________________
जैन आगम वनस्पति कोश
मियवालंकी मियवालंकी (मृगैर्वारु) बड़ी इन्द्रायण भ०२३/६ देखें मियवालुंकी शब्द ।
D...
मियवालुंकी
मियवालुंकी (मृगैर्वारु) बड़ी इन्द्रायण प०१ / ४८ / ४ मृगैर्वारु के पर्यायवाची नाम
वारुणी च पराप्युक्ता सा विशाला महाफला । ।२०३ ।। श्वेतपुष्पा मृगाक्षी च, मृगैर्वारु मृगादनी... २०४ । । विशाला, महाफला, श्वेतपुष्पा, मृगाक्षी, मृगैर्वारु मृगादनी ये सब बड़ी इन्द्रायण के संस्कृत नाम हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादि वर्ग पृ०४०३)
फल
पुष्प
Citrullus colocynthis
Schord
Jain Education International
'लता
कल अफल
बीज
अन्य भाषाओं में नाम
हि. - इनारुन, इन्द्रायण, इन्दायन, इन्द्रारुन । बं० - राखालशा । म० - इन्द्रावण, कडुवृन्दावन, कडुइन्द्रायण । मा० - तूसणबेल, तूसतुंबा, तूस । गु० - इन्द्ररबरणा, इद्रावणा । क० - हानेक्के, हाबुमेक्केकायि ।
235
ते०- एतिपुच्छा, एटिपुच्चा, पुस्तकाय पापर, एटि पुचकाय । ता० - पेक्क्मुट्टी पेदिकारि । कौड, तुम्बी, थोरूम्बा, तुम्बा । फा० - खुरबुज, एतलरव हिन्दबानहे, तल्ख । अ० - इञ्जल अलकम । अंo - Colocynth ( कोलोसिथ) । ले० - Citrullus Colocynthis Schrad (सिट्रयुलस्कोलोसिन् थिस् श्रड्) ।
उत्पत्ति स्थान - यह बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, पश्चिमोत्तर प्रदेश और दक्षिण भारत तथा राजपूताना आदि अनेक प्रान्तों में पाई जाती है। रेतीली भूमि में अधिक उत्पन्न होती है तथा गंगा, यमुना, सोन, सरयू आदि नदियों के दियारे में बाहुल्य से देखने में आती है। जहां यह अधिक रहती है वहां दूसरे अन्न की उत्पत्ति अधिक परिमाण में नहीं होती । इसी कारण किसान लोग इसको समूल नष्ट करने के प्रयास में लगे रहते हैं । यह एशिया एवं अफ्रीका के उष्ण प्रदेशों में भी पाई जाती है।
विवरण - यह लता जाति की वनस्पति वर्षजीवी या बहुवर्षजीवी भी होती है। वर्षा ऋतु के सिवा सब ऋतुओं में मिलती है। वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण रेतीली भूमि के पानी में डूबने से इसकी लता नष्ट हो जाती है, किन्तु जड़ सजीव रहती है और वही वर्षान्त के बाद अंकुरित होकर लतारूप में बढ़कर वसन्त ऋतु तथा गरमी के दिनों में फूल, फल देती है । जिस भूमि
वर्षा का पानी इकट्ठा नहीं होता अथवा नदियों की बाढ़ नहीं आती वहां ऊंची भूमि वाली लता नष्ट नहीं होती बल्किं वर्षा ऋतु में भी फूल, फल देती रहती है। इसकी लता बहुधा भूमि पर फैली एवं स्पर्श में अत्यन्त कर्कश होती है। इसके सूत्र निःशाख या द्विशाख होते हैं । पत्ते विषमवर्ती २ से २.५ इंच के घेरे में लंबे चौड़े, ऊपर से हलके हरे एवं नीचे से धूसर रंग के, स्पर्श में कर्कश, अनियमित, कटे किनारे वाले तथा तरबूज के पत्तों के आकार वाले त्रिकोणाकार होते हैं। खेतों में रोपण की हुई इन्द्रायण के पत्ते बड़े एवं तरबूज के पत्तों के बराबर दिखलाई पड़ते हैं। फूल पांच पंखडी वाले, हलके पीले रंग के तथा व्यास में .५ से ७ इंच होते हैं। फल २ से २.५ इंच के घेरे में गोलाकार, कच्ची अवस्था में हरे रंग के और पकने पर संतरे के समान पीले रंग के सफेद छींटेदार एवं चिकने होते हैं। फलों के भीतर किंचित्
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org