आश्चर्य जनक गुण यह है कि यदि हाथी कैथल के फल को खा जाए . तो इसका गूदा हाथी के पट में रह जाता है और गूदारहित अखंडित फल मल के साथ बाहर निकल आता है। इसके दो भेद होते
। एक में फल छोटे तथा अम्ल होते हैं। दूसरे में फल बड़े तथा मीठे होते हैं। (भाव०नि० आम्रादिफल वर्ग० पृ० ५६६ ) देखें कविट्ट शब्द |
पडोला
पडोला (पटोली) मीठा परवल ५० १/३७ / २: १/४०/१ पटोली के पर्यायवाची नाम
ज्ञेया स्वादुपटोली च पटोली मण्डली च सा पटोली मधुरादिः स्यात् ।।१७५ ।।
स्वादुपटोली, पटोली, मण्डली तथा पटोली ये मधुरपटोली के पर्याय हैं ।
अन्य भाषाओं में नाम
म० - स्वादुपटोल | क० - सिंहपडवल । हि० - भिड्पी डलि । (राज० नि० ७/१७५ पृ० २२१ )
जैन आगम वनस्पति कोश
विमर्श - पडोला शब्द प्रज्ञापना सूत्र में दो बार आया है । १/३७/२ में गुच्छ वर्ग के अन्तर्गत है और १/४०/१ में वल्ली वर्ग के अन्तर्गत है। दोनों स्थानों में एक समान ही शब्द है । परवल की लता होती है और पुष्प गुच्छों में आते हैं। परवल की दो जातियां होती हैं कटु और मधुर । इसलिए एक स्थान पर कटु परवल और एक स्थान पर मधुर परवल का अर्थ किया जा रहा है।
उत्पत्ति स्थान - यह बंगाल, पंजाब आदि पश्चिम भारत, दक्षिण भारत तथा कुर्ग आदि समशीतोष्ण कटिबन्ध के प्रदेशों में अधिक होती है।
विवरण - मधुर और कटुभेद से इसकी (परवल की) मुख्य दो जातियां हैं। मधुर का प्रायः शाक बनाया जाता है तथा कडुवे का प्रयोग औषधि के कार्य में होता है । (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ० १६६, २०० )
....
पडोला
पडोला (पटोल) कडवी परवल५० १/३७/२: १/४०/१ पडोल | पुं० स्त्री । (पटोल) लताविशेष ।
( पाइअसद्दमहण्णव पृ० ५२६) विमर्श - प्राकृत में पडोल शब्द पुंलिंग और स्त्री लिंग दोनों में हैं। संस्कृत में उसका रूप पटोल दिया हुआ है ।
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(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६३३)
पटोल के पर्यायवाची नाम
पटोल: कुलकस्तिक्तः, पाण्डुक: कर्कशच्छदः। राजीफलः पाण्डुफलो, राजेयश्चामृतफलः ।।
पटोल, कुलक, तिक्त. पाण्डुक, कर्कशच्छद, राजीफल, पाण्डुफल, राजेय, अमृतफल ये सब पटोल के पर्यायवाची नाम हैं। (भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०६८६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-परवर, परवल, पलवल, परोर, परोरा । बं०-पटोल, पलता। मं०-परवल। क०-पडवल। ता०-पुडलै। ते०-पोटल, आडर । गु०-पटोल । ले०-Trichosanthes dioica Roxb (ट्राइकोसेन्थिस् डाओइका) Fam. Cucurbitaceae (कुकुरबिंटेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह उत्तर भारत के मैदानी प्रदेशों में तथा आसाम एवं पूर्वबंगाल तक होता है।
विवरण-इसकी लता होती है। काण्ड रोमश होते हैं। पत्ते २-३ इंच बड़े अंडाकार, आयताकार, हृदयाकार तीक्ष्णाग्र. लहरदार दन्तूर एवं रूखे होते हैं। फूल सफेद रंग के आते हैं। फल २ से ३ इंच लंबे आयताकार या गोलाभ और पकने पर नारंग रक्त हो जाते हैं।
(भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०६८६,६८७)
भार
MEDKANGAL
DOM
। पुष्यकाट
पणग
आ०४/४
पणग (पणक) काइ
देखें पणय शब्द।
पणय पणय (पणग) काइ
प० १/४६ पणगो पंचवण्णो, पणओ उल्लित्ति वुच्चति
(आवश्यक चूर्णि द्वितीय भाग पत्र ७१) पनक:-उलि (आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति पत्र ५६)
पत्र के पर्यायवाची नाम
पत्रं तमालपत्रञ्च, पत्रकं छदनं दलम्। पलाशमंशुकं वासस्तापसं सुकुमारकम् ।।१७३।। वस्त्रं तमालकं राम, गोपनं वसनं तथा। तमालं सुरभिगंध, ज्ञेयं सप्तदशाह्वयम् ।।१७४।।
पत्र, तमालपत्र, पत्रक, छदन, दल, पलास, अंशुक, वास, तापस, सुकुमारक, वस्त्र, तमालक, राम, गोपन, वसन, तमाल, सुरभिगंध, ये सब तेजपत्र के नाम
(राज०नि०६/१७३, १७४ पृ० १७०) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-तेजपात, पत्रज, मज। म०-तमालवृक्ष, तेजपाय, रानाआदल। गु०-तमालपत्र बं०-तेजपात, तेजपाना, नालुका। अं0-Folio Malabathye (फोलियो मालाबाथी) Indian Cinnamum (इंडियन सिनेमम) ले०-Cinnamomum Tamala Nees (सिनेमम तमाल), C. Obtusifolium (सि० आब्टयूसिफोलियम) C. Nitidum (सि० निटिडम)।
पत्तपुड पत्त (पत्र) तेजपत्र। रा० ३० जीवा० ३/२८३ पत्रम् ।क्ली० । तेजपत्रे। एलादिः । कटुकरोहिणी
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उत्पत्ति स्थान- इसके वृक्ष हिमाचल के उष्ण कटिबंध स्थित भागों में ३ से ८ हजार फीट की ऊँचाई तथा उत्तरप्रदेश, पूर्वी बंगाल एवं खासिया, जेन्तिया पहाड़ियों पर और ब्रह्मा आदि के जंगलों में पाया जाता है।
विवरण - कर्पूरादिवर्ग कपूरकुल की दालचीनी की ही जाति का यह भारतीय भेद है। इसके वृक्ष सदैव हरे भरे, मध्यमाकार के लगभग २५ फुट ऊंचे कुछ सुगंध युक्त होते हैं। छाल पतली किन्तु खुरदरी, शिकनदार, गहरे भूरे रंग की कुछ कृष्णाभ दालचीनी जैसी ही किन्तु कम सुगंधित, वगैर स्वाद की होती है। पत्र बरगद के पत्र जैसे, प्राय: ५ से ७ इंच लंबे, २ से ३ इंच चौड़े, लट्वाकार, आयताकार या भालाकार, नोकदार, चिकने चर्मवत्, शाखाओं पर विपरीत या एकान्तर नीचे से ऊपर तक ३ शिराओं से युक्त सुगंधित एवं स्वाद में तीक्ष्ण होते हैं । नूतन पत्र कुछ गुलाबी रंग के होते हैं। ये ही सूखे पत्र तेजपात या तमालपत्र के नाम से बेचे जाते हैं। ये गरम मसाले के काम में आते हैं। फूल १/४ इंच लंबे, हल्के पीतवर्ण के. फल १/२ इंच लंबे अंडाकार, मांसल तथा काले रंग के होते हैं । अपक्वशुष्क फलों का काला नागकेसर के नाम से दक्षिण भारत में व्यवहार किया जाता है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ३८३)
पत्तउर
पत्तउर (पत्तूर ) पतंगपत्तूर के पर्यायवाची नाम
पतङ्गं रक्तसारञ्च, सुरङ्ग रञ्जनं तथा । । पट्टरञ्जकमाख्यातं, पत्तूरञ्च कुचन्दनम् ||१८|| पतङ्ग, रक्तसार, सुरङ्ग, रञ्जन, पट्टरञ्जक, पत्तूर और कुचन्दन ये सब संस्कृत नाम पंतंग के हैं। (भाव० नि० कर्पूरादिवर्ग० पृ० १६३)
प० १/३७/३
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - पतंग, बक, बकमकाठ, आल । बं० - बकम, काष्ठ, बोकोम । म० - पतंग। गु० - पतंग। ते०-बुक्क पुचेट्टु । ता० - वरतंगि, शप्पङ्गु । मला० - चप्पनम् । 310-Sappan Wood Sappan Linn.
फा०- बकम । अ० - बकम ।
(सप्पनबुड)
o-Caesalpinia
(सिझल्पिनिया (सिझल्पिनिएसी) ।
सँप्पन) ।
CAISAL PINIA SAPPAR LINN.
BLIC)
디
शाख
जैन आगम वनस्पति कोश
फली
Fam. Caesalpiniaceae
पुष्प
उत्पत्ति स्थान- यह पूर्व और पश्चिम प्रायद्वीप एवं मद्रास प्रान्त में अधिक पाया जाता है। बंगाल और बिहार के किसी-किसी स्थान में देखने में आता है ।
विरण- इसका वृक्ष छोटा एवं कांटेदार होता है। लकड़ी दृढ़, सारभाग नारंगी या चमकीले लाल रंग का होता है। पत्ते संयुक्त, उपपक्ष ८ से १२ जोड़े। पत्रक १० से १८ जोड़े. ३/४ इंच तक लंबे, आयताकार न्यूनाधिक विनाल, गोलाग्र एवं मध्यशिरा के दोनों तरफ के भाग असमान होते हैं। फूल किंचित् पीताभ रंग के आते हैं। प्रत्येक में ३ से ४ बीज होते हैं। इसके काष्ठसार का उपयोग किया जाता है। यह लाल चंदन जैसी, फीके लाल रंग की, कडी एवं निर्गन्ध होती है।
(भाव० नि० कर्पूरादि वर्ग० पृ० १६३)
पयालवण
पयालवण (प्रियाल वन) चिरौंजी वृक्षों का वन जं० २/६
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प्रियाल के पर्यायवाची नाम
प्रियालस्तु खरस्कन्ध, चारो बहुलबल्कलः।
राजादनस्तापसेष्टः, सन्नकद्रुर्धनुष्पटः ।।८३।।
प्रियाल, खरस्कन्ध, चार, बहुल बल्कल, राज़ादन, तापसेष्ट, सन्नकद्र और धनुष्पट ये सब चिरौंजी के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० आम्रादिफलवर्ग० पृ० ५७५)
के घेरे में गोलाकार होते हैं। फल लंबाई युक्त, गोलाकार, दबे हुए १/२ इंच व्यास के एक बीज युक्त तथा काले रंग के होते हैं। फल तथा उसके भीतर की मज्जा, जिसे चिरौंजी कहते हैं खाई जाती है। इसके वृक्ष से गोंद भी निकलता है।
(भाव नि० आम्रादि फलवर्ग पृ० ५७६)
परिणयअंबग परिणयअंबग (परिणताम्र) पक्का हुआ आम
उत्त० ३४/१३ पाल का पका आम मधुर होता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ३३७) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में परिणयअंबग शब्द रस की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है।
...
परिली परिली (
प० १/३७/५ विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं तथा शब्दकोशों में परिली शब्द का अर्थ नहीं मिला है। संभव है यह किसी प्रांतीय भाषा का शब्द है।
J
पलंडू
अन्य भाषाओं में नाम
पलंडू (पलाण्डु) प्याज
प०१/४८/४३ हि०-चिरौंजी, चिरोंजी। बं०-चिरौंजी, पियाल।।
पलाण्डु के पर्यायवाची नामम०-चारोली। गु०-चारोली। क०-चारनीज, नरकल
पलाण्डु र्यवनेष्टश्च, सुकन्दो मुखदूषकः । ते०-सारुपपु। ताo-मुडइमा। फा०-नुकलेखाजा,
हरितोन्यः पलाण्डुश्च, लतार्को दुईमः स्मृतः ।।६६ ।। नुकुल ख्वाजह। अ०-हब्बुस्समाना, हब्बुल समनह।
पलाण्डु, यवनेष्ट, सुकन्द, मुखदूषक ये पर्याय पलाण्डु ले०-Buchanania Latifolia Roxb. (बुचनॅनियां
के हैं। पलाण्डु का दूसरा भेद हरितपलाण्डु है जिसके पर्याय लेटिफोलिया)।
लतार्क और दुद्रुम है। (धन्व० नि० ४/६६ पृ० १६७) __उत्पत्ति स्थान-यह इस देश के गरम और सूखे
अन्य भाषाओं में नामप्रान्तों में अधिक पाई जाती है।
हि०-पियाज, प्याज । बं०-पेयाज । पं०-गण्डा। विवरण-चिरौंजी का वृक्ष मध्यमाकार का होता है।
म०-कांदा। ते०-नीरूक्लि। गु०-दुंगली, कांदो। कहीं-कहीं ५० फीट तक ऊंचा वृक्ष देखा जाता है। छाल
मा०-कांदो, कांदा। ता०-वेंगयम। फा०-प्याज मोटी, गहरे धूसरवर्ण की एवं चौकोर आकार में फटी हुई
सिन्ध०-लुनु, बसर। मलाo-बवंग। अ०-बस्ल । होने से मगर के चमड़े की तरह दिखलाई देती है। पत्ते कड़े,
अं0-Onion (ओनियन)। ले०-Allium cepa Linn. अखण्ड, आयताकार या लट्वाकार-आयताकार एवं ६ से
(एलियम सिपा०लिन०) Fam. Liliaceae (लिलिएसी)। १० इंच लंबे होते हैं। फूल श्वेत एवं मंजरियों में चौथाई इंच
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उत्पत्ति स्थान -प्याज की खेती प्रायः सब प्रान्तों
में की जाती है
I
प्याज
Allium cepa Linn.
विवरण- इसका पौधा हाथ, डेढ़ हाथ, ऊंचा होता है। पत्र दो कतारों में तथा पुष्पदंड से छोटे होते हैं। इनके बीच से दंड निकलता है। इसके ऊपर लट्टू के समान गोल गुम्मजदार गुच्छों में सुहावने हरापन लिये सफेद फूल लगते हैं। इनमें से तिकोने काले बीज निकलते हैं। इसके नीचे जो कंद बैठता है उसी को प्याज कहते हैं। किंचित् गुलाबी और सफेद रंगों के भेद से प्याज दो जाति का होता है। दोनों के पौधे एक समान होते हैं।
(भाव० नि० हरीतक्यादिवर्ग. पृ. १३५)
....
पलंदू
पलंदू (पलाण्डु) प्याज देखें पलंडू शब्द |
क्षुप
....
उत्त० ३६/६७
जैन आगम वनस्पति कोश
पलास
पलास ( पलाश) ढाक
ठा० १०/८२/१ भ० २२/२ प० १/३५/१ पलाश के पर्यायवाची नाम
किंशुको वातपोथश्च, रक्तपुष्पोथ याज्ञिकः । त्रिपर्णो रक्तपुष्पश्च, पुतद्रु ब्रह्मवृक्षकः । 198८ ।। क्षारश्रेष्ठः पलाशश्च, बीजस्नेहः समीवरः ।। किंशुक, वातपोथ, रक्तपुष्प, याज्ञिक, त्रिपर्ण, रक्तपुष्प पूत, ब्रह्मवृक्षक, क्षार श्रेष्ठ, पलाश, बीजस्नेह और समीवर ये किंशुक के पर्याय हैं।
(धन्व० नि० ५०४८ पृ० २६७) अन्य भाषाओं में नाम - हि० - ढाक, पलाश, परास, टेसू । बं० - पलाशगाछ । म० - पलस | गु० - खाखरो | मु० - खाकरो | क० - मुत्तगु । ते० - मोदुग | ता० - पलासु । अंo - The forest flame (दि फोरेस्ट फ्लेम) । ले०- Butea frondosakoen, ex. Foxb (व्यूटिया फ्रॉन्डोसा) Fam leguminosal (लेग्युमिनोसी) ।
उत्पत्ति स्थान - यह अत्यन्त शुष्क भागों को छोड़ कर प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता है। और इसका वाटिकाओं में भी रोपण करते हैं।
विवरण- इसके वृक्ष छोटे या मध्यम ऊंचाई के होते है तथा समूहों में रहते हैं । पत्ते त्रिपत्रक होते हैं। पत्रक १० से २० से. मी. चौड़े, कर्कश, ऊपर से कुछ चिकने किन्तु नीचे मृदुरोमश तथा उभरी हुई शिराओं से युक्त, होते हैं । अग्रपत्रक तिर्यगायताकार वृन्त की तरफ कुछ पतला या अभिअंडाकार, कुण्ठिताग्र या खण्डिताग्र एवं बगल के तिर्यक् अंडाकार होते हैं। पुष्प बड़े सुंदर, नारंग रक्तवर्ण के होते हैं, जो प्रायः पत्र हीन शाखाओं पर एक साथ बहुत होते हैं। स्वरूप में ये दूर से सुग्गे की चोंच की तरह मालूम होने से इसे किंशुक कहा जाता है। फली १२५ से २०x२५ से से.मी. बड़ी अग्र की तरफ एक बीज युक्त होती है। बीज चिपटे वृक्काकार २५ से ३८ मि. मी. लम्बे, १६ से २५ मि.मी. चौड़े, १५ से २ मि.मी. मोटे रक्ताभ भूरे चमकीले, सिकुड़नयुक्त स्वाद में कुछ कटु एवं तिक्त तथा गंध हलकी होती है। इसका गोंद होता है (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५३६ )
I
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पलिमंथ
ग्राम) Chick Pea (चिक्पी )। ले०-Cicerarietinum linn
(सीसर एरी एटीनम) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)। पलिमंथ (हरिमन्थ) चना, कालाचना
उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में भ०२१/१५ प०१/४५/१
प्रतिवर्ष इसकी खेती की जाती है। पलिमंथाः कालाचणका इति(स्थानांग वृत्ति पत्र ३२७)
_ विवरण-इसका क्षुप सीधा या फैला हुआ अनेक हरिमन्था काला चणगा (दशवैअ०चू०पृ०१४०) शाखा युक्त, १ से १.५ फीट ऊंचा एवं रोमश होता है, विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पलिमंथ शब्द ओषधिवर्ग
पत्ते पक्षवत् होते हैं, जिनके पत्रक दीर्घवृत्ताभ रोमों से के अन्तर्गत (धान्यशब्दों) के साथ है। स्थानांग वृत्ति में आवत रहते हैं। पुष्प छोटे एकाकी तथा पत्रकोण में आते इसका अर्थ कालाचना किया हुआ है। दशवैकालिक हैं। जो विभिन्न प्रकारों में भिन्न-भिन्न रंग एवं नाम के अगस्त्य चूर्णि में इसी अर्थ में हरिमन्थ शब्द है। इससे होते हैं। फली आयताकार ३/४ से १ इंच लम्बी तथा लगता है पलिमंथ और संस्कृतरूप हरिमन्थ एक अर्थ के प्रायः दो बीजों से युक्त होती है। बीज गोल, नोकदार ही वाचक है। इसीलिए पलिमंथ की छाया हरिमन्थ की .२ से ०.४ इंच व्यास के, चिकने या सिकुड़नदार भूरे, गई है।
पीले या श्वेत रंग के होते हैं। पत्तों पर रहने वाले रोमगंथियोंसे एक प्रकार का अम्लस्राव होता है। चने का रंग तथा नाप के अनुसार कई भेद किये गए हैं।
(भाव०नि० धान्यवर्ग०पृ०६४६)
पलिमंथग पलिमंथग (हरिमन्थ) चना, कालाचना
ठा०५/२०६
देखें पलिमंथ शब्द।
पव्वय पव्वय (पर्वत) पहाड़ीतृण
प०१/४२/१ पर्वततृण के पर्यायवाची नाम
तृणादयं पर्वततृणं, पत्रादयश्च मृगप्रियम्। बलपुष्टिकरं रुच्यं, पशूनां सर्वदा हितम् ।।१३४ ।।
तृणाढ्य, पर्वततृण, पत्राढ्य तथा मृगप्रिय ये सब पर्वततृण के नाम हैं। यह बल तथा पुष्टि को बढाने वाला, रुचिकारक, और हमेशा पशुओं के लिए हितकारक है। .
(राज०नि०व०८/१३४ पृ०२५८)
हरिमंथ के पर्यायवाची नाम
हरिमन्थाः सुगन्धाश्च, चणकाः कृष्णकञ्चकाः
हरिमंथ, सुगन्ध, चणक और कृष्णकञ्चक ये सब चणक के पर्याय हैं। (धन्व०नि० ६/८६ पृ० २६१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-चने, छोला, रहिला, बूंट । म०-हरबरा, चणें। बं०-छोला। गु०-चण्या, चणा। क०-कडले। ता०-कडलै । ते०-सनगलु । फा०-नखूद । अ०-इमस। प०-छोले। अंo-Gram (ग्राम) Bengal Gram (बंगाल
पाई पाई (पाची) पाचीलता, मरकतपत्री
भ०२०/२० प०१/४४/१
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जैन आगम : वनस्पति कोश
पाची के पर्यायवाची नाम
वृन्त से युक्त होते हैं। पुष्प बहुत छोटे तथा तुलसी की पाची मरकतपत्री हरितलता हरितपत्रिका पत्री तरह गुच्छों में आते हैं। यह क्षुप बहुत सुगंधित होता है।
टा गारुत्मतपत्रिका चैव ।।१६३|| इनके पत्तों का उपयोग औषध में किया जाता है। रेशमी पाची, मरकतपत्री, हरितलता, हरितपत्रिका, पत्री, तथा ऊनी वस्त्रों में कीड़े न लगे इसलिए उनमें इसके सुरभि, मल्लारिष्टा, गारुत्मतपत्रिका ये सब पाची के नाम पत्ते रखे जाते हैं। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग०पृ०२६६)
हैं।
..
.
(राज०नि०१०/१६३ पृ०३३०) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पाचोली। बं०-पाटचोली, पाचपट । गु०-सुगंधीपानडी। म०-पाचि। कोंक-माली। ले०-Pogostemonpatchouli Hook (पोगोस्टेमॉनफ पाचौली हुक) Fam Labiatae (लेबिएटी)।
पाडला पाडला (पाटला) पाढल भ०२२/४ प०१/३७/५ पाटला के पर्यायवाची नाम
पाटला पाटलिः कामदूतिका कृष्णवृन्तिका ।।३४।। वसन्तदूती कुम्भीका, स्थाल्यामोघाम्बुवासिनी। कुम्भी पुष्पी कृष्णवृन्तकुसुमा ताम्रपुष्पिका ।।३५ ।।
पाटला, पाटलि, कामदूतिका, कृष्णवृन्तिका, वसन्तदूती, कुम्भीका, स्थाल्या, अमोघा, अम्बुवासिनी, कुम्भी, पुष्पी, कृष्णवृन्तकुसुमा और ताम्रपुष्पिका ये पर्याय पाटला के हैं। (कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग०पृ०१०)
देखें पाडलि शब्द।
NA
पाडलि पाडलि (पाटलि) पाढल रा०३० जीवा०३/२८३ पाटलि के पर्यायवाची नाम
पाटला पाटलिः कामदूतिका कृष्णवृन्तिका ।।३४।। वसन्तदूती कुम्भीका स्थाल्यामोघाम्बुवासिनी।। कुम्भीपुष्पी कृष्णवृन्तकुसुमा ताम्रपुष्पिका ।।३५ ।।
पाटला, पाटलि, कामदूतिका, कृष्णवृन्तिका, वसन्तदूती, कुम्भीका स्थाल्या, अमोघा, अम्बुवासिनी, कुम्भीपुष्पी कृष्णवृन्तकुसुमा और ताम्रपुष्पिका ये पर्याय पाटला के हैं। (कैयदेव०नि०ओषधि वर्ग पृ०१०) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पाढ़ल, पाडर, पारल। बं०-पारुलगाछ । म०-पाड़ल। गु०-पाड़ल। क०-हुडै। उ०-बोरो, पाटुली। प०-पाढ़ल, पाड़ल। कोल०-कंडियोर । सन्ता०-पपरी, पडेर। ने०-परैर। लि०-सिगियन । गोंड०-उन्तकार, पड़र। मील०-पन, डन। मा०-पाडल, पडियालु। ले०-Stereo spermum
पनडी पोली। उत्पत्ति स्थान-यह जंगलों में होता है तथा इसकी उपज भी की जाती है।
विवरण-इसका स्वावलम्बी अनेक शाखायुक्त क्षुप कोंकण में प्रसिद्ध है। उपज से इसकी आकृति में परिवर्तन हो जाता है। पत्ते अंडाकृति दन्तुर तथा लम्बे
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suaveolens D.C. (स्टेरिओ स्पर्मम् स्वावियोलेन्स डीसी)।
उत्पत्ति-यह प्रायः समस्त भारत, हिमालय की तराई से ट्रावनकोर और टेनसरीम तक तथा सिलोन के आर्द्र भागों में विशेष पाए जाते हैं।
STEREOSPERMUMSUAVEOLENS.DC.
e t.
itment-sikPRARY
युक्त होते हैं। फलियां १८ से २४ इंच तक लम्बी, गोल एवं पृष्ठ पर बिन्दुकित होती हैं। बीज सपक्ष होते हैं और कार्कसदृश और लंबगोल रचनाओं में छिपे रहते हैं।
(भा०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ०२७६,२८०) नामों के अर्थ-पाटला (पाटल अर्थात् रक्त वर्ण के पुष्प होने से) अंबुवासिनी (अनूप देशज होने से), पुष्प को जल में डालने से जल सुवासित होता है इसलिए भी इसे संस्कृत में अम्बुवासिनी कहा जाता है। कुबेराक्षी (करंज जैसे बीज होने से), हिन्दी में अधकपारी (इसके फल के भीतर के लम्बगोल टुकड़े निकाल कर जुलपित्ती तथा अधकपारी या अर्धावभेदक, आधाशीशी में बांधे जाते हैं। धन्वन्तरि वनौषधि विषेषांक भाग ४ पृ० २२१, २२२)
पाढा
पाढी भ०२३/६ प०१/४८/४
Acad
।
सारव
NE
विवरण-इसका वृक्ष ३० से ६० फुट तक ऊंचा एवं सुन्दर होता है । इसके ऊंचे स्तम्भ पर शाखाएं दिखाई पड़ती हैं। इसके नवीन भाग चिपचिपे रोमश और ग्रन्थिमय होते हैं। छाल चौथाई इञ्च मोटी, लगभग चिकनी, धूसर और काटने पर हलके पीले रंग की होती है। और उसमें कड़े तथा मुलायम पर्त बारी-बारी से निकलते हैं। पत्ते विपरीत १ से २ फीट लम्बे और अयुग्मपक्षाकार होते हैं। पत्रक संख्या में ५ से ६ प्रायः ७, अण्डाकार या आयताकार, ३ से ८ इंच लम्बे, २ से ३ इंच चौड़े, लम्बाग्र, अवृन्त या छोटे वृन्त वाले, प्रायः मृदुरोमश परन्तु छोटे पौधे के पत्रक खुरखुरे और तीक्ष्ण दन्तुर होते हैं। वसन्त ऋतु में इसके पुराने पत्ते गिरकर नवीन पत्ते निकल आते हैं और प्रायः उसी समय वक्ष पर नलिकाकार फल आते हैं। पुष्प संगधित १ से १.५ इंच लम्बे, बाहर से लाल परन्त भीतर से पीली रेखाओं से
पाठा के पर्यायवाची नाम
पाठाऽम्बष्ठाऽम्बष्ठकी च प्राचीना पापचेलिका। वरतिक्ता बृहत्तिक्ता, पाठिका स्थापनी वृकी।।६६ ।। मालती च वरा देवी, त्रिवृत्ताऽन्या शुभा मता।।
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__ पाठा, अम्बष्ठा, अम्बष्ठकी, प्राचीना, पापचेलिका,
पाणी वरतिक्ता, बृहत्तिक्ता, पाठिका, स्थापनी, वृकी, मालती,
पाणी ( ) पानि बेल प०१/४०/४ वरा, देवी और त्रिवृत्ता ये सभी पाठा के पर्यायवाची हैं।
विमर्श-पाणि शब्द हिन्दी और बंगला भाषा का है। (धन्व०नि०१/६६ पृ०३६)
प्रस्तुत प्रकरण में यह पाणि शब्द वल्लीवर्ग के अन्तर्गत अन्य भाषाओं में नामहि०-पाठा, पाठ, पाढ, पाठी, पाढी, पुरइनपाढी।
है। इसलिए यहां पानि बेल अर्थ उपयुक्त है। संस्कृत
में इसे अमृतम्रवा और तोयवल्ली कहते है। बं०-आकनादि, निमुक, एकलेजा। म०-पहाड बेल ।
अन्य भाषाओं में नामगु०-वेणीबेल, करेढियुं । क०-पडवलि । ता०-अप्पाट्टा
हि०-पानिबेल ब०-पानि बेल. मसल, गोविल। पोंमुतूतै। गोवा०-पारवेल। ते०-पाटा, विरुबोड्डि
मा०-पानीबेल, मुसल, मुरीया ।म०-गोलिंदा।ले०-Vitis अंo-Velvet leaf (वेल्वेट लीफ)। ले०-Cissampelos
latifolia (विटिज लेटिफोलिया)। गु०-जंगलीदाख । pareira linn (सिसॅम्पेलॉस्पॅरेरा लिन०) Fam,
पोरबंदर-जंगलीदाख। ते०-बदसरिया। Menispermaceae (मेनिस्पर्मेसी)।
(वनौषधि चन्द्रोदय भाग ३ पृ० १४०) उत्पत्ति स्थान-इस देश के सभी उष्ण एवं
उत्पत्ति स्थान-देहरादून के जंगलों में प्रायः शाल साधारण भागों में सिंध, पंजाब, शिमला, देहरादून तथा
आदि ऊंचे वृक्षोंपर फैली हुई यह लता पायी जाती है। दक्षिण में कोंकण से लंका तक पाई जाती है। एशिया,
विवरण-द्राक्षाकुल की इस बड़ी लता का कांड पूर्व अफ्रीका तथा अमेरिका के उष्णप्रदेशों में भी होती है। विवरण-यह लता खुली हई पथरीली जगहों में।
बहुत मुलायम, छिद्रल, बाहर की ओर नालीदार होता
है। पत्र साधारण ३ से ७ इंच लम्बे, ४ से ८ इंच चौड़े, प्रायः छोटे वृक्षों और झाड़ियों पर फैली हुई पाई जाती है। शाखाएं पतली सीधी एवं क्चचित् लोमयुक्त होती है।
गोलाई लिये हुए आधार पर ताम्बूलाकार, धार पर ५ कोण
या विच्छेद वाले होते हैं। इसका कांड काट देने से प्रचुर पत्र लट्वाकार या कभी-कभी वृत्ताकार-वक्काकार
मात्रा में स्वादिष्ट जल निकलता है, जिसे पीकर जंगल हृदयाकृति एकांतर १ से ४ इंच बड़े, नोकरहित एवं
के कुली (मजदूर) अपनी प्यास शांत करते हैं । इस लता क्वचित् नुकीले रहते हैं। पर्णनाल प्रायः पृष्ठभाग से जुड़ा
__का वर्णन राजनिघंटुकार ने अमृतस्रवा के नाम से किया हुआ तथा पृष्ठ के बराबर या अधिक लम्बा होता है। पुष्प
_है। (धन्वतरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ०२३२) एकलिंग छोटे श्वेताभ किंचित पीतवर्ण के, वर्षाकाल में
इसकी बेल पतली, लम्बी, संधियों वाली और आते हैं। नरमंजरी लम्बी, अनेक पुष्पों से युक्त, मृदुरोमश
बैंगनी रंग की होती है। इसके पत्ते द्राक्ष के पत्तों की तरह तथा पत्रकोणों से निकली रहती है। फल रक्त या
होते हैं। पत्तों के सामने की ओर से तन्तु निकलते हैं। नारंगवर्ण के कुछ गोलाकार ४ मि.मी. बड़े एवं रोमावृत रहते हैं। बीज मुड़े हुए होते हैं। इसकी सूखी हुई जड़
इन तंतुओं पर बहुत सुंदर लाल रंग के फूलों के गुच्छे के लम्बे गोल अंडाकार या दबे हुए टुकड़े कभी-कभी
लगते हैं। इसके फल कुछ गोलाई लिये हुए काले रंग लम्बाई में टूटे हुए मिलते हैं। ये व्यास में १/२से ४ इंच
के करौंदे की तरह होते हैं। इसके बेल, पत्ते, फूल और तक मोटे एवं ४ इंच से लेकर ४ फीट तक लम्बे होते
फल सब द्राक्ष से मिलते-जुलते होते हैं। मगर वे खाने
के काम में नहीं आते। (वनौषधि चन्द्रोदय भाग ३ पृ०१४०) हैं। बाहर से ये भूरे बादामी रंग के तथा लम्बाई में झुरींदार
अमृतम्रवा के पर्यायवाची नामहोते हैं। इन झुर्रियों पर अनुप्रस्थ चक्राकार कुछ उभार . रहते हैं। इसका स्वाद प्रारंभ में कुछ मधुर एवं सुगंधित
ज्ञेयाऽमृतस्रवा वृक्षरुहाख्या तोयवल्लिका तथा बाद में अत्यन्त कडुवा होता है।
घनवल्ली सितलता, नामभिः शरसम्मिता ।।१४०/
अमृतस्रवा, वृक्षरुहा, तोयवल्लिका, घनवल्ली तथा (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ०३६५,३६६)
सितलता ये सब अमृतस्रवा के पांच नाम हैं।
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अमृतनवा, अमृतवल्ली चित्रकूट देशे प्रसिद्धा।
(राज०नि०३/१४० पृ०५६)
परुषक, नीलवर्ण, रोषण, धन्वनच्छद, पारावत, मृदुफल, पुरुष, परुष, पर ये परुषके पर्याय हैं।
(कैयदेव नि० ओषधिवर्ग पृ०७३) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-फालसा। बं०-फलूसा। म०-फालसा। क०-वेट्टहा, दागल। ते०-चिट्टित। गु०-फालसा। फा०--फालसा पालसह । अ०-फालसाहाले०-Grewia asiatica linn (ग्रिविया शियाटिका) Fam. Tiliaceae (टिलिएसी)।
GREWIA ASIATICA LINN.
-
AVM TAMILEON
पाणी पाणी ( ) पानीबेल, गोविल। प०१/४०/४
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पाणि शब्द वल्ली वर्ग के अन्तर्गत है। पाणी शब्द राजस्थानी भाषा में व्यवहृत होता है। हिन्दी भाषा में पानी शब्द मिलता है। हिन्दी भाषा में पानी बेल को गोविल बेल कहते हैं । धन्वन्तरिवनौषधि विशेषांक में इसका वर्णन इस प्रकार मिलता है। अन्य भाषाओं में नाम
बं०, हि०-गोविल, पानी बेल, मूसल, मुरीया । गु०-जंगलीद्राख । म०-गोंलिदा। ले०-Vitis Latifolia (ह्विटिस लेटिफोलिया)।
उत्पत्ति स्थान-यह लता भारत के उत्तर पश्चिम के जंगलों में तथा दक्षिण में पर्व एवं पश्चिम किनारों के वन प्रान्तों में विशेष पाई जाती है।
विवरण-द्राक्षा कुल की इसकी लता दाख की लता जैसी ही पतली, लम्बी, बीच-बीच में संधियों से युक्त, कुछ बैंगनी रंग की होती है। पत्र द्राक्षापत्र जैसे पत्रों के सामने की ओर से तन्त निकलते हैं। जिस पर सुंदर लालरंग के फूलों के गुच्छे आते हैं। फल कुछ गोलाकार, काले रंग के करौंदे जैसे लगते हैं। इसकी लता, पत्र, पुष्प, फलादि सब द्राक्षा लता जैसे ही होते हैं। किन्तु ये खाने के काम में नहीं आते, कुछ कडवे कसैले से होते हैं। इसे जंगली दाख भी कहते हैं
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०४६८)
शारव
पुष्प
पारावय पारावय (पारावत) फालसा जीवा०३/३८८ पारावतम् ।क्ली०। परुषकफले (चरक संहिता सूत्र स्थान २६ अध्याय। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६६१) पारावत के पर्यायवाची नाम
परुषको नीलवर्णो, रोषणो धन्वनच्छदः पारावतो मृदुफलः, पुरुषः परुषः परुः ।।३६१।।
उत्पत्ति स्थान-इसको अनेक प्रान्तों के लोग बागों में रोपण करते हैं। इसकी अन्य जातियों को भी फालसा कहा जाता है।
विवरण-इसका वृक्ष छोटा होता है। पत्ते ४ से ५ इंच लम्बे, २ से २.5 इंच चौड़े, गोलाकार एवं दंतुर होते हैं। दन्त अनियमित होते हैं तथा आधार की तरफ कुछ तिरछे होते हैं। फूल झूमकों में पीले रंग के आते हैं। फल मटर के समान गोल, कच्ची अवस्था में हरे रंग के और पकने पर जामुनी रंगके हो जाते हैं। इसका स्वाद खट्टा
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तथा कुछ मधुर होता है । इसका शरबत बनाकर लोग गरमी के दिनों में पीते हैं।
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग० वर्ग०५८.१)
.........
पारेवय
पारेवय (पारेवत, पालेवत) पालेवत, पालो
जीवा०३/५८३
पारेवत के पर्यायवाची नाम
पारेवतन्तु रैवतमारेवतकञ्च किञ्च रैवतकम् मधुफलममृतफलाख्यं पारेवतकच सप्ताह्वम् । ८७ ।। पारेवत, रैवत, आरेवतक, रैवतक, मधुफल अमृतफल तथा पारेवतक ये सब पारेवत के सात नाम हैं। (राज० नि० वर्ग ११ / ८७ पृ०३५७)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - पारेवत । गु० - पालेवत । बं० - पेराया । कामरूपदेश में रैवत ।
विवरण- पारेवत और महापारेवत भेद से दो प्रकार
का है।
पालेवत के पर्यायवाची नाम
पालेवतं सितं पुष्पैस्तिन्दुकं च फलं स्मृतम् । अन्यन्मानवकं ज्ञेयं, महापालेवतं तथा । ६६ ।। पालेवत, सितपुष्प, तिन्दुकफल ये पालेवत के नाम हैं। दूसरा मानवक यह नाम महापालेवत का है। (मदन०नि० फलादिवर्ग०६ / ६६ पृ. १३२ ) विवरण - यह छोटे सेव के समान होता है, शिमले के पहाड़ में इसको पालो कहते हैं।
(मदन०नि० पृ०१३२)
पालंका
पालंका (पालङ्की, पालङ्क्या) पालक का शाक
उवा ०१ / २६
पालङ्की । स्त्री । पालङ्के (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६६४) पालक्या के पर्यायवाची नाम
पालक्या वास्तुकाकारा, किंचिच्चीरितपत्रिका | ६४५ ।। पालक्या, वास्तुकाकारा, चीरितपत्रिका ये पालंक्य
के पर्याय हैं।
अन्य भाषाओं में नामहि० - पालकशाक,
पलाकीशाक, पला । बं० - पालंशाक, पालंग शाक। म० - पालक्यशाक. पालख, पालक । गु-पालख नी भाजी । गौ०पालङ्शांक | क० - पालक्य | ता० - वसैइलक्किरैं । ते० - मट्टरवच्चलि । फा० - अस्पनाख । अंo - Spinage (स्पाइनेज) Spsinach ( स्पाइनॅक) । ले० - Spinacia oleracea linn (स्पाइनेसिया ओलेरेसिया ) Chenopodiaceae (चिनोपोडिएसी) ।
Fam
पुष्पकाट
जैन आगम : वनस्पति कोश
(कैय०नि० ओषधिवर्ग० पृ०११६)
शारव
उत्पत्ति स्थान -- सभी प्रान्तों में इसको लगाया जाता है।
विवरण- इसका क्षुप करीब १ फुट ऊंचा रहता है। काण्ड पोला तथा कोणयुक्त रहता है। पत्ते मोटे, मांसल, हरे, त्रिकोणाकार एवं लम्बे वृन्त से युक्त होते हैं। पुष्प बहुत छोटे गुच्छों में आते हैं। पुंजाति के क्षुप में पुष्पकाण्ड के अंत में एवं स्त्रीजाति के पुष्प पत्रकोण में आते हैं। इसमें एक प्रकार गोल पत्तों एवं चिकने बीजों वाला होता
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है। प्रथम में बीज कांटेदार होते हैं।
(भाव० नि० शाक वर्ग० पृ० ६६८)
....
पालक्का पालक्का (पालक्या ) पालक भ०२०/२० प०१/४४/१ पालक्या ।पुं। वास्तूकाकार पालङ्कशाके
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६६३) पलक्या वास्तुकाकारा, छुरिका चीरितच्छदा।।
पलक्या, वास्तुकाकारा, छुरिका, चीरितच्छदा ये सब पालक के संस्कृत नाम हैं।
(भा०नि० शाक वर्ग० पृ०६६८) देखें पालंका शब्द।
...
पालियाय कुसुम पालियाय कुसुम (पारिजात कुसुम) फरहद के फूल, पांगारा।
रा०२७ जीवा०३/२८०
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पालियायकुसुम शब्द का लाल वर्ण की उपमा के लिए प्रयोग हुआ है। इसका - फूल अत्यन्त लाल वर्ण का होता है। पारिजात के पर्यायवाची नाम
पारिभद्रो निम्बतरु मन्दारः पारिजातकः ।।
पारिभद्र, निम्बतरु, मन्दार और पारिजातक ये सब फरहद के संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० पृ०३३४)
अन्य भाषाओं में नाम-हि०-फरहद, पांगारा। बं०-पाल् ते मादार। म०-पांगारा। गु०-पांडेरवा, पनरवो। क०-होंगर, हलिवाणदमर। ते०-मोदुगो, बरिदेचे? वारिजमु । ता०-कल्याण मुरुक्क । अंo-Coral Tree (कोरल ट्री)। ले०-Erythrina Indicalam (एरिथ्रिना इण्डिकालॅम्) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में कहीं न कहीं पाया जाता है। विशेषकर कोंकण और उत्तर कनारा में अधिक मिलता है।
विवरण-इसका वृक्ष मध्यमाकार का, शीघ्रता से बढ़ने वाला तथा समय पाकर नष्ट हो जाने वाला होता है। कोमल डालियों पर सीधे, काले रंग के तीक्ष्ण कांटे रहते हैं। छाल चिकनी तथा हरी, भूरी, हलकी, पीली या श्वेत, खड़ी रेखाओं से युक्त एवं पतली पपड़ियां छूटने पर हरी होती है। पत्ते पलाशपत्र के समान त्रिदल होते हैं। पत्रक ४ से ६ इंच के घेरे में गोलाकार और किंचित्, नुकीले होते हैं। अग्र का पत्रक सबसे बड़ा होता है। पुष्पदंड ४ इंच लम्बा और मंजरी प्रायः ६ इंच लम्बी होती है। फूल अत्यन्त रक्तवर्ण के सुहावने दिखाई पड़ते हैं। पुष्प का बाह्यकोश एक ओर मूल तक फट जाता है और अग्र पर पांच दांत बन जाते हैं। आभ्यन्तर दल पांच होते हैं, जिनमें एक सबसे बड़ा होता है। इनके बीच से लाल पुंकेसरों का गुच्छा निकला रहता है। इनमें गंध नहीं होती। फलियां ६ से १० इंच लंबी, चिपटी, चोंचदार, किंचित् टेढी, ताजी अवस्था में हरी किन्तु बाद में काली हो जाती है। बीज संख्या में ६ से १२, चिकने, भूरे या लाल अंडाकार तथा करीब १ इंच बड़े होते हैं। इसी का एक उपभेद होता है जिसके पुष्प मटमैले श्वेताभ रंग के होते हैं।
(भाव०नि०पृ०३३४, ३३५)
पुष्प
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पाववल्ली
तथा सूखने पर काले तथा संख्या में लगभग १० होते
(भा०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ०२६७,२६८) पाववल्ली (पापवल्ली) माषपर्णी, उडदबेल
प०१/४०/२ पापः |पुं। माषपाम् । वैद्यक निघंटु ।
पासिय (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०६५६) पासिय (पाशिका) पाशिकावृक्ष, दक्षिण का एक विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पाववल्ली शब्द वल्लीवर्ग प्रसिद्ध वृक्ष
भ०२२/२ के अन्तर्गत है। पापशब्द का वानस्पतिक अर्थ माषपर्णी पाशिका स्त्री० । वृक्ष दाक्षिणात्येषु प्रसिद्धा वैद्यक शब्द कोश में है तथा पर्यायवाची नाम केवल वैद्यक
(अष्टांग संग्रह उत्तरस्थानम् ६ आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ०८६१) निघंटु में मिलता है। उसके उपलब्ध न होने से उसके पर्यायवाची नाम नहीं दिए जा रहे हैं। मासपर्णी बेल होती
पिंडहलिद्दा है। गुजराती में उसे उड़द बेल कहा गया है। माषपर्णी के पर्यायवाची नाम
पिंडहलिद्दा (पिण्डहरिद्रा) गोलगांठों वाली हलदी। माषपर्णी सूर्यपर्णी, काम्बोजी हयपुच्छिका।
भ०७।६ जीवा० १/७३ पाण्डुलोमशपर्णी च, कृष्णवृन्ता महासहा।। पिण्डहरिद्रा ।स्त्री। ग्रन्थिहरिद्रायाम्। वैद्यक माषपर्णी, सूर्यपर्णी, काम्बोजी, हयपुच्छिका,
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६६६) पाण्डुलोमशपर्णी, कृष्णवृन्ता और महासहा ये सब संस्कृत
विवरण-हलदी का मुख्य कंद प्रायः गोलाकार नाम उडद के है।
(भाव० नि० पृ० २६७)
गांठदार होता है। जिससे छोटी अंगुली की भांति अन्य भाषाओं में नाम
लम्बगोल शाखाएं लगी होती हैं। व्यवसायी प्रायः इन हिo-मषवन, माषोनी, वनउडदी, जंगलीउड़द ।
दोनों प्रकार की गांठों को पृथक-पृथक बेचते हैं। लम्बी बं०-माषानी। म०-रानउड़ीद। गुं०-जंगली अड़द।
हलदी गोल की अपेक्षा अधिक अच्छी समझी जाती है। क०-काडडयु, काडुलंद । ते०-रानोडिंडु, कारुमिनुरु ।
(वनौषधि निदर्शिका पृ०४०२) ता०-कटु अलदूं। ले०-Teramnus labialis Spreng (टेरॅम्नस् लेबिएलिस् स्प्रेग) Fam. Leguminosae
पिप्परि (लेग्युमिनोसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह सब प्रान्तों के जंगलों, झाड़ियों पिप्परि (पिप्पलि) पीपल, पीपर प०१/३६/२ में कहीं न कहीं उत्पन्न होती है।
पिप्पलि (ली), स्त्री। स्वनामख्यातपण्यद्रव्ये । विवरण-यह लता जाति की वनौषधि झाड़ियों पर
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०६७३) लिपटती हुई (चक्रारोही) बढती है और वर्षा ऋतु में पिप्पलि के पर्यायवाची नामअधिक पाई जाती है। पत्ते त्रिपत्रक और पत्रक पिप्पली मागधी कृष्णा चपला तीक्ष्णतण्डुला।। भिन्न-भिन्न कद के होते हैं । पत्रक कभी ०.६ से १.३ इंच उपकल्या कणा श्यामा, कोला शौण्डी तथोषणा।७३।।
और कभी १ से ३ इंच लम्बे होते हैं। ये अंडाकार या पिप्पली, मागधी, कृष्णा, चपला, तीक्ष्णतण्डुला, लट्वाकार (अग्यपत्रक कभी-कभी अभिलट्वाकार, नीचे
उपकुल्या, कणा, श्यामा, कोला, शौण्डी और ऊषणा ये के तल पर तलशायी रोमों से युक्त होते हैं। सवृन्त पुष्पों पिप्पली के पर्याय हैं। (धन्व०नि०२/७३ पृ०१२५) की मंजरी बहुत पतली १.५ से ५ इंच लम्बी और पुष्प अन्य भाषाओं में नामगुलाबी, नीलारुण या सफेद होते हैं। फली पतली लम्बी हि०-पीपर, पीपल। बं०-पीपुल, पिपुल । सीधी या कुछ टेढी होती है। बीज ताजी अवस्था में लाल म०-पिंपली। गं०-पीपर, लीडीपीपल, लिंडी
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पीपल क०-हिप्पली । ते०-पिप्पलु, पिप्पलि, पिप्लचेट्ट। कर भूमि पर फैलती है। पत्ते २.५ से ३.५ इंच के घेरे ता०तिप्पिली। तु०-इप्पली। मला०-तिप्पलि। में गोलाकार, पान के पत्तों के आकार वाले कोमल होते ब्राह्मी०-पौखीन। गोम०-हिपली। मा०-पीपल। हैं। ऊपर के पत्ते विनाल होते हैं। फलगुच्छ १ से फा०-पिलपिलदराज, फिलफिल दराज, पीपल दराज। १.५ इंच लम्बे और कृष्णाभ होते हैं, जिनमें अत्यन्त अ०-दारफिलफिल, डालफिलफफिल। अंo-Long छोटे-छोटे फल लगे रहते हैं। (भाव०नि०पृ०१५,१६) peper (लॉग पीपर) Dried catkins (ड्राडकॅटकिन्स)। ले०-Piper longum linn (पाइपर लांगम) Chavica
पिप्पलि roxburghii (चविका रॉक्सबघंई) Fam. Piperacea
पिप्पलि (पिप्पलि) पीपल, पीपर, भ०२२/३ (पाइपरेसी)।
देखें पिप्परि शब्द।
पियंगु पियंगु (प्रियङ्गु) प्रियंगु
ओ०६ जीवा०३/५८३
HTRA
SS 01.
:
0 Coo.ala
2. ROM
SNDRA
चियाली PIPER LONGUM LINN.
।
HTRA
०००
उत्पत्ति स्थान-इस देश से गरम प्रान्तों में पूर्व नेपाल से आसाम, खासिया के पहाड़ों पर, बंगाल में पश्चिम की ओर, बम्बई तक तथा दक्षिण की ओर ट्रावनकोर तक पायी जाती है। सीलोन मलाक्का तथा फिलीपाइन द्वीपों में भी यह पाई जाती है।
विवरण-पीपल लता जाति की वनौषधि का फल है। इसकी बेल अन्य लताओं की भांति अधिक विस्तार में नहीं बढती किन्तु थोड़ी ही दूरी में फैलती है। जड़ कुछ मोटी और खड़ी सी होती है। उससे शाखाएं निकल
-
पियंग
प्रियंगु के पर्यायवाची नाम
प्रियङ्ग फलिनीकान्ता, लताच महिलाऽवया।।१०१।। गुन्द्रा गन्धफला श्यामा, विष्वक् सेनाङ्गनाप्रिया ।।
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प्रियंगु, फलिनी, कान्ता, लता, महिलाह्वया (स्त्रीवाची सभीशब्द) गुन्द्रा, गन्धफला, श्यामा, विष्वक्सेनाङ्गना, प्रिया ये सबक संस्कृत नाम प्रियंगु के हैं। (भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग पृ०२४८)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - प्रियंगु, फूलप्रियंगु, गंधप्रियंगु, वुडुड, बूढीघासी, डइया, दहिया | बं० - मथुरा | नेपा० - दयाली, श्वेतदयालो । पं० - सुमाली । ले०- CallicaraPa macraphylla Vahi (कॅलिकार्पा मॅक्रोफाइला बाह ) ।
उत्पत्ति स्थान - यह जंगलों के किनारे घाट और ऊंची चढाइयों तथा खुले हुए जंगल और परती भूमि में होता है । यह नेपाल देहरादून के जलप्रायः स्थानों में, बंगाल तथा बिहार के अनेक स्थानों में पाया जाता है। विवरण- इसका गुल्म ४ से ८ फीट ऊंचा और तूल रोमश होता है । शाखाएं अनियमित रूप से फैली रहती हैं। पत्ते ५ से १० इंच लम्बे, अंडाकार या अंडाकार भालाकार लंबाग्र ऊपर चिकने, नीचे तूलरोमश एवं किनारा गोल दन्तूर होता है । पुष्प गुलाबी सघन, द्विविभक्त, १ से ३ इंच व्यास के गुच्छों में आते है । फल सफेद एवं १२ से १८ इंच व्यास के होते हैं। डालियां पुष्पगुच्छों के बोझ से झुक जाती हैं। इसकी छोटी-छोटी प्रियंगुधान्यसदृश पुष्पकलिकाएं फूलप्रियंगु के नाम से मिलती हैं। इसमें मसलने पर गंध भी आती है। ग्रामीण लोग गंठियां में इसकी पत्तियों से सेक करते हैं। (भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग० पृ०२५०)
पियय
पियय ( प्रियक) विजयसार प्रियक |पुं । सर्जकः प्रियक के पर्यायवाची नाम
ओव्ह (आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ०६३६)
असनस्तु महासर्ज, सौरि बन्धूकपुष्पकः । प्रियको बीजकः श्यामः, सुनीलः प्रियशालकः । ।११५ ।। असन, महासर्ज, सौरि, बन्धूकपुष्पक, प्रियक. बीजकश्याम, सुनील और प्रियशालक ये असन के पर्याय (धन्व०नि० ५/११५ पृ०२५५)
हैं।
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पियाल
पियाल (प्रियाल) चिरौंजी
भ०२२/२ ओ०६ जीवा०३/५८३ ५०१ / ३५/२ विमर्श - प्रज्ञापना १/३५ / २ में पियाल शब्द एकास्थिकवर्ग के अन्तर्गत है । चिरौंजी की गुठली होती है और उसीमें से फोडकर चिरौंजी निकालते हैं। इसलिए यहां चिरौंजी अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। प्रियाल के पर्यायवाची नाम
प्रियालोऽथ खरस्कन्धश्चारो, बहुलवल्कलः । स्नेहबीजश्चावपुटो, ललनस्तापसप्रियः । । ६५ ।। प्रियाल, खरस्कंध, चार, बहुवल्कल, स्नेहबीज, अवपुट, ललन और तापसप्रिय ये प्रियाल के पर्यायवाची हैं । ( धन्व०नि०५ / ६५ पृ०२३८) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - चिरौंजी, चिरोंजी। बं० - चिरौंजी, पियाल । म० - चारोली । गु० - चारोली । क० - चारनीज नरकल । ते० - सारुपपु । ता० - मुडइमा । फा० - नुकले खाजा नुकूलख्वाजह। अं०-हब्बुस्समाना, हब्बुलअमनह । ले०—Buchanania Latifoliae Roxb (बुँचननिया लेटिफोलिया) Fam. Anacardicea (ॲनेकार्डिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान - इसके वृक्ष भारत के उष्ण- शुष्क विशेषतः उत्तर पश्चिमी प्रदेशों की पहाड़ी भूमि पर हिमालय, मध्यभारत, उड़ीसा, छोटानागपुर और वर्मा में अधिक होते हैं।
विवरण- फलवर्ग एवं आम्रकुल का यह वृक्ष सीधा, मध्यमाकार का ४० से ५० फुट तक ऊंचा, शाखायें चारों ओर फैली हुई, बहुत कच्ची छाल १ इंच तक मोटी, धूसर कृष्णवर्ण की, पत्र ६ से १० इंच लम्बे, ६-६ इंच चौड़े श्याम, हरितवर्ण के नोकदार, कड़े खुरदरे, कोमल, रोमयुक्त पत्रवृन्त बहुत ही छोटा, पुष्प शाखाओं में ऊपर की ओर, मंजरियों में छोटे-छोटे नीलाभ श्वेतवर्ण के । फल लम्बे सीकों पर, गोल, छोटे, कुछ चपटे, मांसल, कच्ची दशा में हरे, पकने पर लाल, जामुनी श्याम वर्ण के लगते हैं। कच्चा फलखट्टा किन्तु ग्रीष्म काल में परिपक्व हो जाने पर इसका ऊपरी गूदा रसीला, मधुराम्ल फालसेजैसा होता है। इसमें पुष्प और फल
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वसंत ऋतु में आते है । फल की गुठली को फोड़ कर जो गिरी निकाली जाती है उसे चिरौंजी कहते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पु०१०२, १०३)
पिलुक्खरुक्ख
पिलुक्खरुक्ख (प्लक्षवृक्ष) पाखर, पाकर
प्लक्ष के पर्यायवाची नाम
प्लक्षः कपीतनः शृङ्गी, सुपार्श्वश्चारुदर्शनः ।। प्लवको गर्दभाण्डश्च, कमण्डलुर्वटप्लवः ।।७४।। प्लक्ष, कपीतन, शृङ्गी, सुपार्श्व, चारुदर्शन, प्लवक गर्दभाण्ड, कमंडलु और वटप्लव ये प्लक्ष के पर्यायवाची (धन्व०नि०५ / ७४ पृ०२४१)
1
पत्र
BRO
FICUS LA CUR BUCH HAM.
फल
भ०२२ / ३ प०१/३६/२
nar
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - पाकर, पाखर, पिलखन, पकरिया, पकरी । बं० - पाकी, पाकुर । म० - पाइट, पिंपरीवृक्ष । गु० - पीप, पीपर | क० - वसारी । ते० - जुव्वि । ता० - कुरुगुं । ले०Ficus Infectoria Roxb (फाइकस् इन्फेक्टोरिया)।
है।
उत्पत्ति स्थान- यह प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता
I
विवरण- पाकर के वृक्ष वड, पीपर के समान, जंगल और ग्रामों में बड़े-बड़े होते हैं। पत्ते ४ से ५ इंच लम्बे, आम के पत्तों के समान पर इनसे चौड़े होते हैं इनकी शाखायें सघन और छाया उत्तम होती है। फल पत्तों के डंडियों पर छोटे-छोटे पीए के फल के समान लगते हैं। ये पकने पर सफेद या कुछ लाल एवं बिन्दुकित होते हैं। (भाव० नि० वटादिवर्ग पृ०५१८)
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....
पीयकणवीर
पीयकणवीर (पीतकणवीर) पीले फूलवाली कनेर । जीवा ०३ / २८१ प०१७ / १२७
373. Thevetia neriifolia Juss ( ককেফুল )
पीतकणवीर के पर्यायवाची नाम
अन्या पाद्या पाटलिका, पीतपुष्पाल्पपुष्पिका ।। पाद्या, पाटलिका, पीतपुष्पा, अल्पपुष्पिका येपीतपुष्प कनेर के पर्यायवाची नाम हैं ।
(कैयदेव नि० ओषधिवर्ग पृ०६३१)
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अन्य भाषाओं में नाम
एवं निश्चेष्ट हो जाता है। आंखें चिपक जाती हैं और शीघ्र हि०-पीले फूल का कनेर, पीली कनहल । बं०- प्रतिकार न किया जाय तो मृत्युवश हो जाते हैं। पीतकरवी, काल का फुलेर गाछ । म०-पीवला कन्हेर,
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०६६) शेरानी, थिवटी। गु०-पीला कुल नी कनेर । अंo-The exile or yellow oleander (दि एक्झाइल या येलो
पीयबंधुजीव ओलिएन्डर)। ले०-Thevetia Neriifolia (थेवेटिया
पीयबंधुजीव (पीतबन्धुजीव) पीले फूलवाला नेरिफोलिया) Cerebera thevetia (सेरेवेरा थेवेटिया)। उत्पत्ति स्थान-पीतकनेर का उल्लेख चरक,
रा०२८ जीवा०३/२८१ प०१७/१२७ सश्रतादि प्राचीनग्रन्थों में ही नहीं मिलता। मध्यकालीन
असितसितपीतलोहितपुष्प विशेषाच्चतुर्विधो बन्धूकः ।। निघंटुकारों में केवल काशीराज ने ही अपने राजनिघंटु
यह (बन्धूक) कृष्ण, श्वेत, पीत तथा लोहित वर्ण पुष्प में इसका संक्षिप्त उल्लेख किया है। कहा जाता है कि
विशेष से चार प्रकार का होता है। यह अमेरीका से भारत में आया है। अब तो भारत में प्रायः
(रा०नि० १०/११८ पृ० ३२०)
किसी-कसी पौधे में श्वेत फीके पीले और सिन्दूरी सर्वत्र ही यह पाया जाता है। उष्ण प्रदेशों में यह अधिक होता है। पुष्पों के लिए तथा शोभा के लिए यह बगीचों रग के भी पुष्प आते है। में लगाया जाता है।
(धन्वन्तरिवनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०४१८) विवरण-इस पेड़ के प्रत्येक भाग से तोड़ने पर
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के एक प्रकार का दूध निकलता है जो जहरीला है। इसका
__ लिए 'पीयबंधुजीव' शब्द का प्रयोग हुआ है। दूध दाहजनक और विषैला होता है। छाल कडुवी, भेदन, ज्वरघ्न विशेषतः नियतकालिक ज्वर प्रतिबन्धक है। छाल
पीया कणवीर की क्रिया तीव्र होती है। औषधिकार्यार्थ इसे अत्यल्प मात्रा पीयाकणवीर (पीतकणवीर) पीले फूल वाली में देते हैं अन्यथा पानी जैसे पतले दस्त और वमन होने
रा०२८ लगते हैं। इसके फल से वमन बहत होते हैं। इस कनेर
देखें पीयकणवीर शब्द का मुख्य विषैला परिणाम हृदय की मांसपेशियों पर होता है। इसका सघन सुपल्लवित, सुन्दर, सदैव हराभरा, पेड़
पीयासोग लगभग १२ फीट तक ऊंचा, पत्ते अन्य कनेरों के पत्र के जैसे ही किन्तु उनसे पतले, छोटे और अधिक चमकीले पीयासोग (पीताशोक) पीले पुष्पवाला अशोक। होते हैं। फूल पीले, घंटाकार, पांचदलवाले, मीठी
रा०२८ प०१७/१२७ सुगन्धयुक्त, शाखाओं के अग्र भाग पर लगते हैं। फूलों विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के के झड़ जाने पर इसमें फल गोलाकार मांसल त्वचा लिए पीयासोग शब्द का प्रयोग हुआ है। युक्त, कच्ची अवस्था में हल्के हरे रंग के तथा पकने पर विवरण-अशोक के पत्ते आम के समान होते हैं। भूरे रंग के १.५ से २ इंच व्यास के होते हैं। फल के भीतर फूल सफेद कुछेक साधारण पीले रंग के होते हैं। एक त्रिकोणाकृति गुठली होती है। यह गुठली भूरे रंग
(शा०नि० पुष्पवर्ग०पृ०३८४) की कड़ी, चिकनी होने से बालक इसे गुल्लू कहते हैं और इससे खेला करते हैं। इस गुठली के अंदर हलके
पीयासोय पीले रंग के चिपटे दो बीज महाविषैले होते हैं। बालक पीयासोय (पीताशोक) पीला अशोकजीवा०३/२८१ गण खेल में कभी-कभी गठली को फोड कर इन बीजों को खा लेते हैं। उनका कोमल शरीर शीघ्र ही निष्क्रिय
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पीलु
पीलु (पीलु) पीलू
भ०२२/२ जीवा०१/७१ प०१/३५/१ पीलु के पर्यायवाची नाम
पीलुः शीतः सहस्रांशी, धानी गुडफलोपि च । विरेचनफल: शाखी श्यामः करभवल्लभः ।।४४।।
पीलु, शीत, सहस्रांशी, धानी, गुडफल, विरेचनफल, शाखी, श्याम और करभवल्लभ ये पीलु के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०५/४४ पृ०२३२) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पीलु. छोटापीलु खरजाल | बं०-पीलु गाछ। म०-पिलु। गु०-पीलु, खारी जाल। क०-गेनुमर | ते०-गोगु। ता०-पेरुन्गोलि । फाo-दरख्ते मिस्वाक् । अ०-अराक । पं०-पीलुजाल । राजपु०-झाल। SALVADORA PERSICA LINN.
दुर्बल होती हैं। पत्ते विपरीत चर्मसदृश या मांसल, अंडाकार आयताकार १.२५ से २ इंच लम्बे तथा दोनों शिरों पर गोल होते हैं। इस पर छोटे-छोटे फूल बारही मास आते रहते हैं और वे हरापनयुक्त सफेद होते हैं। फल आधा इंच गोल, चिकने और पकने पर लाल हो जाते हैं। सूंघने पर इनमें राई आदि के समान तीक्ष्णगंध आती है तथा इसमें एक बीज होता है। एक दूसरा बड़ा पीलु होता है जिसको लैटिन में साल्वेडोरा ओलीओसि कहते हैं। इसके फल पकने पर पीले, सूखने पर लाली लिए भूरे रंग के होते हैं।
(भाव०नि० पृ०५६१)
पुकाट AAAA07
पुण्णाग पुण्णाग (पुन्नाग) जायफल
भ०२२/२ जीवा०१/७१ प०१/३५/३ पुन्नाग |पुं। स्वनामख्यातपुष्पवृक्षे। जातीफले, शुक्लपट्टे, श्वेतहस्तिनि, तिलपुष्पवृक्षे ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६८४) विमर्श-पुन्नाग शब्द के ऊपर चार वानस्पतिक अर्थ बतलाये गए हैं। पुन्नाग शब्द से सीधा अर्थ पुन्नाग वृक्ष (नागकेसर) का बोध होता है। प्रस्तुत प्रकरण में पुन्नाग शब्द एकास्थिवर्ग के अन्तर्गत है, इसलिए यहां जातीफल अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। जातीफल अर्थ में पुन्नाग शब्द के पर्यायवाची नाम मेदिनी में हैं। वह उपलब्ध नहीं है। इसलिए जातिफल के पर्यायवाची नाम दे रहे हैं। जातीफल के पर्यायवाची नाम
जातीफलं जातिसृतं, शलूकं, मालतीसुतम ।।१८ //
जातीफल, जातिसृत, शलूक और मालतीसुत ये जायफल के नाम हैं।
(मदन०नि०३/१८ पृ०७६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-जायफल, जायफर | बं०-जायफल । गु०जायफल। म०-जायफल, बोंडा जायफल। पं0जयफल। ते०-जाजिकाय। क०-जाजिकै। ता०जाडिक्कै ब्रह्मी०-झाड़िफू। सिलो०-जडिका | मला०
फलसमूह
उत्पत्ति स्थान-यह राजपुताना, बिहार, कोंकण, डेक्कन, कर्नाटक, बलूचिस्तान, सिन्धु आदि स्थानों में शुष्कप्रदेशों में होता है।
विवरण-इसका वृक्ष छोटा एवं सदा हराभरा रहता है। स्तम्भ टेढा होता है और शाखायें नीची झुकी हुई और
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बुशपल । फा०-जौजबूया । अ०-जौज़ बब्वा, जौजुत्तीब। लिए हुए भूरा तथा सिकुडा हुआ दिखलाई पड़ता है और अं0-Nutmeg (नटमेग)। ले०-MyristicaFragrans Houtt भीतर का रंग मैला गुलाबी जिसमें लालिमा लिए भूरेरंग (मायरिस्टिका फ्रेग्रेन्स हाउट) Fam. Myristicaceae के तंतुओं का जाल होता है। इसकी गंध तेज और (मायरिस्टिकॅसी।
स्वाद सुगंधयुक्त कड़वा होता है।
(भाव० नि० कर्पूरादिवर्ग०पृ०२१६,२१७)
-
-
पुत्तंजीवय पुत्तंजीवय (पुत्रजीवक) जियापोता प०१/३५/२ पुत्रजी (श्री) वः (क:) ।। कोलापुरदेशे तन्नाम्ना प्रसिद्ध वृक्षविशेषे (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६८३)
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शाख
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उत्पत्ति स्थान-जायफल सुमात्रा, जावा, सिंगापुर, मोलूक्का, पिनांग एवं लंका तथा वेस्ट इंडीज में अधिकता से उत्पन्न होता है। इस देश में इसके वृक्ष से फल पाना कष्ट साध्य है। नीलगिरी पर्वत के पूर्वीय भाग में कनूर की घाटी में बलियार केसरकारी बगीचों में तथा दक्षिण में कोटॅलम् की पहाड़ियों पर इसके पेड़ लगाये गये हैं। विवरण-इसका वृक्ष सेव के समान होता है और
पुष्पकार देखने में बहुत सुहावना हरे रंग का मालूम पड़ता है। पत्ते २ से ५ इंच तक लम्बे, १.५ इंच तक चौड़े चर्मवत्, लम्बे पर्णवृन्त से युक्त, अंडाकार या आयताकार पुत्रजीवक के पर्यायवाची नामभालाकार तथा हल्के पीले भूरे रंग के होते हैं। फूल पुत्रजीवः पवित्रश्च, गर्भदः, सुतजीवकः ।। छोटे-छोटे सफेद रंग के गोलाकार आते हैं। फल गोल कुटजीवोपत्यजीवसिद्धिदोपत्यजीवः ।।१३८ ।। अंडाकार १.५ से २ इंच लम्बे रक्ताभ या पीताभ तथा पकने पुत्रजीव, पवित्र, गर्भद, सुतजीवक, कुटजीव, पर दो फांकों में फट जाते हैं। इनके फटने पर कड़े अपत्यजीव, सिद्धिद अपत्यजीवक ये पुत्रजीवक के नाम आवरण से युक्त जायफल (सखे हए बीज) को घेरे हवे
(राज०नि०६।१३ पृ०२६२) जावित्री का लालवर्ण का वेष्टन दिखाई देता है । जावित्री अन्य भाषाओं में नामके अंदर जायफल रहता है। जायफल अंडाकार, गोल हि०-जियापोता, पितौजिया। बं०-जियापुन्ता। तथा एक इंच के घेरे में होता है। बाहर से यह खाकीपन म०-पुत्रजीव। गु०-पुत्रजीवक। तेल-कुहुरुजीवि ।
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ले०—Putranjivaroxburghii Wall (पुत्रन्जीत रॉक्स वरघाई) Fam. Euphorbiaceae (यूफोर्बिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान- इस देश के गरम प्रान्तों में पाया जाता है। यह जंगली और बागों में भी लगाया हुआ पाया जाता है।
विवरण- इसका वृक्ष मध्यमाकार का होता है और बारह मास हराभरा सुहावना दीखाई पड़ता है। शाखायें प्रायः लटकी हुई रहती हैं। छाल कालापन युक्त खाकी रंग की होती है । पत्ते द्विपंक्ति चमकदार प्रासवत् या आयताकार एवं पत्रतट प्रायः लहरदार होता है । पुपुष्प पीताभ तथा स्त्रीपुष्प इरिताभ होते हैं। फल झरबेर के आकार के श्वेताभ तथा स्थायी कुक्षिवृन्त से युक्त होने के कारण नोकीले होते हैं। जिनके लड़के पैदा होते ही मर जाया करते हैं वे लोग इसकी गुठलियों की माला पहनते हैं। (भाव० नि० वटादिवर्ग० पृ०५३१)
....
पुरोवग
पुरोग (
ओ०६, १०
विमर्श - निघंटुओं और शब्दकोशों में पुरोवग शब्द नहीं मिला है। रायपसेणिय वृत्ति ( पृ०१२ ) में उद्धृत पाठ में यह शब्द नहीं है। जीवाजीवाभिगम (३/३८८) में इसके स्थान पर पारावय शब्द है । इसलिए यहां पारावय शब्द ले रहे हैं।
पारावय (पारावत) फालसा
देखें पारावय शब्द ।
....
पुलयइ
पुलयइ (
भ०२३/१
विमर्श - उपलब्ध निघंटुओं तथा शब्दकोशों में पुलयइ शब्द का अर्थ उपलब्ध नहीं है। भाव प्रकाश निघंटु वटादिवर्ग पृ० ५२६ में कन्नड़ भाषा में पुलई शब्द मिला है जो बबूल का वाचक है 1
D.co
पुस्सफल
पुस्सफल (पुष्पफल) कुम्हडा, भूरा कुम्हडा,
पेठा
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प०१/४८/४८
पुष्पफल के पर्यायवाची नाम
कूष्माण्डं स्यात् पुष्पफलं, पीतपुष्पं बृहत्फलम् कूष्माण्ड, पुष्पफल, पीतपुष्प, बृहत्फल ये सब संस्कृत नाम कूष्मांड के हैं। (भाव० नि० शाकवर्ग पृ०६७६) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - पेठा, भूरा कुम्हडा, भतुआ, रकसा कोहडा । बं० - कुमडा | म० - कोहला । गु० - भुरुं कोहलुं । क० - दार कोहोला । ता० - पुरानीकै । ते० - गुम्मडि | फा० - पजदाब, पदुव । अ० - महवः । अंo - The Ash gourd (दी अॅश गोर्ड) । ले० - Benincasa cerifera Savi ( बेनिन् कॅसा सेरीफेरा) Fam. Cucurbitaceae (कुकुर बिटेसी) ।
उत्पत्ति स्थान- पेठा प्रायः सब प्रान्तों में रोपण किया जाता है।
विवरण -- ३सकी लता मचान आदि के सहारे खूब फैलती है। पत्ते कद्दू के समान ४ से ६ इंच के घेरे में गोलाकार, कटे किनारे वाले या ५ भाग वाले होते हैं। फूल पीले रंग के आते हैं। फल गोलाई युक्त, किंचित् लम्बे तथा लम्बाई में १ से १.५ फीट के होते हैं। इसकी गुद्दी सफेद रहती है। बीज अनेक, चिपटे एवं किनारेदार होते हैं । (भा०नि०शाकवर्ग० पृ०६८०)
....
पूई
पूई (
) पूईशाक, पोई का शाक प०१/३५
विमर्श - पूई शब्द बंगभाषा का है। हिन्दी भाषा में इसे पोई कहते हैं। संस्कृत भाषा में पोतकी आदि शब्द पूई के पर्यायवाची नाम हैं। पोतकी के पर्यायवाची नाम
पोतक्युपोदकी सा तु मालवाऽमृतवल्लरी ।। पोतकी, उपोदकी, मालवा तथा अमृतवल्लरी ये सब पोई के संस्कृत नाम हैं । ( भाव०नि० शाकवर्ग पृ०६६५) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - पोय (शाक), पोय का साग, पोई का साग । बं० - पूंई, पूईशाक । म० - मायाल। गु० - पोथी । क०वसले | ते० -- बच्चलि । ता० - बसलक्किरै । अंo - Indian Spinach (इण्डियन स्पाइनॅक) । ले० - Basella rubra linn
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(वेसेलारुब्रा) Fam. Basellaceae (बेसेलेसी)।
पगफल के पर्यायवाची नाम
पूगन्तु चिक्कणी चिक्का, चिक्कणं श्लक्ष्णकं तथा उदवेगं क्रमुकफलं, ज्ञेयं पूगफलं वसु ।।२३५।।
पूग, चिक्कणी, चिक्का, चिक्कण श्लक्ष्णक, उद्वेग, क्रमुकफल तथा पूगफल ये सब सुपारी के आठ नाम हैं।
(राज०नि०११/२३५ पृ०३८८) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-सुपारी, सोपारी, सुपाड़ी,कसेली। बं०शुपारी, सुपारी। म०-सुपारी, पोफल । गु०-सोपारी। ता०-कमुगु । क०-कडि, अडिके। ते०-पोका | फा०पोपिल। अ०-फोफिल। अं०-Betel Nut Palm (वटलनटपाम)। ले०-Arecacatechu linn (एरेकाकॅटेच) Fam. Palmae (पामी)।
उत्पत्ति स्थान-यह इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में बोई जाती है तथा वन्य भी पाई जाती है।
विवरण-इसका क्षुप बहवर्षाय, फैलनेवाला, लतासदृश होता है। पत्ते शीशम के पत्ते के समान गोलाकार परन्तु उनसे मोटे ५४३ इंच बड़े और गूदेदार होते हैं। पत्रदण्ड से कोमल सींक निकलकर उस पर उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष बंगाल, आसाम, क्रमशः लालमिश्रित सफेद रंग के फूल आते हैं। फल सिलहट, मैसूर, कनारा, मलावार तथा दक्षिण हिन्दुस्थान छोटे-छोटे गोल, किंचित् नोकीले एवं पकने पर के कई प्रान्तों में तटीय प्रदेशों में लगाये हुए पाये जाते कालापन युक्त बैंगनी रंग के हो जाते हैं। सफेद और हैं। लाल कांड के भेद से यह दो प्रकार की होती है।
विवरण-इसका वृक्ष ताड़ और नारियल के समान (भाव०नि०शाकवर्ग० पृ०६६५) ऊंचा (४० से ६० फीट) पर वांस के समान पतला होता
है। पत्ते बड़े-बड़े पक्षवत, नारियल के पत्तों के समान ४ पूयफली
से ६ फीट लम्बे, जिनमें ऊपर के उपपक्ष मिले हुए तथा पूयफली (पूगफल) सुपारी
वृन्त का नीचे का भाग चौड़ा तथा फैला हुआ होता है। भ०२२/१ जीवा०३/५८६ जं०२/६ प०१/४३/२
फूल, पत्रकोशावृत गुच्छ में जिनमें पुंपुष्प छोटे, अधिक
ह
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जैन आगम वनस्पति कोश
तथा स्त्रीपुष्प बड़े रहते हैं। फल अंडाकार १.५ से २ इंच चौड़ा तथा २ से २.५ इंच लम्बा एवं पकने पर चमकीले नारंगी रंग का होता है, जिसके अन्दर सुपारी (बीज) रहती है। (भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग० पृ०५६३)
पूयफलीवण
पूयफलीवण (पूगफलवन) सुपारी के वृक्षोंका
वन ।
जीवा ०३ / ५८१
देखें पूयफली शब्द |
पूसफली
पूसफली (पुष्पफली) कुम्हडी भ०२२/६, प०१/४०/१ पुष्पफला । स्त्री । कूष्माण्डलतायाम् (वैद्यक निघंटु) (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६८८ )
पुष्पफली के पर्यायवाची नाम
कूष्माण्डीकी पुष्पफली, पचनालिश्चतुर्विधः । कर्कारुरफला कन्दी, स्यादारु राजकर्कटी ॥ ३ ॥ कूष्माण्डीकी, पुष्पफली, पचनालि, चतुर्विध, कर्कारु, अफला, कन्दी, आरु, राजकर्कटी ये पेठे के नाम हैं। (मदन०नि० शाकवर्ग०७/३)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कुम्हरा, सफेद कद्दु । बं०-सादा कुम्हर । म० - कौला । ता० - सुरईकई । अंo - Vegetable Marrow (वेजिटेबुल मॅरो) Field Pumpkin (फील्ड पम्पकिन) । ले०—Cucurbita pepo linn ( कुकुर विटापेपो ) Fam Cucurbitaceae (कुकुरविटेसी) ।
उत्पत्ति स्थान- यह सभी प्रान्तों में कृषित अवस्था में होता है।
विवरण - इसकी लता वर्षायु दृढ़ एवं खरदरी से रोमश होती है। पत्ते गोलाकार, अल्पखंडित एवं वृन्त तीक्ष्ण रोमश होते हैं। पुष्प पीले रंग के आते हैं। फल कई प्रकार के किन्तु सामान्यतः नाशपाती के आकार वाले या कुछ आयताकार होते हैं। इसका डण्ठल कडा, अनेक गहरी धारियों से युक्त एवं फल के आधारीय भाग में फूला हुआ नहीं रहता। इसके अनेक प्रकार होते हैं। गुद्दी हलके
रंग की एवं गंधहीन होती है। बीजों को तथा उसके तेल को खाने के काम में लाते
पेलुगा ( सनपर्णी ।
195
I
(भाव० नि० शाकवर्ग० पृ०६८०)
पेलुगा
) सन जाति का एक पौधा,
प०१ / ४८/६
विमर्श - पाठान्तर में पलुगा शब्द है । पेलुगा शब्द का वनस्पति नाम निघंटुओं में नहीं मिलता। पलुगा शब्द का मिलता है । इसलिए यहां पलुगा शब्द ग्रहण किया जा रहा है। संभव है लिखने में प का पे हो गया हो । पलुगा ( पलुआ ) सनपर्णी
पलुआ-सन जाति का एक पौधा ।
(बृहत् हिन्दी कोश ) विमर्श - सन शिम्बीकुल का पौधा है। सनपर्णी भी शिम्बीकुल का झाड़ीनुमा पौधा है । लगता है पलुआ सनपर्णी होना चाहिए ।
सनपर्णी के अन्य भाषाओं में नाम
सं०- सनपर्णी । कच्छी० - झीपटीबेल । गु-चीपकणो बेलो | ते० - मुय्या कुपोन्ना । ले० - Pseudarthria Viscida W&A. ( स्यूडेरथरिया विसिडा)।
I
सनपर्णी- यह एक झाड़ीनुमा वनस्पति होती है । इसके पत्तों पर सफेद रंग का रुंआ होता है। इसके फूल बहुत छोटे, हल्के गुलाबी या बैंगनी होते हैं। इसके बीज कुछ भूरापन लिए हुए काले रंग के होते हैं। यह वनस्पति पश्चिमी प्रायद्वीप में पैदा होती हैं। यह सारा पौधा इतना चिकना होता है कि इसका कोई भी हिस्सा कपड़े में लग जाने से वह चिपक जाता है।
( वनौषधि चन्द्रोदय नवां भाग पृ०८ ३)
पोंडइ ) बोदरी
पोंडई (
भ०२२/४ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण (भग०२२/४ ) में पोंडइ शब्द है। प्रज्ञापना (१/३७/१) में इसके स्थान पर बोंडइ शब्द है। पोंडई शब्द का वानस्पति अर्थ नहीं मिलता है।
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बोंडई शब्द का मिलता है। इसलिए इस शब्द के अर्थ के लिए बोंडई शब्द देखें।
पोंडरीय
पोंडरीय (पुण्डरीक) सहस्रदल वाला अतिश्वेत कमल रा०२६ जीवा०३ / २८२, २८६,२६१ ५०१ / ४६: १७ /१२८ पुण्डरीक के पर्यायवाची नाम
पुण्डरीकं श्वेतपद्मं, सिताब्जं श्वेतवारिजम् ।
हरिनेत्रं शरत्पद्मं, शारदं शम्भुवल्लभम् ।।१३० ।। पुण्डरीक, श्वेतपद्म, सिताब्ज श्वेतवारिज, हरि नेत्र, शरत्पद्म, शारद और शम्भुवल्लभ ये पुण्डरी के पर्याय हैं ।
पुण्डरीक - अतिश्वेत
( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०१३८) पुण्डरीकम् । श्वेतकमले ।
सहस्रदलश्वेतकमले ।
( धन्व० नि०४ |१३० पृ०४ / १३० )
रा०नि०व०४ ।
( चरक संहिता, सूत्रस्थान ४ अध्यायः ) (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६८२)
विमर्श - चरक संहिता सूत्रस्थान ४ अध्याय पृ०३६ में पुण्डरीक को कमल का भेद माना है ।
....
