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जैन आगम : वनस्पति कोश
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(१/३५) में एगट्ठिया (एकास्थिक) वर्ग है, जिसमें ३२ वनस्पतियों के नाम हैं। एकास्थिक का अर्थ है-एक गुठली वाले। यहां अस्थि शब्द गुठली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। त्वचा, मज्जा, नस, गर्भाशय आदि शब्द भी वनस्पति के विवरण में दिए हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि अस्थि और मांसशब्द वनस्पति के लिए प्रयुक्त हुए हैं। आगे मांसपरक शब्दों की मीमांसा की जा रही है।
कपोतशरीर, मार्जार और कुक्कुटमांस ये शब्द चिंतनीय हैं। ऊपर के दोनों सूत्रों-भगवती और सूर्यप्रज्ञप्ति में शब्दों के साथ मांस शब्द आया है। पहले मांस शब्द विमर्शणीय है। मांस शब्द का अर्थ मांस ही होता है या इसका दूसरा अर्थ भी उपयुक्त हो सकता है। पक्षी या पशु वाचक शब्द वनस्पति विशेष के वाचक हैं। ऐसी मान्यता जैनों में परम्परा से आ रही है। तब मांस शब्द का अर्थ भी वनस्पति के संदर्भ में खोजना आवश्यक हो गया है। इस प्रश्न का समाधान हमें आयुर्वेद के ग्रंथों में ही खोजना होगा। श्रीमद् वृद्धवागभट्ट विरचित अष्टांगसंग्रह के सूत्रस्थान सप्तमोध्याय श्लोक १६८ पृ०६३ पर ध्यान देना होगा।
भल्लातकस्य त्वग् मांस बृंहण स्वादु शीतलम्।। भिलावे की छाल और मांस बृंहण (रस रक्तादिवर्धक). स्वादु तथा शीतल होते हैं । भिलावे के मांस का अर्थ होता है-भिलावे का गूदा भाग।
दूसरा उदाहरण कैयदेव निघंटु के ओषधिवर्ग १५० के श्लोक हैं। श्लोक २५३ और २५४ में बीजपूर (बिजौरा) के पर्यायवाची नाम हैं। श्लोक २५५ और २५६ में उसके गुणधर्म हैं। जो यहां उद्धृत किए जा रहे हैं।
उष्ण वातकफश्वासकासतृष्णावमिप्रणुत्।
तस्य त्वक् कटु तिक्तोष्णा गुर्वी स्निग्धा च दुर्जरा।।२५५ ।।
कमिश्लेष्मानिलहरा मांसं स्वादु हिमं गुरु। बृंहणंश्लेष्मलं स्निग्धं, पित्तमारुतनाशनम् ।।२५६।।
बिजौरे का फल उष्ण वीर्य होता है। वात एवं कफ नाशक, श्वास, कास, तृष्णा तथा वमन को दूर करने वाला होता है। इसके फल की त्वचा-कटुतिक्त, उष्णवीर्य, गुरु, स्निग्ध, चिरपाकी, कृमिहर, कफ और वात को दूर करने वाली होती है।
___ मांस-फल का गूदा-स्वादिष्ट, शीतल, गुरु, बृंहण (धातुवर्धक) कफवर्धक, स्निग्ध तथा वातपित्त को नष्ट करता है।
(कैयदेव निघंटु ओषधि वर्ग०पृ०५१) ऊपर के दो प्रमाणों से स्पष्ट है कि मांस शब्द का प्रयोग वनस्पतियों के गूदे के अर्थ में होता है। प्रज्ञापना
कवोयसरीर कवोयसरीर (कपोतशरीर) मकोय भ०१५/१५२
विमर्श-कपोत का पर्यायवाची एक नाम पारापत है। पारापत के फल कबूतर के अंडों के समान होते हैं। पारापतपदी आयुर्वेद में काकजंघा को कहते हैं । धन्वन्तरि 'निघंटु पृ०१८६ में काकजंघा को काकमाची विशेष माना है। काकमाची शब्द मकोय शाक का वाचक है। पारापत के पर्यायवाची नाम
साराम्लक: सारफलो, रसालश्च पारापतः ।।३२५ ।। कपोताण्डोपमफलो, महापारावतोऽपरः ।।
साराम्ल, सारफल, रसाल ये पारावत के पर्याय हैं. इसके फल कबतर के अण्डों के सदश होते हैं।
(कैयदेव नि० औषधिवर्ग पृ०६२) पारापतपदी के पर्यायवाची नाम
काकजङ्घा ध्वक्षजङ्घा, काकपादा तु लोमशा पारापतपदी दासी, नदीक्रान्ता प्रचीबला।।२०।।
ध्वाक्षजङ्घा काकपादा, लोमशा, पारापतपदी नदीक्रान्ता और प्रचीबला ये काकजंघा (काकमाची विशेष) के पर्याय हैं।
(धन्वन्तरि नि०४/२० पृ०१८६) शास्त्रीय गुणों की दृष्टि से काकजंघा विषमज्वरनाशक, कफपित्तशामक, तिक्त, चर्मरोगनाशक एवं रक्तपित्त बाधिर्य, क्षत, विष एवं कृमि में लाभदायक होनी चाहिए।
(भाव०नि०गुडूच्यादिवर्ग०पृ०४४१) काकमाची के अन्य भाषाओं में नाम
हि०-मकोय, छोटीमकोय। बं०-काकमाची,
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