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जैन आगम : वनस्पति कोश
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पलिमंथ
ग्राम) Chick Pea (चिक्पी )। ले०-Cicerarietinum linn
(सीसर एरी एटीनम) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)। पलिमंथ (हरिमन्थ) चना, कालाचना
उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में भ०२१/१५ प०१/४५/१
प्रतिवर्ष इसकी खेती की जाती है। पलिमंथाः कालाचणका इति(स्थानांग वृत्ति पत्र ३२७)
_ विवरण-इसका क्षुप सीधा या फैला हुआ अनेक हरिमन्था काला चणगा (दशवैअ०चू०पृ०१४०) शाखा युक्त, १ से १.५ फीट ऊंचा एवं रोमश होता है, विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पलिमंथ शब्द ओषधिवर्ग
पत्ते पक्षवत् होते हैं, जिनके पत्रक दीर्घवृत्ताभ रोमों से के अन्तर्गत (धान्यशब्दों) के साथ है। स्थानांग वृत्ति में आवत रहते हैं। पुष्प छोटे एकाकी तथा पत्रकोण में आते इसका अर्थ कालाचना किया हुआ है। दशवैकालिक हैं। जो विभिन्न प्रकारों में भिन्न-भिन्न रंग एवं नाम के अगस्त्य चूर्णि में इसी अर्थ में हरिमन्थ शब्द है। इससे होते हैं। फली आयताकार ३/४ से १ इंच लम्बी तथा लगता है पलिमंथ और संस्कृतरूप हरिमन्थ एक अर्थ के प्रायः दो बीजों से युक्त होती है। बीज गोल, नोकदार ही वाचक है। इसीलिए पलिमंथ की छाया हरिमन्थ की .२ से ०.४ इंच व्यास के, चिकने या सिकुड़नदार भूरे, गई है।
पीले या श्वेत रंग के होते हैं। पत्तों पर रहने वाले रोमगंथियोंसे एक प्रकार का अम्लस्राव होता है। चने का रंग तथा नाप के अनुसार कई भेद किये गए हैं।
(भाव०नि० धान्यवर्ग०पृ०६४६)
पलिमंथग पलिमंथग (हरिमन्थ) चना, कालाचना
ठा०५/२०६
देखें पलिमंथ शब्द।
पव्वय पव्वय (पर्वत) पहाड़ीतृण
प०१/४२/१ पर्वततृण के पर्यायवाची नाम
तृणादयं पर्वततृणं, पत्रादयश्च मृगप्रियम्। बलपुष्टिकरं रुच्यं, पशूनां सर्वदा हितम् ।।१३४ ।।
तृणाढ्य, पर्वततृण, पत्राढ्य तथा मृगप्रिय ये सब पर्वततृण के नाम हैं। यह बल तथा पुष्टि को बढाने वाला, रुचिकारक, और हमेशा पशुओं के लिए हितकारक है। .
(राज०नि०व०८/१३४ पृ०२५८)
हरिमंथ के पर्यायवाची नाम
हरिमन्थाः सुगन्धाश्च, चणकाः कृष्णकञ्चकाः
हरिमंथ, सुगन्ध, चणक और कृष्णकञ्चक ये सब चणक के पर्याय हैं। (धन्व०नि० ६/८६ पृ० २६१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-चने, छोला, रहिला, बूंट । म०-हरबरा, चणें। बं०-छोला। गु०-चण्या, चणा। क०-कडले। ता०-कडलै । ते०-सनगलु । फा०-नखूद । अ०-इमस। प०-छोले। अंo-Gram (ग्राम) Bengal Gram (बंगाल
पाई पाई (पाची) पाचीलता, मरकतपत्री
भ०२०/२० प०१/४४/१
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