पोक्रवल
पोक्रवल (पुष्कर) पद्मकंद
पुष्करः पुं। पद्मकंदे ।
पद्म (कमलमूल या भसिंडा )
( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०१४३) भाषाओं में नाम
सं० - पद्ममूल, भूमलकंद, भिस्साण्ड, शालूकं । हि० - भिस्सा, भसीड, मुरार, भसिंडा । बं०- पद्मेर गेंडों. शालूक |
विवरण - यह जड़ मोटी, लम्बी एवं सच्छिद्र होती है। कच्चीदशा में तोड़ने पर इन छिद्रों में से के मृणाल
प०१/४६
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६८६)
जैन आगम वनस्पति कोश
तन्तु जैसे ही किन्तु उनसे कुछ स्थूल तंतु (सूत्र) निकलते हैं। इन्हें भी विस (सूक्ष्मतंतु) कहते हैं। इस जड़ की तरकारी बनाते हैं | दुष्काल के समय इन्हें पीसकर रोटी बनाकर खाते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०१३८ )
पोक्खलत्थभय (
हो पाई है।
....
पोक्खलत्थिभय
>
प०१/४६
विमर्श - प्रस्तुत शब्द की पहचान अभी तक नहीं
पोडइल
पोडइल (पोटगल) नलतृण
प०१/४२/१
पोटगल के पर्यायवाची नाम
नडो नटो नलश्चैव, स च पोटगलः स्मृतः ।। धमनो नर्तको रन्ध्री, शून्यमध्यो विभीषणः । । १२५ ।। नड, नट, नल, पोटगल, धमन, नर्तक, रन्ध्री, शून्यमध्य और विभीषण ये नल के पर्यायवाची नाम हैं । (धन्च०नि०४ / १२५ पृ०२१५)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - नरकट । म० - नल। गु०-नाली, नाइरी । कोल० - जंकई । ले० - Phragmites Kirka Trin (फ्रॅग् माइटीज कर्का ट्रिन) Fam. Graminea (ग्रॅमिजी) ।
उत्पत्ति स्थान - यह पश्चिमी घाट में बम्बई से त्रावनकोर तक २ से ७ हजार फीट की ऊंचाई तक कोंकण, माथेरान, दक्षिण, महाराष्ट्र का दक्षिण प्रदेश, नीलगिरी, मलावार तथा मैसूर में पाया जाता है।
विवरण- इसका क्षुप ५ से १२ फीट ऊंचा, द्विवर्षायु या बहुवर्षायु होता है। काण्ड ऊपर की तरफ पोला तथा ऊपर की ओर इससे शाखायें निकली रहती है। पत्ते तंबाकू की तरह, संख्या में बहुत, हलके हरे रंग के छोटे पर्णवृत से युक्त, नीचे के १२x२ इंच बड़े तथा ऊपर को क्रमशः छोटे, भालाकार, महीन दांतों से युक्त एवं मृदुरोमश होते हैं। पुष्पजामुनी आभायुक्त, श्वेतवर्ण के. १ फीट तक लम्बी मंजरियों में आते हैं। फल ८ मि.मि. व्यास
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के स्थान पर पुलयइ शब्द है। कन्नड़ भाषा में पुलई शब्द मिला है जो बबूल का वाचक है।
(भाव०नि०वटादिवर्ग पृ०५२६)
के गोल सामान्य स्फोटी फल कहते हैं। बीज बहुत छोटे अंडाकार, दबे हुवे, पीताभ भूरे रंग के तथा स्वाद में अत्यन्त तीते होते हैं। इसके पुष्प दंड पर एक गाढा। पीले रंग का स्राव जमा हुआ पाया जाता है। इसमें एक प्रकार की अप्रियगंध होती है। सूखे हुवे पौधे पर राल की तरह एक पदार्थ लगा रहता है तथा इसका स्वाद उष्ण एवं तीता होता है। इसकी धूल से नाक तथा गले में तंबाकू की तरह प्रक्षोभ होता है। इसकी नली से वंसी बनाई जाती है, जिसे कोंकण में पावा कहते हैं।
(भाव०नि० पृ०३७८)
फणस
फणस (फणस) कटहल,
भ०२२/३ ओ०६जीवा०१/७२: ३/५८३ प०१/३६/१ फणस के पर्यायवाची नाम
पनस: कंटकिफलः, फणसोऽतिबृहत्फलः ।। अपुष्पः फलदश्चैव, स्थूलकण्टफलस्तथा।।
पनस, कंटकिफल, फणस, अतिबृहत्फल, अपुष्प, फलद, स्थूलकण्टफल आदि २४ नाम पनस के पर्यायवाची हैं।
(शा०नि० फलवर्ग०पृ०४४७)
पोदइल पोदइल (पोटगल) नलतृण
देखें पोडइल शब्द ।
भ०२१/१६
A
.
पोरग पोरग (पर्व) वांस की गांठ।
- भ०२०/२० प०१/४४/१ पर्व ।क्ली०. वंशग्रन्थौ।
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०६४४) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पोरग शब्द हरितवर्ग में है। पोर शब्द हिन्दी भाषा में बांस की गांठ का वाचक है। बांस की गांठ का शाक होता है इसलिए यहां पोरग शब्द का अर्थ बांस की गांठ ग्रहण किया जा रहा है। पर्व के पर्यायवाची नाम
तस्य ग्रन्थिस्तु परु: पर्व, तथा काण्डसन्धिश्च ।।३६ ।।
उसकी (वंशाकुर) की गांठ के ग्रन्थि, परु, पर्व तथा काण्डसन्धि ये सब नाम हैं।
राज०नि०७/३६ पृ०१६५)
कटहल
पोवलइ पोवलई ( ) प०१/४८/३
विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं तथा शब्दकोशों में पोवलइ शब्द नहीं मिला है । भगवती (२३/१) में इस शब्द
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-कटहर, कटहल, कठैल । बं०--कांटाल । म०-फणस। गु०-फनस। क०-हलसु। ते०पनसकायि। ताo-पेलाकायि । अंo-Jack Tree (जैक ट्री)। लेo-Artocarpus integrifolia linnr (आर्टोकार्पस् इन्टेग्रिफोलिया)| Fam Moraceae (मोरेसी)।
विमर्श-मराठी और गुजराती भाषा में फणस कहते
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उत्पत्ति स्थान - विशेषकर गरम प्रान्तों में यह रोपण किया जाता है। पश्चिमघाट के जंगलों में यह आप ही आप उत्पन्न होता है और दक्षिण, बिहार तथा बंगाल में अधिक होता है ।
1
विवरण- इसका वृक्ष बड़ा होता है। छाल खुरदरी रहती है। जिससे दुधिया क्षीर निकलता है । पत्ते ४ से ८ इंच लम्बे, कुछ चौड़े, मोटे, किंचित् अंडाकार और किंचित् कालापनयुक्त हरे रंग के होते हैं। स्तम्भ और मोटी शाखाओं पर फूल फल लगते हैं। फूल २ से ६ इंच तक लम्बे, १ से २ इंच गोल अंडाकार और किंचित् पीले रंग के होते हैं। फल बहुत बड़े-बड़े १ से २ फीट एवं लम्बाई युक्त गोल होते हैं। उसके ऊपर कोमल कांटे होते हैं। गूदा बीज के चारों तरफ लिपटा हुआ मोटा होता है। जो कच्ची अवस्था में सफेद तथा पकने पर पीला हो जाता है। कच्चे फल की तरकारी बनाते हैं तथा पके फल को खाते हैं। बीजों में स्टार्च रहता है जिन्हें पकाकर खाते हैं। (भा० नि० पृ०५५५)
फणिज्जय
फणिज्जय (फणिज्जक) फांगला
प०१/४४/३
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण प्रज्ञापना १/४४ / ३ में फणिज्जय और मरुयग ये दो शब्द हरित वर्ग के अन्तर्गत हैं। दोनों ही मरुवा के वाचक हैं। फणिज्जय फांगला का भी अर्थ देता है जो तुलसी के छोटे पत्तों वाली एक जाति का नाम है। इसलिए यहां फणिज्जय का अर्थ फांगला ग्रहण कर रहे हैं ।
फणिज्ज (ज्झ ) कः । पुं । क्षुद्रपत्रतुलसीभेदे । गन्धतुलस्याम् ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०७१७)
अन्य भाषाओं में नाम
सं०- फणिअक । हि०-फांगला, पागला । म०-फांगला । ले०-Pogostemon Parvillorus (पोगोस्टेमन पर्विफ्लोरस) P. Purpurascens (पो० परपरासेन्स), P. Plectranthoides (पो० प्लेक्ट्रेन्थायडिस) P. Purpuricais (पो०, परपरिकेलिस) ।
उत्पत्ति स्थान- इसके क्षुप दक्षिण में रत्नागिरी
जैन आगम वनस्पति कोश
तथा कोंकण में अधिकतर ऊसरभूमि में एवं जंगलों में पाये जाते हैं। उत्तर में चार हजार फुट की ऊंचाई तक ( मालकोट में ) प्रायः नालों में पाए जाते हैं।
विवरण -तुलसी कुल प्रायः ३ फुट तक ऊंचे ताम्रवर्ण के इस क्षुप के काण्ड प्रायः ताम्र या बैंगनी रंग के, चौपहले, चिकने, चमकीले, किंचित् रोमश । पत्रलम्बगोल लगभग ३ से ६ इंच लम्बे, नोकदार, लट्वाकार, अनियमित, कंगूरेदार या अखण्ड काली दाख जैसी गंध वाले होते हैं। पुष्प तुर्रों में या गुच्छों में बहुत घने, लटकते हुए ताम्रवर्ण के या कहीं-कहीं लाल पीले छीटों से युक्त श्वेतरंग के आते हैं। पुष्प का भीतरी भाग ३ मि.मी. तक लम्बा होता है। फली ४ मि.मी. तक लम्बी । प्रायः इसके पुष्पों में ही बीज होते हैं. फली नहीं आती। उक्त फलीवाली इसकी एक अन्य जाति है, गुणधर्म समान ही हैं। यह जंगली तुलसी का ही एक भेद मरुवा, तुलसी की छोटे पत्तों वाली एक जाति है ।
( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ०३७५)
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फणिज्जय फणिज्जय(फणिज्जक) सफेद मरुआ
प० १/४४/३ फणिज्जक: मरूबकः । पांठरा मरवा (सफेद मरुआ)
(आयुर्वेदीय शब्दकोष पृ० ६४२) विमर्श-मरुवा श्वेत और कृष्ण इन भेदों से दो प्रकार का है। प्रस्तुत प्रकरण १/४४/३ में फणिज्जय और मरुयग ये दो शब्द हैं-दोनों मरुआ के वाचक हैं यहां फणिज्जय से सफेद मरुआ अर्थ ग्रहण किया गया है। फणिज्जय के पर्यायवाची नाम
मरुत्तको मरुबको, मरुन् मरुरपि स्मृतः। फणी फणिज्जकश्चापि, प्रस्थपुष्पः समीरणः ।।
मरुत्तक, मरुबक, मरुत् मरु, फणी, फणिज्जक, प्रस्थपुष्प, समीरण ये सब मरुत्तक के पर्यायवाची नाम
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-मरुवा, मरुआ, गेदरेता। बं०-मरुआ । म०-सब्जा, मर्वा । गु०-मरुवो। कo-मरुवा। तै०रुद्रजाड। फा०-मरजननोस। अं०-Sweet Marjoram (स्वीट मारजोरम्)। ले०-Origanum majorana Linn (ऑरीगेनम् मॅजोराना) Fam. Labiatae (लेबिएटी)।
उत्पत्ति स्थान-मरुवा प्रायः सब प्रान्तों की वाटिकाओं में रोपण किया जाता है।
विवरण-यह क्षुपजाति की वनस्पति १ से २ फीट ऊंची होती है और इससे सुगन्धि आती है। पत्ते लम्बे अंडाकार किंचित् लालिमायुक्त सफेदी मायल एवं सुगंधित होते हैं। उस पर तुलसी के समान मंजरी लगती है। सफेद और काले रंगों के भेद से यह दो प्रकार होता है। इनमें सफेद औषधि और काला शिवपूजन के काम में आता है।
(भाव०नि०पुष्पवर्ग०पृ०५१०) जिस प्रकार तुलसी हिन्दुओं में पूजनीय है उसी तरह मरवा मुसलमानों में आदरणीय है और इसीलिए प्रत्येक कब्र पर इसके क्षुप लगाये जाते हैं, पृष्पकाल, शिशिर ऋतु है।
(वनौषधि विशेषांक भाग५ पृ०३७१)
(शा०नि० पृ०३६४)
BAŠSIA LATIFOLIA ROXB
फलकार
पुष्प
फुसिया फसिया (स्पृशा) सर्पकंकालिका लता पं०१/४०/५ स्पृशा स्त्री। सर्पकङ्कालिकावृक्षे। (शरद चन्द्रिका) कण्टकार्याम् ।
(वैद्यकशब्द सिन्धु०पृ०११६८) सर्पकङ्कालिका(ली) स्वनामख्यातलतायाम् । गन्धरास्नायाम्। (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०११०४) सर्पकंकालिका के पर्यायवाची नाम
नकुलेष्टा महावीर्या, तथा सर्पसुगंधिका ।। विषघ्नी सुवहा सर्पगन्धा चीरितपत्रिका ।।७७५ ।। सुगन्धा नाकुली सर्पलोचना गन्धनाकुली सर्पकंकालिका ज्ञेया, सुनन्दा विषदंष्ट्रिका ।।७७६ ।। नकुलेष्टा, महावीर्या, सर्पसुगंधिका, विषघ्नी, सुवहा.
बीज
गीरी
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जैन आगम : वनस्पति कोश
सर्पगन्धा, चीरितपत्रिका, सुगन्धा, नाकुली, सर्पलोचना, निकलता है। रस ग्रंथियां पत्रकोण में उपपान के स्थान गन्धनाकुली, सर्पकंकालिका, सुनन्दा और विषदंष्ट्रिका पर । पुष्प सफेद प्रायः बनफसई आभावाले, (गुलाबी); ३ ये नाकुली के पर्याय हैं।
इंच चौड़े, विभाजित बुरे जैसी रचना में अनियमित । पुष्प (कैयदेव नि० ओषधिवर्ग श्लोक ७७५, ७७६ पृ०१४३) सलाका २ से ५ इंच लम्बी, अनक शाखा युक्त। पुष्पवृन्त अन्य भाषाओं में नाम
छोटा, रवड़ा लाल । पुष्पपत्र पुष्पवृन्त के नीचे तीन कोण हि०-नकुलकंद, नाकुलीकंद, नाई, हरकाई । वाला नोकदार, लगभगआधा इंच लंबा। पुष्पबाह्यकोष चन्द्रा, रास्नाभेद, छोटाचांद | उड़ीसा, बिहार-धनवरुआ चिकना, तेजस्वी लाल, आकुंचित सिरा युक्त १५ इंच धवलवरुआ, सनोचाडो। बं०-नाकली, गन्धरास्ना, लम्बा मोकदार। पुष्पाभ्यन्तरकोष लगभग आधा इंच चन्द्र। म०-करकई, अडई, चद्र। ग०-सर्पगन्धा, लम्बा, कोमलनलिकायुक्तनलिका लगभग पोण से एक अमेलपौदी। आसामी-अरचोन चीता। कन्नड़-गरुड इंच लम्बी, बीच में कुछ फूली हुई। तस्तरी कप आकार पतुला, शिवनाभि। मलय०-चुवन्न एबिल, पोशी। की, पुंकेसर ५, नलिका के भीतर । परागकोष छोटे। ता०-चिबान, अम्पेलपोदी, सौवन्ना, मिलबोरी। बीजाशय खण्ड २ मुक्त या जुड़े हुए, डोडी १-१ कभी ते०-पातालगंधी । बनारस-धनमखा । दरभंगा-पुलक। दो विभाग युक्त, पहले हरी पकने पर बैंगनी, काली, पाव राज०-सर्पगंधा | पश्चिमीघाट-अड़कई । ओ०-पाताल से आधा इंच व्यास की (बडे मटर जितनी बड़ी) होती गरुड। ग्वालियर-नया। फा०-छोटा, चांदा। ले०- है। Rauwolfia serpentina Benth (ौवोल्फिया सर्पेन्टाइना)। फूलने का समय लम्बा है। अप्रैल से नवम्बर तक
उत्पत्ति स्थान-हिमालय की चार हजार फीट की फूल निकलते रहते हैं। मई के उत्तरार्द्ध में फल बनना ऊंचाई तक सर्पगंधा का क्षप मिलता है। पंजाब में यह शुरू हो जाता है। जुलाई से नवम्बर तक फल पकते हैं। हिमालय की तलहटी में शतजल से लेकर यमुना तक एक समय में कुछ पकते हैं और बाकी कच्चे रह जाते गरम और नरम स्थानों में पाया जाता है। उत्तर प्रदेश हैं। में देहरादून से लेकर गोरखपुर तक ठंडे और छायादार अन्य जातियां-(१) रावुल्फिया केनेस्सन्स (२) स्थानों में, पटना, भागलपुर और विलासपुर में, आसाम रावुल्फिया माइक्रेन्था (३) रावुल्फिया डैन्सीफ्लोरा (४) में कामरूप, नौगांव, उत्तरी कछार, गोलपाड़ा, खासी । रावुल्फिया पेरा कैंसिस् । अब तक इनके अलावा १६ तथा जयंती के पार्वत्य अंचल में, गारो पहाड़ों में, मद्रास जातियां उपलब्ध हुई हैं। इस प्रकार २४ प्रकार की में, पश्चिम घाट के प्रायः सारे जिलों में और आंध्र राज्य सर्पगन्धा की खोज हो चुकी है। में, बंबई में कोंकण, दक्षिण महाराष्ट्र और कन्नड के नमी
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०२८६,२८७) वाले जंगलों में पाया जाता है।
सर्पगन्धा-कुटजादि कुल का सर्पगन्धा का बहुवर्षीयक्षुप सीधा, छोटी खड़ी झाड़ीदार, पानों के गुच्छसह छह से अठारह इंच तक ऊंचा होता है।
फुलिया कहीं-कहीं दो से तीन फुट तक ऊंचा देखने में आता फुसिया (स्पी)
लज्जावंती प०१/४०/५ है। इसका काण्ड स्वाश्रयी होता है। छाल निष्तेजक, विमर्श-फुस शब्द की छाया स्पर्श बनती है। कभी छोटे-छोटे दागयुक्त, पान तीन-चार के गुच्छों में फुसिया शब्द की छाया स्पर्शिका, स्पृशी, स्पर्शा या स्पृशा अण्डाकार या लम्बगोल, ३ से ७ इंच लम्बे, १ से बन सकती है। फुसिया शब्द प्रस्तुत प्रकरण में वल्लीवर्ग २.५ इंच चोड़े, बीच में चौड़े, ऊपर संकड़े, नोंकदार, के अन्तर्गत है। स्पर्श के स्थान पर स्पर्शालज्जा शब्द चिकने, ऊपर तेजस्वी हरे, नीचे हलके हरे। पत्रवन्त । मिलता है, जो कि लता का वाचक है इसलिए यहां लगभग आधा इंच लम्बा । पान तोडने पर दूध जैसा रस स्पर्शलज्जा अर्थ संगत लगता है।
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जैन आगम वनस्पति कोश
स्पर्शलज्जा के पर्यायवाची नाम
रक्तपादी शमीपत्रा, स्पृक्का खदिरपत्रिका | सङ्कोचनी समङ्गा च, नमस्कारी प्रसारिणी । ।१०३ ।। लज्जालुः सप्तपर्णी स्यात्, खदिरी गण्डमालिका लज्जा च लज्जिका चैव, स्पर्शलज्जाऽस्ररोधनी । ।१०४ ।। रक्तमूला ताम्रमूला, स्वगुप्ताऽञ्जलिकारिका नाम्ना विंशति रित्युक्ता, लज्जायास्तु भिषग्वरैः । ।१०५ ।। रक्तपादी, शमीपत्रा, स्पृक्का, रवदिरपत्रिका, संकोचनी, समङ्गा नमस्कारी, प्रसारिणी, लज्जालु, सप्तपर्णी, खदिरी, गण्डमालिका, लज्जा, लज्जिका, स्पर्श लज्जा, अस्ररोधिनी, रक्तमूला, ताम्रमूला, स्वगुप्ता तथा अञ्जलिकारिका ये सब लज्जालु के बीस नाम हैं। (राज० नि०५/१०३ से १०५ पृ०१२४)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - लज्जावती, छुईमई, लजारू, लाजवती, लजउनी । बं० - लज्जावती लाजक । म० - लाजालू, लाजरी | गु० - रीसामणी । ता० - तोद्वाच्चुरंगी । ते० - मुणुगु दामरगु । ले० - Mimosa pudica linn (माइमोसा प्युडिका लिन०)। Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)। (भाव. नि. पृ.४५७)
उत्पत्ति स्थान - यह भारतवर्ष के समस्त उष्ण प्रदेशों में न्यूनाधिक परिमाण में नैसर्गिक रूप में उत्पन्न होती है। यह विशेष कर काली और पानी से तर रहने वाली चिकनी मिट्टी की जगहों में मिलती है। इसके सूक्ष्म बीजों से सर्वत्र लग भी जाती है।
हाथ उठा लिया जावे तो वह फिर अपनी असली दशा में आ जाती है। इसी वास्ते इसको लजालू, लज्जालु, छुईमुई कहते हैं । इस वनस्पति की खास यही परीक्षा
है ।
विवरण - यह गुडूच्यादि वर्ग और शिम्बीकुल एवं बब्बूलादि (कीकर) जाति की वनस्पति है। इसके छोटे-छोटे क्षुप लता के समान वर्षाकाल में होते हैं। यह दो प्रकार की होती है। एक पर मनुष्य की छाया पड़ने से और दूसरी मनुष्य का हाथ लगते ही मुरझा जाती
। जड़ लाल वर्ण की होती है, अतः रक्तपादी नाम है। स्पर्श करने से झुक जाती है अतः नमस्कारी कहा गया है। अक्सर ऊपर तक उसके डंठल का रंग लाल होता
है, मजीठ की तरह अतएव समङ्गा भी कहा गया है।
बउल
परीक्षा- यह बूटी पुरुष के हाथ लगने से मुरझाने
लगती है और पकड़ने से मुरझा जाती है। फिर इससे बउल ( बकुल) मौलसिरी
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यह चारों ओर फैलने वाला छोटा क्षुप है। ऊंचाई डेढ से तीन फीट। काण्ड और शाखायें नीचे झुकी हुई, कांटेदार और लम्बी, रोयें से आच्छादित, सारी लता तथा क्षुप की शाखायें पत्तों के किनारे ललाई लिये हुए होती हैं। मूल आधे से दो फुट तक गहराई में गया हुआ रक्ताभ सुगंधित, दृढतन्तुमय, त्वचा युक्त। पान स्पर्शसहिष्णु, २ से ४ इंच लम्बे, द्विपक्षाकार, ४ द्वितीयवृन्त युक्त । पत्रवृन्त १ से २ इंच लम्बा, रोयेंदार, विषमवर्ती आधार स्थान में स्थित । उपपान छोटा, रेखाकार, भालाकार, २ से ३ इंच लम्बा, लगभग वृन्तरहित । पत्रदल १२ से २० जोड़ी वृन्त रहित, चिमड़े (जो खिंचने या मोड़ने से नहीं टूटे) रेखाकार - लम्बे गोल, नोकदार, ऊपर चिकना नीचे रोयेंदार होते हैं। फूलगुलाबी लगभग आधा इंच चौड़ा, गोलाकार गुण्डी, इन पुष्पों में कतिपय नर और कुछ स्त्री पुष्प होते हैं। पुष्प बाह्यकोष घंटाकार और किंचित्, दांतेदार, अंतरकोष की पंखुड़ियां आधार स्थान की ओर संयुक्त (युग्म) अथवा निम्न तरफ तिहाई लगभग विभक्त गुलाबी (गुजरात और सौराष्ट्र और राजस्थान में पीली) । पुंकेसर ४ (सौराष्ट्र में १०) पुष्पदण्ड लगभग १ इंच लम्बा, कांटेदार शाखाओं पर पत्रकोण में से जोड़ रूप से निकले हुए । पुष्पपत्र एकाकी, रेखाकार, नोकदार । फली आधा से पौन इंच लम्बी, चिपटी, किंचित्, मुड़ी हुई । पुष्प फलकाल जुलाई से दिसम्बर तक। किसी-किसी स्थान पर वसन्त में भी फली मिलती है। प्रत्येक फली में ३ से ४ बीज होते हैं। वे बादामी रंग के और मूंग से कुछ छोटे होते हैं। स्वाद इसका तिक्त कषाय होता है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० १२४)
भ०२२ / २ प ०१ / ३५/१
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जैन आगम : वनस्पति कोश
बकुल के पर्यायवाची नाम
बकुलः सीधुगन्धश्च, मद्यगन्धो विशारदः।। मधुगन्धो गूढपुष्पः, शीर्षकेशरकस्तथा।।१४२।।
बकुल, सीधुगन्ध, मद्यगन्ध, विशारद, मधुगन्ध, गूढपुष्प, शीर्षकेशरक ये सब बकुल के पर्यायवाची नाम
(धन्व०नि०५/१४२ पृ०२६५) अन्य भाषाओं में नाम
पड़ते हैं तथा बारही मास हरेभरे रहते हैं। छाल धूसर एवं कुछ फटी हुई तथा काष्ठसार लाल रंग का होता है। पत्ते जामुन के पत्तों के समान ३.५ इंच लम्बे,१.७५ इंच चौड़े, नोकदार एवं किनारों पर लहरदार तथा पौन इंच दण्ड से युक्त होते हैं। फूल सफेद लगभग एक इंच गोल चक्राकार होते हैं और उनसे अत्यन्त सुगंधि आती है, जो इनके सूखने पर भी चिरकाल तक बनी रहती है। फल किंचित् लम्बाई लिये गोल पौन इंच से १ इंच लम्बे, ऊपर से साफ, कच्ची अवस्था में हरे रंग के और पकने पर पीले एवं कषाय मधुर हो जाते हैं, जिनमें एक बडा बीज रहता है। ग्रीष्म से शरद तक वह फूलता है तथा बाद में फलता है। (भाव०नि०पुष्पवर्ग०पृ०४६४,४६५)
ओवली। गु०-बोलसरी। क०-बकुल। ते०-पोगड। ताo-मगिलम | ले०-Mimusopselengi linn (मिम्युसोप्स एलेन्गी) Fam, Sapotaceae (सेपोटेसी)।
उत्पत्ति स्थान-शोभा तथा सुगंध के लिए यह सभी जगह बागों में लगाया हुआ पाया जाता है। दक्षिण तथा अंडमान में अधिक होता है।
बंधुजीवक बंधुजीवक (बन्धुजीवक) दुपहरिया
- भ०२२/५ प०१/३८/१
बकुल(मोलसरी) MIMUSOPS ELENGI, LINN.
पण
R
प
SOM
Hle
शाख
कली
MER
NOTA
IN पुष
BARA THAN
डोडा
पुष्प
विवरण-इसके वृक्ष ५० फीट तक ऊंचे सघन, चिकने पत्तों से युक्त, झोपड़ाकार और सुहावने दिखाई
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जसमूह
शारव
बन्धजीवक के पर्यायवाची नाम
बत्थुलगुम्म मध्याह्निके ज्वरघ्नश्च, सुपुष्पो बन्धुजीवकः।
बत्थुलगुम्म (वास्तुकगुल्म) बथुआ का गुल्म कोरण्टश्चाथ बंधूको, हरिप्रियः सुपुष्पकः ।।६८६ ।।
जीवा०३/५८०, जं०२/१० मध्याह्निक, ज्वरघ्न, सुपुष्प, बन्धुजीवक, कोरण्ट, बन्धूक, हरिप्रिय और सुपुष्पक ये मध्याह्निक के पर्याय हैं।
(सोढल०नि० 1 ६८६ पृ०७६) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-दुपहरिया, गोजुनियां । बं०-बान्धुलि, फुलेर गाछ । म०-दुपारी चे फूल । गु०-बेपोरियो ।क०-बंदुरे। ता०-नागपू। पं०-गुलदुपहरिया। तै०-नितिमल्ली, मकिनचेटु, बेगसिन चे? । ले०-Pentapetes phoeniceae linn (पेन्टापेटिस् फीनीसिया) Fam. Sterculiacea
समूह (स्टक्युलिएसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह उत्तर पश्चिम भारत, बंगाल तथा गुजरात में पाया जाता है। सभी भागों में बागों में लगाया भी जाता है। यह प्रायः जलाशयों में तथा चावल के खेतों में होता है।
विवरण-इसका क्षप२.से ५ फीट ऊंचा होता है। पत्ते ३ से ५ इंच लम्बे, प्रासवत तीक्ष्ण दन्तुर अथवा गोल अभ्यारावत् तथा केवल एक शिरावाले होते हैं | पुष्प लाल रंग के बड़े तथा दंड पर दो-दो एक साथ नीचे की तरफ
___ विवरण-शाकवर्ग एवं अपने वास्तुक कुल का यह लटके रहते हैं। दोपहर के समय खिलने से इसे गुल
एक प्रधान पत्रशाक है। इसके १ से ३ फुट ऊंचे क्षुप के दुपहरिया कहते हैं। फल कुछ लम्बा गोल, खुरदरा तथा
पत्र आकार में छोटे-बड़े त्रिकोणाकार नुकीले, कई पांच विभागों से युक्त, जिनमें प्रत्येक में ८ से १२ बीज ।
प्रकार के कटे हुए, स्थूल, स्निग्ध, हरितवर्ण के, ४ से रहते हैं। पुष्पकाल-जुलाई में बीज बोने से सितम्बर ६ इच लम्बे होते है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ०४२६६) अक्टुबर तक फूलता है। (भाव०नि०पुष्पवर्ग०पृ०५०६)
बदर बंधुजीवग बदर (बदर) बेर
प०१/३७/२ बंधुजीवग गुम्म (बन्धुजीवक गुल्म) दुपहरिया का बदर (कः) पुं० क्ली० । बृहत्कोलीवृक्षे, राजबदरे। गुल्म जीवा०३/५८० ज०२/१०
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ. ७२२)
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में बदर शब्द गुच्छ वर्ग के विमर्श-इसका क्षुप २ से ५ फीट ऊंचा होता है।
अन्तर्गत है। बेर के पुष्प गुच्छों में आते हैं इसलिए यहां बदर का बेर अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। बदर के पर्यायवाची नाम
फेनिलं, कुवलं घोण्टा सौवीरं बदरं महत्।।
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फेनिल, कुवल, घोण्टा और सौवीर ये बड़े बेर (राजबदर) के पर्याय हैं।
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग पृ०५७१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-बड़ा बेर, पेबंदी बेर, लम्बे बेर | म०-राजबोर, पेबंदी बोर, अमदाबादी बोर | ग०-खारेक बोर, अजमेरी बोर, काशी बोर | बं०-नारकूल। अंo-Jujuba fruit (जुजुबा फुट) Loto phagi (लोटो फागी)। ले०-Zizyphus Sativa (जिजायफस सेटिवा) Zizyphus Lotus (जिजायफस लोटस)।
चौड़े, पत्रोदर हरितवर्ण, पत्रपृष्ठ श्वेत या पांडु वर्ण का। पुष्प हरिताभ श्वेत, २ इंच व्यास के गुच्छों में । फल आधा से डेढ इंच व्यास के गोल, मांसल या शुष्क, पहले हरे फिर पीतवर्ण तथा पूर्ण पकने पर लाल होते हैं। इनमें गुठली कड़ी गोल होती है। पुष्प शीतऋतु से पूर्व तथा फल शीतकाल फाल्गुन, चैत्र मास में आते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ०१८५)
बाउच्चा बाउच्चा (बाकुची) वावची
प०१/३७/२ बाकुची के पर्यायवाची नाम
बाकुची सोमराजी तु, सोमवल्ली सुवल्ल्यपि।। अवल्गुजा कृष्णफला, सैव पूतिफला मता ।।१६५ ।। चन्द्रलेखेन्दुलेखा च, शशिलेखा मता च सा।। पूतिकर्णी कालमेषी, दुर्गन्धा कुष्ठनाशिनी।।१६६ ।।
बाकुची, सोमराजि, सोमवल्ली, सुवल्ली, अवल्गुजा, कृष्णफला, पूतिफला, चन्द्रलेखा, इन्दुलेखा, शशिलेखा, पूतिकर्णी, कालमेषी, दुर्गन्धा और कुष्ठनाशिनी से सब बाकुची के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०१/१६५,१६६ पृ०६४,६५)
A
OUR
W
NAGAR
MARY
CREAM
SI.
ANGRE
पत्र
उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष काश्मीर, पश्चिमोत्तर प्रदेश, ईराक, अफगानीस्थान तथा चीन में अधिक पैदा होते हैं।
विवरण-बदरकुल के इस मध्यम प्रमाण के कंटक युक्त २० फुट ऊंचे (बागी या बोए वृक्ष और भी अधिक ५० फुट तक ऊंचे) वृक्ष की शाखायें चारों ओर फैली हुई। छाल धूसर वर्ण की विदीर्ण या खुरदरी, बीच-बीच में कंटक युक्त; पत्र १ से १.२५ इंच के घेरे में गोल या लम्बगोल 3/४ से २.५ इंच लम्बे, ३/४ से २ इंच तक
FASE
बीज
शारव
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अन्य भाषाओं में नाम
बाण, बाणा (स्त्री) दासी, आर्तगल ये नील फूल हि०-बाकुची, बकुची, बाबची, सोमराजी। वाली कटसरैया के नाम हैं। (भाव०नि० पुष्पवर्ग०पृ०५०२) बं०-लताकस्तूरी, हाकुया। म०-बावची। गु०-बावची, अन्य भाषाओं में नामबाबची। क०-वाउचिगे। तेo-भवचि, कालाजिउजा। हि०-कटसरैया, पियावांसा। बं०-नील झांटी। ता०-कर्पोकरशि। फाo-बावकुचि। अंo-Psoralea म०-कालाकोरण्ट । ले०-Barleria Strigosa (बार्लेरिया Seed (सोरॅलिया सीड) Malayatea (मलाया टी)। स्ट्रिगोसा) Fam. Aconthaceae (ॲकेन्थेसी)। ले०-Psoraleacorylifolialinn (सोरेलिया कोरिलीफोलिया उत्पत्ति स्थान-कटसरैया सभी उष्ण प्रान्तों में पाइ लिन०) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)।
जाती है तथा बागों में भी लगाई जाती है। २००० फीट उत्पत्ति स्थान-प्रायः सब प्रान्तों के जंगली की ऊंचाई पर ये विशेष पाए जाते हैं। कटसरैया के क्षुप झाडियों में तथा खादर अथवा कंकरीली भमि में उत्पन्न उष्ण पर्वतीय प्रदेशों में अधिक होते हैं। पंजाब बम्बई होती है एवं सिलोन में भी प्राप्त होती है। अमेरीका में मद्रास, आसाम, लंकासिलहट आदि प्रान्तों में विशेष पाये भी इसकी कई उपजातियां होती हैं, जिनके गुण भी इसी जाते हैं। के समान हैं।
विवरण-इसका क्षुप झाड़दार, कांटेदार तथा २ विवरण-इसका क्षुप १ से ४ फीट तक ऊंचा, से ५ फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते १५ से ४ इच लम्बे, वर्षायु एवं स्वावलम्बी होता है। पत्ते १ से ३ इंच के घेरे कण्टकित अग्रयुक्त, अंडाकार, विपरीत तथा अखण्ड तट में छोटी अरणि के पत्तों के समान गोलाकार होते हैं। ये वाले होते हैं। पुष्प पीले तथा उनके दलाग्र भी कंटकित नालयुक्त, कड़े, चिकने, लहरदार, दन्तुर एवं इनके होते हैं। शीतऋतु में ये आते हैं। डोडी १ इंच लम्बी होती दोनों पृष्ठों पर काले धब्बे होते हैं। इन ग्रन्थियों के चिन्ह है, जिनमें दो चिपटे बीज पाये जाते हैं। शाखाओं पर भी होते हैं। १० से ३० छोटे, नीले बैंगनी
(भाव०नि० पुष्पवर्ग०पृ०५०३) रंग के पुष्प १ से २ इंच लम्बे, पुष्पदण्ड पर आते हैं। पुष्पभेद से यह (कटसरैया) पीला, नीला या बैंगनी, फली छोटी, गोल, काली, चिकनी, एक बीज युक्त, श्वेत और लाल चार प्रकार का होता है। इनमें से पीली अस्फोटी एवं फलभित्ति बीज से चिपकी होती है। बीज फूलवाली कटसरैया प्रायः सर्वत्र प्राप्त होने से औषधि बाकुची वास्तव में फल ही है, जिसकी फलभित्ति प्रयोगों में इसीका विशेष उपयोग किया जाता है। शेष बीजावरण से चिपकी रहती है। यह अंडाकार, तीन प्रकार की कटसरैया भी प्रयत्न करने से प्राप्त हो
नाकार, कुछ चिपटे, चिकने अग्रकी तरफ नुकीलें, सकती है। नीली कटसरैया का क्षुप श्वेत और पीत काले रंग के एवं महीन गढ़ों से युक्त होते हैं तथा कटसरैया की अपेक्षा कुछ ऊंचा दिखाई देता है। शाखायें तालद्वारा बड़ा करके देखने पर नहाने के स्पंज की तरह बहुत सीधी, खुरदरी तथा गोल ग्रंथियों से युक्त होती दिखलाई देते हैं। इसको चबाने पर एक तीव्रगंध आती है। इसके नीले पुष्प बड़े सुहावने होते हैं। शीतकाल में है तथा इनका स्वाद कडा, तीता एवं दाहजनक होता ही विशेष फलता है। (भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग०पृ०१२४)
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०४८)
जासह
है।
बाण बाण (बाण) नीलपुष्पवाली कटसरैया
प०१/३८/१ बाण के पर्यायवाची नाम
नीले बाणा द्वयोरुक्तो. दासी चार्तगलश्च सः।।५२।।
बाणकुसुम बाणकुसम (बाणकुसुम) नील पुष्पवाली कटसरैया।
रा०२६ जीवा०३/२७६ बाणपुष्पः ।पुं। नीलझिण्ट्याम्
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०७३२)
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बिंदु
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में बाणकुसुम शब्द नील विवरण-यह वटादिवर्ग और महावृक्षादि कुल का रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ हैं। बाण नाम नीलपुष्प मध्यमकद का वृक्ष होता है। जो जंगल कांटेदार, वाली कटसरैया का है।
छोटी-बड़ी अनेक शाखायुक्त, सर्वदा हरा, १० से ३०
फीट ऊंचा वृक्ष । बहुधा प्रशाखा के अंत भाग में लम्बा, बाणगुम्म
तीक्ष्ण कांटा, मुख्य वृन्त पर प्रायः सामने दो पर्णदल
बब्बूलवत् क्षुद्र या विविध आकार के। पुष्प हरे सफेद, बाणगुम्म (बाणगुल्म) नीलपुष्पवाली कटसरैया
छोटे, सुगंधित। फल अण्डाकार लम्बगोल,चिकने, का क्षुप
तेजस्वी, अतिकठोर । लम्बाई लगभग २ से २.५ इंच।
जीवा०३/५८० फलकच्चा होने पर हरा और पकने पर पीला । पुष्पकाल विवरण-इसका क्षुप झाड़दार, कांटेदार तथा २ ग्रीष्म । फल पाक शरद ऋतु में। से ५ फीट तक ऊंचा होता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०४७६) (भाव०नि०. पुष्पवर्ग०पृ०५०३)
भाव प्रकाशकार ने इसे गुल्म माना है। इसका वृक्ष या गुल्म करीब २० फीट तक ऊंचा होता है।
(भाव०नि० वटादि वर्ग पृ०५३१) बिंदु (बिन्दुक) हिगोट
प०१/४०/५ बिन्दुक के पर्यायवाची नाम
बिभेलय इङ्गदो भल्लक स्तिक्तमज्जः स्यात् बिभेलय (बिभीतक) बहेडा पूतिकर्णिकः ।।८६४ ।।
प०१/३५/२ कण्टकीर्णोऽङ्गारवृक्षो, बिन्दुको व्यावहारिकः। विमर्श-प्रस्तत प्रकरण में बिभेलय शब्द एकास्थि तिक्तकः कण्टकिवृक्षः, कण्टकस्तापसद्रुमः ।।८६५।। वर्ग के अन्तर्गत है। बहेडा में एक ही गुठली होती है।
भल्लक, तिक्तमज्ज, पूतिकर्णिक, कण्टकीर्ण, बिभीतक के पर्यायवाची नामअंगारवृक्ष, बिन्दुक, व्यावहारिक, तिक्तक, कण्टकिवृक्ष,
विभीतकः कर्षफलो, वासन्तोऽक्षः कलिद्रुमः। कण्टक, तापसद्रुम ये इंगुद के पर्याय हैं।
सम्वर्तको भूतवासः, कल्किहार्यो बहेडकः ।।२१२ ।। . (कैयदेव नि०ओषधिवर्ग पृ०१६१)
विभीतक, कर्षफल, वासन्त, अक्ष, कलिद्रुम, अन्य भाषाओं में नाम
सम्वर्तक, भूतवास, कल्किहार्य और बहेडक ये सब हि०-हिगोट, इंगुजा, हिंगुआ। म०-हिंगणबेट, बिभीतक के पर्याय हैं। हिंगणो। बं०-इंगोट, हिंगोन, जीयासुता ।
(धन्व०नि०२/२१२ पृ०७८) राज०-हिंगोरिया, हिंगोरा। कच्छी-अंगारिया।
अन्य भाषाओं में नाम गु०-इंगोरीयो । ताo-नचुदन, नानफुनदा । ते०-गारि, हि०-बहेडा, फिनास, भैरा। बं०-बयडा, बेहेडा इंगदी। ओ०-इंगुदी, हाला। मला०-नचुट। बोहरा । म०-बेहेडा, धाटिंगवृक्ष | गल-बेहेडा । क०-तोर। कना-इंगलरे, इंगलुके। अ०-हिलेलजे। अंo-Delil
-हिलेलज । अ०-Delil तै०-बल्लां, तडिचेटु । ता०-तनिताण्डि, तोअण्डि। (डे लिल)। ले०-Balanites Roxburghii Planch
फा०-बलेले । अ०-बलेलज़ | अंo-Beleric Myrobal(बेलेनाईटीस राक्सबरघारई)
ans (बेलेरिक मैरोबेलन्स) Beddanut (बेड्डानट)। उत्पत्ति स्थान-यह भारत के शुष्क भागों में
ले०-Terminalia belerica Roxb (टर्मिनेलिया बेलेरिका) दक्षिण-पूर्व पंजाब एवं दिल्ली से सिक्किम, बंगाल, मध्य
Fam. Combretaceae (कॉम्ब्रिटेंसी)। भारत, बम्बई तथा दक्षिण में होता है।
उत्पत्ति स्थान-हमारे देश के प्रायः सब प्रान्तों में
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इसका वृक्ष देखने में आता है, विशेष कर नीची पहाड़ियों में इसके पुराने पत्ते गिर जाते हैं और नवीन पत्ते आते पर अधिक पाया जाता है। यह जंगल, पहाड़ तथा ऊंची रहते हैं, प्रायः उसी समय फूल भी आते हैं। शीतकाल भूमि में उत्पन्न होता है।
के प्रारंभ में उस पर फल लग जाते हैं और अगहन पूस तक पक जाते हैं । वृक्ष से बबूल के गोंद के समान एक प्रकार का गोंद निकलता है। वर्षा के प्रारंभ में छिलके रहित गुठलियों को भूमि पर फेंक देने से ही वे अंकुरित हो पौधे के रूप में परिणत होती हैं।
(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ०६,१०)
HTTA
बिल्ल बिल्ल (बिल्व) बेल। भ०२२/३ प०१/३६/१
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में बिल्ल शब्द बहुबीजक वर्ग के अंतर्गत आया है। बेल में अनेक बीज होते हैं। बिल्व के पर्यायवाची नाम
बिल्वः शलाटुः शाण्डिल्यो हृद्यगन्धो महाफलः । शैलूषः श्रीफलाश्चाह्वः, कर्कट: पूतिमारुतः ।।१०६ लक्ष्मीफलो गन्धगर्भः, सत्यकर्मा वरारुहः ।। वातसारोऽरिभेदश्च, कण्टको ह्यसिताननः/१०७।।
बिल्व, शलाटु, शाण्डिल्य, हृद्यगन्ध, महाफल, शैलूष, श्रीफल, कर्कट, पूतिमारुत, लक्ष्मीफल, गन्धगर्भ, सत्यकर्मा वरारुह, वातसार, अरिभेद, कण्टक और
असितानन ये बिल्व के पर्याय हैं। विवरण-वृक्ष बहुत विशाल हुआ करता है। ऊंचाई
(धन्व०नि०१/१०६, १०७ पृ०४७) ६० से १०० फीट तक होती है। स्तंभ मोटा, सीधा, खड़ा, अन्य भाषाओं में नामगोलाकार होता है। छाल आधा इंच तक मोटी, कालापन हि०-बेल, श्रीफल । बं०-बेल। म०-बेल । युक्त, या नीलापन युक्त खाकी रंग की होती है। लकड़ी गु०-बीली। क०-बेलपत्रे। तेo-मारेडु, बिल्वपंडु। हलकी खाकी या किंचित् पीलापन युक्त होती है। शाखायें ता०-बिल्वम, बिल्वपझम। मा०-बील, बोलो। प्रायः ६ से १० फीट लम्बी होती है किन्तु कभी-कभी २० मल०-कुवलप, पंझम। सिन्ध०-बिल, कटोरी। फीट लम्बी शाखायें भी देखने में आती है। पत्ते महुवे के उड़ी-बेलो । अ०-सफर जले हिन्दी। फा०-बेहहिन्दी, पत्तों के समान ३ से - इंच लम्बे तथा २ से ३ इंच चौड़े बल्ल, शुल्ल । अंo-Bengal Quince (बेंगाल क्विन्स) होते हैं। ये विषमवर्ती प्रायः छोटी-छोटी टहनियों के अंत - Bael fruit (बेलफुट)। ले०-Aegle marmelos corr (इगल में सघन रहते हैं। प्रायः पतझड़ में इसके सब पत्ते गिर मार्मेलोस् कॉर) Fam, Rutaceae (रूटसी)। जाते हैं और चैत तक नवीन पत्ते निकल आते हैं। फल उत्पत्ति स्थान-यह आसाम, ब्रह्मा, बंगाल, बिहार, ३ से ६ इंच तक, लम्बी सीकों पर नन्हें फूलों की मंजरियां युक्त प्रांत, अवध, झेलम, मध्य और दक्षिण हिन्दुस्तान आती हैं। ये मैले खाकी या फीके हरे रंग के होते हैं। तथा सीलोन में प्रायः सभी स्थानों में जंगली और बागी फल एक इंच लम्बा, गोल और अंडाकार होता है। पतझड दोनों प्रकार से उत्पन्न होता है।
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AEGLE MARMELOS CORR.
से युक्त एवं चिकने तथा रंगहीन गोंद से लिपटे रहते हैं। फलों में नंद सुगंध आती है तथा इसका स्वाद गोंद की तरह होता है। बेल के दो तरह के फल होते हैं । लगाये हुए फल बड़े सुस्वादु एवं कम बीज वाले होते हैं। जंगली फल छोटे कुछ मादक एवं इसके बीज अधिक गोंद से लिपटे होते हैं।
(भाव०नि०गुडूच्यादिवर्ग०पृ०२७४,२७५)
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बिल्ली बिल्ली (बिल्वी) हिंगुपत्री, डिकामाली।
प०१/३७/२ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में यह गुच्छवर्ग के अन्तर्गत है। इसके डिकामाली वृक्ष से बिल्ली के मूत्र के समान गंध आती है इसलिए इसे बिल्ली कहना युक्तियुक्त है। बिल्वी के पर्यायवाची नाम
पृथ्वीका हिडपत्री च, कवरी दीर्घिका पृथुः । तन्वी च दारुपत्री च, बिल्वी वाष्पी नवाह्वया ।।७० ।।
पृथ्वीका हिंगुपत्री, कवरी, दीर्घिका, पृथु, तन्वी, विवरण-इसका वृक्ष मध्यमाकार का ५० फूट से दारुपत्री, बिल्वी तथा वाष्पी ये सब हिंगुपत्री के नव नाम भी ऊंचा होता है। शाखाओं पर सीधे, मोटे, तीक्ष्ण एक हैं।
(राज०नि०६/७० पृ०१४८) इंच तक लम्बे कांटे होते हैं। टहनियों पर पत्ते विषमवर्ती अन्य भाषाओं में नामरहते हैं। प्रत्येक सींक पर तीन-तीन पत्रकों से युक्त पत्ते
हि०-नाडीहिंगु, नारीहींग, कलपती हींग, रहते हैं। पत्रक कसौंदी के पत्तों के आकार वाले एवं डिकामाली, डिकेमाली, कमरी। बं०-हिंगुविशेष । म०अंडाकार भालाकार होते हैं। बीचवाला पत्ता अन्य दो से डिकेमाली। गु०-डीकामारी। काठीयावाड-मालण, कुछ बड़ा होता है। फालान चैत्र में पुराने पत्ते गिर जाते मालडी। क०-डिक्कामल्लि। ता०-कुवै । हैं और चैत्र वैशाख में क्रम से नवीन पत्ते निकल आते ते०-गेरिविक्कि, करिगा, तेल्लामंगा। अ०-कनखाम । हैं। इसी समय में हरियाली लिए सफेद रंग के ४-५ अं०-Gummy gardena (गम्मी गार्डेनीया) Cambiresin पंखुड़ियों वाले एवं करीब १ इंच चौड़े फूल लगते हैं और (कॅम्बीरेसिन)। ले०-Gardeniagummiferalinn (गार्डेनिया उनमें मधु के समान मंद गंध निकलती है। फल गोलाकार गम्मीफेरा) Fam. Rubiaceae (रुबिएसी)। ३ से ८ इंच व्यास के हरिताभ रंग के, पकने पर पीताभ उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष अधिकतया दक्षिण भरे रंग के एवं चिकने होते हैं। बहिर्भित्ति से बाह्य कठोर भारत में पाये जाते हैं। काष्ठमय छिलका बनता है। जो करीब ३ मि.मी. मोटा विवरण-इसका वृक्ष छोटा तथा झाड़दार होता है। रक्ताभ, रंग का एवं अंदर से रेशेदार होता है। मध्यभित्ति पत्ते बिनाल ४.५ से ७x२ से २.५ से.मी. बड़े, दीर्घवृत्ताभ, एवं अन्तर्भित्ति से गदा बनता है, जो आवरण से चिपका आयाताकार, स्वरूप में कुछ अमरुद के पत्तों के समान हुआ तथा हलके रक्ताभ नारंगी रंग का होता है। बीज तथा चिकने, चमकीले होते हैं। फूल सुगंधहीन, प्रारंभ बहुत १० से १५ समूहों में विनौले के सदृश, सफेद रोमों में श्वेत किन्तु बाद में पीतवर्ण के. १ से ३ साथ-साथ
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रहते हैं। फल २.५ से ३.८ से.मी. आयताकार या अर्थ चिल्ली शाक हो सकता है। पाठान्तर में चिल्ला शब्द दीर्घवृत्ताभ, चिकना, लम्बाई में धारीदार एवं नोकदार है जो चिल्लीशाक का वाचक है। इसलिए यहां चिल्ला होता है।
शब्द ग्रहण कर रहे हैं।
चिल्ला (चिल्ली) चिल्लीशाक बडाबथुआ चिल्ली-स्त्री०। लोध, चिल्लीशाक
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ०६३)
इन पौधों की कोमल शाखाओं के बीच तथा कलियों में से जाड़े के दिनों में हरियाली लिए हुए किंचित् पीले रंग का गोंद निकलता है। उसी को डीकामाली कहते हैं। इसकी छाल से गोंद नहीं निकलता। शुद्धडीकामाली में बिलार के मूत्र जैसी गंध आती है तथा वह कुछ आर्द्र एवं चमकीला रहता है और उसके चूर्ण बनाने में कठिनाई होती है।
(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग०पृ०५५) ___ वसंतऋतु में इस वृक्ष से बिल्ली के मूत्र के समान दर्गन्ध आती है। (धन्च० वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०२८०)
बिल्ली बिल्ली (
)
भ०.२०।२० प०१/४४/१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण (प्रज्ञापना १/४४/१) में बिल्ली शब्द हरितवर्ग के अन्तर्गत है। बिल्लीशाक का वाचक नहीं है। बिल्ली की छाया चिल्ली करें तो उसका
चिल्लीशाक के पर्यायवाची नाम
चिल्लिकाकृति रक्ताभं, यवशाकं महददलम्। प्रायशो यव मध्येऽथ, चिल्ली स्याद् गौरवास्तुकः ।।६२६ ।।
पतंग के आकार का बड़े पत्तों वाला एवं रक्ताभ शाक, जौ के खेतों में होता है, वह यवशाक तथा जो श्वेतवर्ण का होता है वह चिल्लीशाक कहलाता है।
(कैयदेवनि० ओषधिवर्ग०पृ०११४) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-बथुआ, चिल्लीशाक । म०-चाकवत, चिविल । गु०-टांको, चीला, बथवो । बं०-बेतोशाक । अंOWhite goose foot (ह्वाइट गूज फूट)। ले०-Chenopodium Album (चेनोपोडियम एल्बम) Chenopodium olidum
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(चेनोपोडियम ओलिडम)।
विमर्श-बीजशब्द के चार अर्थ ऊपर दिए गए हैं। उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः समस्त भारत वर्ष में तथा प्रस्तुत प्रकरण में बीज शब्द के साथ गुल्म शब्द है। हिमालय प्रदेश में, ४.५ फुट की ऊंचाई तक खेतों में इसलिए यहां पुष्करमूल अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। बहुलता से बिना बोए पैदा होता है।
बीज के पर्यायवाची नाम_ विवरण-हरे पत्तों वाले सर्वत्र पाये जाने वाले मूलं पुष्करमूलं च, पुष्करं पद्मपत्रकम्। बथुआ के अतिरिक्त इसकी बड़ी जाति के पत्र बड़े होते पद्म पुष्करजं बीजं, पौष्करं पुष्कराह्वयम् ।।१५२ ।। हैं। जो कुछ पुष्ट होने पर लाल रंग के हो जाते हैं। इसे काश्मीरं ब्रह्मतीर्थं च, श्वासारिर्मूल पुष्करम् ।। निघंटु में गौडवास्तुक नाम दिया गया है। यह लाल पत्र ज्ञेयं पश्चदशाह च, पुष्कराये जटाशिफे।।१५३ ।। वाली बड़ी जाति शाक-सब्जी के उद्यानों में आलू के खेतों मूल, पुष्करमूल, पुष्कर, पद्मपत्रक, पद्म, में कहीं-कहीं देखी जाती है। इसके पौधे बगीचों में ५-५ पुष्करज, बीज, पौष्कर, पुष्कराह्व, काश्मीर, बह्मतीर्थ, फुट तक ऊंचे होते हैं। यह बंगाल और बिहार के मध्य श्वासारि, मूलपुष्कर, पुष्करजटा तथा पुष्करशिफा ये सब भाग में बहुत पैदा होता है। बड़ी जाति में पारे की मात्रा पुष्कर मूल के पन्द्रह नाम हैं। अपेक्षाकृत अधिक होती है।
(राज०नि० ६/१५२.१५३ पृ०१६५,१६६) (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ०-४२६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पोहकरमूल । बं०-कुष्ठविशेष, पुष्कर मूल । म०-पुष्कर मूल । गु०-पोहकरमूल । कल-पुष्कपमूल।
so-Oris root (ओरिसरूट) (पुष्करमूल पुष्करे प्रसिद्धम् । बीयगकुसुम
पातालपद्मिनीति काश्मीरदेशप्रसिद्ध कन्दविशेष)। बीयगकुसुम (बीजककुसुम) पीले पुष्पवाली ते०-पुष्करदेशं लोमसिद्ध मैन औषधिविशेषम् । कटसरैया। जीवा०३/२८१ गौ०-पुष्करमूल)।
(राज०नि०पृ०१६६) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में बीयग कुसुम पीले रंग काश्मीर-पातालपद्मिनी। अ०-सोसनइरसा। की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। बीजक के ३ अर्थ फाo-बेखइ वनफ्शा । लेo-Iris germanicalinn (आइरिस् होते हैं-प्रियाल, मातुलङ्ग और श्वेतशिग्रु। प्रियाल और जरमॅनिका०लिन) Fam, Iridaceae (आइरिडेंसी)। श्वेतशिग्रु के कुसुम श्वेत रंग के होते हैं। शांतिचंद्रगणि उत्पत्ति स्थान-यह इरान तथा काश्मीर में उत्पन्न विरचित जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति की वृत्ति में बीयग का अर्थ होता है तथा काश्मीर में इसकी उपज भी की जाती है। मिलता है
विवरण-इसका छोटा पौधा होता है। पत्ते अनेक, "कोरंटवर मल्लदामेति वा बीयग०।
चौड़े तथा तलवार के आकार के होते हैं । पुष्प लम्बे दण्ड कुरण्टक पीले पुष्पवाली कटसरैया को कहते हैं। पर आते हैं। मूल कठोर, पीताभश्वेत, ५ से १० से.मी. लम्बे यह अर्थ उक्त उपमा के लिए उपयुक्त है।
तथा २ से ३ से.मी. चौड़े टुकड़ों में चिपटे, वार्षिक वृद्धि
के कारण उत्पन्न सान्तर, संकोचयुक्त, सुगन्धयुक्त एवं बीयगुम्म
स्वाद में तिक्त रहते हैं। ३ साल पुराने पौधे की जड़
निकालकर छीलकर हलकी धूप में ५ से ६ दिन सुखाते बीयगुम्म (बीजगुल्म) पुष्करमूल।
हैं फिर ३ वर्ष तक बंद करके रखते हैं तथा इसमें गंध जीवा०३/५८० ज०२/१०
आती है। ताजी अवस्था में यह गंध हीन एवं स्वाद में बीजम् ।क्ली०। अङ्गुरे, बीजसारे, पद्मबीजे।
कुछ कटु रहता है। मूल का उपयोग चिकित्सा में किया पुष्करमूले।
जाता है। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६६०)
(भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग०पृ०६५)
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बीयय
सफेद सपक्ष त्रिकोणाकार तथा लगभग १ इंच लम्बे बीज
होते हैं। बीजों को सफेद मरिच भी कहते हैं। इससे गोंद बीयय (बीजक) श्वेत सहिजन
भी निकलता है, जो पहले दुधिया रहता है किन्तु बाद प०१/३८/१
में वायु का संपर्क होने पर ऊपर से गुलाबी या लाल हो बीजकः ।पुं। प्रियालवृक्षे, मातुलुङ्गवृक्षे, श्वेतशिग्रौ।
जाता है। इसकी कच्ची सेमों का साग और अचार बनाते _ विद्यक शब्द सिन्धु पृ०६६०) है। इसकी छाल के रेशों से कागज, चटाई डोरी आदि विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में बीजक शब्द गल्मवर्ग के ।
बनाते हैं। जानवार-विशेष कर ऊंट इसकी टहनियों को अन्तर्गत है। ऊपर बीजक के ३ अर्थ दिए गए हैं। उनमें खाते हैं। श्वेतशिग्र अर्थ ग्रहण कर रहे हैं, क्योंकि प्रियाल और
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग०पृ०३४०) मातुलुङ्ग के वृक्ष बड़े होते हैं। श्वेतसहिजन के अर्थ में बीजक शब्द वैद्यकनिघंटु में मिलता है। वह उपलब्ध न होने से बीजक के पर्यायवाची नहीं दे रहे हैं। अन्य भाषाओं में नाम
बीयय कुसुम हि०-सहिजना, सहिजन, सहजन, सहजना, बीयय कुसुम (बीजक कुसुम) पीले पुष्पवाली सैजन, मनगा। बं०-सजिना। म०-शेवगा, शेगटा। कटसरैया
रा०२८ मा०-सहिजनो, सहिंजणो। क०-नुग्गे। ते०-मुनगी देखें बीयग कुसुम शब्द । गु०-से कटो, सरगवो ता०-मोरुहै. मुरिणकै । पं०-सोहजना । मलाo-मुरिण्णा । ब्राह्मी-डोडलों बिन । यूल-सिनोह। फा०-सर्वकोही। अंo-llorse Radish Tree (हार्स रेडिश ट्री) Drum Stick tree (ड्रम स्टिक ट्री)।
बीयरुह ले०-Moringapterygospermagaerin (मोरिङ्गा टेरीगोस्पर्मा
बीयरुह (बीजरुह) शालि षाष्टिक, मूंग आदि गेट) Fam. Moringaceae (मोरिंगेसी)। ।
भ०२३/१ प०१/४८/३ उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के निचले प्रदेशों में
शाल्यादयो बीजरुहाः चेनाव से लेकर अवध तक जंगली रूप में तथा भारत
(हेम० अभिधान चितामणी श्लोक० । १२०१) के प्रायः सभी प्रान्तों में एवं वर्मा में लगाया जाता है।
बीजरुहः ।पुं। शालिधान्यादौ । विवरण-इसका वृक्ष साधारण वृक्षों के समान
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०६६१) छोटा, २० से २५ फीट ऊंचा होता है। छाल चिकनी, मोटी, कार्कयुक्त भूरे रंग की एंव लम्बाई में फटी हुई
और लकड़ी कमजोरी होती है। पत्ते संयुक्त प्रायः त्रिपक्षवत् तथा १ से ३ फीट, क्वचिद् ५ फीट तक लम्बे
बोंडइ होते हैं। पत्रक अंडाकार, लट्वाकार, विपरीत एवं करीब
बोंडई (
) बोंदरी १/२ से ३/४ इंच लम्बे होते हैं। कार्तिक महीने से वसंत
प०१/३७/१ ऋतु के आरंभ तक फूलों के गुच्छे टहनियों के अंत में
विमर्श-बोंडई शब्द संस्कृत भाषा का नहीं है दिखाई पड़ते हैं। पुष्प श्वेतवर्ण के तथा मधु की तरह गंध इसलिए निघंटुओं में इसके पर्यायवाची नाम नहीं मिलते। वाले होते हैं । फलियां गोल, त्रिकोणाकार, अंगुलिप्रमाण मध्यप्रदेश के देहाती लोग बोंदरी नाम से पकारते हैं। मोटी, ६ से २० इंच लम्बी, बीजों के बीच-बीच में पतली
उत्पत्ति स्थान-मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में एवं बड़ी-बड़ी खड़ी ६ रेखाओं से युक्त होती है। उनमें
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बोर
यह बूटी होती है। अक्षय तृतीया के बाद धूप की तेजी के अनेक शीतल पहाड़ों पर बोया जाता है। भारतवर्ष में बढ जाने पर खेतों में पैदा होती है।
विशेषतः काश्मीर, कुमाऊं, गढ़वाल, महाबलेश्वर, विवरण-पौधा जमीन से लगा हुवा छछलता रहता कांगड़ा, पंजाब, नीलगिरि आदि स्थानों के पहाड़ों में है। पत्ते खुरदरे रेखादार, कटे किनारी के होते हैं। यहां इसके वृक्ष लगाये जाते हैं। अब यह सिन्ध, मध्यभारत के देहाती लोग बोंदरी कहते हैं। यह स्वाद में कडुआ, और दक्षिण तक फैल गया है। काश्मीर और उत्तर पश्चिम कसैला एवं अतिशीतल है। इसका रस लू लगने पर हिमालय में यह कहीं-कहीं ६००० फीट की ऊंचाई पर पिलाया जाता है।
जंगली भी देखा जाता है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ०२३५) विवरण-यह फलवर्ग और सेवादि कुल, का एक
सुप्रसिद्ध सुगन्धित और स्वादिष्ट फल है। जिसकी बहुत सी किस्में हैं। इसका पतनशील पातयुक्त छोटा वृक्ष ३० फीट तक ऊंचा होता है। सब नूतन अंग सफेद पतले
रेशम जैसे होते हैं। पात अण्डाकार, ऊपर नोकदार, २ बोर (बदर) सेव
भ०२२/३ से ३ इंच लम्बे, दांतेदार तथा पात के अंत का हिस्सा बदर:-सेवफले कश्चिद् राजनिघंटुः।
सफेद और रोएंदार होता है । वृन्त सामान्य पात से आधा (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०७२३) लम्बा। पुष्प लाल छीटें सहित, सफेद या गलाबी, १से विमर्श-प्रज्ञापना सूत्र १/३६/१,२,३ में जितने २ इंच चौड़े प्रायः गुच्छों में । पुष्प वृन्त १ से १.५ इंच लम्बा शब्द आए हैं वे सब शब्द भगवती सूत्र (२२/३) में हैं। रोएंदार । पुष्पबाह्यकोष नलिका घण्टाकार। पंखुड़ियां केवल बोर शब्द अधिक है। प्रज्ञापना सूत्र १/३६ के शब्द नख युक्त। फल चिकना, गोलाकार, दोनों सिरे बहुबीजक वर्ग के अन्तर्गत है। इससे लगता है बोर शब्द पुष्पबाह्यकोष नलिका के खण्ड से दृढ़ लगा हुआ, २ से भी बहुबीजक है। सामान्यतया बोर शब्द से बदर यानि ३ इंच व्यास का, छोटे वृन्त सह। फल कच्चा होने पर बेर का अर्थ ग्रहण होता है। बेर में बहुबीज नहीं होते हरा, पकने पर हल्का पीला और कुछ भाग लाल । कच्चा इसलिए यहां सेव अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। फल तुरस याने खट्टापन युक्त फीका होता है। पकने पर बदर के पर्यायवाची नाम
इसका स्वाद मीठा और विशेष स्वादिष्ट हो जाता है। मष्टिप्रमाणं बदरं, सेवं सिञ्चतिकाफलं। काश्मीर का सेव बहुत मधुर होता है और काबुल का खट्टा मुष्टिप्रमाण, बदर, सेव, सिञ्चतिकाफल
होता है। ये सेवफल के नाम हैं।
नैसर्गिक उत्पन्न फल बहुत खट्टे, कषैले और (शालि०नि०फलवर्ग०पू०४३२) छोटे होते हैं, वे कच्चे नहीं खाए जाते। उनका उपयोग अन्य भाषाओं में नाम
मुरब्बे में अच्छा होता है। जो अभी खाया जाता है उसकी सं०-महाबदर । हि०-सेव सफरजंग । बं0-सेब। उत्पत्ति अति श्रम से हुई है। जंगल की अनेक अच्छी क०-सूत। सिं०-सूफ। शिमला-पालो, सरहिन्द। अच्छी जातियों को एक दूसरे के साथ कलम कर अनेक अफगानिस्तान-शेव। उ०-सेव। म०-मोठे बोर वर्षों तक बोने पर सेवफल स्वाद बनता है। पाइनी ने सफरचंद | गु०-शेव सफरजन। अ०-तुफाह । फा०-सेव लिखा है कि जंगल की २२ जातियों का शोध किया है। कतल । अ०-Apple (अॅपल) ले०-Pyrus malus (पाइरस उनमें से इस समय मिश्र उपजातियां लगभग २००० मेलस)।
संसार में बोयी जाती है। उत्पत्ति स्थान-मूल योरोप और एशिया के शीतल
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०३८५) पहाड़ी प्रदेश, जैसे-काश्मीर और काबुल । हाल में पृथ्वी
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___ भंगी भंगी (भंगा) भांग
भ०३/८ प०१/४८/५ भंगा के पर्यायवाची नाम
भङ्गा गआ मातुलानी, मादिनी विजया जया ।२३३।।
भङ्गा, गआ, मातुलानी, मादिनी, विजया, जया ये सब भांग के पर्यायवाची नाम हैं।
(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ०१४२) विमर्श-भंगा और गंजा दोनों भांग के पर्यायवाची नाम हैं फिर भी गुणधर्म की दृष्टि से दोनों में कुछ भेद
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-भांग, भंग, बूटी। बं०-सिद्धि । म०-भांग। पं०-भांग। मा०-भांग गु०-भांग। ते०-गंजायि। ब्रह्मी०-बिन । मा०-बूटी। क०-भंगी। ता०-कंजा। फा०-कनब, बंग। अ०-हशीश, बर्षालख्याल ।
में उत्पन्न होता है तथा पंजाब से पूर्व की ओर बंगाल एवं बिहार तक तथा दक्षिण की ओर परती भूमि में बहुतायत से प्राप्त होता है। उत्तरप्रदेश के अल्मोड़ा, गढ़वाल तथा नैनीताल जिलों में इसकी उपज की जाती है। ट्रावनकोर तथा काश्मीर में भी अल्पमात्रा में इसकी उपज की जाती है।
विवरण-इसका क्षुप सीधा ३ से ८ फीट एवं कभी कभी १६ फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते नीचे की समवर्ती और विषमवर्ती दोनों प्रकार के करतलाकार तथा आधार कटे हुए होते हैं। ऊपर वाले पत्ते १ से ५ भागों में विभक्त
और नीचे वाले ५ से ११ खंड में कटे हुए तथा ३ से ८ इंच के घेरे में रेखाकार, भालाकार दिखाई पड़ते हैं। इनके खंड तीक्ष्ण दन्तुर, लम्बाग्रयुक्त, आधार की तरफ संकुचित तथा इनका ऊर्ध्वपृष्ठ गहरे हरे रंग का खुरदरा एवं अधोपृष्ठ हलके रंग का मृदुरोमश होता है। फूल हलके पीत-हरित रंग के अद्विलिंगी एवं गच्छेदार होते हैं। फल बहुत छोटे, कुछ दबे हुए बीज के समान चर्मलफल स्थायी परिपुष्प से आवृत एवं एक-एक बीजों से युक्त होते हैं।
भांग के क्षुप स्त्री जाति और पुरुष जाति इन भेदों से दो प्रकार के होते हैं। स्त्री जाति का कुछ अधिक ऊंचा तथा उसमें पत्र बहुतायत से तथा गहरे वर्ण के होते हैं। इसका क्षुप पुरुषजाति के क्षुप की अपेक्षा ५.६ सप्ताह अधिक समय में परिपुष्ट होता है।
भांग उपज किए हए या अपने आप उत्पन्न इस क्षुप के एवं पुरुष जाति के सूखे हुए पत्तों को कहते हैं। इसमें पुरुष जाति के पुष्प भी होते हैं। पुरुष जाति के पुष्प, पत्रों की उपेक्षा अधिक मादक नहीं होते जैसा कि स्त्री जाति स्त्री के पुष्प होते हैं। जून एवं जुलाई के महीने में अधिक ऊंचाई पर होने वाले क्षुपों का एवं मई और जून में मैदानी प्रान्तों वाले क्षुपों का संग्रह किया जाता है। उन्हें काटकर ओस तथा धूप में बार-बार रखकर सुखाते हैं तथा सूखने पर दबाकर रखा जाता है।
(भाव०नि. हरीतक्यादि वर्ग०पृ०१४२,१४३)
Ene
Si
)
शाख
उत्पत्ति स्थान-इसका पौधा भारतवर्ष में हिमालय के निचले प्रदेशों में करीब-करीब अपने स्वाभाविक रूप
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भंडी भंडी (भण्डी) मंजीठ
प०१/३७/५ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में भंडी शब्द गुच्छवर्ग के अन्तर्गत है। भंडी के तीन अर्थ हैं-मजीठ, शिरीष और श्वेतत्रिवृत। मजीठ के फूल झुमकों में लगते हैं इसलिए यहां मजीठ अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। मजीठ के पर्यायवाची नाम
मञ्जिष्ठा कालमेषी च, समङ्गा विकसाऽरुणा। मझुका रक्तयष्टी च, भाण्डी योजनवल्ल्यपि।।१७।। क्षेत्रिणी विजया रक्ता, रक्ताङ्गी वस्त्रभूषण:
जिङ्गी भण्डी तथा काला, गण्डाली कालमेषिका ।/१८ //
मञ्जिष्ठा, कालमेषी, समङ्गा, विकसा, अरुणा, मंजुका, रक्तयष्टी, भाण्डी, योजनवल्ली, क्षेत्रिणी, विजया, रक्ता, रक्ताङ्गी, वस्त्रभूषण, जिङ्गी, भण्डी, काला, गण्डाली, कालमेषिका ये सब मञ्जिष्ठा के पर्यायवाची शब्द हैं। (धन्व०नि०१/१७.१८ पृ०२१) अन्य भाषाओं में नाम
पश्चिमोत्तर हिमालय से पूर्व की ओर तथा दक्षिण की ओर नीलगिरी, सीलोन और मलाका एवं नेपाल में ८ हजार फीट तक उत्पन्न होती है। यह लता जाति की वनौषधि बहुत विस्तार में दूर-दूर तक फैल जाती है। इसकी लम्बी जड़ भूमि के भीतर दूर तक घुस जाती है। डंठल कई गज लम्बा, गावदुम, खुरदरा, जड़ की ओर कठोर । छाल सफेदी मायल किन्तु भीतर का भाग लाल होता है । शाखा प्रशाखाओं करके सघन बेल निकटवर्ती वृक्षों पर चढ़कर फैलती है। पत्ते प्रत्येक गन्थि पर चार-चार के चक्रों में, जिसमें से दो बड़े होते हैं। ये १.५ से ४ इंच लम्बे, लट्वाकार-ताम्बूलाकार, नोकीले, खरस्पर्श युक्त या चिकने होते हैं। पत्रनाल २ से ४ इंच लम्बा होता है पुष्प नन्हें-नन्हें श्वेतवर्ण के गुच्छों में रहते हैं। फल काले चने के बराबर तथा दो बीजों से युक्त होते हैं। मूल लम्बे, लम्बगोल तथा ताजी अवस्था में लाल तथा सूखने पर कुछ काले हो जाते हैं। मूलका स्वाद प्रारंभ में मिठास लिये हुए लेकिन बाद में कुछ तीता और कुछ कडवा होता है
(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग०१०११०, १११)
मजीठTNE
भतिय भंतिय (भक्तिका) आरामशीतला भ०२१/१६ भक्तिका स्त्री आराम शीतलायाम् (वैद्यक निघंटु)
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७४०) आरामशीतला स्त्री। रामशालीति महाराष्ट्रख्याते सुगंधपत्रशाकविशेषे (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११५) आरामशीतला के पर्यायवाची नाम
आरामशीतला नन्दा, शीतला सा सुनन्दिनी। रामा चैव महानन्दा, गन्धाढ्यारामशीतला ।।१७१।।
आरामशीतला, नन्दा, शीतला, सुनंदिनी, रामा, महानन्दा, गंधाढया तथा रामशीतला ये सब आराम शीतला के नाम हैं। (राज०नि०१०/१७१ पृ०३३२) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-(पश्चिम देशों में) आरामशीतला। म०-रामशाली। क०-रामशाली।
उत्पत्ति स्थान-यह अत्यन्त शीतल स्थान हिमालय
हिO-मजीठ, मंजीठ। बं०-मञ्जिष्ठा। ते०मञ्जिष्ठतीठी, ताम्रवल्ली, मण्डास्टिक । ताo-मझिट्टी, मन्दित्ता। गु०-मजीठ। पं०-मीठ। मल०-पून्त । फा०-रोदक। अ०-फबहत, फब्बाह फौहल अवागीन। अ०-Madder root (मॅडररुट) Indian madder (इण्डियन मॅडर)। ले०-Rubia cordifolia linn (रूबिया कॉर्डिफोलिया, लिन०) Fam. Rubiaceae (रुबिएसी)।
उत्पत्ति स्थान-इस देश की पहाड़ी भूमि में
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में होती है। यह महाराष्ट्र देश में होने वाला एक प्रकार का सुगंधित पत्रशाक है। वर्वर्यादि गण में इसका पाठ है। इसके विषय में प० भागीरथ स्वामी लिखते हैं- इसके गुणों के अनुसार लेखानुसार यह सुगंधित पत्रदार वस्तु है । दमनक को आदि लेकर आरामशीतला तक सुगंधित पत्र के नाम से काम आने वाली औषधियों का वर्णन जैसे पत्र जिनके काम आते हैं वह दमनक, बंद दमनक, तुलसी, श्यामतुलसी, साधारण तुलसी, मरुवक, अर्जक, कृष्णार्जक, सितार्जक, गंगापत्री, पाची, बालक, बर्बर, सुरपर्ण व आरामशीतला इनकी पत्रों में गणना है। अतः निश्चित बात यह है कि बद्रिकाश्रम में होने वाली यह तुलसी है। यह यदि सुगंध के लिए लगाई जावे तो उत्तम है । बद्रिकाश्रम में बद्रीनारायण जी के ऊपर इसकी पत्ती व मालायें चढती हैं। यदि यह आराम (बगीचा) में लगाई जाने के कारण इसका नाम आरामशीतला हो गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं । द्वितीयनाम आनंदा है, सूंघने में आनंद देने वाली है। इसी प्रकार सुनन्दिनी नाम है। यह परम प्रिय होने से रामा या श्वेत तुलसी के समान होने से रामा कही जाती है। हिमालय, नेपाल आदि सर्वत्र इसका देवकार्य में बहुत उपयोग होता है ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ०३६१ )
....
