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प्रियंगु, फलिनी, कान्ता, लता, महिलाह्वया (स्त्रीवाची सभीशब्द) गुन्द्रा, गन्धफला, श्यामा, विष्वक्सेनाङ्गना, प्रिया ये सबक संस्कृत नाम प्रियंगु के हैं। (भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग पृ०२४८)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - प्रियंगु, फूलप्रियंगु, गंधप्रियंगु, वुडुड, बूढीघासी, डइया, दहिया | बं० - मथुरा | नेपा० - दयाली, श्वेतदयालो । पं० - सुमाली । ले०- CallicaraPa macraphylla Vahi (कॅलिकार्पा मॅक्रोफाइला बाह ) ।
उत्पत्ति स्थान - यह जंगलों के किनारे घाट और ऊंची चढाइयों तथा खुले हुए जंगल और परती भूमि में होता है । यह नेपाल देहरादून के जलप्रायः स्थानों में, बंगाल तथा बिहार के अनेक स्थानों में पाया जाता है। विवरण- इसका गुल्म ४ से ८ फीट ऊंचा और तूल रोमश होता है । शाखाएं अनियमित रूप से फैली रहती हैं। पत्ते ५ से १० इंच लम्बे, अंडाकार या अंडाकार भालाकार लंबाग्र ऊपर चिकने, नीचे तूलरोमश एवं किनारा गोल दन्तूर होता है । पुष्प गुलाबी सघन, द्विविभक्त, १ से ३ इंच व्यास के गुच्छों में आते है । फल सफेद एवं १२ से १८ इंच व्यास के होते हैं। डालियां पुष्पगुच्छों के बोझ से झुक जाती हैं। इसकी छोटी-छोटी प्रियंगुधान्यसदृश पुष्पकलिकाएं फूलप्रियंगु के नाम से मिलती हैं। इसमें मसलने पर गंध भी आती है। ग्रामीण लोग गंठियां में इसकी पत्तियों से सेक करते हैं। (भाव०नि० कर्पूरादि वर्ग० पृ०२५०)
पियय
पियय ( प्रियक) विजयसार प्रियक |पुं । सर्जकः प्रियक के पर्यायवाची नाम
ओव्ह (आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ०६३६)
असनस्तु महासर्ज, सौरि बन्धूकपुष्पकः । प्रियको बीजकः श्यामः, सुनीलः प्रियशालकः । ।११५ ।। असन, महासर्ज, सौरि, बन्धूकपुष्पक, प्रियक. बीजकश्याम, सुनील और प्रियशालक ये असन के पर्याय (धन्व०नि० ५/११५ पृ०२५५)
हैं।
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जैन आगम वनस्पति कोश
पियाल
पियाल (प्रियाल) चिरौंजी
भ०२२/२ ओ०६ जीवा०३/५८३ ५०१ / ३५/२ विमर्श - प्रज्ञापना १/३५ / २ में पियाल शब्द एकास्थिकवर्ग के अन्तर्गत है । चिरौंजी की गुठली होती है और उसीमें से फोडकर चिरौंजी निकालते हैं। इसलिए यहां चिरौंजी अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। प्रियाल के पर्यायवाची नाम
प्रियालोऽथ खरस्कन्धश्चारो, बहुलवल्कलः । स्नेहबीजश्चावपुटो, ललनस्तापसप्रियः । । ६५ ।। प्रियाल, खरस्कंध, चार, बहुवल्कल, स्नेहबीज, अवपुट, ललन और तापसप्रिय ये प्रियाल के पर्यायवाची हैं । ( धन्व०नि०५ / ६५ पृ०२३८) अन्य भाषाओं में नाम
हि० - चिरौंजी, चिरोंजी। बं० - चिरौंजी, पियाल । म० - चारोली । गु० - चारोली । क० - चारनीज नरकल । ते० - सारुपपु । ता० - मुडइमा । फा० - नुकले खाजा नुकूलख्वाजह। अं०-हब्बुस्समाना, हब्बुलअमनह । ले०—Buchanania Latifoliae Roxb (बुँचननिया लेटिफोलिया) Fam. Anacardicea (ॲनेकार्डिएसी) ।
उत्पत्ति स्थान - इसके वृक्ष भारत के उष्ण- शुष्क विशेषतः उत्तर पश्चिमी प्रदेशों की पहाड़ी भूमि पर हिमालय, मध्यभारत, उड़ीसा, छोटानागपुर और वर्मा में अधिक होते हैं।
विवरण- फलवर्ग एवं आम्रकुल का यह वृक्ष सीधा, मध्यमाकार का ४० से ५० फुट तक ऊंचा, शाखायें चारों ओर फैली हुई, बहुत कच्ची छाल १ इंच तक मोटी, धूसर कृष्णवर्ण की, पत्र ६ से १० इंच लम्बे, ६-६ इंच चौड़े श्याम, हरितवर्ण के नोकदार, कड़े खुरदरे, कोमल, रोमयुक्त पत्रवृन्त बहुत ही छोटा, पुष्प शाखाओं में ऊपर की ओर, मंजरियों में छोटे-छोटे नीलाभ श्वेतवर्ण के । फल लम्बे सीकों पर, गोल, छोटे, कुछ चपटे, मांसल, कच्ची दशा में हरे, पकने पर लाल, जामुनी श्याम वर्ण के लगते हैं। कच्चा फलखट्टा किन्तु ग्रीष्म काल में परिपक्व हो जाने पर इसका ऊपरी गूदा रसीला, मधुराम्ल फालसेजैसा होता है। इसमें पुष्प और फल
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