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जैन आगम वनस्पति कोश
एवं गंधहीन होती है। बीजों को तथा उसके तेल को खाने के काम में लाते हैं । ( भाव०नि० शाकवर्ग पृ० ६८०)
श्वेत कद्दू के पत्ते बहुत ही मुलायम और प्रायः श्वेत धब्बों से होते हैं। लाल कद्दू का सर्वांग शाक रूप युक्त में खाया जाता है। श्वेत का सर्वांग इस प्रकार काम में नहीं आता । केवल इसके कच्चे फलों का शाक बनाया जाता तथा पके फलों की टुकड़ीदार मिठाई (पेठा ) आदि बनाते । औषधि रूप में तो इनके फल (स्वरस) बीज, तैल, पत्रादि काम में आते हैं।
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० ८२)
कुहग
कुहग (कुहक) ग्रन्थिपर्ण, गठिवन उत्त०३६/६८ कुहक : (पुं) ग्रन्थिपर्णवृक्षे । वैद्यक निघु
(वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ३०२ )
ग्रन्थिपर्ण के पर्यायवाची नाम
ग्रन्थिपूर्ण ग्रन्थिकश्च, काकपुच्छश्च गुच्छकम् । नीलपुष्पं सुगन्धञ्च कथितं तैलपर्णकम् ||१०७ ।। ग्रन्थिपर्ण, ग्रन्थिक, काकपुच्छ, गुच्छक, नीलपुष्प सुगन्ध और तैलपर्णक ये सब संस्कृत नाम गठिवन के हैं। (भाव०नि० कूर्परादिवर्ग श्लोक १०७ पृ० २५२) विमर्श - गठिवन का स्वरूप भी संदिग्ध है। स्थौणेयक और चोरक नामक दो ग्रन्थिपर्ण के भेद दिए गए हैं, वे भी संदिग्ध ही हैं। कुछ विद्वान इन तीनों नामों को एक दूसरे का पर्याय मानते हैं। श्री शालिग्राम जी इसको आसाम में बहुत होने वाली तृणजाति की गांठदार सुगंधित वनस्पति को माना है। श्री डा० वा०ग० देसाई ने ग्रन्थितृण नाम से एक वनस्पति का वर्णन किया है। उसके गुण शास्त्रीय ग्रन्थिपर्ण से मिलते नहीं फिर भी सादृश्य होने से उसका संक्षेप में वर्णन यहां दिया जाता है ।
अन्य भाषाओं में नाम
सं०- ग्रन्थितृण । हि० - केस्री मचोटी । पं०मटि, केसु । काश्मी०-द्रोब । सिं०- एंद्राणी । इरा०झार बंदुक अंo - Knot grass (नॉट् ग्रासं ) । ले० - Polygonumaviculare linn (पॉलिगोनम् एविक्युलेर
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लिन०) Fam, Polygonaceae (पॉलिगोनॅसी)। उत्पत्ति स्थान - यह काश्मीर से कुमाऊं तक ६ से १२ हजार फीट की ऊंचाई में होता है।
विवरण - इसका छोटा सा क्षुप होता है। जड़ लम्बी कुछ काष्ठमय एवं चिमड़ी होती है तथा उससे अनेक उपमूल निकले रहते हैं। शाखाएं बहुत सी जमीन पर फैली हुई एवं गोल होती है। इसकी टहनियों की ग्रंथियां बहुल गांठदार होती हैं तथा वहीं से पत्र निकलते हैं। पत्र एकान्तर, शल्याकृति, अखंड, धूसर रंग के एवं १ इंच से छोटे होते हैं। पुष्प श्वेत या लाल रंग के होते हैं। फल त्रिकोणयुक्त हरे एवं अग्र पर सूक्ष्म झुर्रीदार चमकीले एवं काले होते हैं।
सिंध में बीजों को बीजबंद कहते हैं। बला के बीजों को भी अनेक स्थानों में बीजबंद कहा जाता है। (भाव०नि० कपूर्रादिवर्ग० पृ० २५३)
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कुहण
कुहण (कुहक ) ग्रन्थिपर्ण
प० १/४७
विमर्श - उपलब्ध निघंटुओं और आयुर्वेदीय शब्दकोशों तथा अन्यकोषों में कुहण शब्द का वनस्पतिपरक अर्थ नहीं मिलता है। उत्तराध्ययन ३६/६८ में कुहग शब्द है जिसकी छाया कुहक होती है। भगवती सूत्र २३ / ४ में कुहण शब्द के स्थान पर कुहुण शब्द है । कोषों में कुहक और कुहुक दोनों शब्द मिलते हैं और दोनों का अर्थ भी एक ही है। इससे लगता है कुहण की छाया कुहक ही होनी चाहिए ।
कुहकः । पुं । ग्रन्थिपर्णवक्षे । (वै०नि०)
देखें कुह शब्द |
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(वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ३०२ )
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कुहुण
कुहुण (कुहुक) ग्रन्थिपर्ण
भग० २३/४
विमर्श - उपलब्ध निघंटुओं और आयुर्वेदीय शब्द कोशों तथा अन्य कोषों में कुहुण शब्द नहीं मिलता है कुहुक शब्द मिलता है। प्रज्ञापना १/४७ में कुहुक और
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