भत्तिय
भत्तिय (भूतीक) चिरायता
प०१/४२/१
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में भत्तिय शब्द तृण वर्ग के अंतर्गत है । भूतीक शब्द का अर्थ चिरायता है जो तृण वर्ग में है इसलिए इसकी छाया भूतीक करके चिरायता अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
भूतीक के पर्यायवाची नाम
किराततिक्त, भूनिम्ब, रामसेन, काण्डतिक्त, भूतीक, अनार्यतिक्त ।
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - चिरायता, चिरेता, चिरैता । गु० - करियातुं । म० - किराइत । प० - चरैता । बं० - चिराता । मा०चिरायतो सि० - चिराइतो अं० - Chireta (चिरैटा) । ले०Gentiana Chirayita ( जेन्सि आना चिराइटा ) Swertia
Chirata (स्वेर्टिया चिराता) । (निघंटु आदर्श उत्तरार्द्ध पृ०७०) उत्पत्ति स्थान - हिमालय पहाड़ के गरम प्रान्तों में काश्मीर से भूटान तक और खासिया के पहाड़ पर उत्पन्न होता है प्रायः पृथ्वी के सब देशों में १०८ प्रकार का चिरायता पाया जाता है। इनमें हमारे देश में ३७ प्रकार का होने का अनुभव किया गया है। जिस चिरायते को हम लोग व्यवहार में लाते हैं और जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है वह हिमालय पहाड़ के लगभग ४००० से १०००० (दस हजार) फीट ऊंची चोटियों पर तथा खसिया के पहाड़ पर ४ हजार से पांच हजार फीट की ऊंची चोटियों पर उत्पन्न होता है ।
390. Swertia Chirata Ham.
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विवरण- इसका वर्षायु क्षुप २ फीट से ५ फीट तक ऊंचा होता है। कांड नारंगी कालासा या जामुनी, मूल की तरफ गोल, मोटा, ऊपर बहुशाखायुक्त तथा चौपहल १ पत्र चौड़े भालाकार, ४ १.५ इंच, चिकने, नोकदार, ३ से ७ शिराओं से युक्त, विपरीत, दलपत्र हरितपीत परन्तु बैंगनी रंग की छाया भी हो सकती है । प्रत्येक विच्छेद पर दो-दो हरिताभ और रोमश ग्रंथियां होती हैं। फूलने पर इसमें डोंडी लगती है, जिनमें बहुत वारीक बीज निकलते हैं । पुष्पित होने पर सम्पूर्ण क्षुप को उखाड़ कर सुखाकर बेचते हैं। यह अत्यन्त कड़वा होता है। (भाव०नि० पृ० ७३)
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भद्दमुत्था भद्दमुत्था (भद्रमुस्ता) मोथा भ०२३/८ प०१/४८/६ भद्रमुस्ता के पर्यायवाची नाम
मुस्ता भद्रा वारिदाम्भोद मेघा, जीमूतोऽब्दो नीरदोऽधं घनश्च । गाङ्गेयं स्याद् भद्रमुस्ता वराही, गुआ ग्रन्थि भद्रकासी कसेरुः ।।१३८ ।। क्रोडेष्टा कुरुविन्दाख्या सुगंधि ग्रंन्थिला हिमा। वन्या राजकसेरुश्च, कच्छोत्था पश्चविंशतिः/१३६।।
मुस्ता, भद्रा, वारिदा, अम्भोद, मेघा, जीमूत, अब्द, नीरद, अभ्र, घन, गांगेय, भद्रमुस्ता, वराही, गुआ, ग्रन्थि, भद्रकासी, कसेरु, क्रोडेष्टा, कुरुविन्दाख्या, सुगंधि, ग्रन्थिला, हिमा, वन्या, राजकसेरु तथा कच्छोत्था ये सब मुस्ता के पच्चीस नाम हैं।
(राज०नि०७/१३८,१३६ पृ०१६३) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-मोथा | बं०--मुता, मुथा । मo-मोथा, भद्रमुष्टि, बिम्बल। गु०-मोथ। कo-कोरनारि। तेल-तुंगमुस्ते। ता०-किलंगु। फाo-मुष्केजमीं। अ०-सोअदंकूफी। अं0-Nut grass (नटग्रास)। ले०-Cyperus rotundus linn (साइपेरस् रोटन्डस् लिन०) Fam. Cyperaceae (साइपेरेंसी)।
कठोर कंद सदृश भौमिक काण्ड से निकलता है। नीचे सूत्राकार अन्तर्भूमिशायी कांड भी प्रायः होते हैं, जिनमें पौन से एक इंच के घेरे में अंडाकार कंद निकले रहते हैं, जो कसेरु के समान ऊपर से काले रंग के और भीतर से लालीयुक्त सफेद होते हैं और इनमें सुगंध आती है। डंडी पतली ६ से २४ इंच तक ऊंची, त्रिकोणाकार तथा पत्तों के बीच से निकली रहती है। पत्ते लम्बे और पतले होते हैं। डंडी के अग्र पर समस्थमूर्धजक्रम में पुष्पवाहक शाखायें निकलती हैं जो छोटे-छोटे अवृन्त काण्डज व्यूहों का संयुक्त व्यूह होती हैं। पुष्पव्यूह का आधार भाग तीन पत्रसदृश कोणपुष्पों से घिरा रहता है। इसके काले-काले कंदों का चिकित्सा में उपयोग किया जाता है।
(भाव०नि०कर्पूरादिवर्ग० पृ०२४३)
भद्दमोत्था भद्दमोत्था (भद्रमुस्ता) मोथा भ०७/६६ जीवा०१/७३
विमर्श-भगवती ७/६६ में यह शब्द कंदवर्ग के शब्दों के साथ है। मोथा कंद होता है।
देखें भद्दमुत्था शब्द।
भमास भमास ( ) धमासा ०२१/१८ प०१/४१/१
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में भमास शब्द पर्वकवर्ग के अन्तर्गत है। पर्व वनस्पतियों में भमासशब्द नहीं मिलता, धमास शब्द मिलता है। इसलिए यहां धमास शब्द ग्रहण कर रहे हैं। धमासा शब्द हिन्दी, मराठी गुजराती और मारवाड़ी भाषा का है। संस्कृत में धन्वयास आदि शब्द
हैं।
धमासा के संस्कृत नाम
धन्वयासो दुरालम्भा, ताम्रमूली च कच्छुरा।
दुरालभा च दुःस्पर्शा, यासो धन्वासकः२० ।। उत्पत्ति स्थान-मोथा इस देश के सब प्रान्तों में
धन्वयास, दुरालाम्भ ताम्रमूली, कच्छुरा, दुरालभा, बहलता से होता है। यह तृणजातीय वनस्पति बारह ही दस्पर्शा, यास और धन्वयासक ये धन्वयासक के मास पायी जाती है किन्तु बरसात में सर्वत्र देखने में आता पर्यायवाची नाम हैं। (धन्च०नि०१/२० पृ०२१.२२)
अन्य भाषाओं में नामविवरण-इसमें मूलीय पत्रगुच्छ होता है जो एक
हिo-धमासा, हिंगुआ, धमहर। बं०-दुरलभा ।
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मा०-धमासो। गु०-धमासो । म०-धमासा | प०-धमाह, उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष इस देश के विशेष कर धभाहा। फा०-बादाबर्द । अ०-शुकाई। ले०-Fagonia गरम प्रान्तों में एवं हिमालय के निचले भागों में ३५०० arabica linn (फेंगोनिया अरेबिका लिन०) Fam. फीट की ऊंचाई तक, सतलज से पूर्व की ओर आसाम Zygophyllaceae (झाइगोफाइलेसी)।
तक उत्पन्न होते हैं।
भिलावा उत्पत्ति स्थान-यह पंजाब, पश्चिम राजपताना। (राजस्थान) दक्षिण, पश्चिम खान देश, कच्छ, सिंध,
मान, वजीरिस्तान तथा पश्चिम में अफगानिस्तान तक पाया जाता है।
विवरण-इसका क्षुप फीके हरे रंग का अनेक शाखाओं वाला छोटा, फैला हुआ १ से ३ फीट ऊंचा तथा तीक्ष्ण कांटेदार होता है। पत्र विपरीत पत्रक १ से ३ इंच लम्बे, अखंड रेखाकार, दीर्घवृत्ताकार होते हैं। दो पत्र चार कांटे तथा एक पुष्प यह चक्राकार क्रम में एक साथ रहते हैं। पुष्प पत्रकोण में फीके गुलाबी रंग के फूल आते हैं। फल पांचखण्ड वाला तथा शीर्ष पर एक कांटा रहता है। घास के रंग के इसके टुकड़े बाजार में बिकते हैं। इसका स्वाद लुआवदार तथा जल में डालने पर ये चिपचिपे हो जाते हैं।
विवरण-इसका वृक्ष देखने में सुंदर २० से ४० भल्लाय
फीट तक ऊंचा होता है। छाल एक इंच मोटी धूसर रंग
की होती है। छाल पर चोट मारने से उसमें एक प्रकार भल्लाय (भल्लात) भिलावा भ०२२/२ प०१/३५/२
का दाहजनक भूरे रंग का गाढा रस निकलता है, जो भल्लात के पर्यायवाची नाम
वार्निश बनाने के काम में आता है। लकड़ी खाकी मिश्रित भल्लातकः स्मतोऽरुष्को, दहनस्तपनोऽग्निकः।। लालीयक्त सफेदी या भरे रंग की होती है। छोटी-छोटी अरुष्करो वीरतरु भल्लातोऽग्निमुखो धनुः ।।१२८ ।। शाखाओं के नीचे कछ तीक्ष्ण रोवें होते हैं। डालियों के
भल्लातक,अरुष्क, दहन, तपन,अग्निक, अरुष्कर, अंत में सघन पत्ते रहते हैं और वेह से २८ इंच तक लम्बे वीरतरु, भल्लात, अग्निमुख और धनु ये भल्लातक के तथा ५ से १४ इंच तक चौड़े, ऊपर से लट्वाकार पर्याय हैं।
(धन्व०नि०३/१२८ पृ०१७१)
आयताकार एवं सरल धार वाले होते हैं। माघ में पुराने अन्य भाषाओं में नाम
पत्ते गिर जाते हैं और फाल्गुन में नवीन पत्ते निकल आते हि०-भिलावा, भेला। बं०-भेला, भेलातुकी।
हैं | माघ, फाल्गुन में इसका वृक्ष फूलता है किन्तु इसके म०-बिब्बा । गु०-भिलामो । मा०-भिलामो । प-भिलावा,
सिवाय कई बार वृक्षों पर फूल देखने में आते हैं। भेला । क०-गेरकायि । ते०-जिडिचेटु. जीड़ीविटुलु। नन्हें-नन्हें फूलों की मंजरियां आती हैं। पुष्पदल हरापन ता०-शेनको? । मला०-चेर्मर । फा०-बलादुर, बिलादुर। यक्त सफेद या हरापनयुक्त पीले होते हैं। फल एक इंच अ०-हब्बुलकल्व हब्बुल्फहम । अं०-The markingnut
लम्बा तथा पौन इंच चौड़ा चिपटा सा, हृदयाकृति, tree (दी मार्किंग नट ट्री)। ले०-Semecarpus anacar चमकीले काले रंग का तथा चिकना होता है। कच्चे फलों dium linn (सेमेकार्पस् अॅनाकार्डियम् लिन०) Fam.
में दूध जैसा श्वेतवर्ण का रस होता है, जो पकने पर कुछ Anacardiaceae (अॅनाकार्डिएसी)।
गाढा एवं काले रंग का होता है। इस फल का आधा भाग
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मांसल तथा नारंगी वर्ण के स्तम्भक से बना होता है।
भिस जो खाने के काम आता है। फलत्वक में एक स्फोटकारक
_ भिस (विस) कमलकंद
प० १/४६ विषैला रस होता है, जिससे धोबी कपड़ों में निशान लगाने की स्याही बनाते हैं। फल के अंदर की मज्जा स्वादिष्ट
दद्यादालेपनं वैद्यो मृणालं च विसन्वितम् ।।७८ ।।
विस (कमल की जड़) तथा मृणाल (कमल दण्ड होती है तथा वह भी खाने के काम आती है। कुछ लोगों
व खस) को मिलाकर लेप देना चाहिए। में पुष्पित भल्लातक वृक्ष के पास सोने से या पुष्पपराग
(चरक संहिता चिकित्सा स्थान अध्याय २१/७८ पृ० ३२६) की हवा लगाने से शरीर पर सूजन आ जाती है।
धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १३८ में (भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग०पृ०१३६)
इसका अर्थ इस प्रकार है
विसर्प पर मृणाल (कमल नाल) और विस (कमल भल्ली
कंद) इन दोनों का लेप करें। यहां मृणाल से खस भी भल्ली (भल्ली) भिलावा
प० १/४०/३
लेते हैं। भल्ली के पर्यायवाची नामभल्लातके स्मृतोरुष्को, दमनस्तपनोग्निकः ।
भिसमुणाल अरुष्करो वीरतरु भल्ली चाग्निमुखो धनुः ।।४६० ।। भिसमृणाल (विसमृणाल) कमलनाल रंजकः स्फोट हेतुश्च, तथा शोफकरश्च सः।
रा० २६ जीव० ३/२८६ प० १/४६ स्नेहबीजो रक्तफलो, दुर्दो भेदनस्तथा।।४६।। विस के पर्यायवाची नामभल्लातक, अरुष्क, दमन, तपन, अग्निक, अरुष्कर
पद्मनालं मृणालं स्यात्, तथा विसमिति स्मृतम् ।।८ // वीररु, भल्ली, अग्निमुख, धनु, रंजक, स्फोटहेतु, मृणाल और विस ये दो नाम कमल नाल के हैं। शोफकर, स्नेहबीज, रक्तफल, दुर्दप, भेदन ये भिलावा अन्य भाषाओं में नामके संस्कृत नाम हैं। (सोढल १ श्लोक ४६०, ४६१ पृ०४८)
हि०-मुरार, भसींड। म०-भिसें। देखें भल्लाय शब्द।
विमर्श-प्रज्ञापन १/४६ में भिस और भिसमुणाल
ये दो शब्द हैं। दोनों ही कमलनाल के पर्यायवाची नाम भाणी
हैं। फिर भी वाग्भट के टीकाकर अरुणदत्त दोनों में सूक्ष्म भाणी (बाणी) नील कटसरैया
और स्थूल का भेद मानते हैं। दोनों शब्द एक साथ होने
प०१/४६ बाणी |स्त्री। निलझिण्ट्याम् । (वैद्यक निघंटु)
से मृणाल (कमलनाल) का अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७३२)
विवरण-वाग्भट के टीकाकार अरुणदत्त लिखते विमर्श-भाणी शब्द की छाया बाणी की है। क्योंकि
__ हैं-मृणालं द्विविधं सूक्ष्म स्थूलञ्च, तत्र सूक्ष्म, मृणालं भाणी शब्द वानस्पतिक अर्थ में अभी तक नहीं मिला है। इतरत् विसम्" अथात् सूक्ष्म आर स्थूलभद स मृणाल द हेमचंद्राचार्य प्राकृतव्याकरण (१/२३८) में भिसिणी की
प्रकार का है। सूक्ष्म को मृणाल व स्थूल को विस कहते छाया बिसिनी होती है। वहां भ को ब हुआ है। यहां भी
हैं। टीकाकार यहां विस को सूक्ष्म और मृणाल को स्थूल
पद्म लिखते हैं। और भी कई स्थानों में मतभेद देखा छाया में भ को ब किया गया है। संभव है भाणी शब्द अन्य वनस्पति का वाचक हो।
जाता है। वास्तव में कमल पुष्प की नाल को मृणाल तथा इसमें से निकलने वाले सूक्ष्म तन्तुओं को विस मानना युक्ति संगत लगता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १३८)
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मृणाल-फूल की नली जो ४ से ६ फुट तक लंबी अक्षोट के पर्यायवाची नामहोती है। उसे तोड़ने से अन्दर महीन सूत निकलते हैं। पीलुः शैलभवोऽक्षोट: कर्परालश्व कीर्तितः । इन मृणाल सूत्रों को शुष्क कर तथा बंटकर देवालयों में पीलु, शैलभव, अक्षोट, कर्पराल ये अखरोट के जलने को बत्तियां बनाई जाती हैं। प्राचीनकाल में इसके __संस्कृत नाम हैं। वस्त्र भी बनाये जाते थे। कहा जाता है कि इन मृणाल
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग० पृ० ५६१) वस्त्रों से ज्वर दूर हो जाता था।
अन्य भाषाओं में नाम(धन्व० वनौ० विशेषांक भाग २ पृ० १३८.) हि०-अखरोट, अक्षोट, पहाडीपीलु बं०-आखरोट ।
पं०-अखरोट । म०-अक्रोड। गु०-आखरोड। ते०भुयरुक्ख
अक्षोलमु। ता०-अक्रोटु। क०-आखोट। आसा०
कवसिंग। फा०-चारमग्ज जिर्दगां। अ०-जोज हिन्दी, भुयरुक्ख (भूतवृक्ष) अखरोट भ० २२/१५० १/४३/२
जोजेजूल हिन्द, जोज ।अफगा०-उप्पस् । अंo-Walnut भूतवृक्षः ।पुं। शाखोटवृक्षे । श्योणाक वृक्षे । अक्षोट
(वालनट)। ले०-Juglans regia Linn (जगलान्स रेजीया) वक्षे। श्लेषमान्तकवृक्षे। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७५२)
Fam. juglandaceae (जग्लैण्डेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के उष्ण भागों में ३ से १० हजार फीट तक एवं खासिया पर्वत तथा बलूचिस्तान में होता है। कश्मीर में इसकी बहुत उपज की जाती है।
विवरण-इसका वृक्ष ऊंचा होता है तथा छाल धूसर एवं लम्बाई में फटी होती है। शाखाओं पर मृदु रजावरण होता है। पत्ते असमपक्षवत्, एकान्तर तथा ६ से १५ इंच लंबे होते हैं। पत्रक संख्या में ५ से १३, दीर्घवृत्ताभ से लेकर आयताकार भालाकार ३ से ८ x १.५ से ४ इंच बड़े, न्यूनाधिक विनाल एवं प्रायः अखण्ड होते हैं। पुष्प छोटे पीताभ हरे एवं एकलिंगी होते हैं। फल कुछ लंबाई लिये कुछ गोल एवं २ इंच व्यास में एवं बाह्यस्तर हरा तथा चर्मवत् रहता है। इसके अन्दर अन्तस्तर कठोर काष्ठीय सिकुडनदार एवं दो कोष्ठ युक्त होता है। जिसमें ४ खंड वाला तैल से भरा हुआ, टेढ़ा, मेढ़ा, धूसर श्वेत रंग का बीज होता है। इन्हीं बीजों को लोग खाते हैं। इसकी छाल डण्डासा के नाम से बिकती है।
(भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग० पृ० ५६२)
ममता
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में भुयरुक्ख शब्द वलयवर्ग के अन्तर्गत है। अक्षोटवृक्ष की छाल रंगने और दवा के काम आती है। इसलिए ऊपर लिखित ४ अर्थों में अक्षोट वृक्ष का अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
भुस भुस (वुस) भुस, भुसा भ० २१/१६ प० १/४२/१ वुष (स)म् क्ली० । तुषे । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७३६)
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वुस के पर्यायवाची नाम
से कडङ्गरः वुस, कडङ्गर ये वुस के पर्यायवाची नाम हैं।
(सटीक निघुण्टुशेष श्लोक ४०१ पृ० २२०)
शब्द संस्कृत आदि किसी भी भाषा में अभी तक नहीं मिला है। केवल भेरीवृक्ष का वर्णन एक ग्रंथ में मिला है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि यह भेरुवृक्ष भेरीवृक्ष ही
भूयणय भूयणय (भूतृण) जम्बीरतृण प० १/४४/३
भूतृण के लेटिन नाम के संबंध में मतभेद है श्री यादवजी ने Cymbopogon jwarankusa (साइम्बोपोगोन् ज्वारांकुश) को भूतृण माना है। कृछ विद्वानों ने हरीचाय Cymbopogon Citratus (साइम्बोगोन् साइट्रेटस) को भूतृण माना है किन्तु इसे श्री यादव जी जम्बीरतण मानते हैं जिसका चरकसुश्रुत अध्याय २७ में हरितवर्ग में एवं सुश्रुत सूत्रस्थान अध्याय ४६ में शाक वर्ग में वर्णन आया
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-भेरी, बेरी, चिलारा, चिल्ला। बं०-बेरी, चिलारा । गु०-घोलोम, सुंझल । कु०-चिल्ला म०-करेई, लेनजा, मस्सी, मोदगी। उ०-गिरारी। ता०-कदिचाई। ते-चिलाक दुद्दी। ले०-Casearia Tomentosa (केसेरिया टोमेंटोसा)।
उत्पत्ति स्थान-यह वनस्पति प्रायः सारे भारतवर्ष में पैदा होती है।
विवरण-यह एक छोटी जाति का वृक्ष होता है। इसकी छाल मोटी, कुछ पीलापन लिए हुए सफेद और मुलायम होती है। इसके पत्ते कंगूरेदार और लंबगोल होते हैं। इसके फूल कुछ हरापन लिये हुए सफेद होते हैं। फल मांसल, अंडाकार, मुलायम, चमकते हुए और आधे इंच तक लंबे होते हैं। इसके फल का स्वाद कड़वा होता .
(वनौषधि चन्द्रोदय आठवां भाग पृ० ३)
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३८४) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में भूयणय शब्द हरितवर्ग में है। चरक में भी जम्बीर तृण हरितवर्ग में आया है इस दृष्टि से भूतृण का अर्थ जम्बीरतृण होना चाहिए।
जम्बीरः कफवातघ्नः, कृमिघ्नो मुक्तपाचनः ।।१६४।।
(चरक संहिता सूत्रस्थान अध्याय २७/१६४ हरितवर्ग पृ० ३३८)
पिप्पली मरिच शृङ्गवेरार्द्रकहिङ्गुजीरककुस्तुम्बरु जम्बीर सुमुख
(सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान अध्याय ४६/२२६ पृ० २००)
भेरुतालवण भेरुतालवण ( ) भेरी वृक्षों का वन
देखें भेरुताल शब्द।
जं 2/६
भूयणा भूयणा (भूतृण) जम्बीरतृण
देखें भूयणय शब्द।
भेरुवण भेरुयाल ( ) भेरी वृक्षों का वन जीवा०३/५८१
देखें भेरुताल शब्द।
भ०२१/२१
भेरुताल
मंडुक्कियसाय भेरुताल ( ) भेरी वृक्ष
मंडुक्कियसाय (मण्डुकीशाक) मण्डूकपर्णी शाक ज०२/६
उवा० १/२६ विमर्श-वृक्ष का नाम भेरू है। हिन्दी भाषा में ब्राह्मामदा संभवतः भेरी वृक्ष है। भेरु ताल शब्द आयुर्वेद के कोषों मण्डूकी।स्त्री। मण्डूकपर्ध्याम्। तथा निघंटुओं में नहीं मिलता। ताल अंत वाले कोई भी मण्डूकपर्णी स्त्री। स्वनामख्यातशाके।
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विद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७६७) विमर्श-सुश्रुत ने मण्डूकपर्णी को शाक माना है। मण्डूकपर्णी सप्तला सुनिषण्ण....
(सुश्रुत सूत्रस्थान अध्याय ४६/२६२ शाकवर्ग० पृ० २०२) मण्डूकपर्णी के पर्यायवाची नाम__ मण्डूकपर्णी माण्डूकी, त्वाष्ट्री दिव्या महौषधी।।
मण्डूकपर्णी, माण्डूकी, त्वाष्ट्री, दिव्या और महौषधि ये नाम मण्डूकपर्णी के हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ४६१)
लिन०) Fam. Umbelliterae (अम्बेली फेरी)।
उत्पत्ति स्थान यह भारत तथा लंका में आईस्थान पर ६००० फीट की ऊंचाई तक पाई जाती है। यह विदेशों में भी पाई जाती है।
विवरण-इसका क्षुप रूप में कुछ भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। काण्ड लंबे, प्रसरी एवं ग्रन्थियों पर मूलों से युक्त होते हैं। पत्ते गोल, वृक्काकार, अखण्ड परन्तु धार पर प्रायः गोल दन्तुर १.३ से ६.३ से.मी. व्यास में एवं लंबे वृन्त से युक्त होते हैं। पुष्प ग्रन्थियों से कई पुष्पदण्ड एक साथ निकलते हैं। जिनमें लाल रंग के पुष्प संख्या में ३ से ५ सवृन्त मूर्धज होते हैं। फल ८ मि.मी. लंबे तथा चिपटे होते हैं, जिनमें चिपटे बीज होते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ४६२)
मंडुक्की मंडुक्की (माण्डुकी) ब्राह्मी भ० २०/२० प० १/४४/२
विमर्श-मंडुक्की शब्द प्रज्ञापना १/४४/२ में हरित वर्ग के अन्तर्गत है। माण्डकी का शाक होता है। माण्डुकी |स्त्री। ब्राह्मी क्षुपे।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ८१२)
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-ब्रह्ममाण्डूकी, ब्राह्मीभेद। बं०-थोलकुरी जिमशाक । गु०-खड़ब्राह्मणी । क०-वंदेलग । ते०-मण्डूक ब्राह्मणी। ता०-बल्लौ। म०-कारिवणा। अंo-Indian Penny wort (इंडियन पेनीवट) ले०-Centella asiatica (Linn) vrban (सेन्टेला एशियाटिका (लिन०) अरबन) Hydrocotyle asiaticaLinn (हाइड्रोकोटाइल एशियाटिका,
अन्य भाषाओं में नाम
हिo-ब्राह्मी, जलनीम, ब्रह्मी। बं०-ब्राह्मी शाक. ऊधाबिनि। म०-ब्राह्मी। ते०-शम्बनीन्चेटु ता०नीरा ब्रह्मि। अंo-Bacopa (बॅकोपा)। ले०-Bacopa Monnieri (Linn) Pennell (बेकोपा मोनिएराह (लिन) पेन्नेल) Fam. Scrophulariaceae (स्क्रोफ्युलॅरिएसी)।
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उत्पत्ति स्थान-पानी के समीप आर्द्रस्थानों में यह उत्पत्ति स्थान-भारत के प्रायः सभी बगीचों में सर्वत्र पाई जाती है।
इसको लगाया जाता है या कृषि की जाती है। विवरण-इसका क्षुप प्रसरी एवं किंचित् मांसल विवरण-मोगरा पुष्पवर्ग और हारसिंगारादि कुल होता है। पत्ते अभिलट्वाकार आयताकार या सुवा के का क्षुप होता है, जो आगे चलकर बहुवर्षायु झाडी में आकार के अखण्ड, अवृन्त, कुण्ठिताग्र, सूक्ष्म काले चिन्हों परिणत हो जाता है। पत्ते बेरी के पत्तों से कुछ छोटे और से युक्त एवं ६ से २५ x २.५ से १० मि.मि. बड़े होते हैं। विशेष रेखावाले होते हैं। मोगरा के पुष्प अपनी खुशबू पुष्प जामुनी मिला हुआ श्वेत या गुलाबी रंग का होता है। के कारण सारे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। इसकी कई फली ५ मि.मि. लंबी, अंडाकार, चिकनी तथा नुकीली जातियां होती हैं। जैसे, बेलियामोगरा-जिसकी बेल होती है, जिसमें सूक्ष्म बीज होते हैं। इसका स्वाद कड़वा चलती है। वटमोगरा-जिसका फूल गोल होता है। सादा
के समीप होने से इसे जलनीम भी मोगरा-जिसका झाडीनुमा क्षुप होता है। इसके पत्ते गोल कहते हैं। (भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० ४६१) और चमकीले हरे होते हैं। इसके फूल अत्यन्त सुगंधित
और सफेद होते हैं। मोतिया के फूल अधिक गोल होते मगदंतिया मगदंतिया ( ) मालती, मोगरा प० १/३८/२
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ४६२) मगदंतिया (दे०) मालती का फूल
मगदंतिया गुम्म (पाइअसद्द महण्णव पृ० ६६६) विमर्श-पाइअसद्दमहण्णव में मगदंतिया देशीय मगदतिया गुम्म (मदयंतिका गुल्म) मल्लिका, एक शब्द है और उसका अर्थ मालती किया है। वनस्पति प्रकार का मोतिया, मोगरा। जीवा० ३/५८० ज २/१० शास्त्र में मालती के लिए एक संस्कृत शब्द है मदयन्ति
देखें मगदंतिया शब्द। वह शब्द इसके निकट है। द और ग का व्यत्यय हुआ
मज्जार मदयन्तिका-स्त्री, वनस्पति० मल्लिका।
मज्जार (मार्जार) चित्रक, लाल चित्रक वटमोगरा, कस्तूरमोगरा।
भ० २१/२० प० १/४४/१ (आयुर्वेदीयशब्द कोश पृ० १०३०) मदयन्तिका के पर्यायवाची नाम
मार्जारः ।पुं। रक्तचित्रकक्षुपे। मल्लिका मदयन्ती च, शीतभीरुश्च भूपदी।।३६ ।।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ८१७) मल्लिका, मदयन्ती, शीतभीरु, भूपदी ये सब मार्जार के पर्यायवाची नाममल्लिका के पर्यायवाची नाम हैं। (भाव०नि० पुष्पवर्ग० पृ० ४६७) कालो व्यालः कालमूलोतिदीप्यो अन्य भाषाओं में नाम
माजरोग्निदाहकः पावकश्च । हिo-मोगरा, मोतिया, वनमल्लिका । मo-मोगरा। चित्राङ्गोयं रक्तचित्रो महाङ्गः गु०-मोगरो। बं०-मोगरा, बेला, वनमल्लिका स्याद्रुद्राहश्चित्रकोन्यः गुणादयः। ता०-अनंगम्। ते०-मले। कर्णा०-वल्लिमल्लिगे। काल, व्याल, कालमूल, अतिदीप्य, मार्जार, अग्नि, उ१०-आजाद, रायबेल, सोसन। अ०-सोसन। दाहक, पावक, चित्राङ्ग, रक्तचित्र तथा महाङ्ग ये सब रक्त अं0-Arabian jasmine (अरबेयन जेसमिन) चित्रक के ग्यारह नाम हैं। ले०-Gasminum Sambac (जसमाइनम सेबेक)।
(राज०नि०व० ६/४६ पृ० १४३)
है।
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अन्य भाषाओं में नाम
हानिकारक होती है। (भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ० २३.२४) हिo-लालचीत, लालचीता, लालचित्रक, लाल चितउर | बं०-लालचिता, रक्तो चितो | म०-लालचित्रक
मणोज्ज क०-केम्पू. चित्रमूल । ते०-येर्राचित्रमूलम् । ता०-शिवप्पु मणोज्ज (मनोज) कामजा चित्रमूलम्। चित्तूरमोल, कोडिमूली। उ०-रत्तचिता,
भ० २२/५ जीवा० ३/५८० प० १/३८/१ एकतचिता । मला०-चेक्कीकोटुबेरी।अंo-RoseColoured Lead Wort (रोज कलर्ड लेडवोट)।
मनोजवृद्धिः ।पुं। कामवृद्धिक्षुपे।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७८३) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में मणोज्ज शब्द गुल्मवर्ग के अन्तर्गत है। मनोजवृद्धि शब्द क्षुप है। मनोजवृद्धि का संक्षिप्त रूप मनोज (मणोज्ज) है। इसलिए यहां मणोज्ज का अर्थ कामजा ग्रहण कर रहे हैं। यह कर्णाटक देश में प्रसिद्ध है। मनोजवृद्धि के पर्यायवाची नाम
स्यात् कामवृद्धिः स्मरवृद्धिसंज्ञो मनोजवृद्धि
मर्दनायुधश्च
कन्दर्पजीवश्च जितेन्द्रियाः कामोपजीवोपि च जीवसंज्ञः ।।१६६ ।।
कामवृद्धि, स्मरवृद्धि, मनोजवृद्धि, मदनायुध, कन्दर्पजीव, जितेन्द्रियाह्न, कामोपजीव तथा जीव ये कामवृद्धि के नाम हैं।
(राज०नि०४/१६६ पृ० १०२) (कामजा चण्डितेन्द्रिया कर्णाटक देशे प्रसिद्धा)
....
उत्पत्ति स्थान-यह सिक्किम और खासिया की तराइयों में पाया जाता है। इसको वाटिकाओं में भी लगाते
मणोज्जगुम्म हैं परन्तु थोड़ी असावधानी से नष्ट हो जाता है। मणोज्जगुम्म (मनोजगुल्म) कामजा क्षुप _ विवरण-इसका क्षुप २ से ४ फुट ऊंचा सदा हरा
जीवा० ३/५८० ज०२/१० भरा रहता है। गर्मी के दिनों में कुछ पुराने पत्ते गिर जाते देखें मणोज्ज शब्द। हैं। पत्ते विपरीत १.५ से ३.५ इंच तक लंबे, १ से १५ इंच चौड़े, अण्डाकार नोकदार, चिकने, कोमल और
मधु मोगरा के समान होते हैं। फूल लाल और सफेद चीते
भ० २३/१ के समान लसीले होते हैं। लाल चित्रक गुणों में सफेद मधु (मधु) जलमहुआ चित्रक की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली और तीव्र गुण । सम्पन्न है। पारे को बांधने वाला, लोहे को वेधने वाला जीवन्तीवृक्षे
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७७५) तथा कुष्ठ को नष्ट करने वाला है। इसकी थोड़ी मात्रा मधुवृक्ष के पर्यायवाची नामउत्तेजक तथा अधिकमात्रा तीव्र मदकारी विष के समान मधूकोऽन्यः मधूलःस्याज जलजो दीर्घपत्रकः ।४५६ ।।
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गौरशाखी नीरवृक्षों, मधुवृक्षो मधुस्रवः । वानप्रस्थो मधुष्ठीलो, हस्वपुष्पफलः स्मृतः ।।४५७ ।। जो महुआ जल में होता है उसे मधूलक, जलज, दीर्घपत्रक, गौरशाखी, नीरवृक्ष, मधुवृक्ष, मधुस्रव, वानप्रस्थ. मधुष्ठील, ह्रस्वपुष्पफल कहते हैं ।
(कैयदेव०नि० औषधिवर्ग श्लो० ४५६, ४५७ पृ० ८४) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - महुआ, जलमहुआ । बं० - मौल, मउल मौया, जलमउल । म० - मौहा चा वृक्ष, मोहवृक्ष, जलमोहा । गु० - महुडो, जलमहुडो । क० - महुइप्पे, जलम, तोरेइप्पे, यरडुइप्पे । ते० - इषा, पिन्ना । ता०कटइल्लुहिप | फा०-चकां । 310-Elloopatree ( इलूपाट्री) । ले० - Bassia Longifolia Linn (वेसिया लॉगी फोलिया) Fam. Sapotaceae (सॅपोटेसी) ।
शाख
/ बीज
उत्पत्ति स्थान - जलमहुआ नदी नालों के किनारे या आर्द्र जंगलों में उत्पन्न होता है। यह दक्षिण में अधिक होता है।
होते हैं। पर उनसे छोटे होते हैं।
पत्र
विवरण- इसके वृक्ष, पत्ते आदि महुवे के समान
डोड़ी
.....
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग० पृ० ५८०)
जैन आगम वनस्पति कोश
मधुररस
भ० २३/६
मधुररस (मधुररसा) मुलहठी विमर्श - शालिग्राम निघंटु में मुलहठी के संस्कृत के नाम श्लोक में हैं, शेष २० नाम अन्य निघंटुओं से संग्रहीत कोष्ठक में हैं, उनमें एक नाम मधुररसा है । मधुररसा का पर्यायवाची नाम
८
मधुयष्टी यष्टिमधू, र्यष्ट्याह्ना क्लीतका स्मृता मधुकं यष्टिमधुकं, यष्टिकामधु यष्टिका ।। मधुयष्टी, यष्टिमधू, यष्ट्याह्वा, क्लीतका, मधुक, यष्टिमधुक, यष्टिकामधु, यष्टिका (यष्टिमधु, यष्टिमधुका, यष्टीका, यष्टिमधुका, यष्ट्याह्न, यष्ट्याह्नक, क्लीतक, यष्टि, मधुस्रवा मधुयष्टिक, क्लीतन, क्लीतनीयक, मधुम, मधुवल्ली मधूली, मधुररसा, अतिरसा, मधुर नाम, शोषापहा, सौम्या) मधुयष्टि के ये २८ पर्यायवाची नाम हैं। इनमें एक नाम मधुररसा है। (शा०नि०पृ० १२८. १२६) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - मुलहटी, मीठीलकरी, मुलैठिका। बं०यष्टीमधु । म० - ज्येष्ठ मधु । गु० - जेठोमधनो मूल, जेठीमधनो शीरो क० - यष्टिमधु वल्लियष्टिमधु । ते०यष्टीमधुकम् | फा० - वेखमेहेकूमझु । अ० - असलुससूस मुंकरसरव्यूसूस । अं०- Lipuorice root ( लिकोरिस्ट) । ले०—Glycyrrhiza Glabra linn ( ग्लिस्ह्वाइझाग्लॅब्रा लिन०) Fam. Leguminasae (लेग्युमिनोसी)!
एलैठी
उत्पत्ति स्थान - उत्तर अफ्रीका, ग्रीस, सीरिया एसिया माइनर, परसिया, अफगानिस्तान, दक्षिणीरूस
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चीन, तुर्की में उगती है। यहां पंजाब, जंबू और काश्मीर
मरुया में खेती होती है।
मरुया (मरुवक, मरुत्तक) सफेद मरुआ मुलहठी-यह हरितक्यादि वर्ग और शिम्बीकुल का
भ० २१/२१ जीवा० ३/२८३ एक गुल्म बहुवर्षजीवी होता है। मुलेठी का क्षुप ५ से ६
देखें फणिज्जय शब्द। फीट ऊंचा होता है। इसका क्षुप देखने में कसौंदी के समान । इसकी जड़ लंबी, गोल एवं फैली हुई होती है। इसके पत्ते कसौंदी के पान से संकडे और संयुक्त
मल्लिया छोटे-छोटे गोल होते हैं। पत्रदंड के दोनों ओर सामान्तर मल्लिया (मल्लिका) बेला, मोतिया भाव से पत्रिका पक्षाकर ४ से ७ जोड़ें में और अग्रभाग
रा० ३० जीवा० ३/२८३ प० १/३८/२ में एकपत्र होता है। इसका फूल लाल रंग का होता है। मल्लिका के पर्यायवाची नामइसमें छोटी और वारीक फली लगती है। जिसमें २ से मल्लिका शीतभीरुश्च, मदयन्ती प्रमोदनी। ५ तक बीज होते हैं। चुक्रोईड्रग फार्म (जंबूकाश्मीर) में मदनीया गवाक्षी च, भूपद्यष्टपदी तथा।।१२३।। इसकी खेती होती है। ४ वर्ष बाद मूल को खोद लिया मल्लिका, शीतभीरु, मदयन्ती, प्रमोदनी, मदनीया, जाता है परन्तु मूल निकालने के बाद भी कुछ अंश जमीन गवाक्षी, भूपदी, अष्टपदी ये सब मल्लिका के पर्याय हें। में रह जाता है उसमें से नया क्षुप पैदा हो जाता है और
(धन्व०नि० ५/१२३ पृ० २५८) खेत को छा देता है। जड़ पीले रंग की और खुरदरी होती है। इसका स्वाद मीठा, कुछ चरपरा और कड़वा होता है। इसकी गंध अच्छी नहीं होती। इसके मार्च में फूल और अगस्त मास में फली आती है। मुलेठी की मुख्य दो जाति होती है। एक जलजाति देशों में पैदा होने वाली और दूसरी मरुदेश जाति की जमीन पर पैदा होने वाली।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ३६६)
मरुआ मरुआ (मरुवक, मरुत्तक) सफेद मरुआ रा० ३०
देखें फणिज्जय शब्द ।
TRG
MPSC) फल
मरुयग मरुयग (मरुत्तक) सफेद मरुआ प० १/४४/३ मरुत्तकः ।पुं। श्वेतमरुवकवृक्षे ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७६७) देखें फणिज्जय शब्द।
RAPA
पुचकाट अन्य भाषाओं में नाम
हि०-मोगरा, मोतिया, बेला। म०-मोगरा। गु०-डोलर, मोगरो। क०-मल्लिगे। ता०-अडुक्कुमल्लि । बं०-मोतिया । ले०-Jasaminum Sambac Ait (जस्मिनम्
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सम्बॅक) Fam. Oleaceae (ओलिएसी)।
Ervum Lens Linn (एवम् लेन्स) Fam. Leguminosae उत्पत्ति स्थान-यह भारत में सभी स्थानों पर बागों (लेग्युमिनोसी)। में लगाया मिलता है। अन्य उष्णप्रदेशों में भी यह होता
विवरण-इसका झाडीदार गुल्म होता है। नवीन शाखायें मृदुरोमश होती हैं। पत्ते पतले, विपरीत, ३.८ से ११.५ x २.२ से ६.३ सें.मी. विभिन्न आकार के प्रायः अंडाकार, चिकने तथा ४ से ६ जोड़ी बगल की स्पष्ट शिराओं से युक्त होते हैं। पत्रनाल ३ से ६ मि.मि. लंबा तथा रोमश होता है।
पुष्प अत्यन्त सुगंधित, श्वेत, एकाकी अथवा ३ एक साथ रहते हैं। बाह्यदल १.३ से.मी. लंबा, रोमश एवं ६ से १० मि.मि. ५ से ६ विभागों में रहता है। अन्तर्दल नलिका १ से ३ से.मी. तथा उसके खण्ड नलिका के बराबर होते हैं। स्त्रीकेशर परिपक्व होने पर ६ मि.मि. गोल, काला तथा बाह्यदल से घिरा रहता है।
___ (भाव०नि० पुष्पवर्ग पृ० ४६०)
लाMUNITY
मल्लिया गुम्म मल्लियागुम्म (मल्लिकागुल्म) बेला का गुल्म जीवा० ३/५८० ज २/१०
उत्पत्ति स्थान-यह समस्त भारत में शीतऋतु में देखें मल्लिया शब्द।
बोया जाता है।
विवरण-इसका क्षुप १ से २ फीट ऊंचा, सीधा, मसूर
झाडीदार एवं चने की तरह होता है। पत्ते संयुक्त पक्षवत्
एवं अग्र सूत्रसम होता है। पत्रक ४ से ६ जोड़े, अवृन्त, मसूर (मसूर) मसूर
भालाकार एवं छोटे होते हैं। पुष्प सफेद बैंगनी या गुलाबी ___ठा०५/२०६ भ०६/१३०; २१/१५ प० १/४५/१
विभिन्न प्रकार के भेदानुसार होते हैं। फली छोटी १/२ मसूर के पर्यायवाची नाम
इंच लंबी एवं २ बीज युक्त होती है। बीज गोल, किंचित् मसूराः मधुराः सूप्याः, पृथवः पित्तभेषजम् ।।८४// चिपटे तथा भरे रंग के होते हैं। दाल लाल रंग की होती
मसूर, मधुर सूप्य, पृथव, पित्तभेषज ये सब मसूर के पर्याय हैं। (धन्च० नि०६/८४ पृ० २६०)
(भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६४७) अन्य भाषाओं में नाम हिo-मसूर, मसूरक, मसूरी। ब०-मसुरि।
महाजाइ म०-मसुर । गु०-मसूर । क०-चणगि। ताo-मिसुर । ते०-मसूर, पप्पु । फा०-बुनोसुर्ख, नेवसुर्ख, विसुक, महाजाइ (महाजाति) वासंती पुष्प लता मरजूनक । अ०-अदस । अंo-Lentil (लेन्टिल)। ले०
भ० २२/५ प० १/३८/३
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महाजातिः । स्त्री. वासन्ती पुष्पलतायाम् (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० (७६६) विमर्श - प्रज्ञापना १/३८/३ में महाजइ शब्दगुल्मवर्ग के अन्तर्गत है । वासंती का गुल्म होता है। महाजाति के पर्यायवाची नाम
वासन्ती प्रहसन्ती वसन्तजा माधवी महाजातिः । । शीतसहा मधुबहला, वसन्तदूती च वसुनाम्नी ।। ८६ ।। वासन्ती, प्रहसन्ती, वसन्तजा, माधवी, महाजाति शीतसहा, मधुबहला तथा वसन्तदूती ये सब वासंती (नेवारी) के आठ नाम हैं। (राज० नि० १० / ५६ पृ० ३१५) अन्य भाषाओं में नाम
1
हि० - नेवारी, वासंती । बं० - नेपाली, नेयोचार गु० - वटमोगरा । क० - बिरवन्तिगे । म० - विरवन्ति । ले०–Exora Paruiflora (इक्सौरा पार्विफ्लोरा) ।
देखें वासंती शब्द |
......
महाजाइगुम्म
महाजाइगुम्म ( महाजातिगुल्म) वासंती पुष्पलता
का गुल्म
देखें महाजाइ शब्द |
जीवा० ३ / ५८० जं० २/१०
D...
महापोंडरीय
महापोंडरीय (महापुण्डरीक) श्वेतपद्म
जीवा ० ३ / २६१ ० १/४६
महापद्मम् क्ली० । श्वेतपद्मे, पुण्डरीके )
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७६८)
विमर्श - पुण्डरीक नाम कमल का है और पद्म नाम भी कमल का है । वानस्पतिककोशों में महापोंडरीय शब्द नहीं मिला है। महापद्म शब्द मिलता है इसलिए उसका अर्थबोध यहां दिया जा रहा है।
देखें पुण्डरीक शब्द |
महित्थ
प० १/३७/४
महित्थ ( दधित्थ) कैथ विमर्श - आयुर्वेद के निघंटु तथा कोषों में महित्थ या मधित्थ शब्द नहीं मिला है । दधित्थ शब्द मिलता है। केवल आदि का म शब्द का 'द' रूप में परिवर्तन हुआ हैं । पलिमंथगशब्द के आदि प का ह के रूप में परिवर्तन होकर संस्कृत का हरिमंथक शब्द बना है । भमास शब्द के आदि भ का ध के रूप में परिवर्तन हुआ है। वैसे ही यहां महित्थ शब्द के आदि म का द के रूप में परिवर्तन स्वीकार कर रहे हैं।
दधित्थः पुः । कपित्थवृक्षे |
देखें कविट्ठ शब्द |
महु (मधु ) जलमहुआ देखें मधु शब्द |
DOO
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ५२६)
महु
महुरतण महुरतण (मधुरतृण) मज्जरतृण
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अन्य भाषाओं में नाम
म० - पवना । क०
भ० २१/१६ प० १/४२/२
मधुरः । पुं । मज्जरतृणे । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७७८) विमर्श - महुर शब्दके साथ तण शब्द है जो तृण का वाचक है। कोष में मधुर शब्द मज्जरतृण का अर्थ बोध देता है इसलिए यहां मज्जरतृण का अर्थ ग्रहण किया
जा रहा
मधुर के पर्यायवाची नाम
मज्जरः पवनः प्रोक्तः, सुतृणः स्निग्धपत्रकः । मृदुग्रन्थिश्च मधुरो, धेनुदुग्धकरश्च सः ।।१३३ ।। मज्जर, पवन, सुतृण, स्निग्धपत्रक, मृदुग्रन्थि, मधुर और धेनुदुग्धकर ये मज्जर के पर्यायवाची नाम हैं। (राज०नि० ८ / १३३ पृ० २५८)
प० १/४८/३
-नुले । गौ० - माजुर तृण ।
(राज निघंटु ८ / १३३ पृ० २५८)
विवरण - यह एक जाति की घास होती है, जिसको
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पशु विशेष तौर से खाते हैं। मज्जरतृण मधुर और गायों बं०-मेषसिंगी। मंo-मेढाशिगी, कावकी। ता०का दूध बढ़ाने वाला है।
शिरुकुरंज। ते०-पोडापत्री। ले०-Gymnema Sylve (वनौषधि चन्द्रोदय आठवां भाग पृ० १३) stre R.Br. (जिमनेमा सिल्वेस्ट्रे) Fam. Asclepiadaceae
(एस्क्लेपिएडेसी)। महररस
उत्पत्ति स्थान-यह कोंकण त्रावणकोर, गोवा,
दक्षिण भारत में विशेषरूप से होती है। बिहार एवं उत्तर महुररस (मधुररसा) मुलहठी प० १/४८/४
प्रदेश में भी कहीं-कहीं मिलती है तथा बागों में लगाई देखें मधुररस शब्द ।
हुई पायी जाती है।
विवरण-इसकी लता चक्रारोही, पतले कांड की, महुसिंगी
काष्ठमय, रोमश तथा बहुत फैली हुई होती है। पत्ते महुसिंगी (मधुशृङ्गी) गुडमारभ० २३/१ प० १/४८/३ अभिभुख, अंडाकार आयताकार या लट्वाकार, कभी-कभी
निरुक्ति-शृङ्गी-शृणाति हिनस्ति रोगान्, हृद्वत् १ से २ इंच लंबे, कभी-कभी ३ इंच लंबे, नोकदार 'श्रुहिंसायाम्'। यह अनेक रोगों का नाश करती है अतः एवं मृदुरोमश होते हैं । पुष्प सूक्ष्म, पीले, समस्थ मूर्धजक्रम इसे शृंगी कहते हैं। (निघंटु आदर्श पूर्वार्द्ध पृ० ३२५) में निकले हुए एवं आभ्यन्तर कोश घण्टिकाकार-चक्राकार
विमर्श-मधुशंगी शब्द आयुर्वेदीय कोषों तथा होते हैं। फली २ से ३ इंच लंबी, .२ से ३ इंच मोटी निघंटओं में नहीं मिलता है। ऊपर लिखित निरुक्ति के कठोर, भालाकार क्रमशः नोकीली होती है। दो में से प्रायः आधार पर इसका अर्थ फलित होता है-मधुशृंगी याने एक फली का विकास नहीं होता। इसके सर्वांग में दूध मधु को नाश करने वाली (गुडमार)।
होता है। मूल १.२५ इंच मोटा तथा बाहर से मुलायम एवं उस पर बीच-बीच में सीधी, लंबाई में गढेदार नालियां होती हैं। मूल सूखने पर छाल पतली होकर आडे बल में फैल जाती है। इसका स्वाद साधारण कड़वा होता है। इसकी पत्तियों को चबाने से जीभ का स्वाद ग्रहणशक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे १ से २ घंटे तक मधुर तथा तिक्तरस का स्वाद मालूम नहीं पड़ता। इसी से इसे गुडमार या मधुनाशिनी कहते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ४४३, ४४४) पुष्पकाट
माउलिंग माउलिंग (मातुलुङ्ग) बिजौरा नींबु
भ० २२/३ प० १/३६/१ मातुलुङ्ग के पर्यायवाची नाम
बीजपूरो मातुलुङ्गो, रुचकः फलपूरकः ।।१३० । लता 17
बीजपूर, मातुलुङ्ग, रुचक तथा फलपूरक ये सब
बिजौरानींबु के संस्कृत नाम हैं। अन्य भाषाओं में नाम
(भाव०नि० आम्रादिफल वर्ग० पृ० ५६३) सं०-मधुनाशिनी। हि०-मेढासिंगी, गुडमार |
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अन्य भाषाओं में नाम
पक्षहीन या अल्प किनारेदार तथा छोटा होता है। फूल ___हि०-बिजोरानींबु, तुरंज। बं०-टाबालेबु, सफेद आते हैं। फल लंबाई युक्त गोल, ४ से ६ इंच व्यास छोलोंगनेबु, वेगपूर। म०-महालुङ्ग। गु०-बिजोरू। में और नोकदार-सा होता है। इसका छिलका मोटा, क०-मादळ । ता०-मादलम् । ते०-लुंगमु, मादिफलमु खुरदरा, उभारदार एवं पकने पर पीले रंग का होता है। फा०-तुरंज, तरंज। अ०-ऊत्तरंज, उतरज। इसकी गुद्दी हलकी पीली, अल्प, साधारण अम्ल या अंo-Citron (सिट्रोन) ले०-Citrus medica Linn मधुराभ किन्तु स्वादहीन होती है। (साइट्रस मेडिका), Fam. Rutaceae (रूटेसी)।
(भाव०नि० आम्रादिफल वर्ग पृ० ५६३)
CITRUS MERICA, LINN.
माउलिंगी माउलिंगी (मातुलिङ्गी) चकोतरा (प० १/३७/१) मातुलुङ्गी-स्त्री, मधुकर्कटी।
(आयुर्वेदीय शब्द कोश पृ० १०७६) मातुलुङ्गा |स्त्री। मधुकर्कटी। चकोतरा।
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० १३७)
ACCAM
CITRUS DE CUMANA LINN
फाल काट
शारत
alyan
10
UTHEO
REAM
पा
TRO
फलका
उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष छोटे, करीब 10 फीट ऊंचे होते हैं और वाटिकाओं में लगाये जाते हैं। चटगांव तथा सिताकुंड, खासिया एवं गारो पहाड़ों पर तथा कुमाऊं में सरजू के किनारे वह वन्य भी पाया जाता है।
विवरण-इसके वृक्ष छोटे, करीब १० फीट ऊंचे होते हैं । शाखाएं मोटी, छोटी, कंटीली एवं इतस्ततः फैली होती है। इसके पत्ते नींबु के पत्ते के आकार वाले परन्तु लंबाई चौड़ाई में उनसे बड़े होते हैं। इस प्रजाति में वृन्त प्रायः पक्षयुक्त हुआ करता है किन्तु इस जाति में यह
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मधुकर्कटी के पर्यायवाची नाम
प्रतिविषा (अरुणकंदा) होती है। विषा, घुणप्रिया, घुणा, बीजपूरोऽपरः प्रोक्तो, मधुरो मधुकर्कटी। माद्री, श्यामकंदा सिता, अरुणा, भगुरा, उपविषा.
दूसरी जाति का बिजौरा (चकोतरा नींबू) के विश्वा, शृङ्गी और उपविषाणिका ये अतिविषा के पर्याय हैं। संस्कृत नाम मधुर और मधुकर्कटी हैं)
(कैयदेव०नि० औषधिवर्ग०पृ० २०७) (भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग० पृ० ५६३) अन्य भाषाओं में नामअन्य भाषाओं में नाम
हि०-अतीस । म०-अतिविष | बं०-आतइत्र । गु०हिo-चकोतरा, महानिबू। बं०-चकोतरा, अतिवखनी कंली, वखमो, अतिवस, अतिविषा महानिबू। म०-पोपनस। गु०-ओबकोतल। ते०- ते०- अतिविषा। पं०-अतीस. सखी हरी. चितीजडी. पंपरंनासा। ता०-पंबालेमसु । क०-सकोतरे, सक्कोटा। पत्रिस, बोंगा। अंo-Indian Atees (इन्डियन अतीस)। अंo-Shaddock (शेडॉक) Pummelo (प्यूमेलो) ले०- लेo-AconitumHeterophyllum (एकोनिटम हेट्रोफिलम्) । Citrusdecumana Linn (साइटस् डेक्युमॅना) Fam. Rutaceae (रूट्रसी)।
उत्पत्ति स्थान-इसको बागों में लगाते हैं। विवरण-इसका वृक्ष छोटा, करीब १५ फीट ऊंचा
hengitím lophyllum wall होता है और सदा हराभरा रहता है। पत्ते गहरे हरे, बिजोरे से भी बड़े-बड़े होते हैं । वृन्त चौड़े पक्षयुक्त होते हैं। फूल सफेद रंग के आते हैं। फल बड़े-बड़े गोल, एवं ६ से ८ इंच व्यास के फल भी देखने में आते हैं, जो पकने पर फीके पीले रंग के होते हैं। इसके गूदी के दाने फीके गुलाबी या श्वेत रंग के होते हैं और स्वाद में मीठे होते हैं। इसके बीजयुक्त, बीजहीन एवं छोटे, बड़े आदि भेद होते हैं। (भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग० प० ५६३, ५६४)
मादरी मादरी (माद्री) अतीस, अतिविषा। प० १/४८/४
विमर्श-मादरी की छाया पाइअसद्दमहण्णव में माठरी की है। आयुर्वेदीय शब्द कोश पृ० १०७७ में माठर वृक्ष का अर्थ माड (मराठी नाम) नारियल (हिन्दी नाम) दिया है। प्रस्तुत प्रकरण में यह कंद वाची शब्दों के साथ हैं। इसलिए यहा संस्कृत रूप माद्री ग्रहण किया गया है क्योंकि माद्री अतिविषा कंद का वाचक है। माद्री के पर्यायवाची नाम
अतिविषा शुक्लकन्दापरा प्रतिविषा विषा ।। घुणप्रिया घुणा माद्री, श्यामकंदा सितारुणा ।।१११६ ।। भङ्गुरोपविषा विश्वा, शृङ्गी चोपविषाणिका। अतिविषा शुक्ल कंदा होती है। इसकी दूसरी जाति
उत्पत्ति स्थान-हिमालय में सिन्धुनदी के उद्गम स्थान से लेकर कुमाऊं तक, तथा हसोरा, शिमला, कुल्लू, मनाली और उधर नेपाल, चम्बा प्रान्त, बद्री केदारनाथ की पहाडी आदि समुद्रतट से ६००० से १५००० फीट की ऊंचाई पर पाया जाता है।
विवरण-इसके क्षुप १ से ३ फीट तक ऊंचे होते
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माल
हैं। इसकी डंडी जो मूल से निकलती है वह सीधी और तो घुन जाती है और निःसत्व हो जाती है। डिब्बे या थैलों पत्तेदार होती है। पत्ते इसके नागदौन के पत्र जैसे कटे में रखने से तो और भी जल्दी सड़ जाती है। अतः घुन किनारे वाले, किन्तु चौड़ाई में उससे कम चौड़े, केवल से रक्षा करने के लिए इसे बालुका या रेत के भीतर २ इंच से ४ इंच तक और नोकदार होते हैं। ये पत्ते कुछ दबाकर रखते हैं। मोटे, चमकीले, ऊपर हरे और नीचे से पीले होते हैं। विश्व के रोगी को या प्रायः सफल रोगों को दूर इसकी शाखायें चिपटे आकार की, उक्त डंडी की जड़ करने वाली होने से यह विश्वा या अतिविश्वा नाम से वेदों से ही निकलती है।
में प्रसिद्ध है। पुष्प-पत्रवृन्त के मूल से पुष्पदंड निकलते हैं, जो
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० १२०,१२१) कि पत्रवृन्त से दीर्घतर होते हैं। पुष्पदंडों में बहुत पुष्प लगते हैं। ये पुष्प १ से १.५ इंच लंबे, चमकदार नीले या पीले, कुछ हरे रंग के, बैंगनीधारी वाले होते हैं। अच्छे
माल (माल) मालती, पाठा प० १/३७/५ खिले हुए पुष्प टोपी की तरह दिखाई देते हैं। कन्द-क्षुप के नीचे जमीन के अंदर एक बृहत्
माल (पुं) मालती। मालती। धूसर वर्ण लहरदार कन्द होता है। इस कंद से ही धूसर
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० १३८) वर्ण की छोटी-छोटी कई कन्द निकलती हुई, जमीन के मालती-स्त्री० वनस्पति० पाठा। जाती, जाई । अंदर फैली हुई रहती है। मुख्य मूल कंद की अपेक्षा, ये
(आयुर्वेदीय शब्द कोश पृ० १०८८) शंखाकार छोटी-छोटी कन्हें विशेष प्रभावशाली होती हैं विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में मालशब्द गुच्छवर्ग के और ये ही अतीस कहलाती हैं । ये बृहत् मूल कंद से अलग अन्तर्गत है। ऊपर मालती के दो अर्थ किए गए हैं। पाठाके करके शुष्क कर ली जाती है। ये १/३ से २ इंच तक पुष्प गुच्छों में आते हैं। इसलिए यहां पाठा अर्थ ग्रहण लंबी, आधी इंच मोटी, ऊपर से धूसर या बादामी वर्ण कर रहे हैं। की. किन्त तोड़ने पर दध-सी सफेद चखने में अत्यन्त मालती के पर्यायवाची नामकड़वी और गन्धरहित होती है।
पाठाऽम्बष्ठाऽम्बष्ठकी च, प्राचीना पापचेलिका मूल के रंगभेद से ही इसके प्रायः तीन भेद माने
वरतिक्ता बृहत्तिक्ता, पाठिका स्थापनी वृकी।।६८ // गये हैं। श्वेत मूल वाली को श्वेतकंदा, काली जड़ वाली मालती च वरा देवी, त्रिवृत्ताऽन्या शुभा मता।। को कृष्णकंदा और लाल जड़वाली को अरुणा कहते हैं। पाठा, अम्बष्ठा, अम्बष्ठकी, प्राचीना, पापचेलिका, मदनपाल निघंटुकार एक और पीली अतीस भी बतलाते वरतिक्ता बृहत्तिक्ता, पाठिका, स्थापनी, वृकी, मालती, हैं। श्वेत सबसे उत्तम और श्रेष्ठ है। किन्तु आजकल तो वरा, देवी और त्रिवृत्ता वे सभी पाठा के पर्यायवाची हैं। प्रायः एक ही प्रकर की अतीस मिलती है जो रंग में ऊपर
(धन्व० नि० १/६६ पृ० ३६) से किंचित् धूसर और तोड़ने पर श्वेत दुधिया निकलती अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पाठा, पाठ, पाढ, पाठी, पाढी, पुरइन, मूल या असली अतीस छोटी-छोटी होती है और पाढी। बं०-आकनादि, निमुक, एकलेजा। म०-पहाड़ शाखायें लंबी-लंबी होती हैं। इनमें भी जो अच्छी अतीस बेल। गु०-वेणीवेल, करेढियुं । क०-पडवलि । होती है वह लंबगोल होती है। उसके नीचे की ओर का ता०-अप्पाडा, पोंमुततै । गोवा०-पारवेल । ते०-पाटा, सिरा तीक्ष्ण होता है, ऊपर की ओर पान की कलिका विरुबोड्डि। लें-Cissampelos pareiraLinn (सिसॅम्पेलॉस् सी होती है, जो सरलता से टूट जाती है। तोड़ने पर पॅरेरा लिन०) Fam. Menispermaceae (मेनिस्पर्मेसी) भीतर से श्वेत और बीच में इर्द गिर्द ४ काले बिन्दु होते अंo-Velvet Leaf (वेल्वेट लीफ)। हैं। यह दो माह के अंदर ही यदि सुरक्षित न रखी जाय
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३६५)
है।
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उत्पत्ति स्थान-यह लता भारत के उष्ण एवं मालुकः ।पुं०। कृष्णार्जके (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ८१६) समशीतोष्ण प्रान्तों के पथरीले जंगलों में तथा सिन्ध,
म तथा सिन्ध, मालुक के पर्यायवाची नाम
मा पंजाब, शिमला, देहरादून से लेकर अमेरीका के उष्ण कृष्णार्जकः कालमालः, मालकः कृष्णमालुक: १५६५ प्रदेशों में विशेष पाई जाती है।
काकमली करालः स्यात्, कपित्थः कालमल्लिका। विवरण-गुडूची कुल की वृक्षों के सहारे ऊपर बर्बरी कवरी तुङ्गी, खरपुष्पाऽजगन्धिका ।।१५६६ ।। चढ़ने वाली या जमीन पर फैलने वाली इस लता की कृष्णार्जक, कालमाल, मालुक, कृष्णमालुक, शाखायें पतली, रेखा चिन्हित, चिकनी या मृदु, श्वेत काकमल्ली, कराल, कपित्थ, कालमल्लिका, बर्बरी, कवरी, रोमाच्छादित, पत्र गिलोय के पत्र जैसे एकान्तर, तुङ्गी, खरपुष्पा, अजगन्धिका ये बर्बरी के पर्याय हैं। हृदयाकृति के गोल, १.५ से ४ इंच व्यास के, लंबाई से (कैयदेवनिघंटु ओषधिवर्ग श्लोक १५६५, १५६६ पृ० ६३५, ६३६) चौड़ाई कुछ में अधिक, रोमश, मसलने पर चिपचिपे, गंध में सोया जैसे, स्वाद में कुछ रुचिकर, पत्रवृन्त लगभग २ से ४ इंच लंबा, पत्र की पीठ की ओर लगा हुआ, पत्र में शिरायें ७ से ११, पुष्प वर्षा या शरद्ऋतु में, पीताभ श्वेतवर्ण के उभय लिंग विशिष्ट, बहुत छोटे-छोटे, नर मंजरी लंबी अनेक पुष्पों से युक्त, मृदुरोमश, पत्रकोण से निकली हुई रहती है। प्रायः नरपुष्प गुच्छों मे तथा मादा पुष्प लंबे मंजरी में आते हैं। फल शीतकाल में मकोय या मटर जैसे किन्तु रोमश, कच्ची दशा में पीताभ हरित, पकने पर लाल या नारंगी रंग के कुछ गोलाई लिये हुए चपटे होते हैं। बीज वक्राकृति या मुडे हुए सूक्ष्म होते हैं। मूल आध इंच मोटी, जमीन में बहुत गहरी गई हुई । छाल फीके खाकी रंग की होती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ० २१५)
मसरी
PERH
मालइकुसुम मालइकुसुम (मालती कुसुम) मालती के पुष्प
पुष्प काट LJ RAMA
उवा० १/२६ इदं नेत्रयोः स्पर्शनान्नेत्रशैत्यकरम्।।
अन्य भाषाओं में नामनेत्रों के स्पर्श करने से नेत्र ठंडे होते हैं।
हिo-तुलसी। बं०-तुलसी। मा०-तुलसी गु०__ (अष्टांग संग्रह सू ३३/६)
तुलसी, तुलस। अंo-Holy Sacred, Basil (होली सेक्रेड
वेसिल) ले०-Ocimum Sanctum (ओसियम सेंक्टम) 0. (आयुर्वेदीयशब्द कोश पृ० १०८८) मालती मल्लिका पुष्पं, तिक्तं जयति माहतम्
Flirsutam (ओ० हिरसटम) 0. Tomentosum (ओ०,
टोमेन्टोमस) 0. Viride (ओ० विरिडे)। (अष्टांगसंग्रह सूत्र स्थान द्वादशोध्यायः श्लोक ८० पृ० ११३)
उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष में ही प्रायः सर्वत्र उष्ण
एवं साधारण प्रदेशों के वनों, उपवनों में निसर्गतः होती मालुय
है, एवं घरों, मंदिरों में भी प्रचुरता से पूजा कार्यार्थ तथा मालुय (मालुक) काली तुलसीभ० २२/२ प०१/३५/१ मलेरिया आदि रोगों के कीटाणु नाशार्थ वायुशुद्धि के लिए
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लगाई जाती है।
तक कटे हुए एवं फलकमूल गहरा, हृद्वत् होता है । पुष्प विवरण-पुष्पवर्ग एवं अपने तुलसी कुल की प्रमुख श्वेत तथा मलाई के रंग के, समस्थ काण्डज व्यूह में आते इस दिव्य बूटी के गुल्मजातीय क्षुप १/२ फुट ऊंचे, हैं। फली कठोर ६ से १२ इंच लम्बी, १.५ से २ इंच चौड़ी शाखायें पतली छोटी सीधी फैली हुई, पत्र लगभग १ इंच एवं रोमश होती है। इसके पत्तों के पत्तल आदि बनाये लम्बे, कुछ कंगूरेदार गोल एवं सुगंधित पुष्पमंजरी ५ से जाते हैं. छाल के रेस्सों से रस्सियां बनाई जाती है। ६ इंच लम्बी, शाखाओं के अग्रभाग पर । बीज चपटे कुछ इसकी फलियों को आग में चिटका कर बीज निकाले लाल वर्ण के होते हैं। प्रातः शीतकाल में पुष्प एवं फल जाते हैं, जिन्हें खाते हैं। आते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०४३६) श्वेत तुलसी के पत्र शाखाएं श्वेताभ और कृष्ण या काली के पत्रादि कृष्णाभ होते हैं। गुण धर्म की दृष्टि से
मास काली तुलसी श्रेष्ठ मानी जाती है।
मास (माष) उडद (धन्वन्तरिवनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०३५८)
ठा०५/२०६ भग०२१/१५ उवा०१/२६ प०१/४५/१
माष के पर्यायवाची नाममालुया
धान्यमाषस्तु विज्ञेयः, कुरुविन्दो वृषाकरः ।। मालुया ( ) मालुआ बेल प०१/४०/५ जीवा०३/२६६ मांसलश्च बलाढ्यश्च, पित्र्यश्च पितृजोत्तमः ।।७।। मालुः ।पुं । पत्रबहुललताभेदे। (वैद्यक शब्द सिन्धु ८१६)
कुरुविन्द, वृषाकर, मांसल, बलाढ्य, पित्र्य और मालझन, मालआ बेल-संभवतः यही डल्हणोक्त पितजोत्तम ये धान्यमाष के पर्याय हैं। कोविदारयुग्मपत्रा वा अन्योक्त पृथकपर्णी है, जिसकी
(धन्व०नि० ६/८७ पृ०२६१) बड़ी विस्तृत लतायें होती हैं तथा पत्ते कचनार जैसे द्विविभक्त होते हैं। (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ०४३५)
भाषाओं में नाम-सं०-कोविदार, युग्मपत्रा, पृथकपर्णी। हिo-मालझन, माहुल, मालो, महुलाइन। बं०-चेहुर । ते०-अड्डा । थाo-महुलन । खर-महुलान । संथा-लमकलर, गोमलर। उ०-सियालपत्ता। ले०Bauhinia vahlii W.&A (बौहिनिया वाहली) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के निम्न भागों में ३००० फीट तक एवं आसाम, मध्य प्रदेश तथा बिहार में नम एवं छायादार स्थानों में वृक्षों पर फैली हुई पायी जाती
है।
।
S
विवरण-इसकी लता बहुत बड़ी तथा आरोहणशील होती है। शाखाओं के अग्र पर प्रायः दो-दो सूत्र रहते हैं। नवीन शाखाओं, पत्रनालों एवं पत्तों के अधः पृष्ठों पर रक्ताभ या मखमली रोमावरण होता है। पत्ते १ से १५ फीट तक चौड़े, चौड़ाई में कभी-कभी अधिक नहीं हो तो लम्बाई-चौड़ाई में बराबर, द्विखण्डित, खण्ड गहराई
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-उडद, उडिद, उरद, उरिद, उर्दी । बं०-माष,
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कलाय । म० - उडीद । ता०- उलुंडु । गु० - अडद । क० - उड्डु । ते० - उट्टुलु । फा० - माष । अ० - माषा | अं०-Black gram (ब्लॅक ग्राम) । ले० - Phaseolusmungo linn (फेसीओलस्मुंगो) Fam, Leguminosae (लेग्युमिनोसी) । उत्पत्ति स्थान - इसकी उपज हर प्रान्त में होती
है ।
विवरण- इसका क्षुप झाड़ीदार फैला, एक फीट ऊंचा अनेक शाखा युक्त एवं रोमावृत होता है। पुष्प पीले होते हैं । फली पतली, गोल, १.५ से २.५ इंच लम्बी एवं बीजों के बीच-बीच में भीतर दबी हुई होती है। बीज ८ से १५ . काले या गहरे भूरे या कभी-कभी हरे होते हैं । वे हरे होते हुए भी मूंग की तरह अन्दर से पीले न होकर सफेद होते हैं।
|
उडद के छोटे तथा बड़े भेद भी पाये जाते हैं। बड़े में दाने कुछ काले तथा अच्छे होते हैं। ये दोनों भिन्न-भिन्न काल में बोये जाते हैं ।
(भाव० नि० धान्यवर्ग पृ०६४४)
....
मासपण्णी
मासपण्णी (माषपर्णी) जंगली उडद
भ०२३/८ प०१/४८/५
माषपर्णी के पर्यायवाची नाम
माषपर्णी च काम्बोजी, कृष्णवृन्ता महासहा । । आर्द्रमाषा सिंहविन्ना, मांसमाषाऽश्वपुच्छिका । । १३६ ।। माषपर्णी, काम्बोजी, कृष्णवृन्ता, महासहा, आर्द्रमाषा, सिंहविन्ना, मांसमाषा और अश्वपुच्छिका ये माषपर्णी के पर्याय हैं। (धन्व० नि०१ / १३६ पृ०५६)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - मषवन, माषोनी, वनउड़दी, जंगलीउड़द, बनउर्दी, बनउड़द । बं० - माषानी । म० - रानउड़ीद । गु० - जंगलीउड़द । क० - काडड्यु, काडुलंद । ले०Teramnus labialis Spreng (टेरॅम्नस् लेबिएलिस् स्पेंग ) Fam. Leguminosae (लेगुमिनोसी) ।
उत्पत्ति स्थान- यह सब प्रान्तों के जंगल झाड़ियों में कहीं न कहीं उत्पन्न होती है।
विवरण - यह लताजाति की वनौषधि झाड़ियों पर
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लिपटती हुई (चक्रारोही) बढ़ती है और वर्षाऋतु में अधिक पाई जाती है। पत्ते त्रिपत्रक और पत्रक भिन्न-भिन्न कद के होते हैं । पत्रक कभी '६ से १' ३ इंच और कभी १ से ३ इंच लम्बे होते हैं। ये अंडाकार या लट्वाकार (अग्य पत्रक कभी-कभी अभिलट्वाकार) नीचे के तल पर तलशायी रोमों से युक्त होते हैं । सवृन्त पुष्पों की मंजरी बहुत पतली, १.५ से ५ इंच लम्बी और पुष्प गुलाबी नीलारुण या सफेद होते हैं। फली पतली, लम्बी सीधी
या कुछ-कुछ टेढ़ी होती है। बीज ताजी अवस्था में लाल तथा सूखने पर काले और संख्या में लगभग १० होते हैं ।
मासावल्ली
मासावल्ली (माषावल्ली) माषावलि, माषाली
माषाली के पर्यायवाची नाम
माषाल्यामस्थिद्रावी च, कृमिहत् मांसद्रावणः माषाली, अस्थिद्रावी, कृमिहृत, मांसद्रावण ये माषावलि के संस्कृत नाम हैं ।
(सोढल निघण्टु I ६६३ पृ०७६)
प०१/४०/४
मिणालिया
मिणालिया (मृणालिका) कमलनाल मृणाली | स्त्री । मृणाले । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०८३६ ) विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में मिणालिया शब्द सफेदवर्ण की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। कमलनाल सफेद होता है, मृणाली शब्द स्त्रीलिंग में मृणाल का वाचक है, इसलिए यहां कमलनाल अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। मृणालिका के पर्यायवाची नाम
विसं मृणालं बिसिनी, मृणाली स्यात् मृणालिका । मृणालकं पद्मनालं, तण्डुलं नलिनीरुहम् ।। १४२ ।। विस, बिसिनी, मृणाली, मृणालिका, मृणालक, पद्मनाल, तण्डुल और नलिनीरुह ये मृणाले के पर्याय हैं ।
....
( धन्व० नि०४ / १४२ पृ०२१६ )
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मियवालंकी मियवालंकी (मृगैर्वारु) बड़ी इन्द्रायण भ०२३/६ देखें मियवालुंकी शब्द ।
D...
मियवालुंकी
मियवालुंकी (मृगैर्वारु) बड़ी इन्द्रायण प०१ / ४८ / ४ मृगैर्वारु के पर्यायवाची नाम
वारुणी च पराप्युक्ता सा विशाला महाफला । ।२०३ ।। श्वेतपुष्पा मृगाक्षी च, मृगैर्वारु मृगादनी... २०४ । । विशाला, महाफला, श्वेतपुष्पा, मृगाक्षी, मृगैर्वारु मृगादनी ये सब बड़ी इन्द्रायण के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ०४०३)
फल
पुष्प
Citrullus colocynthis
Schord
'लता
कल अफल
बीज
अन्य भाषाओं में नाम
हि. - इनारुन, इन्द्रायण, इन्दायन, इन्द्रारुन । बं० - राखालशा । म० - इन्द्रावण, कडुवृन्दावन, कडुइन्द्रायण । मा० - तूसणबेल, तूसतुंबा, तूस । गु० - इन्द्ररबरणा, इद्रावणा । क० - हानेक्के, हाबुमेक्केकायि ।
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ते०- एतिपुच्छा, एटिपुच्चा, पुस्तकाय पापर, एटि पुचकाय । ता० - पेक्क्मुट्टी पेदिकारि । कौड, तुम्बी, थोरूम्बा, तुम्बा । फा० - खुरबुज, एतलरव हिन्दबानहे, तल्ख । अ० - इञ्जल अलकम । अंo - Colocynth ( कोलोसिथ) । ले० - Citrullus Colocynthis Schrad (सिट्रयुलस्कोलोसिन् थिस् श्रड्) ।
उत्पत्ति स्थान - यह बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, पश्चिमोत्तर प्रदेश और दक्षिण भारत तथा राजपूताना आदि अनेक प्रान्तों में पाई जाती है। रेतीली भूमि में अधिक उत्पन्न होती है तथा गंगा, यमुना, सोन, सरयू आदि नदियों के दियारे में बाहुल्य से देखने में आती है। जहां यह अधिक रहती है वहां दूसरे अन्न की उत्पत्ति अधिक परिमाण में नहीं होती । इसी कारण किसान लोग इसको समूल नष्ट करने के प्रयास में लगे रहते हैं । यह एशिया एवं अफ्रीका के उष्ण प्रदेशों में भी पाई जाती है।
विवरण - यह लता जाति की वनस्पति वर्षजीवी या बहुवर्षजीवी भी होती है। वर्षा ऋतु के सिवा सब ऋतुओं में मिलती है। वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण रेतीली भूमि के पानी में डूबने से इसकी लता नष्ट हो जाती है, किन्तु जड़ सजीव रहती है और वही वर्षान्त के बाद अंकुरित होकर लतारूप में बढ़कर वसन्त ऋतु तथा गरमी के दिनों में फूल, फल देती है । जिस भूमि
वर्षा का पानी इकट्ठा नहीं होता अथवा नदियों की बाढ़ नहीं आती वहां ऊंची भूमि वाली लता नष्ट नहीं होती बल्किं वर्षा ऋतु में भी फूल, फल देती रहती है। इसकी लता बहुधा भूमि पर फैली एवं स्पर्श में अत्यन्त कर्कश होती है। इसके सूत्र निःशाख या द्विशाख होते हैं । पत्ते विषमवर्ती २ से २.५ इंच के घेरे में लंबे चौड़े, ऊपर से हलके हरे एवं नीचे से धूसर रंग के, स्पर्श में कर्कश, अनियमित, कटे किनारे वाले तथा तरबूज के पत्तों के आकार वाले त्रिकोणाकार होते हैं। खेतों में रोपण की हुई इन्द्रायण के पत्ते बड़े एवं तरबूज के पत्तों के बराबर दिखलाई पड़ते हैं। फूल पांच पंखडी वाले, हलके पीले रंग के तथा व्यास में .५ से ७ इंच होते हैं। फल २ से २.५ इंच के घेरे में गोलाकार, कच्ची अवस्था में हरे रंग के और पकने पर संतरे के समान पीले रंग के सफेद छींटेदार एवं चिकने होते हैं। फलों के भीतर किंचित्
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पीलापन युक्त सफेद रंग की सुखी हुई सुषिर एवं अत्यन्त कडवी गूदी होती है और गूदों के बीच छोटे-छोटे १/४ से १/६ इंच बड़े चिपटे, तरबूज के बीज के आकार वाले, हलके भूरे रंग के बीज होते हैं। फल का छिलका कोमल होता है। इसके सभी अंग कडवे होते हैं तथा इसकी सूखी गर्द नाक एवं आखों में जाने से अत्यन्त प्रक्षोभ करती है।
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ ४०३.४०४)
मुग्ग मुग्ग (मुद्ग) मूंग
ठा०५/२०६ भ० २१/१५ प० १/४५ उवा० १/२६ मुद्गग के पर्यायवाची नाम
मुद्गस्तु सूपश्रेष्ठस्स्याद् वर्हिश्च रसोत्तमः। भुक्तिप्रदो हयानन्दः, सुफलो वाजिभोजनः।।
मुद्ग, सूपश्रेष्ठ, वर्णार्ह, रसोत्तम, भुक्तिप्रद, हयानन्द, सुफल, वाजिभोजन ये मूंग के संस्कृत नाम हैं।
(शा०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६१५)
ताo-पच्चैयमेरु। फा०-वुनुमाष, बनोमाश, माष । अ०-मजमाश, माषमज। अंo-Green Gram (ग्रीन्ग्राम)। ले०-Phaseolus aureus Roxb (फेसिओलस् ऑरियस्) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह इस देश के खेतों में बोई जाती है और पश्चिमोत्तर हिमालय के ६००० फीट ऊंची भूमि । में भी जंगली उत्पन्न होती है।
विवरण-इसका क्षुप १ से २ फीट ऊंचा होता है। इसके पत्ते उड़द के समान होते हैं। समस्त क्षुप पर रेशमवत् वारीक रोवें होते हैं। फूल पीले आते हैं। फलियां १.५ से २ इंच लंबी और कुछ टेढ़ी होती है। बीज हरे रंग के होते हैं। अंदर की दाल पीले रंग की होती है। श्याम, हरी, पीली, सफेद तथा लाल इन भेदों से मूंग कई प्रकार की होती है। इनमें एक दूसरी की अपेक्षा पूर्व-पूर्व लघु होती है। लाल की अपेक्षा सफेद, सफेद से पीली, पीली से हरी, हरी से श्याम लघु होती है।
(भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६४३, ६४४)
पत्र
मुग्गपण्णी मुग्गपण्णी (मुद्गपर्णी) वनमूंग
भ०२३/८ प० १/४८/५ मदगपी के पर्यायवाची नाम
मुद्गपर्णी काकपर्णी, सूर्यपर्ण्यल्पिका सहा। काकमुद्गा च सा प्रोक्ता, तथा मार्जारगन्धिका ।।
मुद्गपर्णी, काकपर्णी, सूर्यपर्णी, अल्पिका, सहा, काकमुद्गा और मार्जारगन्धिका ये सब संस्कृत नाम मुगवन के हैं। (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० २६६) अन्य भाषाओं में नाम
___ हिo-मुगवन, मुंगानी, वन मूंग, जंगली मूंग, रखाल कलमी । बं०-मुंगानी । म०-रानमुग । गु०-जंगली मग, अडबाऊ मग । क०-कोहसरु, आबरेगिडा। ते०कारुपेसारा, पिल्लपेसर चेटु कलकुन्दचे?। पं0मुगवन । ता०-नरिप्पयरु। ले०-Phaseolus trilobus ait (फेसिओलस् ट्राइलोबस एट) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह मूंग के समान ही लता जाति
फली
शारव
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-मूंग, मुंग | बं०-मुग । मल-मूग, हिरवेग। गु०-मग, कच्छी। क०-हेसरु। ते०-पच्चापेसलु।
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की वनौषधि प्रायः सब प्रान्तों में उत्पन्न होती है।
TER
मुद्दिया मुद्दिया (मृद्वीका) द्राक्षा लता
जीवा०३/२६६ प०१/४०/३ मृद्वीका (का) स्त्री। द्राक्षालतायाम्
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०८४२) मद्वीका के पर्यायवाची नाम
द्राक्षा स्वादुफला प्रोक्ता, तथा मधुरसापि च। मृतीका हारहूरा च, गोस्तनी चापि कीर्तिता ।।१०६ ।।
द्राक्षा, स्वादुफला, मधुरसा, मृद्वीका, हारहूरा और गोस्तनी ये दाख के संस्कृत नाम हैं।
(भाव०नि. आम्रादिफलवर्ग०पृ०५८५) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-दाख, मुनक्का, अंगूर बं०-मनेका। म०अंगूर, द्राक्ष | गु०-धराख, दराख । कo-द्राक्षे । ते०-द्राक्षा। ता०-कोट्टन । फा०-अंगूर, मवेझ, (सूखा) । अ०-हबुस, सजीव । अं0-Grapes (ग्रेप्स)। ले०-Vitis Vinifera linn (विटिस्विनिफेरा) Fam. Vitaceae (विटेसी)।
..
