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(xiii)
अन्य भाषाओं में नाम शीर्षक के अन्तर्गत संस्कृत के अतिरिक्त उपलब्ध भाषाओं में शब्द की पहचान दी गई है। * उत्पत्ति स्थान शीर्षक के अन्तर्गत वनस्पति का उत्पत्ति स्थान बतलाया गया है। * विवरण शीर्षक में उस वनस्पति का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी वर्णन के आधार पर प्रस्तुत शब्दों
की पहचान का प्रयास किया गया है। * चित्र भी वनस्पति के पहचान में सहयोगी बने हैं। * जहां आगम के मूल शब्द की अपेक्षा पाठान्तर शब्द को ग्रहण किया गया है वहां उसके लिए स्पष्टीकरण दिया
गया है। * स्थान-स्थान पर विमर्श शीर्षक के अन्तर्गत शब्द की समीक्षा की गई है। जहां जैसी अपेक्षा हुई उस दृष्टि से
उसकी समीक्षा की गई है। किसी शब्द में एक से भी अधिक विमर्श दिए गए हैं। * विवरण अनेक ग्रन्थों से उद्धृत होने के कारण भाषा की एकरूपता नहीं है। यथासंभव उद्धरण की भाषा को
सुरक्षित रखा गया है। ★ अंग्रेजी और लेटिन भाषा के शब्दों के उच्चारण भी ग्रंथ की भिन्नता के कारण समान शब्द होने पर भिन्न-भिन्न
* ५ वर्षों के श्रम से ४६६ शब्दों में लगभग ४५० शब्दों की पहचान हो पाई है। * पाणि (बेल), दहिवण्ण, महुसिंगी आदि शब्दों की पहचान दो वर्षों के बाद हुई है। सुंब शब्द तो प्रुफ देखते समय
ध्यान में आया। * (१) काय (२) छत्तोव, छत्तोवग (३) दंतमाला (४) परिली (५) पोक्खलत्थिभय (६) भेरुताल (७) मेरुताल (८) वंसाणिय
(६) वट्टमाल (१०) विभंगु, विहंगु (११) वोडाण, वोयाण (१२) सिंगमाल (१३) सिस्सिरिली (१४) सुभग (१५) हिरिली।
ये शब्द अभी भी अन्वेषण मांगते हैं। आभार* गणाधिपति गुरूदेव श्री तुलसी ने संयमरत्न दिया है। समय-समय पर उसकी सार संभाल की है। जीवन निर्माण का मार्गदर्शन दिया है। साहित्य विकास के लिए क्षेत्र दिया है और गति भी दी है।
नस से वंदन करता हूं। * दीक्षा के प्रथम वर्ष से लेकर आज तक आचार्य श्री महाप्रज्ञ की सेवा का मुझे सौभाग्य मिला है। सदा मेरे पर
छत्रछाया रही है। समय-समय पर मार्गदर्शन देकर गति की प्रेरणा दी है। उनका उपकार अनिर्वचनीय है, अनुभव गम्य है। श्रद्धाभरे मानस से नमन कर यही कामना करता हूं कि भविष्य में जीवन के पवित्र ध्येय की पूर्ति के लिए उनका मार्गदर्शन उपलब्ध होता रहे। इस ग्रंथ के लिए भूमिका लिखकर आपने मेरे उत्साह को अतिरिक्त बल दिया है। इस असीम कृपा को शब्दों में अभिव्यक्त देना संभव नहीं है। मुनि श्री दुलहराज जी के साथ ४७ वर्ष तक सह जीवन जीया है। जीवन में सदा सहयोगी रहे हैं। समय-समय पर सुझाव देकर मार्ग को प्रशस्त किया है। विकास में उनकी प्रेरणा सदा मूल्यवती रही है। इस ग्रंथ में भी उनकी प्रेरणा रही है। उनके प्रति आभार प्रदर्शन औपचारिक ही होगा, पूर्ण नहीं। मुनि श्री धनंजयकुमार जी साहित्य संपादन में कुशल हैं। उनका अनुभव परिपक्व है। इस ग्रंथ में मैंने उनके
अनुभवों का लाभ उठाया है। उनके प्रति भी हृदय से कृतज्ञ हूँ| * मुनि सन्मतिकमार जी और मनि जयकुमार जी का श्रम भी मेरे लिए मल्यवान रहा है। इन दोनों ने मेरे काम __ में हाथ बंटा कर मुझे समय उपलब्ध कराया है। इनके श्रम को भुलाया नहीं जा सकता। * जैन विश्व भारती मान्य विश्वविद्यालय के कुलाधिपति जैन विद्यामनीषी श्रीचंदजी रामपुरिया का चिंतन और अनुभव
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