________________
310
जैन आगम : वनस्पति कोश
हेरुताल वण हेरुतालवण महाशतावरी का वन
जं०२/६
देखें हेरुताल शब्द।
हेरुयालवण हेरुयालवण ( ) महाशतावरी का वन
जीवा०३/५८१ देखें हेरुताल शब्द ।
विवरण-गुडूच्यादि वर्ग एवं यवकुल की जमीन पर प्रसरणशील इस लतारूपी घास के कांड प्रतान एवं ग्रंथियुक्त होते हैं। प्रत्येक ग्रंथि से इसकी मूल निकल कर जमीन से लगी हुई रहती है। पत्र लगभग ३/४ इंच से ४ इंच तक लम्बे, १/२ से १/८ इंच तक विस्तृत रेखाकार । पुष्प १ से २ इंची, पुष्पदंड पर पुष्प हरित, बेंगनी रंग के तथा बीज अत्यन्त सूक्ष्म, २.५ इंची लम्बे होते हैं।
इसके नीली (हरी) और श्वेत ऐसे दो भेद माने जाते हैं। नीली या हरी दूब पर जब किसी कारण सूर्य की प्रत्यक्ष किरणें नहीं पड़ती, तब वही श्वेत वर्ण की हो जाती है तथा इसका अधिक विस्तार नहीं हो पाता। यह अधिक दाहशमक मानी जाती है।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०४६८)
होत्तिय होत्तिय (होत्रीय) सितदर्भ
प०१/४२/१ विमर्श-होत्तिय शब्द वनस्पतिकोषों में नहीं मिला है। इसका पर्यायवाची एक नाम याज्ञेय है। याज्ञेय शब्द का वानस्पतिक अर्थ है सितदर्भ। प्रस्तुत प्रकरण में होत्तिय शब्द तण वर्ग के अन्तर्गत है। इसलिए याज्ञय शब्द का अर्थ होत्तियशब्द के लिए उपयुक्त लगता है। याज्ञेय के पर्यायवाची नाम
कुशो दर्भो हस्वदर्भो याज्ञेयो यज्ञभूषणः श्वेतदर्भः पूतिदर्भो मृदुदर्भो लवः कुशः ।।१२३६ ।। बर्हिः पवित्रको यज्ञसंस्तरः कुतपोऽपरः
कुश, दर्भ, हस्वदर्भ, याज्ञेय, यज्ञभूषण, श्वेतदर्भ, पूतिदर्भ, मृदुदर्भ, लवकुश, बर्हि, पवित्रक, यज्ञसंस्तर, कुतप ये दर्भ के पर्याय हैं। (कैयदेवनि० ओषधिवर्ग०पृ० २२६) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-सफेद दूब । म०-पांढरी दूर्वा । गु०-धोलोध्रो। बं०-सादा दूर्वा | अं-Coachgrass (कौचग्रास) Creeping cynodon (क्रीपिंग साइन डोन)।ले०-CynodonDactylon (साइनोडन डैक्टिलन) Panicum Dactylon (पेनिकम डैक्टिलन)।
उत्पत्ति स्थान-समस्त भारत में सर्वत्र जमीन पर छाई रहती है जलाशयों के किनारे तो प्रचुर परिमाण में होती है। पददलित होती, प्रचण्ड सूर्यताप को सहन करती, किन्तु समूल नष्ट नहीं होती । इसमें अनन्त जीवन शक्ति है।
मांस प्रकरण आगमों में पशु, पक्षी और जलचर के नाम वनस्पति के अर्थ में प्रयक्त हए हैं। कहीं-कहीं इनके नाम के साथ मांस शब्द का प्रयोग भी हुआ है, जिससे ये शब्द चिंतनीय बन गए हैं। सूर्य प्रज्ञप्ति के १० वें पाहुड के १२० वें सूत्र में कृत्तिका नक्षत्र से लेकर भरणीनक्षत्र तक २८ नक्षत्रों का भोजन दिया गया है। उसमें लिखा है- उस नक्षत्र में वे वस्तु खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है।
(१) रोहिणी नक्षत्र में वृषभ मांस, मृगसरा नक्षत्र में मृगमांस, अश्लेषा नक्षत्र में दीपिक मांस, पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र में मेष मांस, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में नखी मांस उत्तराभाद्रपदा में वराहमांस, रेवति नक्षत्र में जलचर मांस अश्विनी नक्षत्र में तित्तिरि मांस खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है।
(२) भगवती सूत्र में उल्लेख है कि गोशाल के द्वारा तेजोलब्धि का प्रयोग करने से भगवान महावीर के शरीर में दाह लग गई। उस समय अपने शिष्य सिंह नामक अणगार को कहा-तुम मेंढियग्राम नामक नगर में रेवती गाथापति के घर जाओ। उसने मेरे लिए दो कपोतशरीर उपस्कृत किया है, उसको मत लाना, लेकिन वासी मार्जारकत कक्कटमांस है उसको ले आना। यहां
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org