-मनन्-
R LAHABANAIRS
EE
ammam
विवरण-इसके काण्ड प्रसरी, १ से २ फीट लम्बे, रोमश या चिकने होते हैं। पत्रककद में प्रायः बहुत परिवर्तनशील होते हैं और प्रायः वृन्त से छोटे ही होते हैं। ये प्रायः सर्वदा खण्डित, खण्ड तीन और गोल होते हैं। उपपत्र बहुत बड़े और पीठ से जुड़े हुए (प्रायः १/२ तक) होते हैं। उपपत्रक छोटे परन्तु पर्णवत् होते हैं। मंजरी के शीर्ष पर पुष्पगुच्छ और बड़ा पुष्पदंड होता है। फली पतली, लगभग २ इंच लम्बी एवं चिकनी होती है। बीज ६ से १२ और श्वेताभ होते हैं। इसके बीजों को कभी-कभी गरीब लोग खाने के लिये एकत्र करते हैं। पत्रकों के आकार के अनुसार इसे सूर्यपर्णी कह सकते
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०२६७)
T
हैं।
मुद्दिय मुद्दिय (मृद्वीका) द्राक्षालता
जीवा०३/२६६ प० १/४०/३ देखें मुद्दिया शब्द।
उत्पत्ति स्थान-यह लता जाति की वनस्पति फारस, अफगानिस्तान आदि विदेशों के सिवा इस देश में भी कई जगह किन्तु विशेषरूप से उत्तर पश्चिमी भागों में अधिक उत्पन्न होती है।
विवरण-पत्ते गोलाकार, पांच दल तथा कटे किनारे वाले और कंगूरदार होते हैं। फूल हरेरंग के
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सुंगधित होते हैं। फूल तथा फल गुच्छों में आते हैं। उत्पत्ति स्थान-यह बंगाल, बिहार, युक्त प्रान्त, ___ अंगूर, किसमिस, दाख, बड़ी दाख, सब एक ही दक्षिण देश के बांस के वनों में तथा हिमालय में युमना जाति की लताओं के फल हैं। कच्चे, पक्के, बीजहीन, से खासिया पहाड़ तक, प्राय: सर्वत्र उत्पन्न होती है। तथा छोटे-बडे सखे आदि फलों के भेद से यह भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं।
___ अफगानिस्तान और फारस आदि देशों के अंगूर अच्छे होते हैं। काश्मीर में किसमिस, मुनक्का, होंसानी और मस्का नामक कई जातियों के अंगूर उत्पन्न होते हैं। औरंगाबाद का अंगूर लाल और स्वादिष्ट होता है। दौलताबाद के अंगूर देश देशान्तरों में भेजे जाते हैं। सब जगह की जलवायु भिन्न होती है। इस कारण प्रत्येक स्थान के फलों में कुछ न कुछ भेद होता है।
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग०पृ० ५८५,५८६)
पुष्पशाख
मुसंढी मुसंढी ( ) काली मुसली भ०७/६६ जीवा०१/७३
विमर्श-मुसंढी शब्द प्रस्तुत प्रकरण में कंदवर्ग के शब्दों के साथ हैं। इससे लगता है यह कोई कंद का नाम होना चाहिए। निघंटुओं में तथा आयुर्वेद के कोषों में मुसंढी शब्द नहीं मिलता। कंदवर्ग में इसके अधिक निकट मुसली शब्द मिलता है। इसलिए यहां मुसली शब्द ग्रहण किया जा रहा है। नुशली का अर्थ कालीमूसली
मुसली (मुशली) के पर्यायवाची नाम
तालमूली तु विद्वद्भिर्मुशली परिकीर्तिता।।।
विद्वान् लोग तालमूली को ही मुशली कहते हैं। अर्थात् तालमूली, मुशली ये दो नाम कालीमूसली के हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०३६१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-स्याहमूसली, कालीमूशली। गु०-काली मूसली। म०-कालीमूसली। बं०-तालमूली। क०-नेलताल । ते०-नेलतडिगड्डा । ता०-निलधनैका। प०-स्याह मूसली। मा०-काली मूसली। फा०-मुशली स्याह। अ०-मुसली अबियज। ले०-Curculigo orchioides gaertn (कर्युलिगो ऑर्किओइडिस् गार्टे)।
विवरण-काली मूसली तृणजातीय वनौषधि, वर्षा ऋतु में घास अथवा दूसरे वृक्षों की छाया में देखने में आती है । ४ से ५ पत्ते वाले खजूर के वृक्ष की तरह इसका नवीन क्षुप होता है। मूलस्तम्भ सीधा और मोटा होता है। पुरानी चक्राकार पत्रसंधिओं के कारण यह तालवृक्ष के स्कन्ध जैसा दिखलाई देता है। इसकी संधिओं से सूत्राकार परन्तु मांसल उपमूल निकलते रहते हैं और शीर्ष से लगभग ३या ४ पत्ते भूमि के ऊपर निकलते रहते हैं। इसके पत्ते बिना डंठल के खजूर के पत्तों से कुछ पतले, सकरे और प्रासवत् होते हैं। इसकी लम्बाई ६ से १८ इंच तक और चौड़ाई १ से १.५ इंच तक होती है। पुष्पदंड छोटा बीच से निकला हुआ, ऊपर की ओर क्रमशः मोटा और कुछ चिपटा होता है। इसके फूल नलिकाकार, पीले रंग के, दो कतारों में होते है। इसके मूलस्तंभ का चिकित्सा में व्यवहार होता है। यह बाहर से काले भूरे रंग का तथा अंदर से श्वेत होता है। दो वर्ष पुराने क्षुप का कन्द प्रयोग में लाना चाहिए। इसका स्वाद
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कुछ कडुआ तथा लबाबदार होता है।
मुसुंढी
मुढी (
काली मुसली भ०२३ / २५०१ / ४८/१ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में मुसुंढी शब्द है । भ० (७/६६) में मुसंढी शब्द है। मुसंढी शब्द कंद वर्ग के शब्दों के साथ है। प्रस्तुत प्रकरण का मुसुंढी शब्द भी कंदवर्ग के शब्दों के साथ है। मुसुंढी शब्द की अपेक्षा मुसंढी शब्द मुली शब्द के अति निकट है इसलिए मुसंढी शब्द की व्याख्या की गई है ।
देखें मुढी शब्द |
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ०३६० )
मुढी ( देखें मुसंढी शब्द |
....
मुसुढी
) काली मूसली उत्त०३६/६६
....
मूलगबीय
मूलगबीय (मूलकबीज) मूली के बीज ५०१ / ४५/२ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में मूलगबीय शब्द ओषधिवर्ग (धान्यवाची शब्दों के साथ है। इसलिए यहां मूलग के साथ बीय शब्द ग्रहण किया गया है। मूलक के पर्यायवाची नाम
मूलकं हरिपर्णं च मृत्तिकाक्षारमेव च ।
नीलकन्दं महाकन्दं, रुचिष्यं हस्तिदन्तकम् ।। ३० ।। हरिपर्ण, मृत्तिकाक्षार, नीलकन्द, महाकन्द, रुचिष्य और हस्तिदन्तक ये पर्याय मूलक के हैं।
( धन्व० नि०४ / ३० पृ० १८७, १८८)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - मूली, मुरई बं० - मूला । म० - मुळा । गु० - मूला । क० - मुलखी । ता०० - मुलंगि । ते० - मुल्लङ्गि । फा० - तुरव, तुर्ब। अ० - फज़ल, हुजल । अंo - Radish (रॅडिश)। ले० - Raphanus Sativus linn (रॅफेनस् सेटाइवस) Fam. Cruciferae (कुर्सीफेरी) ।
उत्पत्ति स्थान- यह सभी प्रान्तों में बोई जाती है।
मूली
विवरण- इसका कंद गाजर के समान पर सफेद होता है। पत्ते नवीन सरसों के पत्तों के समान कुछ सफेद सरसों के फूल के आकार के और फल भी सरसों ही के समान किन्तु उससे कुछ मोटा और लगभग १ से २ इंच लम्बा होता है। बीज सरसों से बड़े होते हैं ।
भावप्रकाशकार इसके दो भेद छोटी मूली(चाणक्यमूली) तथा बड़ीमूली - (नेपालमूलक) लिखते हैं । बड़ी मूली नेपाल इत्यादि की तरफ होती है। इसमें गंध कम होती है। छोटी मूली के भी आकार के अनुसार लम्बी, दीर्घवृत्ताभ एवं शलजमाकार ये ३ भेद होते हैं। (भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०६६७)
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मूलय
मूलय (मूलक) मूली
भ०७/६६ : २३/२ जीवा ०१ / ७३ उत्त०३६ / ६६ देखें मूल शब्द |
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हैं।
मूलापण्ण
हैं। बीजों को सफेद मरिच भी कहते हैं। इससे गोंद भी
निकलता है जो पहले दुधिया रहता है किन्तु बाद में वायु मूलापण्ण (मूलकपर्णी) सहिजन
का संपर्क होने पर ऊपर से गुलाबी या लाल हो जाता सू०१०/१२०
है। इसकी कच्ची सेमों का साग और अचार बनाते हैं। मूलकपर्णी के पर्यायवाची नाम
इसकी छाल की रेशों से कागज, चटाई बोरी आदि बनाते शिगु हरितशाकश्च, दीर्घको लघुपत्रकः ।।
हैं। जानवर (विशेषकर ऊंट) इसकी टहनियों को खाते अवदंशक्षमो दंशः, प्रोक्तो मूलकपर्ण्यपि।।३६।।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०३४०) शोभाअनस्तीक्ष्णगंधो, मुखभङ्गोथ शिग्रुकः।
शिग्रु. हरितशाक, दीर्घक, लघुपत्रक, अवदंशक्षम, दंश, मूलकपर्णी, शोभाअन, तीक्ष्णगंध, मुखभङ्ग ये शिग्रु
मेरुतालवण के पर्याय हैं। (धन्व०नि०४/३६,३७ पृ०१८६) मेरुतालवण ( )
जं०२/६ अन्य भाषाओं में नाम
विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं तथा शब्दकोशों में हि०-सहिजना, सहिजन, सहजन सहजना, मेरुताल शब्द उपलब्ध नहीं हुआ है। सैजन, मुनगा। बं०-सजिना। म०-शेवगा, शेगटा। मा०-सहिजनो, सहिंजणो। क०-नुग्गे। ते०-मुनग।
मेरुयालवण गु०-सेकटो, सरगवो । ताo-मोरुङ्ग, मुरिणकै । पं0
मेरुयालवण ( ) जीवा०३/५८१ सोहजना। मला०-मुरिणा। ब्राह्री-डोडलों बिन। य०-सिनोह। फा०-सर्वकोही। अं0-Horse Radish Tree (हार्स रेडिशट्री) Drum Stick Tree (ड्रम स्टिकट्री)।
मोकली ले०-Moringa Pterygosperma gaertn (मोरिङ्गा मोकली ( ) जंगली एरण्ड भ०२२/६ टेरीगोस्वपर्मा गेर्ट) Fam, Moringaceae (मोरिंगेसी)।
देखें मोगली शब्द। उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के निचले प्रदेशों में चेनाव से लेकर अवध तक जंगली रूप में तथा भारत के
मोगली प्रायः सभी प्रान्तों में एवं वर्मा में लगाया हुआ मिलता है।
मोगली ( ) जंगली एरण्ड, व्याघ्रएरण्ड विवरण-इसका वृक्ष साधारण वृक्षों के समान छोटा, २० से २५ फुट ऊंचा होता है । छाल चिकनी मोटी,
प०१/४०/५ कार्कयुक्त, भूरे रंग की एवं लम्बाई में फटी हुई और मोगली।पुं। एक जंगली पेड़ (बृहत् हिन्दी कोश) लकड़ी कमजोर होती है। पत्ते संयुक्त प्रायः त्रिपक्षवत् विमर्श-व्याघ्र एरण्ड को मराठी भाषा में मोंगलीएरण्ड तथा १ से ३ फीट क्वचिद् ५ फीट तक लम्बे होते हैं। और हिन्द भाषा में जंगली एरण्ड कहते हैं। संभव है पत्रक अंडाकार, लट्वाकार, विपरीत एवं करीब ५ से प्रस्तुत मोगली शब्द व्याघ्रएरण्ड का ही वाचक हो ।अन्य ३/४ इंच लंबे होते हैं। कार्तिक महीने से वसन्त ऋतु भाषाओं में नामके आरंभ तक फूलों के गुच्छे टहनियों के अंत में दिखाई हि०-व्याफ्रेरण्ड, जंगलीएरंड । बं०-बागा भेरेंदा, पड़ते हैं। पुष्प श्वेतवर्ण के तथा मधु की तरह गंध वाले बाघभेरंड । म०-मोंगलीएरण्ड । गोवा०-गलमर्क । कोंक० होते हैं । फलियां गोल त्रिकोणाकार, अंगुलि प्रमाण मोटी, -काडएरडि । ता०-कट्टमनक्कु । ते०-अडविआमुदमु । ६ से २० इंच लम्बी, बीजों के बीच-बीच में पतली एवं क०-कडहरलु । अ०-डंडेनहरी फा०-डंडेनहरी ले०बड़ी-बड़ी खड़ी ६ रेखाओं से युक्त होती हैं। उनमें सफेद Jatropha curcas linn (जॅट्रोफा कर्कस् लिन०) Fam. सपक्ष त्रिकोणाकार तथा लगभग १ इंच लम्बे बीज होते Euphorbiaceae (युफोबिएसी)।
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उत्पत्ति स्थान-यह दक्षिण अमेरिका का आदिवासी है किन्तु प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता है। दक्षिण में इसे लोग घरों में लगाते हैं।
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में मोग्गर शब्द गुल्मवर्ग के अन्तर्गत है और जाई, जूहिया, मल्लिया आदि शब्दों के साथ है। इसलिए यहां कर्मरंग (कमरख) का अर्थ ग्रहण न कर मुद्गर का चौथा अर्थ मल्लिका पुष्प भेद अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। मुद्गर के पर्यायवाची नाम
मुद्गरो गन्धसारस्तु, सप्तपत्रश्च कर्दमी। वृत्तपुष्पोऽतिगन्धश्च गन्धराजो विटप्रियः । गेयप्रियो जनेष्टश्च, मृगेष्टो रुद्रसम्मितः ।।७७।।
मुद्गर, गन्धसार, सप्तपत्र, कर्दमी, वृत्तपुष्प, अतिगंध, गंधराज, विटप्रिय, गेयप्रिय, जनेष्ट तथा मृगेष्ट ये सब मुद्गर (गन्धराज) के ग्यारह नाम हैं।
(राज.नि. १०/७७ पृ. ३१२)
फलकाट
MPO
विवरण-इसका वृक्ष छोटा एवं करीब १० से २० फीट ऊंचा होता है। इसकी छाल धूसरवर्ण की एवं काष्ठ मुलायम होता है। पत्ते चिकने बड़े, व्यास में ४ से ६ इंच एवं ३ से ५ खंडों में विभक्त होते हैं। पुष्प पीताभ वर्ण के होते हैं। फल हरे रंग के, १ इंच लम्बे एवं सूखने पर भी बहुत दिन तक पेड़ में लगे रहते हैं। इसके बीजों में तैल होता है। इसके पत्तों को तोड़ने से सफेद रंग का बहुत दूध निकलता है।
मोग्गर
अन्य भाषाओं में नाम
हिo-मोगरा, मोतिया, वनमल्लिका । गु०-मोगरो। मोग्गर (मुद्गर) मोगरा, मुद्गर प०१/३८/२
___ बं०-मोगरा, बेला, वनमल्लिका। म०-मोगरा। मुद्गरः पुं। स्वनामख्याते पुष्पवृक्षविशेषे । मल्लिका काठियावाड०-डोलेरा। पं०-मुग्ररा, चंबा। ता०वृक्षेकर्मरंगवृक्षे । मल्लिकापुष्पभेदे ।
अनंगमू। तेo-मले। कर्णाटकी-बल्लिमल्लिगे। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ. ८२६) उर्दू-आजाद, रायबेल, सोसन। अ०-सोसन ।
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अं०-Arabian Jasmine (अरबेयन जेसमिन) । ले०-Jasminum Sambac (जेसमाइनम सेम्बेक) ।
उत्पत्ति स्थान - मोगरा प्रत्येक बगीचे में लगाया जाता है या कृषि की जाती है ।
विवरण - मोगरा पुष्पवर्ग और हारसिंगारादिकुल का क्षुप होता है जो आगे चलकर बहुवर्षायु झाड़ी में परिणत हो जाता है । पत्ते बेरी के पत्तों से कुछ छोटे और विशेष रेखावाले होते हैं। मोगरे के पुष्प अपनी खुशबू के कारण से सारे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। इसकी कई जातियां होती हैं। जैसे बेलिया मोगरा - जिसकी बेल चलती है। वटमोगरा - जिसका फूल गोल होता है । सादामोगरा - जिसका झाड़ीनुमा क्षुप होता है। इसके पत्ते गोल और चमकीले हरे होते हैं। इसके फूल अत्यन्त सुगंधित और सफेद होते हैं। मोतया के फूल अधिकगोल होते हैं। फूलों की खुशबु अत्यन्त मनमोहक होती है। ये पुष्प भारत के प्रायः सभी बगीचों में लगाए जाते हैं । (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ०४६२)
मोग्गर
मोग्गर ( मुद्गर) कमरख मुद्गर के पर्यायवाची नाम
कर्मारः कर्मरकः पीतफलः कर्मरश्च मुद्गरकः । मुद्गरफलश्च धाराफलकस्तु कर्मारकश्चैव । ।१०८ || कर्मार, कर्मरक पीतफल, कर्मर मुद्गरक. मुद्गरफल, धाराफलक और कर्मारक ये सब कर्मार के संस्कृत नाम हैं। (राज० नि० ११ / १०८ पृ०३६२ ) अन्य भाषाओं में नाम
प० १/३८/२
हि० - कमरख । बं० - कामरांगा । म० - कमळर, कर्मर । क० - दारेहुलि । गु० - कमरख । ते० - तमर्ता | ता० - तमर्ते । अं० - Carambola (करम्बोला) । ले०Averrhoa Carambola Linn (एवेहोआ कॅरम्बोला) | Fam. Oxalidaceae (ऑक्सेलिडेसी) ।
उत्पत्ति स्थान- यह गरम प्रान्तों की वाटिकाओं में रोपण किया जाता है ।
विवरण- इसका वृक्ष छोटा १५ से 30 फीट ऊंचा एवं सदा हरित होता है और शाखाएं बहुत होती हैं। पत्ते
HODVOODO
एक
HODODA
1000
फल काट
देखें मोग्गरशब्द |
जैन आगम वनस्पति कोश
कसौदी के पत्तों के समान अंडाकार और नुकीले होते हैं। फूल छोटे-छोटे सफेद या किंचित् लाली लिए आते हैं। फल ३ से ४ इंच लम्बे, पांच कोने वाले गूदेदार, सुगंधित, हरे रंग के एवं पकने पर पीले रंग के होते हैं । कच्ची अवस्था में इनका स्वाद कषाय रहता किन्तु पकने पर किंचित् मधुराभ अम्ल हो जाता है। इसके दो प्रकार खट्टे एवं मीठे पाये जाते हैं। जिनमें से मीठा बंगाल की तरफ होता है । इसका साग, चटनी, अचार एवं शर्बत बनाया जाता है। इससे लोह आदि धातुओं में लगी जंग छुड़ाई जाती है। (भाव० नि० आम्रादिफलवर्ग० पृ० ५६७)
मोढरी (
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मोग्गर गुम्म
मोग्गर गुम्म ( मुद्गरगुल्म) मोगरा गुल्म जीवा०३ / ५८० जं०२/१०
फल
पुष्प काट
मोढरी
) अतिविसा भ० २३/६
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विमर्श-प्रज्ञापना १/४८/४ में इसके स्थान पर है। इसकी ही एक जाति विलम्बी या बेलुबुनामक होती माढरी शब्द है। इसलिए इस शब्द के लिए माढरी शब्द है। इसके फल कमरख जैसे किन्तु कुछ छोटे होते हैं। देखें।
आयुर्वेदीय तथा पुराणादि ग्रंथों में इसका कर्मरंग नाम
से उल्लेख पाया जाता है। कार, कर्मरक आदि इसके मोद्दाल
प्राचीन नाम हैं।
इसका पेड़ छोटा मध्यम आकार का बहुत एवं मोद्दाल (मुद्गर) कमरख
जं २/८1
सघन शाखायुक्त होता है । पत्ते अंडाकार, दो अंगुल लम्बे मुद्गरः ।पुं। स्वनामख्यातपुष्पवृक्षविशेषे, मल्लिका ।
तथा १ से १.५ अंगुल चौड़े, कुछ नुकीले, सीकों में लगते वृक्षे, कर्मरङ्ग वृक्षे। मल्लिकापुष्पभेदे।
हैं। पुष्प वर्षाकाल के अंत में, गुच्छों में छोटे-छोटे किंचित् (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०८२६)
रक्ताभ श्वेतवर्ण के लगते हैं। फल पुष्पों के झड़ जाने विमर्श-ऊपर मुद्गर के चार अर्थ किए गए है। पर शरद या शीतऋतु में ५ या ६ फांकों वाले, हरे रंग आग मदगरक का एक ही अथ मिलता है-कम्मरग। के कछ लम्बे और मोटे से फल लगते हैं जो एकदम इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में कर्मरङ्ग (कमरख) अर्थ ही।
हा खट्टे होते हैं। पूस या माघ मास में ये फल पक कर पीले ग्रहण कर रहे हैं।
पड़ जाते हैं। परिपक्व फल २.५ से ३.५ इंच लम्बा तथा देखें मोद्दालक शब्द ।
लगभग दो इंच चौड़ा होता है। यह रस से पूर्ण खटमीठा
होता है। कहीं-कहीं इसका फल मीठा भी होता है। बीज मोद्दालक
फल के मध्य भाग में लम्बे और चपटे होते हैं। मोद्दालक (मुद्गरक) कमरख जीवा०३/५८२
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०१३५) मुद्गरकः ।पुं। कर्मरङ्गवृक्षे। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०८२६) मुद्गरक के पर्यायवाची नाम
मोयई कारः कर्मरक: पीतफलः कर्मरश्च मुद्गरकः। मोयई (मोचकी) शाल्मली, भ० २२/२ प० १/३५/१ मुद्गरफलश्च धाराफलकस्तु कर्मारकश्चैव ।।१०८ // मोचका (की) स्त्री। शाल्मलीवृक्षे
कर्मार, कर्मरक, पीतफल, कर्मर, मुद्गरक, मुद्गरफल, धाराफलक तथा कर्मारक ये सब कार के
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०८४७)
मोचकी-स्त्री, वनस्पति०-शाल्मली नाम हैं।
(राज०नि० ११/१०८ पृ० ३६२) अन्य भाषाओं में नाम
(सुश्रुत चिकित्सा २.५४, अष्टांग संग्रह सूत्र ३,२१) हि०-कमरख, करमल । म०-कर्मर, कमलर ।
(आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ०११४२) गु०-कामरांगा, कमरख। बं०-कामरङ्ग। अं०
विमर्श-निघंटुओं में मोचा शब्द मिलता है परन्तु Carambola apple (फेंकरमबोल एपल)। ले0-Averrhoa
मोचकी नहीं। इसलिए इसके पर्यायवाची नाम नहीं दिए Carambola (एवेहोआ कॅरेम्बोला) Fam. Oxalidaceae
जा रहे हैं। (ऑक्सेलिडेसी)।
अन्य भाषाओं में नामउत्पत्ति स्थान-समस्त भारत के उष्ण प्रदेशों में
हि०-सेमर, सेमल ।बं०-शिमुलगाछ, रक्तीसिमुल । विशेषतः बाग बगीचों में यह बहतायत से होता है। म०-कांटे सांवर, लाल सांवर । गु०-शेमलो, सोमुलो।
विवरण-यह फलादिवर्ग की वनौषधि नैसर्गिक ते०-बुरुग चेटु । ता०-शालवधु । मा०-शेमल, सरमलो। कुल के अनुसार चांगेरादि कुल की मानी गई है। खट्टा ___ अंo-Silk Cotton Tree (सिल्क पाटन ट्री)। ले०-Bombax (खटमीठा) और मीठा भेद से यह दो प्रकार का होता । malabaricum DC (बॉम्बक्समालावारिकम्) Fam.
Bombacaceae (बॉम्बेकेसी)।
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__ उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों के नेसी)। वन, उपवन और वाटिकाओं में उत्पन्न होता है। लंका, उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता वर्मा और भारतवर्ष के समस्त उष्ण पर जंगली प्रदेशों है। दक्षिण एवं उत्तर प्रदेश में यह जंगली होता है । बगीचों में पाया जाता है।
में फूलों के लिए यह लगाया हुआ मिलता है। विवरण-इसके वृक्ष बहुत विशाल और मोटे हुआ विवरण-इसके पेड़ प्रायः १० फीट तक ऊंचे होते करते हैं। डालियों पर छोटे-छोटे नुकीले कांटे होते हैं। हैं। स्निग्ध एवं हरिताभ श्वेत, अनेक शाखा प्रशाखायें सतिवन के पत्तों के समान इसके पत्ते एक-एक डंडी के इनके मूल तथा कांड से ही निकलने के कारण ये सघन अंत में ५ से ७ फैले हुए होते हैं। फूल लाल | पुष्पदल गुल्म या झाड़ीदार हो जाते हैं। शाखा के दोनों ओर प्रायः मोटा, लुआवदार एवं २ से ३ इंच लम्बा होता है। फल तीन-तीन पत्तियां एक साथ आमने सामने निकलती हैं। ५ से ६ इंच लम्बे गोलाकार, काष्ठवत् एवं हरे होते हैं पत्ते ४ से ६ इंच लम्बे, लगभग १ इंच चौड़े, सिरे पर
और उनके भीतर रेशम जैसी रूई तथा काले बीज होते नोंकदार, ऊपर से चिकने, नीचे खुरदरे, श्वेत रेखा युक्त हैं। इसके १ से १.५ साल के छोटे वृक्ष के मूल निकाल एवं चिमड़े होते हैं। इनकी मध्य शिरा कड़ी होती है। पत्र कर सुखा लेते हैं जिन्हें सेमल मूसली कहा जाता है। तथा छाल को कुरेदने से श्वेतदुग्ध निकलता है। फूल (भाव० नि० वटादि वर्ग० पृ०५३७) साधारण सुगंधयुक्त श्वेत रक्त एवं गुलाबी रंग के लगभग
१.५ इंच व्यास के तथा व्यस्त छत्राकार होते हैं। फूलों रत्तकणवीर
के झड़ जाने पर ५ से ६ इंच तक लम्बी, पतली, चिपटी, रत्तकणवीर (रक्तकरवीर) लालकनेर
कड़ी एवं गोलाकार फलियां लगती हैं। फलियों के पकने
पर उनके छोटे-छोटे चक्राकार भूरे रंग के बीज श्वेत रोओं रा० २७ जी०३/२८० प० १७/१२६
से युक्त पाये जाते हैं। मूल या जड़ें लंबी पतली प्रायः विमर्श-मलयानम भाषा में कनेर को कणावीरम
श्वेत या रक्ताभश्वेत तथा स्वाद में खारी होती है। इसका कहते हैं संस्कृत भाषा में करवीर नाम प्रसिद्ध है।
सर्वांग विषैला होता है। जानवर इसे नहीं खाते। रक्तकरवीर के पर्यायवाची नाम
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०६०.६१) रक्तकरवीरकोऽन्यो रक्तप्रसवो गणेशकुसुमश्च । चण्डीकुसुमः क्रूरोभूतद्रावी रविप्रियो मुनिभिः ।।१४ ।। रक्तकरवीर, रक्त प्रसव, गणेशकुसुम, चण्डीकुसुम,
रत्तबंधुजीव क्रूर, भूतद्रावी तथा रविप्रिय ये सब लालकनेर के सात
लपुष्पवाला नाम हैं।
(राज.नि. १०/१४ पृ० २६६,३००) दुपहरिया रा० २७ जीवा० ३/२८० प० १७/१२६ अन्य भाषाओं में नाम
असितसितपीतलोहितपुष्पविशेषाच्चतुर्विधो बन्धूकः । हि०-लालकनेर, कनइल। म०-रक्तकरवीर, यह (बन्धूक) कृष्ण, श्वेत. पीत तथा लोहितवर्ण पुष्प तांबडी कण्हर | बं०-लालकरवीगाछ, रक्तकरवी । गौ०- विशेष से चार प्रकार का होता है। लालकरवीगाछ। गु०-राताफूलनी, रातीकणेर ।
(राज०नि० ११/११८ पृ०३२०) क०-कणगिलु । ता०-अलरी । ते०-कस्तूरिपट्टे, गन्नेस। इसके फूल सफेद, सिन्दूरी और लालरंग के होते मल०-कणावीरम्, संथा-राजबाहा । पं०-कनिर अ0- हैं।
(वनौषधि चंद्रोदय भाग ३ पृ० १०४) दिफ्ली सम्मुलहिमार। फा०-खरजहा। अं०-Sweet scented oleander (स्वीट सेंटेड ओलिएण्डर) Rooseberry
रत्तासोग Spurge (रूजबेरी स्पज)। ले०-Neriumodorum soland (नेरियमओडोरम्सोलॅड) Fam. Apocynaceae एपोसाइ.
रत्तासोग (रक्ताशोक) पक्काफल युक्त अशोक ।
रा० २७ जीवा०३/२८० प० १७/१२६
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इसके कच्चे फल का रंग नीला और पकने पर लाल हो जाता है। (शा०नि० पुष्पवर्ग० पृ० ३८४)
विमर्श-लाल रंग की उपमा के लिए रत्तासोग शब्द का प्रयोग हुआ है।
रत्तुप्पल रत्तुप्पल (रक्तोत्पल) लाल कमल
रा० २७ जीवा० ३/२८० प० १७/१२६ रक्तोत्पल के पर्यायवाची नाम
राजीवं पृष्करं रक्तमरविन्दं महोत्पलम।।१४४७।। मनोरमं श्रीनिकेतं, कमलं नलिनं नलम। रक्तोत्पलकोकनदं, हल्लक रक्तसंधिकम् ।।१४४८।।
राजीव, पुष्कर, रक्त, अरविन्द, महोत्पल, मनोरम, श्रीनिकेत, कमल, नलिन, नल, कोकनद, हल्लक, रक्तसंधिक ये रक्तोत्पल के पर्याय हैं।
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ०२६८)
सरमौर और शिमला की पहाड़ियों पर यह विशेष पाया जाता है। इसका कंद लहसुन के कंद के एक भाग के समान, बैल के सींग जैसा व हरे रंग का होता है, पत्ते हल्दी के पत्तों जैसे किन्तु आकार में छोटे व पतले होते हैं। कन्द में भुसी होती है, यह बारह वर्ष हरा रहता है। कन्द के निम्न भाग में ३ या ४ बारीक सूत्र से होते हैं, जो भुसी के अन्दर पाये जाते हैं। वर्षा व शरद में ही हरे भरे रहते हैं, फिर पीले हो जाते हैं।
जब नवजात ऋषभक के पौधे का डण्ठल भमि छोड़कर कुछ ऊंचा बढ़ता है तब कई इंच तक उसक रंग फीका लाल होता है। यह बात जीवक में नहीं पायी जाती। ऋषभक के कंद नीचे केवल दो मुख्य जड़ें होती हैं और वे छोटी-छोटी होती हैं। आकार में लहसुन की समानता रखता है। पत्ते पतले होते हैं, घास की भांति सत्त्व रहित होते हैं, हिमालय में पाया जाता है, बैल के सींग के समान है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ०५३२, ५३३) देखें जीवग शब्द।
रसभेय रसभेय (ऋषभक) ऋषभक, अष्टवर्ग में एक।
प० १/४८/५ ऋषभक के पर्यायवाची नाम
ऋषभो वृषभो धीरो, विषाणी द्राक्ष इत्यपि।
ऋषभ, वृषभ, धीर, विषाणी, द्राक्ष ये ऋषभक के पर्याय हैं।
(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ०६१) अन्य भाषाओं में नाम
सं०-ऋषभ, वृषभ, धीर, विषाणी, द्राक्ष, मातृक, बल्लर, नप, कामद, वीर, ऋषिप्रियाले०-Carpopogon Pruriens (कार्पोपोगान पुरिएन्स)।
विवरण-वैद्य कवि पं०-कलानंदपंतसोलन से लिखते हैं कि मैं कई वर्षों से एक कन्द का प्रयोग कर रहा हूं। मैं इसे ऋषभक समझता हूं, क्योंकि शास्त्रवर्णित सभी गुण इसमें मिलते हैं। यह ४५०० फुट की ऊंचाई से लकर ६ हजार फुट तक मिला, इससे ऊपर पर्वतों पर जाने का मुझे अवसर न मिला। रियासत टिहरी,
रायरुक्ख रायरुक्ख(राजवृक्ष)अमलतास ओ०६ जीवा० ३/५८३
विमर्श-वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०८८६ में राजवृक्ष के ४ अर्थ दिए हैं-आरग्वधवृक्षे, पियालवृक्षे, लंका स्थायिवृक्षे श्योणाकवृक्षे। शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ०१५२ में तीन अर्थ किए हैं-आरग्वधवृक्ष पियालवृक्ष लंकास्थायिवृक्ष । आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ०११८६ में केवल एक अर्थ दिया है-आरग्वधवृक्ष । इसलिए आरग्वध अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। राजवृक्ष के पर्यायवाची नाम
आरग्वधो, दीर्घफलो, व्याधिघातो नराधिपः। आरेवतो राजवृक्षः, शम्पाकः चतुरङ्गुलः ।।६४२।। प्रग्रहो रैवतः पर्णी, कर्णिकारोऽपघातक: आरोग्यशिंबी कल्पद्रुः, स्वर्णद्रुः कृतमालकः ।।६४३।।
आरग्वध दीर्घफल व्याधिघात नराधिप आरेवत राजवृक्ष, शम्पाक, चतुरङ्गुल, प्रग्रह, रैवत, पर्णी, कर्णिकार, अपघातक,आरोग्यशिंबी, कल्पद्र, स्वर्णद्र और कतमालकये १५ नाम आरग्वध (अमलतास) के पर्याय हैं।
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(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ०१७४ )
अन्य भाषाओं में नामहि० - अमलतास, सोनाहली । बं०- सोन्दाली, सोनालु, बन्दरलाठी । म०- बाहवा । क० - कक्केमर । ते ० - रेलचट्टु | गु० - गरमालो । पं० - अमलतास, करंगल, कनियार । ता० - कोन्नेमरं, शरकोन्ने, कोरैकाय । फा० - ख्यारेचम्बर । अ०- ख्यारेशम्बर, ख्यारशम्बर । अo - Pudding Pipe tree (पुडिंग पाइप ट्री) Indian Laburnum (इण्डियन लॅबर्नम् ) Puring Cassia (पर्जिंग केसिया) । ले० - Cassia Fistula Linn (केशिया फिस्चुला लिन० ) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी) ।
उत्पत्ति स्थान - यह प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता
है ।
विवरण - इसका वृक्ष मध्यमाकार का होता है, किन्तु कहीं-कहीं बड़े वृक्ष भी देखने में आते हैं । लकड़ी बहुत मजबूत होती है । १२ से १८ इंच तक की लंबी, सीकों पर ४ से ५ जोड़े पत्ते लगते हैं। जो १.५ से ३.५ इंच लंबे, अंडाकार होते हैं । १० से २० इंच तक की लंबी टहनियों पर सुनहले चमकीले, पीले-पीले रंग के पांच-पांच दलवाले फूलों के घनहरे लगते हैं, जो चैत के अंत से ज्येष्ठ तक वृक्षों को सुशोभित करते हैं। जेठ में पतली-पतली सलाई के समान हरी-हरी फलियां निकलकर वर्षा के अंत तक 1 से 2 फीट लंबी, 1 इंच तक मोटी हरी-हरी फलियां लटकती दिखाई पड़ती हैं। फिर हेमन्त के अन्त से काला रूप धारण करके वसंत में पक जाती हैं। फलियों के भीतर पुरानी चवन्नी बराबर गोल-गोल पतले-पतले काले रस से लिपटे हुए परत रहते हैं। परतों के बीच सिरस के बीज के समान बीज होते हैं।
(भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ० ६८, ६६ )
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रायवल्ली
रायवल्ली (राजवल्ली) करेली
राजवल्ली - स्त्री० करेला ।
भ० २३/६ प० १/४८/४
जैन आगम वनस्पति कोश
(शालिग्रामौषधशब्द सागर पृ०१५२ )
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - करेली, छोटा करेला । बं०-छोटा करला, छोटे उच्छें । म० - कार्ली, क्षुद्रकारली, लघुकारली । गु० - करेटी, कारेलां, कडवाबेला । अ० - Bitter gourd (बिटर गोर्ड) Hairy Mordica ( हेअरी मोर्डिका) । ले०-Monordica Muricata (मोमोर्डिका मुरिकेटा) ।
उत्पत्ति स्थान - प्रायः सब प्रान्तों में इसे रोपण करते हैं ।
विवरण- बड़े और छोटे के भेद से यह (करेला ) दो प्रकार का होता है। लेटिन नाम मेमोर्टिका चेरटिया बड़े का है। इसे करेला (कारवेल्लक) कहते हैं। छोटे का लेटिन नाम मेमोर्डिका मुरिकेटा है। इसे करेली (कारवेल्ली) कहते हैं। इन दोनों के केवल आकार प्रकार में ही अंतर है।
करेली १ से ३ इंच या इससे छोटी क्षुद्र अण्डाकार होती है तथा इसकी बेल भी उतनी ही लम्बी नहीं होती । रंग में करेला या करेली हरी ही होती है, किन्तु करेला कहीं श्वेत रंग का भी होता है । करेली की लता वर्षायु, पत्र अनेक असमान भागों में विभक्त, गोलाकार, रोमश तथा लगभग १ से ३ इंच व्यास के होते हैं। पुष्प पीतवर्ण एकलिंगी तथा फल मध्य भाग में मोटे तथा दोनों ओर छोर पर क्रमशः नुकीले पृष्ठ भाग पर त्रिकोणकार उभारयुक्त होते हैं। पकने पर पीले पड़ जाते हैं तथा गूदा और बीज लाल हो जाते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०१६०)
....
रालग
लग (रालक) कंगूधान्य का भेद ।
कंगुगहणेणं उड्डकंगुए कंगुभेदा सो राओ ।
भ० २१/१६ प० १/४५/२ गहणं, जे पुण अवसेसा (दशवै० अग० चू० पृ० १४० ) कंगु शब्द से ऊर्ध्व (सर्वोत्तम) कंगु लेना चाहिए । कंग के शेष भेद रालक कहलाते हैं।
विवरण - काली, लाल, सफेद तथा पीली इन भेदों से कंगुनी ४ प्रकार की होती है। इनमें से पीली कंगुनी ही सर्वोत्तम होती है । (भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६५६)
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जैन आगम वनस्पति कोश
विमर्श - रालग शब्द प्रस्तुत प्रकरण में ओषधिवर्ग (धान्य नामों) के अन्तर्गत है । अगस्त्यचूर्णि में, काली लाल और सफेद कंगु का नाम रालक है इसलिए यहां कंगू धान्य के भेद अर्थ ग्रहण किया गया है। निघंटुओं में इसका अर्थ नहीं मिला है ।
रिट्ठग
रिट्ठग (रिष्टक) रक्तशिग्रु, लालसहिजना
उत्त० ३४/४
रिष्टकः । पुं । रक्तशिग्रुवृक्षे । (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ८६८) विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में रिट्टगशब्द काले रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। सहिजना के रंग के होते हैं।
पुष्प
काले
रुरु
रुरु ( रूरू) वन रोहेडा
प० १/४८/२
रुरु । पुं। (सं) एक फलदार वृक्ष ।
( बृहत हिन्दी कोश)
रुरु पुं । वनरोहीतके । ( वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ८६८)
रूवी
रूवी (रूपी) सफेदआक
रूप (पी) का । स्त्री० । महार्कवृक्षे. श्वेतार्के ।
प० १/३७/१
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ८६८) विमर्श-रूपी शब्द और रूपिका शब्द दोनों स्त्रीलिंग शब्द हैं और एक समान हैं। रूपी शब्द निघंटुओं में उपलब्ध न होने से रूपिका के पर्यायवाची नाम दे रहे हैं ।
रूपिका के पर्यायवाची नाम
सूर्याह्वोर्क: सदापुष्पी, रूपिकासूर्यपुष्पकः । । १५३१ । । आस्फोता जंभला क्षीरी, क्षीरपर्णो विकीरणः । क्षतक्षीरी दुग्धिनिका, पुष्पी कीरतनूफलः । ।१५३२ ।। सूर्याह्व, सदापुष्पी, रूपिका, सूर्यपुष्पक, आस्फोता. जंभला, क्षीरी, क्षीरपर्ण, विकीरण क्षतक्षीरी, दुग्धिनिका, पुष्पी, कीरतनूफल ये अर्क के पर्याय हैं।
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(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ० ६३० )
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - मंदार, सफेद आक । ब० - आनंद, श्वेत आकंद । म० - रूई, आक। गु० - आकडो । क० - एक्क, मंदारपक्के | ते० - मंदारमु, जिल्लेडु । ता०- बदाबडम, एक्कु । मल०- एरिक्का । अ० - उषर, उषार । फा० - खरक, जहूक | अंo - Mudar (मडार) Gigantic Swallow wort ( जायगॅन्टिक स्वॅलोवर्ट) । ले० - Calotropis gigantea (Linn) R. Br. ex Ait (कॅलोट्रोपिस् जाइगेन्टी लिन०) Fam. Asclepiadaceae (एस्क्लेपिएडॅसी) ।
आक. 2. ( सफद)
उत्पत्ति स्थान - यह हिमालय में ३००० फीट की ऊंचाई तक तथा पंजाब से लेकर दक्षिणभारत, आसाम, लंका एवं सिंगापुर में ऊसर भूमि में पाया जाता है। यह मलायाद्वीप तथा दक्षिण चीन में भी होता है ।
विवरण- इसका क्षुप या छोटा वृक्ष बहुवर्षायु तथा से १० फीट तक ऊंचा रहता है। पत्र अवृन्त मोटे, क्षोदलिप्त हरे रंग के, अंडाकार या अभिलट्वाकार आयताकार ४ से ५ इंच लंबे, डेढ़ से ४ इंच चौड़े एवं पर्णतल की तरफ संकुचित हृदयाकार या प्रायः कण्ड को घेरे रहते हैं। पुष्प १.५ से २ इंच व्यास के, गंधहीन तथा अन्तर्दल फैले हुए एवं नील लोहित या श्वेतरंग के होते हैं। फल करीब ४ इंच लंबे, मुडे हुए एवं फूलों से एक सेवनीक फल (Follicle) रहते हैं। बीज महीन सिल्क की तरह गुच्छेदार रूई से युक्त तथा छोटे एवं चिपटे होते हैं। इसकी शाखाओं तथा पत्रादि से दुग्ध निकलता है। (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग ० पृ० ३०४)
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रेणुया
रौहिषक के पर्यायवाची नाम
अन्यद्रौहिषकं दीर्घदृढकाण्डो दृढच्छदम् ।। रेणुया (रेणुका) संभालु के बीज प०१/४८/५।
यज्ञेष्टं दीर्घनालश्च, तिक्तसारश्च कुत्सितम्।। रेणुका के पर्यायवाची नाम
दीर्घ रौहिषक,दृढकाण्ड,दृढच्छद, यज्ञेष्ट, दीर्घनाल, रेणुका राजपुत्री च, नन्दिनी कपिला द्विजा।।।
तिक्तसार, कुत्सित ये दीर्घरौहिष के पर्यायवाची नाम हैं। भस्मगंधा पाण्डुपुत्री, स्मृता कौन्ती हरेणुका ।।१०४ ।।
(शा०नि० गृडूच्यादिवर्ग० पृ०२७६) रेणुका, राजपुत्री, नन्दिनी, कपिला, द्विजा,
अन्य भाषाओं में नामभस्मगंधा, पाण्डुपुत्री, कौन्ती, हरेणुका ये सब रेणुका के
हि-रोहिस, रूसाघास, रतहर, मिरचागंध । पर्यायवाची शब्द हैं। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग० २५२)
बं०-अगमघास। म०-रोहिषगवत। क०-डुल्लु । अन्य भाषाओं में नाम
फा०-खवालमागून, खलालमामून, खबालमामून ।। हि०-रेणुका, रेणुक, संभालू के बीज । गु०-हरेणु।
गु०-रोंडसो। अंo-Rasha grass (रोषाग्रास)। ले०म०-रेणुक बीज । इरा०-पंजन गुस्त । अ०-अथलक् ।
Cymbopogon Schoenanthus (साइम्बोपोगोन स्कीनैनथस ले०-VitexagnusCastusLinn. (वाइटेक्स एग्नस् कास्टस्
लिन०) Fam, gramineae (ग्रेमिनी)। लिन०) Fam. Verbenaceae (हर्बिनॅसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, पश्चिम एशिया, भूमध्यसागरीय प्रदेश आदि प्रदेशों में होता है। देहरादून के वैज्ञानिक बाग' में यह लगाया हुआ है।
विवरण-इसका गुल्म या वृक्ष होता है जिसकी शाखाएं चौपहल होती है। पत्ते लंबे पत्रनाल से युक्त, करतलाकार संयुक्त, पत्रक पांच कभी-कभी सात भी, भालाकार और लंबे नोक वाले होते हैं। फल साधारण मटर के बराबर, अण्डाकृति तथा धूसरवर्ण के होते हैं। बाह्यदल एवं वृन्त इसमें लगा रहता है। ये फल बहुत कड़े रहते हैं तथा काटने पर इसके अंदर ४ खंण्ड दिखलाई देते हैं, जिनमें एक-एक छोटा चिपटा बीज रहता है। भारतीय निर्गुण्डी के फल से ये फल करीब आधे छोटे होते हैं। (भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग० पृ० २५२)
M
रोहियंस रोहियंस (रौहिषक) दीर्घ रौहिष तृणप० १/४२/१
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में रोहियंस शब्द तृणवर्ग के अन्तर्गत है। वनौषधिशास्त्रों में तृण के नामों में रौहिष और रौहिषक ये दो शब्द मिलते हैं। रोहियंस शब्द में स और य वर्ण का व्यत्यय होने से रौहिषक शब्द बन सकता है। इसलिए यहां संस्कृत का रौहिषक शब्द ग्रहण किया जा रहा है।
उत्पत्ति स्थान-यह मध्यभारत, दक्षिण और पश्चिमोत्तर प्रान्त तथा पंजाब में अधिक पाई जाती है। यह वन उपवनों में आप ही आप उत्पन्न होती है और वाटिकाओं में भी रोपण की जाती है।
विवरण-यह ५ से ६ फीट ऊंची एक सुगंधित घास है। इसकी जड़ बारहों मास जीवित रहती है। काण्ड
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चिकने पत्रयुक्त तथा प्रायः रक्ताभ होते हैं। पत्ते बहुत लकुच, क्षुद्रपनस, लिकुच, डहु ये लकुच के लम्बे, क्रमशः पतले चिकने, कोमल, नुकीले, कांडासक्त संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग० पृ०५५६) तथा आधार पर गोल या तांबूलाकार होते हैं। पत्तों को अन्य भाषाओं में नाममसलने से सुगंध आती है। पुष्प लाल बादामी रंग के हि०-बडहल, बडहर, बरहर, बरहल। बं०-डेओ, पत्रकोश से ढकी हुई विदण्डिक मंजरियां आती हैं। वर्षा मादार, डेलो, डहुया। म०-वोटोंबा। गु०-लकुच । एवं शीतकाल में फूल-फल आते हैं। इसकी पत्तियों से ताo-इलगुसम। ते०-कम्मरेगु। अंo-Monkey jack एक सुगंधित तेल निकाला जाता है। कोमल घास से तेल (मॅकीजॅक)। ले०-Artocarpus Lakoocha Roxb अधिक एवं उत्तम प्रकार का निकलता है। इसका रंग (आर्टोकार्पस् लकूच) Fam. Moraceae (मोरेसी)। फीका ललाई लिये जामुनी रंग का होता है। इसमें गंध उत्पत्ति स्थान-यह गरम प्रान्तों में कुमायुं से पूरब गुलाब जैसी तथा स्वाद में यह अदरख की तरह चरपरा की ओर और दक्षिण में ट्रावनकोर तक तथा अनेक प्रान्तों एवं रुचिकर होता है।
में उत्पन्न होता है। (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ०३८३)
विवरण-बडहर का वृक्ष २० से ३० फीट ऊंचा
होता है। इसके पत्ते ५ से १२ इंच लम्बे, २ से ६ इंच लउय
चौड़े, अंडाकृति तथा रुक्ष होते हैं। पुष्प एकलिंगी होते लउय (लकुच) बडहर
हैं। फल गोल गांठदार, २ से ४ इंच व्यास के होते हैं। भ० २२/३ ओ० ६ जीवा० १/७२; ३/५८३ प० १/३६/३ कच्चे में हरे तथा स्वाद में खट्टे और पकने पर मटमैले
पीले रंग के और स्वाद में खट्टे मीठे होते हैं। इनके भीतर कटहर के समान रेशा और बीज होते हैं पर कटहर से छोटे होते हैं। इसलिए इसको क्षुद्रपनस भी कहते हैं। वसंत ऋतु में यह फूलता तथा वर्षा में फलता है। इसके फल को निकृष्टतम बतलाया गया है।
(भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग०पृ०५५६)
AAS
KANTA
शारव
लवंगदल लवंगदल (लवङ्गदल) लौंग
रा०२६ जीवा० ३/२८२ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में श्वेतरंग की उपमा के लिए लवंगदल शब्द का प्रयोग हुआ है। लवङ्ग के पर्यायवाची नाम
लवङ्गं देवकुसुमं, भृङ्गारं, शिखरं लवम्।। दिव्यं चन्दनपुष्पं च, श्रीपुष्पं वारिसंभवम् ।।३६ ।।
लवङ्ग, देवकुसुम, भृङ्गार, शिखर, लव, दिव्य, चन्दनपुष्प, श्रीपुष्प और वारिसंभव ये लवंग के पर्याय हैं।
(धन्व०नि० ३/३६ पृ० १४८, १४६) अन्य भाषाओं में नाम
हि-लोंग, लौंग, लवंग । बं०-लवग | म०-लवग।
फल
पुष्प काट
लकुच के पर्यायवाची नाम
लकुचः क्षुद्रपनसो, लिकुचो डहुरित्यपि।।
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गु० - लवींग | क० - लवंग कलिका, रूंग । ते० - करवप्पु लवंगमु । ता० - किरांबु । मा० - लोंग । फा० - मेखक । अ० - करनफल, करन् फूल । अंo - Cloves (क्लोवस्) । ले०-Caryophyllus aromaticus linn (कॅरियोफालस् एरोमॅटिकस् लिन०) Eugenia aromatica Kuntze (यूजेनिया एरोमॅटिका कुंझे) Fam. Myrtaceae (मिर्टेसी)।
लौंग.
उत्पत्ति स्थान- इसका वृक्ष मोलुक्काद्वीप में नैसर्गिक रूप से उत्पन्न होता है। झंजिबार तथा पेम्बा में इसकी बहुत खेती की जाती है तथा करीब ८० प्रतिशत लौंग की पूर्ति वहीं से होती है। पेनांग, मेडागास्कर, मॉरिशस् एवं सीलोन आदि स्थानों में भी इसकी खेती की जाती है। भारतवर्ष में दक्षिण भारत 'अल्पमात्रा में इसकी खेती का प्रयत्न किया गया है।
विवरण- इसके वृक्ष प्रायः १२ से १३ हाथ ऊंचे और सतेज होते हैं। देखने में बहुत सुहावने लगते हैं। इसकी लकड़ी कठोर होती है तथा इस पर धूसर वर्ण की चिकनी छाल होती है । पत्ते अभिमुख, सवृन्त, ४ इंच लम्बे, २ इंच चौड़े, लट्वाकर - आयताकार । फलक मूल एवं अग्र दोनों पतले एवं लम्बे । पत्रतट अखण्ड किन्तु लहरदार एवं मध्यनाडी के दोनों तरफ अनेक समानान्तर नाडियां होती हैं। पत्ते चमकीले हरे रंग के होते हैं तथा मसलने से इनमें सुगंध आती है। पुष्प हलके नीलारुण रंग के ६ मि.मी. लम्बे तथा अत्यन्त तीव्र आह्लादकारक सुगंध
जैन आगम वनस्पति कोश
होते हैं। इस वृक्ष की सुखी हुई पुष्प कलिकाओं को लौंग कहा जाता है। ये पहले हरी होती हैं। बाद में जब इनका रंग किरमिज हो जाता है तब इन्हें वृक्षों से तोड़कर सुखा लिया जाता है। इसी समय इनमें तैल की मात्रा अधिकतम रहती है। लौंग १० से १७.५ मि.मी. लम्बी तथा रक्ताभ बादामी रंग की होती है। इसके नीचे का भाग जो हाइपॅन्थियम से बना होता है वह चौकोर तथा कुछ चपटा होता है तथा नख से दबाने पर उसमें से तेल निकलता है। इसके अग्रभाग में दो कोष रहते हैं जिनके अंदर अक्षलग्न जरायु से लगे हुए अनेक बीजीभव होते हैं। लौंग के ऊपर के भाग में मोटे, नोकीले तथा फैले हुए ४ बाह्यदल होते हैं । जिनके बीच में गुम्बजाकृति हल्के रंग के, न फैले हुए, पतले तथा अनियतारूढ़ ४ अन्तर्दल होते हैं । अन्तर्दलों के अंदर अनेक अंदर की तरफ मुड़े हुए पुंकेशर होते हैं तथा कड़ा होता है। लौंग में अत्यन्त तीव्र मसालेदार गंध होती है तथा इसका स्वाद कटु होता है। (भाव० नि० कर्पूरादि वर्ग० पृ०२१६)
DOOD
लवंगपुड
लवंगपुड (लवंगपुट) लवंग
रा० ३०
विमर्श - गंधकी उपमा के लिए लवंगपुड शब्द का प्रयोग हुआ है।
लवंगरुक्ख
लवंगरुक्ख (लवङ्गरूक्ष) लवंग का वृक्ष
भ० २२/१ प० १/४३/२
विवरण - यह कर्पूरादि वर्ग और जम्बावादि कुल का ३० से ४० फीट ऊंचा सदा बहार वृक्ष होता है। इसकी बहुसंख्यक नर्म और अवनत शाखायें चारों ओर विस्तृतरूप से फैली हुई होती हैं। छाल फीकी पीताभ धूसरवर्ण और मसृण । शाखाओं के दोनों ओर बहुत संख्या में हरे रंग के ३ से ४ इंच लम्बाई के पत्र आमने सामने क्वचित् ही अन्तर पर अखण्ड बीच में चौड़े दोनों सिर पर नोंक वाले होते हैं। देखें लवंग शब्द ।
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में लवंग रुक्ख शब्द वलय
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वर्ग के अन्तर्गत है। इसलिए लवंग शब्द न होकर लवंगरुक्ख शब्द है, जिसकी छाल होती है।
है। विशेषकर पश्चिमोत्तर प्रदेश, गढ़वाल, कुमाऊं, पंजाब एवं काश्मीर आदि में अधिक उत्पन्न होता है।
विवरण-इसका बहुवर्षायु क्षुप करीब १ फुट तक ऊंचा होता है। पत्र चिपटे लम्बे, १ इंच से चौड़े एवं इनका अग्र लम्बा होता है। पत्रकोश ३ से ४ इंच लम्बा होता है तथा पुष्प व्यूह को घेरे रहता है। पुष्पव्यूह सवृन्त मूर्धजा, छोटे, घने एवं पतले, शुष्क कोणपुष्पकों से युक्त होते हैं। इसके कंद को लहसुन कहा जाता है। जिसके अन्दर ८ से २० जावा होते हैं। इसमें एक विशिष्ट प्रकार की तीव्रगंध तथा इसका स्वाद विशिष्ट प्रकार का होता
(भाव०नि०हरीतक्यादिवर्ग०पृ० १३२)
लसणकंद लसणकंद ( ) लहसुनकंद उत्त०३६/६७
विमर्श-लसण शब्द गुजराती और मारवाड़ी भाषा का है। संस्कृत में लशुन शब्द है। लशुन के पर्यायवाची नाम
लशुनस्तु रसोनः स्याद्, उग्रगन्धो महौषधम्।। अरिष्टो म्लेच्छकन्दश्च, यवनेष्टो रसोनकः ।।२१७।।
लशुन, रसोन, उग्रगन्ध, महौषध, अरिष्ट, म्लेच्छकन्द यवनेष्ट, रसोनक ये नाम लहसुन के हैं।
(भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ०१३०) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-लहसुन, लशुन | बं०-रसुन | म०-लसूण। क०-बेल्लुल्लि । ते०-वेल्लुल्लि , तेल्ललिगड्डा । ता०- बल्लइपुंडु । गु०-लसण । सिधि०-पोम | आसा०-नहरू। भोटि०-गोक्पस । फा०-सीर । अ०-सूमफूम । यू०- स्कूइँन | अं०-Garlic (गार्लिक) । ले०-AlliumSativum linn (एलियम् सटाइवम् लिन०) Fam. Liliaceae (लिलिएसी)।
लोद्ध लोद्ध (लोघ्र) लोध
भ०२२/३ ओ०६ जीवा०१/७२:३/५८३ प०१/३६/३ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में लोद्ध शब्द बहुबीजक वर्ग के अन्तर्गत है। लोध की गुठली में दो-दो बीज होते है। लोध्र के पर्यायवाची नाम
लोध्रो रोध्रः शाबरकस्तिल्वकस्तिलकस्तरुः । तिरीटक: काण्डहीनो, भिल्ली शम्बरपादपः ।।१५५।।
लोध्र, रोध्र,शाबरक, तिल्वक, तिलक, तिरीटक, काण्डहीन, भिल्ली, शम्बरपादप ये लोध्र के पर्याय हैं।
(धन्व०नि० ३/१५५ पृ०१७८) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-लोध । बं०-लोध, लोध्र । म०-लोध, लोध्र। क०-लोध, लोध्र । गु०-लोधर। ते०-लोदधगचेट् । अ०-मुगाम |so-Symplocos Bark (सिम्प्लोकोस् बाक) Lodh (लोध)। ले०-Symplocos racemosa, Roxb (सिम्प्लोकॉस् रेसिमोसा राक्स) Fam. Symplocaceae (सिम्प्लोकेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह भारत के पूर्वोत्तर प्रान्त नेपाल, कुमाऊं से आसाम, बंगाल, छोटा नागपुर, वर्मा आदि प्रदेशों के जंगल और छोटे पहाड़ों में पाया जाता है।
विवरण-यह हरीतक्यादिवर्ग और लोध्रादि कुल का एक छोटी जाति का हमेशा हरा रहने वाला वक्ष होता
L
Bane
ICAL
607. Allium Sativum Linn. (1
)
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में बोया जाता
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Portulaca Quadrifida linn (पोटुलेका क्वाड्रीफीडा) Fam. Portulacaceae (पोटुलेकेसी)।
है। इसके पत्ते लम्बे, गोल, नोंकदार, चिकने १.७५ से ५ इंच तक लम्बे कंगूरेदार होते हैं। पत्रदण्ड १/२ इंची। इस वृक्ष की छाल बहुत मोटी और रेशेवाली होती है। पुष्पदंड २ से ४ इंची। फूल पीले रंग के सुगन्धित और सुंदर होते हैं। पुष्पस्त्वक् १/२ इंची। फूल में पुंकेसर करीब १०० के होते हैं। गर्भाशय में ३ विभाग लोमयुक्त होते हैं। फल १/२ इंच लम्बा, १/८ इंच चौड़ा, शंकु के आकार का होता है। फल पकने पर बैंगनी रंग का होता है। इस फल के अंदर एक कठोर गुठली रहती है। उस गुठली में दो-दो बीज रहते हैं। इसकी छाल गेरुए रंग की और बहुत मुलायम होती है। इसकी छाल और पत्तों से रंग निकाला जाता है। लोध्र की छाल ऊपर से सफेद तुरंत टूट जाय ऐसी, और ऊपर खड़े चीर पड़े हुए, तोड़ने से अंदर से सहज लालरंग की और खुशबु वाली होती है। नवम्बर से फरवरी तक फूल आते हैं और मार्च में जून तक फल आते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०१६८)
52.
Portulaca quadrifida Linn. (
शनिश्रा)
उत्पत्ति स्थान-छोटी लोणा एक प्रसिद्ध शाक है, जो सब जगह होता है। यह जमीन पर फैला हुआ होता
विवरण-शाखा सूत जैसी पतली तथा सन्धि से मल निकले हए रहते हैं। पत्ते १/५ से १/३ इंच विपरीत अंडाकार या अंडाकार-भालाकार एवं अल्पवृन्त युक्त होते हैं। पष्प पीले होते हैं। यह ललाई लिये हरे रंग की एवं स्वाद में खारी और खट्टी होती है।
(भाव०नि० शाकवर्ग०पृ०६७०)
लोयाणी लोयाणी (लोणिका) छोटीलोणी, नोनीसाग
प०१/४८/६ विमर्श-लोयाणी शब्द में णी और या का व्यत्यय होने से लोणिया शब्द बनता है जिसकी संस्कृत छाया लोणिका बनती है। लोणिका के पर्यायवाची नाम
लोणिकोक्ता बृहच्छोटी, कुटीरस्तु कुटिअरः दुन्दुरःस्याद्गुडीरीकः,पिण्डीपिण्डीतकस्तथा।।५२ ।।
लोणिका बृहच्छोटी, कुटीर, कुटिअर, दुन्दुर, गुडीरीक, पिण्डी, पिण्डीतक ये लोनियां और कुटीर के नाम हैं।
(मदन०नि० शाकवर्ग०७/५२) अन्य भाषाओं के नाम
हि०-छोटीलोणा, नोनीसाग, छोटी लोनिया, जंगली लोनिया। बं०-क्षुद्रेणुनी, वनणुनी। म०-भुई घोल, लहान घोल । गु०-लुणी । क०-गोलि। ते०-पहल कुर | ता०-कोरिल कीरई। अ०-बुल्कतुल्हमका । ले०
लोहि लोहि (लोहिन्) रोहीतक
प०१/४८/१ लोही (इन्) ।पुं। रोहितकवृक्षे।
(वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०६२२) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में (१/४८/१) में लोहिशब्द है। जिसका अर्थ रोहीतक (रोहेडा) है। आगे प० १/४८/२ में सस शब्द है। जिसका अर्थ वन रोहेडा है। पाठान्तर में लोहि के शब्द के स्थान पर लोहिणी शब्द
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है। इसलिए एक स्थान पर लोहि और दूसरे स्थान पर मांसरोहिणी, अतिरुहा, वृत्ता, चर्मकषा, विकसा, लोहिणी शब्द ग्रहण कर रहे हैं। लोहिणी के दो अर्थ हैं। मांसरोही तथा मांसरुहा ये सब रोहिणी के सात नाम हैं। यहां पर एक अर्थ दिया जा रहा है। दूसरा अर्थ आगे दिया एक दूसरे प्रकार की रोहिणी होती है उसे मांसी कहते जा रहा है।
हैं। मांसी, सदामांसी, मांसरोहा, रसायनी, सुलोमा लोहिणी (लोहिनी) श्वेतपुष्पवाली अपराजिता लोमकरणी, रोहिणी तथा मांसरोहिका ये सब मांसी के लोहिनी के पर्यायवाची नाम
नाम हैं।
(राज०नि०१२/१४५,१४६ पृ०४२५,४२६) महाश्वेता श्वेतधामा, श्वेतस्यन्दापराजिता ।।८६७।। अन्य भाषाओं में नामकटभी किणिही ज्ञेया, लोहिनी गिरिकर्णिका। हिo-मांसरोहिणी, रोहण, रोहन, रक्तरोहण टुक । शिरीषपत्रा कालिन्दी, विषघ्नी शतपद्यपि।।६६८।। म०-रोहिणी, मांसरोहिणी, पोटर | बं०-रोहन, रोहिणा। श्वेतपुष्पा वाजिखुरा श्वेतपाटलिपिण्डिका।। बम्बई-रोहन। गु०-रोहिणी। काठि०-रोना। ता०
महाश्वेता, श्वेतधामा, श्वेतस्यन्दा, अपराजिता, कटभी सोमादमम्, सेम्मारसु, सुमी। ते०-सोमीदा। क०-सुम्बी, किणिही, लोहिनी, गिरिकर्णिका, शिरीषपत्रा, कालिन्दी स्वामी मारा। उर्दू०-रोहन । अं०-Red wood tree (रेड विषघ्नी, शतपदी, श्वेतपुष्पा, वाजिखुरा, श्वेतपाटलि, उड ट्री)। ले०-soymnda Febrifuga A.Guss (सोयमिडा पिण्डिका ये पर्यायवाची नाम किणिही के हैं।
फेब्रिफ्यूगा ए.जस)। (कैयदेव नि० ओषधिवर्ग०पृ० १६१,१६२) जन जातियों में ऐसी धारणा है कि ताजे शस्त्रक्षत
पर रोहिणी छाल का रस लगाने से यह श लोहि
करता है। संभवतः मांसरोहिणी संज्ञा का यही आधार है। लोहि ( ) रोहिणी, रोहन, मांसरोहिणी
(वनौषधि निर्देशका पृ०३०१)
उत्पत्ति स्थान-रोहन के वृक्ष भारत के दक्षिण जीवा०१/७३ प०१/४८/१
पश्चिम, मध्य उत्तर भाग, राजस्थान की अरावली पर्वत विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में लोहि शब्द कंदवर्ग की
श्रेणियों, पंजाब, मिर्जापुर की पहाड़ियों, छोटा नागपुर, वनस्पतियों के साथ है। मूल पाठ में लोहि शब्द है और
सीमा प्रान्त आदि के खुश्क जंगलों में अधिक होती है। पाठान्तर में लोहिणी शब्द है। रोहिणी (मांसरोहिणी) कंद
विवरण-यह गुडूच्यादि वर्ग और निम्बादि कुल का है इसलिए यहां लोहिणी शब्द और उसका अर्थ रोहिणी
रोहण का वृक्ष बहुत ऊंचा होता है। किन्तु पथरीले पर्वतों ग्रहण किया जा रहा है।
में २० से ३० फीट की ऊंचाई में देखने में आते हैं ।इसका ___कैयदेव निघंटु में कन्दाः शीर्षक के अन्तर्गत
तना १/२ से १ या २ फीट व्यास में होता है। ये लंबा विदारी, क्षीरविदारी, वज्रकंद, सूरण, वज्रवल्ली
सीधा, तरसा के समान और गोल होता है। इसमें शाखायें (अस्थिसंहार) वाराही, मांसरोहिणी, लक्ष्मण, अलम्बुषा,
छोटी-छोटी कितनी ही निकली हुई होती हैं। पान बहुत मुशली आदि २२ नाम की वनस्पतियों के पर्यायवाची नाम
लंबे, नीम की सलाई के समान, सलाई पर आये हुए तथा उनका गुण धर्म दिया गया है। इनमें मांसरोहिणी
रहते हैं, फूल सूक्ष्म आम के बौर के समान फाल्गुन के भी एक है और उसको कंद माना है।
अंत में आते हैं। फल मृदंगाकृति के सेमन से कुछ छोटे, लोहिणी (रोहिणी) मांस रोहिणी।
भूरे .लाल रंग के होते हैं । ये चातुर्मास के अंत में पकते रोहिणी के पर्यायवाची नाम
हैं। मूल की लकड़ी सफेद या लाल रंग की होती है। मांसरोहिण्यतिरुहा, वृत्ता चर्मकषा च सा।
छाल मोटी लाल रंग की और इसके ऊपर का छिलका विकसा मांसरोही च, ज्ञेया मांसरुहा मुनिः ।।१४५।। भूरे रंग का खड़ बचड़ा होता है। गन्ध कडवी, स्वाद अन्या मांसी सदामांसी, मांसरोहा रसायनी। कषैला और कडवा होता है। शाख की लकड़ी ललाई सुलोमा लोमकरणी, रोहिणी मांसरोहिका ।।१४६ ।। लिये हए रंग की और इसके ऊपर की छाल राख के
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रंग की होती है। यह दलदार कुछ पोची और अन्दर से वञ्जल-पु०। वनस्पति० वेतसः सुश्रुत चिकित्सा ५. लाल, गंध कडवी और स्वाद कषैला कड़वा होता है। ८ अष्टांग संगह सूत्र १६.३५ अष्टांग हृदय सूत्र १५.४१) शाखाओं की छाल भूरे सफेद रंग की होती है । शाख पर जलवेतस
(आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ०१२५५) अनियमित छापें और सक्ष्म छीटें होते हैं। पत्र एकान्तर वञ्जल के पर्यायवाची नामआये हए होते हैं। ये ज्यादा करके शाखाओं के सिरे पर
वेतसो निचुलः प्रोक्तो, वजुलो दीर्घपत्रकः । घने होते हैं | पत्र नीम के पत्तों की तरह सली अर्थात्
कलनो मअरीनम्रः, सुषेणो गन्धपुष्पकः ।।१०६ ।। मुख्य शलाका पर आये हुए होते हैं । शलाका मूल में मोटी वेतस, निचुल, वझुल, दीर्घपत्रक, कलन, मअरीनम्र
और आगे जाकर पतली होती जाती है। ये ८ से २० इंच सुषेण और गन्धपुष्पक ये वेतस के पर्याय हैं। लंबी होती है। इन पर ६ से २० पान आमने सामने जोड़ी
(धन्व०नि० ५/१०६ पृ०२५२) से आये हुये हाते हैं। पुष्पमंडल पत्रकोण से और शाखाओं अन्य भाषाओं में नामके किनारे पर आये हुए होते हैं। फूल हरापन लिये सफेद हिo-जयमाला. सकलवेत. बंद। म०-वालअ । १/४ इंच से ३ लाइन व्यास का और नीम के फूल की बं०-पानिजामा। ता०-अत्रपलै। ते०-एतिपाल। गंध से मिलती मीठी गंध वाले होते हैं। पुंकेसर १० होती फा०-बेदसादा, बेदलैला । अ०-खिलाफ, सफसाफ। हैं। ये चक्राकार आई हुई होती हैं। स्त्री केसर १ होती ले०-Salix tetraspermaRoxb (सॅलिक्स टेट्रास्पर्मा राक्स) है। गर्भाशय ५, पोल का हरे रंग का होता है। नलिका Fam. Salicaceae (सॅलिकॅसि)। छोटी और सिरे पर चौड़ी और रसभरे मुख वाली होती
उत्पत्ति स्थान-इसका वक्ष प्रायः नदीनालों के है। फल बीच में चौड़े और दोनों सिरों पर थोड़े संकड़े, किनारे पाया जाता है। हिमालय में ६००० फीट की ऊंचाई हरे, चमकीले और पीलास लिये हुए हरे रंग के होते हैं। तक यह होता है। काश्मीर तथा पश्चिमोत्तर प्रान्त में इसे बीज चिपटे १/२ इंच लम्बे और कुछ कम चौड़े होते हैं। लगाते हैं। इस बीज के दोनों सिरे, इस पर आया हुआ सफेद पड़ विवरण-इसका वृक्ष साधारण ऊंचा तथा सुन्दर का किनारा बढ़ा हुआ होता है। ऐसे किनारे वाले बीज होता है । छाल कृष्णाभ, तन्तुमय, चिमड़, कड़वी, कषाय को अंग्रेज वनस्पति शास्त्री 'पंख वाले बीज' यह नाम तथा कुछ सुगंधित होती है। पत्ते ३ से ६ इंच लम्बे, दिया है । मींगी पतली, चमकती और कड़वी होती है परन्तु रेखाकार-भालाकार चिकने, पत्रोदर हरा, पत्रपृष्ठ सफेद कड़वायन जीभ पर लम्बे समय तक नहीं रहता। घाव एवं पत्रवृन्त लाल रंग का होता है। पुष्प सफेदी लिये को जल्दी रोपण करती है इसलिए रोहिणी नाम है। व्रण पीले और कुछ सुगंधित मंजरियों में आते हैं। फल करीब को जल्दी भरकर नयी चमडी जल्दी ले आती है इसी
५ इंच लम्बा होता है। प्रत्येक फल में ४ से ६ बीज होते से चर्मकरी कहते हैं।
हैं। इसकी छाल एवं पत्र का चिकित्सा में उपयोग किया (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०११६, ११७, ११८) जाता है। इसके लचीले पतले काण्ड से टोकरियां बनायी
जाती हैं। इसकी अन्य उपजातियों को वेत, लैला, मंजनूं ल्हसणकंद
तथा भैंसा आदि नामों से पुकारा जाता है। ल्हसणकंद ( ) लहसुन प०१/४८/४३
(भाव०नि०गुडूच्यादिवर्ग०पृ०३६३) देखें लसणकंद शब्द।
वंस वंजुल
वंस (वंश) वांस वंजुल (वझुल) जल वेतस, जलमाला
भ०२१/१७ प०१/४१/२ ठा०१०/८२/१
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वंश के पर्यायवाची नाम
वंशो वेणु र्यवफलः, कार्मुकस्तृणकेतुकः । त्वक्सारः शतपर्वा च, मस्करः कीचकस्तथा । ।१२२ ।। वंश, वेणु, यवफल, कार्मुक, तृणकेतुक, त्वक्सार, शतपर्वा, मस्कर और कीचक ये वंश के पर्याय हैं । ( धन्व० नि०४ / १२२ पृ०२१४ )
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - वांस । गु० - वांस । म० - बांबू । बं०- बांश । ते० - बेदरू, बोंगा। ता० - मुंगिल । कोल० - कटंगा । मा० - बांब । सन्ताल० - माट । अ० - कसब । अं०Bamboo (बांबू) । ले० - Bambusa arundinacea Willd (बांबुसा अरुन्डिनेसिया विल्ड) Fam. Gramineae (ग्रॅमिनी) ।
बाँस.
उत्पत्ति स्थान- बांस इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में उत्पन्न किया जाता है। छोटी-छोटी पहाड़ियों के आसपास आप ही आप जंगली भी उत्पन्न होता है।
विवरण- छोटे, बड़े, मोटे, पतले, ठोस और पीले इन भेदों से बांस कई प्रकार का होता है। इसकी ऊंचाई ३०-४० से १०० फीट तक होती है और मोटाई ३-४ से
१२- १६ इंच तक होती है। इसके पत्ते से १.५ इंच चौड़े और ५ से ६ इंच तक लम्बे होते हैं। प्रायः बांस का वृक्ष पुराना होने पर फूलता फलता है । कोई-कोई वांस अवधि से पूर्व ही फलने फूलने लगता है। इसके फूल छोटे-छोटे सफेद होते हैं। फल जइ के आकार के दिखाई पड़ते हैं। इसको वेणुबीज कहते हैं। इसकी कई अन्य जातियां होती हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ०३७६, ३७७)
वसाणिय
वंसाणिय (
भ०२३/४
विमर्श - प्रज्ञापना १/४७ में वंसाणिय शब्द के स्थान पर 'वंसी णहिया' ये दो शब्द हैं । वंसाणिय का वानस्पतिक अर्थ नहीं मिलता है। उन दोनों शब्दों का अर्थ मिलता है । इसलिए उन दोनों शब्दों का ग्रहण किया गया है । देखें वंसी और णहिया शब्द ।
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वंसी
वंसी (वंशी) वंशलोचन
वंशी स्त्री । वंशलोचनायाम् ।
प०१/४७
वैद्यकनिघुट ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६२५) तुगाक्षीर्यपरा वांशी, वंशजा वंशरोचना।।२१८।। वंशक्षीरी तुगा शुभ्रा, वंश्या वंशविवर्द्धनी ।
दूसरी तुगाक्षीरी वांस से (वंशलोचन) निकलती है । इसके वांशी, वंशजा, वंशरोचना, वंशक्षीरी, तुगा, शुभ्रा, वंश्या, वंशविवर्धिनी ये पर्याय हैं।
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग पृ०४४)
विवरण- मादा जाति के जो मोटे पीले एवं पहाड़ी वांस होते हैं जिन्हें नजला वांस कहते हैं, उनके भीतर का जो श्वेतरस सूखकर कंकर जैसा हो जाता है उसे ही वंशलोचन कहते हैं। वांसों का जंगल जब काटा जाता है, जिस वांस की पोरी में यह होता है उस वांस के उठाने धरते समय इसके रवे भीतर खडकने से पता चल जाता है कि इस वांस की पोरी में वंशलोचन है, उसे चीर कर निकाल लेते हैं । यह असली वंशलोचन बहुत प्राचीन काल में भारत में ही वांसों से प्राप्त किया जाता था। कहा जाता
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है कि स्वातिनक्षत्र की जल की बूंदे जिस मादा जाति के वांस के भीतर प्रविष्ट हो जाती है उसमें वंशलोचन निर्माण हो जाता है। अभी भी भारत के उत्तर पूर्व के तथा दक्षिण भारत के पहाड़ी अरण्यप्रदेशों में इस प्रकार के वंशलोचनोत्पादक निम्न जातियां पाई जाती हैं
(f) Bambusa Arundinacea Retz (Dym) () Arundo Bambos linn (Roxb)
(,, ) Bambusa Bambas Druce (Chopra)
ये तीन जातियां दक्षिण भारत में प्रचुर एवं आसाम व बंगाल में साधारण सहजोद्भव हैं किन्तु गंगा के मैदान से लेकर सिंधु तक सहजोद्भव नहीं है। बंगाल की ओर इसी की एक जाति विशेष Babusa Beceifera (Roxb) है जिसमें कांटे नहीं होते ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ०५६,६०)
वखीर
वखीर (तवक्षीर) तीखुर
भ०२१/१६
विमर्श - प्रज्ञापना १/४२ / २ में वेयखीर शब्द तृण वर्ग के अन्तर्गत है । भगवती २१/१६ में उन शब्दों के स्थान पर वखीर शब्द है। इस वनस्पति का चित्र नहीं मिलता जिससे इसकी पहचान की जा सके। तवक्षीर के पर्यायवाची नाम
तवक्षीरं पयः क्षीरं, यवजं गवयोद्भवम् ।
अन्यद् गोधूमजं चान्यत्, पिष्टिका तण्डुलोद्भवम् ।। अन्यच्च तालसम्भूतं, तालक्षीररादि नामकम् । । तवक्षीर, पयःक्षीर, यवज, गवयोद्भव, गोधूमज, पिष्टिका, तण्डुलोद्भव, तालसम्भूत, तालक्षीर ये तवाक्षीर के संस्कृत नाम हैं।
अन्य भाषाओं में नाम-
हि० - तवखीर । ब० - तवक्षीर । म० - तवकील । गु० - तवक्खार । क०-तवक्षीर । फा० - तवाशीर । अं० - Arrotwrot (अरारोट) । ले० - Curcumaangustifolia | ( शा०नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ० १२० ) उत्पत्ति स्थान- वास्तविक तीखुर प्रथम पौधे म० अरुण्डिनेसिया से प्राप्त होता है। यह पौधा यद्यपि उष्णकटिबंधीय अमेरिका का आदिवासी है । तथापि उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, बंगाल, आसाम तथा केरल में
होता है।
कन्द
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मूल्
फल
पत्र
विवरण- इसका पौधा सीधा, पतला, ६ से १.८ मीटर ऊंचा; पत्ते बड़े, अंडाकर भालाकार, पुष्प श्वेत गुच्छों में, एवं राइजोम (कंद) बड़े, मांसल, बेलनाकार अभिलट्वाकार होते हैं। नील या पीत कंद के भेद से इसके दो प्रकार पाये जाते हैं, जिसमें नीले कंद से अधिक तीर निकलता है। इसके अन्य भेद भी पाये जाते हैं। इन्हीं कंदों को कूटकर स्टार्च निकालते हैं। शुष्क अवस्था में इसमें न तो कोई गंध रहती है न स्वाद, किन्तु आर्द्र करने पर या पकाने पर इसमें हलकी गंध आती है। इसके कण ३० से ५० माइक्रोन बड़े एवं अंडाकार या दीर्घवृत्ताकार होते हैं।
(भाव०नि० परिशिष्ट पृ० ८२५)
वग्घ
वग्घ (व्याघ्र ) लाल एरण्ड व्याघ्रः पुं । करञ्जवृक्षे । रक्तैरण्डे । व्याघ्रतरुः । पुं । रक्तैरण्डे । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०१०१०) विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में भुवनपति आदि देवताओं चैत्यवृक्ष बतलाए गए हैं, उनमें एक शब्द वग्घ (व्याघ्र )
ठा०१०/८२/१
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Cordifolia (Willd) Miers (टिनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया मायर्स) Fam. Menispermaceae (मेनिस्पर्मेसी)।
पुष्प
५
है। व्याघ्र शब्द के वनस्पतिवाचक दो अर्थ हैं-करअवृक्ष
और लालएरण्ड । व्याघ्रतरु का अर्थ है लाल एरण्ड। ऊपर के दो शब्दों में लालएरण्ड अर्थ दोनों शब्दों में है। इसलिए यहां लाल एरण्ड अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। व्याघ्र के पर्यायवाची नाम
रक्तैरण्डोऽपरो व्याघ्रो हस्तिकर्णी रुवुस्तथा। उरुवको नागकर्णचञ्चरुत्तानपत्रकः ।।५६ ।। करपर्णो याचनक: स्निग्धो व्याघ्रदलस्तथा तत्करचित्रबीजश्च हस्वैरण्डस्त्रिपश्चधा।।५७।।
दूसरा रक्त एरण्ड हैं, रक्तैरण्ड, व्याघ्र, हस्तिकर्णी रुवु, उरुवुक, नागकर्ण, चञ्चु, उत्तानपत्रक, करपर्णी, याचनक. स्निग्ध, व्याघ्रदल, तत्कर, चित्रबीज तथा हस्वैरण्ड ये सब लाल एरण्ड के पन्द्रह नाम हैं।
(राज०व०८/५६, ५७ पृ०२४३)
हस्वैरण्ड ये सब लाल एरण्ड के पन्द्रह नाम हैं।
वच्छाणी वच्छाणी (वत्सादनी) गिलोय, लतागुडूची
प०१/४०/४ वत्सादनी के पर्यायवाची नामगुडूची मधुपर्णी स्यादमृताऽमृतवल्लरी।।।
उत्पत्ति स्थान-गिलोय प्रायः सब प्रान्तों के जंगल छिन्ना छिन्नरुहा छिन्नोद्भवा वत्सादनीति ।।६।। झाड़ियों में पाई जाती है विशेषकर गरम प्रान्तों में अधिक जीवन्ती तन्त्रिका सोमा, सोमवल्ली च कुण्डली होती है। देहरादून और सहारनपुर के जंगलों में बहुत चक्रलक्षणिका धीरा, विशल्या च रसायनी।।७।। पायी जाती है। चन्द्रहासा वयस्था च, मण्डली देवनिर्मिता।
विवरण-इसकी बहुवर्षायु चिकनी एवं मांसल गुडूची, मधुपर्णी, अमृता, अमृतवल्लरी, छिन्ना, लता बहुत विस्तार में वृक्षों पर फैल जाती है। शाखाओं छिन्नरुहा, छिन्नोद्भवा, वत्सादनी, जीवन्ती, तन्त्रिका, से डोरे के समान शोरियां निकाल कर भूमि की ओर सोमा, सोमवल्ली, कुण्डली, चक्रलक्षणिका, धीरा, लटकती है। पत्ते पान के समान, २ से ४ इंच के घेरे विशल्या, रसायनी, चन्द्रहासा, वयस्था, मण्डली, देवनिर्मिता में, गोलाकार, नुकीले, चिकने, पतले । ७ से ६ शिराओं ये सब संस्कृतनाम गिलोय के हैं।
से युक्त एवं १ से ३ इंच लम्बे पर्णवृन्त से युक्त होते हैं। अन्य भाषाओं में नाम
प्रायः वसंतऋतु में इसके पुराने पत्ते पीले होकर गिर जाते हि०-गिलोय, गुरुच, गुडुच । बं०-गुलंच, पालो। हैं और ज्येष्ठ तक नवीन पत्ते निकल आते हैं। उसी समय म०-गुलवेल, गरुडबेल । गु०-गलो। क०-अमरदवल्ली, हरापन युक्त पीले रंग के अथवा केवल पीले रंग के फूलों अमृतवल्ली। ते०-तिप्पतीगे। ता०-शिन्दिलकोडि, के गुच्छे आते हैं। फल मटर के समान होते हैं और पकने अमृडवल्ली। उ०-गुलंचा | प०-गिलो । मल०-अम्रितु। पर ये लाल हो जाते हैं। बीज कुछ टेढे तथा चिकने होते गोआ-अमृतवेल । फा०-गिलोई, गिलोय । अ०-गिलोइ। हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०२७०) अं0-Tinospora (टिनोस्पोरा)। ले०-Tinospora
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वज्ज वज्ज (वज्र) वज्रकंद
प०१/४८/७ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में वज्ज शब्द कंदवर्ग के साथ है। इसलिए यहां वज्ज शब्द को वज्जकंद के रूप में ग्रहण कर रहे हैं। देखें वज्जकंद शब्द ।
वज्जकंद वज्जकंद (वज्रकन्द) शकरकंद
___ भ०७/६६ जीवा०१/७३ उत्त०३६/६८ वज्रकंद पुं। कंदविशेष। शकरकंद।
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ०१५६) वज्रकन्द के पर्यायवाची नाम
सुरेन्द्रको वज्रकन्दो, मुआतं तालमस्तकम्।।। सुरेन्द्र, वज्रकन्द ये वज्रकन्द के पर्याय हैं। तालमस्तक का पर्याय मुआत है।
(कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग०पू०६३६)
विल्लिकिलांगु। तु०-केलागेदा। मल०-कपाकालेंगा। कन्नड०-गेनासु । कर्णाo-केपिन हेंडल, विलय हेंडल। उडी0-धराआलु । अं0-Sweet potato (स्वीट पोटेटो)। ले०-Ipomoea Batatas lam (इपोमिया वटाटाज)।
उत्पत्ति स्थान-इसका मल स्थान अमेरीका है और सारे भारत में इसकी कृषि की जाती है।
विवरण-यह शाकवर्ग और त्रिवृत्तादि कुल की एक लता होती है |कन्द सफेद और लाल दो तरह के होते हैं। लता जमीन में बोयी जाती है और लता पर समय-समय पर मिट्टी चढ़ाई जाती है और कृषि वर्षा में की जाती है। कंद आश्विन कार्तिक में मिट्टी को खोदकर निकाले जाते हैं। शकरकंद भारत में सब ओर खाने के काम में लिया जाता है। पत्र कलमी शाक या नाड़ी शाक के मानींद । पुष्प १ इंच लम्बा, बैंगनी, पुष्पदल स्थानों में अस्पष्ट होते हैं। पुंकेसर पुष्प के भीतर होती है। गर्भाशय ४ विभाग युक्त । बीज रोमयुक्त । यह दो प्रकार का होने से लाल या गुलाबी जाति वाले को लालशकरकंद और श्वेतवर्ण कंद को शकरकंद कहते हैं। शीतकाल में फूल आते हैं। भारतवर्ष में इसके फल नहीं होते।
(धन्व० वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०२०४)
कपORIA
EEN
वट्टमाल वट्टमाल (
जीवा० ३/५८२ विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं और शब्द कोशों में वट्टमाल शब्द का वनस्पति परक अर्थ नहीं मिला है।
पत
NE
D...
वड
400. Ipomoea Botatus Lamk. (मकवकम जानू )
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-शकरकंद, मिताआलु । बं०-शकरकंद आलु, रांगाआलु। गु०-साकरिया, रताल। म०-रतालु। सिंध-गाजर लाहौरी। उर्द-शकरकंद। पं0सरवरकंद। फा०-लर्दक, लाहौरी जमीकन्द,
रगद ठा०८/११७/१भ०२२/३५०१/३६/१ वट के पर्यायवाची नाम
वट: रक्तफलः शृङ्गी, न्यग्रोधः स्कन्धजो ध्रवः । क्षीरी वैश्रवणो वासो, बहपादो वनस्पतिः ।।१।।
वट, रक्तफल, शृंगी, न्यग्रोध, स्कन्धज, ध्रुव, क्षीरी, वैश्रवण, वास, बहुपाद, वनस्पति ये सब बरगद के संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० वटादिवर्ग०पृ० ५१३)
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अन्य भाषाओं में नाम
हि०-बड, वरगद | बं०-वट,बडगाछ । म०-दड। क०-आल, आलदमारा। ते०-मारि। गु०-वड़। फा०-दरख्तेरीश। अ०-कविरूल अश्जार। अंo-Banyan Tree (बनियन ट्री) लेo-Ficus bengalensis Linn (फाइकस् बेंगालेन्सिस्) Fam. Moraceae (मोरेसी)।
वणलया वणलया (वनलता) निश्रेणिका
ओ० ११ जीवा० ३/५८४ प० १/३६/१ ज०२/११ वनवल्लरी। स्त्री० वनस्पति० निश्रेणिका। रस नसणारी रानवेल ।रस को नष्ट करने वाली वनबेल।
(आयुर्वेदिक शब्द कोश पृ० १२५८)
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CAR
ANANDAवदाकुर
विमर्श-निघंटुओं तथा आयुर्वेदीय शब्द कोशों में वनलता शब्द नहीं मिला है। वनवलरी शब्द मिलता है। वल्लरी का अर्थ बेल होता है। वनवलरी को मराठी भाषा में रानवेल (जंगलीबेल) कहते हैं। इसीलिए वनलता के स्थान पर वनवल्लरी का अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। निश्रेणिका के पर्यायवाची नाम
निःश्रेणिका श्रेणिका च, नीरसा वनवलरी। निः श्रेणिका नीरसोष्णा, पशूनामबलप्रदा।।१३०।।
निःश्रेणिका, श्रेणिका, नीरसा तथा वनवल्लरी ये सब निःश्रेणिका के नाम हैं। निःश्रेणिका रस रहित तथा उष्ण है और यह पशुओं के बल को नष्ट करने वाली है। म०-निरोषो। (कोंकणे प्रसिद्धा)।
__(राज०नि० ८/१३० पृ० २५८)
मूल
पत्र
कटाफल
उत्पत्ति स्थान-यह सब प्रान्तों में उत्पन्न होता है। ग्राम के पास लोग इसको पवित्र जान कर लगाते हैं। हिमालय के जंगल और दक्खन के पहाड़ियों पर यह जंगली उत्पन्न होता है।
विवरण-इसका वक्ष बहत विशाल और शाखायें फली हुई प्रायः भूमि की ओर नत हो जाती है। पत्ते लंबे चौड़े और मोटे होते हैं। फल छोटे-छोटे झरबेर के समान कच्ची अवस्था में हरे रंग के और पकने पर लाल हो जाते हैं। शाखाओं से लाल तथा पीले रंग के अंकुर निकल कर भूमि की ओर बढ़ते हैं। इसको वटजटा वरोह या बड़ की दाढ़ी कहते हैं। यह जटा बढ़ते-बढ़ते पृथ्वी में घुस जाती है और खंभे के समान दीखाई देती हैं।
(भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५१३)
वत्थुल वत्थुल (वस्तुक) बथुआ, रक्त बथुआ
भ० २०/२० प० १/३७/२/१/४४/१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में वत्थुल शब्द हरितवर्ग के अन्तर्गत है। इसके पत्रों का शाक होता है। वस्त वस्तुक, वास्तुक, वास्तूक शब्द बथुआ के हैं। निघंटुओं में वास्तुक शब्द अधिक मिलता है । वस्तुक के पर्यायवाची नाम दे रहे हैं। वस्तुक के पर्यायवाची नाम
वास्तुकं वास्तु वास्तूकं, वस्तुकं हिलमोचिका। शाकराजो राजशाकश्चक्रवर्तिश्च कीर्तितः ।।१२२ ।।
वास्तुक, वास्तु, वास्तूक. वस्तुक, हिलमोचिका, शाकराज, राजशाक तथा चक्रवर्ति ये सब वास्तूक (बथुआ) के नाम हैं। (राज०नि० ७/१२२ पृ० २१०)
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अन्य भाषाओं में नाम
आभाषट्पदमोदिनी ये सब बबूर के संस्कृत नाम हैं। हि०-बथुआ. रक्तबथुआ। बं०-वेतुया वेतोशाक ।
(भाव०नि० वटादिवर्ग पृ० ५२६) म०-चकवत, चाकवत। गौ०-वेतोशाक । गु०-टांको, अन्य भाषाओं में नामबथवों, बाथरो, चीलो। त०-परुपुकिरै। क०-विलिय हि०-बबूर, बबूल, कीकर। बं०-बाबला। चिल्लीके फा०-मुसेलेसा सरमक। अं-White Goose म०-वाभूल । गु०-बाबल । क०-पुलई । ते०- नल्लतुम्म। foot (ह्वाइट गूज फूट) ले०-PurpleGoose Foot (पर्पलगूज ता०-करूबेलमरम। फा०-मुगिलाँ। अ०फूट) ChenapodiumAlbum (चिनापोडियम अल्वम्) | C. अमुगिलाँ। ले०-Acacia Arabica Willd (अकेसिया Atripalisis (चिनापाड्यमएट्रीपालाइसिस)।
अरेबिका) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)। उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः समस्त भारत में तथा हिमाचल में, ४.५ फुट की ऊंचाई तक खेतों में बहलता से बिना बोए पैदा होता है।
विवरण-शाक वर्ग एवं अपने वास्तूक कुल का यह एक प्रधान पत्रशाक है। इसके १ से ३ फीट ऊंचे क्षुप के पत्र आकार में छोटे, बड़े, त्रिकोणाकार, नुकीले, कई प्रकार के कटे हुए स्थूल, स्निग्ध, हरित वर्ण के ४ से ६ इंच लंबे होते हैं। इसकी डंडियों के अंत में हरिताभ बारीक पुष्प तथा बीजकोषों के गुच्छे गोलाकार लगते हैं। बीज कुलफा के बीज जैसे, छोटे-छोटे काले रंग के होते हैं। शीतकाल में पुष्प और फल आते हैं। इसके पौधे
बबूर 1 कार्तिक मास के अंत तक जौ, गेहूं, चना, मटर के खेतों में स्वयमेव पैदा हो जाते हैं। पत्रशाकों में यह एक विशेष
उत्पत्ति स्थान-यह सिंध तथा डेक्कन का आदिवासी
होते हुए भी अब सभी स्थानों में पाया जाता है। महत्त्वपूर्ण, अतीव स्वास्थ्यप्रद शाक है।
विवरण-इसका वृक्ष मध्यमाकार का, कंटक युक्त, (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ० ४२६)
होता है। छाल गहरे भूरे या काले रंग की एवं लंबाई में
फटी हुई होती है। पत्ते संयुक्त, उपपक्ष ४ से ६ जोड़े, वत्थुल
२.५ से.मी. लंबे; पत्रक १० से २५ जोड़े, ३ से ६४१.२ से वत्थुल (
प० १/३७/२ २ मि.मि. बड़े रेखाकार होते हैं। पुष्प चमकीले पीले, गोल विमर्श-प्रस्तुत आगम में वत्थुल शब्द (प० एवं मधुरगन्धि होते हैं। फली ३ से ६ इंच लंबी, ०.५ इंच १/३७/२) और (प० १/४४/१) में आया है। १/३७/२ चौड़ी, माला की तरह बीच-बीच में सिकुडी हुई, टेढ़ी, में गुच्छवर्ग के अन्तर्गत है और १/४४/१ में हरित वर्ग मृदुरोमश एवं ८ से १२ बीजों से युक्त होती है। कांटे सीधे, के अन्तर्गत है। वत्थुल शब्द दो बार आने से १/३७/२ नुकीले तथा पर्णवृन्त के नीचे जोड़ी में आते हैं। के पाठान्तर में बबुल शब्द है उसे ग्रहण कर रहे हैं। (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५२६)
बबुल (बब्बूल) बबूल, बबूर बबूल के पर्यायवाची नाम
वत्थुसाय बब्बूल: किङ्किरातः स्यात्, किङ्किराट: सपीतकः। स एवं कथित स्तज्ज्ञैराभाषट्पदमोदिनी।।३६ ।। __ वत्थुसाय (वास्तुशाक) बथुआ का साग
उवा० १/२६ बब्बूल, किङ्किरात, किङ्किराट, सपीतक तथा
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विवरण-शाक वर्ग एवं अपने वस्तूक कुल का यह वरक के पर्यायवाची नामएक प्रधान पत्रशाक है।
वरक: स्थूल कंगुश्च, रूक्षः स्थूलप्रियंगुकः । (धन्व० वनौ० विशेषांक भाग ४ पृ० ४२६) वरक, स्थूल कंगुरूक्ष और स्थूल प्रियंगु ये सब देखें वत्थुआ शब्द।
वरक के पर्याय वाची नाम हैं।
(शा०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६३८) वर
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-चीना, चिन्ना, चैना । बं०-चिने । म०-वरिवव । वर (वरक) चीनाधान्य, कंगुभेद प० १/४५/२ ग०-चीणे, चीणा। कo-बरगु। ता०-पनिवरगु। वरकः ।पुं। प्रियङ्गुनामकतृणधान्ये। वनमुद्गे।।
ते०-वरिगुल । अ०-Indian Millet (इण्डियन मिलेट)। पर्पटके। हस्वबदरीफले। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६३७)
ले०-Panicummiliaceum Linn (पेनीकम मिलिएसिअम) Fam. Gramineae (ग्रेमिनी)।
उत्पत्ति स्थान-सभी स्थानों पर इसकी खेती की जाती है।
विवरण-यह शीघ्र होने वाला क्षुद्र धान्य है। क्षुप सीधा, वर्षायु एवं १८ से २४ इंच ऊंचा होता है । पत्ते पतले. रेखाकार तथा पर्व को घेरे रहते हैं। पुष्पव्यूह अनेक शाखायुक्त तथा शाखाग्र पर शूचिकायें एक या दो-दो रहती हैं। अंतिम या चतुर्थ वुसपत्र पर पुष्प रहता है, जो धान्य में परिवर्तित हो जाता है। धूसर पीले चमकीले, हल्के पीले आदि रंगों के भेद से यह कई प्रकार का होता है।
(भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६५७)
(गाली
PICS मूल
वरा वरा (वरक) चीनाधान्य, कंगु का भेद
भ०२१/१६
देखें वर शब्द।
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में वर शब्द औषधि वर्ग (धान्य नाम) के अन्तर्गत है । धान्यवाची शब्दों में वर शब्द
वाइंगण नहीं मिलता वरक शब्द मिलता है इसलिए वर शब्द की वाइंगण (वातिकुण, बेंगना) बैंगन प० १/३७/१ छाया वरक की है। वरक शब्द के ऊपर चार अर्थ हैं। बेंगना के पर्यायवाची नामप्रियंगु और वनमुद्ग ये दो अर्थ धान्य के लिए ग्रहण किए अंगना, वरा, भटाकी, चित्रफला, दीर्घवर्तकी, हिंगुली, जा सकते हैं। वनमुद्ग आया हुआ है इसलिए प्रियंगु कंटालू, कण्टपत्रिका, बेंगना, वर्तका, वार्ताकू, वृत्तफला । (चीना धान्य) अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
(वनौषधि चंद्रोदय सातवां भाग प० ६३) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-भंटा, बैगन, बैगुन । बं०-बेगुन म०-वांगे,
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वांगी। गु०-रिंगणा, वेंगण, वंताक। क०-बदने। ते०-बंकाया। ता०-कत्तरिक्काइ। फा०-वांदगान। अ०-वार्दजान, वादंजान, वाजंजान। अं०-Bringal (ब्रिञ्जल) Egg Plant (एगप्लॅन्ट) लेo-Solanum melongena Linn (सोलेनम् मेलोंगेना) Fam. Solanaceae (सोलेन्सी)।
ले०-Wagatea spicata Dolz (वागेटिया स्पिकेटा)।
उत्पत्ति स्थान-यह पश्चिमी पेनिनसुला की पहाड़ियों में पैदा होती है।
विवरण-यह शिम्बी कुल की एक मजबूत और कांटेवाली झाड़ी कंटकरंज की झाड़ी के समान होती है। इसकी डालियां लंबी और तीक्ष्ण कांटों वाली होती है। इसके पत्ते कंटकरंज के पत्तों के समान और फूल सिंदुरी रंग के, मंजरियों की तरह होते हैं। इसकी फलियां बड़ी-बड़ी होती हैं और हर एक फली में 4 या 5 बीज होते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० १६५)
बैंगन
उत्पत्ति स्थान-यह प्रसिद्ध फल शाक प्रायः सब प्रान्तों में उत्पन्न होता है।
विवरण-इसका क्षुप ३ फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते वनभांटे के समान परन्तु इनसे लंबे चौड़े होते हैं। फूल कंटकारी के समान बैंगनी रंग के और फल गोल लंबे होते हैं। किसी के फल गोल, हरे और बैंगनी रंग के, किसी के गोलाई लिये लंबे सफेद होते हैं।
(भाव०नि० शाकवर्ग पृ० ६६०)
वालुंक वालुंक (वालुक) बालुकासाग पृ० १/४८/४८ वालुक के पर्यायवाची नाम
एलवालुकमालूकमैलेयं हरिवालुकम्
एल्वालु क कपित्थत्वक् गन्धत्वक चैव वालुकम् ।।१३२३।।
कुष्ठगन्धि सुगन्धि स्यात्, सुवर्णप्रसरं दृढम् ।।
एलवालुक, आलुक, ऐलेय, हरिवालुक, एल्वालुक, कपित्थत्वक्, गन्धत्वक्, वालुक, कुष्ठगंधि, सुगंधि, सुवर्णप्रसर, दृढ ये वालुक के पर्याय हैं।
(कैयदेव०नि० औषधिवर्ग० पृ० २४५) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-वालुकासाग। बं०-वालुक। म०-वालुची भाजी। त०-मनल्किरै। ते०-एस कदन्तिकुर । ले०-Gisekia pharanaceoides Linn (गिसे किआ फार्नेसिओइडिस् लिन०) Fam. Ficoidaceae (फिकोइडेंसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह वनस्पति पंजाब, सिंध, दक्षिण तथा सिलोन में होती है।
विवरण-इसके क्षुप छोटे, फैले हुये तथा अनेक शाखाओं से युक्त होते हैं। पत्र विपरीत, मांसल, अखंड, अंडाकृति, करीब १ इंच लंबे तथा आधार की तरफ नोकीले होते हैं। पुष्प अनेक। फल बाह्यदल से आवृत झिल्लीदार होते हैं। बीज काले से, पृष्ठ पर गोलाई लिये हुये एवं श्वेत छोटी ग्रंथियों से युक्त होते हैं। बंगाल में
वागली वागली ( ) वागटी प. १/४०/२
विमर्श-वागली का वागटी रूप अधिक निकट का लगता है। यह हिन्दी भाषा का शब्द है। अन्य भाषाओं में नाम
सं०-गुच्छ करंज। हि०-वागटी, वाकेरी, कुडगजगा । बम्बई०-वागटी, वाकेरी। कोकण-वागटी। म०-वागटी, वाकेरी। ते०-ओक्काड़ि, कोदिढ़। कo-वागटी, हूलीगंजी। ता०-पुलिनाक्का, गोंडाई।
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देखें वासंती शब्द
वालक नाम से यह बीज बिकते हैं।
(भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग० पृ० २६३)
वासन्तिया गुल्म वासन्तियागुल्म (वासन्तिकगुल्म) बासंती का गुल्म । वासंती का गुल्म होता है। देखें वासंती शब्द ।
प०२/१०
वासंती वासंती (वासन्ती) वासंती, नेवारी
वासपुड वास पुड (वासपुट) वासक रा० ३० जीवा० ३/२८३ वासः |पुं। वासकवृक्षे। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६६५) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-वासक, वसक। नेपाली०-वांसक, असेरू, सिंगनामुक। ले०-Dichroa Febrifuga (Lour), डिक्रोआ फेब्रीफ्यूजा।
उत्पत्ति स्थान-ये क्षुप हिमालय, खासिया पहाड़ी पर और नेपाल में विशेष पाए जाते हैं। विवरण-पाषाणभेदकुल के झाड़ीदार क्षुप की
तेदार क्षुप की छाल फीके पीले रंग की मुलायम व कुछ सुगंधित-पत्र अभिमुख कोमल चमकीले, सूक्ष्म रोमश। पुष्प पीले रंग के छोटे-छोटे होते हैं। जड़ की छाल पपड़ी या कार्क के रूप में कुछ भीनी सुगंध युक्त एवं स्वाद रहित होती
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० १३५)
जीवा० ३/२६६ प० १/३८/२.
पुष्प
SANDEY
है।
RAKAWAR
शाय
SILPERIES
शारव
वासंतिक लया वासंतिक लया (वासन्तिक लता) वासन्ती लता
जीवा० ३/५८४ जं०२/११ विमर्श-वासन्ती का गुल्म होता है पर लता की तरह प्रसरण शील होता है। इसलिए इसे वासन्ती लता भी कहा जाता है।
देखें वासंती शब्द।
वासंतिय लया
पुष्प काट वासंतियलया (वासंतिकलता) वासंतीलता। ओ० ११ ।
वासंती के पर्यायवाची नामदेखें वासंती शब्द
वासंती प्रहसन्ती स्यात्, सुवसन्ती वसन्तजा शोभना शीतसंवासा, सेव्या भ्रमरबान्धवा ।।१२१ ।।
वासंती. प्रहसन्ती. सवसन्ती, वसन्तजा, शोभना, वासंति लया
शीतसंवासा, सेव्या और भ्रमरबान्धवा ये वासन्ती के पर्याय वासंतिलया (वासंतिकलता) वासंतीलता
(धन्व०नि० ५/१२८ पृ० २६०) प०१/३६/१
हैं।
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अन्य भाषाओं में नाम
विमर्श-विमय शब्द निघंटुओं और उपलब्ध हि०-वासंती, नेवारी, नेवारी, निवाडी। आयुर्वेदीय शब्द कोषों में नहीं मिला है। विमल शब्द बं०-वासन्ती, नेपाली, बदकूद, नवमल्लिका । गु०-कुन्द। मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण में विमय शब्द पर्वक वर्ग में म०-कुसर। संता०-गदाहुंडबहा। त०-नागमल्ली। है। विमल पर्वक वनस्पति है। इसलिए विमल का अर्थ तेल-अदवी भल्ले, नामभल्ल । नु०-बोना मोलि, नियालो। ग्रहण कर रहे हैं। कना०-दोजु कमल्लिगे। बं०-कुन्दी, कुसर । विमल (विमल) पद्मकाष्ठ, पदमाख ले०-Jasminumarboresecns Roxb (जमिनम् आर बोरे विमलम् ।क्ली० | पद्मकाष्ठे सेनस) Fam. Oleaceae (ओलिएसी)।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६७७) उत्पत्ति स्थान-वासंती के झाड गंगाजी के ऊर्ध्वप्रदेश के मैदान में ३००० फीट की ऊंचाई पर बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, दक्षिणी भारत की गंजम और विजिगापटम में अधिक होते हैं।
विवरण-यह हारसिंगरादि कुल की वासन्ती की सुन्दर झाड़ी वृक्ष के सदृश होती है। चौड़े पान युक्त, बडी, लगभग खडी उलझी हुई झाडी। कांड की ऊंचाई ५ से ७ फुट । पान अभिमुख, सादे, २ से ३ इंच लंबे या ३ से ५ इंच लंबे) और २ से ३ इंच चौड़े। लंबगोल, तीक्ष्ण, नोकदार । पत्रवृन्त लंगभग आधा इंच लंबा, प्रायः कोमल । पुष्प १ से १.५ इंच व्यास के, सफेद या गुलाबी सुगंधित । मिश्र मंजरी, रूंएदार, शिथिल, ३ शाखायुक्त। पुष्पान्तर नलिका लगभग आधा इंच लंबी। पक्व गर्भकोष सामान्यतः एकाकी, लंबगोल या अंडाकार प्रायः मुडा हुआ, लगभग आधा इंच लंबा, पकने पर काला। वसंत काल में होने से वासन्ती कहा गया है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० १६५, १६६)
O
पुष्प
.
विभंगु विभंगु (
प० १/४२/२ विमर्श-प्रज्ञापना १/४८/४६ तथा भगवती सूत्र में विभंगु के स्थान पर विहंगु शब्द है। दोनों का अर्थ समान है। उपलब्ध निघंटुओं तथा शब्दकोशों में इस शब्द का अर्थ नहीं मिला है।
विमल के पर्यायवाची नाम
पद्मकाष्ठं पद्मवर्णं, पद्मकं हेमपद्मकम् ।।१४०० ।। सुप्रभो विमलश्चारु: शीतवीर्यो मरुच्छिवः। पीतरक्तः पद्मगन्धिः, पाटलापुष्पवर्णकः ।।१४०१।।
पदमकाष्ठ, पदमवर्ण, पदमक, हेमपदमक, सुप्रभ, विमल, चारु, शीतवीर्य, मरुच्छिव, पीतरक्त, पदमगन्धि, पाटलापुष्पवर्णक ये पदमकाष्ठ के पर्याय हैं।
(कैयदेव नि० ओषधिवर्ग पृ० २५६, २६०) अन्य भाषाओं में नाम
हि०--पद्माक, पद्माख, पदुमकाठ, फाजा।
विमय विमय (विमल) पद्मकाष्ठ, पद्माख प० १/४१/२
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बं०-पद्मकाष्ठ। म०-पद्मकाष्ठ, पद्मक। गु०
विहेलग पद्मकनुं लाकडु, पद्मकाष्ठ। कo-पद्मक। पं0
विहेलग (विभीतक) बहेडा
भ० २२/२ चभिअरि। लिपचा-कोंगकी। अं0-Mild Himalaya
विमर्श-प्रज्ञापना १/३५/२ में बिभेलय शब्द है। Cherry (माइल्ड हिमालय चेरी)। ले०-Prunus puddum
भगवती (२२/२) में उसी स्थान पर विहेलग शब्द है। Roxb (प्रनस् पडुम राक्सब्)।
हे और भे का अंतर है। बि और वि में अंतर होने पर उत्पत्ति स्थान--यह गरम हिमालय में शिमला, गढ़वाल से सिक्कम और भूटान तक एवं दक्षिण में कुडाई,
भी समान है। इसलिए यहां बिभेलय का अर्थ ही मान्य
कर रहे हैं। कनाल और उटकमंड में पाया जाता है।
देखें बिभेलय शब्द। विवरण-इसका वृक्ष मध्यमाकार का अचिर स्थायी होता है। छाल फीके भूरे रंग की या कालापन युक्त भूरे रंग की और चमकीली होती है। इससे पतली चमकीली पपडियां छूटती रहती हैं। काष्ठसार रक्ताभ तथा सुगन्ध
वीरण युक्त होता है। पत्ते ३ से ५ इंच लंबे, १ से १.५ चौड़े, भालाकार, लट्वाकार, लंबे नोक वाले, चिकने और दोहरे वीरण (वीरण) गांडर घास भ० २१/१८ प० १/४१/१ दांतों वाले होते हैं। फूल सफेद गुलाबी या लाल रंग के वीरण के पर्यायवाची नामआते हैं और पतझड़ के बाद नवीन पत्ते निकलने के पहले
स्याद वीरणं वीरतरु, र्वीरञ्च बहुमूलकं ।।४।। ही खिल जाते हैं। फल छोटे-छोटे गोलाकार या अंडाकार
वीरण, वीरतरु, वीर और बहुमूलक ये वीरण होते हैं और वे पीले या गुलाबी रंग के दिखाई पड़ते हैं। अर्थात् गांडर घास के नाम हैं। इन फलों को लोग खाते हैं। इनसे एक प्रकार का मद्य अन्य भाषाओं में नामबनाते हैं।
हिo-वीरन, गांडर, बेना । बंo-वेणर । म०-वाला। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग पृ० २०२, २०३) गु०-वालो । कo-मुडिवाल । ते०-वेट्टिवेलु ता०-वेट्टिवेर ।
फा०-रेशये वाला, बीखेवाला। अंo-Cuscus grass विमा
(कस्कस ग्रास)। ले०-Andropogon Muricatus Retz.
(एन्ड्रोपोगोल् म्यूरिकॅटस् रेझ) Vetiveria Zizanioides विमा (विमल) पद्म काष्ठ
भ०२१/१७
(Linn) Nash (वेटिवेरिया झाइझेनिओइडिस् (लिन) नॅश) विमर्श-प्रज्ञापना (१/४१/२) में विमय शब्द है।
Fam. Gramineae (ufa-ft) उसी के स्थान पर भगवती सूत्र (२१/१७) में विमा शब्द
उत्पत्ति स्थान-यह इस देश के प्रायः सब प्रान्तों है। इसलिए विमा की छाया विमल करके पद्मकाष्ठ अर्थ
में पाया जाता है। यह अधिकतर खुले हुये दलदल वाले किया जा रहा है।
स्थानों में होता है। देखें विमय शब्द।
विवरण-तृणजातीय औषधि का क्षुप २ से ५ फुट
तक ऊंचा एवं दृढ़ होता है। यह गुच्छबद्ध और समूह विहंगु
बद्ध होकर उगता है। पत्ते सरकण्डे के समान १ से २
फुट लंबे और पतले होते हैं। ये दो कतारों में तथा आधार विहंगु ( ) भ० २१/१६ प० १/४८/४६
पर परस्पराच्छादित रहते हैं। मूलीय पत्र कुछ अधिक लंबे विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं तथा शब्द कोशों में
रहते हैं। मध्य शिरा दबी हुई तथा पत्तों के किनारों पर विहंगु शब्द का अर्थ नहीं मिला है।
दूर-दूर पर तीक्ष्ण कांटे रहते हैं। फूलों का घनहरा
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पीलापन या किंचित् लाली युक्त होता है ।
(भाव० नि० कर्पूरादिवर्ग० पृ० २३६ )
वीहि
वीहि (व्रीहि) व्रीहि षष्टि धान्य
,
भ० ६ / १२६, २१/६ प० १/४५/१
व्रीहि के पर्यायवाची नाम
अशोचा पाटला व्रीहि, वहिको व्रीहिधान्यकः ।। व्रीहिसंधान्य मुद्दिष्टः, अर्द्धधान्यस्तु व्रीहिकः । । ३० ।। गर्भेपाकणिकः षष्टिः, षष्टिको बलसम्भवः । सुधान्यं पथ्यकारी च, सुपविः प्रज्ञविप्रियः । । ३१ । । अशोचा, पाटला, व्रीहि, व्रीहिक, व्रीहिधान्यक, व्रीहिसंधान्य अर्द्धधान्य, व्रीहिक, गर्भेपाकणिक, षष्टि, षष्टिक, बलसम्भव सुधान्य, पथ्यकारी, सुपवि तथा प्रज्ञविप्रिय ये सब व्रीहि षष्टि धान्य के नाम हैं।
(राज० नि० १६ / ३०, ३१ पृ० ५३६) विवरण- व्रीहि धान्य के लक्षण-जो चावल वर्षा ऋतु में पैदा होते हैं अर्थात् पककर तैयार होते हैं एवं ओखली में छांटने से जो सफेद होते हैं तथा देर में पकते हैं वे व्रीहिधान्य कहलाते हैं । व्रीहि धान्य के भेद - कृष्ण व्रीहि, पाटल, कुक्कुटाण्डक, शालामुख और जतुमुख ये सब व्रीहि धान्य के भेद हैं। इन व्रीहियों में कृष्णव्रीहि सर्वोत्तम होता है।
वेणु वेणु) बांस
वेणु के पर्यायवाची नाम
(भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६३८)
COO
वेणु
भ० २१/१७
वंशस्त्वक्सारकर्मारत्वचिसारतृणध्वजाः ।।
शतपर्वा यवफलो, वेणुमस्करतेजनाः । । १५३ ।। वंश, त्वक्सार, कर्मार, त्वचिसार, तृणध्वज, शतपर्वा, यवफल, वेणु, मस्कर और तेजन ये सब नाम वांस के हैं। (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३७६) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - वांस । गु० - वांस । म० - बांबू । बं० - बाँश ।
जैन आगम : वनस्पति कोश
ते० - बेदरू बोंगा। ता०- - मुंगिल । कोल० - कटंगा । मा० - वांब | सन्ताल०-माट । अ० - कसब । अंo - Bamboo (बांबू) । ले० - Bambusa arundinacea Willd (बांबुसा अरुन्डिनेसिया विल्ड) Fam. Gramineae (ग्रॅमिनी) ।
तना
पुष्प
उत्पत्ति स्थान - वांस इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में उत्पन्न किया जाता है और छोटी-छोटी पहाड़ियों के आस-पास आप ही आप जंगली भी उत्पन्न होता है ।
....
पत्र
विवरण- छोटे, बड़े, मोटे, पतले, ठोस और पोले इन भेदों से वांस कई प्रकार का होता है। इसकी ऊंचाई ३० से ४० फीट से १०० फीट तक होती है और मोटाई ३-४ से १२ - १६ इंच तक होती है। इसके पत्ते १ से १. ५ इंच चौड़े और ५ से ६ तक लंबे होते हैं। प्रायः वांस का वृक्ष पुराना होने पर फूलता फलता है और कोई-कोई वांस अवधि के पूर्व ही फूलने फलने लगता है। इसके फूल छोटे-छोटे सफेद होते हैं।
(भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३७६, ३७७)
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वेत्त
वेत्त (वेत्र) बेंत
वेत्र के पर्यायवाची नाम
वेत्रो वेतो योगिदण्डः, सुदण्डो मृदुपर्वकः । । ४१ ।। वेत्र, वेत, योगिदण्ड, सुदण्ड तथा मृदुपर्वक ये सब बेंत के नाम हैं । (राज० नि० ७/४१ पृ० १६६ )
अन्य भाषाओं में नाम
भ० २१/१८ प० १/४१/१
म०
हि० - वेंत । बं० - वेत्र, वेंत । पं० - बैंत । गु० - नेतर । - मोठा, वेत, थोरवेत । क० - वेतसु । तै० - पीपारूवा । फा० - वेत । अ०-खलाफ । ले० - Calamus Rotang (केलामस
अ० - Cane ( केन)
रोटंग ) ।
फल
शाख
उत्पत्ति स्थान - यह जलप्रायः भूमि में २ हजार फीट की ऊंचाई तक पाया जाता है ।
विवरण- इसकी लता सघन आरोही तथा कांटेदार होती है। यह कांटों की सहायता से फैलती है । काण्ड चिकना, हरा और कोषमय पत्राधारों से ढंका हुआ रहता है । पत्ते २ से ४ फीट लंबे, पक्षाकार और पत्रदंड कांटों
से
युक्त होते हैं। पत्रक ६ से १२ इंच लंबे, आधे से पौन
इंच चौड़े, रेखाकार भालाकार, नुकीले एवं तीन शिराओं से युक्त होते हैं। पत्रक के किनारे तथा शिरा पर भी कांटे होते हैं । पत्रकोष से चाबुक के सदृश ८ फीट तक लंबी एक रचना Flagellum फ्लॅजेलम् निकली रहती है, जिस पर भी टेढ़े कांटे होते हैं। पुष्प पत्रकोषों के अन्दर एकलिंगी पुष्पों की विदण्डिक मंजरियां पाई जाती हैं। फल प्रायः १/२ इंच लंबा एवं काले, किनारे के वल्कपत्रों से ढका हुआ रहता है । शीतऋतु में फल पक जाते हैं । बेंत की कई जातियां पाई जाती हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३६२ )
वेय
वेय (वेत) वेद, बेदसादा
प० १/४२/१
वेतः।पुं। वेतस लतायाम् (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १००३) कई लोग वेतस शब्द से बेदसादा, बेदमुश्क आदि मानते हैं।
(धन्व० वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० १७४)
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( बेद )
SALIX ALBA LINN
सं०- वेतस
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विमर्श - प्रज्ञापना १/४१ / १ में वेत्त शब्द है और १/४२/१ में वेय शब्द है । दोनों शब्द पर्यायवाची और वेंत अर्थ के वाचक हैं। वेय शब्द पर्वक वर्ग के अन्तर्गत है इसलिए वेय का हिन्दी भाषा का अर्थ वेद या वेदसादा ग्रहण कर रहे हैं । वेद सादा प्रर्वक वनस्पति है । वेत के पर्यायवाची नाम
वेत्रो वेतो योगिदण्डो, सुदण्डो मृदुपर्वकः । वेत्र, वेत, योगिदण्ड, सुदण्ड तथा मृदुपर्वक ये सब वेत के नाम हैं। ( राज० नि० ७ / ४१ पृ० १६६ )
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - वेदसादा, वेद । पं०-बिस, बुशन, चम्पा । काश्मीर० - बिबिर | अo - White willow (ह्वाइट विलो ) Huntigdon willow (इंटिगडन बिलो) लेo - Salix Alba ( सेलिक्स अल्वा) ।
उत्पत्ति स्थान - हिमालय के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में तथा तिब्बत में यह अधिक पैदा होता है। काश्मीर के रास्ते पर इसके अत्यधिक वृक्ष लगाये हुए देखे जाते हैं।
विवरण- वेतस कुल के इस सुन्दर बड़े झाड़ीदार वृक्ष के कांड पीताभ श्वेतवर्ण के कुछ पोले से; छाल श्वेतरंग की । उपशाखाएं पीली लाल या बैंगनी, पत्र बारीक ६ से १ इंच लंबे, उपपत्र २.५ से ४ इंच लंबे, सकरे, बल्लभाकार, नोकदार प्रायः ४ से ५ पत्र एकत्र, एकान्तर समूहबद्ध, ऊपरी भाग में हरे, पृष्ठभाग में श्वेत या श्यामवर्ण के । पत्रवृन्त १/२ इंच लंबा । पुष्प वसंत ऋतु में। पत्र निकलने के बाद, कहीं-कहीं पत्र निकलने के पूर्व ही, पुष्प पीतवर्ण या श्वेताभ नीलेरंग के कोमल
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वेलूय
मखमली, छोटे-छोटे सुगन्धित, लंबी मंजरियों में, वेलूय ( वेणुयव) वेणु बीज, वांस के चावल
प० १/४१/२
पुंमंजरी १ से २ इंच लंबी, पतनशील, स्त्रीमंजरी कुछ अधिक लंबी (२ से ३ इंच तक) पतनशील होती है। कहीं-कहीं इसमें जो फली आती है वह चिकनी प्रायः वृन्तरहित होती है।
आयुर्वेदिक निघंटु के मतानुसार यह या इसकी जातियां जलवेतस या जलमाला है। इनके क्षुपदार वृक्ष प्रायः नदी या नालों के किनारे विशेष पैदा होते हैं। इनके लचीले पतले कांड या शाखायें टोकरियों के बनाने में काम आते हैं।
जैन आगम वनस्पति कोश
(धन्व० वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० १७८. १७६)
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वेलुया
वेलुया ( वेणुयव) वेणु बीज, वांस के चावल
भ० २१/१७
वेणुवः । पुं । वंशजधान्ये |
वेणुयव के पर्यायवाची नाम
वेणुजो वेणुबीजश्च वंशजो वंशतण्डुलः ।। वंशधान्यं च वंशाह्वो, वेणुवंशद्विधायवः । । ७१ ।। वेणुज, वेणुबीज, वंशज, वंशतण्डुल, वंशधान्य, वंशा, वेणुवंश ये वेणुबीज के संस्कृत नाम हैं । (राज0नि० १६ / ७१ पृ० ५४२)
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १००३)
अन्य भाषाओं में नाम
म० - वेणुजव | क० - बिदरकी । ते० - वेटुरु, विरयमु । गौ० - वांसेर चाला |
विवरण-प्रायः वांस का वृक्ष पुराना होने पर फूलता फलता है और कोई-कोई वांस अवधि के पूर्व ही फूलने फलने लगता है। इसके फूल छोटे-छोटे सफेद होते हैं और फल जइ के आकार के दिखाई पड़ते हैं । इसको वे कहते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० ३७७) देखें वंस शब्द ।
देखें वेलुया शब्द |
0000
वोडाण
)
प० १/४४/१
वोडाण ( विमर्श - उपलब्ध निघंटुओं तथा शब्दकोशों में वोडाण शब्द का अर्थ उपलब्ध नहीं हुआ है ।
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जैन आगम : वनस्पति कोश
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वोयाण
राजस्थान, बलूचिस्तान से इजिप्ट तक नदियों के किनारे
रेतीली जमीन में, बगीचों की बाड़ों तथा खेतों की बाड़ों वोयाण (
भ० २१/२०
के पास रास्तों के किनारे, खेतों के धोरों पर कंकरीली विमर्श-प्रज्ञापना १/४४/१ में वोयाण शब्द के
जमीन में, चरणोट की जगहों पर और सफेद लांप वाले स्थान पर वोडाण शब्द है। इसका अर्थ उपलब्ध निघंटुओं
घास के खेतों में, सड़कों के किनारे बारहों मास मिल तथा शब्दकोशों में नहीं मिला है।
जाती है।
विवरण-यह गुडूच्यादि वर्ग और त्रिवृतकुल का संखमाला
क्षुप होता है। शंखपुष्पी चतुर्मास में बहुत-सी जगहों में संखमाला (शङ्खमाला) शंखपुष्पी
बारहों मास देखी जाती है। इसके क्षुप २ से ६ इंच ऊपर
जीवा० ३/५८२ पं २/- बढ़कर बाद में इसकी शाखाएं जमीन पर छा जाती हैं। विमर्श-संखमाला शब्द अभी तक वनस्पति परक कितनी ही वक्त इसकी शाखायें ४ से ६ इंच ऊपर बढ़कर अर्थ में प्राप्त नहीं हुआ है। शंखमालिनी शब्द मिलता है। जमीन पर और घास में फैल कर लिपटी हुई भी होती संभव है शंखमालिनी शब्द का अर्थ ही शंखमाला शब्द है। कभी यह २ से ४ फीट बढ़कर जमीन पर चारों ओर का हो। इसलिए शंखमालिनी शब्द का अर्थ ही शंखमाला फैलकर इसके छते बनते हैं। पान कुछ लंबे विशेषकर के लिए ग्रहण कर रहे हैं।
के मोटी अणीवाले, फूल सफेद या फीका अथवा गहरे शङ्मालिनी स्त्री। शङ्खपुष्पीलतायाम्
गुलाबी रंग के रकाबी जैसे गोल होते हैं। फल प्रातः काल (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०१६) खिलते हैं। फल गोलायी लिए सूक्ष्म अणीवाले होते हैं। शङखमालिनी के पर्यायवाची नाम
इसके क्षुप का रंग धोला या भूरापन लिये हरा दीखता शङ्खपुष्पी सुपुष्पी च, शङ्खाह्वा कम्बुमालिनी। है। यह जहां उगती है वहां विशेषकर खूब उगती है। सितपुष्पी कम्बुपुष्पी, मेध्या वनविलासिनी।।१३१।। मूल सूतली से अंगुली जैसा मोटा और ४ से ६ इंच या चिरिण्टी शङ्खकुसुमा भूलग्ना शङ्खमालिनी। १ से १.५ फुट लंबा होता है। छाल मोटी होती है। मूल इत्येषा शङ्खपुष्पी स्यादुक्ता द्वादशनामभिः ।।१३२।। का आडा काट करके देखने में काष्ठ सछिद्र और सफेद
शपुष्पी, सुपुष्पी, शङ्खाह्वा, कम्बुमालिनी, दीखता है। इस लकड़ी और अन्तर छाल के बीच से दूध सितपुष्पी, कम्बुपुष्पी, मेध्या, वनविलासिनी, चिरिण्टी, जैसा रस निकलता है। गंध तिल के ताजे तेल जैसी और शङ्खकुसुमा, भूलग्ना, शङ्खमालिनी ये सब बारह नाम स्वाद तेलिया, दाहक और चरपरा लगता है। तना और शंखपुष्पी के हैं।
शाखायें सुतली के समान पतली और सफेद वालों की (राज०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ०५६) रोमावली से भरी हुई होती है। पान एकान्तर होते हैं। अन्य भाषाओं में नाम
ये .५ से १ डेढ़ इंच लंबे और १/४ से .५ इंच चौड़े होते हि०-शंखाहुली, शंखपुष्पी। बं०-शंखाहुली, हैं। पत्र दंड बहुत सूक्ष्म होता है। पान पत्रदंड की ओर डामकली। म०-शंखाहुली, शंखवेली। क०-शंखपुष्पी, तंग तथा सिरे की ओर चौड़े होते हैं। पान मलने से बहुत ययोची, दण्डोत्पल | पोरबंदर और गुजरात०-शंखावली, चिकने लगते हैं। इसमें से मूली के पत्तों की गंध से मिलती संखावली। कच्छी०-मखणवल, अच्छीशंखवल। गंध आती है। स्वाद खारापन लिये चिकना और चरपरा राज०-शंखावली। अंo-Pladera Deccussat (प्लेडेरा होता है। फूल .५ से १ इंच व्यास के होते हैं। पत्र कोण डेक्यूसाटा) ले०-Canscora Deccusata alt (केन्सकोरा के सिरे से मिलती हुई होती है। फल गोलायी लिए सिरे डेक्यूसाटा एल्ट)।
पर कुछ तंग और अणीदार होते हैं। फल भूरे रंग का उत्पत्ति स्थान-भारत में सर्वत्र, विशेषकर गुजरात, ५ इंच लंबा, चिकना और चमकदार दोनों ओर सफेद
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रंग की झांई दीखती है। बीज १/१६ इंच लंबे होते हैं। (धन्य० वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० २५२.२५३)
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संघट्ट
संघट्ट (सङ्घट्टा) लता, कैवर्त्तिका, प० १/४०/३ (वैद्यक शब्द सिन्धुपृ० १०६२)
सङ्घट्टा | स्त्री । लतायाम् लता के पर्यायवाची नाम
कैवर्त्तिका सुरङ्गा च लता वल्ली द्रुमारुहा । रिङ्गिणी वस्त्ररङ्गा च, भगा चेत्यष्टधाभिधा । 1995 // कैवर्त्तिका, सुरङ्गा च लता, वल्ली, द्रुमारुहा, रिङ्गिणी, वस्त्ररंगा तथा भगा ये सब कैवर्त्तिका के आठ नाम हैं।
( राज० नि० ३ / ११६ पृ० ५४)
कैवर्त्तिका - स्त्री० मालवे प्रसिद्ध लताविशेष (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० ४४ )
संघाड
संघाड (शृंगाट) सिंघोडा शृंगाट | पुं । जलकण्टक ।। सिंघाडे
( शालिग्रामौषधशब्द सागर पृ० १८६) शृङ्गाट के पर्यायवाची नाम
जलसूचिः, सङ्घाटिका, वारिकण्टकः, शुक्लदुग्धः, वारिकुब्जकः
क्षीरशुक्लः, जलकण्टकः, शृङ्गकन्दः, शृङ्गमूलः,
शृङ्गरुहः
प० १/४८/६२
शृङ्गाटः, शृङ्गाटकः, जलवल्ली, जलाशयः, विषाणी । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०६५)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - सिंघाडा, सिंहाडा । बं० - पानीफल, सिंगाडे । म० -- शिंघाडे, शेंगाडा । गु० - शींघोडा। क० - सिंगाडे । ते० - परिकिगडु | अं० - Water Caltropas (वाटर कॅलट्रॉप्स) Water Chestnut (वाटर चेष्टनट) ले० - Trapa bispinosa Roxb (टॅपावाइस्पाइनोसा) Fam. Onagraceae (ओनेग्रेसी) । उत्पत्ति स्थान- प्रसिद्ध पानीयफल अनेक प्रान्तों
जैन आगम वनस्पति कोश
के बड़े छोटे ताल-तलैयों में उत्पन्न होता है।
263. Trapa bispinosa Roxb. ( পানিফण)
विवरण- इसका जलीय क्षुप जलकुंभी के समान पानी के ऊपर फैला रहता है। पत्ते जलकुंभी के समान होते हैं परन्तु वे त्रिकोणाकार होते हैं। फूल सफेद आते हैं, जो शाम को फूलते हैं। फल त्रिधारे होते हैं और उनके ऊपर-ऊपर कांटे होते हैं, जो देखने में बैल के सिर की तरह दिखलाई देते हैं । छिलका मोटा होता है और गुदी सफेद होती है। फल को उबाल कर या कच्चा ही छिलका निकालकर आहार के रूप में खाया जाता है। काश्मीर में एक बिना कांटे की जाति पाई जाती है ।
(भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग० पृ० ५७८, ५७६)
DOOD
सज्जा
सज्जा (सर्ज) बडा शालवृक्ष
भ० २३/४
सर्ज । पुं । शालवृक्ष । सर्जरस । पीतसाल । (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० १६३)
सर्ज के पर्यायवाची नाम
सर्वे कायजकर्णश्च, कषायी चिरपत्रकः । सस्यसंवरणः शूरः, सर्वोऽन्यः शाल उच्यते । ।६०६ ।। सर्ज, कार्श्य, अजकर्ण, कषायी, चिरपत्रक, सस्यसंवरण, शूर, शाल ये सब सर्ज (साल) के पर्यायवाची हैं ।
(सोढल० नि० प्रथमोभागः श्लोक ६०६ पृ० ६७)
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देखें सज्जाय शब्द।
नाम हैं।
(शा०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३२७) सज्जाय
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-मोइया, अम्बारी, पटसन, पटुवा, सन, सज्जाय (सर्जक) बडा शाल, शाल का भेद
कुद्रुम। बं०-मेस्टापाट । क०-पुडोन। म०-अम्बाड़ी प०१/४७
गु०-भिंडी, अम्बोई। ता०-फलगु। ते०-गोंगुकुरू। सर्जक पुं। पीतशाल |शाल ।
सन्ता०-डरेकुद्रुम । उडि०-कनुरिया । सि०-सज्जाडो। (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० १६३)
अंo-Indian hemp (इन्उियन हेम्प) Gute (जूट) Deccan सर्जक के पर्यायवाची नाम
hemp (डेक्कन हेम्प) Bimlipatam Gute (विमली पटम्जूट)। सर्जकोऽन्योऽजकर्णः स्याच्छालो मरिचपत्रकः।
(भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग पृ० ८८.८६) सर्जक, अजकर्ण, शाल और मरिचपत्रक ये सब साखू के भेद के संस्कृत नाम हैं।
(भाव०नि० वटादिवर्ग०पृ० ५२०,५२१) अन्य भाषाओं में नाम
हिo-बडा शाल । बं०-कुन्द्रो । म०-सफेद डामर, चन्द्रुस। गु०-धूप। क०-दमर। ते०-तेलदामरमु । ता०-बेलकुनुरिकम। यूना०-संद्रस, सुंदस। ले०Vateria Indica Linn (बेटेरिया इण्डिका) Fam. Dipterocarpaceae (डिप्टेरोकार्पेसी)।
उत्पत्ति स्थान-यह पश्चिम भारत और दक्षिण हिन्दुस्तान के जंगलों में बहुत होता है।
विवरण-इसका वृक्ष बहुत हराभरा और सुहावना दिखाई पड़ता है। पत्ते ४ से १० इंच तक लंबे तथा ३. ५ इंच तक चौड़े, जड़ की ओर गोलाकार और अंडाकार होते हैं। २ से २.५ इंच लंबे गोल होते हैं।
(भाव०नि० वटादिवर्ग पृ० ५२१) विमर्श-भाव प्रकाश निघंटुकार ने सर्जक को शाल का भेद (बडा शाल) माना है। (भाव०नि०पृ० ५२०.५२१)
उत्पत्ति स्थान-प्रायः सब प्रान्तों में इसकी खेती
की जाती है परन्तु पश्चिमी घाट के पूर्व में यह आप ही सण
आप जंगली उत्पन्न होता है। सण (शण, सण) सन भ० २१/१६ प० १/३७/४
विवरण-इसका क्षुप ३ से ६ हाथ तक ऊंचा होता शण के पर्यायवाची नाम
है और इस पर सूक्ष्म कांटेदार रोवें होते हैं। जड़ की शणस्त माल्यपुष्पः स्याद, वामकः कतिक्तकः। भोराने गोलाकार नित करे किनारेत
ओर के पत्ते गोलाकार किंचित कटे किनारेवाले होते हैं निशादनो दीर्घशाख स्त्वक्सारो दीर्घपल्लवः ।।
किन्तु ज्यों-ज्यों पौधे बढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों पत्ते का शण, माल्यपुष्प, वामक, कटुतिक्तक. निशादन, आकार बदलता जाता है। ऊपर के पत्ते ५ से ७ भागों दीर्घशाख, त्वक्सार, दीर्घपल्लव ये शण के पर्यायवाची में विभक्त हो जाते हैं और प्रत्येक भाग दन्तुर होता है।
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फूल पीले रंग के आते हैं। पुष्पदल के मध्य का हिस्सा बैंगनी रंग का होता है। डोडी (फल) गोलाकार नुकीली होती है। बीज भूरे रंग के होते हैं। इसका सर्वांग खट्टा होता है । तन्तु के लिए इसकी खेती की जाती विशेष कर दक्षिण में ।
(भाव० नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ० ८८८६)
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सणकुसुम
सकुसुम (शण कुसुम) शणपुष्पी, पटसन ।
उत्त० ३४/८
शणपुष्प के पर्यायवाची नाम
मातुलानी जन्तुतन्तु, द्वितीयस्तु महाशणः । । ६३ ।। शीघ्रप्ररोही बलवान्, शणो भङ्गा प्रकीर्तिता मातुलानी, जन्तुतन्तु, महाशण, शीघ्रप्ररोही, शण और भङ्गा ये सब शणपुष्प के पर्याय हैं।
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सणकुसुम शब्द पीले रंग की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। शण के पीले पुष्प रंग के होते हैं। कुसुम और पुष्प पर्यायवाची हैं। (कैयेदव नि० धान्यवर्ग ६ / ६३ पृ० ३१८ ) शण की शाखाओं के सिरे पर पुष्प धारण करने वाली शलाकाएं १/२ से १ फीट लंबी पतली होती है। उन पर पीले रंग की तरह एकान्तर फूल आते हैं 1 ( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० २७७)
सतपत्त
सतपत्त (शतपत्र) रक्त कमल, सौ पुष्प दल वाला कमल । जीवा० ३ / २६१
देखें अरविंद शब्द |
सतपोरग
सतपोरग (शतपोरक ) शतपोरक ईख
भ० २१/१८ प० १/४१/२
शतपोरकः।पौरः। पुं। इक्षुविशेषे
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०२२)
जैन आगम वनस्पति कोश
शतपोरक के पर्यायवाची नाम
वंशवच्छतपोरोपि, किञ्चिदुष्णः समीरजित् । ।७ ॥ शतपोरई वंशईख के समान गुणों वाली है और किंचित् गर्म है तथा वात को जीतती है।
(मदन०नि० इक्षुकादिवर्ग ६/७) विमर्श - इस शब्द की संस्कृत छाया शतपर्वक भी हो सकती है।
Sataparvaka शतपर्वक (A.H.) and Sataporoba (S.S.) may be the names of the same variety of Ikhu इक्षु | (Geossary of Vegetable Drugs in Brhattrayi Page. 388)
0.00
सतरि
सतरि (शतावरी) शतावरी
सयरी स्त्री (शतावरी ) शतावर का गाछ ( पाइया सद्दमहण्णव पृ० ८७८)
देखें सयरी शब्द |
भ० २२/३
DOOO
सतवण्ण
सतवण्ण (शक्तिपर्ण) छतिवन, सतौना
प० १/३६/३
शक्तिपर्णः । पुं। सप्तपर्णवृक्षे (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०१६ )
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण के पाठान्तर में सत्तवण्ण पाठ है । शक्तिपर्ण शब्द निघंटुओं में नहीं मिला है। सप्तपर्ण शब्द मिलता है। दोनों एक ही अर्थ के वाचक हैं। इसलिए सप्तपर्ण के पर्यायवाची शब्द दे रहे हैं । देखें सत्तवण्ण शब्द ।
सती
सतीण (सतीन) मटर भ० ५/२०६ : २१/१५ ५० १/४५/१ सतीन के पर्यायवाची नाम
कलायो मुण्डचणको, हरेणुश्च सतीनकः ।। त्रासनो नालकः कण्ठी, सतीनश्च हरेणुकः । । ६६ ।। कलाय, मुण्डचणक, हरेणु, सतीनक, त्रासन, नालक, कण्ठी, सतीन तथा हरेणुक ये सब मटर के नाम हैं। (राज० नि० १६ / ६६ पृ० ५४७)
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जैन आगम : वनस्पति कोश
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में पाया जाता है, किन्तु विशेषरूप से प० समुद्र के किनारे के जंगलों में अधिक पाया जाता है।
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-मटर, मट्टर। बं०-मटर, मठर, वांटुला मटर । म०-वाटाणे । गु०-मटणा, वटाणा । क०-वटाणि कडले। ते०-पेद्दईब्ब | गुण्डु चणगलु, पेछइवा । म०-मटर यू०-मटर कविली। फा०-जलवान, कसंग। अ०-खलज, हब्बुल, बकर | अं0-Field Pae (फील्ड पी) ले०-Pisumsativum (पाइसमसाटिवम)।
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में प्रतिवर्ष बोया जाता है।
विवरण-इसका क्षुप वर्षायु तथा सूत्रों के द्वारा आरोहणशील होता है । पत्ते पक्षवत्, पत्रक १ से ३ जोडे, अंतिम सूत्रों में परिवर्तित तथा पत्राधार फूला हुआ होता है। पुष्पअनियमिताकार द्विलिंगीएवं अपने वर्ग विशिष्ट स्वरूप का होता है। फली अनेक बीजों से युक्त, चिपटी, लंबी तथा अग्र पर कुछ टेढ़ी नोकदार होती है। इसके अनेक प्रकार पाए जाते हैं। (भाव०नि० धान्यवर्ग:पृ० ६४६, ६५०)
विमर्श-स्थानांग वृत्ति पत्र ३२७ में सतीन का अर्थ तूवर किया है-सईणा तुवरी। आयुर्वेद के सभी निघंटु
और शब्द कोशों में सतीन को कलाय का पर्यायवाची मानकर मटर अर्थ किया है।
366.
Alstonia scholaris R. Br. (शडिय)
सत्तवण्ण सत्तवण्ण (सप्तपर्ण) छतिवन, सतौना
जीवा० ३/५८२ जं० २/६ सप्तपर्णो विशालत्वक, शारदो विषमच्छदः ।।७४||
सप्तपर्ण, विशालत्वक, शारद तथा विषमच्छद ये सब छतिवन के संस्कृत नाम हैं।
(भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४६) अन्य भाषाओं में नाम
___हि०-सतौना, सतवन, छतिवन सतिवन। बं०-छातिम। म०-सातवीण। गु०-सातवण, क०हाले। ते०-एडाकुलरि। ता०-एलिलैप्पालै। ले०AlstoniaScholaris R.Br (एलस्टोनिया स्कोलेरिस्) Fam. Apocynaceae (एपोसाइनेसी)।
उत्पत्ति स्थान-इसका वृक्ष प्रायः सब आर्द्र प्रान्तों
विवरण-इसका वृक्ष सुंदर, विशाल, सीधा, सदाहरित एवं क्षीरयुक्त होता है। शाखायें तथा पत्ते चक्रिक क्रम में निकले रहते हैं। पत्ते प्रति चक्र में ३ से ७. प्रायः ६, चिकने, आयताकार-भालाकार या अभि अण्डाकार ऊपर से चमकीले किन्तु नीचे से श्वेताभ ४ से ८ इंच लंबे तथा ६ से १३ मि०मी० लंबे वृन्त से युक्त होते हैं। पुष्प हरिताभ श्वेत तथा गुच्छों में आते हैं। फली दो-दो एक साथ, नीचे लटकी हई १ से २ फीट लंबी तथा ३ मि०मी० व्यास की होती है। बीज ६ मि०मी० लंबे चिपटे तथा रोमश होते हैं। छाल टहनियों की ३ से ४ मि०मी०
एवं काण्ड की ७ मि०मी० मोटी होती है। बाहर से नवीन छाल गहरे धूसर या भूरे रंग की तथा पुरानी बहुत खुरदरी, असमान, फटी हुई होती है तथा उन पर अनेक गोल या आडे, धूसर या सफेद धब्बे रहते हैं। अन्दर से यह भूरे पीताभ या गहरे धूसराभ भूरे रंग की कुछ धारीदार तथा गढेदार रहती है। यह गंधहीन एवं स्वाद में तिक्त रहती है।
(भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५४६, ५४७)
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जैन आगम : वनस्पति कोश
घा
सत्तिवण्ण
अगंधि। मा०-हरकय। मलय०-चुवन्ना, अविलपोरी।
फा०-छोटा चांदा। ले०-Rauwolfia Serpentina benth सत्तिवण्ण (शक्तिपर्ण) छतिवन, सतौना
(रावोल्फिया सर्पेटाइना) Fam. Apocynaceae (ठा० १०/८२/१ भ० २२/३ ओ० ६ जीवा० ३/५८३)
(एपोसाइनेसी)। शक्तिपर्णः ।। सप्तपर्ण वृक्षे।
___ उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप हिमालय के निचले (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०१६)
प्रदेशों में सरहिन्द से लेकर पूर्व में आसाम तक विशेषकर देखें सत्तवण्ण शब्द।
देहरादून, सिवालिक पहाड़ी भाग तथा रोहिलखंड,
उत्तरी अवध और गोरखपुर के हिमालय के निचले भाग सत्तिवण्ण वण
में ४००० फीट की ऊंचाई तक एवं कोंकण, उत्तरी सत्तिवण्ण वण (शक्तिपर्णवन) छतिवन का वन कनारा, दक्षिणी महाराष्ट्र, मद्रास के पूर्वी तथा पश्चिमी
जीवा० ३/५८३
घाट में ३००० फीट तक और विहार के अनेक भाग में, देखें सत्तवण्ण शब्द।
उत्तरी एवं मध्य बंगाल, वर्मा, श्याम और जावा आदि स्थानों में पाये जाते हैं।
विवरण-इसका क्षुप छोटा आकर्षण १ से २ फीट सप्पसुगंधा
ऊंचा क्वचित् ३ फीट तक ऊंचा होता है। पत्र हरे सप्पसुगंधा (सर्पसुगंधा) नाकुली भ० २३/१ चमकीले, ३ से ७ इंच लंबे, १५ से २.५ इंच चौड़े, सर्पसुगंधा (न्धिका) स्त्री। सर्पगन्धायाम् भालाकार या व्यस्तभालाकार, तीक्ष्णाग्र या लम्बाग्र आधार .
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ११०५) की ओर पतले होकर १/२ इंच पत्रनाल से युक्त एवं टहनी सर्पगंधा (न्धिनी) नाकुली नाम महाकन्दशाके के प्रत्येक गांठ पर ३ से ४ के चक्रों में (Whorled) । पुष्प (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ११०४)
श्वेत या साधारण गुलाबी गुच्छों में, २ से ४ इंच लंबे पुष्प सर्पसुगंधा (सुगन्धिका) के पर्यायवाची नाम
दंडों पर। फल छोटे मांसल एक या दो-दो जुड़े हुए, नकुलेष्टा महावीर्या, तथा सर्पसुगन्धिका ।
पकने पर बैंगनी काले । मूल सर्प की तरह टेढ़ा, मेढ़ा, विषघ्नी सुवहा सर्पगन्धा चीरितपत्रिका ।।७७५ ।।।
करीब १६ इंच तक लंबा, ३/४ इंच मोटा, खुरदरा, सुगन्धा नाकुली सर्पलोचना गन्धनाकुली
कुछ-कुछ झुर्रियों से युक्त, शाखाओं से युक्त और उस सर्पकंकालिका ज्ञेया सुनन्दा विषदंष्ट्रिका।।७७६ ।। पर लंबाई में धारियां रहती हैं। इसे तोड़ने पर भग्न छोटा
नकुलेष्टा, महावीर्या, सर्पसुगन्धिका, विषघ्नी, एवं अनियमित । मूल की छाल धूसरित पीत तथा अन्दर सवहा, सर्पगंधा, चीरितपत्रिका, सगन्धा, नाकली. का काष्ठ श्वेताभ, स्वाद में अत्यन्त कडवा तथा गंधहीन। सर्पलोचना गन्धनाकुली, सर्पकंकालिका, सुनंदा,
(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ०८२,८३) विषदंष्ट्रिका ये १४ नाम नाकली के पर्याय हैं। (कैयदेव०नि० औषधिवर्ग० पृ० १४३)
सप्फाय अन्य भाषाओं में नाम
सप्फाय
) प० १/४७; १/४८/५० हि०-धवलबरुआ, नाकुली कंद, नाई, हरकाई
विमर्श-सप्फाय शब्द का वानस्पतिक अर्थ नहीं चन्द्रा, रास्नाभेद, छोटा चांद । बं०-नाकुली, गन्धरास्ना,
मिलता है। प्रज्ञापना १/४८/५० के पाठान्तर में सप्पास चन्द्र। उडी०-धनवरुआ, धवलवरुआ, सनोचाडो
शब्द है, उसका अर्थ मिलता है। इसलिए यहां सप्पास विहार०-धनवरुआ, धवलवरुआ, सनोचाडो।।
शब्द ग्रहण कर रहे हैं। केवल वैद्यक शब्दसिंधु कोष में मा०-अडकई, चन्द्र। क०-सूत्रनाभि। तेल-पाताल
संस्कृत शब्द सप्ताश्व मिलता है जिसका प्राकृत रूप
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सप्पास बन सकता है। संस्कृत के मुक्त शब्द में त का धूप्य, पण्यविलासिनी, सन्धिनाल तथा पाणिरुह ये सब लोप और क को द्वित्व कर प्राकृत में मुक्क रूप बनता नख ('नखी' सुगंधद्रव्य) के अट्ठारह नाम हैं। है। वैसे ही सप्ता के त का लोप कर प को द्वित्त्व करने
(राज०नि० १२/१२०, १२१ पृ० ४२०) से सप्पा रूप बन जाता है। आगे श्व में सर्वत्र व का लोप होता है। इसप्रकार संस्कृत के सप्ताश्व शब्द का प्राकृत
सयपत्त में सप्पास रूप बन सकता है।
सयपत्त (शतपत्र) रक्तकमल, सौपुष्पदल वाला सप्पास (सप्ताश्व) श्वेतरोहीतक सप्ताश्वः ।पुं। अर्कवृक्षे, श्वेतरोहीतकवृक्षे।
कमल।
जीवा० ३/२८६ प० १/४६ ___ रा०नि०व० ८ । (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० १०६८), शतपत्रम् ।क्ली|कमले, शतदलकमले। श्वेतरोहीतक के पर्यायवाची नाम
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०२१) सप्ताहः श्वेतरोहितः, सितपुष्पः सिताहयः शतपत्र के पर्यायवाची नामशिताङ्गःशुल्करोहितो, लक्ष्मीवान् जनवल्लभः ।।१५।।
वा पुंसि पद्म नलिन, मरविन्दं महोत्पलम्। श्वेतरोहित, सितपुष्प, सिताह्वय, शिताङ्ग, शुल्क
सहस्रपत्रं कमलं शतपत्रं कुशेशयम।।१।। रोहित, लक्ष्मीवान, जनवल्लभ ये सब श्वेतरोहितक के नाम पद्म, नलिन, अरविन्द, महोत्पल, सहस्रपत्र, हैं।
(राज०नि०८/१५ १० २३४) कमल, शतपत्र, कुशेशय आदि ये संस्कृत में कमल के विमर्श-वैद्यक शब्द सिन्धु में सप्ताश्व शब्द के लिए नाम हैं।
(भाव०नि० पुष्पवर्ग०पृ० ४७६) राजनिघंटु के वें वर्ग का प्रमाण दिया है। ऊपर के श्लोक
विवरण-कमल पुष्पों में पंखुड़ियों या पुष्पदलों की में सप्ताश्व के स्थान पर सप्ताहव शब्द छप गया है। संभव संख्या बहुत होने से यह शतदल या सहस्रदल कहलाता है छपने की अशुद्धि हो।
है।
(धन्व० वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १३८) विवरण-राजनिघंटुकार ने रोहिडा के दो भेद देखें अरविंद शब्द। बतलाये हैं, लाल और सफेद । ये दोनों भेद राजस्थान में होते हैं। लाल के फूल गहरे लाल होते हैं और सफेद
सयपुप्फा के हल्के पीले।
सयपुप्फा (शतपुष्पा) सोया, वनसौंफ (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० ३०)
भ० २१/२१ प० १/४४/३
विवरण-प्रस्तुत प्रकरण में सयपुप्फा शब्द हरितवर्ग सफा
के अन्तर्गत है। सोया का साग होता है। इसलिए सफा (शफ) नखीगंधद्रव्य
भ० २३/४
सयपुप्फा का सोया अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। शफः पुं। नखीनामगन्धद्रव्ये । पशुखुरे। तरुमूले।
शतपुष्पा के पर्यायवाची नाम(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०२४)
शताहा शतपुष्पा च, मिसि?षा च पोतिका। शफ के पर्यायवाची नाम
अहिच्छत्राप्यवाकपुष्पी, माध्वी कारवी शिफा ।।१०।। नखः कररुहः शिल्पी, शक्तिः शङ्खः खुरः शफ:
सङ्घातपत्रिका छत्रा, वज्रपुष्पा सुपुष्पिका। वलः कोशी च करजो, हनु गहनुस्तथा।।१२० ।।
शतप्रसूना बहला, पुष्पाहा शतपत्रिका।।११।। पाणिजो बदरीपत्रो, धूप्यः पण्यविलासिनी
वनपुष्पा भूरिपुष्पा, सुगन्धा सूक्ष्मपत्रिका। सन्धिनालः पाणिरुहः, स्यादष्टादश संज्ञकः ।।१२१।।
गन्धारिकाऽतिच्छत्रा च, चतुर्विंशति नामका ।।१२।। नख, कररुह. शिल्पी, शुक्ति, शङ्ख, खुर, शफ,
शताहा,शतपुष्पा, मिसि, घोषा, पोतिका, अहिच्छत्रा वल, कोशी, करज, हनु, नागहन, पाणिज, बदरीपत्र अवाकपुष्पी, माधवी, कारवी, शिफा, संघातपत्रिका छत्रा
....
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वज्रपुष्पा, सुपुष्पिका, शतप्रसूना, बहला, पुष्पाह्वा, शतपत्रिका, वनपुष्पा, भूरिपुष्पा, सुगन्धा सूक्ष्मपत्रिका, गन्धारिका तथा अतिच्छत्रा ये चौबीस नाम शताह्वा (सौंफ) के हैं।
(राज० नि०४/१० से १२ पृ० ६३)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - सोआ, सोया वनसौंफ । ब० - सुलफा, शुल्फा । म० - वालन्तशोप । गु० -शुवा, शुवानी, भाजी | पं० - सोया । क० - सल्बसिगे । ते० - पुशतकुपिविट्ठलु । लु० - सोम्पा । I मा० - सोवा, सुवा । ता० - शतकुप्पी, विरइ | अं० - Indian dill fruit (इन्डियन डिल फ्रुट) ले० - Anethum Sowa Kurz (अनेथम सोवा) Fam. Umbelli Ferae (अंबेली फेरी) ।
सोय
उत्पत्ति स्थान - भारत के उष्ण और उपउष्ण प्रदेशों में सर्वत्र बोया जाता है।
विवरण - यह हरीतक्यादि वर्ग और गुञ्जनादि कुल का क्षुप १ से ३ फीट तक ऊंचा होता है। जिसके पत्ते सौंफ के पत्तों के समान किन्तु उनसे छोटे और सुगंधित होते हैं। फूल मिश्रित, छत्र में पीले, १.५ इंच व्यास के, प्रायः फल आने पर ३.५ इंच तक बढने वाला । पुष्पवृन्त १ से २ इंच लंबा, कोमल । पुष्प श्लाका १ से ५ इंच लंबी । पंखुडियां ५ पीली । पुंकेसर ५ । तस्तरी २ खंड वाली। बीजाशय २ खंड वाले निम्न भाग में फूलों
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के भीतर जो बीज लगते हैं वे ही उपयोग में आते हैं। फल सौंफ के बीज के समान किन्तु उनसे बहुत छोटे एवं चपटे होते हैं। उनकी चौड़ाई में दोनों ओर एक पर जैसी बारीक झिल्ली लगी रहती है। स्वाद किंचित् तिक्त एवं तीक्ष्ण और सुगंधित होता है। इसके पौधे की तरकारी बनाई जाती है | फूलने-फलने का समय शीतकाल । (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० ४०३)
1
सयरी
सयरी (शतावरी) शतावर
प० १/३६/२
सयरी (शतावरी शतावर का गाछ ( पाइअसद्द
महणव
शतावरी के पर्यायवाची नाम
शतावरी बहुसुता, भीरुरिन्दीवरी वरी । नारायणी शतपदी, शतवीर्या च पीवरी । ।१८४ ।।
शतावरी, बहुसुता, भीरु, इन्दीवरी, वरी, नारायणी, शतपदी, शतवीर्या, पीवरी ये सब छोटी शतावर के नाम हैं ।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०) पृ० ३६२ )
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - शतावरी, शतावर, शतमूली । बं०- शतमूली, शतावरी । म० - सतावर । पं० - सतावर । ता० - सदावरी, शिमाइ, शदावरी । ते०-सदावरी। मल० - शतावली कश्मी० - सेझना । सि० - तिलोरा, साताबारिप । उर्दू - सतावर फा० - सतावरी । आसामी० - शतमूली । ब्रह्मी० - कनयोमी । म०प्र०सौराष्ट्र- गनवेल, हकुजकंटो, एकलकंटो । राज० - नाहर कांटा। संताली० - केदार नली । अंo - Wild asparagus ( वाइल्ड एस्पेरागस ) । लेo-Aspasagus Racemosus Wild (एस्पेरागस रेसी मोसस विल्ड) Fam. Liliaceae (लिलिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान - समग्र भारतवर्ष, भारत के समशीतोष्ण और उष्ण प्रदेश सिलोन में, हिमालय में ४००० फीट की ऊंचाई तक । अफ्रीका के उष्ण प्रदेश. जावा और आष्ट्रेलिया में । हुगली, हवडा २४ परगना के जंगलों के किनारे, बंगाल में, वर्धमान बांकुञ्ज जिलों में,
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राजस्थान में, उदयपुर जिले की ऐरावली पर्वत श्रेणियों चिकने और चमकदार होते हैं। इनमें कुछ गोल और कुछ में बहुत होती है।
तिकोने होते हैं। बीज १ से २ तक निकलते हैं। ये रंग में काले, व्यास १/४ इंची। कंद में से सैकड़ों उपमूल निकलते हैं। ये उपमूल अंगुली जैसे मोटे १ से १.५ फीट लंबे, धूसर, पीले, स्वाद में मधुर, फिर कडवे, वास कुछ कडवी। एक-एक बेल के नीचे से शतसंख्या या जड़ समूहों से दश-दश सेर तक शतावरी की जड़ें प्राप्त हो जाती है। इन जड़ों के ऊपर भूरे रंग का पतला छिलका रहता है। इस छिलके को निकाल देने पर भीतर से दूध के समान सफेद रंग की जड़ें निकलती है। इस मूल के बीच में कडा एक रेशा होता है जो गीली और सूखी अवस्था में निकाला जा सकता है। कंद के ऊपर की ओर जमीन पर बेल के तने और जमीन में लंबे सूतली से अंगुली के समान मोटी जड़ें निकलती हैं। तने का छिलका हटाने पर अन्दर का भाग हरा होता है। कंद प्रतिवर्ष बढ़ता जाता है और अनेक वर्षों तक रहता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० २०८, २०६)
..
..
सर
सर (शर) रामसर
भ० २१/१८ प० १/४१/१
विवरण-यह गुडूच्यादिवर्ग और पलाण्डुकुल की एक लता होती है। ग्रीष्मारंभ में निकलने वाली छोटी कांटेदार कंद युक्त बेल । १ से १.५ गज बढ़ने पर एक ओर मुडकर बाड़ या वृक्ष पर बहत ऊंची चढ जाती है। इससे कुछ अंतर पर कांटे तीक्ष्ण, पाव से आधा इंच लंबे, वक्राकृति होते हैं। शाखायें चारों ओर अत्यधिक फैली हुई। पत्र पुष्पविहीन, लता देखने में कांटे वाली सफेद डांडी (तना) जैसी दिखाई देती है। पत्र शाखा एकान्तर २ से ६ इंच तक। इसके पत्ते बहत महीन पौन से एक इंच लंबे सोया के पत्तों की तरह होते हैं। इसके फूल नवम्बर में सफेद सुगन्धित और छोटे होते हैं। पुष्पमंजरी (तुर्रा १ से २ इंच लंबा) पुष्पव्यास १/१२ से २ लाइन जितना होता है। पुष्प एक ही वक्त हजारों खिलते हैं, जिससे इसकी सारी लता सफेद दिखाई देती है। बाह्यान्तर कोष ६, पुंकेसर ६ पराग कोष हलका पीला
और परागरज केसरिया रंग की होती है। स्त्रीकेसर १, गर्भाशय हरे पीले रंग का । फल शीतकाल के अंत में लाल रंग के छोटे आते हैं। ये काली मिर्च या चने के दाने जैसे
50
.
374. Vallaris heynei Spreng. (शमनमानो) शर के पर्यायवाची नाम
सञ्ज: शरो वाण स्तेजन श्वेक्षवेष्टनः ।।१५८ ।। भद्रमुंज, शर, वाण, तेजन और इक्षुवेस्टन ये सब
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नाम सरपत के हैं। (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३७६) उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष हिमालय में, अन्य भाषाओं में नाम
अफगानिस्तान से लेकर काश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हि०-भद्रमुंज, रामसर, सरपत, कंडा। भूटान तथा आसाम एवं वर्मा में, २००० से ६००० फीट कo-रामसपु, सरगोलु । सन्ताल०-सर ते०-वेल्लुपोनिक की ऊंचाई तक प्रायः समूह बद्ध होकर उगे हुए पाए जाते सिंध-सर। बं०-शर। म०-शर। पं०-करकाना। हैं। इसकी ४-५ जातियां भारतवर्ष में पाई जाती हैं जिनमें गु०-तीरकांस | ले०-Sacecharum munjaRoxb (संकेरम् से पा० एक्सेल्सा बाल, तथा पा. खास्या रायली मुख्य मुंज राक्स) Fam. Gramineae (ग्रॅमिनी)।
उत्पत्ति स्थान-यह उत्तर भारत, पंजाब तथा गंगा के ऊपरी मैदान में उत्पन्न होता है।
विवरण-यह तृणजाति की बहुवर्षायु वनस्पति प्रायः नदियों के किनारे गुच्छों में उगती है। यह १२ से १८ फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते बहुत पतले-पतले, ५ से ७ फीट लंबे, ३/४ से १ इंच चौड़े तथा तीक्ष्णाग्र होते
पत्र हैं। डंठल के अंत में पीताभ सफेद से रक्ताभ बैंगनी बारीक फूलों का घनहरा लगता है। इसके कांडपत्र तथा पत्रकोषों से निकाले रेशे काम में लिये जाते हैं। इसकी एक और जाति होती है जिसे मूंज कहा जाता है जो आकार प्रकार में छोटी होती है।
(भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० ३८०)
4U
फल,
सरल सरल (सरल) चीड, धूपसरलभ० २२/१५० १/४३/१
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सरल शब्द वलयवर्ग के अन्तर्गत है। इसकी छाल १ से २ इंच मोटी होती है। सरल के पर्यायवाची नाम
सरल: पीतवृक्षः स्यात्, तथा सुरभिदारुकः।। विवरण-चीड़ के प्रकाशप्रिय विशालवृक्ष बहुत
सरल, पीतवृक्ष तथा सुरभिदारुक ये सब संस्कृत सीधे (सरल) तथा १०० से १५० फीट ऊंचे होते हैं। स्तंभ नाम चीड के हैं। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग० पृ० १६७) सीधा, गोल एवं घेरा ५ से ७ फीट या १२ फीट तक होता अन्य भाषाओं में नाम
है। छाल खुरदरी, ऊंची नीची, गढेदार एवं १ से २ इंच हिo-धूपसरल, चिर, चीढ़, चीड । बं०-सरलगाछ, मोटी होती है। काष्ठ स्निग्ध तथा तीक्ष्णगंधी होता है। तापींन तैलेरगाछ। म०-सरल। गु०-सरल देवदार, पत्ते छोटी-छोटी टहनियों के अंत में ६ से १२ इंच लंबे, तेलियो देवदार । ता०-शिरसाल । नेपा०-धूपसलसी। पतले, कुछ-कुछ त्रिकोणयुक्त, हलके हरे रंग के एवं अ०-शज्रतुल्, बक, सनोवर हिन्दी। फा०-दरखने तीन-तीन के समूह में पाये जाते हैं। माघ से चैत्र तक वसक। अं०-Long leaved Pine (लॉग लीह्वड पाइन) फूलों के गुच्छे लगते हैं। एक वर्ष के उपरांत में इसके Chir pine (चीरपाइन)। ले०-Pinus Longifolia Roxb फल या डोडे पकते हैं। नरमंजरी प्रायः १/२ इंच लंबी (पाइनस् लॉगिफोलिया रॉक्स) Fam. Pinaceae (पिनॅसी)। और सामूहिक शंकाकार, फल एकाकी अथवा ३ से ५
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तक एक साथ रहते हैं, जिनमें प्रत्येक ४ से ८ इंच लंबा ता०-कडुगु ।फा०-सर्षक,सरशफ,सिपन्दान |अ०-उर्फे, और ३.५ इंच मोटा लट्वाकार होता है। बीजवाहक पत्रों अबीयद, खर्दले, अवयज़ हुर्फ। अ०-Yellow Sarson का अग्र मुड़ा हुआ मोटा, प्रायः एक तीक्ष्ण काले नोक (यलो सरसों) Indian Colza (इन्डियन कोलझा) और पृष्ठ पर ४ से ५ कोणों से युक्त होता है। चैत्र वैशाख ले०-Brassica Campestris Var. Sarson Prain (ब्रासिका में फल फट जाते हैं जिनमें से बीज निकलते हैं। तथा केम्पेसट्रिसबेराइटीसरसों) Fam.Cruciferae (क्रूसी फेरी)। फल वृक्ष पर ही लगे रहते हैं। बीज १/२ इंच से कुछ उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में कम लंबा, चिपटा, पंख युक्त और ऊपर से भालाकार इसकी खेती की जाती है। बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश होता है।
एवं पंजाब में यह अधिक होती है। (भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग पृ० १६८) विवरण-यह धान्यवर्ग और राजिका कल का क्षप
है। मूल वर्षायु, पतला। तना खड़ा, शाखायुक्त १ से ३ सरलवण
फीट (कभी ६ फीट तक) ऊंचा। पान तना के प्राथमिक सरलवण (सरलवन) चीड़ वृक्षों का वन
हो, वे बड़े वृन्त युक्त फिर आने वाले कम वृन्त युक्त,
न्यूनाधिक विभागवाले । पुष्प बड़े तेजस्वी पीले । पुष्प वृन्त जीवा०३/५८१ जं०२/६
पौण इंच । फली १.५ से ३ इंच लंबी सीधी। बीज छोटे, देखें सरल शब्द।
चिकने, हल्के या गहरे रंग के । फूलने-फलने का समय
माघ से फाल्गुन। सरिसव
सरसों पीली, हल्की पीली (सफेद), काली पीली सरिसव (सर्षप) सरसों भ० २१/१६ प० १/४५/२ (काली) एवं छोटे बड़े बीज वाली कितनी जाति की होती
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० ३०६)
सरसों.
.
सल्लई सल्लई (शल्लकी) सलइ भ० २२/२ पृ० १/३५/१ शल्लकी के पर्यायवाची नाम
शल्लकी गजभक्ष्या च, सुवहा सुरभी रसा। महेरुणा कुन्दुरुकी, वल्लकी च बहुस्रवा।।२२।।
शल्लकी, गजभक्ष्या, सुवहा, सुरभि, रसा, महेरुणा, कुन्दुरुकी, वल्लकी और बहुसवा ये सल्लई के संस्कृत नाम
(भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५२१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-सालई, सलई। बं०-सलै। म०-सालई वृक्ष । गु०-शालेडु, धूपडो, सालेडा। कुमायु-अदुंकु । गोंड-सल्ल। सन्ताल०-सालगा। क०-मादिमर। ता०-कुंदुरुकम्। मा०-सेलो। ते०-परंगिसाम्राणि । ले०-Boswellia serrata Roxb (वॉस् वेलिया सेरेटा) Fam. Burseraceae (वर्सेरसी)।
सर्षप के पर्यायवाची नाम
सर्षपः कटुकः स्नेह, स्तन्तुभव कदम्बकः।।
सर्षप, कटुक, स्नेह, तन्तुभ, कदम्बक ये सब सरसों के संस्कृत नाम हैं।(भाव० नि० धान्यवर्ग० पृ० ६५४) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-सरसों, सरिसो, सौ। बं०-सरीसा। म०-शिरशी । गु०-शरशव । क०-सासवे | तेo-आवालु।
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उत्पत्ति स्थान-यह पश्चिम हिमालय के नीचे के जंगलों में, मध्यभारत, बिहार से राजपुताना तक, दक्षिण
और कोंकण आदि प्रान्तों में होता है। आसाम तथा बंगाल में नहीं होता है।
विवरण-शालइ का वृक्ष ३० फीट तक ऊंचा होता है। शाखाएं नीचे की ओर झुकी हुई होती हैं। छाल रक्ताभ पीत या हरितश्वेत चिकनी और कागज के समान छूटने वाली होती है। संयुक्त पंक्तियां शाखाओं के अग्र पर दलबद्ध रहती हैं। पत्रक आमने सामने वा कुछ अंतर देकर ८ से १५ जोड़े होते हैं, जो लंबे, नीम के पत्तों के समान भालाकार या रेखाकार तथा दन्तमय धारवाले होते हैं । पुष्प छोटे एवं श्वेत रंग के होते हैं। पुष्प के बाह्य कोश एवं आभ्यन्तर कोश के दल ५-५, पुंकेसर ५ बड़े और ५ छोटे होते हैं। फल मांसल और तीन धार वाला होता है, जो पकने पर तीन भागों में फटता है।
(भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ० ५२१)
पत्र
बीज
शारखHA
बोल
सस सस (शश) बोल, हीराबोल प० १/४०/५ शशः (क:) लोध्रवृक्षे । बोले। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०३१)
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सस शब्द वल्ली वर्ग के अन्तर्गत है। लोध का वृक्ष २० फुट ऊंचा होता है और हीराबोल का १० फुट का होता है। इसलिए यहां बोल (हीराबोल) अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। शश शब्द कोशों में है लेकिन निघंटुओं में शश शब्द नहीं मिलता। इसलिए बोल शब्द के पर्यायवाची नाम दे रहे हैं। बोल के पर्यायवाची नाम
बोलगन्धरसप्राणपिण्डगोपरसाः रमाः।
बोल, गन्धरस, प्राण, पिण्ड तथा गोपरस ये सब बोल के संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० धात्वादिवर्ग० पृ० ६२२) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-बोल, हीराबोल । बंब०-करम, बंदरकरम । अं०-Myrrh (मिह) ले०-Commiphora myrrha Holmes (कॉम्मिफोरा मिह) Fam. Burseraceae (वर्सेसी)।
उत्पत्ति स्थान-इसका वृक्ष उत्तर पूर्व अफ्रीका तथा अरब में पाया जाता है।
विवरण-यह करीब १० फीट ऊंचा होता है। यह उपर्युक्त वृक्ष का निर्यास है। अधिकतर यह अपने आप ही निकला हुआ पाया जाता है किन्तु कभी-कभी वृक्षों में चीरा लगाकर भी इसे प्राप्त करते हैं। यह पीताभ श्वेत गाढ़ा तरल पदार्थ होता है, जो वृक्ष से निकलते ही गरमी से सूखकर रक्ताभ भूरा हो जाता है।
(भाव०नि० पृ० ६२३)
सस सस (शश) लोध
प० १/४०/५ शश(क:) लोध्रवृक्षे ।बोले (वैद्यक शब्द सिन्धु पु० १०३१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-लोध, लोध । बँ०-लोध, लोध्र । म०-लोध्र । 7०-लोधर । मल०-पाचोट्टी। कन्नड०-बाला लोट्,
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JAN
hapan
गिनाभारा, पाचे? कर्णाo-लोध। तo-तेल लोदुग श्यामम् ।क्ली० । मरिचे। सिन्धुलवणे । श्यामाके। चेटु । आसामी०-मोमरोत्ती। अ०-मूगामा । अंo-Lodh वृद्धदारके कोकिले। धुस्तूरवृक्षे। पीलुवृक्षे। tree Bark (लोध ट्री बाक) ले०-Symplocos Racemosa
दमनकवृक्षे। गंधतृणे। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ७८६) Rosele (सिम्प्लोकोस रेसिमोसा)।
__ उत्पत्ति स्थान-लोघ्र के वृक्ष ब्रह्मा, आसाम, बिहार, अयोध्या के जंगल, मालाबार, उत्तरपूर्वी भारत में २५०० फीट की ऊंचाई पर तेराई के कुमाऊं तक, छोटा नागपुर और हिमालय तथा खासिया पहाड़ियों के मैदान
और नीचे के स्थानों में पैदा होते हैं। - विवरण-यह हरीतक्यादि वर्ग और लोध्रादि कुल का एक छोटी जाति का हमेशा हरा रहने वाला वृक्ष होता है। इसके पत्ते लंबे, गोल, नोंकदार चिकने १.७५ से ५ इंच तक लंबे कंगूरेदार होते हैं । पत्रदण्ड १/२ इंची। इस वृक्ष की छाल बहुत मोटी और रेशे वाली होती है । पुष्पदंड
फलट २ से ४ इंची। फूल पीले रंग के सुगंधित और सुंदर होते हैं। पुष्पत्वक १/६ इंची। फूल में पुंकेसर करीब १०० होते हैं। गर्भाशय में ३ विभाग लोमयुक्त होते हैं। फल आधा इंच लंबा, १/८ इंच चौड़ा, शंकु के आकार का होता है। फल पकने पर बैंगनी रंग का होता है। इस फल के अंदर
. एक कठोर गुठली रहती है। उस गुठली में दो-दो बीज होते हैं। इसकी छाल गेरुए रंग की और बहुत मुलायम होती है। इसकी छाल और पत्तों से रंग निकाला जाता है। इसकी छाल ऊपर से सफेद तुरन्त टूट जाय ऐसी विमर्श-साम शब्द के ऊपर ६ अर्थ बतलाये गये और ऊपर खड़े चीरे पड़े हुए तोड़ने से अन्दर से सहज हैं। प्रस्तुत प्रकरण में साम शब्द गुच्छ वर्ग के अन्तर्गत लाल रंग की और खुशबू वाली होती है। फूलने फलने है। इसलिए यहां मरिच अर्थ ग्रहण कर रहे हैं क्योंकि का समय-नवम्बर से फरवरी तक फूल आते हैं और मरिच के फल गुच्छों में लगते हैं। मार्च से जून तक फल आते हैं।
श्याम के पर्यायवाची नाम(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० १६८)
मरिचं पलितं श्याम, कोलं वल्लीजमूषणम्।
यवनेष्टं वृत्तफलं, शाकाङ्गं धर्मपत्तनम् ।।३०।। सहस्सपत्त
कटुकञ्च शिरोवृत्तं, वीरं कफविरोधि च।
रूक्षं सर्वहितं कृष्णं सप्तभूख्यं निरूपितम्।।३१।। सहस्सपत्त (सहस्रपत्र) हजार पुष्प दलों वाला
मरिच, पलित, श्याम, कोल, वल्लीज, ऊषण, कमल। जीवा० ३/२८६, २६१ प० १/४६
यवनेष्ट, वृत्तफल, शाकाङ्ग, धर्मपत्तन, कटुक, शिरोवृत्त,
वीर, कफविरोधि, रूक्ष, सर्वहित तथा कृष्ण ये सब मरिच साम
के सत्रह नाम हैं। (राज०नि०६/३०, ३१ पृ० १४०) साम (श्याम) मरिच
प० १/३७/४
अन्य भाषाओं में नाम
मरिच, मिरच, गोलमरिच, काली मरिच, दक्षिणी
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जैन आगम : वनस्पति कोश
मरिच, गोल मिर्च, चोखा मरिच। बं०-मरिच, गोल श्यामम् ।क्ली० । मरिचे। सिन्धुलवणे। श्यामाके। मरिच, गोलमिरच, मुरिच, मोरिच | म०-मिरे, काली वृद्धदारके । कोकिले । धुस्तूरवृक्षे । पीलुवृक्षे । दमनकवृक्षे । मिरी क०-ओल्ले मेणसु। गु०-मरि, मरितीखा, मरी, गंधतृणे।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०७८६) काला मरी। ते०-मरिचमु, शव्यमु, मरियलु । ता-मोलह विमर्श-साम (श्याम) शब्द के ऊपर ६ अर्थ शेव्वियम् । पं०-काली मरिच, गोल मिरिच । म०-काली बतलाये गए हैं। प्रस्तुत प्रकरण में सामशब्द गुच्छ वर्ग मरिच। मोटिया०-स्पोट। काश्मी०-मर्ज। सिंधी- के अन्तर्गत है। इसलिए यहां मरिच (कबावचीनी) अर्थ गूलमिरीएं। मला०-लइ, कुरुमुलक, कुरू मिलगु। ग्रहण कर रहे हैं। अफ०-दारुगर्म। फा0-पिल्पिले अस्वद, फिल्फिल मरिच के पर्यायवाची नामअस्वाद, स्याहगिर्द, हलपिलागिर्द, फिल्फिलस्याह। कङ्कोलकं कृतफलं, कोलकं कटुकं फलम् । अ०-फिल्फिले अवीद, फिलफिलगिर्द, फिल, विद्वेष्यं स्थूलमरिचं, कर्कोलं माधवोचितम् ।। फिलस्सोदाय, पिल पिलेगिर्द। अंo-Black, pepper कङ को लं कट् फलं प्रोक्तं, मरीचं (बलॅक पेपर)। ले०-Pipernigrum Linn (पाइपर नाइग्रम रुद्रसम्मितम् ।।७६ ।।। लिन०) Fam. Piperaceae (पाइपरेसी)।
कङ्कोलक, कृतफल, कोलक, कटुक, फल, उत्पत्ति स्थान-दक्षिण कोकण, आसाम, मलाबार विद्वेष्य, स्थूलमरिच, कर्कोल, माधवोचित, कङ्कोल, तथा मलाया और स्याम इसका उत्पत्ति स्थान है। दक्षिण कट्फल तथा मरिच ये सब कंकोल के ग्यारह नाम हैं। भारत के उष्ण और आर्द्रभागों में त्रिवांकुर, मलाबार,
(राज०नि०१२/७६ पृ०४११) आदि खादर तथा गीली जमीन में यह अधिकता से उत्पन्न होती है, कच्छार, सिलहट, दार्जिलिंग सहारनपुर और देहरादून के पास भी इसकी खेती की जाती है। वर्षाऋतु में इसकी लता को पान के बेल के समान छोटे-छोटे टुकड़े कर बड़े-बड़े वृक्षों की जड़ में गाड़ देते हैं। ये लतारूप से बढकर वृक्षों का सहारा पाने से उनके ऊपर चढ़ जाती हैं।
विवरण-पत्ते ५ से ७ इंच लंबे तथा २ से ५ इंच चौड़े, गोलाकार, नुकीले तथा पान के पत्तों के आकार के होते हैं। फल गुच्छों में लगते हैं। कच्ची अवस्था में फल हरे रंग के होते हैं। उस अवस्था में चरपराहट कम होती है। जब पकने पर आते हैं तब उन का रंग नारंग लाल हो जाता है। उसी समय तोड़कर सुखा लेते हैं। सूखने पर काले रंग के हो जाते हैं। पूरे पक जाने पर
503. Pipir nigrum Linn. (नानाविक) तोड़ने से चरपराहट कम हो जाती है। (भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ० १७) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-शीतलचीनी, कबाबचीनी, कंकोल। साम
बं०-कोकला। म०-कंकोल, कापुर चीनी, कबाबचीनी। साम (श्याम) कंकोल, कबावचीनी, शीतलचीनी गु०-कंकोल, चणकवात। तै०-कबाबचीनी। फा०
कबावह अ०-कवाबाहव्वउल्लरूस अं०-Cubeb Pepper प०१/३७/४
(क्युवेव पेपर)। ले०-Cubeba Offici Nalis (क्युबेबा
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आफिसि नेलिस) ।
उत्पत्ति स्थान- जावा सुमित्रा, बोर्निओ, मलाया आदि देशों में खूब होती है। भारत के दक्षिण में विशेषतः सीलो, मद्रास, मैसूर में इसकी उपज होती है ।
विवरण - यह एक लताजाति की वनस्पति का पूर्णरूप से विकसित किन्तु अपक्व अवस्था में सुखाया हुआ फल है, जो काली मरिच के समान होता है। इसकी आरोही बहुवर्षायु लता होती है। कांड चिकना, लचीना एवं जोड़दार होता है। पत्ते अखंड सवृन्त आयताकार या लट्वाकार-आयताकार, नोकीले गोल या हृवत् पर्णतलवाले चर्मवत् तथा चिकने होते हैं। शिराएं बहुत होती हैं। पुष्प अद्विलिंगी तथा अवृन्त-काण्डज पुष्पव्यूहों में आते हैं। फल गोल अष्ठिफल होते हैं, जिनमें आधार की तरफ डंठल लगा रहता है। हरी अवस्था में ही इन्हें तोड़कर धूप में सुखा लिया जाता है। यह अपक्वफल कालीमिर्च के समान गोल, झुर्रीदार, गहरे भूरे रंग के एवं करीब ४ मि.मि. व्यास के सूखे हुए होते हैं । इसके शिखर पर त्रिकोणयुक्त कुक्षि लगी रहती है तथा आधार पर ४ मि.मी. लम्बा डंठल रहता है। इसके अंदर एक बीज रहता है। इसको चबाने से मनोरम, तीक्ष्ण मसालेदार विशिष्ट गंध आती है, स्वाद कडुवा, चरपरा तथा जीभ ठंडी मालूम पड़ती है । औषध में इन्हीं फलों का व्यवहार किया जाता है। कुछ लोग इसके दो भेद मानते हैं। छोटे तथा पतले छिलके वाले फलों को बावचीनी कहा जाता है। वास्तव में एक ही लता के ये फल होते हैं। प्राचीन काल से मुखशुद्धि के लिए पान के साथ या स्वतंत्र रूप में तथा मसालों में इसका प्रयोग किया जाता रहा है। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग० पृ०२५६)
सामग
सामग (श्यामक) सांवा धान्य । श्यामक के पर्यायाची नाम
प०१/४५/२
श्यामाकः श्यामकः श्यामस्त्रिबीजः स्यादविप्रियः ।। सुकुमारो राजधान्यं, तृणबीजोत्तमश्च सः ।।७६।। श्यामाक, श्यामक, श्याम, त्रिबीज, अविप्रिय, सुकुमार राजधान्य तथा तृणबीजोत्तम ये सब सामा के
संस्कृत नाम हैं। अन्य भाषाओं में नामहि० - सावाँ, सांवा । बं० - सावा, शामुला, श्यामाधान । म० - जंगली सामा, सामुल । गु० - सामो, सामो घास । ते० - ओड्डलु । ता० - कुद्रैवलिपिल्लु । क० - समै, सवै । अंo - Japanese Barnyard millet (जापानीज वार्नयार्ड मिलेट) । ले० - Echinochloa Frumentacea link (एचिनोच्लोआ फ्रूमेन्टेसिआ ) Fam gramineae (ग्रेमिनी)।
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(भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ०६५८)
उत्पत्ति स्थान - सभी स्थानों पर इसकी खेती की जाती है। वर्षा के आरंभ में अन्य धान्यों के साथ इसे बोते हैं। यह बहुत जल्दी (६ सप्ताह) तैयार हो सकता है।
विवरण - इसका क्षुप वर्षायु, २ से ४ फीट ऊंचा पत्ते चौड़े । शूचिकाएं बड़ी एवं बीज छोटे, चिकने, चमकीले आधार पर गोल एवं अग्र नोकीला रहता है। इस धान्य को गरीब खाते हैं। इसको उबालकर या कुछ भूनकर खाया जाता है । (भाव०नि०धान्यवर्ग० पृ०६५८)
DOOD
सामलता
सामलता (श्यामलता) कृष्णसारिवा, दुधलत, काली अनन्तमूल
प०१/३६/१
श्यामलता के पर्यायवाची नाम
श्यामलता च पालिन्दी, गोपिनी कृष्णशारिवा । श्यामलता, पालिन्दी, गोपिनी, कृष्णशारिवा ये कृष्णसारिवा के नाम हैं । (शा०नि०गुडूच्यादिवर्ग पृ०३२४) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - कालीसर, कालीअनन्तमूल, दुधलत । बं० - कृष्ण अनन्तमूल, श्यामालता । म० - श्यामलता । क० - करीउंबु । ते० - नलतिग । ले० - Ichnocarpus fruite I scens. R. Br. (इक्नोकार्पस् फ्रूटे सेन्स) ।
उत्पत्ति स्थान - यह हिमालय प्रान्त के नेपाल, गंगानदी के आसपास, बंगाल, आसाम, सिलहट, चटगांव और दक्षिण आदि प्रायः सभी प्रान्तों में उत्पन्न होती है।
विवरण - यह लता जाति की वनौषधि छोटे वृक्षों या गुल्मों पर चढ़ जाती है और सदा हरीभरी रहती है।
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जैन आगम : वनस्पति कोश
पापस
शाखायें प्रायः मुरचई रंग की होती है। पत्ते अण्डाकार वन, उपवन और वाटिकाओं में उत्पन्न होता है। या चौड़ाई लिये हुये आयताकार, तीक्ष्णाग्र या कुछ-कुछ विवरण-इसके वृक्ष बहुत विशाल और मोटे हुआ लम्बाग्र, चिकने, २ से ३ इंच लम्बे तथा ३/४ से १५ करते हैं। डालियों पर छोटे-छोटे नुकीले कांटे होते हैं। इंच चौड़े एवं १/४ इंच लम्बे वृन्त से युक्त होते हैं। पुष्प सतिवन के पत्तों के समान इसके पत्ते एक-एक डंडी १ से ३ इंच लम्बी पुष्पमंजरियां पत्रकोण या शाखाग्र से के अंत में ५ से ७ फैले हुए होते हैं। फूल लाल । पुष्पदल निकलती रहती हैं, जिनमें छोटे-छोटे श्वेत सुगंधित मोटा, लुआवदार एवं २ से ३ इंच तक लम्बा होता है। रहते हैं। आभ्यन्तर दलों के खण्ड रोमश एवं मरोडे हुए फल ५ से ६ इंच लम्बे, लम्बगोलाकार काष्ठवत् एवं हरे रहते हैं। फलियां लम्बी एवं दो-दो एक साथ रहती हैं। होते हैं और उनके भीतर रेशम जैसी रुई तथा काले बीज बीज नालीदार एवं रोमगुच्छ से युक्त होते हैं। इसकी होते हैं। इसके १ से १.५ साल के छोटे वृक्ष के मूल निकाल जड़ अनन्तमूल जैसी ही दिखलाई देती है। इस पर की कर सुखा लेते हैं, जिन्हें सेमल मूसली कहा जाता हैं। छाल कृष्णाभ भूरे रंग की एवं काष्ठ से चिपकी रहती
(भाव०नि० वटादिवर्ग०पृ०५३७) है। काष्ठभाग अनन्तमूल की अपेक्षा अधिक कड़ा रहता है। क्वचित् यह फटी हुई रहती है। इसमें अनन्तमूल जैसी
सार गन्ध नहीं रहती। (भाव०नि०गुडूच्यादिवर्ग०पृ४२७)
सार (सार) सारवृक्ष, खदिर, खैर
भ०२२/१ प०१/४३/१ सामलया
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सार शब्द वलयवर्ग के सामलया (श्यामलता) कृष्ण सारिवा
अन्तर्गत है। खदिर की छाल ३/४ इंच मोटी होती है। ओ०११ जीवा०३/२६६, ५८४ जं०२/११ सार के पर्यायवाची नामदेखें सामलता शब्द ।
खदिरो बालपत्रश्च, खाद्यः पत्री क्षिती क्षमा ।।
सुशल्यो वक्रकण्टश्च, यज्ञाङ्गो दन्तधावनः ।।२१।। सामलि
गायत्री जिह्मशल्यंश्च, कण्टी सारद्रुमस्तथा। सामलि (शाल्मलि) सेमर। ठा०१०/८२/१
कुष्ठारि बहुसारश्च, मेध्यः सप्तदशाह्वयः ।।२२।।
खदिर, बालपत्र, खाद्य, पत्री, क्षिती, क्षमा, शाल्मलिस्तु भवेन्मोचा, पिच्छिला पूरणीति च ।
सुशल्य,वक्रकण्ट,यज्ञाङ्ग, दन्तधावन, गायत्री, जिह्मशल्य, रक्तपुष्पा स्थिरायुश्च, कण्टकाढ्या च तूलिनी।।५४।।
कण्टी, सारद्रुम, कुष्ठारि, बहुसार तथा मेध्य ये सब शाल्मलि, मोचा, पिच्छिला, पूरणी, रक्तपुष्पा,
खदिर (खैर) के सतरह नाम हैं। स्थिरायु, कण्टकाढ्या तथा तूलिनी ये सब सेमर के
(राज०नि०८/२१,२२ पृ०२३५) संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ०५३७)
अन्य भाषाओं में नामअन्य भाषाओं में नाम
हि०-खैर, कत्था। बं०-खयेरगाछ। म०-खैर, हि०-सेमर, सेमल । बं०-शिमुल गाछ, रक्ती
काय । गु०-खेर, काथो। ते०-चंड। ता०-करंगालि। सिमुल । म०-कांटे सांवर, लालसांवर । गु०-शेमलो,
अंo-Black catechu (ब्लैक कॅटेच्यु)। ले०-Acacia सीमुलो। ते०-बुरुगचेटु । ता०-शालवधु । मा०-शेमल, सरमलो। अंo-Silk Cotton Tree (सिल्क काटन ट्री)।
Catechu Willd (अॅकेसिया कटेच्यु) Fam. Leguminosae
(लेग्युमिनोसी)। sto-Bombax malabaricum DC. (014 och
उत्पत्ति स्थान-यह भारत में अनेक स्थानों पर मालावारिकम्) Fam. Bombacaceae (बाम्बेकेसी)।
होता है। पंजाब, उत्तर पश्चिम, हिमालय, मध्य भारत, उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों के ।
बिहार, गंजम, कोंकण एवं दक्षिण में विशेषरूप से शुष्क
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जंगलों में होता है ।
7
खैर
विवरण- इसका वृक्ष १० से ११ फुट (कहीं कहीं इससे भी अधिक) ऊंचा होता है । छाल खुरदरी, कंटकयुक्त, श्वेत या धूसरवर्ण की, आधे से पौन इंच मोटी होती है । काष्ठ का ऊपरी भाग पीताभ श्वेत तथा भीतर का रक्तवर्ण पत्र बबूलपत्र जैसे संयुक्त, लगभग २ से ४ इंच लम्बे तथा डंठल के नीचे की पत्ती के स्थान पर छोटे बडिशाकार भूरे या काले रंग के चमकीले कांटे होते हैं। पुष्प वर्षा के पूर्व ज्येष्ठ आषाढ तक छोटे पीताभ तीन पुष्पदल निकलते हैं । फली वसन्त या हेमन्त ऋतु में २ से ४ इंच लम्बी, आधे पौन इंच चौड़ी पतली, किंचित् धूसर वर्ण की चमकीली होती है, जिसमें ५ से १० तक गोल छोटे-छोटे बीज होते हैं।
I
पुराना परिपक्व खैर के वृक्ष को तोड़कर छाल निकालकर अलग कर देते हैं तथा तने के मध्य भाग के महीने टुकड़े कर बड़े पात्र में भरकर भट्टी पर पकाते हैं। फिर छानकर गाढ़ा या घन क्वाथ तैयार कर छोटी बड़ी कई प्रकार की बना लेते हैं। यही कत्था या खैर कहा जाता है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०३६४)
DO.O
साल
साल (शाल) सांखू, साल
भ०२२/१ जीवा०१/७१ ५०१/३५/१
शाल के पर्यायवाची नाम
शालस्तु सर्जकार्याश्वकर्णकाः शस्यशम्बरः शाल, सर्ज, कार्श्य, अश्वकर्णक और शस्यशम्बर
ये सब शाल के पर्यायवाची नाम हैं ।
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - शाल, साल, साखु, सखुआ। बं० - शालगाछ, तलूरा । म० - रालचावृक्ष । गु० - शालवृक्ष, राल नुं झाड़ । ते० - जलरिचेट्टु इनुमद्धि । ता० - कुंगिलियम् । उ०- सल्व । नेपा० - सकब । अं० - The sal tree (दि साल ट्री) । ले० - Shorea robusta gaertn (शोरीया रोबस्टा ) । Fam, Dipterocarpaceae (डिप्टेरोकापेंसी)।
(भाव०नि०वटादिवर्ग पृ०५२०)
उत्पत्ति स्थान- ये हिमालय, पहाड़, सतलज नदी से आसाम तक, मध्य हिन्दुस्तान के पूर्वीभाग, बंगाल के पश्चिमी भाग और छोटानागपुर के जंगलों में होते हैं ।
विवरण- साल के वृक्ष बहुत बड़े विशाल होते हैं। इसके पत्ते ६ से १०x४ से ६ इंच एवं बड़े अण्डाकारआयताकार होते हैं। फूल पीले रंग के झुमको में वसन्त ऋतु में लगते हैं और फल छोटे होते हैं। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और बड़े काम की होती है। फल वर्षा ऋतु के प्रारंभ में पक जाते हैं। शालसार ताजा काटकर निकालने पर लाल या सफेद दोनों तरह का होता है, जिनमें से श्वेत साल अच्छा माना जाता है । शाल के निर्यास को राल कहते हैं । (भाव०नि०वटादिवर्ग०पृ०५२०)
देखें साल शब्द |
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सालवण
सालवण (सालवन) साल वृक्षों का वन
....
जीवा०३ / ५८१ जं०२/६
सालि
सालि (शालि) शालि धान्य, चावल
भ०६ / १२६, २१/६ उवा०१/२६ प०१/४५/१: १७/ १२८ कण्डेन बिना शुक्ला, हैमन्ताः शालयः स्मृताः ।।३।। बिना कूटे ही जो सफेद होते हैं तथा हेमन्त ऋतु में उत्पन्न हो, वे शालिधान्य कहलाते हैं । शालिधान्य के १५ भेद
रक्तशालिः सकलमः पाण्डुकः शकुनाहृतः ।
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सुगन्धकः कूर्दमको, महाशालिश्च दूषकः । । ४ । । पुष्पाण्डकः पुण्डरीकस्तथा महिषमस्तकः । दीर्घशुकः काञ्चनको, हायनो लोध्रपुष्पकः ।।५।।
शाल
रक्तशालि, कलम, पाण्डुक, शकुनाहृत, सुगन्धक, कर्दमक, महाशालि, दूषक, पुष्पाण्डक, पुण्डरीक, महिषमस्तक, दीर्घशूक, काश्चनक, हायन और लोध्रपुष्पक ये शालि (चावलों) के जाति भेद हैं। बहुत से देशों में उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के होते हैं ।
(भाव०नि०धान्यवर्ग० पृ०६३५)
....
सिउढि
सिउढि (सिहुण्ड) कांटा,
शादीशान
पुष्प
थूहर
भ०७/६६ : २३/२ प०१/४८/१
'सीहुण्डः - सिहुण्डः दूधियो थोर
(अभिधान चिंतामणि श्लोक ११४० पृ०२६१) सीहुण्डः - पुं. वनस्पति० स्नुही । निवडुंग त्रिधारी (आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ० १६११)
सिहुण्ड - पुं । स्नुहीवृक्ष
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० १६८)
जैन आगम वनस्पति कोश
विमर्श - संस्कृत के सिहुण्ड शब्द में ह का लोप होकर प्राकृत में सिउंड - सिउंढ - सिउंढि शब्द बना है । आर्ष प्राकृत व्याकरण से ह का लोप नहीं होता है, फिर भी प्राकृत में हो जाता है।
कोटे
शीस्त
पुष्प
सीहुण्ड के पर्यायवाची नाम
स्नुह्यां वज्रो महावृक्षोऽसिपत्रः स्नुक् सुधा गुडा ||४६ ।। समन्तदुग्धा सीहुण्डो गण्डीरो वज्रकण्टकः । । स्नुहि, वज्र, महावृक्ष, असिपत्र, स्नुक्, सुधा, गुडा, समन्तदुग्धा, सीहुण्ड, गण्डीर, वज्रकण्टक ये सब थोहरी के नाम हैं । ( निघंटुशेष श्लोक पृ०३०.३१) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - सेहुण्ड, सेण्ढ, थूहर, थोर, छोटा थूहर, कांटा थूहर । म० - बई, निवडुंग, साबरकांड, कांटेथोर । गु०-थोर, डींडुलीयो, कांटली, भंगुराथोर । बं० - मनसासीज । अंo - Common Milk hedge ( कामन मिल्क हेज ! ले० - Euphorbia nerifolia (युफोर्बिया राइफोलिया) ।
उत्पत्ति स्थान - यह प्रायः समस्त भारतवर्ष में
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जैन आगम वनस्पति कोश
विशेषतः दक्षिण के पहाड़ी प्रदेशों में तथा बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिमोत्तर प्रदेश, पंजाब, सिक्किम, भूटान आदि में अधिक होता है। विशेषतः ग्रामों की बाड़ों पर, बागों की चहार दीवारों पर सुरक्षार्थ इसे लगाते हैं।
विवरण- इसके १० से १५ फुट ऊंचे काण्ड और शाखायें गोलाकार, पीली, गूदेदार, कण्टकित (काण्ड से लेकर शाखाओं के अग्रभाग तक स्थान-स्थान पर अंग्रेजी अक्षर बी के आकार के) कांटे चौथाई से आध इंच तक लम्बे जोड़े में होते हैं। पत्र शाखाओं के अंत में चारों ओर से पत्ते गुच्छाकार लगे रहते हैं। पत्र ६ से १२ इंच लम्बे, स्थूलमांसल, मोटे, अग्रभाग में कुछ गोल होते हैं । बसन्त ऋतु में ये पत्र आते हैं तथा शीत या ग्रीष्म काल में झड़ जाते हैं। इसकी शाखा या पत्रों को तोड़ने से दूध निकलता है। इसके कांड पर खड़ी या पेंचदार घूमी हुई रेखाओं पर २-२ संयुक्त कांटों से युक्त उन्नत स्थान होता है । पुष्प लाल रंग के या पीताभ श्वेत या हरिताभ पीतवर्ण के कलंगी पर विशेषतः वर्षा ऋतु में लगते हैं। बीजकोष या फल १/२ इंच तक चौड़ा होता है। इसकी शाखा तोड़कर आर्द्रभूमि में लगा देने से उसका क्षुप तैयार हो जाता है। बीज चपटे व रोमश होते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०३६७)
DOO
सिंगवेर
सिंगवेर (शृङ्गवेर) अदरख, आदी
भ०७/६६ : २३ / १ जीवा ०१ / ७३ प०१ / ४८ / २ उत्त०३६ / ६६ श्रृङ्गवेर के पर्यायवाची नाम
आर्द्रकं शृङ्गवेरं स्यात्, कटुभद्रं तथार्दिका । आर्द्रक, श्रृंगवेर, कटुभद्र और आर्द्रिका ये संस्कृत नाम अदरख के हैं । (भाव० नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ०१४) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - अदरख, आदी । बं० - आदा । पं० - अदरक, अद, अद्रक, आदा । म० - आले । ते० - अल्ल, अल्लमू । ब्रह्मी० - ख्येन, सेङ्ग, गिनसिन | गु० - आदु । क० - अल्ल, असिशोंठि, हसीसुण्ठी । मा० - आंदो । ता० - शुक्क, इंजि । मल० - इवी । सिंहली - अमुइंगुरु | फा० - अंजीबीलेतर । अ० - जंजबीले रतब। अंo - Ginger
root (जिअररूट) | लेo - Zingiber Officinale (जिंजिबेर ऑफिसिनेल) ।
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उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष के प्रायः सब प्रान्तों में अदरख की खेती की जाती है।
विवरण - अदरख का पौध प्रायः एक हाथ ऊंचा होता है। इसके पत्ते वांस के पत्तों के समान पर उनसे कुछ छोटे होते हैं। इसकी जड़ में जो कंद होता है उसी को अदरख कहते हैं। इसका फूल फल बहुत कम देखने में आता है। किसी किसी पुराने पौधे पर फूल आते हैं। फूलों का रंग जामुनी रंग का होता है। अदरख रेतीली भूमि में गोबर की खाद डाली हुई दुमट मिट्टी में अधिक उत्पन्न होती है। इसके लिए पर्याप्त वर्षा की आवश्यकता रहती है। (भाव० नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ०१४, १५)
सिंगमाला
सिंगमाला ( ) जीवा०३ / ५८२ जं०२/८ विमर्श - उपलब्ध निघंटुओं और शब्दकोशों में सिंगमाला शब्द नहीं मिला है।
....
सिंदुवार
सिंदुवार (सिन्दुवार) श्वेत पुष्पवाला सम्भालू
रा०२६ जीवा०३ / २८२ ५०१ / ३७ / ४ : १७ / १२८ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में सिंदुवार शब्द गुच्छवर्ग के अन्तर्गत है ।
सिन्दुवार के पर्यायवाची नाम
सिन्दुवारः श्वेतपुष्पः, सिन्दुकः सिन्दुवारकः ।। सूरसाधनको नेता, सिद्धकश्चार्थसिद्धकः । ।१५१ ।।
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सिन्दुवार श्वेतपुष्प, सिन्दुक, सिन्दुवारक, धूसर वर्ण की होती है। पत्ते सदल तथा ३ से ५ पत्रकों सूरसाधनक, नेता, सिद्धक तथा अर्थसिद्धक ये सब से युक्त होते हैं। पत्रक भालाकार, लम्बाग्र, अखंड या सम्भालू के नाम हैं। राज०नि०४/१५१ पृ०६१) गोल दन्तुर, २ से ५ इंच लम्बे, १/२ से १.५ इंच चौड़े अन्य भाषाओं में नाम
तथा छोटे बड़े आकार के होते हैं। अग्र का पत्रक लम्बा हि०-सम्भालू, सम्हालू, सन्दुआर, सिनुआर, एवं उसका वृन्त भी लम्बा होता है। नीचे के पत्रक या मेउडी। बं०-निशिन्दा। म०-लिंगड, निगड, निर्गुण्डी। बगल वाले पत्रक छोटे तथा छोटे या बिना वृन्त के होते पं०-वन्न, भरवन | बं०-निशिन्दा। म०-लिंगड, निगड, हैं। ये ऊपर से हरे तथा नीचे श्वेताभ वर्ण के होते हैं। निर्गुण्डी। प०-वन्न, भरवन, मौरा | गु०-नगोड़,नगड़। पुष्प आयताकार और २ से ८ इंच लम्बी मंजरियों में ता०-नोच्चि। म०-करिनोच्चि। ते०-वाविली, निकले रहते हैं। ये श्वेत या हलके नीले (बैंगनी) रंग के तेल्लावाविली। क०-विलिनेक्कि। फा०-पंजंवगुस्त। होते हैं। फल छोटे, गोल १/४ इंच व्यास के तथा पकने अ०-असलक। अंo-Five leaved chaste tree (फाइव पर काले रंग के होते हैं। (भाव०नि०गुडूच्यादिवर्ग०पृ०३४५) लीब्ड चेष्ट ट्री) Indian Privet (इन्डियन प्रिवेट)। ले०-Vitex negundo linn (वाइटेक्स नेगुण्डो लिन०)
सिंदुवार गुम्म Fam. Verbenaceae (वर्विनेसी)।
सिंदुवार गुम्म (सिन्दुवार गुल्म) श्वेत पुष्प वाला संभालू जीवा०३/५८० जं०२/१० प०१/३८/१
विमर्श-प्रज्ञापना १/३८/१ में सिंदुवार शब्द है और वह गुल्म वर्ग के अन्तर्गत है। इसलिए यहां सिंदुवार गुम्म शब्द के अन्य प्रमाणों के साथ प्रज्ञापना का भी प्रमाण दिया गया है।
विवरण-इसके बड़े-बड़े गुल्म प्रायः ६ से २८ फीट ऊंचे अथवा कभी-कभी बड़े वृक्ष के समान होते हैं।
देखें सिंदुवार शब्द।
...
सन्दवार RHAZYA STRICTA DENC
सिप्पिया सिप्पिया (शिल्पिका) शिल्पिका तृण
भ०२१/१६ प०१/४२/२ शिल्पिका के पर्यायवाची नाम
शिल्पिका शिल्पिनी शीता, क्षेत्रजा च मृदुच्छदा।।१३६ ।।
शिल्पिका, शिल्पिनी, शीता, क्षेत्रजा और मृदुच्छदा ये शिल्पिका के पर्यायवाची नाम हैं।
(राज०नि०व०८/१२६ पृ०२५७) अन्य भाषाओं में नाम
म०-लाहनसिम्पि। क०-करियपसिम्पिगे।
उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष प्रायः सब प्रान्त के वन, उपवन, नदियों के किनारे, गांवों के आसपास की परती जमीन में और बागों में भी पाये जाते हैं।
विवरण-इसके बड़े-बड़े गुल्म प्रायः ६ से २८ फीट ऊंचे अथवा कभी-कभी बड़े वृक्ष के समान होते हैं। इस पर श्वेताभ रोमावरण होता है । छाल पतली चिकनी तथा
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जैन आगम : वनस्पति कोश
सिरिलि
सिरिलि (
) चीड़ ?
भ०७/६६ जीवा०१/७३ उ०३६/६७
विमर्श - सिरिलि शब्द संस्कृत भाषा का शब्द नहीं है। क्योंकि आयुर्वेद के शब्दकोशों में कहीं नहीं मिलता है । यह अन्य भाषा का शब्द है। निघंटुआदर्श के उत्तरार्द्ध पृ०५४६ में सीरली शब्द मिलता है। यह जौनसर भाषा का शब्द है। संभव है सीरली और सिरिलि शब्द एक ही अर्थ का वाचक हो ।
सरल (चीड) के भाषाओं में नाम
सं० - सरल, श्रयाह्नपीतद्रु, स्निग्धदारु, सिद्धदारु नमेरु । हि० - चीड़, चीढ़। जौनसर० - सरोल, सीरली । नेपाल० - धूप | कु० - सल्ल । क० - चीर ! अंo - Chir pine (चिरपाइन) long leaved pine (लोंगलीह्वडपाइन) । ले० - Pinus longifolia (पाइनस लौंगीफोलिया) । ( निघंटु आदर्श उत्तरार्द्ध पृ०५४६)
सिरिस
सिरिस (शिरीष) सिरस ठा०१०/८२/१ ओ० ६ जीवा०३/५८३ देखें सिरीस शब्द |
COOO
सिरीस
सिरीस ( शिरीष ) सिरस
भ०२२/३ जीवा०३/२८४५०१ / ३६ / ३ विमर्श - प्रज्ञापना सूत्र में सिरीस शब्द बहुबीजकवर्ग के अन्तर्गत है । सिरस की फली में ८ से १२ बीज होते
1
शिरीष के पर्यायवाची नाम
शिरीषो भण्डिलो भण्डी, भण्डीरश्च कपीतनः । शुकपुष्पः शुकतरु, मृदुपुष्पः शुकप्रियः । ।१३।। शिरीष, भण्डिल, भण्डी, भण्डीर, कपीतन, शुकपुष्प शुकतरु, मृदुपुष्प और शुकप्रिय ये सब शिरीष के संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ०५१८)
अन्य भाषाओं में नामहि० - सिरस,
सिरिस ।
बं० - शिरीषगाछ ।
म० - शिरस, चिचोला । गु० - सरसडो, काकीयो, सरस क० - वागेमर । ते० - दिरसन । ता० - वाकै । ले०-Albizzialebbeck Benth (आल्वीजिया लेबेक) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी) ।
उत्पत्ति स्थान - यह प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता है तथा लगाया भी जाता है।
विवरण- सिरस के वृक्ष बड़े-बड़े और सघन होते हैं। पत्ते इमली के पत्तों के समान उपपक्ष २ से ४ जोड़े; पत्रक ३/४ से २.२५ इंच लम्बे, ६ से ८ जोड़े, तिर्यक्, कडे एवं छोटे वृ से युक्त होते हैं। प्रधान पर्णवृन्त के आधार पर एक बड़ी ग्रन्थि होती है । पुष्प सवृन्त हरिताभ पीत, मुण्डक में आते हैं । फली ६ से १२ इंच लम्बी, १ से १.२५ इंच चौड़ी पतली, हलके पीले रंग की होती है, जिनमें ६ से १० बीज होते हैं। इसका एक अन्य भेद श्वेतशिरीष पाया जाता है। (भाव०नि० पृ०५१६)
1
सिरीस कुसुम
सिरीस कुसुम (शिरीष कुसुम) सिरस के फूल
उत्त०३४/१६
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में सिरीस कुसुम स्पर्श की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसका पुष्प बहुत ही कोमल होता है।
विवरण- पुष्प प्रायः हरापन लिए पीतवर्ण श्वेताभ बहुत ही कोमल अति सुगंधित १.५ इंच लम्बे । (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०३५३)
सिस्सिरिल (
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पाई है।
....
सिस्सिरिलि
)
भ०७/६६ जीवा० / ७३ उत्त०३६/६७ विमर्श - अभी तक इस शब्द की पहचान नहीं हो
DOOO
सीउंढी
सीउंढी (सीहुड) कांटाथूहर
देखें सिउंढि शब्द |
जीवा ०१ / ७३
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सीयउरय
सीवण्णी सीयउरय (शीतमूलक) खस प०१/३७/३ सीवण्णी (श्रीपर्णी) कायफल विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सीयउरय शब्द गुच्छवर्ग
भ०२२/२ जीवा०१/७१ प०१/३५/३ के अन्तर्गत है। वीरण के पुष्प गुच्छ रूप में आते हैं। वीरण श्रीपर्णी के पर्यायवाची नामकी जड खस होती है।
सोमवल्को महावल्कः, कट्फलः सोमपादपः । शीतमूलकम् ।क्ली० [उशीरे।
श्रीपणी कुमुदा कुम्भा, भद्रा भद्रवतीति च।।११३७।। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०१०५२) महाकच्छो महाकुम्भा, कुम्भीका रोहिणी तथा।। शीतमूलक के पर्यायवाची नाम
सोमवल्क, महावल्क, कट्फल, सोमपादप, श्रीपर्णी, उशीरं वीरणं सेव्यमभयं समगन्धिकम।
कुमुदा, कुम्भा, भद्रा, भद्रवती, महाकच्छ, महाकुम्भा, बहुमूलं, वीरतरु र्वीरं वीरणमूलिका ।।१३६८ // कुम्भीका, रोहिणी ये पर्याय कट्फल के हैं। रणप्रियं शीतमूल ममृणालं मृणालकम् ।।१३६६ //
(कैयदेव नि०ओधिवर्ग०पृ२१०) उशीर, वीरण, सेव्य, अभय समगन्धिक, बहुमूल, वीरतरु, वीर, वीरणमूलिका, रणप्रिय, शीतमूल, अमृणाल और मृणाल ये पर्याय उशीर के हैं।
(कैय०नि० ओषधिवर्ग०पृ०२५४) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-खस, गांडर की जड़, पन्नि । म०-वाला। गु०-वालो । बं०-खस, वेना, खसखस । अंo-Cuscus (कुसकुस) ले०-Andropogon Muricatus (एन्ड्रोपोगान म्यूरिकेटस) A.Squarrosus (ए० स्क्वे रोसस्)।
उत्पत्ति स्थान-यह दक्षिण भारत, मैसूर, बंगाल, राजपूताना, छोटानागपुर आदि प्रदेशों में विशेषतः नदी-नालों के उपकूल में एवं जलप्रायः स्थानों में प्रचुरता से पाया जाता है।
विवरण-यह कर्पूरादि वर्ग एवं नैसर्गिक क्रमानुसार यवकुल के वीरण (गांडर) नामक बहुवर्षायु तृण विशेष की जड़ है। इसकी जड़ें जमीन में २ फीट से भी अधिक गहरी घुसी हुई होती है। इसमें एक प्रकार की मनमोहक सुगंध आती है। इसका कांड २ से ५ फुट ऊंचा एवं
एकटा हुआ समूहबद्ध होता है। पत्ते १ से २ फीट, सीधे, लम्बे, पतले
अन्य भाषाओं में नामसरकंडे जैसे तथा पुष्पदंड ४ से १२ इंच लम्बा, रक्ताभ
हि०-काय फर, कायफल, काफल । पीतवर्ण का होता है। वर्षाकाल में यह फलता फूलता है।
बं०-कायछाल, कायफल, कट्फल | क०-किरिशिवनि। (धन्च०वनौषधि, विशेषांक भाग २ पृ०३५२)
ते०-केदर्यमु। म०-कायफल। मा०-कायफल | गु०-कायफल | पं०-कायफल ।खासिया०-डिंगसोलिर। ताo-मरुदम्पतै। फा०-दारशीशान । अ०-उदुलबर्क,
Ratna
मन
.
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सीसम.
अजूरी। अं0-Box Myrtle (वाक्स मिर्टल)| Bay terry बि
(भाव०नि०वटादिवर्ग०पृ०५२२) बेरी) ले०-Myricanagi Thumb (मायरिकानेगी) Fam. अन्य भाषाओं में नामmyricaceae (मायरिकेसी)।
हि०-सीसम, कपिलवर्ण शीषम, शीशो, शीसव । उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के साधारण उष्ण बं०-शिस् । म०-शिसव | गृ०-सीस । क०-अगरूगिड। प्रदेशों में रादी से पूर्व की ओर, खासिया पहाड़ सिलहट तेo-सिसुप । ताo-गेट्टे । ले०-Dalbergia Sissoo Roxb तक, ३ से ६ हजार फीट के बीच पाया जाता है और (डालवर्जिया सिस्सू) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)। सिंगापुर में भी इसके वृक्ष देखने में आते हैं। चीन तथा जापान में इसकी बहुत उपज होती है।
विवरण-इसके मध्यम ऊचाई के सदा हरित वृक्ष होते हैं। छाल बादामी धूसर तथा कृष्णाभ, भारी, सुगंधित, करीब १/२ इंच मोटी और खुरदरी होती है। काष्ठ १/२ इंच से १ इंच मोटा, बिना रेशे का और रक्ताभ बादामी होता है। पत्रनाल, मंजरी तथा नवीन शाखाओं पर बादामी रोमवरण होता है। पत्ते ४ से ८ इंच लम्बे तथा १.५ से २ इंच चौड़े, ऊपर से भालाकार अथवा कुछ कुछ आयताकार भी और उनके अधः पृष्ठ प्रायः मुरचई रंग के होते हैं। फूल लाल । फल १/२ इंच लम्बें, अण्डाकार, कुछ चिपटे, पृष्ठ पर दानेदार और पकने पर रक्ताभ या पीताभ बादामी होते हैं। फलों में मोम की तरह एक तेल होता है। ये फल स्वाद में कुछ खट्टे होते है। इन्हें सिल्लहट में सोफी कहते हैं, जिन्हें लोग खाते हैं यद्यपि उत्पत्ति स्थान-सीसो के वृक्ष प्रायः सब प्रान्तों में इस वृक्ष का नाम कायफल है तबभी औषधार्थ इसकी छाल लगाये जाते हैं तथा पश्चिम हिमालय में ४००० फीट तक, का ही प्रयोग कायफल के नाम से जाना जाता है। इसे नेपाल की तराई, सिक्किम तथा ऊपरी आसाम के जंगलों सूंघने पर छींक आती है। तथा इसे जल में डालने पर में पाये जाते हैं। जल लाल हो जाता है। आधुनिक विद्वान् इसके फल का विवरण-इसका वृक्ष बड़ा और विशाल हुआ करता भी औषधार्थ प्रयोग बतलाते हैं।
है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है। इसकी लकड़ी से (भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग०पृ० १००) बहुत सुंदर संदूक, पलंग प्रभृति अनेक वस्तुएं तैयार होती
हैं। इसके पत्ते गोल, नोकदार, बेर के पत्तों के समान सीसवा
पर इनसे कुछ बड़े तथा पाढी के पत्तों के समान होते
हैं। ये चिकने और ऊपर से चमकीले होते हैं। फूल बहुत सीसवा (शिंशपा) सीसम
छोटे-छोटे गुच्छों में और फली लम्बी पतली और चिपटी
भ०२२/२ प०१/३५/३ . होती है। बीज छोटे-छोटे और चिपटे होते हैं। इसकी शिंशपा के पर्यायवाची नाम
लकड़ी श्यामता और ललाई लिए भूरे रंग की दृढ़ होती शिंशपा पिच्छिला श्यामा, कृष्णसारा च सा गुरु ।
है। शिंशपा, पिच्छिला, श्यामा, कष्णसारा-ये शिंशपा
(भाव०नि० वटादिवर्ग० पृ०५२२) के पर्यायवाची नाम हैं।
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सीहकण्णी
सीहकण्णी (सिंहकर्णी) अरडूसा
भ०७/६६ : २३/२ जीवा ०१ / ७३ ५०१ / ४८/१ उत्त०३६/६६ सिंहकर्णी के पर्यायवाची नाम
वासिका सिंहकर्णी च, वृषो वासा च सिंहिका ।। आटरूषः सिंहमुखी भिषग्माताऽटरूषकः ।।
वासिका, सिंहकर्णी, वृष, वासा, सिंहिका, आटरूष, सिंहमुखी, भिषग् माता, आटरूषग ये अरडूसा के संस्कृत नाम हैं।
( सटीक निघंटुशेष प्रथमो वृक्षकांड पृ०८८) विमर्श - लेखक ने पृ०८८ में ऊपर का श्लोक उद्धृत किया है। लेकिन प्रमाण निघंटु के लिए कोष्ठक खाली रखा है।
देखें अट्टरूसग शब्द ।
सुंकलितण
संकलितण ( ) शूकडितृण भ०२१/१६५०१/४२/२ शूकतृण (न०) तृण विशेष । शूकडितृण । (शालिग्रामौषधशब्द सागर पृ० १८५) विशेषे । हि० - शूकडि ।
( वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० १०६१) विमर्श - सुंकलितण शब्द का अर्थ शूकडितृण किया है वह हिन्दी भाषा का शब्द है । संस्कृत का शब्द शूकतृण है।
सुंठ
सुंठ (
) सूंठ भ०२१/१६ ०१ / ४२/२ विमर्श - सुंठ शब्द महाराष्ट्री और गुजराती भाषा का है। हिन्दी बंगला और मारवाड़ी भाषा में सूंठ कहते । संस्कृत भाषा में इसके निकट का शब्द शुण्ठी है । शुण्ठी के पर्यायवाची नाम
शुण्ठी विश्वा च विश्वच, नागरं विश्वभेषजम् । ऊषणं कटुभद्रश्च शृङ्गवेरं महौषधम् ।।४४ ।। शुण्ठी, विश्वा, विश्व, नागर, विश्वभेषज, ऊषण, कटुभद्र, शृंगवेर और महौषध ये सब सोंठ के नाम हैं ।
जैन आगम वनस्पति कोश
(भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ०१२, १३)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - सोंठ, सौंठ, सूंठ, सिंघी। बं०-शुंठ, शुण्ठि, सुंट । म० - सुंठ | मा० - सूंठ । गु० - शंठ्य, सूंठ, सुंठ । सिंहली० - वेलिच इंगुरु । क०- - शुंठि, शोंठि, ओणसुठि,
शुठि । ते० - शोंठी, सोंठी, सोंटि । ता०-शुक्कु । पं० - सुंड | मला० - चुक्क । ब्रह्मी० - गिन्सिखियाव । फा० - जंजबील, जजबीलखुश्क | अ० - जंजबीले आविस । अंo - Dry Zingiber (ड्राइजिंजिबेर ) Zinger ( जिंजर ) । ले० - Gingiber Officinale Roscoe (जिंजिबेर ऑफिसिनेल) Fam. Zingiberaceae (जिंजिबेरेसी) ।
विवरण- सुखाई आदी को सोंठ कहते हैं। सुखाने की विधि के अनुसार इसके स्वरूप में अंतर पाया जाता है । आदी को खूब स्वच्छ कर पानी या दूध में उबाल कर सुखाते हैं। प्रायः सोंठ दो प्रकार की होती है। एक रक्ताभ भूरी और दूसरी सफेद। चूने के साथ शोधन करने से यह सफेद तथा टिकाऊ हो जाती है। जिनमें रेशे बहुत कम होते हैं वह अच्छी समझी जाती है।
(भाव० नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ०१३)
COO
सुंब
सुंब (श्रुव) चूरन हार, मूर्वा भ०२१/१८ १०१/४१/१ श्रुवः |पुं । मूर्वायाम्
(वैद्यक शब्द सिंधु पृ. ०१०७७) स्वनामख्यातलता। चूरनहार ।
मूर्वा - स्त्री । मरोडफली
(शालिग्रामौषधशब्द सागर पृ० १४१ ) विमर्श - संस्कृत भाषा के श्रुव शब्द का प्राकृत में बबन सकता है। श्रुव के र का लोप कर अनुस्वार करने से सुंब बनता है । वैद्यक निघंटु कोश में श्रुव शब्द • मिला है। परन्तु हमारे पास उपलब्ध निघंटुओं में श्रुव शब्द नहीं मिला है। श्रवा या स्रवा शब्द मिलता है। इसलिए श्रुव शब्द का अर्थवाचक मूर्वा शब्द के पर्यायवाची नाम दे रहे हैं।
मूर्वा के पर्यायवाची नाम
मूर्वा मधुरसा देवी, गोकर्णी दृढसूत्रिका । तेजनी पीलुपर्णी च, धनुर्माला धनुर्गुणा ।।
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जैन आगम वनस्पति कोश
मूर्वा, मधुरसा, देवी, गोकर्णी, दृढसूत्रिका, तेजनी, पीलुपर्णी, धनुः माला, धनुः गुणा (मोरटा, स्रवा मधुलिका, धनुःश्रेणी, कर्मकरी, धनुःशाखा, श्रवा मूर्वी, मधुश्रेणी, धनुश्रेणी, सुरङ्गिका, देवश्रेणी पृथक्त्वचा, मधुस्रवा अतिरसा, पीलुपर्णिका, दिव्यलता, ज्वलिनी, गोपवल्ली) (शा०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० ३३१)
मूर्वा नं. १
CLEMATIS TRILOBAHEYNE EXROTH
पुष्प
शाख
எ
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - मोरबेल, चूरनहार, मूर्वा, धन्तियाली, मुरहरि, मरोडफली । बं० - मोरविल, मुहुरासि । गु०- मोरबेल । ता० - भूमिचक्करे, मरुल । ते०-चांग चेट्टु, सगजग । क० - नाड़ी मोरहरी, अमरवालि । म० - गुलवेलि, रानजाई । सिं० - मरुवा | गौ० - मूर्वा, मूर्गासुरहर, सोचखी मुखी, चोड़ाचक | ले०-Clematis Triloba (क्लिमेटीज ट्राइलोवा)
(राज० नि० पृ० ३२ धन्व० वनौ० विशे० भाग ५ पृ० ४१७) उत्पत्ति स्थान- दक्षिण के पहाड़ों पर, मध्य प्रदेश, पश्चिमी कोंकण में, गुजरात, काठियावाड के पहाड़ी प्रदेशों, झाड़ी वाले स्थानों में उगता है। दक्षिण के कोंकण
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में विशेष होता है ।
विवरण - यह वत्सनाभादि कुल की एक लता है । इसकी लता दूर तक बढ़ती है। यह द्राक्षा के समान वृक्ष पर चढ़ने वाली बेल है। तीन खण्ड युक्त है। उत्पत्ति वर्षा ऋतु में नया भाग रेशम सदृश मुलायम, रुयें से आच्छादित । तना धारीदार । पान १ से २ इंच के घेरे में, अंडाकार, हृदयाकार, गोलाकार अनीदार, कंगूरेदार, तीन नस वाला। तीन पान साथ में और रेशम के समान कोमल होता है । पान आमने सामने आये हुए होते हैं। पत्रदंड पौन इंच से तीन इंच या इससे भी लम्बे होते हैं। पत्रदंड के सिरे से तीन उभी या सीधी नसें निकल कर गई हुई होती है। पान १ से २.५ इंच लंबे और ३/४ से १.५ या २.५ इंच चौड़े होते हैं। फूल धारण करने वाली शाखायें विशेषकर पत्रकोण से निकली हुई होती हैं। इन पर रोयें बहुत आये हुए होते हैं। पुष्प पत्र विशेष करके पान जैसे होते हैं। फूल चमेली के फूल जैसे सफेद यथार्थ में अनेक रंग के १.५ से २ इंच व्यास के होते हैं। फल -- गोलाकार लगते हैं। बीज फल के सदृश, अंडाकार, दबा हुआ, मुलायम, रुयेंदार और लंबी पूंछ सह । कांड और शाखा भूरे लाल रंग के फीके हरे, रेखा युक्त । मूल लंबा उपमूल युक्त ।
( धन्व० वनौ० विशे० भाग १ पृ० ४१६ ४१७ )
सुगंधिय
सुगंधिय (सुगन्धिक) चंद्र विकासी नील कमल ।
प०१/४६
सुगन्धिकम् ।क्ली० । कह्वारे ।
( वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११२६) विमर्श - निघंटुओं में सुगन्धिक शब्द नहीं मिलता है । सौगन्धिक शब्द इसी अर्थ में मिलता है । सौगन्धिक के पर्यायवाची नाम
सौगन्धिकं तु कल्हारं, हल्लकं रक्तसन्ध्यकम् ।। सौगन्धिक, कल्हार, हल्लक और रक्तसन्ध्यक ये सब कल्हार (लाल कुमुद) के पर्यायवाची शब्द हैं। ( भाव० नि० पुष्पवर्ग० पृ०४८४) सौगंधिक - यह चंद्र विकासी कमल अतिनील तथा
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अतिसुगंधित होती
1
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०१३६)
सुत्थियसाय
सुत्थियसाय (स्वस्तिक शाक) सुनसुनिया साग,
चौपतिया शाक
उवा ०१/ २६
स्वस्तिक के पर्यायवाची नाम
शितिवारः शितिवरः, स्वस्तिकः सुनिषण्णकः ।। श्रीवारकः सूचिपत्रः पर्णकः कुक्कुटः शिखी ।। २६ ।।
शितिवार, शितिवर, स्वस्तिक, सुनिषण्णक, श्रीवारक, सूचिपत्र पर्णक, कुक्कुट और शिखी ये चौपतिया के संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि०शाकवर्ग० पृ०६७३) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - चौपतिया, सिरियारी, सुनसुनिया साग । बं० - सुषुणी शाक, शुनिशाक, शुशुनी शाक । म० - कुरडू। गु० - सुनिषण्णक । ले० - Marsilea Quadrifolia (मारसीलिया क्वाड्रीफोलिया) P. Minuta (पा० मिन्युटा) ।
उत्पत्ति स्थान- यह शाकवर्गीय वनस्पति भारतवर्ष के प्रायः सब प्रान्तों में सजल स्थानों में कहीं न कहीं पायी जाती है। वर्षा ऋतु में यह अधिक उत्पन्न होती है ।
विवरण- इसमें नीचे विसपी, पतला एवं सशाख काण्ड होता है। इसके छत्ते पानी के ऊपर तैरते हुए दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक पत्रदंड पर चार-चार पत्ते स्वस्तिक क्रम में निकले रहते हैं। इस कारण इसे चतुष्पत्री या चौपतिया भी कहते हैं। पत्ते और दण्ड आकार में छोटे बड़े हुआ करते हैं। पत्ते चांगेरी के पत्तों के समान किन्तु उनसे बड़े होते हैं। बीजाणुकोष एक विशेष प्रकार की अण्डाकार परन्तु कुछ-कुछ चिपटी रचना के अन्दर रहते हैं जो फल की तरह मालूम होती है।
(भाव०नि०शाकवर्ग पृ०६७५)
सुभग
सुभग (सुभग) कमल
जीवा ०३ / २६६, २६१ ५०१ / ४६ विमर्श - प्रज्ञापना (१/४६) में उप्पल से लेकर तामरस तक १४ नाम कमल के भेदों के हैं उनमें सुभग
जैन आगम वनस्पति कोश
शब्द कमल के पर्यायवाची नामों में से एक है । पर सुभग शब्द कमलवाचक अर्थ में आयुर्वेद कोष में अभी तक नहीं मिला है।
...
सुभगा
सुभगा (सुभगा) वनमल्ली. सेवतीगुलाब ५०१/४०/२ सुभगा | स्त्री० | कैवर्तिका । शालपर्णी । हरिद्रा । नीलदुर्वा । तुलसी । प्रियंगु । कस्तूरी। सुवर्णकदली । वनमल्ली । (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ०२०१ ) विमर्श - सुभगा के ऊपर ६ अर्थ दिए गये हैं । प्रस्तुत प्रकरण में सुभगा शब्द वल्लीवर्ग के अन्तर्गत है, इसलिए कैवर्त्तिका और वनमल्ली अर्थ ग्रहण किया जा सकता है। कैवर्तिका का वाचक संघट्टशब्द इससे अगले श्लोक में आया है इसलिए यहां वनमल्ली अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
लोके ।
वनमल्ली | स्त्री० [स्वनामख्यात लतायाम् । सेवतीति (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ६३३) विमर्श - सेवतीगुलाब - Rosa Alba (रोजा अॅल्बा) नानक एक विशेष भेद होता है जिसमें पुष्प श्वेत होते हैं ।
विवरण- गुलाब की कई जातियां तथा उनके भेद पाये जाते हैं। उत्तर पश्चिम हिमालय तथा काश्मीर के पहाड़ों पर यह वन्य अवस्था में भी पाया जाता है। अधिकतर यह बागों में लगाया हुआ मिलता है। फूलों के वर्णभेद से, सुगंधभेद से, कांटों की उपस्थिति या अभाव की दृष्टि से इसके अनेक भेद पाए जाते हैं। (भाव०नि०पुष्पवर्ग० पृ०४८८, ४८ ६)
सुमणसा
सुमणसा (सुमनस्) मालती पुष्पलता, चमेली
प०१/४०/३
सुमनस् के पर्यायवाची नाम
जाती मनोज्ञा सुमना, राजपुत्री प्रियम्वदा मालती हृद्यगन्धा च, चेतिका तैलभाविनी । । १२६ ।। जाती, मनोज्ञा, सुमना, राजपुत्री, प्रियंवदा, मालती, हृद्यगन्धा, चेतकी और तैलभाविनी ये मालती के
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जैन आगम वनस्पति कोश
पर्याय हैं।
(धन्च०नि०५ / १२६ पृ०२५६)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - चमेली, चम्बेली, चंबेली । बं० - चामिल, चमेली, जाति । गु० - चंबेली म० - चमेली । ता०-पिचि । ० - जाति । क० - जाजि, स्वर्णजाति । गौ० - चमेली, मालती । फा०-यासमन। अ०- - ( यासमीन, यासमून अं०-Spanish Jasmine (स्पनिश जस्मिन) ले०- Jasmine grandiflorum (जस्मिन् ग्रान्डी फ्लोरम) । Fam. Oleaceae (ओलिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान- यह भारत में सभी स्थानों पर बागों में लगाया मिलता है। इसका आदि स्थान उत्तर पश्चिम हिमालय मानते हैं। उत्तर प्रदेश में इसकी विस्तृत पैमाने पर खेती की जाती है।
विवरण- इसके गुल्म बड़े आरोही तथा फैलने वाले होते हैं। शाखाएं धारीदार होती हैं। पत्ते विपरीत संयुक्त तथा २ से ५ इंच लम्बे होते हैं। पत्रक संख्या में ७ से ११, अंतिम अग्र का पत्रक बड़ा तथा बगल के पत्रक बिनाल तथा अग्र के जोड़े का आधार मिला हुआ रहता है। पुष्प सुगंधित सफेद, बाहर से कुछ गुलाबी तथा १.५ इंच तक व्यास में रहते हैं।
(भाव०नि० पुष्पवर्ग० पृ०४६१, ४६२ )
सुय
सुय (शुक) बालतृण
भ०२१/१६ ०१ / ४२/१
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में सुय शब्द तृणवर्ग के अन्तर्गत है । इसलिए शुक शब्द का तृणवाचक अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
शुक के पर्यायवाची नाम
अथ बालतृणे शष्पं शुकं शालिकमङ्गुलम् । । ३७७ ।। शष्प, शुक, शालिक, अंगुल ये बालतृण के पर्यायवाची नाम हैं। ( निघंटुशेष श्लोक ३७७ पृ०२०२)
....
सुय
सुय (शुक) पटुतृण
भ०२१/१६ ०१ / ४२/१
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में सुय शब्द तृण वर्ग के
अन्तर्गत है इसलिए तृणवाचक दूसरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
पटुतृणशुको ज्ञेयः पटुतृण को शुक कहते हैं ।
पटुतृण के पर्यायवाची नाम
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(राज० नि० ८ /७ पृ०२३२)
लवणतृणं लोणतृणं, तृणाम्लं पटुतृणक मम्लकाण्डश्च । पटुतृणक क्षाराम्लं
कषायस्तन्यमश्ववृद्धि करम् ।।१३८ ।।
लवणतृण, लोणतॄण, तृणाम्ल, पटुतृणक तथा अम्लकाण्ड ये सब पटुतृण के नाम
1
पटुतृण क्षार, अम्ल तथा कषायरस वाला, दुग्धवर्धक एवं घोड़ों को बढाने वाला है।
(राज० नि०८ / १३८ पृ०२५६ )
सुवण्णजूहिया
सुवण्णजूहिया (सुवर्णयूथिका) पीली जूही
रा०२८ जीवा०३ / २८१ प०१७ / १२७ विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के लिए सुवण्णजूहिया शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके पीले फूल होते हैं।
स्वर्णयूथिका के पर्यायवाची
युवती पीतयूथिका । । १४७५ ।।
पुष्पगंधा चारुमोदा, हारिणी स्वर्णयूथिका ।। हेमपुष्पी, पीतपुष्पी, त्वपरा शंखपुष्पिका । ।१४७६ ।। युवती, पीतयूथिका, पुष्पगंधा, चारुमोदा, हारिणी, स्वर्णयूथिका, हेमपुष्पी, पीतपुष्पी ये स्वर्णयूथिका के पर्याय हैं। (कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ०६१६) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - पीतजूही, सोनाजूही । म० - पिंवलीजूई, स्वर्ण जूई, पीली जूई । बं० - स्वर्णजूई, पिंवली जूई, पीली जूई गु० - पीलीजूई, पिंवली जूई स्वर्णजूई क०- - यरडुमोल्ले । ते०-जुई पुष्पालु | अं० -Pearl Jasmine (पर्ल जेस्मीन) Golden or Itallin jasmine (गोल्डन या इटालियन जेस्मिन) ले०-Gasminum Humile linn (जेस्मिनम हुमीले लिन०) । उत्पत्ति स्थान - प्रायः पहाड़ी प्रान्तों में मद्रास
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इलाका, पश्चिमघाट नीलगिरी, मलावार, बंगाल, बिहार, बनता है। सुवर्णिका शब्द मिलता है। प्रस्तुत सुसुवर्णिका राजस्थान, आबू आदि में बोयी जाती या नैसर्गिक होती में सुशब्द अतिरिक्त है। है।
सुवर्णिका स्त्री। स्वर्णजीवन्त्याम् ।।
वैद्यक शब्द सिंधु पृ०११४२) हेमा हेमवती सौम्या, तृणग्रन्थि हिमाश्रया।। स्वर्णपर्णी सुजीवन्ती, स्वर्णजीवा सुवर्णिका ।।४२।। हेमपुष्पी स्वर्णलता, स्वर्णजीवन्तिका च सा हेमवल्ली हेमलता, नामान्यस्या श्चतुर्दश ।।४३ ।।
हेमा, हेमवती, सौम्या, तृणग्रन्थि, हिमाश्रया, स्वर्णपर्णी, सुजीवन्ती, स्वर्णजीवा, सुवर्णिका, हेमपुष्पी, स्वर्णलता, स्वर्णजीवन्तिका, हेमवल्ली, हेमलता तथा स्वर्णजीवन्ती ये सब स्वर्णजीवन्ती के चौदह नाम हैं।
(राज०नि०वर्ग ३/४२,४३ पृ०३६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-चीवन्तरी, जिवसाग। म०-जोई वंसी। गु०-जिवन्ती | बं०-जीवन्ती, जिवै । ले०-Dendrobium macraei (डेंड्रो बियम मेक्रीई)।
उत्पत्ति स्थान-यह बंगाल में प्रचुरता से तथा हिमालय पर, खासिया पहाड़ी, दक्षिण में पश्चिम घाट,
मद्रास, नीलगिरि, सीलोन एवं वर्मा, मलाया आदि में विवरण-पीतपुष्पी के पुष्प तुरही सदृश, नीचे झुके
पायी जाती है। हुए होते हैं। इसका क्षुप सूक्ष्म रोमश, खड़ा, कोणयुक्त,
विवरण-यह बंगाल की जीवन्ती कहलाती है। वक्र हरितशाखा । पत्र एकान्तर १ से ३ इंच लम्बे अंडाकार
वहां इसका शाक खूब बनाया जाता है। कोई कोई इसे नोकदार, दोनों ओर फीके हरे, लगभग ७ युग्म दलयुक्त।
__ ही अष्टवर्ग का जीवक मानते हैं। पुष्प एकाकी या मंजरी पर सघन, तेजस्वी, पीतवर्ण के
बंगीय रास्ना कुल की यह लता प्रायः बांदे के रूप सुगंधयुक्त, पुष्पाभ्यन्तर कोष नलिकाकार, लगभग १/२
में वृक्षों (विशेषतः जामुन के वृक्षों) पर चढ़ी हुई पाई जाती इंच लम्बा । फल गोलाकार १/२ इंच व्यास का होता है।
है। इसके कांड-वांस के कांड जैसे पर्वयुक्त, किन्तु इसके कांड की छाल धूसिरवर्ण की होती है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०२५५, २५६)
कोमल, सुवर्ण सदृश तेजस्वी, नीचे की ओर लटकते हुए, २ से ३ फीट लम्बे होते हैं। तथा काण्ड पर विभिन्न दूरी
पर मूलकाकार, कुछ दबी हुई, चमकीली २ से २.५ इंच सुहिरण्णिया कुसुम
लम्बी शाखाएं होती हैं, जो दोनों ओर छोर पर पतली सुहिरणिया (सुहिरण्यिका) स्वर्ण जीवंती
होती है। पत्र उक्त शाखाओं या कूटकंद के अग्रभाग में रा०२८ जीवा०३/२८१ प०१७/१२७ एकाकी, कोमल, लालरंग के ४ से ८ इंच लम्बे विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के लगभग १ इंच चौड़े, रेखाकार, आयताकार कुण्ठिताग्र लिए 'सुहिरण्णिया कुसुम' शब्द का प्रयोग हुआ है। स्वर्ण एवं अनेक पतली शिराओं से युक्त; पुष्प पत्र कोण से जीवंती के पुष्प पीले होते हैं । हिरण्य सुवर्ण का पर्यायवाची निकले हुए (वर्षा ऋतु में) ३/४ से १ इंच लम्बे, नाम है। सुहिरण्यिका का पर्यायवाची सुसुवर्णिका रूप श्वेत, किन्तु किनारों पर पीतवर्णयुक्त, संख्या में १ से ३
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तक, दिन में कुछ घंटे तक विकसत होने वाले, पुष्प वृन्त झाड़ी, खण्डहर, सड़क के किनारे आदि गन्दी जमीन ३/४ से १ इंच लम्बा। फली शरद ऋतु में अनेक बीज में उत्पन्न होती है। शिमले में ५००० फीट ऊंची भूमि पर वाली होती है।
भी पाई जाती है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०२४८,२४६) विवरण-सत्यानाशी क्षुपजाति की वनस्पति २ से
४ फीट तक ऊंची, अनेक शाखाओं से युक्त, सघन होती सुहिरणिया कुसुम
है। इसके क्षुप, पत्ते, फल इत्यादि पर तीक्ष्ण कांटे होते सहिरणिया (सहिरणिका) सत्यानाशी. सवर्णक्षीरी हैं। डण्डी और पत्तों को तोड़ने से पीला दूध निकलता
है। पत्ते 3 से ७ इंच तक लम्बे. कटे हए. तीक्ष्ण कंटीले रा०२८ जीवा०३/२८१ प०१७/१२७ विवरण-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के
नोक वाले, सफेद धब्बों से युक्त तथा रेशेवाले होते हैं। लिए सुहिरणिया कुसुम शब्द का प्रयोग हुआ है।
फूल कटोरीनुमा, चमकीले, पीले रंग के आते हैं और वे सत्यानाशी के पुष्प पीले होते हैं और दूध भी पीला होता
खुले मुख होते हैं । फल लम्बे तथा गोल होते हैं और उनसे है। हिरण्य का पर्यायवाची नाम सुवर्ण है। हिरण्य के पूर्व
राई के समान काले रंग के बीज निकलते हैं। वैशाख,
ज्येष्ठ की गरमी से इसका क्षप सूख कर नष्ट हो जाता सुशब्द अतिरिक्त है। सुवर्णा (णी) |स्त्री। सुवर्णक्षी-म्।
है। फल के सूखने पर बीज भूमि पर गिर जाते हैं और (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०११४१)
वे ही शरद ऋतु में अंकुरित हो पौधे के रूप में परिणत सुवर्णा के पर्यायवाची नाम
हो जाते हैं स्वर्णक्षीरी स्वर्णदुग्धा, स्वर्णाह्वा रुक्मिणी तथा
___ (भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ०६६) सुवर्णा हेमदुग्धी च, हेमक्षीरी च काञ्चनी।।५५ ।।
सत्यानाशी का पौधा मूल अमेरीका के उष्ण स्वर्णक्षीरी स्वर्णदुग्धा, स्वर्णावा, रुक्मिणी, सुवर्णा कटिबन्ध प्रदेश का है। ऐसी वनस्पतिशास्त्रियों की हेमदुग्धी, हेमक्षीरी तथा काञ्चनी ये सब भड़भाड़
मान्यता है। वर्तमान में भारत के उष्ण कटिबंध प्रदेश में (स्वर्णक्षीरी) के नाम हैं।
नैसर्गिक हो गया है। यह भारत के सब प्रदेश और ग्रामों (राज०नि०५/५५ पृ०११५)
में पाया जाता है। जहां यह होता है वहां चारों ओर फैल अन्य भाषाओं में नाम
जाता है। यदि किसी खेत में प्रवेश हो गया तो उसे उजाड़ हि०-सत्यानाशी, पीलाधतूरा, फरंगी धतरा, देता है। इस हेतु से इसे सत्यानाशी और उजरकांटा उजरकांटा, सियालकांटा, भड़भांड, चोक। बं०
संज्ञा दी है। सोनाखिरणी, शियालकांटा, बड़ो सियालकांटा। म०
बीज कृष्णवर्ण, सरसों से कुछ बड़े और एक फल कांटे धोत्रा। गु०-दारुडी। क०-अरसिन उन्मत्त।
में अनेक होते हैं। बीजों में से तेल निकलता है। वह ताo-ब्रह्मदण्डु, कुडियोट्टि, कुरुक्कुमचेडि। ते०
औषधिरूप से और जलाने के लिये काम में लिया जाता ब्रह्मदण्डीचेटु । पं०-कण्डियारी, स्यालकांटा, भटमिल, है। जलाने पर धुआं बहुत होता है। इसकी छाल नरम सत्यनशा, भेरबण्ड, भटकटेया। सन्ता०
रसपूर्ण और पीले रंग की पीले दूध वाली। दूध धीरे-धीरे गोकुहल जानम । पश्चिमो०-भरभुरवा, कडवहकण्टेला।
गाढ़ा, भूरा होकर काला और कठोर बन जाता है। वास मला०-पोन्नुम्मत्तम्। उडि०- कांटाकुशम। अं
उग्र, स्वाद कडवा होता है। सत्यानाशी के क्षुपशीत ऋतु Mexican poppy (मेक्सिकन पॉप्पी) Prickly poppy (प्रिक्ली
की शुरूआत में खूब पैदा होती है। फूलने और फलने पॉप्पी)। ले०-Argemone Mexicana (आर्जिमोन्
का समय फूल के लिए दिसम्बर से फरवरी और फल मेक्सिकाना)।
मार्च से मई तक आते हैं। दूसरी श्वेत पुष्पवाली होती है उत्पत्ति स्थान-यह सब प्रान्तों के खेत, मैदान, जो कि बहुत कम प्राप्त होती है। माउण्ट आबू और यहां
पर भी देखी गई है। श्वेतपुष्प की सत्यानाशी से
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रासायनिक लोग तूतिया की श्वेतवर्ण की भष्म तैयार करते विवरण-इसका क्षुप दृढ होता है। इसके नीचे हैं जो कि गंधक का तेल छुड़ाने में अत्यन्त प्रभावक है। बड़े-बड़े कन्द होते हैं। पत्र पुष्पित होने के बहुत बाद (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०२६३, २६४) आता है। पत्रफलक १ से ३ फीट चौड़ा, अनेक भागों
में विभक्त, हरेरंग का एवं छत्र की तरह फैला हुआ रहता सूरण
है। पत्रवृन्त २ से ३ फीट लम्बा, दृढ़, कुछ कांटों जैसे सूरण (सूरण) सूरणकंद ।
उभारों से खुरदरा, हरे रंग का तथा हलके रंग के धब्बों
उत्त०३६/६८ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सूरणशब्द कंदवर्ग के
से युक्त होता है। यह ऊपर ३ भागों में विभक्त हो जाता अन्तर्गत है। कहीं पर सूरणकंद शब्द का प्रयोग हुआ है
है, जिसमें कटे हुए पत्रक लगे रहते हैं। पुष्पव्यूह पत्रावृत और कहीं पर केवल सूरण शब्द का प्रयोग हुआ है।
अवृन्त काण्डज स्वरूप का तथा हरिताभ बैंगनी रंग का देखें सूरणकंद शब्द।
होता है। पुं० एवं स्त्री० पुष्पव्यूह अलग-अलग होते हैं। फल लाल तथा २ से ३ बीजों से युक्त होता है। कन्द
शीर्ष पर धंसा हुआ, गोलार्ध के सदृश, ८ से १० इंच व्यास सूरणकंद
का तथा हलके भूरे रंग का होता है। सूरणकंद (सूरणकंद) सूरणकंद
इसके अनेक प्रकार वन्य एवं कृषित होते हैं। वन्य भ०७/६६ जीवा०१/७३ प०१/४८/७ के कन्द बहत प्रक्षोभक तथा रक्ताभ श्वेत होते हैं क्योंकि सूरणः कन्द ओलश्च, कन्दलोऽर्शोघ्न इत्यपि। उसमें कॅल्शियम आक्झेलेट के रवे होते हैं। कृषित (प्रायः
सूरन, कन्द, ओल, कन्दल तथा अर्शोघ्न ये सब श्वेत) में खुजली कम होती है। (भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०६६३) सूरन के पर्यायवाची नाम हैं। (भाव०नि० पृ०६६३) अन्य भाषाओं में नाम
सुरवल्ली हि०-सूरनकंद, जमीकन्द, जिमिकंद, ओल । बं०-ओल। म०-सुरण। गु०-सूरण। क०-सूरण, सूरवल्ली (सूरवल्ली) सूरजमुखी, सुवर्चला सूर्णगड्ड । तेल-कन्द । ता०-कर्णेकिलंगु । फा०-ओला।
प०१/४०/३ ले०-Amorphophallus campanulatus Blume. सूर्य्यवल्ली।स्त्री। क्षीरकाकोल्याम् (एमीकैफेलस् कम्पॅनुलेटस्) Fam. Araceae (अरेसी)
(वैद्यक शब्द सिन्धुपृ०११४७) सूर्यलता स्त्रिी। आदित्यभक्तायाम्
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ११४७) रविवल्ली।स्त्री। आदित्यभक्तायाम्, ब्राह्मीक्षुपे
(वैद्यकशब्द सिन्धुपृ०८७५) सूर्यवल्ली [स्त्री०।अर्कपुष्पिकावृक्ष दधियार
देशान्तरीयभाषा जिमीकंद
सूर्यलता आदित्य भक्ता। हुर हुर
(शालिग्रामौषध शब्द सागर पृ० २०४) सूर्यवल्ली |स्त्री०-वनस्पति । अर्क पुष्पी।
(आयुर्वेदीय शब्द कोश पृ० १६३६) उत्पत्ति स्थान-यह प्राय: सब प्रान्तों में उत्पन्न
विमर्श-सूर शब्द सूर्य का पर्यायवाची है। होता है। कही इसका रापण करत है, कही आप ही आप निघंटओं में सरवल्ली शब्द नहीं मिला है। सर्यवल्ली और लगता है।
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रविवल्ली शब्द मिलते हैं। वैद्यक शब्द कोश में सूर्यवल्ली सूर्य की ओर इसका मुख रहता है, इसी कारण इसको का अर्थ क्षीरकाकोली है। आयुर्वेदीय तथा शालिग्राम शब्द सूरजमुखी कहते हैं। फूलों के मध्य भाग में केसरकोष कोशों में सूर्यवल्ली का अर्थ अर्कपुष्पी या अर्कपुष्पिका किया रहते हैं और इनके बीच कसुम के बीज के समान सफेद गया है। सूर्य लता का अर्थ ऊपर के दोनों कोशों में बीज रहते हैं। इसके पौधे बीज से ही उत्पन्न होते हैं आदित्य भक्ता किया है और रविवल्ली आदित्यभक्ता और हर समय इसको रोपण किया जा सकता है। परन्तु (सूर्यभक्ता) का अर्थ देती है। क्षीर काकोली प०१/४८/५ शीतकाल और ग्रीष्म ऋत ही बीजों को रोपण करने का पर आगई है इसलिए यहां आदित्यभक्ता (सूरजमुखी) का अच्छा समय है। बीज वपन करके ऊपर मिट्टी का चूरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा है।
छींट कर कई दिनों तक थोड़ा-थोड़ा जल का छींटा रविवल्ली के पर्यायवाची नाम
देकर जमीन को सरस रखते हैं। बीज बोने के पहले अर्ककान्ता दिव्यतेजाः, शीता, वृष्या वरौषधिः।। मिट्टी के साथ खभी या गोबर का रविवल्ली तु वरदा, मूलपर्णी सुखोद्भवा ।।७२४ ।। सतेज होते हैं। सुवर्चला सूर्यभक्ता, सूर्यावर्त्ता रविप्रिया।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०३७६) अर्कपुष्पी च पृथ्वीका, पार्था ब्रह्मसुवर्चला।।७२५ ।। अर्ककान्ता, दिव्यतेजा, शीता, वृष्या, वरौषधि,
सूरिल्लि रविवल्ली, वरदा, मूलपर्णी, सुवर्चला, सूर्यभक्ता, सूर्यावर्ता,
__ सूरिल्लि ( ) ग्रामणी तृण रा०१८४ रविप्रिया, अर्कपुष्पी, पृथ्वीका, पार्था और ब्रह्मसुवर्चला ये ।
सूरल्लि |पुं।स्त्री। (दे०) तृण विशेष, ग्रामाणी सब पर्याय सुवर्चला के हैं ।(कैयदेव निघंटु ओषधि वर्ग पृ०१३४) अन्य भाषाओं में नाम
नामक तृण
(पाइअसद्दमहण्णव पृ०६२८)
विमर्श-सूरूल्लि, सूरल्लि दोनों शब्द देशीय हैं हि०-सूरजमुखी, सूर्यमुखी । मलय०-सूर्यकंदी।
और ग्रामणीतृण के वाचक हैं। सूरिल्लि शब्द भी बं०-सूरजमुखी हुडहुड, वनशलते। म०-सूर्यफल ।
ग्रामणीतृण का वाचक होना चाहिए। निघंटुओं में इसका उर्दू०-सूरजमुखी। गु०-सूरजमुखी। क०-हुरहुर,
अर्थ नहीं मिला है। आदित्यभक्तिचेटु । ते०-सूर्य कान्तिम । फा०गुलआफताव परस्त । अ०-अर्दियून अर्झवान । अं०
सेडिय Suniflower (सनफ्लावर)। ले०-Helianthus Annus linn (हलिएन्थसूएन्युअस्)।
सेडिय ( ) मूंज भ०२१/१६ प०१/४२/१ उत्पत्ति स्थान-यह अमेरीका का आदिवासी है विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सेडिय शब्द तृणवर्ग के और भारत में सर्वत्र वाटिकाओं में इसको लगाया जाता अन्तर्गत है। संस्कृत भाषा में इसका वानस्पतिक नाम नहीं
मिला है। हिन्दी भाषा में सेटा या साटा शब्द मिलता है। विवरण-यह भृङ्ग राजादिकुल का एक वर्ष जीवी संभव है। यही नाम सेडिय का अर्थवाचक है। शालिग्राम प्रसिद्ध पुष्पाप, ४ से ५ हाथ ऊंचे होते हैं। पत्ते डंडी की निघंटु मे मूंज को सेटा कहा गया है। ओर चौड़े, आगे को संकुचित, लम्बे खरदरे और पुराने संस्कृत में नामहोने पर झालर के समान कटे किनारीदार होते हैं । इन मुअ, मुआत, बाण, स्थूलदर्भ, सुमेखल (इक्षुकाण्ड, पर रोयें होते हैं। फूल बड़े-बड़े सूर्याकार गोल अनेक दल मौजी, तृणाख्य, ब्रह्मण्य, तेजनाह्वय, वानीरक, मुअनक, सहित नारंगी रंग के दिखाई देते हैं। सूरजमुखी फूल शीरी, दर्भाह्वव, दुर्मूल, दृढतण, ये नाम मूंज या सेटे के का मस्तक भोर के समय पूर्व की तरफ रहता है। सूर्य हैं।
(शा०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०२७५) की गति के साथ ही साथ यह ऊंचा होकर दिन के शेष भाग में पश्चिम की ओर नत हो जाता है। सदा सर्वदा
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श
सेण्हय सण्हय (श्लक्ष्णक) निर्मली। भ०२२/२
विमर्श-प्रस्तुत शब्द के पाठान्तर में सण्हय शब्द है जिसकी संस्कृत छाया श्लक्ष्णक बनती है। प्राकृत में सेण्हय की भी श्लक्ष्णक छाया बना सकते हैं। फिर भी सण्हय शब्द ग्रहण कर रहे हैं। सण्हय (श्लक्ष्णक) निर्मली श्लक्ष्णक के पर्यायवाची नाम
कतकं छेदनीयञ्च कतं कतफलं मतम् ।। अम्बुप्रसादनफलं श्लक्ष्णं नेत्रविकारजित् ।।१५२।
कतक, छेदनीय, कत, कतफलं, अम्बुप्रसादनफल, श्लक्ष्ण और नेत्रविकारजित ये कतक के पर्याय हैं।
(धन्व०नि०३/१५२ पृ०१७७)
कोट्टई। ते०-कतकमुले०-Strychnos Potatorumlinn (स्ट्रिकनोस पोटेटोरम) Fam. Loganiaceae (लोगेनिएसी)।
उत्पत्ति स्थान-इसका वृक्ष सोन नदी के किनारे मध्यभारत तथा दक्षिण की ओर पाया जाता है।
विवरण-यह ४० फीट तक ऊंचा होता है। पत्ते प्रायः २.५ इंच लम्बे एक इंच चौड़े अंडाकार होते हैं । फूल सफेद रंग के आते हैं उनसे सुगंध आती है। फल गोल, पकने पर काले रंग के होते हैं। इनमें गोल कुछ चिपटे बीज होते हैं, जो चिपड़े होते हैं।
(भाव०नि० आम्रादिफलवर्ग०पृ०५८४)
सेण्हा
सेण्हा (श्लक्ष्णक) निर्मली
देखें सेण्हय शब्द।
प०१/३५/३
SANSAR
NSAR
सेतासोय सेतासोय (श्वेताशोक) श्वेत अशोक जीवा०३/२८२
विमर्श-श्वेत रंग की उपमा के लिए सेतासोय शब्द का प्रस्तुत प्रकरण में प्रयोग हुआ है।
देखें सेयासोग शब्द।
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Re
सेयकणवीर सेयकणवीर (श्वेतकणवीर) श्वेतपुष्प वाली कनेर ।
रा०२६ जी०३/१८२ प०१७/१२८ श्वेत कणवीर के पर्यायवाची नाम
करवीरो मीनाख्यः, प्रतिहासोऽश्ववरोहक://१५३६ ।। शतकुम्भः श्वेतपुष्पः, शतप्राशोऽब्जबीजभृत् कणवीरोऽश्वहाऽश्वघ्नो, हयमारोऽश्वमारक://१५४०।।
करवीर, मीनाख्य, प्रतिहास, अश्वरोहक, शतकुम्भ, श्वेतपुष्प, शतप्राश, अब्जबीजभृत, कणवीर, अश्वहा, अश्वघ्न, हयमार, और अश्वमारक ये करवीर (श्वेत) के पर्याय हैं।
(कैयदेव० नि० औषधिवर्ग पृ०६३१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-सफेद कनेर या कनैल। म०--पांदरी कण्हेर, धावेकनेरी। गु०-धोलाकनेर, करेण । बं०-करवी
फल
बीज
मुपकार
अन्य भाषाओं में नाम___ हि०-निर्मली। बं०-निर्मली। म०-निर्मली। गु०-निर्मली, कतकडो। कo-चिल्लिकायि । ता०-तेतन,
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सादा, करवीगनीर। अं0-Sweet Scented oleander सेयबंधुजीव शब्द प्रयुक्त हुआ है। (स्वीटसेंटड़े औलियंडर)। ले०-Neriumoleander निरियम देखें 'किण्हबंधुजीव' शब्द । ओलियंडर)।
यद्यपि राजनिघंटु ने इसके कृष्ण, श्वेत, पीत तथा विवरण-श्वेत कनेर के ४ प्रकार हैं-(१) श्वेत रक्त चार भेद लिखे हैं तथापि केवल श्वेत भेद पाया जाता पुष्पयुक्त (२) द्विगुण श्वेतपुष्पयुक्त (३) श्वेत गुलाबी है।
(भाव०नि० पुष्पवर्ग०पृ०५०६) पुष्पयुक्त (४) द्विगुण श्वेत गुलाबी पुष्पयुक्त। संस्कृत में कनेर के कई नामों में अश्वघ्न, हयमार
सेयमाल तुरंगारि नाम से यह नहीं समझना चाहिए कि कनेर केवल
सेयमाल (श्वेत माल) श्वेत पुष्प वाली मालती। घोड़ों का ही काल है, प्रत्युत यह सबके लिए एक घातक
जीवा० ३/५८२ जं०२/८ विष है। यहां अश्व, तुरंग आदि शब्दों को उपलक्षणात्मक
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सेयमाल शब्द श्वेतरंग समझना चाहिए । श्वेत कनेर लालकनेर की अपेक्षा अधिक घातक होता है।
की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। मालती के पुष्प श्वेत
होते हैं। . लाल दोनों कनेरों को मूल में नेरिओडोरीन नामक ऐसे दो पदार्थ पाये जाते हैं जो हृदय
माल-पुं० मालती।
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० १३८) के लिए अत्यन्त घातक होते हैं। वे उसकी गति को रोक देते हैं या कम कर देते हैं। इसके अतिरिक्त इनमें
मालती के फूल सफेद रंग के होते हैं।
(धन्व०वनौ० विशे० भाग ५ पृ० ३५१) ग्लुकोसाइड रोजोगिनिन एक सुगंधित उडनशील तैल तथा डिजिटैलिस के समान एक नेरिन नामक रवेदार पदार्थ टैनिक एसिड और मोम होता है। इसमें नेरिन यह
सेयासोग हृदयोत्तेजक है ।यदि कनेर में यह तत्त्व न होता तो यह सेयासोग (श्वेताशोक) श्वेतपुष्प वाला अशोक उष्ण वीर्य न होकर सद्यमारक उग्रविष हो जाता। मूल सेयासोय की छाल अमोघ मूत्रकारक है। लाल या पीला कनेर की
रा० ०२६ अपेक्षा श्वेत कनेर की जड़े अत्यन्त विषैली होती हैं।
सेयासोय (श्वेताशोक) श्वेतपुष्पवाला अशोक (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ६१, ६२)
रा०२६ प०१७/१२८
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सफेद रंग की उपमा के सेय बंधुजीव
लिए सेयासोग और सेयासोय शब्दों का प्रयोग हुआ है। सेय बंधुजीव (श्वेत बन्धुजीव) सफेदफूल वाली अशोक के कुछ फूल श्वेत होते हैं। दुपहरिया रा०२८ जीवा०३/२८२ प०१७/१२८
अशोक के पत्तेआम के समान होते हैं। फूल सफेद, असितसित पीत लोहित पुष्प विशेषाच्चतुर्विधो कुछेक साधारण पीले रंग का होता है। बन्धूकः।।
(शा०नि० पुष्प वर्ग पृ०३८४) यह (बन्धूक) कृष्ण, श्वेत, पीत तथा लोहित वर्ण पुष्प से चार प्रकार का होता है।
सेरियय (राज०नि० वर्ग०१०/११८ पृ०३२०) सेरियय (सैरीयक सैरेयक) श्वेतपुष्प वाली इसके फूल सफेद, सिन्दूरी और लाल रंग के होते
कटसरैया। (वनौषधि चंद्रोदय भाग ३ पृ०१०४)
भ०२२/५ प०१/३८/१ प्रस्तुत प्रकरण में सफेद रंग की उपमा के लिए
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हैं।
सैरीयः (कः) ।पुं। श्वेतझिण्ट्याम्
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण (प०१/३५/१) में सेलु (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११५१)
शब्द एकास्थिवर्ग के अन्तर्गत है। लिसोडा की गुठली सैरेयः (क:) पुं० । श्वेतझिण्ट्याम् ।
होती है इसलिए यहां वरुण अर्थ ग्रहण न कर बहुबार
(लिसोडा) अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११५१) विमर्श-निघंटुओं में सैरेयक शब्द के पर्यायवाची
विवरण-फूल छोटा उभयलिङ्ग, विशिष्ट श्वेतवर्ण नाम मिलते हैं पर सैरीयक शब्द के नहीं मिलते हैं। गुच्छसमूह में, पुष्प दंड में अनेक शाखायें होती हैं। फल इसलिए संस्कृतरूप सैरेयक के पर्यायवाची नाम दे रहे भी गुच्छ समूह में लगते हैं। फल में गुठली १/२ से १
इंच लम्बी होती है। सैरेयक के पर्यायवाची नाम
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०१६२) सैरेयक: श्वेतपुष्पः, सैरेयः, कटसारिका। सहाचरः सहचरः, स च भिन्द्यपि कथ्यते।।
सेवाल सैरेयक, श्वेतपुष्प, सैरेय, कटसारिका, सहाचर, सेवाल (शैवाल, सैवाल) सेवार प०१/३८/२; १/४६ सहचर ये सब सफेद पुष्पवाली कटसरैया के संस्कृत नाम सफद पुष्पवाला कटसरया क सस्कृत नाम शैवाल के पर्यायवाची नाम
शैवालं जलनीली स्याच्छैवलं जलजञ्च तत् ।। (भाव०नि० पुष्पवर्ग पृ०५०२) शैवाल, जलनीली, शैवाल, जलज ये शैवाल के अन्य भाषाओं में नाम
संस्कृत नाम हैं। ले०-Barleria cristata linn (बार्लेरिया क्रिस्टेटा)।
स्टटा)। अन्य भाषाओं में नामदेखें कोरंटय शब्द ।
हि०-सेवार । म०-शेवाल | गु०-जलसर्पोलियन ।
ते०-पुनत्सू । ले०-Vellisneriaspiralis linn (व लिसनेरिया सेरिया गुम्म
स्पाइरेलिस) Fam. Hydrocharitaceae (हाइड्रोचेरिटेसी)। सेरिया गुम्म (सैरीय गुल्म) श्वेतपुष्प वालीकटसरैया।
उत्पत्ति स्थान-यह समस्त भारत में होता है।
विवरण-इसके क्षुप जल में डुबे हुए, काण्डहीन का गुल्म
तथा आपस में गुथे हुए होते हैं। पत्ते रेखाकार, बहुत लम्बे
जीवा०३/५८० देखें सेरियय शब्द।
तथा पारभाषक होते हैं। पुं. पुष्प छोटे, पत्रावृत व्यूह में होते हैं और बहुत छोटे तथा संख्या में बहुत होते हैं।
परिपक्व होने पर वे व्यूह से अलग होकर जल के उपर सेरुताल वण
आ जाते हैं तथा खिल जाते हैं। स्त्री पुष्प, लंबे कुडलित सेरुताल वण (
) जं०२/६ वृन्त से युक्त होते हैं। तथा परिपाक होने पर कुंडल विमर्श-उपलब्ध निघंटुओं तथा शब्दकोशों में खुलकर वे ऊपर आ जाते हैं तथा परिवेचन होने पर फिर सेरुताल शब्द नहीं मिला है।
वृन्त का कुडंल होकर नीचे चले जाते हैं।
(भाव०नि० पुष्प वर्ग०पृ० ४८६, ४८८) सेलु
सिवार भी जल के ऊपर बालों सी आच्छादित सेलु (शेलु) लिसोडा भ०२२/२ जीवा०१/७१ प० १/३५/१
रहती है। यह कई प्रकार की होती है। सिवार इस देश
में चीनी साफ करने में विशेष करके काम में ली जाती सेलुः ।पुं। वरुणवृक्षे, बहुबारवृक्षे।
(शा०नि० पृ० ६१८) (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११५०)
Pr
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दस०२/६
सेवालगुम्म
हड सेवालगुम्म (शैवालगुल्म) सेवार का गुल्म हड (हठ) जलकुंभी
जीवा०३/५८०
देखें हढ शब्द। देखें सेवाल शब्द ।
हढ सोगंधिय हढ (हठ) जलकुंभी
भ०२३/८ प०१/४६ सोगंधिय (सौगन्धिक) चंद्र विकासी नील कमल हठः ।पुं। शैवाले जलकुम्भिकायाम् देखें सुगंधिय शब्द।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११८१) जीवा०३/२८६, २१ हठ के पर्यायवाची नाम
वारिपर्णी तोयवृक्षो, हठः पानीयपृष्ठजा।
कुली, कम्भी तोयकुंभी, ढंढणो वृकधूमकः ।।१४६७ ।। सोत्थियसाय
वारिपर्णी, तोयवृक्ष, हठ, पानीयपृष्ठजा, कुली सोत्थियसाय (स्वस्तिक शाक) सुनिषण्णक शाक कुम्भी, तोयकुंभी, ढंढण और वृकधूमक ये वारिपर्णी के
भ २०/२० प०१/४५/२ पर्याय हैं। (कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग पृ०२७१, २७२) स्वस्तिक के पर्यायवाची नाम
अन्य भाषाओं में नामशितिवारः सूचिपत्रः सूच्याहः सुनिषण्णकः।
____हिo-जलकुंभी, कुंभी (काई)। बं०-पाना, श्रीवारकःशितिवरः स्वस्तिकः कुक्कुटः टोकापाना। म०-जलभांडवी. प्रश्नी। गु०-जलकुंभी। शिखी।।१५५ ।।
क०-होवल। ता०-आकाश तामरै। तेल-तुटिकर। सूचिपत्र, सूच्याह्व. सुनिषण्णक, श्रीवारक, शितिवर अंo-The Westerlettuce (दी वेस्टर लेट्यूस)।ले०-Pistia स्वास्तक. कुक्कुट आर शिखी ये शितिवार के पर्यायवाची Stratiotes linn (पिस्टिया स्ट्रेटियोटीस्)| Fam. नाम हैं।
(घन्च०नि०१/१५५ पृ०६१)। Pontederiaceae (पॉटेडेयेसी)। अन्य भाषाओं में नाम
उत्पत्ति स्थान-यह समस्त भारत में 'तालाबों' हि०-शिरिआरि, चौपतिया, शितिवार। बं०- तथा गढ़ों में जहां जल जमा रहता है पायी जाती है। शुयुनिशाक । ले०-Marsilea grandifolialinn (मार्सिलिआ अफ्रीका व अमेरीका आदि में भी होती है। ग्रान्डिफोलिया) या Marsileaquadrifolia linn (मार्सिलिआ विवरण-पुष्पवर्ण एवं सूरणकुल के इसके प्रायः क्वाड्रीफोलिया)।
काण्डहीन, अनेक अधोमूल युक्त क्षुप, काई जैसे उत्पत्ति स्थान-बंग देश में तालाबों के किनारे, जलाशयों पर छाये हए होते हैं। पत्रोदभव के पूर्व इसकी गीली, जमीन में चावल के खेतों में सर्वत्र पैदा होता है। नलिकाकार डंडी, मध्य भाग में फूली हुई मोटी कुंभ या
__विवरण-यह सुनिषणक, शाककुल का जलज कलश जैसी होने से इसे कुंभिका नाम दिया गया है। उद्भिदतालाबों के किनारे होता है। क्षुप १ फुट से ऊंचा पत्रक प्रत्येक डंडी पर ३ या ४ एक साथ, वृन्तरहित, नहीं जाता। पत्रों का वृन्त नोकीला व पत्र ४ भागों में से ४ इंच लम्बे, मांसल, गोलाकार, गाढे, नीलवर्ण के, विभक्त, यह कर्दम के ऊपर फैला होता है। आकार में दोनों ओर सूक्ष्मरोमयुक्त होते हैं। पुष्प वर्षाकाल में, पत्रों चांगेरी (खट्टीबूटी) के तुल्य होता है, केवल पत्रों में के बीच से जो डंडी सी निकलती है उन पर फल बेंगनी अम्लत्व नहीं होता। शीतकाल में (Spore) बीजाणु बीज रंग के लंबगोल, एक खंडयुक्त प्रायः गुच्छों में लगते हैं। होते हैं। बंग देश में सुनिषण्णक शाक अधिक खाया जाता बीजाशय वर्षा के बाद इसका फल अंडाकार, पतली
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०३६१) छाल.या झिल्लीयक्त होता है, जिसमें अनेक लम्बे बीज
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होते हैं। इसके क्षुपों की वृद्धि प्रायः रुके हुए जल वाले तालाब, कूप या गड्डों में बहुत शीघ्र होती है। कूपों में जलशुद्धि के लिए इसे डाल देने से यह शीघ्र ही जल पर छा जाती है। इसकी अत्यधिक वृद्धि से जल विकृत भी हो जाता है। अतः इसे बार-बार निकालकर बाहर कर देते हैं। इसकी जड़े श्वेत तन्तयक्त होती है। इसके दो भेद हैं। बड़ी को जलकुम्भा और छोटी को जलकुंभी कहते
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०१८६,१८७)
हत्थिपिप्पली हत्थिपिप्पली (हस्तिपिप्पली) गजपीपल
उत्त०३४/११ गजपिप्पली के पर्यायवाची नाम
चविकायाः फलं प्राज्ञैः, कथिता गजपिप्पली। कपिवल्ली कोलवल्ली, श्रेयसी वशिरश्च सा।।६६ ।।
चव्य के फल का ही नाम गज पीपल है। ऐसा वैद्य लोग कहते हैं। कपिवल्ली, कोलवल्ली, श्रेयसी, वशिर ये सब गजपिप्पली के पर्यायवाची नाम हैं।
(भाव०नि०हरितक्यादि वर्ग० पृ०२१) गजपीपल
म०-गजपिंपली, थोरपिंपली। क०-अनेबीलुबल्लि । गु०-मोटोपीपर । ते०-एनुगा पिप्पल । त०-अनै तिप्पली। पं०-गजपीपल। सन्ताल०-दरेझपक। मल०-अति तिप्पली, अनैतिप्पली। ले०-Scindapsus Officinalis Schott (सिन्डेप्सस् ऑफिसिनेलिस् स्काट)। Fam. Araceae (अॅरासी)।
उत्पत्ति स्थान-इसकी लता आर्द्र सपाट मैदानों में, हिमालय के प्रान्तों में सिक्कम से पूर्व की ओर बंगाल, चट्टगांव ब्रह्मा तथा सिवालिक के जंगलों में शाल वक्षों पर चढी हुई पाई जाती है।
विवरणरा-इसका डंठल गूदेदार एक इंच या इससे भी अधिक मोटा एवं गोल होता है। पत्ते बड़े-बड़े, ५ से १० इंच तक लम्बे और २.५ से ६ इंच तक चौड़े, अंडाकार गाढे हरे होते हैं और शाखाओं पर विपरीत रहते हैं। पत्रवृन्त ३ से ६ इंच तक लम्बा और अंत का हिस्सा हाथ की कोहनी से समान होता है एवं तलवार की म्यान के समान दिखाई पड़ता है। इसके भीतर का हिस्सा पीले रंग का होता है। फल रसयुक्त, गूदेदार लगभग ६ इंच लम्बा, १.२५ से १.५ इंच व्यास में और नीचे की ओर लटका हुआ रहता है। इसके आगे का हिस्सा नोकदार होता है। इनमें गंध नहीं रहती तथा उन्हें जल में भिगोकर रखने से ये फूल कर नरम हो जाते हैं। इनके बीच में बीज होते हैं और उनके चारों ओर चूने के सूई के समान दाने होते हैं। बीज वृक्काकार, चिकने गांजे के बीज से बड़े और भूरे रंग के होते हैं। इसके पत्ते का शाक बनाकर खाते है। (भाव०नि० हरितक्यादिवर्ग०पृ०२१)
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LEONEHATO
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गजपिप्पलीनामानि
हरडय हरडय (हरीतकी) हरड, हर्रे प०१/३५/२
विमर्श-हरड शब्द मराठी, गुजराती और मारवाड़ी भाषा का शब्द हैं। संस्कृत भाषा में हरीतकी शब्द है। हरीतकी के पर्यायवाची नाम
हरीतक्याभया पथ्या, प्रपथ्या पूतनाऽमृता जयाव्यथा हैमवती, वयःस्था चेतकी शिवा।।२०५।। प्राणदा नन्दिनी चैव, रोहिणी विजया च सा। हरीतकी, अभया, पथ्या, प्रपथ्या, पूतना, अमृता,
AWANI
अन्य भाषाओं में नाम
हि०-गजपीपर, गजपीपल। बं०-गजपीपल।
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जया, अव्यथा, हैमवती, वयःस्था, चेतकी, शिवा, प्राणदा, वाटिकाओं में भी रोपण करते हैं। नन्दिनी, रोहिणी, विजया ये हरीतकी के पर्यायवाची नाम विवरण-प्रायः इसका वृक्ष मध्यमाकार का होता
(धन्व०नि०१/२०५ पृ०७६,७७) है किन्तु कहीं-कहीं बड़े-बड़े वृक्ष भी देखे जाते हैं। नर्मदा अन्य भाषाओं में नाम
के दक्षिण के १०० फीट तक ऊंचे होते हैं। हरीतकी के हि०-हर, हरड, हरे, हर्ड, हरर | बं०-हरीतकी, वृक्ष वट, पीपल आदि वृक्षों की तरह दीर्घायु नहीं होते बालहरीतकी, नर्रा, हरीतकीगाछ। म०-हरडा, हिरडा, हैं बल्कि कालान्तर र गिर जाया करते हैं। हरडी, बालहरडी। गु०-हरेडे, हिमज। तेल-करक। इसकी छाल कालापन युक्त भूरे रंग की चौथाई इंच तक चेटु, करकाप्प, करक्काय । ता०-कडुकाय, करकैया, मोटी होती है। टहनियों पर पत्ते सघन नहीं रहते बल्कि कडुकेमरम। क०-अणिलेय, अणिले, अनिलैकाय।। न्यूनाधिक विपरीत रहते हैं। पत्ते अडूसे के पत्तों से कुछ उडी०-कर्रथा, हरिडा, करेडा। द०-हलरा, कलरा। चौड़े, महुओं के पत्तों के समान, ४ से ८ इंच तक लम्बे, मा०-हरडे। पं०-हड,हरड। आसा०-हिलिखा, किंचित् अंडाकार, नोकदार, सफेदी युक्त हरे और सिल्लिका। लिपचा०-सिलिम। सिक्कम०-हन, चमकदार होते हैं तथा स्पर्श से खुरदरे जान पड़ते हैं। सिलिमकंग। मैसूर०-अलले। कच्छार०-होरतकी। वृन्त १ इंच से कम एवं उसके अग्रभाग के ऊपरी पृष्ठ फा०-हलेलज अस्फर, हलैजर्द। अ०-अहलीलज़ पर दो या अधिक सूक्ष्म ग्रंथियां पाई जाती हैं। वसंत ऋतु कावली। अंo-Myrobalans (माईरोबेलन्स) Chebula में पुराने पत्ते गिरकर नवीन पत्ते निकल आते हैं। फूल Myrobalans (चेब्युलिक माईरोबेलन्स)|ले०-Terminalia वारीक आम की मंजरी के समान दिखाई देते हैं और chebula Retu (टर्मिनेलिया चेब्युला) Fa. Combretaceae वे देखने में सफेदी मायल या कुछ पीले रंग के होते हैं (कॉम्ब्रिटेंसी)।
तथा उनमें दुर्गन्ध आती है। फल किंचित् लम्बाई युक्त गोलाकार होते हैं। सूखते सूखते छिलके सिकुड़ जाते हैं और पांच कोणाकार या पांच रेखायुक्त दिखाई देने लगते हैं। हरीतकी के फल पकने पर वृक्ष में बहुत कम ठहरते हैं। (भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग०पृ०७.८)
हरतणुया हरतणुया (हरेणुका) रेणुका, संभालू का बीज
प०१/४८/६
विमर्श-भगवती सूत्र २३/८ में हरतणुया के स्थान उत्पत्ति स्थान-इसका वृक्ष हमारे देश के प्रायः सब
__पर हरेणुया पाठ है |आचार्य हेमचंद्र की प्राकृत व्याकरण प्रान्तों में कहीं न कहीं पाया जाता है। उत्तर भारत में
१/१६५ से १६६ तक सूत्रों के अनुसार आदिस्वर को आगे
। बहुलता से उत्पन्न होती है। कुमाऊं से बंगाल तक,
के सस्वर व्यंजन सहित ए आदेश होता है। प्रस्तुत प्रकरण आसाम, ब्रह्मा तथा दक्षिण में मद्रास प्रान्त, कोयम्बटूर,
में द्वितीय स्वर 'र' तथा आगे के सस्वर व्यंजन (त) को कनारा, पश्चिम घाट के पूर्वीय प्रान्तों में, गञ्जाम
एक आदेश होने से हरेणुया रूप बनता है। गोदावरी की तलहटी, सतपुरा पहाड़, गुजरात, बम्बई
हरेणुका के पर्यायवाची नामप्रान्त के घाटों के पास ऊंचे जंगलों में, कोंकण, मलावार,
रेणुका राजपुत्री च, नन्दिनी कपिला द्विजा। विन्ध्याचल पहाड़, हिमालय पहाड़ एवं कबूल की ओर
भस्मगंधा पाण्डुपुत्री, स्मृता कौन्ती हरेणुका।। इसके वृक्ष अधिकता से देखने में आते हैं। इसका
रेणुका, राजपुत्री, नन्दिनी, कपिला, द्विजा,
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भस्मगंधा, पाण्डपुत्री, कौन्ती, हरेणुका-ये सब पर्यायवाची किया है। प्रस्तुत प्रकरण में यह शब्द हरितवर्ग में है। शब्द रेणुका के हैं। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग पृ०२५१) दोनों का शाक होता है इसलिए यहां दोनों ही अर्थ ग्रहण अन्य भाषाओं में नाम
किए जा रहे हैं। हि०-रेणुका, रेणुक, संभालू का बीज । गु०-हरेणु । म०-रेणुकबीज । इरा०-पंजनगुस्त। अ०-अथलक् ।
हरितग ले०-Vitex agnus castus linn (वाइटेक्स् एग्नस् कास्टस् लिन०) Fam. Verbenaceae (ह्वर्बिनॅसी)।
हरितग (हरित) श्वेतसहजन शाक उत्पत्ति स्थान-यह बलूचिस्तान, अफगानिस्तान,
भ०२१/२० प०१/४४/१ पश्चिम एशिया, भूमध्यसागरीय प्रदेश आदि प्रदेशों में
हरितशाकः ।पुं। शिशाके। होता है। देहरादून के वैज्ञानिक बाग में यह लगाया हुआ
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११८५)
विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में हरितग शब्द हरितवर्ग विवरण-इसका गुल्म या वृक्ष होता है, जिसकी।
में है। इसलिए शाक वाचक अर्थ ग्रहण किया जा रहा शाखायें चौपहल होती हैं। पत्ते लम्बे पत्रनाल से युक्त,
__ है। हरितशाक शब्द सहजन का वाचक है ऊपर दो अर्थ करतलाकार संयुक्त, पत्रक पांच, कभी-कभी सात भी,
___ अदरख और वनतुलसी ग्रहण किए गए हैं। दोनों शाक भालाकार और लम्बे नोक वाले होते हैं। फल साधारण
हैं। यहां सहजन अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। मटर के बराबर, अंडाकृति तथा धूसरवर्ण के होते हैं।
हरितशाक के पर्यायवाची नामबाह्यदल एवं वृन्त इसमें लगा रहता है। ये फल बहुत
शिग्रु हरितशाकश्च दीर्घको लघुपत्रकः । कड़े रहते हैं तथा काटने पर इसके अन्दर ४ खंड
अवदंशक्षमो दंशः, प्रोक्तो मूलकर्ण्यपि।।३६ ।। दिखलाई देते हैं, जिनमें एक-एक छोटा चिपटा बीज
शोभाअनस्तीक्ष्णगंधो, मुखभङ्गोऽथ शिग्रुकः रहता है। भारतीय निर्गुण्डी के फल से ये फल करीब
श्वेतक: श्वेतमरिचो, रक्तको मधुशिग्रुकः ।।३७।। आधे छोटे होते हैं।
हरितशाक, दीर्घक, लघुपत्रक, अवदंशक्षम, दंश, (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग० पृ०२५२)
मूलकपर्णी शोभाअन, तीक्ष्णगन्ध, मुखभङ्ग और शिग्रुक ये शिग्रु के पर्यायवाची नाम हैं।
श्वेतशिग्रु को श्वेतमरिच और रक्तशि को मधु हरितग
शिग्रुक कहते हैं। (धन्व०नि०४/३६,३७ पृ०१८६) हरितग (हरितक) अदरख आदि शाक
अन्य भाषाओं में नामवनतुलसी
१/२० प०१/४४/१ हि०-सहिजना, सहिजन, सहजन, सहजना हरितकम् ।क्ली० ।शाके आर्द्रकादौ।
सैजन, मुनगा। बं०-सजिना। म०-शेवगा, शेगटा। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११८५)
मा०-सहिजनो, सहिंजणो। क०-नुग्गे। तेo-मुनग। हरितक ।पुं। कुठेराद्यः शाकवर्गः।
गु०-सेकटो, सरगवो। ता०-मोरुङ्गै, मुरिणकै ।
पं०-सोहजना । मला०-मुरिण्णा । ब्राह्मी०-डोंडलो बिन। (आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ०१७०६) कुठेर- पुं। तुलसी। वन तुलसी।
यू०-सिनोह। फा०-सर्वकोही। अं0-Horse Radish (शालिग्रामौष धशब्दसागर पृ० ३७) ।
Tree (हार्स रेडीश ट्री)। ले०-Moringaptery gosperma विमर्श-वैद्यक शब्द सिंध में हरितक शब्द का अर्थ gaertn. (मोरिङ्गा टेरीगोस्मगिट)। Fam. Moringaceae अदरख आदि किया है, जबकि आयुर्वेदीय शब्दकोश तथा (मारिगसी)। शालिग्रामौषधशब्दसागर में तुलसी (वन तुलसी) अर्थ
उत्पत्ति स्थान-यह हिमालय के निचले प्रदेशों में
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हलिद्दा
चेनाब से लेकर अवध तक जंगली रूप में तथा भारत
हरियाल के सभी प्रान्तों में एवं वर्मा में लगाया हुआ मिलता है।
हरियाल (हरिताल) दूर्वा, दूब विवरण-इसका वृक्ष साधारण वृक्षों के समान
रा०२८ जीवा०३/२८१ उत्त०३४/०८ छोटा २० से २५ फुट ऊंचा होता है । छाल चिकनी, मोटी, कार्कयुक्त, भूरेरंग की एवं लम्बाई में फटी हुई और
हरितालः-दूळयाम् (वैद्यक निघंटु)
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०११८४) लकड़ी कमजोर होती है। पत्ते संयुक्त, प्रायः त्रिपक्षवत् तथा १ से ३ फीट क्वचिद् ५ फीट तक लम्बे होते हैं। पत्रक अंडाकार, लट्वाकार विपरीत एवं करीब १/२ से
हरेणुया ३/४ इंच लम्बे होते हैं। कार्तिक महिने से वसंत ऋतु हरेणुया (हरेणुका) रेणुका, संभालू का बीज। के आरंभ तक फूलों के गुच्छे टहनियों के अंत में दिखाई
भ०२३/८ पड़ते हैं। पुष्प श्वेतवर्ण के तथा मधु की तरह गंध वाले देखें हरतणुया शब्द। होते हैं। फलियां गोल, त्रिकोणाकार, अंगुलि प्रमाण मोटी, ६ रेखाओं से युक्त होती हैं। उनमें सफेद सपक्ष त्रिकोणाकार तथा लगभग १ इंच लम्बे बीज होते हैं। बीजों को सफेद मरिच भी कहते हैं। इससे गोंद भी निकलता है जो पहले दुधिया रहता है किन्तु बाद में वायु का संपर्क हलिद्दा (हरिद्रा) हलदी जीवा०३/२८१ प०१/४८/२ होने पर ऊपर से गुलाबी या लाल हो जाता है। इसकी हरिद्रा के पर्यायवाची नामकच्ची सेमों का साग और अचार बनाते हैं। इसकी छाल हरिद्रा काञ्चनी पीता, निशाख्या वरवर्णिनी। के रेशों से कागज, चटाई, डोरी आदि बनाते हैं। कृमिघ्नी हलदी योषितप्रिया, हट्टविलासिनी। जानवर विशेषकर ऊंट इसकी टहनियों को खाते हैं। हरिद्रा, काञ्चनी, पीता, निशाख्या (रात्रिवाची सभी
लाल, काले एवं श्वेत पुष्प भेद से सहजन ३ प्रकार शब्द) वरवर्णिनी, कृमिघ्नी, हलदी, योषिप्रिया और का माना जाता है। अधिकांश श्वेत पुष्प का ही सहजन हट्टविलासिनी ये नाम हलदी के हैं। देखा जाता है। संभव है स्थान भेद से कहीं-कहीं रक्त
(भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग०पृ०११४) तथा श्यामवर्ण के भी सहजन प्राप्त होते हैं। इसकी फली अन्य भाषाओं में नामका साग आंत्रकृमि प्रतिबंधक मामते हैं। इसके कोमल हिo-हलदी, हरदी, हर्दी, हल्दी। बं०-हलुद । पत्तों का साग खाने से शौच साफ होता है।
म०-हलद। गु०-हलदर क०-अरसिन, अरिसिन। (भाव०नि०गुडूच्यादिवर्ग० पृ०३४०) ते०--पसुपु । पं०-हलदी, हलदर, हलज । ता०-मंजल।
मलाo-मन्जल। फा०-जर्दचोब । अ०-उरुकुरसफ। हरितग
अं०-Turmeric (टमेरिक)। ले०-Curcuma Longa line
(कक्र्युमा लॉगा लिन०)| Fam. Zingiberaceae हरितग (हरीतक) हरड
भ०२२/२
(झिंजिबेरेंसी)। विमर्श-प्रज्ञापना १/३५/२ में हरडय शब्द है। भगवती २२/२ में हरडय के स्थान पर हरितग शब्द है।
उत्पत्ति स्थान-प्रायः सब प्रान्तों के खेत में रोपण की हरडय का अर्थ हरें किया गया है। इसलिए यहां भी
जाती है। लेकिन बम्बई, मद्रास तथा बंगाल में इसकी हरितग शब्द का अर्थ हर किया जा रहा है।
विशेष रूप से उपज की जाती है। चीन एवं जावा आदि देखें हरडय शब्द।
देशों में भी इसकी उपज की जाती है।
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विवरण-इसका क्षुप २ से ३ फीट ऊंचा होता है। पत्त केले के नवीन पौधे से निकले हए पत्ते के समान १ से १.५ फुट लम्बे तथा ६ से ७ इंच चौड़े, उतने ही लम्बे पर्णवृन्त से युक्त, आयताकार-भालाकार एवं पर्णतल की तरफ कुछ नुकीले होते हैं। पत्तों में आम के समान गंध आती है। फूल अवन्त काण्डज क्रम में निकले हुए पीतवर्ण के, संख्या में अल्प तथा करीब १.७५ इंच लम्बे । पुष्पदंड ६ इंच या अधिक लम्बा तथा पत्रनाल द्वारा आवृत । पुष्पदंड की पत्तियां हलके हरे रंग की होती है। इसकी जड़ के नीचे अदरक के समान अदरक से बड़े-बड़े कंद होते हैं। यह सर्वांग पीला होता है। इसी कंद को हल्दी कहते हैं। ये कंद विभिन्न आकार के, मूल एवं पर्णवृन्तों के चिन्हों से युक्त होते हैं। अंदर का भाग पीला या नारंग पीत । भग्न शृङ्गवत् । गन्धमधुर, स्वाद कड़वा, चूसने पर लालास्राव का वर्ण भी पीत हो जाता है। रंगने के काम में बिना उबाली हल्दी का व्यवहार किया जाता है और खाने के काम में हल्दी को उबाल कर सुखाकर प्रयुक्त करते हैं। उबालने में उष्णवीर्य हल्दी की तीव्रता कम हो जाती हैं।
(भाव०नि० पृ० ११४, ११५)
हलिद्दी हलिद्दी (हरिद्रा) हलदी
देखें हलिद्दा शब्द।
उ०३४/८:३६/६६
हालिद्दा हालिद्दा (हरिद्रा)
देखें हलिद्दा शब्द
रा०२८
हिंगुरुक्ख हिंगुरुक्ख (हिंगुवृक्ष) हींग का वृक्ष
भ०२२/१ प०१/४३/२ हिंगु के पर्यायवाची नाम
सहस्रवेधिजतुकं वालीकं हिङ्गुरामठम् ।।१०० ।।
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सहस्रवेधि, जतुक, वाह्लीक, हिङ्गु, रामठ ये सब (भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ०४०)
हींग के नाम हैं। अन्यभाषाओं में नाम
क०
हि० - हींग | बं० - हींग । प० - हिंगे, हींग । म० - हिंग | मा० - हींग | गु० - हिंगडो, वधारणी हिंगवधारणी । ते० - इंगुर, इंगुरा, इंगुव । ते० - पेरुंगियम् पेरुंग्यम् । ० - हिंगु । फा० - अंगूजह, अंगुजा । अंधुजेह-इलरी | अ० - हिलतीत, हिलतीस । अंo - Asafoetida (असेफीटिडा) । ले० - Ferula narthex Boiss (फेरुला नार्थेक्स बॉयस) F. Alliacea boiss (फे. एलिए सिआ ) Ferula foetida Regel ( फेरुला फीटिडा ) Fam. Umbeiliferae (अंबेलिफेरी) ।
उत्पत्ति स्थान - हींग के वृक्ष काबुल, हिरात, खुरासान, फारस एवं अफगानिस्तान आदि प्रदेशों में उत्पन्न होते हैं तथा इस देश के पंजाब और काश्मीर में कहीं-कहीं देखने में आते हैं।
विवरण - यह हरीतक्यादि वर्ग और गर्जर कुल का बहुवर्षजीवी वृक्ष हस्व प्रमाण का ६ से ८ फीट लम्बा होता है । पत्र कोमल, लोमयुक्त, २ से ४ पक्ष युक्त होता है। पत्रदंड के दोनों ओर २-२ पत्र बहार निकलते हैं और अग्रभाग में एक पत्र होता है और पत्रों के किनारे कर्तित होते हैं। नीचे की ओर के पत्र १ से २ फीट लम्बे और डिम्बाकृति के होते हैं। पुष्पदंड के शेष भाग का दंड बृहत् और पत्रहीन होता है। फल १/३ इंची लम्बा १/४ इंची चौड़ा, गर्भाशय पर मसृण लोम होते हैं। इसके फल को अंजुदाल और निर्यास को हींग कहते हैं। फलने-फूलने का समय मार्च अप्रैल ।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० ४८३)
हिरिलि
हिरिलि (
) भ०७/६६ जीवा ०१ / ७३ उत्त०३६/६७ विमर्श - अभी तक इस शब्द का वानस्पतिक अर्थ उपलब्ध नहीं हुआ है।
हेरुताल (
DOOD
रुताल
) महाशतावरी ?
जं०२/६
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विमर्श - आयुर्वेदीय शब्दकोशों में हेरु शब्द मिलता है, हेरुताल शब्द नहीं। संभव है हेरु शब्द ही हेरुताल का वाचक हो ।
हेरुः । स्त्री । महाशतावर्य्याम् ।।
(वैद्यक शब्द सिंधु पृ०११६७) महाशतावरी के पर्यायवाची नामअभीरुस्तुंगिनी केशी पीवरी द्विपपीवरी । सहस्रवीर्या मधुरा फणिजिह्वोर्ध्वकंटका ||१०६५ ।। रुष्यप्रोक्ता सूक्ष्मपत्रा, महापुरुषदंतिका । महाशतावरी हृद्या, मेधाग्निबल शुक्रद । । १०६६ । । अभीरु, तुंगिनी, केशी, पीवरी, द्विपपीवरी, सहस्रवीर्या, मधुरा, फणिजिह्वा, ऊर्ध्वकंटका, ऋष्यप्रोक्ता, सूक्ष्मपत्रा, महापुरुषदंतिका ये महाशतावरी के पर्याय हैं। (कैयदेव०नि० ओषधिवर्ग० पृ०१६७)
अन्य भाषाओं में नाम
हि०- बड़ी शतावर । बं० - महाशतमूली । म०बड़ीशतावरी । गु० - शतावरी । ता० - पाणियनाम किलावरी । ते० - पिल्लिपिचारा । ले० -- Asparagus gonoclados Baker (एस्पेरेगसगोनोक्लेडोस) ।
उत्पत्ति स्थान - महारा, कोंकण, कनाडा, मद्रास का पश्चिमी घाट ।
विवरण - यह गुडूच्यादिवर्ग और पलाण्डुकुल की एक कंटकीय छोटी झाड़ी होती है। गोनोक्लोडोस चारों ओर फैलने वाली, बहुतशाखा और अच्छी तरह फैलने वाली पीताभ कुछ अंश में चढने वाली, कांटेदार । पुष्पकांड कोमल, नली सदृश शाखायें हरी, तीन कोण वाली । पाव से आधा इंच लम्बे ऊपर को मुडे हुए कांटों वाली । पत्र शाखा २ से ६ तक, पौन से एक इंच लम्बी, व्यास पाव इंच, तीक्ष्ण पत्रों वाली । पुष्प पत्र छोटे । पुष्प १/१२ इंच के सफेद । तुर्रा १ से ३ इंच लम्बा । फल गोलाकार अतिसूक्ष्म । कंद में शाखायें निकलकर चारों ओर फैलती है । अनन्तमूलों वाली कंद अधिक दीर्घ स्थूल. कठोर, सफेद और मधुर । यह झाड़ी प्रायः पर्वतों पर देखी जाती है। फल गोल पीलु तुल्य आते हैं।
( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०२०७ )
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हेरुताल वण हेरुतालवण महाशतावरी का वन
जं०२/६
देखें हेरुताल शब्द।
हेरुयालवण हेरुयालवण ( ) महाशतावरी का वन
जीवा०३/५८१ देखें हेरुताल शब्द ।
विवरण-गुडूच्यादि वर्ग एवं यवकुल की जमीन पर प्रसरणशील इस लतारूपी घास के कांड प्रतान एवं ग्रंथियुक्त होते हैं। प्रत्येक ग्रंथि से इसकी मूल निकल कर जमीन से लगी हुई रहती है। पत्र लगभग ३/४ इंच से ४ इंच तक लम्बे, १/२ से १/८ इंच तक विस्तृत रेखाकार । पुष्प १ से २ इंची, पुष्पदंड पर पुष्प हरित, बेंगनी रंग के तथा बीज अत्यन्त सूक्ष्म, २.५ इंची लम्बे होते हैं।
इसके नीली (हरी) और श्वेत ऐसे दो भेद माने जाते हैं। नीली या हरी दूब पर जब किसी कारण सूर्य की प्रत्यक्ष किरणें नहीं पड़ती, तब वही श्वेत वर्ण की हो जाती है तथा इसका अधिक विस्तार नहीं हो पाता। यह अधिक दाहशमक मानी जाती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०४६८)
होत्तिय होत्तिय (होत्रीय) सितदर्भ
प०१/४२/१ विमर्श-होत्तिय शब्द वनस्पतिकोषों में नहीं मिला है। इसका पर्यायवाची एक नाम याज्ञेय है। याज्ञेय शब्द का वानस्पतिक अर्थ है सितदर्भ। प्रस्तुत प्रकरण में होत्तिय शब्द तण वर्ग के अन्तर्गत है। इसलिए याज्ञय शब्द का अर्थ होत्तियशब्द के लिए उपयुक्त लगता है। याज्ञेय के पर्यायवाची नाम
कुशो दर्भो हस्वदर्भो याज्ञेयो यज्ञभूषणः श्वेतदर्भः पूतिदर्भो मृदुदर्भो लवः कुशः ।।१२३६ ।। बर्हिः पवित्रको यज्ञसंस्तरः कुतपोऽपरः
कुश, दर्भ, हस्वदर्भ, याज्ञेय, यज्ञभूषण, श्वेतदर्भ, पूतिदर्भ, मृदुदर्भ, लवकुश, बर्हि, पवित्रक, यज्ञसंस्तर, कुतप ये दर्भ के पर्याय हैं। (कैयदेवनि० ओषधिवर्ग०पृ० २२६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-सफेद दूब । म०-पांढरी दूर्वा । गु०-धोलोध्रो। बं०-सादा दूर्वा | अं-Coachgrass (कौचग्रास) Creeping cynodon (क्रीपिंग साइन डोन)।ले०-CynodonDactylon (साइनोडन डैक्टिलन) Panicum Dactylon (पेनिकम डैक्टिलन)।
उत्पत्ति स्थान-समस्त भारत में सर्वत्र जमीन पर छाई रहती है जलाशयों के किनारे तो प्रचुर परिमाण में होती है। पददलित होती, प्रचण्ड सूर्यताप को सहन करती, किन्तु समूल नष्ट नहीं होती । इसमें अनन्त जीवन शक्ति है।
मांस प्रकरण आगमों में पशु, पक्षी और जलचर के नाम वनस्पति के अर्थ में प्रयक्त हए हैं। कहीं-कहीं इनके नाम के साथ मांस शब्द का प्रयोग भी हुआ है, जिससे ये शब्द चिंतनीय बन गए हैं। सूर्य प्रज्ञप्ति के १० वें पाहुड के १२० वें सूत्र में कृत्तिका नक्षत्र से लेकर भरणीनक्षत्र तक २८ नक्षत्रों का भोजन दिया गया है। उसमें लिखा है- उस नक्षत्र में वे वस्तु खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है।
(१) रोहिणी नक्षत्र में वृषभ मांस, मृगसरा नक्षत्र में मृगमांस, अश्लेषा नक्षत्र में दीपिक मांस, पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र में मेष मांस, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में नखी मांस उत्तराभाद्रपदा में वराहमांस, रेवति नक्षत्र में जलचर मांस अश्विनी नक्षत्र में तित्तिरि मांस खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है।
(२) भगवती सूत्र में उल्लेख है कि गोशाल के द्वारा तेजोलब्धि का प्रयोग करने से भगवान महावीर के शरीर में दाह लग गई। उस समय अपने शिष्य सिंह नामक अणगार को कहा-तुम मेंढियग्राम नामक नगर में रेवती गाथापति के घर जाओ। उसने मेरे लिए दो कपोतशरीर उपस्कृत किया है, उसको मत लाना, लेकिन वासी मार्जारकत कक्कटमांस है उसको ले आना। यहां
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(१/३५) में एगट्ठिया (एकास्थिक) वर्ग है, जिसमें ३२ वनस्पतियों के नाम हैं। एकास्थिक का अर्थ है-एक गुठली वाले। यहां अस्थि शब्द गुठली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। त्वचा, मज्जा, नस, गर्भाशय आदि शब्द भी वनस्पति के विवरण में दिए हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि अस्थि और मांसशब्द वनस्पति के लिए प्रयुक्त हुए हैं। आगे मांसपरक शब्दों की मीमांसा की जा रही है।
कपोतशरीर, मार्जार और कुक्कुटमांस ये शब्द चिंतनीय हैं। ऊपर के दोनों सूत्रों-भगवती और सूर्यप्रज्ञप्ति में शब्दों के साथ मांस शब्द आया है। पहले मांस शब्द विमर्शणीय है। मांस शब्द का अर्थ मांस ही होता है या इसका दूसरा अर्थ भी उपयुक्त हो सकता है। पक्षी या पशु वाचक शब्द वनस्पति विशेष के वाचक हैं। ऐसी मान्यता जैनों में परम्परा से आ रही है। तब मांस शब्द का अर्थ भी वनस्पति के संदर्भ में खोजना आवश्यक हो गया है। इस प्रश्न का समाधान हमें आयुर्वेद के ग्रंथों में ही खोजना होगा। श्रीमद् वृद्धवागभट्ट विरचित अष्टांगसंग्रह के सूत्रस्थान सप्तमोध्याय श्लोक १६८ पृ०६३ पर ध्यान देना होगा।
भल्लातकस्य त्वग् मांस बृंहण स्वादु शीतलम्।। भिलावे की छाल और मांस बृंहण (रस रक्तादिवर्धक). स्वादु तथा शीतल होते हैं । भिलावे के मांस का अर्थ होता है-भिलावे का गूदा भाग।
दूसरा उदाहरण कैयदेव निघंटु के ओषधिवर्ग १५० के श्लोक हैं। श्लोक २५३ और २५४ में बीजपूर (बिजौरा) के पर्यायवाची नाम हैं। श्लोक २५५ और २५६ में उसके गुणधर्म हैं। जो यहां उद्धृत किए जा रहे हैं।
उष्ण वातकफश्वासकासतृष्णावमिप्रणुत्।
तस्य त्वक् कटु तिक्तोष्णा गुर्वी स्निग्धा च दुर्जरा।।२५५ ।।
कमिश्लेष्मानिलहरा मांसं स्वादु हिमं गुरु। बृंहणंश्लेष्मलं स्निग्धं, पित्तमारुतनाशनम् ।।२५६।।
बिजौरे का फल उष्ण वीर्य होता है। वात एवं कफ नाशक, श्वास, कास, तृष्णा तथा वमन को दूर करने वाला होता है। इसके फल की त्वचा-कटुतिक्त, उष्णवीर्य, गुरु, स्निग्ध, चिरपाकी, कृमिहर, कफ और वात को दूर करने वाली होती है।
___ मांस-फल का गूदा-स्वादिष्ट, शीतल, गुरु, बृंहण (धातुवर्धक) कफवर्धक, स्निग्ध तथा वातपित्त को नष्ट करता है।
(कैयदेव निघंटु ओषधि वर्ग०पृ०५१) ऊपर के दो प्रमाणों से स्पष्ट है कि मांस शब्द का प्रयोग वनस्पतियों के गूदे के अर्थ में होता है। प्रज्ञापना
कवोयसरीर कवोयसरीर (कपोतशरीर) मकोय भ०१५/१५२
विमर्श-कपोत का पर्यायवाची एक नाम पारापत है। पारापत के फल कबूतर के अंडों के समान होते हैं। पारापतपदी आयुर्वेद में काकजंघा को कहते हैं । धन्वन्तरि 'निघंटु पृ०१८६ में काकजंघा को काकमाची विशेष माना है। काकमाची शब्द मकोय शाक का वाचक है। पारापत के पर्यायवाची नाम
साराम्लक: सारफलो, रसालश्च पारापतः ।।३२५ ।। कपोताण्डोपमफलो, महापारावतोऽपरः ।।
साराम्ल, सारफल, रसाल ये पारावत के पर्याय हैं. इसके फल कबतर के अण्डों के सदश होते हैं।
(कैयदेव नि० औषधिवर्ग पृ०६२) पारापतपदी के पर्यायवाची नाम
काकजङ्घा ध्वक्षजङ्घा, काकपादा तु लोमशा पारापतपदी दासी, नदीक्रान्ता प्रचीबला।।२०।।
ध्वाक्षजङ्घा काकपादा, लोमशा, पारापतपदी नदीक्रान्ता और प्रचीबला ये काकजंघा (काकमाची विशेष) के पर्याय हैं।
(धन्वन्तरि नि०४/२० पृ०१८६) शास्त्रीय गुणों की दृष्टि से काकजंघा विषमज्वरनाशक, कफपित्तशामक, तिक्त, चर्मरोगनाशक एवं रक्तपित्त बाधिर्य, क्षत, विष एवं कृमि में लाभदायक होनी चाहिए।
(भाव०नि०गुडूच्यादिवर्ग०पृ०४४१) काकमाची के अन्य भाषाओं में नाम
हि०-मकोय, छोटीमकोय। बं०-काकमाची,
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गुडकामाई । म०-कानोणी । गु०-पीलुडी। फा०-रूबाह हि०-चौपतिया, सुनसनिया साग। बं०तुर्बुक । अ०-इनबुस्सा लव । अंo-Garden Nightshade सुषुणीशाक, शुनिशाक, शुशुनी शाक । ले0-Marsilea (गार्डेन नाइटशेड)। ले०-Solanumnigrumlinn (सोलॅनम् minuta linn (मार्सिलया माइन्सूटा लिन०) Fam. नाइग्रम लिन०) Fam. Solanaceae (सोलेनॅसी)। Rhizocarpeae (राइज्झो कापी)।
उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में एवं ८००० फीट तक पश्चिम हिमालय में उत्पन्न होती है।
विवरण-इसका क्षुप १ से १.५ हाथ तक ऊंचा होता । है और शाखाएं सघन होती हैं । यह गर्मी में नष्ट हो जाता है और वर्षा के अंत में उत्पन्न हो जाड़े में खूब हराभरा दिखलाई पड़ता है। इसके पत्ते अखंड, लहरदार या कभी-कभी दन्तर या खंडित, लट्वाकार, प्रासवत् लट्वाकार या आयताकार, ४x१.७ इंच तक बड़े और उनका फलक प्रायः वृन्त पर नीचे तक फैला रहता है।
पुष्प छोटे, सफेद और पत्रकोण से हटकर निकले, हुए पुष्पदंड पर समस्थ मूर्धजक्रम में निकले रहते हैं। फल गोल और पकने पर काले हो जाते हैं। कभी-कभी लाल या पीले भी होते हैं। (भाव०नि० पृ०४३८)
672. Marailea quadrifolia Linn, (ति भाक) काकमाची मधु च मरणाय
मकोय और मधु का मेल संयोगविरुद्ध और वासी शाक कर्मविरुद्ध है।
उत्पत्ति स्थान-यह शाकवर्गीय वनस्पति भारतवर्ष मकोय और मधु मिलाकर खाने से विष होकर मरण के प्रायः सब प्रान्तों के सजल स्थानों में कहीं न कहीं की आशंका रहती है। मकोय का वासी शाक खाने को पायी जाती है। वर्षाऋतु में यह अधिक उत्पन्न होती है। निषेध है।
(चरक०सू० २६-१६-२२)
विवरण-इसके नीचे विसपी पतला एवं सशाख काण्ड होता है। इसके छत्ते पानी के ऊपर तैरते हुए
दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक पत्रदंड पर चार-चार पत्ते कुक्कुडमस
स्वस्तिक क्रम में निकले रहते हैं, इस कारण इसे चतुष्पत्री कुक्कुडमंस (कुक्कुटमांस) चोपतिया शाक,
या चौपतिया भी कहते हैं। पत्ते और दंड आकार में छोटे सुनिषण्णक
___ भ०१५/१५२ बड़े हुआ करते हैं। पत्ते चांगेरी के पत्तों के समान किन्तु कुक्कुट के पर्यायवाची नाम
उनसे बड़े होते हैं। बीजाणुकोष एक विशेष प्रकार की शितिवारः शितिवरः, स्वस्तिक: सुनिषण्णक: अंडाकार परन्तु कुछ-कुछ चिपटी रचना के अंदर रहते श्रीवारक: सूचिपत्रः, पर्णकः कुक्कुटः शिखी।। हैं, जो फलों की तरह मालूम होती है। इसका साग
शितिवार, शितिवर, स्वस्तिक, सुनिषण्णक, निद्राजनक तथा दीपन होता है। निद्रा लाने के लिए तथा श्रीवारक, सूचिपत्र, पर्णक, कुक्कुट और शिखी ये अग्निमांद्य में इसका उपयोग करते हैं। चौपतिया के संस्कृत नाम हैं।(भाव०नि०शाकवर्ग०पृ०६७३,६७४)
(भाव०नि० शाकवर्ग वृ०६७४) अन्य भाषाओं में नाम
विमर्श-बंगाल में यह शाक बहलता से खाया
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जाता है। भगवान महावीर ने ज्वरदोष को मिटाने के लिए जलकरङ्कः ।पुं। नारिकेल फल। इस शाक को मंगाया था। त्रिदोषघ्न और ज्वरनाशक इस
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ०६७) शाक के गुण हैं।
णखीमंस जलयरमंस
णखीमंस (नखीमांस) बड़े बेर का गुदा। उन्नाव जलयरमंस (जलचरमांस) अतीस, अतिविषा बेर का गुदा
सू०१०/१२० सू०१०/१२० नखी के पर्यायवाची नामजलचरः (चारी (इन) पुं। शङ्ख ।मत्स्ये।
बदरी दृढबीजा च, कण्टकी सुफलापि च। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ४५५)
नखी व्याघ्रनखी घोण्टा, कोली गुडफलापि च।। शङ्ख |पुं० [क्ली। तन्नामकस्थावरविषभेदे। स बदरी, दृढबीजा, कण्टकी, सुफला, नखी, अतिविषासदृशः । शृङ्गीविषे, दारुमोचभेदे वा । सामुद्रकोषस्थ व्याघ्रनखी, घोण्टा, कोली, गुडफला ये बदरी के जन्तुविशेषे।
पर्यायवाची नाम हैं। (शा०नि०फलवर्ग०पृ०४६६) (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०१०१८) अन्य भाषाओं में नामविमर्श-जलचर के अनेक अर्थों में एक अर्थ शंख हि०-उन्नाव। अं०-Jujube (जुजुब)। है। शंख के भी अनेक अर्थ हैं। उनमें एक अर्थ शृंगी विष ले०-Zizyphus Sativa gaertn (झिझीफस् सटाइवा) Zहै प्रस्तुत प्रकरण में हम भंगी विष का अर्थ ग्रहण कर Vulgaris linn (झि०बल्गेरिस)| Fam. Rhamnaceae रहे हैं।
(हम्नेसी)। श्रृंगी विष के पर्यायवाची नाम
उत्पत्ति स्थान-यह पंजाब हिमालय में ६५०० फीट विषा त्वतिविषा विश्वा, शृङ्गी प्रतिविषाऽरुणा। तक, पूर्व में बंगाल तक, उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेश शुक्लकंदा चोपविषा, भङ्गुरा घुणवल्लभा।
न में होता है। अधिकतर चीन, ईरान आदि विषा, अतिविषा, श्रङ्गी, प्रतिविषा, अरुणा, शुक्लकंदा, देशों से ये आते हैं। उपविषा, भंगुरा और घुणवल्लभा ये सब अतीस के संस्कृत
विवरण-इसका वृक्ष छोटा तथा कांटेदार होता है। नाम हैं।
पत्ते अंडाकार या गोल होते हैं। पुष्प सितम्बर के अंत (भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ० १२६) में छोटे हरिताभ श्वेत आते हैं। फल लाल, बहुत झुरींदार देखें माढरी शब्द।
१ से १.५ इंच लम्बा, १ इंच चौड़ा, बेर की तरह गोल
रहता है। जिसका गूदा गुठली से चिपका हुआ मीठा, जलयरमंस
पीला तथा हलका होता है। गुठली लम्बी कड़ी झुर्रादार जलयरमंस (जलकरमांस) जलकर वृक्ष,
होती है। इनके पत्तों को चबाने से सभी प्रकार के स्वाद
का ज्ञान ५ से २० मिनट के लिए समाप्त हो जाता है। नारियलफल का गूदा
(भाव०नि० आम्रादि फलवर्ग०पृ०५७२) सू०१०/१२० विमर्श-जलचर की छाया जलकर करके दूसरा
तित्तिरमंस अर्थ नारियल कर रहे हैं। जलकर शब्द नहीं मिलता,
तित्तिर (तित्तिरि) मेथी या केर जलकरंक शब्द मिलता है। इसलिए जलकरंक शब्द का
सू०१०/१२० अर्थ दे रहे हैं।
तित्तिरि के पर्यायवाची नाम
वर्तको वर्तिका चैव. तित्तिरिःक्रकरः शिखी।।१०४६।।
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वर्तक और वर्त्तिका वटेर के नाम हैं । तित्तिरि, क्रकर और शिखी ये तित्तिरि के पर्यायवाची नाम I (सोढल०नि० मांसवर्ग श्लोक १०४६ पृ० १८३) शिखी (न्) पुं । चित्रक वृक्षे, मेथिकायाम्, विषभेदे, सुनिषण्णशाके, अपामार्गे, शूकशिम्ब्याम् ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १०४१)
पुष्प
शाख
भी होता है ।
विमर्श - तित्तिरि के पर्यायवाची नाम ३ हैं- तित्तिरि, क्रकर और शिखी । तित्तिरि शब्द का वनस्पतिपरक अर्थ नहीं मिलता है इसलिए उसके पर्यायवाची नाम क्रकर और शिखी क्रो ग्रहण कर रहे हैं। क्रकर का अर्थ केर है। शिखी के ६ अर्थ ऊपर दिए गए हैं उनमें मेथिका अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
दीवगमंस
दीवग (दीपक) चित्रक दीपक के पर्यायवाची नाम
'पुष्य काट
सू०१०/१२०
चित्रके दहनो व्यालः, पाठीनो दारुणोऽग्निकः । । ३३८ । । ज्योतिषको वल्लरी द्वीपी, पाठी पाली कटुः शिखी व्यालकोलोहितांगंश्च, मार्जारो दीपकस्तथा । । ३३६ ।।
शाख
जैन आगम वनस्पति कोश
मज्जारकड
मज्जार (मार्जार) रक्त चित्रक मार्जार के पर्यायवाची नाम
पुष्प
चित्रक, दहन, व्याल, पाठीन, दारुण, अग्निक, ज्योतिष्क, वल्लरी, द्वीपी, पाठी, पाली, कटु, शिखी, व्यालकोल, हितांग, मार्जार और दीपक ये चित्रक के पर्यायवाची नाम हैं । (सोढल०नि० I ३३८. ३३६)
पत्र
भ०.१५ 19५२
कालो व्यालः कालमूलोऽतिदीप्यो मार्जारोऽग्निदाहकः पावकश्च । चित्राङ्गोऽयं रक्तचित्रो महाङ्गः, स्यद्रुदाह्वश्चित्रकोऽन्यो गुणाढ्यः । । ४६ । ।
काल, व्याल, कालमूल, अतिदीप्य, मार्जार, अग्नि, दाहक, पावक, चित्राङ्ग, रक्तचित्र तथा महाङ्ग ये सब रक्त
( राज० नि०६ / ४६ पृ०१४३)
चित्रक के ग्यारह नाम हैं। चित्रक की उपयोगिता - विषमज्वर में
यकृत, प्लीहा वृद्धि होकर पाण्डु हो गया हो तो इसका सेवन करना चाहिए।
विमर्श -- प्रस्तुत प्रकरण में मज्जारशब्द चोपतिया
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शाक में संस्कार ( पुट) देने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। चित्रक का पुट दिया हुआ चोपतिया शाक विषमज्वर को नाश करने में द्विगुणित लाभ करता है। क्योंकि चोपतिया शाक त्रिदोषघ्न और ज्वर नाशक है और रक्त चित्रक भी विषम ज्वर नाशक है इसीलिए भगवान महावीर ने सिंह अणगार द्वारा रेवती के घर से यह संस्कारित शाक मंगाया था ।
....
मिगमंस
मिगमंस (मृगमांस) कस्तूरी के दानें ।
मृगः । पुं । मृगनाभि । (कस्तूरि)
मृगनाभि के पर्यायवाची नाम
सू०१०/१२०
(शालिग्रामौषधशब्दसागरपृ० १४१ )
कस्तूरी मृगनाभिस्तु, मदनी गन्धचेलिका ।
वेधमुख्या च मार्जारी, सुभगा बहुगन्धदा । ।४७ || सहस्रवेधी श्यामा स्यात्, कामानन्दा मृगाण्डजा । कुरंगनाभी ललिता, मदो मृगमदस्तथा ।
श्यामली काममोदी च, विज्ञेयाऽष्टादशाह्वया । ।४८ || कस्तूरी मृगनाभि, मदनी, गन्धचेलिका, वेधमुख्या मार्जारी, सुभगा, बहुगन्धदा, सहस्रवेधी, श्यामा, कामानन्दा मृगाण्डजा, कुरङ्गनाभी, ललिता, मद, मृगमद श्यामली तथा काममोदी ये सब कस्तूरी के उन्नीस नाम हैं। (राज० नि०१२ / ४७.४८ पृ०४०४)
अन्य भाषाओ में नाम
हि० - कस्तूरी मृगनाभि, मृगनाफा । बं० - मृगनाभी | ते० - कास्तूरी । क० - कस्तूरी । गु० - कस्तूरी । म० - कस्तूरी | फा० - मुष्क । अ० - मिस्क । अंo - Musk 1 (मुष्क)। ले० - Moskus (मोसकस) ।
उत्पत्ति स्थान - सब जाति के हिरणों से कस्तूरी नहीं निकलती । जिस हिरन से कस्तूरी निकलती है वह | मृग उत्तरी भारत, नेपाल, आसाम, काश्मीर, मध्यएशिया, तिब्बत, भूतान, चीन एवं रूस आदि स्थानों में ७००० से ८००० फीट की ऊंची पहाडी चोटियों पर सघन जंगलों में पाया जाता है। यह विशेषकर तिब्बत में अधिक होता है। विवरण - यह हिरन की जाति का बहुत सुहावना
315
और सुंदर मृग होता है किन्तु न इसके सींग होते हैं और न दुम । यह मृग करीब २० इंच ऊंचा, लौह के समान गहरे धूसर वर्ण का, अत्यन्त सशंक स्वभाव का प्राणी होता है। इसके ऊपरी जबड़े में दो लंबे दंष्ट होते हैं जो बाहर नीचे की ओर हुक की तरह निकले रहते हैं। इसका मुंह लंबा, पैर पतले तथा सीधे एवं बाल रूखे और लंबे होते हैं। इसके लिंगेन्द्रिय के मणि को ढांकने वाले चमडे के प्रवर्धन से बनी हुई एक थैली होती है, जिसके सूखे हुये स्राव को कस्तूरी कहते हैं ।
नर हिरन में ही यह पाई जाती है। यह थैली नाभि के पास, नाभि एवं शिश्नावरण के बीच में स्थित रहती है । यह अंडाकार, १.७५ से ३ इंच लंबी, एवं १ से २ इंच चौड़ी होती है। इसके अग्रभाग में केशयुक्त एक छोटा-सा छिद्र होता है तथा पिछले भाग एक सिकुड़न-सी होती है जो शिश्नाग्रचर्म के मुख से मिल जाती है। इसके अंदर के चिकने आवरण की अनियमित तहों के कारण यह कई अपूर्ण विभागों में बंटी होती है। कस्तूरी युवावस्था के मृगों में उनके मदकाल में अधिक मात्रा में होती है तथा उसी समय उसकी शक्ति एवं गंध अधिक होती है। यह काल करीब १ महीने का होता है।
(भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग पृ० १७८, १७६)
मेंढक मंस
मेंढकमंस (मेंढकमांस) मेंढासिंगी के फल का गूदा
सू०१०/१२०
मेण्ढः (कः) ।पुं । मेषे ।
(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ८४३ ) विमर्श - मेंढक नाम मेष का है। मेष को हिन्दी में मेंढा कहते हैं। मेंढासिंगी (मेष शृंगी) का संक्षिप्त नाम मेंढा (मेष) है। इसका एक नाम मेषवल्ली भी है । इसलिए मेंढकमांस से मेढासिंगी का गूदा, यह अर्थ ग्रहण कर रहे हैं।
हम जिस वृक्ष को मेष श्रृंगी कहते हैं उसकी फलियों की आकृति बिल्कुल मेष (मेढा) के सींग के सदृश होती (निघंटु आदर्श उत्तरार्द्ध पृ० ३६) मेषशृंगी विषाणी स्यान्, मेषवल्ल्यजशृङ्गिका । मेषशृंगी, विषाणी, मेषवल्ली, अजश्रृंगिका ये सब
I
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जैन आगम : वनस्पति कोश
P34
मेढाशिंगी के पर्यायवाची नाम हैं।
लम्बाई में गढेदार नालियां होती हैं। मूल सूखने पर छाल (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०४४३) पतली होकर आड़े बल में फट जाती है। इसका स्वाद अन्य भाषाओं में नाम
साधारण कड़वा होता है। हि०-मेढा सिंगी। बम्बई-कंसेरी,मानचिंगी, मेंढल,
(भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ०४४३, ४४४) मेससिंगी। म०-मेढ़ासिगी, मेरसगीं। मेवाङ-केसेरी अवधहावर। मध्यप्रदेश०-मेडासिंगी, मिल, दगी।
वराहमंस ता०-कदालेट्टि । ते०-चित्तीवोदी। ले०-Dolichenbrone
वराहमंस (वराहमांस) वाराहीकंद का गूदा Falcata (डोलीचेन्ब्रोन फेलकेटा)।
___ सू० १०/१२० वराहः |पुं। वाराहीकंदे। (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ६३६)
वाराहीकंद के पर्यायवाची नामवाराहीकंदसंज्ञस्तु, पश्चिमे गृष्टिसंज्ञकः । वाराहीकंद एवान्यैश्चर्मकारालुको मतः ।।१७७।। अनूपसम्भवे देशे, वराह इव लोमवान् वाराहवदना गृष्टि वरदेव्यपि कथ्यते।।१७८ ।।
वाराही कंद को पश्चिम देश में गृष्टि कहते हैं और कुछ लोग चर्मकारालुक कहते हैं। अनूप (जलप्रायः) देश में यह सअर के वालों की तरह कठिन रोम से यक्त कंद वाला होता है। इसके वाराहवदना, गृष्टि, वरदा ये सब
नाम हैं। 382. Gymnema sylvestre R.Br. (पानिटक)
(भावनिगुडूच्यादिवर्ग०पृ०३८७)
अन्य भाषाओं में नामउत्पत्ति स्थान-यह वनस्पति राजस्थान, बुंदेल हिo-वाराहीकंद, गैठी। म०-डुक्करकंद, खंड, बिहार, मध्य प्रदेश, बरार, कोंकण, दक्षिण, मैसूर कडूकरांदा । गु०-डुक्करकंद, बणा बेल । बं०-रतालु । और मद्रास प्रेसिडेंसी में पैदा होती है।
ले०-Dioscorea bulbifera linn (डायोसकोरिआ (धन्व०वनौ० विशेषांक भाग ५ पृ० ४३६) बल्बिफेरा-लिन) Fam. Dioscoreaceae (डायोस्कोरिएसी)। विवरण-इसकी लता चक्रारोही, पतले कांड की, उत्पत्ति स्थान-यह दून और सहारनपुर के वनों काष्ठमय, रोमश तथा बहुत फैली हुई होती है। पत्ते में ५ हजार फीट की ऊंचाई तक तथा सभी स्थानों में अभिमुख अंडाकार-आयताकार या लट्वाकार, कभी-कभी पाया जाता है। हृदयवत्, १ से २ इंच लम्बे, कभी-कभी ३ इंच लम्बे, विवरण-इसकी लता आरोही तथा वामावर्त होती नोकदार, एवं मृदुरोमश होते हैं। पुष्प सूक्ष्म, पीले, है। कांड चिकने तथा पत्रकोणों में लगभग १ इंच व्यास समस्थ, मूर्धजक्रम में निकले हुए एवं आभ्यन्तर कोश की कंद सदृश रचनाएं होती हैं। पत्ते साधारण एकान्तर घण्टिकाकार-चक्राकार होते हैं। फली २ से ३ इंच लम्बी, २.५ से ६ इंच लम्बे, पौने दो से ४ इंच चौड़े, पतले, .२ से .३ इंच मोटी, कठोर, भालाकार क्रमशः नोकीली पुच्छाकार, लम्बे नोकवाले तथा आधार पर तांबूलाकार होती है। दो में से प्रायः एक फली का विकास नहीं होता। होते हैं। इनके आधारीय खंड गोल और पत्राधार पर ६ इसके सर्वांग में दूध होता है । मूल १ से १.२५ इंच मोटा शिराएं होती हैं। नरपुष्पों की मंजरियां नीचे की ओर तथा बाहर से मुलायम एवं उस पर बीच-बीच में सीधी . लटकी हुई २ से ४ इंच लम्बी और प्रायः पत्रकोणों में
क
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जैन आगम वनस्पति कोश
समूहबद्ध होकर निकली हुई रहती है। नारीपुष्पों की मंजरियां ४ से १० इंच लम्बी होती है। फल ३ पंख वाले और बीज भी आधार पर सपंख होते हैं। कंद छोटे आकार का भूरे रंग का होता है, जिस पर सूअर की तरह रोम होते हैं। यह भीतर से पीताभ श्वेत होता है। इसकी अन्य जातियों का भी प्रयोग किया जाता है। कुछ में कंद बहुत गहरे बैठते हैं तथा वे अधिक मुलायम होते हैं। (भाव०नि०गुडूच्यादिवर्ग० पृ०३८६, ३८७)
....
वसभमंस
वसभमंस (वृषभमांस) वृषभकंद
सू०१०/१२०
(वैद्यक शब्द सिंधु पृ०६६८)
वृषभः । पुं । ऋषभके। वृषभ के पर्यायवाची नाम
ऋषभो वृषभो धीरो, विषाणी द्राक्ष इत्यपि । ऋषभ, वृषभ, धीर, विषाणी, द्राक्ष ये नाम ऋषभक (भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग० पृ०६१) उत्पत्ति स्थान - यह हिमालय पर्वत के शिखर पर उत्पन्न होता है।
के हैं।
317
विवरण- इसका कंद ठीक लहसुन के कंद के समान होता है, सार रहित, बारीक पत्ते होते हैं। यह वृषभ (बैल) के सींग के आकार का होता है। (भाव०नि० पृ०६१) देखें रसभेय शब्द |
www.
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परिशिष्ट
* परिशिष्ट
* परिशिष्ट
* परिशिष्ट
* परिशिष्ट
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जैन आगम : वनस्पति कोश
अनुक्रम
परिशिष्ट-१ अकारादि अनुक्रम से प्राकृत शब्द और हिन्दी अर्थ प्रमाण सहित। हिन्दी शब्द
पृष्ठ प्राकृत शब्द हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
१
अइमुत्तकलया अइमुत्तयलया अंकोल्ल अंजणई अंजणकेसिगा अंतरकंद अंब अंबाडग अंबिलसाय अंबिलसाय अक्क अक्कबोंदि अगत्थि अगुरु अग्घाडग अज्जय अज्जुण अज्जुण अट्टई अट्टरूसग अतसी अतिमुत्त अस्थिय अप्पा अप्फोता अप्फोया अमरुह अयसि कुसुम
माधवीलता माधवीलता ढेरा कालीकपास नलिका, रतनजोत रास्ना आम आमडा कोकम चूका आक (लालपुष्प) सूरजमुखी अगथिया अगर अपामार्ग बाबरीतुलसी
६
अयसी पुप्फ अरविंद अरिट्ठ सल्लई अल्लई अल्लई कुसुम अल्लकी कुसुम अवय असकण्णी असण असण कुसुम असाढय असोग असोग असोगलता असोगलया असोगवण अस्सकण्णी अस्सत्थ आढई आमलक आमलग आय आलिसंद आलिसिंदग आलुग आलुय आसाढय
तिसी के फूल नील उत्पल रीठा अल्लीपल्ली सलई जलधनियां जलधनियां शैवाल शाल विजयसार विजयसार के फूल नीलदुर्वा अशोक अशोका, कुटकी अशोका, कुटकी अशोका, कुटकी अशोकवन शाल पीपल अरहर आमला
१० ११ ११ १२
तृण
१५ १५
आमला
कुहू (अर्जुन) भगतवल्ली अडूसा तिसी कुंद, (कस्तूरीमोगरा) हडसंघारी, (हडजोड़ी) कौंच आत्मगुप्ता अनन्तमूल (श्वेतसारिवा) अनन्तमूल (श्वेतसारिवा) कमल तिसी के कुसुम
आय चवला चवला
१७
आलू
आलू नीलदुर्वा
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322
जैन आगम : वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पीपल
२६
नीलकमल इकडी, लालबोरु
ईख
आसोत्थ इंदीवर इक्कड इक्खु इक्खुवाडिया इक्खुवाडिया उंबभरिय उंबर उंबेभरिया उक्खु उदय उद्दाल उद्दालक उद्दालक उप्पल उराल उव्वेहलिया उसीर एक्कड़ एरंड एरावण एलवालुंकी एला एलावालुकी
पुण्ड्रक ईख करंकशालि ईख वायविडंग गूलर वायविडंग ईख सुगंधबाला कूठ बडा लिसोडा कोविदार थोडानील क्षुद्र उत्पल । गूलूवृक्ष
कक्कोडई कच्छा कच्छुरी कच्छुल कडाह कडुयतुंबग कडुयरोहिणी कणइर कणइरगुम्म कणक कणय कणियार रुक्ख कण्ह कण्ह कण्ह कण्ह कण्हकंद कण्हकडबू कण्ह कणवीर कण्हाकटभू कण्हासोय कत्तमाल कत्थुलगुम्म कदंब कदलि कदुइया कप्पूर कयंब करंज
३६
ककोडा भद्रमुस्ता, मोथा आमला महाबला कटाह कडवी लौकी कटुरोहिणी सफेद कनेर सफेद कनेर धतूरा कसौंदी छोटा अमलतास दुधलत पीपर कृष्ण तुलसी रक्तउत्पल रक्तउत्पल कटभी कृष्ण पुष्पवाली कालाकनेर कृष्णपुष्पवाली कटभी कालाअशोक छोटा अमलतास महाबला कदम केला मीठीतुंबी कपूर कदम कंटक करंज अकरकरा करीर करौंदा केर, करील छोटी अमलतास गोलचना
कंगू
खस इकड़ी श्वेत एरण्ड भूखर्जूरी बालुकाशाक बड़ीएलायची बालुकाशाक कंगूनी धान्य केवुककंद सरकंडा रिंगणी सरकंडा गूंजा अत्यम्लपर्णी पद्मबीज सुपारी शंखपुष्पी कर्कावांस
कंगूया (केमूयी) कंड कंडरीय कंडा कंडुक्क कंडुरिया कंदलि कंदुक्क कंबू कक्कावंस
करकर
करकर करमद्द करीर करेणुय कल
13 फल
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जैन आगम : वनस्पति कोश
323
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
कल
५६
जीवक
७६
कूजा
७६ ७७
कूजा कुडा के पुष्प समूह कुडा कपूर कचरी
७७
पा
गूमा
बड़ी खेसारी धाराकदम्ब कलमीशाक कलमी चावल बड़ी खेसारी गर्जन थोड़ा श्वेत लाल कमल कैथ कसेरु कठूमर कठूमर कठूमर काकोली काकलिदाख रक्तगुंजा
भूस्तृण
६३
कलंब कलंबुया कलमसालि कलाय कल्लाण कल्हार कविट्ठ कसेरुया काउंबरि काउंबरिय काउंबरीय काओली काकलि कागणि काय. कायमाई कारियल्लइ कारिया कालिंग कालिंगी कासमद्दग किंसुय किट्टि किट्ठिया किट्ठीया किण्ह बंधुजीव किण्हासोय किमिरासि कुंकुम कुंद कुंदगुम्म कुंदलता कुंदलया
कुच्च कुज्जय कुज्जायगुम्म कुटगपुप्फरासि कुटय कुडा कुडुंबय कुडुंबय कुणक्क कुत्थुभरिय कुत्थंभरी कुद्दाल कुमुद कुमुय कुमुयरासि कुरय कुरुकुंद कुरुविंद
धनियां धनियां लालकचनार चंद्रविकासी श्वेतकमल चंद्रविकासी श्वेतकमल चंद्रविकासी श्वेतकमल सलइ मूली नागरमोथा
कुलथी तुलसी
कुलत्थ कुलसी कुवधा कुविंदवल्ली
घोलीशाक तिलियाकोरा कुशाघास वरट्टिका
मकोय करेला छोटी कटेरी तरबूज तरबूज कसौंदी ढाक वाराहीकंद वाराहीकंद वाराहीकंद कालपुष्प दुपहरिया काला अशोक माजूफल केसर कुंद कुंद कुंद
७० ७१ ७१
कुम्हडी
कुस कुसुंभ कुहंडिया कुहग कुहण कुहुण केतकि केतगि केदकंदली केयइ कोतिय कोकणद कोट्ट
७२
MMMHHHHMMcccc
गतिवन गठिवन गठिवन केवडा केवडा केदकेला केवडा सितदर्भ लाल कमल
३
कुंद
कुंदु
कुंदरु
७५
कठ
Page #344
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324
जैन आगम : वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द ।
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
१०६
भुई चंपा चंपा चंपकलता चंपा चंपाबहा भूचंपक चंपा चंपा के कुसुम
१०७ १०७ १०७ १०७ १०७ १०७ १०७
भोजपत्र
६२
१०८ १०८ १०८
६४
चुच्चु
१०६ १०६ १०६ १०६
कोदूस कोद्दव कोद्दालक कोरंटक कुसुम कोरंटकदाम कोरंटय कोरंटयगुम्म कोरेंटग कोरेंट मल्लदाम कोसंब खज्जूर खजूरि खज्जूरिवण खल्लूड खीर खीरकाओली खीरणी खीरामलय खीरिणी खेलूड गंज गयदंत गयमारिणी गिरिकण्णइ गुंजावलि गोत्त गोधूम गोवल्ली घोसाडई घोसाडिया घोसेडिया कुसुम चंडी चंदण चंपअ चंपकगुम्म
११०
कोदो की जाति
६० चंपक गुम्म कोदो
चंपग कोविदार
६१ चंपगलया पीलेफूलवाली कटसरैया ६१ चंपय पीले फूलवाली कटसरैया ६१ चंपयलता पीले फूलवाली कटसरैया ६१ चंपयलता पीले फूलवाली कटसरैया ६२ चंपा पीले फूलवाली कटसरैया ६२ । चंपाकुसुम पीले फूलवाली कटसरैया ६२ ।। चम्मरुक्ख कोसम
चारुवंस पिंडखजूर
चाववंस खर्जूरी
चिउर खर्जूरी का वन कौटुंबकंद
चूतलता खीर बेल
चूतलता क्षीरकाकोली
चूयलया खिरनी
चोय राज आमला
चोरग गंभीरी
चोरग कौटुंबकंद
चोरा गांजा मूली
छत्ताय श्वेत कनेर
छत्तोव कोयल
१०० छत्तोवग श्वेतगुंजा
१०० छत्तोह धामिन
१०१ छिण्णरुहा गेहूं
१०२ छिरिया गोपाल काकडी
छीरविरालिया श्वेत तोरइ
१०३ छीरविराली श्वेत तोरइ
१०३ जंबू श्वेत तोरइ का कुसुम
जंबूरुक्ख शिवलिंगी
१०४
जंबूवण चन्दन
१०५
जव चंपक
जवजव पीलाचंपा
१०५ जवसय
चारुवांस चापवांस चिउरा चंचुशाक आमगुल चूतलता चूतलता सत्यानाशी की जड सूक्ष्मपत्रशाक असबरग, स्पृक्का शंखिनी भुंइछत्ता जालबर्बुर
११० ११० ११० १११
१११
११२
(१)
११२
गुण्डतृण गिलोयपद्म भूखर्जूर क्षीरविदारी कंद घोडबेल (बिदारीकंद) जामुन जामुन जामुन का वन
११२ ११२ ११२ ११३ ११४ ११४
११५
जौ
११६ ११६ ११६ ११६
१०५
जई जवासा
११७
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जैन आगम : वनस्पति कोश
325
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
१३४ १३५ १३६
जवासा जाई जाउलग जातिगुम्म जातिगुम्म जाती जाती
११७ ११८ ११८ ११६ १२० १२० १२० १२१
णालीया णिंब णिंबारग णिग्गुंडी णिप्फाव णिरुहा
सेम
१३७
णीम
जारु
१२१
१२२ १२२
जवासा जाई, चमेली हींग सफेदपुष्प वाली चमेली पीले पुष्प वाली चमेली सफेद पुष्पवाली चमेली गन्धमालती जारुल जायची जावित्री जवाकुसुम जवाकुसुम जवाकुसुम के फूले जवाकुसुम जीवसाग जीवंतीलता सफेद जीरा जीवक डोडीशाक जूही जूही दूब (सफेद) कलिकारी
णील कणवीर णील बंधुजीव णीलासोग णीलासोय णीलुप्पल
१२२ १२३ १२३
UUUUUUUw
णीव
१४०
जावई जावति जासुअण जासुमण जासुयण कुसुम जासुवण जियंतय जियंति जीरा जीवग जीविय जूहिया जूहियागुम्म डब्भ णंगलई णंदिरुक्ख णग्गोह णट्टमाल णल णलिण णवणीइया णवणीइयागुम्म णहिया णही णागरुक्ख णागलया णालिएरिवण
१४१
नाडीशाक नीम महानिंब, (वकायन) नीलसम्हालू
१३६
१३७ तेलियाकंद धाराकदंब
१३७ नीलपुष्पों वाला कनेर नीला गुलदुपहरिया कच्चा अशोक नीला अशोक नीलकमल धाराकदंब तिधाराथोहर नेवारी नेवारी नेवारी
१४० स्नानमल्लिका
१४० खीरा चौलाई
१४२ अरणी
१४२ तगर
१४४ तरवड का फूल रोहिसघास
१४५ वरुण, वरना बड़ी कैरी गुठली सहित १४६ छोटी इलायची नीलकमल
१४७ ताड तेंदु
१४८
पान
णीहु णोमालिय णोमालिया णोमालिया गुम्म ण्हाणमल्लिया तउसी तंदुलेज्जग तंबोली तक्कलि तगर तडवडाकुसुम तण तमाल तरुणअंबग तलऊडा तामरस ताल
तून
१२३ १२४ १२५ १२५ १२६ १२६ १२६ १२७ १२७ १२८ १२६ १३० १३० १३१ १३१ १३२ १३२ १३२ १३३ १३४ १३४
१४५
१४६
छोंकर करंज देवनल थोड़ालाल क्षुद्रोत्पल महामेदा महामेदागुल्म कटुनाही नाहीकंद सेहुंड पान बेल नारियलोंका वन
१४६
१४७
तिंदु
तेंदु
१४६
तिंदूय तिगडूय तिमिर तिमिर
संठ, पीपल और काली मीर्च १४६ मेहंदी
१४६ जलमहुआ
१५०
Page #346
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________________
326
प्राकृत शब्द
तिल
तिलग
तिलय
तुंब
तुंबसाय
तुंबी
तुलसी
तुवरकविट्ठ
तूवरी
तेंदु
तेंदु
तेतली
तेतली
तेयली
त्थिभग
त्थिहु
थिभग
थीहु
थूरय
दंडा
दंतमाला
दंती
दगपिप्पली
दधिफोल्लई
दधिवासुय
दब्भ
दमणग
दमणय
दमणा
दव्वहलिया
दव्वी
दहफुल्लइ दहिवण्ण
दाडिम
दासि
हिन्दी शब्द
तिल
तिलिया
तिलिया
मीठी तुम्बी
मीठी तुम्बी
कड़वी तुम्बी
तुलसी
कच्चापक्का कैथ
तूर
तेंदु
लैब
तेंदु
तितली बूंटी
तितली
तितली
स्तबक कंद
(?)
स्तबक कंद
(?)
स्थूलइक्षुर
गंगेरन
(?)
लघुदंती
जलपीपल
सेमचरिया
धमास
दर्भ
दवना, दौना
दवना, दौना
दवना, दौना
दारूहल्दी
दारूहल्दी
श्वेतअपराजिता
कैथ
अनार
नील कटसरैया
पृष्ठ
१५१
१५२
१५२
१५२
१५२
१५३
१५३
१५४
१५४
१५४
१५४
नागमाल
१५५
नागरुक्ख
१५५ नागलता
नालिएर
निंब
१५५
१५५
१५५
१५६
१५६
१५६
१५६
१५७
१५७
प्राकृत शब्द
दासि
देवदारु
देवदाली
धम्मरुक्ख
१५८
१५८
१५६
१६०
१६०
१६०
१६०
१६१
१६१
१६२
१६२
धव
धाई
नंदिरुक्ख
नग्गोह
नल
नलिण
निंबकरय
निप्फाव
निप्फाव
निरुहा
नीम
नीलासोय
नीली
नीलुप्पल
पउम
पउमलता
पउमलया
पउमलया
पउमा
पउय
पउल
पंचगुलिया
पक्ककविट्ठ
पडोला
१६३ पडोला
१६३ पणग
जैन आगम वनस्पति कोश
हिन्दी शब्द
काकजंघा
देवदार
घघरबेल
पीपल
धौं
धाय
तून
खेजडी
नरकट
थोड़ा लाल कमल
शालिधान्यभेद
सेहुंड
पान की बेल
नारियल
नीम
वकायन, महानिंब
मोठ
सेम
तेलियाकंद
कदंब
नील अशोक
नील
नीलउत्पल
थोड़ा सफेद कमल
पद्मिनी
पद्मिनी
लवंगलता
स्थलकमल
वच
बिदारी आदि
तक्रा
पक्काकैथ
मीठा परवल
कडवी परवल
कई
पृष्ठ
१६४
१६४
१६५
१६६
१६६
१६६
१६७ १६७
१६७
१६७
१६७
१६७
१६८
१६८
१६८
१६६
१६८
१७०
१७०
१७१
१७१
१७१
१७१
१७२
१७२
१७२
१७२
१७२
१७२
१७३
१७४
१७४
१७४
१७४
१७५
Page #347
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________________
जैन आगम : वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
पणय
पत्त
पत्तउर
पयालवण
परिणय अंबग
परिली
पलंडू
पलंदू
पलास
पलिमंथ
पलिमंथ
पव्वय
पाई
पाडला
पाडलि
पाढा
पाणि
पाणि
पारावय
पारेवय
पालंका
पालक्का
पालियाय कुसुम पाववल्ली
पासिय
पिंडहलिद्दा
पिप्परि
पिप्पलि
पियंगु
पियय
पियाल
पिलुक्खरुक्ख
पीयकणवीर
पीया कणवीर पीबंधुजीव
हिन्दी शब्द
काई
तेजपत्र
पतंग
चिरौंजी का वन
पक्का आम
(?)
प्याज
प्याज
ढाक
काला चना
काला चना
पहाडीतृण
पाचीलता, (पानडी)
पाढल
पाढल
पाठा
पानी बेल
गोविल बेल
फालसा
पालो
पालक का शाक
पालक का शाक
फरहद का फूल
माषपर्णी
पाशिका
गोलगांठ वाली हरिद्रा
पृष्ठ
पीपर
पीपर
प्रियंगु
विजयसार
चिरौंजी
१७५
१७५
१७६
१७६
१७७
१७७
१७७
१७८
१७८
१७६
१७६
१७६
१७६
१८०
१८०
१८१
१८२
१८३
१८३
१८४
१८४
प्राकृत शब्द
पीयासोग
पीयासोय
पीलु
पुण्णाग
पुत्तंजीवय
पुरोवग
पुलयइ
पुस्सफल
पूई
पूयफली
पूयफलीवण
पूसफली
पेलुगा
पोंडइ
पोंडरीय
पोक्खल
पोक्खलत्थिभय
पोडइल
पोदइल
पोरग
पोवलइ
१८५
१८५
१८६
१८६
१८६ फुसिया
१८६
फुसिया
१८७
बउल
१८७
१८८
१८८
पाकर
१८६
१८६
पीले फूल वाली कनेर पीले फूल वाली कर पीले फूल वाली दुपहरिया १६०
१६०
फणस
फणिज्जय
फणिज्जय
धु
बंधुजीव
बत्थुलगुम्म
बदर
बाउच्चा
बाण
बाणकुसुम
हिन्दी शब्द
पीला अशोक
पीला अशोक
पीलू
जायफल
जियापोता
फालसा
(?)
भूरा कुम्हडा
पोई
सुपारी
सुपारी का वन
कुम्हडी
सनजाति का पौधा
बोदरी
सहस्रदल वाला
अति श्वेतकमल
पद्मकंद
(?)
नलतृण
नलतृण
वांस की गांठ
(?)
कटहल
फांगला
सफेद मरुआ
सर्पकंकालिका लता
लज्जयंती
मौलसिरी
दुपहरिया
दुपहरिया
327
१६६
१६६
१६६
१६७
१६७
१६७
१६७
१६८.
१६६
१६६
२००
२०१
२०२
२०३
२०३
२०३
वावची
२०४
नीलपुष्प वाली कटसरैया २०५ नीलपुष्पवाली कटसरैया २०५
बथुआ
बेर
पृष्ठ
१६०
१६०
१६१
१६१
१६२
१६३
१६३
१६३
१६३
१६४
१६५
१६५
१६५
१६५
१६६
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
328
जैन आगम : वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
(B)
२२२
बाणगुम्म बिभेलय
२०६ २०६ २०६ २०७ २०८
लालचित्रक कामजा कामजा जलमहुआ
बिंदु
२२३
मुलहठी
२२४
२०६
२२५
बहेडा हिंगोट बेल डिकामाली चिल्लीशाक पीले पुष्पवाली सहिजन पुष्करमूल श्वेतसहिजन श्वेतसहिजन शालिषाष्टिक आदि बोंदरी
बिल्ल बिल्ली बिल्ली बीयग कुसुम बीयगुम्म बीयय बीयय कुसुम बीयरुह
२२५
२१० २१० २११
२२५ २२५
२११
२२६ २२६
२११
बोंडइ
२११
२२६
सेव
२१२ २१३
२२७
मज्जार मणोज्ज मणोज्जगुम्म मधु मधुररस मरुआ मरुयग मरुया मल्लिया मल्लियागुम्म मसूर महाजाइ महाजाइगुम्म महित्थ महु महुरतण महुररस महुसिंगी भाउलिंग माउलिंगी माढरी माल मालइकुसुम मालुय मालुया
२१४
२२७ २२७ २२७ २२८
२१४ २१५
२१६
२२८
बोर भंगी भंडी भंतिय भत्तिय भदमुत्था भद्दमोत्था भमास भल्लाय भल्ली भाणी भिस भिसमुणाल भुयरुक्ख
२१६
सफेद मरुआ सफेद मरुआ सफेद मरुआ बेला, मोतिया बेला, मोतिया मसूर वासंती पुष्पलता वासंती पुष्पलता कैथ जलमहुआ मज्जारतृण मुलहठी गुडमार बिजौरा नींबू चकोतरा अतिविषा पाठा मालती के पुष्प कालीतुलसी मालुआ बेला उड़द जंगली उड़द माषाली कमलनाल बड़ी इंद्रायण बड़ी इंद्रायण
२२८
२१६
२२६
२१७
२१८
२१८
भांग मजीठ आराम शीतला चिरायता मोथा मोथा धमास भिलावा भिलावा (?) कमलकंद कमलनाल अखरोट भुसा जम्बीरतृण जम्बीरतृण (भेरी?) (भेरी?) मण्डूकपर्णी ब्राहमी मालती मालती
२१८
२१८
२३० २३१ २३२ २३२ २३३ २३३ २३४ २३४ २३४
૨૧૬
मास
२१६
२२० २२० २२०
२३५
मासपण्णी मासावल्ली मिणालिया मियवालंकी मियावालुंकी मुग्ग मग्गपण्णी मुद्दिय मुद्दिया
भूयणय भूयणा भेरुताल भेरुवण मंडुक्कियसाग मंडुक्की मगदंतिया मगदंतिया गुम्म
२३५
२२०
मूंग
२३६
वनमूंग द्राक्षालता द्राक्षालता
२३६ २३७
२२२ २२२
२३७
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन आगम : वनस्पति कोश
329
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
मुसंढी
२५१
२५२
मुसुंढी मुसुण्ढी
२३६
मूलगबीय
लोध नोनीसाग रोहीतक मांसरोहिणी लहुसन जलवेतस वांस
२५२ २५३ २५४ २५४
मूलय
मूली
वंजुल
२५४
(?)
२५५
२५५ २५६
२५६
वंशलोचन तवखीर लालएरण्ड गिलोय वज्रकंद वज्रकंद
२५७ २५८
वड
कालीमुसली
२३८ लोद्ध कालीमुसली
२३६ लोयणी कालीमुसली
लोहि मूली के बीज
२३६
लोहि
२३६ ल्हसणकंद सहिजन
२४० २४० वंस २४०
वंसाणिय जंगलीएरण्ड
२४०
वंसी जंगलीएरण्ड
२४० वखीर मोगरा
२४१ वग्घ कमरख
२४२ वच्छाणी मोगरागुम्म
२४२
वज्ज अतिविषा
२४२ वज्जकंद कमरख
२४३
वट्टमाल कमरख
२४३ शाल्मली
२४३ वणलया लालकनेर
वत्थुल लालपुष्प वाला दुपहरिया २४४ ।।
वत्थुल पक्काफल युक्त अशोक २४४ वत्थुसाय लालकमल
वर ऋषभक
२४५ वरा अमलतास
२४६ वाइंगण करेली
वागली कंगूधान्य का भेद
वालुंक लालसहिजना
वास वन रोहेडा
२४७ वासंतिकलया सफेदआक
वासंतियलया संभालु के बीज
२४८ वासन्तियागुम्म दीर्घरौहिष तृण
२४८ वासंतिलया बडहर
२४६ वासंती लौंग
२४८
२५० विमय लौंग का वुक्ष
२५० विमा लहसुन
२५१ विहंगु
२५८ २५८ २५८ २५६ २५६
२४४
मूलापण्ण मेरुतालवण मेरुयालवण मोकली मोगली मोग्गर मोग्गर मोग्गरगुम्म मोढरी मोद्दाल मोद्दालक मोयई रत्तकणवीर रत्तबंधुजीव रत्तासोग रत्तुप्पल रसभेय रायरुक्ख रायवल्ली रालग रिट्टग रुरु रूवी रेणुया रोहियंस लउय लवंग लवंगपुड लवंगरुक्ख लसणकंद
२६० २६०
२४५
२६१ २६१
२६१
२४६ २४६ २४७
वरगद निश्रेणिका बथुआ बबूल बथुआ का साग चीना धान्य चीना धान्य बैंगन वागटी बालु का साग बासक वासंती लता वासंती लता वासंती गुल्म वासंती लता बासंती लता (?) पद्मकाष्ठ पद्मकाष्ठ
२६२ २६२
२६३ २६३ २६३
२४७
२६३
विभंगु
२६३ २६३ २६४ २६४ २६५ २६५
लौंग
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
330
जैन आगम : वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
२६५
सल्लई
२७६
विहेलग वीरण वीहि
२६५
सस
२६६
लोध
वेणु
सस सहस्सपत्त
वेत्त
बहेडा गाडर घास व्रीहि वांस बेंत वेद, बेदसादा वांस के चावल वांस के चावल (?)
२६६ २६७
साम
वेय
२६७
WW
२६८ २६८ २६८
वेलुया वेलूया वोडाण वोयाण संखमाला संघट्ट संघाड
साम सामग सामलता सामलया सामलि
सलइ हीराबोल
२८०
२८० हजार पुष्पदलों वाला कमल २८१ मरिच
२८१ कबाबचीनी सांवाधान्य अनन्तमूल अनन्तमूल सेमर
२८४ खदिर सांखू सालों का वन
२८५ शालिधान्य कांटा थूहर
२८६ अदरख
(?)
२६८
सार
२८४
२८५
२८५
सज्जाय
२८७ २८७
(C)
२७२ २७२
श्वेतपुष्प वाला सम्भालू २८७ श्वेतपुष्प वाला सम्भालू २८८ शिल्पिका तृण
२८८
चीड
२८६
शंखपुष्पी
२६६ कैवर्तिका
२७० सिंघोडा
२७० बड़ा शाल
२७० बड़ाशाल का भेद २७१ सन
२७१ शणपुष्पी
२७२ सौदलवाला रक्त कमल २७२ शतपोरक शतावरी छतिवन
२७२ मटर
२७२ छतिवन
२७३ छतिवन
२७४ छतिवन का वन ર૭૪ नाकुली
२७४ श्वेत रोहीतक २७४ श्वेत रोहीतक २७५ सौ पुष्पदल वाला लाल कमल २७५ सोयावन सौंफ शतावरी
२७६ रामसर
२७१
२७८ चीड़ का वन
२७८ सरसों
२७६
साल सालवण सालि सिउंदि सिंगवेर सिंगमाला सिंदुवार सिंदुवार गुम्म सिप्पिया सिरलि सिरिस सिरीस सिरीसकुसुम सिस्सिरिली सीउंढी सीयउरय सीवण्णी सीसवा सीहकण्णी सुंकलितण सुंठ सुंब सुगंधिय सुत्थियसाय
सिरस सिरस सिरस के फूल
सण सणकुसुम सतपत्त सतपोरग सतरि सतिवण्ण सतीण सत्तवण्ण सत्तिवण्ण सत्तिवण्णवण सप्पसुगंधा सप्फाय सफा सयपत्त सयपुप्फा सयरी सर सरल सरलवण सरिसव
२८६ २८६ २८६
(?)
२८६ २६०
२६०
कांटा थोहर खस कायफल सीसम अडूसा शूकडितृण
२७५
२६१ २६२ २६२
सूंठ
२६२
चीड़
मूर्वा, चूरनहार चंद्रविकासी नीलकमल चौपतियाशाक
२६२ २६३
२६४
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन आगम वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
सुभग
सुभगा
सुमणसा
सुय
सुय
सुवण्णजूहिया सुहिरणिया सुहिरणिया
सूरण
सूरणकंद
सूरवल्ली
सूरिल्ल सेडिय
सेहय
सेन्हा
सेतासोय
सेयकणवीर
सेय बंधुजीवग सेयमाल
सेयासोग
सेरियय
सेरियाम्म सेरुताल
सेलु
सेवाल
सेवालगुम्म सोगंधिय
सोत्थियसाय
हड
हढ
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द
कमल
गजपीपल ह
वनमल्ली, सेवतीगुलाब
चमेली बालतृण पटुतृण पीलीजूही स्वर्ण जीवंती
२६५ २६५
रेणुका अदरख आदि शाक श्वेत सहजन
हरड दूब रेणुका हल्दी हल्दी हल्दी हींग (?)
२६४ हत्थिपिप्पली २६४ हरडय २६४ हरतणुया हरितग हरितग २६५ हरितग २६६ हरियाल २६७ रेणुया २६८ हलिद्दा २६८ हलद्दी हालिद्दा २६६ हिंगुरुक्ख हिरिली हेरुताल ताल वण
२६८
२६६
LE
सत्यानाशी सूरणकंद सूरणकंद सूरजमुखी ग्रामणी तृण मूंज निर्मली निर्मली श्वेत अशोक श्वेतपुष्पवाली कर श्वेतपुष्पवाली दुपहरिया ३०१ श्वेतपुष्पवाली मालती ३०१ कुक्कुडमंस श्वेत पुष्प वाला अशोक ३०१ जलयरमंस श्वेत पुष्प वाली कटसरैया ३०१ जलयरमंस
३०० ३०० ३००
महाशतावरी महाशतावरी वन
महाशतावरी वन
हेरुयालवण होत्तिय
सितदर्भ
३००
कपोयसरीर
मकोय चौपतियासाग
प्रतिविषा
जलकरवृक्ष बड़े बेर का गूदा
श्वेत पुष्प वाली कटसरैया ३०२
णखीमंस
(?)
३०२ तित्तिरिमंस
मेथी
लिसोडा सेवार सेवार
३०२ दीवगमंस ३०२ मज्जार ३०३ मिगमंस ३०३ मेंढकमंस ३०३ वराहमंस
चित्रक लालचित्रक कस्तूरी के दाने मेंढासिंगी का गूदा वाराहीकंद
३०३
वसभमंस
वृषभकंद
३०३
चंद्रविकासी नीलकमल चौपतियाशाक
जलकुंभी
जलकुंभी
हिन्दी शब्द
331
पृष्ठ
३०४
३०४
३०५
३०६
३०६
३०७
३०७
३०७ ३०७
३०८ ३०८
३०८
३०६
३०६
३१०
३१०
३१०
३११
३१२
३१३
३१३
३१३
३१३
३१४
३१४
३१५
३१५
३१६
३१७
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
332
जैन आगम : वनस्पति कोश
परिशिष्ट - २ अकारादि अनुक्रम से हिन्दी शब्द और प्राकृत शब्द प्रमाण सहित प्राकृत शब्द
पृष्ठ हिन्दी शब्द प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
अंब
१०
११
आम
PA
४१
२१४ २८
२८७
२३५
मास
२४५
अंगूर की बेल मुद्दिय, मुद्दिया २३७ आक श्वेत रूवी
२४७ अकरकरा करकर
५६
आम अखरोट भुयरुक्ख २१६ आम पक्का परिणय अंबग
१७७ अगथिया अगत्थि
आमगुल
चूत लता अगर अगुरु
आमडा
अंबाडग अडूसा अट्टरूसग, सिंहकण्णी १४, २६२ ।। आमला
आमलक, कच्छुरी २६, ४४ अतिविषा माढरी, मोढरी २३०, २४२ । आय
आय अत्यम्लपर्णी कंडुरिया
आरामशीतला भंतिय अदरख सिंगबेर
आलु
आलुग अदरख आदिशाक हरितग
३०६ इंद्रायण बडी मियवालंकी अनार दाडिम १६३ ईख
इक्खु, उक्खु ३०, ३३ अनन्तमूल
अप्फोता, अप्फोया, सामलता, ईख करंकशाली इक्खुवाडिया
सामलया १७, १८, २८३, २८४ ईख पुण्ड्रक इक्खुवाडिया अपराजिता (कोयल) गिरिकण्णइ.
१०० उड़द
२३३ अपराजिता (श्वेत) दहफुल्लइ
१६२ ऋषभक
रसभेय अपामार्ग अग्घाडग ११ एरण्ड श्वेत एरंड
३६ अमलतास रायरुक्ख
२४६ एलायची छोटी तलऊडा अमलतास छोटा कणियाररुक्ख, कत्तमाल, करेणुय । एलायची बड़ी एला
३८ ४८. ५२, ५८ कंगुधान्य का भेद रालग
२४६ अरणी तक्कलि १४२ कंगुनी
कंगू अरहर आढई
ककोडा
कक्कोडई अल्लीपल्ली अल्लई
कटभी (कृष्ण पुष्प) कण्हकडबू, कण्हाकटभू ५१, ५२ अशोक असोग
२३ कटसरैया (नील पुष्प) दासी, बाण १६३, २०५ अशोक कच्चा (नीला) णीलासोग
१३८ कटसरैया (पीत पुष्प) कोरंटक, कोरंटय ६१, ६२ अशोक काला कण्हासोय किण्हासोय ५२, ७३ कटसरैया (श्वेत) सेरियय
३०१, ३०२ अशोक नीला नीलासोय
१७१ कटहल
फणस अशोक पक्काफल रत्तासोग
कटाह
कटाह अशोक पीला पीयासोय
१५० कटेरी (छोटी) कारिया अशोक श्वेत सेतासोय, सेयासोग ३००, ३०१ कठूमर
काउंबरिय अशोकरोहिणी असोगलता
कडवी रोहिणी
कडुयरोहिणी अशोक वन असोग वण
कडवी लौकी कडुयतुंबग असवरग चोरक ११० कदम
कदंब, कयंब, नीम ५२, ५५, १७१ आक लाल अक्क
८ कनेर काली कण्हकणवीर
१४६
३६
४३
२४४
४५
|
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन आगम : वनस्पति कोश
333
हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
पृष्ठ हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
पृष्ठ
१५
१७५
२८२
२२३
१७६
कुंदु
कनेर नीली णीलकणवीर
१३८ कसेरु कसेरुया
६३ कनेर पीली पीयकणवीर
१८६, १६० कसौंदी
कणय, कासमद्दग ४७.६६ कनेर लाल रक्तकरणवीर २४४ कस्तूरी के दाने मिगमंस
३१५ कनेर सफेद कणइर, सेयकणवीर, गयमारिणी कस्तूरी मोगरा अतिमुत्त ४६, ६६, ३०१ काई
पणग, पणय कपूर कप्पूर काकजंघा दासि
१६४ कपूरकचरी कुडा
७८ कांटा थूर
सिउंढि सीउंढी २८६, २८६ कबाबचीनी साम
काकलिदाख काकलि कमरख
मोग्गर, मोद्दालक २४२, २४३ काकोली काओली कमल अब्भरुह, सुभग १८, २६४ कामजा
मणोज्ज कमल (चंद्र विकासी) नील सुगंधिय, सोगंधिय २६३. ३०३
कायफल सीवण्णी
२४० कमल (नीला) अरविंद इंदीवर, णीलुप्पल, तामरस, काला चना पलिमंथ
नीलुप्पल १६,३०, १३८, १४७, १७१ काली कपास अंजणई कमल (लाल) कण्ह, कण्हकंद, कोकणद, काली तुलसी कण्ह, मालुय ५०, २३२ रत्तुप्पल
५१, ८६, २४५ काली मूसली मुसंढी, मुसुंढी २३८, २३६ कमल (श्वेत चंद्रविकासी) कुमद, कुमय ८२, ८३ कुंद
कुंद, कुंदगुम्म, कुंदलता ७४ कमल (थोड़ा नीला) उप्पल
३५ कुंदरु कमल (थोड़ा लाल) णलिण, नलिण १३१, १६७ ।। कुटकी
असोग कमल (थोड़ा श्वेतलाल) कल्हार
कुडा
कुटग, कुटय कमल (थोड़ा श्वेत) पउम
१७२
कुम्हडा. भूरा पुस्सफल कमल (अति श्वेत, सहस्रदल) पोंडरीय
कुहंडिया पूसफली ८६, १६५ कमल (सौदलवाला) सतपत्त, सयपत्त २७२, २७५
कुलत्थ कमल (हजारदलवाला) सहस्सपत्त
२८१ कुशाघास
कास, कुस कमलकंद भिस
अज्जुण कमलनाल भिसमुणाल, मिणालिया रत्तुप्पल कूजा
कुज्जय २१८, २३४ कूठ
उद्दाल, कोट्ट करंज (कटंक) करंज
केदकेला
केदकंदलि करंज (बड़ा) णट्टमाल
केर
करकर, करीर करेला कारियल्लइ ६७ केला
कदली करेली रायवल्ली २४६ केवडा
केतकि, केयइ करौंदा करमद्द
केवुककंद कंगूया कळवांस कक्कावंस ४३ केसर
कुंकुम कलमी (चावल) कलमसालि
कैथ
कविट्ट, दधिवण्ण, दहित्थ कलमीशाक कलंबुया
६२, १६२, २२७ कलिकारी णंगलई १२७ कैथ (कच्चा पक्का) तुवरकविठ्ठ
१५४
१४६
कुम्हडी कुलथी
२१८
३४, ८६
१३०
५६
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
334
हिन्दी शब्द
कैथ (पक्का) कै विर्तिका
कोकम
कोदों
कोविदार
कोसम
कौंच
कौटुंबकंद क्षीरकाकोली
क्षीरविदारीकंद
खजूरी
खदिर
खस
खिरनी
खीरबेल
खीरा
खेसारी (बडी)
गंगेरन
गंधमालती
गंभीरी
गजपीपल
गठिवन
गर्जन
गांजा
गांडर घास
गिलोय
गिलोयपद्म
गुंजा (रक्त) गुंजा (सफेद)
गुडमार
गुण्डतृण
गुलू
गूमा
गूलर
गेहूं
प्राकृत शब्द
पक्क कविट्ठ
संघट्ट
अंबिलसाय
कोदूस, कोद्रव
उद्दालक, कोद्दालक
कोसंब
अप्पा, कच्छुल
खल्लड, खेलूड
खीरकाओली
छीरविरालिया
खज्जूरी
सार
उसीर, सीयउरय
खीरिणी
खीर
तउसी
कल, कलाय
दंडा
जाती
खीरणी
हत्थिपिप्पली
कुहग, कुहण, कुहूण
कल्लाण
गंज
वीरण
वच्छाणी
छिण्णरुहा
पृष्ठ
१४०
५६. ६०
१५६
१२०
६७
३०४
८७
६१
६८
२६५
२५७
११२
कंडुक्क, कागणि
४१, ६५
गुंजावली
१००
महुसिंगी, मेंढकमंस २२८, ३१५
छत्तोह
११२
उराल
कुडुंबय
उंबर
गोधूम
१७४
२७०
६
६०. ६१
३४, ६१
६२
१६
६५, ६८
६५
११४
६४
२८४
३६. २६०
६६
६५
हिन्दी शब्द
गोपाल काकडी
गोल चना
गोविल बेल
ग्रामणीतृण
घघरबेल
घोडबेल
घोलीशाक
चंचुशाक
चंदन
चंपकलता
चंपक (पीला)
चंपा के कुसुम
चंपावहा
चकोतरा
चमेली (सफेद)
चमेली (पीत पुष्प)
चवला
चापवांस
चारुवांस
चिउरा
चित्रक (लाल)
चित्रक
चिरायता
चिरौंजी
चिरौंजी का वन
चिल्लीशाक
चीड
चीड का वन
चीना धान्य
चूकाशाक
चूतलता
३५ चूरनहार
७६
३१
१०१
चौपतिया शाक
चौलाई
जैन आगम वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
गोवल्ली (गोवाल)
कल
पाणि
सूरिल्लि
देवदाली
छीरविराली
कुवधा (कुवया )
चुंचु
चंदण
चंपगलया
चंपग
चंपा कुसुम
चंपयलता
माउलिंगी
मज्जार, मज्जार
दीवगमंस
भंतिय
पियाल
१०५
१०७
१०७
१०७
१०७
२२५
जातिगुम्म, सुमणसा ११६, २२४
जातिगुम्म
१२०
आलिसंद, आलिसिंदग
२८.
चाववंस
१०८
चारुवंस
१०८
चिउर
१०८
२२२, ३१४
३१४
२१५
१८८
१७६
२०६
२७८. २८६
२७६ २६१
७
पयालवण
बिल्ली (चिल्ली)
सरल, सीरली
सरलवण
पृष्ठ
वर, वरा
अंबिलसाय
१०३
५६
१८. ३
२६६
१६५
११४
८४
१०६
चूतलता
११० २६२
सुब सुत्थिसाय, सोत्थियसाय २६४. कुक्कुडमंस ३०३, ३१२ तंदुलेज्जग १४१
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन आगम वनस्पति कोश
हिन्दी शब्द
छतिवन
छतिवन के वन छोकर (खेजडी )
जई
जंगली उड़द
जंगली एरण्ड
जम्बीरतृण
जलकरवृक्ष
जलकुंभी
जलधनियां
जलपीपल
जलमहुआ
जलवेतस
जवा कुसुम
जवासा
जाई (चमेली)
जामुन
जामुन का वन
जायची
जायफल
जारुल
जालब
जावित्री
जियापोता
जीरा (सफेद)
जीवंती लता
जीवक
जीवसाग
जूही जूही (पीली)
जौ डीकामाली
प्राकृत शब्द
सतिवण्ण, सत्तिवण्ण
सत्तिवण्णवण
गोह, नग्गोह
जवजव
मासपण्णी
मोगली
भूयणय, भूयणा
जलयरमंस
हड, हढ
अल्लकी कुसुम दगपिप्पली
तिमिर, मधु, मुहु
वंजुल
जासुमण, जासुवण
जवसय, जवासा
जाई
जंबू, जबूरुक्ख
जंबूवण
जावति
पुन्नाग
जारु
छत्ताय, छत्तोवग
जावति
पुत्तं जीवय
जीरा
जियंति
कुच्च, जीवग
जियंतय
जूहिया
पृष्ठ
जव
बिल्ली
२७२,
२७४
२७४
१२६, १६८
११६
२३४
२४०
२२०
३१३
३०३
२०
१५८
१५०, २२३,
२२७
२५४
१२२, १२३
११७
११८
११५, ११६
११६
१२५
१२४
७६, १२५ १२३ १२६
सुवण्णजूहिया, सुहिरणिया
हिन्दी शब्द
२६५, २६६
११६
२०८
ढाक
ढेरा
तक्रा
तगर
तरबूज
तरवड कुसुम
तवखीर
१२१ तृण
१६१
तेंदु
१२१
११२
१२२
१९२
ताड
तितली
तिधारा थोहर
तिल
तिलिया
तिलिया कोरा
तिसी
तिसी के फूल
तुंबी (मीठी)
तुलसी (काली)
तुलसी (बाबरी)
तून
तूर
तेजपत्र
तेलियाकंद
तोरई (श्वेत)
दंती (लघु)
दारुहलदी
दीर्घरौहिषतृण
दुधलत
दुपहरिया
दुपहरिया (काला) दुपहरिया (नीला)
दुपहरिया (पीला)
प्राकृत शब्द
किंसुय, पलास
अंकोल्ल
पंचगुलिया
तगर
कालिंग, कालिंगी
तडवड कुसुम
वखीर
ताल
तेतली, तेयली
णीहु
तिल
तिलग
कुविंदवल्ली अतसी, अयसी
अयसी पुप्फ
कदुइया, तुंबसाय
कुलसी, तुलसी
अज्जय
मंदिरुक्ख
335
रोहियंस
कण्ह
बंधुजीव किबंधुजीव
णी बंधुजीव पीय बंधुजीव
पृष्ठ
७०, १७८
१
१७४
१४४
६८, ६६
१४५
२५६
१४८
१५५
१३८
१५१
१५२
८४
१५, १६
१६
५४, १५२
८४, १५३
१२
१२८
तूवरी
१५४
१३
अज्जु
तिंदु, तेंदु, तेंदू १४८, १४९,
१५५
पत्त
१७५
णिरुहा निरुहा १३७, १७० घोसाडइ, घोसाडिया १०३ दंती १५७ उव्वेहलिया, दव्वहलिया, दव्वी ३६. १६१ २४८ ४६
२०२, २०३
७२
१३८
१६१
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
336
हिन्दी शब्द
दुपहरिया (लाल) दुपहरिया (सफेद)
दूब
दूब (नील)
दूब (सफेद)
देवनल
देवदार
दौना
धतूरा
धनियां
धमासा
धमिन
धाय
धाराकदंब
धौं
नलतृण नाकुली
नागर मोथा
नाडीशाक
नारियल
नारियलों का वन
नाहीकंद
निर्मली
निश्रेणिका
नीम
नील संभालू
नीली
नेवारी
नोनीसाग
पटुतृण
पतंग
पद्मकंद
पद्म काष्ठ
पद्मबीज
प्राकृत शब्द
बंधुजीव
सेय बंधुजीव
हरियाल
असादय, आसाढय
डब्भ, दब्भ
णल, नल, पोडइल
देवदारु
दमणय
कणग
कुत्थंभ
दधिवासु, भास
धव
पोडइल, पोदइल
सप्पसुगंधा
कुरुविंद
णालीया
नालिए
लिए रिवण
पहिया, नही
सेण्हय, सेण्हा
वणलया
बि, निंब
णिग्गुंडी
नीली
το
१५६, २१६
गोत्त
१०१
धायई
१६६
कलंब, णीम, णीव ५६, १३७,
१३६
१६६
१६६, १६७
२७४
णोमालिया
लोयाणी
पृष्ठ
सुय
पत्तउर
पोक्खल
विमय, विमा
कंदलि
२४५
३०१
३०७
२३
१२७, १६०
१३०, १६७
१६४
१६०
४७
८३
१३४
१६८
१३४
१३२
३००
२५६
१३५, १६८
हिन्दी शब्द
पद्मिनी
परवल ( कडवी)
परवल (मीठी)
पहाडी
२६४, २६५
४२
पाकर
पाची (पानडी )
पाठा
पाढल
पाढी
पानबेल
पानी बेल
पालक
पालो
पाशिका
पिंडखजूर
पीपर
पीपल
पीलु
पुष्कर मूल
पोई
प्रतिविषा
प्रियंगु
प्याज
फरहद
१३७ फांगला
१७१
फालसा
१४०
बडहर
२५२
बडा लिसोडा
२६५
१७६
१६६
जैन आगम : वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
पउमलता
पडोला
पडोला
पव्वय
पिक्खक्ख
पाई
माल
पाडला
पाढा
णागलया, तंबोली,
नागलता
पाणि
खजूर
कण्ह, पिप्परि
अस्सत्थ, आसोत्थ,
धम्मरुक्ख
पीलु
बीगुम्म
पूई
पालंका, पालक्का १८४, १८५
पारेवय
१८४
पासिय
जलयरमंस
पियंगु
पलंडु, पलंदू
पालियाय
फणिज्जय
पारावय, पुरोवग
लउय
उद्दालक
बडाशाल
सज्जा
बडाशाल का भेद
सज्जाय
बडीकैरी गुठलीसहित तरुणअंबग
बडेवेर का गूदा
बथुआ (रक्त)
पृष्ठ
१३४, १४२, १६८
१८२
खीमंस बत्थुल, वत्थुल
१७२
१७४
१७४
१७६
१८६
१७६
२३१
१८०
१८१
१८६
६३
५०, १८६
२५, २६, १६६
१६१
२१०
१६३
३१३
१८७
१७७, १७८
१८५ १६.८
१८३, १६३
२४६
३४
२७०
२७१
१४६
३१३
२०३, २५६
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन आगम : वनस्पति कोश
337
हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
पृष्ठ हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
पृष्ठ
२६५
बबुल बहेडा बागटी बालतृण बथुआ का साग बालु का साग बावची बिजौरा नींबू बिदारी आदि
१७३
बेंत
वेय
२३२
बेदसादा बेर
बेल
१८६
मुग्ग
बेला, मोतिया बैंगन बोदरी ब्राह्मी भगतवल्ली भांग भिलावा भुइंचंपा भुंइं छत्ता भुसा भूखर्जूर भूखर्जूरी भूस्तृण
वत्थुल-बबुल २६०
फणिज्जय बिभेलय, विहेलग २०६, २६५ मसूर
मसूर
२२६ वागलि
२६२ महानिंब (वकायन) जिंबारग, निंबकरय १३६, १६६ सुय
महाबला
कच्छुल, कत्थुल ४५, ५२ वत्थुसाय २६० महामेदा
णवणीइया
१३१ एलावालंकी, वालुंक ३७, २६२ महाशतावरी हेरुताल
३०६ वाउच्चा, २०४ मांसरोहिणी लोहि
२५३ माउलिंग २२८ माजूफल
किमिरासि पउल
माधवी लता अइमुत्तयलया वेत्त २६७ मालती
मगदंतिया २६७ मालती के फूल मालइकुसुम बदर २०३ मालुआ बेल मालुआ
२३३ बिल्ल २०७ माषपर्णी
पाववल्ली मल्लिया २२५, २२६ माषाली
मासावल्ली
२३४ वांइगण
२६१ मुलहठी मधुररस, महुररस २२४, २२८ पोंडइ, बोंडइ १६५, २११ मूंग
२३६ मंडुक्की २२१
सेडिय
२६५ अट्टई १३ __ मूली
कुरुकुंद, गयदंत, मूलय ८३. भंगी २१३
६६, २३६ भल्लाय, भल्ली २१७, २१८ मूली के बीज मूलगबीय
२३६ चंपकगुम्म १०६ मेंढा सिंगी का गुदा मेंढक मंस
३१५ छत्ता १११ मेंहदी
तिमिर भुस
तित्तिरमंस
३१३ छिरिया
मोगरा
मोग्गर, मोग्गरगुम्म २४१, २४२ एरावण ३७ मोठ निप्फाव
१६६ कुडुंबय
मोथा
कच्छा, कुरुविंद, भद्दमुत्था भेरुताल २२०
भद्दमोत्था ४४, ८३. २१६ चम्मरुक्ख
मौलसिरी
बउल कायमाई, कवोयसरीर ६६, ३११ रतनजोत
अंजणकेसिगा भंडी
२१४ राज आमला खीरामलय महुरतण २२७ रामसर
सर सतीण २७२ रास्ना
अंतरकंद मंडुक्कियसाय २२० रिंगणी
कंडरीय साम २८१ रीठा
अरिट्ट मरुआ, मरुयग, १६६, २२५ रेणुका
हरतणुया, हरेणुया ३०५, ३०७
१४६
२१६
मेथी
भेरी
१०८
भोजपत्र मकोय मजीठ मज्जार तृण मटर मण्डूकपर्णी शाक मरिच मरुआ (सफेद)
सजाय
.
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
338
जैन आगम : वनस्पति कोश
हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
पृष्ठ हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
पृष्ठ
२५८
२००
२६२
वच
१३६ २४८
रौहिष घास तण १४५ शकरकंद
वज्जकंद रोहीतक (रोहेडा) लोहि
२५३ शणपुष्पी
सणकुसुम
२७२ रोहीतक (सफेद) सप्फाय, सफा २७४, २७५ शतावरी
सतरि, सयरि २७२, २७६ लज्जवंती फुसिया
शाल
असकण्णी अस्सकण्णी २१, २५ लवंगलता पउमलता
१७२ शतपोरक सतपोरग
२७२ लहसुन कंद लसणकंद, ल्हसणकंद २५१. शालिधान्य
सालि
२८५ २५४ शालिधान्य भेद नागमाल
१६७ लाल एरण्ड वग्घ २५६ शालिषाष्टिक बीयरुह
२११ लाल कचनार कुद्दाल
७१ शाल्मली मोयई
२४३ लाल बोरू इक्कड, एक्कड ३०, ३६ शिल्पिकातृण सिप्पिया
२८८ लिसोडा सेलु ३०२ शिवलिंगी
चंडी
१०४ लोध
लोद्ध, सस २५१, २८० शूकडितृण संकुलितण लौंग लवंग, लवंगरुक्ख २४६, २५० शैवाल
अवय वंशलोचन वंसी
२५५ श्वेत पद्म महापोंडरीय
२२७ पउय
१७२ सम्हालु (श्वेत पुष्प) सिंदुवार, सिंदुवारगुम्म २८७, वनमूंग मुग्गपाणि
२३६ सम्हालू (नील पुष्प) णिग्गुंडी वनरोहेडा
२४७ संभालू के बीज रेणुया वरगद वट २८७ सत्यानाशी सहिरणिया
૨૬૭ वरट्टिका कुसुभबीय ८६ सत्यानाशी की जड़ चोय
११० वरना तमाल
सन सण
२७१ वांस
वंस, वेणु २५४, २६६ सन जाति का पौधा पेलुगा वांस की गांठ पोरग
१६७ सरकंडा
कंडा वांस के चावल वेलुया
२६६ सरसों
सरिसव
२७६ वायविडंग उंबभरिय उंबेभरिया ३१, ३२ सर्पकंकालिका लता फुसिया
१६६ वाराही कंद किट्टि, किट्ठिया, किट्ठीया, वराहमंस सलइ
अल्लीपल्ली, कुरय, सल्लइ ७१, ७२, ३१६
२०, ८३. २७६ वासंती महाजाइ, वासंति, वासंतिलया। सहिजन मूलापण्ण
२४० २२६, २६३ सहिजन (पीत पुष्प) बीयग कुसुम वासक. वास २६३ सहिजन (लाल पुष्प) रिट्ठग
२४७ विजयसार असण, पियय
सहिजन (सफेद पुष्प) बीयय, हरितग २११, ३०६ विजयसार के फूल असण कुसुम
सांखू (शाल) साल
२८५ वृषभकंद वसभमंस ३१७ सांवाधान्य
सामग
२८३ २६६ सिंघोड़ा
संघाड शंखपुष्पी कंबू, संखमाला ४२, २६६ सितदर्भ
कोंत्तिय,होत्तिय ८६. ३१० शंखिनी चोरा ११२ सिरस
सिरिस
२८६
१४६
१६५
४०
२१०
२३
व्रीहि
वीहि
२७०
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन आगम : वनस्पति कोश
339
हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
पृष्ठ हिन्दी शब्द
प्राकृत शब्द
सुंठ
१५६
सीसम सीसवा २६१ सेहुंड
णागरुक्ख, नागरुक्ख१३३. १६७ सुगंधवाला उदय ३३ सोयावन सौंफ सयपुप्फा
२७५ सुपारी
कंदुक्क पूयफली ४२, १६४ स्तबक कंद त्यिभग, थिभग १५५, १५६ सुपारीवन पूयफलीवण १६५ स्थलकमल पउमा
१७२ २६२ स्थूल इक्षुर
थूरय सुंठ पीपल, कालीमिर्च तिगडूय १४६ स्नानमल्लिका ण्हाणमल्लिया
१४० सूक्षमपत्रशांक चोरग
११० हडसंघारी
अत्थिय
१६ सूरजमुखी अक्कबोंदि सूरवल्ली ६, २६८ हलदी
हलिद्दा, हलिद्दी, हालिद्दी ३०८, सूरणकंद सूरण, सूरणकंद २६८
३०६ णिप्फाव, निप्फाव १३७, १७० हलदी (गोलगांठवाली) पिंडहलिद्दा सेमचरिया दधिफोल्लइ
हरे, हरड
हरडय, हरितक ३०४, ३०७ सेमर सामलि २८४ हिंगोट बिंदु
२०६ सेवती गुलाब सुभगा
२६४ हींग
जाउलग
११८ सेव २१२ हींग का वृक्ष हिंगुरुक्ख
३०८ सेवार सेवाल, सेवालगुम्म ३०२, ३०३ हीराबोल
सस
२८०
सेम
१८६
बोर
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
340
प्राकृत शब्द
अइमुत्तक लया
अंकोल्ल
अंजणई
अंजणकेसिगा
अंतरकंद
अंब
अंबाडग
अंबिलसाय
अंबिलसाय
अगुरु
अग्घाडग
अज्जय
अज्जुण
अट्टरुसग
अतसी
अत्थिय
अप्पा
अप्फोता
अब्भरुह
अरिट्ठ (रिट्ठग)
अल्लकी कुसुम असकण्णी
असण (पियंगु)
असाढय
असोग
असोग
आढई
अक्क
अक्कबोंदि (सूरवल्ली) सूरजमुखी अगथिया
अगत्थि
आमलक
आलिसंदग
आलुग
हिन्दी शब्द
माधवी लता
ढेरा
काली कपास रतनजोत
रास्ना
आम
आमडा
कोकम
चूका
आक (लाल पुष्प)
अगर
अपामार्ग (लाल चिरचिटा )
बाबरी तुलसी
अर्जुन कुहू
अडूसा
तिसी
हडसंघारी
कौंच
अनन्तमूल (श्वेत सारिवा)
कमल
रीठा जलधनियां
शाल
विजयसार
नीलदूर्वा
अशोक
कटुकी
अरहर
आमला
चवला
आलु
परिशिष्ट - ३ चित्र सूचि
पृष्ठ
१
२
२
३
४
५
६
७
७
८
६
१०
११
१२
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१७
१८
१६
२१
२१
२२
२३
1 x 2 w 2 N N
२४
२५
२६
२७
२८
२८
प्राकृत शब्द
आसोत्थ (धम्मरुक्ख) पीपल
ईख
इक्खु
उंबर
उबेभरिया
उदय
उद्दालक
उराल
उसीर
एला
कंगू
कंडरीय
कंडुरिया
कंबू
कक्कोडइ
कडुयतुंबग
कडु रोहिणी
कणइर
कणक
कणय
कणियाररुक्ख
कण्ह (पीपर)
कदंब
कदलि
कदुइया
कप्पूर
करंज
करकर
करमद्द
करीर
कलंबुया
कलाय
कल्लाण
कविट्ठ
जैन आगम : वनस्पति कोश
हिन्दी शब्द
गूलर
वायविडंग
सुगंधबाला
बडा लिसोडा
गुलू
खस
बडी इलायची
कंगूनी
रिंगणी
अत्यम्लपर्णी
शंखपुष्पी
ककोडा
कड़वी लौकी
कटुरोहिणी सफेद कनेर
धतूरा
कसौंदी
छोटा अमलतास
पीपर
कदम
केला
मीठी तुंबी
कपूर
कंटक करंज
अकरकरा
करौंदा
केर
कलमीशाक
बडी खेसारी
गर्जन
कैथ
पृष्ठ
२६
३०
३१
३२
३३
३४
३५
३६
३८
३६
४०
४१
४३
४३
४५
* र्जे र्ते ढे ले ले ले
४६
४६
४७
५०
५३
५३
५४
५५
५६
५६
५७
५८
५६
६०
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन आगम वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
कसेरुया
कसेरु
काओली
काकोली
कागणि
रक्तगुंजा
कायमाई, कवोयमंस मकोय
कारियल्लइ
कारिया
कलिंग
कासमद्दग
किंसुय
किट्टिया (वराहमंस)
कुंकुम
कुंद (अतिमुत्त)
कुंदु
कुज्जय
कुटय
कुडुंबय
कुत्थंभरिय
कुद्दाल
कुमुद
कुलत्थ
कुस
केयइ
को
कोद्दव
कोरंटय
कोसंब
खज्जूर
खीरणी
खीरिणी
गिरिकण्णइ
गोत्त
गोधूम
घोसाडिया
चंदण
चंपगगुम्म
करेला
छोटी कटेरी
तरबूज
कसौंदी
ढाक
वाराही कंद
केसर
कुंद
कुंदरू, गुग्गल
कूजा
कुटज
गूमा
धनियां
लालकचनार
कमल
कुलथी
कुशाघास
केवडा
कूठ
कोदो
गंभीरी
कोयल
धामिन
गेहूं
श्वेत तोरइ
पृष्ठ
चन्दन
पीला चंपा
६३
६४
६५
६६
७८
७६
८१
८१
८२
८३
८५
I u ů u ✰✰
६७
६८
६६ जवसय
७०
७०
७२
७४
७४
७६
७७
८६
कटसरैया (पीतपुष्प) ६२
कोसम
खजूर (पिंड खजूर )
खिरनी
६०
६१
६३
६४
६६
६८
प्राकृत शब्द
१००
१०१
१०१
१०३
१०५
१०६
चम्मरुक्ख
छत्ता
छिण्णरुहा
छीरविरालिया
जंबू
जव
जाइ (सुमणसा
जाउलग
तिम्
जारु
जासुमण
जियंतय
जियंति
जीरा
मंगलई
मंदिरुक्ख
णग्गोह
णल
वणीइया
णागलया
बि
निंबारग
णिग्गुंडी
हु
तउसी
तंदुजग
तंबोली
तक्कलि
तगर
तडवडा
तमाल
तलऊडा
ताल
तिंदुय
हिन्दी शब्द
भोजपत्र
भुंइछत्ता
गिलोयपद्म
क्षीरविदारीकंद
जामुन
जौ
जवासा
चमेली
हींग
गन्धमालती
जारुल
जवाकुसुम
जिवसाग
जीवंती
सफेद जीरा
कलिकारी
तून
छोंकर
देवनल
महामेदा
पानबेल
नीम
वकायन
नील संभालु
तिधारा थोहर
खीरा
चौलाई
पान
अरणी
तगर
तरवड
वरुण
छोटी इलायची
ताड
तेंदुय
341
पृष्ठ
१०८
११२
११३
११४
११५
११६
११७
११८
११६
१२०
१२१
१२२
१२३
१२४
१२५
१२७
१२८.
१२६
१३०
१३१
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१३५
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'१३६
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१४०
१४१
१४२
१४३
१४४
१४५
१४६
१४७
१४८
१४६
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342
जैन आगम : वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
पृष्ठ
प्राकृत शब्द
हिन्दी शब्द
૧૬૨
तिमिर तिल
मेंहदी तिल
१६२
तुलसी
तुलसी
१६४
१६४
१६७
१६८
दंडा दंती दगपिप्पली दधिवासुय दमणग दव्वहलिया दाडिम दासी देवदारु धव धायइ नालिएरि निप्फाव नीली पउय पडोला
गंगेरन लघुदंती जलपीपल धमासा दौना दारुहल्दी अनार नील कटसरैया देवदार
૧૬૬ २०२ २०२ २०३ २०४ २०४ २०७
वेर
१६५
धौं
१६७
२०८
धाय नारियल मोठ
२०६ २०६
नील
भांग
२१२
१५० पुण्णाग
जायफल पुत्तंजीवय जियापोता १५३
पोई १५६
पूयफली (कंदुक्क) सुपारी १५७ फणस
कटहल १५८ फणिज्जय
फागला १४६ फणिज्जय
सफेद मरुवा १६० बउल
मौलसिरी १६१ बंधुजीवग
दुपहरिया १६३ बत्थुल
बथुआ १६४ बदर बाउच्चा
वावची १६६ बिभेलय
बहेडा बिल्ल
बेल १६८ बिल्ली
डिकामाली १७० बिल्ली
चिल्ली १७१ भंगी १७२ भंडी
मजीठ १७४ भत्तिय
चिरायता भद्दमुत्था
मोथा १७६ भल्लाय
भिलावा १७७ भुयरुक्ख
अखरोट १७८
मंडुक्कियसाग मंडूकपर्णी १७६ मंडुक्की
ब्राहमी मज्जार
लालचित्रक १८२ मधु
जल महुआ १८१ मधुररस
मुलहठी मल्लिया १८४ मसूर
मसूर १८५ महुसिंगी
गुडमार १८७ माउलिंग
बिजौरा १८७ माउलिंगी
चकोतरा १८६ माढरी
अतिविषा मालुय
काली तुलसी १६१ मास
उडद
२१४
२१५
पत्त
१७५
२१६
२१७ २१६
पत्तउर पयाल पलंडु पलिमंथु
वच मीठा परवल तेजपत्र पतंग चिरौंजी प्याज काला चना पानडी पाढल पाठा फालसा पालक फरहद
२२१
पाई
१८०
२२१ २२३ २२४ २२४ २२५ २२६
१८३
पाडलि पाढा पारावय पालंका पालियाय पिप्परि
बेला
२२८
पीपर प्रियंगु
पियंगु
पिलुक्खरुक्ख पीयकणवीर पीलु
पाकर पीला कनेर पीलु
२२६ २२६ २३० २३२ २३३
१८६
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जैन आगम वनस्पति कोश
प्राकृत शब्द
मियवालुंकी
मुग्ग
मुग्गणी
मुद्दिया
मुसंढी
मूलय
मोगली
मोग्गर
मोग्गर
रूवी
रोहियंस
लउय
लवंग
लसण
लोयाणी
वंस
वखीर
वच्छाणी
वज्जकंद
वड
बत्थुल (बब्बूल)
वर
वाइंगण
वासंती
विमय
वेणु
वेत्त
वेय
संघाड
हिन्दी शब्द
बडी इन्द्रायण
मूंग
वनमूंग
द्राक्षा
काली मूसली
मूली
व्याघ्र एरण्ड
मोगरा
कमरख
सफेद आक दीर्घरौहिषतृण
बडहर
लौंग
लहसुन
नोनीसाग
वांस
तवखीर
गिलोय
वज्रकंद
वट
बबूल
चीनाघान्य
बैंगन
नेवारी
पद्मकाष्ठ
वांस
बेंत
वेदसादा
सिंघाडा
पृष्ठ
२३५
२३६
२३७
२३७
२३८
२३६
२४१
प्राकृत शब्द
सणकुसुम
सतिवण्ण
सयपुप्फा
सयर
सर
सरल
सरिसव
२४१
सस
२४२
साम
२४७
साम
२४८
सार
२४६
सालि
२५०
सिउंढी
२५१ सिंगवेर
२५२
२५५
२५६
२५६
२५८
२५६
२६०
२६१
२६२
२६३
२६४
२६६
२६७
२६७
२७०
सिंदुवार
सीवणी
सीसवा
सुंब
सुवण जूहिया
सूरणकंद
सेहय
हत्थि पिप्पली
हरडय
हलिद्दा
कुक्कुडमंस
तित्तिरमंस
दीवगमंस
मेढंगमंस
हिन्दी शब्द
शणपुष्पी
छतिवन
सोया
शतावरी
रामसर
चीड
सरसों
हीराबोल
कालीमरिच
कबाबचीनी
खदिर
शालि
कांटा थूहर
अदरख
संभालू
कायफल
सीसम
चूरनहार
पीली जूही
जिमीकंद, सूरण कंद
निर्मली
गज पीपल
हरें
हलदी
चौपतियासाग
मेथी
चित्रक (सफेद)
मेंढासिंगी
343
पृष्ठ
२७१
२७३
२७६
२७७
२७७
२७८
२७६
२८०
२८१
२८.२
२८५
२८६
२८६
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२६०
२६१
२६३
२६६
२६८
३००
३०४
३०५
३०८
३१२
३१४
३१४
३१६
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१. अथर्व चिकित्सा विज्ञान
२.
३.
४.
६.
लेखक - डॉ. हीरालाल विश्वकर्मा, एम. ए. साहित्यायुर्वेदाचार्य
डॉ. उपेन्द्रनाथ द्विवेदी, एम. एस. सी. पी. एच. डी.
(जीव रसायन)
प्रकाशक - कृष्ण अकादमी वाराणसी
प्रथम संस्करण वि.सं. २०४१
अभिधान चिंतामणी कोश
लेखक - कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य अनुवादक-संपादक - • विजयकस्तूरसूरि प्रकाशक- जसवंतलाल गिरधरलाल शाह, अहमदाबाद। वि.सं. २०१३
अभिधान रत्नमाला सं- आचार्य प्रियव्रत शर्मा
काशी हिन्दु विद्यालयीय द्रव्यगुणविभागाध्यक्ष, वाराणसी।
प्रकाशक- चौखम्भा ओरियन्टालिया वाराणसी
प्रथम संस्करण ई. सन् १६७७
अष्टांग संग्रह
श्रीमद् वृद्धवाग्भट विरचित
संपादक - वैद्य अनन्तदामोदरआठबले
परिशिष्ट - ४ ( संदर्भ ग्रन्थ) अकारादि अनुक्रम से ग्रन्थ परिचय
प्रकाशक - महेश अनंत आठबले श्रीमद् आत्रेय प्रकाशनम्, पुणे ।
१ सितम्बर, १९८०
५. आयुर्वेदीय शब्दकोश (संस्कृत संस्कृत मराठी) संपादक - आयुर्वेदाचार्य वेणीमाधव शास्त्री जोशी आयुर्वेद विशारद नारायणहरी जोशी प्रकाशक- महाराष्ट्र राज्य साहित्य आणि संस्कृति मंडल |
सन् १६६८
उत्तरज्झयणाणि
सं. - मुनिनथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) प्रकाशक - जैन विश्वभारती लाडनूं ई. सन् १६७८
७.
८.
उवासकदशा सूत्र
(शुद्ध मूल, शब्दार्थ भावार्थ सहित ) सं. - डॉ. जीवराज घेलाभाई,
एल. एम. एण्ड एस.
उवासगदसा
सं. - मुनिनथमल (आचार्य महाप्रज्ञ ) प्रकाशक - जैन विश्वभारती लाडनूं
सन् १९७४
६. ओवाइयं
जैन आगम वनस्पति कोश
सं.-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) प्रकाशक - जैन विश्वभारती लाडनूं सन् १९७४
१०. कैयदेव निघंटु
संपादक एवं व्याख्याकार आचार्य प्रियव्रत शर्मा डॉ. गुरुप्रसाद एवं शर्मा
प्रकाशक - चौखंभा ओरियन्टालिया वाराणसी प्रथम संस्करण १६७६
११. ग्लोसैरी ऑफ वैजीटेबल ड्रग इन ब्ररथराई लेखक-ठाकुर बलवंतसिंह, एम.एस.सी. आयुर्वेदाचार्य, डॉ. के.सी. चुनेकार ए.एम.एस. चौखंभा संस्कृत सीरिज ऑफिस-वाराणसी प्रथम संस्करण १६७२
१२. चरकसंहिता (उत्तरो भागः )
महर्षिणा भगवताग्निवेशेन प्रणीता प्र. - मोतीलाल बनारसीदास नवम संस्करण दिल्ली १६७५ १३. जंबूद्दीव पण्णत्ती
सं. - मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ ) प्रकाशक - जैन विश्वभारती लाडनूं प्रथम संस्करण सन् १६७४
१४. जीवाजीवाभिगमे
सं. - मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ ) प्रकाशक - जैन विश्व भारती लाडनूं प्रथम संस्करण सन् १९७४
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जैन आगम : वनस्पति कोश
345
१७.
१५. ठाणं
२२. धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग-५ सं.-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ)
सं.-वैद्याचार्य डॉ. उदयलाल महात्मा, प्रकाशक-जैन विश्व भारती लाडनूं
एच.एम.डी.एस. प्रथम संस्करण सन् १६७४
प्रकाशक-वैद्य देवीशरण गर्ग १६. दसवेआलियं
धन्वन्तरि कार्यालय विजयगढ़ सं.-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ)
(अलीगढ़) प्रकाशक-जैन विश्वभारती लाडनूं
फरवरी मार्च १६६६ वर्ष : ४३ अंक : २ प्रथम संस्करण सन् १६७४
२३. धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग-६ धन्वन्तरि निघंटु
विशेष संपादक एवं लेखकसंपादक एवं व्याख्याकार डॉ. झारखण्डे ओझा, वैद्याचार्य उदयलाल महात्मा एच.एम.डी.एस पी.ची.डी. रीडर एवं विभागाध्यक्ष
प्रकाशक-धन्वन्तरि कार्यालय विजयगढ डॉ. उमापति मिश्र एम.डी. (आयुर्वेद)
(अलीगढ़) प्रकाशक-आदर्श विद्या निकेतन वाराणसी
फरवरी मार्च १६७१ प्रथम संस्करण सन् १९८५
वर्ष : ४५ अंक : २३ १८. धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १
२४. निघंटु आदर्श पूर्वार्द्ध सं.-आयुर्वेदसूरि श्री पं. कृष्ण प्रसाद त्रिवेदी बी. लेखक-श्री बापालाल ग. वैद्य ए. आयुर्वेदाचार्य
प्रकाशक-चौखंभा विद्याभवन वाराणसी प्रधान सं.-वैद्य देवीशरण गर्ग आयुर्वेदोपाध्याय सन् १६६८ प्रकाशक-धन्वन्तरि कार्यालय विजयगढ (अलीगढ़) २५. निघंटु आदर्श उत्तरार्द्ध वर्ष : ३५ अंक : २३
लेखक-श्री बापालाल ग. गैद्य १६. धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग-२
प्रकाशक-चौखंभा भारती अकादमी वाराणसी विशेष सं-स्वर्गीय श्री पं. कृष्ण प्रसाद त्रिवेदी बी. सन् १९८४ ए. आयुर्वेदाचार्य
२६. निघंटु शेष द्वितीय संस्करण वर्ष : ३६ अंक : २
आचार्य हेमचंद्र सूरि २०. धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग-३
सं.-मुनिराज श्री पुण्य विजय जी विशेष सं-आयुर्वेदसूरि श्री पं. कृष्ण प्रसाद त्रिवेदी प्रकाशक-लालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कति बी.ए., आयुर्वेदाचार्य
विद्या मंदिर, अहमदाबाद वर्ष : ३६ अंक : २,३ द्वितीय संस्करण
प्रथम संस्करण जून १६६८ प्रकाशक-धन्वन्तरि कार्यालय विजयगढ
२७. पण्णवणा (अलीगढ़)
संपादक-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) २१. धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग-४
प्रकाशक-जैन विश्वभारती लाडनूं संपादक-वैद्य देवीशरण गर्ग आयुर्वेदाचार्य
प्रथम संस्करण सन् १९८४ ज्वालाप्रसाद अग्रवाल बी.एस.सी.
२८. पन्नवणा सूत्र (हिन्दी भाषानुवाद सहित) दाऊदयाल गर्ग ए.एम.बी.एस
सं-बाल ब्रह्मचारी पंडित प्रकाशक-धन्वन्तरि कार्यालय विजयगढ
मुनि श्री अमोलक ऋषि जी (अलीगढ)
प्रकाशक-राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी वर्ष ४१ अंक २ द्वितीय संस्करण
ज्वालाप्रसादजी जौहरी, हैदराबाद
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जैन आगम : वनस्पति कोश
२६. पाइअसद्दमहण्णव
सं.-हरगोविंददास प्रकाशक-प्राकृत टेस्ट सोसायटी बनारस
सन् १६६३ ३०. बृहत् हिन्दी कोश
सं.-कालिकाप्रसाद, राजवल्लभसहाय, मुकन्दीलाल श्रीवास्तव प्रकाशक-ज्ञानमंडल लिमिटेड वाराणसी
पांचवां संस्करण १ जुलाई, १९८४ ३१. भगवई
सं.-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) प्रकाशक-जैन विश्वभारती लाडनूं
प्रथम संस्करण सन् १६७४ ३२ से ३७. भारतीय वनौषधि (बंगला) भाग १ से
६ डॉ. कालिपाद विश्वास श्री एककडि घोष प्रकाशक-कलकत्ता विश्व विद्यालय
सन् १६१७ ३८. भाव प्रकाश निघंटु
श्रीमद्भाव मिश्र प्रणीत सं.-डॉ. गंगासहाय पाण्डेय (ए.एम.एस.) प्रकाशक-चौखंभा भारती अकादमी वाराणसी
सप्तम संस्करण वि.सं. २०४२ ३६. मदनपाल निघंटु
लेखक-नृप मदनपाल विरचित
प्रकाशक-खेमराज श्रीकृष्णदास बंबई, ई.स. ६६० ४०. मैडीकल एन्ड इकोनोमिकल बोटनी
लेखक-जोन लिंडले डी.एफ.आर.एस. ब्राडबरी एवेन्स-द्वितीय, बोवनिरिल स्ट्रीट
एम.डी., ३४६, लन्दन १९८४ ४१. राजनिघंटु
श्रीमन्नरहरि पण्डित विरचित व्याख्याकार-डॉ. इन्द्रदेव त्रिपाठी आयुर्वेदाचार्य बी.आई.एम.एस. डी.एस.सी. (आ.) प्रकाशक-कृष्णदास अकादमी वाराणसी प्रथम संस्करण वि.सं. २०३६
४२. रायपसेणियं
सं-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) प्रकाशक-जैन विश्वभारती लाडनं
प्रथम संस्करण सन् १६७४ ४३. से ५२. वनौषधि चन्द्रोदय भाग १ से १०
लेखक-श्रीचन्द्रराज भंडारी विशारद प्रकाशक-चौखंभा संस्कृत सीरिज ऑफिस बनारस
वि.सं. २०१६ सन् १६५६ ५३. वनौषधि निदर्शिका
लेखक-प्रो. रामसुशीलसिंह प्रकाशक--उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ
द्वितीय संस्करण १६८३ ५४. वनौषधि रत्नाकर द्वितीय भाग
लेखक-वैद्य गोपीनाथ पारीक 'गोपेश' प्रकाशक-धन्वन्तरि कार्यालय विजयगढ़
(अलीगढ़) ५५. वनौषधि रत्नाकर तृतीय भाग
लेखक-वैद्य गोपीनाथ पारीक 'गोपेश' प्रकाशक-धन्वन्तरि कार्यालय विजयगढ (अलीगढ़)
सन् १६४० ५६ वनौषधि रत्नाकर चतुर्थ भाग
लेखक-वैद्य गोपीनाथ पारीक 'गोपेश' प्रकाशक-धन्वन्तरि कार्यालय, विजयगढ़ (अलीगढ़)
सन् १६६२ ५७. वैद्यकशब्द सिन्धुः
संकलित-कविराज उमेशचन्द्र गुप्त कविरत्न प्रकाशक-चौखंभा ओरियन्टलिया वाराणसी
तीसरा संस्करण १६८३ ५८. शब्दकल्पद्रुम भाग २
लेखक-स्यार राजा राधाकान्तदेव बाहादुरेण विरचितः प्रकाशक-चौखंभा संस्कृत सीरिज आफिस वाराणसी १ तृतीय संस्करण वि. संवत् २०२४
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जैन आगम : वनस्पति कोश
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५६. शालिग्रामनिघंटुभूषणम्
लेखक-शालिग्राम वैश्ववर्य विरचित प्रकाशक-खेमराज श्रीकृष्णदास बंबई
प्रथम संस्करण सन् १६८१ वि.सं. २०३८ ६०. शालिग्रामौषधशब्दसागर
लेखक-शालिग्रामवैश्यवर विरचित
प्रकाशक-खेमराज श्रीकृष्णदास बंबई ६१. सुश्रुत संहिता
अनुवादक-अत्रिदेव प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली पंचम संस्करण १६७५
६२. सूरपण्णत्ती
सं-मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) प्रकाशक जैन विश्वभारती लाडनूं
प्रथम संस्करण सन् १६७४ ६३. सोढल निघंटु
लेखक-वैद्याचार्य सोढल विरचित सं-प्रो. प्रियव्रत शर्मा (एम.ए. डबल) ए.एम.एस., साहित्याचार्य प्रकाशक-ओरियंटल इन्स्टीट्यूट बड़ौदा प्रथम संस्करण सन् १६७८
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